आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें
इन पंक्तियों को लिखने वाले साहिर लुधियानवी साहब आज ही के दिन पैदा हुए थे. हिन्दी फ़िल्मों के गीतों को एक नया आयाम देने वाले इस अज़ीम शायर ने अपने इकलौते दीवान ’तल्ख़ियां’ के पहले सफ़े पर लिखा था:
दुनिया ने तज़ुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूं मैं
शुद्धतावादी उर्दू शायरों की जमात ने साहिर को कभी भी बड़ा शायर इस लिए नहीं माना कि उनकी ज़बान बहुत सादा थी. साहिर को उर्दू साहित्य की अगली पांत में बैठने की जगह मिले या न मिले यह तय है कि वे अपने प्रशंसकों के दिल पर उसी तरह राज करते रहेंगे.
पहले पढ़िये उनकी एक मशहूर नज़्म:
वो सुबह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इन्सानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा
चाहत को न कुचला जाएगा, इज्जत को न बेचा जाएगा
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीक न मांगेगा
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
फ़ाक़ों की चिताओ पर जिस दिन इन्सां न जलाए जाएंगे
सीने के दहकते दोज़ख में अरमां न जलाए जाएंगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
अब सुनिये, देखिये फ़िल्म हम दोनों के लिए साहिर का लिखा एक भजन (यूट्यूब से साभार). कम्पोज़ीशन जयदेव की है.
6 comments:
बहुत बेहतरीन, अभी हाल ही में उनकी एक किताब भी आई है...
चार पंग्तियाँ और...
चंद कलियाँ निशात की चुनकर
मुद्दतों महवे यास रहता हूँ
तुझसे मिलना खुशी की बात सही
तुमसे मिलकर उदास रहता हूँ...
'वो सुबह...' , ये मेरे वालिद सा'ब का इकलौता पसंदीदा फ़िल्मी गीत रहा. साहिर का कोई जवाब नहीं. वो उस झूठी रूमानियत के सच्चे कवि थे जो अब मर चुकी है .
Thnx for the video too!
सुना है,सुबह आन्ख खुल्ते ही ज़ोर से चिल्लाते थे-चाय,और फिर दिन भर मे ज्यादातर वक्त दोस्तो के साथ/वो भी सिर्फ़ उन्ही के साथ जो होस्लाह फ़्जाई जान्ते हो / सुना है गालिब को भी सब से बडा शायर नही मान्ते थे,केह्ते थे उन्से बेह्तर कोइ नही /उन्की माताजी के साथ बम्बई आ गये थे /
wikipedia पर relationships मे जो लिखा है,पता नही क्यो लेकिन पसन्द नही आया..सही नही लगा/
क्योन्की सुना है उन्की शादी न होने क कारन उन्की माताजी का over-possesiveness था /
और अम्रिता प्रितम को वे हमेशा केह्ते थे की उन दोनो का मेल नही क्योन्की वे(अम्रिता)बहुत जादा सुन्दर है /
हाथ पे autograph लेने और बद्ले मे स्याही मे डुबा अन्गुथा लगाने का किस्सा भी इन्ही दोनो का है /
scooter पर पीछे बैथे-२ ,driver की shirt पर कई बार साहिर लिख्नने का भी किस्सा इन्ही दोनो का है /
बात की बाते है दोस्तो..............
सुबह सुबह इतनी बेहतरीन रचना पढ ली बस दिल खुश हो गया।
सही में वो हमेशा दिलो पे राज करते रहेंगे..
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