अठारहवीं सदी के भारत का चेहरा भीष्म साहनी के उपन्यास मैयादास की माड़ी में उभरता है जिसमें उपनिवेश काल है, ब्रिटिश साम्राज्यशाही का लोलुप चरित्र है, अतीत में डूबा और परम्पराओं में जकड़ा जनजीवन है, जिसके लिए जीवन का अर्थ सुबह से शाम हो जाने जितना ही सहज और सामान्य है। किसी किस्म के बौद्धिक, आत्मिक और वैज्ञानिक विकास के लिए इस सुबह और शाम के बीच कोई गुंजाईश कम से कम सोच के स्तर पर नहीं है। इस उपन्यास की विस्तृत चर्चा शब्दों का सफर पर की है। यहां पेश है पुस्तक का एक महत्वपूर्ण अंश जो सवा सौ साल पहले के भारतीय जनजीवन में आ रहे बदलाव का जीता जागता नजारा प्रस्तुत करता है। पेशावर से कराची तक बिछाई जा रही ग्रांड ट्रंक लाईन जब मय्यादास की माड़ी के नज़दीक से गुज़रती है, तब उस कस्बे के लोगों की दिलचस्प बातों को इस अंदाज़ में सिर्फ भीष्म जी ही दर्ज कर सकते थे-
1 comment:
बेहतरीन अंश चुन कर लगाया आपने अजित भाई. आभार.
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