
अपना देस फिर अपना होता है ,
अपनी बोली-बानी,भेस,पुरवा-बसन्ती ,
मालपुवा, चिवड़ा, भाजी, दिवाली, घरवाली , तरकारी,
कपास की कमीज़ अंगरेजी काट की
और क्या बात है साहब कुतुब की लाट की
अपना देस फिर अपना होता है
लेकिन क्यों नहीं होतीं सब सड़कें धुली-पुछी सी ,
थूकते क्यों है लोग इतना के अरब सागर में पानी जितना ,
लाइन में खड़े होना या के फिर साइकिल ही चलाना
या पैदल ही चल लेने में आबरू क्यों डाउन जाती है
और वो झंडु बाम वाली पतुरिया काहे इतना कमर हिलाती है
और क्यों कभी संझा के झुटपुटे में झोला उठाए दफ़्तर छोड़ने से पहले ६० डिग्री नमकर
क्यों नहीं कहते कबहुँ, कभी, किसी भी रोज़ मेरे देसवासी भी
---– ओस्कारे समादेश्ता.... ओस्कारे समा.....यानि आपने आज जो मेहनत की बाउजी उसका धन्यवाद ।
बहरहाल अपना देस फिर अपना होता है......
अपने देश की बयार और सोंधापन।
ReplyDeletewaah, bahut sunder.
ReplyDeletewaah, bahut sunder.
ReplyDeletebahut badiya our bilkul sahee.
ReplyDeleteGood to see you there!
ReplyDeleteWhat shocked me was Munish Bhai trying his hand at free verse!
:)
Cheers! Hope you are having a nice time there Bro!
India means homesickness
ReplyDeleteसच कहा आपने...इस दिलकश रचना के लिए बधाई....
ReplyDeleteनीरज
Shukria dosto.
ReplyDeleteथूकते क्यों है लोग इतना के अरब सागर में पानी जितना --सही कही :)
ReplyDeletebahut khoob!
ReplyDeletebahut khoob!
ReplyDeleteमुनीश भाई आपकी बेलाग टिप्पणियों का तो पहले से ही कायल था, अब मुरीद हो गया हूँ. शुक्रिया !
ReplyDeleteवाह. पर मैं तो यहां आज ही आया बरास्ता फ़ेसबुक. अच्छा लगा :-)
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