Saturday, July 14, 2012

वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है

परवीन शाकिर की एक और  ग़ज़ल –

खुली आँखों में सपना झाँकता है
वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है

तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन मोर बन के नाचता है

मुझे हर कैफ़ियत में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है

मैं उसकी दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे मेरी रिज़ा से माँगता है

किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है

(दस्तरस हाथ की पहुँच, रिज़ा स्वीकृति)

4 comments:

  1. अभी अभी अहा !ज़िंदगी में भी इन्‍हीं की ग़ज़ल पढ़ी है । अच्‍छा कलेक्‍शन है ।

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  2. बहुत सुंदर, परवीन शाकिर अच्छी शायरा हैं।

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  3. क्या बात है, परवान जी, बहुत खूब

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