Thursday, May 13, 2010

कि जंगल आज भी उतना ही ख़ूबसूरत है

वेणु गोपाल (२२ अक्तूबर १९४२ - १ सितम्बर २००८) के निधन के बाद हमने वीरेन डंगवाल का एक मार्मिक संस्मरण यहां लगाया था. वेणुगोपाल बड़े कवि थे - आदमी की पक्षधरता और सतत उम्मीद उनकी कविताओं की ख़ासियत हैं. उनकी एक कविता प्रस्तुत है:



काले भेडि़ए के ख़िलाफ़

देखो
कि जंगल आज भी उतना ही ख़ूबसूरत है। अपने
आशावान हरेपन के साथ
बरसात में झूमता हुआ। उस
काले भेड़िए के बावजूद
जो
शिकार की टोह में
झाड़ियों से निकल कर खुले में आ गया है।

ख़रगोशों और चिड़ियों और पौधों की दूधिया
वत्सल निगाहों से

जंगल को देख भर लेना
दरअसल
उस काले भेड़िए के ख़िलाफ़ खड़े हो जाना है जो
सिर्फ़
अपने भेड़िए होने की वज़ह से
जंगल की ख़ूबसूरती का दावेदार है

भेड़िए
हमेशा हमें उस कहानी तक पहुँचाते हैं
जिसे
वसंत से पहले
कभी न कभी तो शुरू होना ही होता है और
यह भी बहुत मुमकिन है
कि ऎसी और भी कई कहानियाँ
कथावाचक के कंठ में
अभी भी
सुरक्षित हों। जानना इतना भर ज़रूरी है
कि हर कहानी का एक अंत होता है। और
यह जानते ही
भविष्य तुम्हारी ओर मुस्करा कर देखेगा। तब
इतना भर करना
कि पास खड़े आदमी को इशारा कर देना

ताकि वह भी
भेड़िए के डर से काँपना छोड़
जंगल की सनातन ख़ूबसूरती को
देखने लग जाए।

3 comments:

  1. सिर्फ एक शब्द, बेहतरीन !

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  2. वेणुगोपाल जी की रचना: अद्भुत!!

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  3. ख़ूबसूरती बनी रहे
    कहानी अपने अंत को प्राप्त करे
    और हम ख़ूबसूरती को देखते रहें
    भेडियों के सामने

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