Wednesday, March 30, 2011

इस दश्त में इक शहर था

मोहसिन नक़्वी साहब और की जुगलबन्दी के क्रम को जारी रखते हुए आज सुनिये यह सुप्रसिद्ध ग़ज़ल. ग़ज़ल के शुरू होने से पहले गु़लाम अली, जाहिर है अपनी ट्रेडमार्क शैली में कुछ और भी सुनाते हैं.




ये दिल ये पागल दिल मेरा क्यों बुझ गया आवारगी
इस दश्त में इक शहर था वो क्या हुआ आवारगी

कल शब मुझे बे-शक्ल सी आवाज़ ने चौँका दिया
मैं ने कहा तू कौन है उस ने कहा आवारगी

ये दर्द की तन्हाइयाँ ये दश्त का वीराँ सफ़र
हम लोग तो उक्ता गये अपनी सुना आवारगी

इक अजनबी झोंके ने जब पूछा मेरे ग़म का सबब
सहरा की भीगी रेत पर मैं ने लिखा आवारगी

कल रात तन्हा चाँद को देखा था मैं ने ख़्वाब में
'मोहसिन' मुझे रास आयेगी शायद सदा आवारगी

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