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महमूद दरवेश की कविताएं - ८

सहृदय ग्रामीण
मैं तब तक नहीं जानता था अपनी मां के जीवन के तौर तरीकों के बारे में
न उसके परिवार के, जब समुद्र से जहाज़ आए थे.
मुझे अपने दादाजी के लबादे
और जब से मैं यहां पैदा हुआ, एक ही बार में, किसी घरेलू पशु की तरह
मैंने कॉफ़ी की अनन्त महक को जान लिया था.
धरती के चक्के से गिरने पर हम भी रोया करते हैं.
तो भी हम पुराने मर्तबानों में नहीं सम्हालते अपनी आवाज़ें.
हम पहाड़ी बकरी के सींग नहीं टांगते दीवारों पर
और अपनी धूल को नहीं बनाते अपना साम्राज्य.
हमारे सपने दूसरों की अंगूर की बेलों पर निगाह नहीं डालते.
वे नियम नहीं तोड़ते.
मेरे नाम में कोई पंख नहीं थे, सो मैं नहीं उड़ सकता था दोपहर से आगे.
अप्रैल का ताप गुज़रते मुसाफ़िरों के बलालाइकों जैसा होता था
वह हमें फ़ाख़्तों की तरह उड़ा दिया करता था.
मेरा पहला भय: एक लड़की का आकर्षण जिसने
रिझाया मुझे अपने घुटनों पर से दूध सूंघने को, लेकिन मैं उस डंक से भाग आया!
हमारे पास भी अपना रहस्य होता है जब सूरज गिरता है सफ़ेद पॉपलरों पर.
हम एक उद्दाम इच्छा से भर जाया करते कि उस के लिए रोएं जो बिना वजह मर गया
और एक उत्सुकता से कि बेबीलोन देखने जाएं या दमिश्क की कोई मस्ज़िद.
दर्द की अमर महागाथा में हम किसी फ़ाख़्ते की कोमल आवाज़ में आंसू की बूंद हैं
हम सहृदय ग्रामीण हैं और हमें अपने शब्दों पर अफ़सोस नहीं होता.
दिनों की तरह हमारे नाम भी समान हैं.
हमारे नाम हमें प्रकट नहीं करते. हम अपने मेहमानों की बातों को जज़्ब कर लेते हैं.
हनारे पास उस अजनबी औरत को उस देश के बारे में बताने को बातें होती हैं
जिन्हें वह अपने स्कार्फ़ पर काढ़ रही होती है
लौट रही अपनी गौरैयों के पंखों की किनारियों से.
जब जहाज़ आए थे समुद्र से
इस जगह को सिर्फ़ पेड़ थामे हुए थे.
हम गायों को उनकी कोठरियों में भोजन दे रहे थे
और अपने हाथों बनाई आल्मारियों में अपने दिनों को तरतीबवार लगा रहे थे.
हम घोड़ों को तैयार कर रहे थे, और भटकते सितारे का स्वागत.
हम भी सवार हुए जहाज़ों पर, रात में हमारे जैतून में जगमग करते पन्ने
हमारा मनोरंजन करते थे,
से आने वाली महक का पता था,
और कुत्ते जो गिरजाघर की मीनार के ऊपर गतिमान चांद पर भौंक रहे थे
हम निडर थे तब भी.
क्योंकि हमारा बचपन नहीं चढ़ा था हमारे साथ.
हम एक गीत भर से सन्तुष्ट थे
जल्द ही हम अपने घर वापस चले जाएंगे
जब जहाज़ उतारेंगे अपना अतिरिक्त बोझा.
*बलालाइका: एक पारम्परिक रूसी वाद्य यन्त्र
(चित्र: वान गॉग की मशहूर कृति द पोटैटो ईटर्स)
एक सार्थक पहल और उसके सतत निर्वाह पर बधाई
ReplyDeleteकॉफी की महक की तरह ही इस कविता की भी महत अनंत...आह!
ReplyDelete---
तीन साल के कबाड़खाने को बधाई।
3 वर्ष की बधाईयाँ। इन कविताओं को पढ़ वहाँ के परिवेश के बारे में बहुत कुछ जानने को मिल रहा है।
ReplyDeletemahmood darvesh par ye shrinkhla hindi walon ke liye behad kam kee hai. interview ki agli kadee kee prateeksha hai.
ReplyDeletecongrats
ReplyDeletekeep it up..
Thanks for all the things.
jitendra
स्मरणीय कार्य ! मेरी बधाई स्वीकारें !
ReplyDeletekabad khana ke kabadi ko badhai ho.
ReplyDeleteबधाई हो बधाई:)
ReplyDeleteइन तीन सालों के लिये बधाई अशोक भाई ।
ReplyDeleteऐसी ही अच्छी अच्छी चीज़ें यहाँ पढने को मिलती रहें ..आमीन ।