“ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती” – साहिर लुधियानवी.
ता ज़िन्दगी आदमी इस मुगालते में जीता है कि उसकी इच्छें
पूरी होंगी, लेकिन आखिरकार वह खाली हाथ यहाँ से चला जाता है. उसके मर चुकने के बाद
लोगों को उसकी कीमत समझ में आ पाती है, अगर वह तकदीर वाला हुआ तो. महान संगीत
निर्देशक गुलाम मोहम्मद की भी यही नियति रही. समूची ज़िन्दगी संगीत पर वार देने के
बावजूद उन्हें कुछ मिला नहीं. भारतीय सिनेमा की भ्रष्ट और कीच्भारी राजनीति के एक
बड़े शिकार ग़ुलाम मोहम्मद भी थे.
संगीत प्रेमियों के कानों में ‘पाकीज़ा’ के गीत आज भी किसी
ताज़ा हवा की मानिंद तेरा करते हैं. “चलो दिलदार चलो”, “इन्हीं लोगों ने ले लीना”
और “चलते चलते मुझे कोई मिल गया था” भारतीय सिनेमा संगीत के मील के पत्थरों में
शुमार होते हैं. ‘पाकीज़ा’ में दिया गया ग़ुलाम मोहम्मद का संगीत अब अमर हो चुका है.
ग़ुलाम मोहम्मद को संगीत विरासत में मिला था उनके वालिद नबी बख्श
एक मशहूर तबलानवाज़ थे. पिता-पुत्र की जोड़ी ने अलबर्ट थियेटर में असंख्य बार
परफ़ॉर्मेंस दी थीं. ग़ुलाम मोहम्मद को इस थियेटर में पक्की नौकरी मिलते ही अलबर्ट
थियेटर की माली हालत डगमगा गयी और उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा. अब उन्होंने
एक कम्पनी के ऑर्केस्ट्रा में काम हासिल किया. आखिरकार १९२४ में ग़ुलाम मोहम्मद
बंबई चले आए. आठ साल के संघर्ष के बाद उन्हें सरोज मूवीटोन्स प्रोडक्शन की ‘राजा
भर्तृहरि’ में काम करने का अवसर मिला. उनके काम को पहचाना गया और वे लोकप्रिय हुए.
उन्होंने अनिल बिस्वास और नौशाद सरीखे संगीत निर्देशकों के साथ काम किया. ‘संजोग’
से लेकर ‘आन’ तक वे नौशाद के असिस्टेंट रहे. नौशाद के संगीत में उनके बजाए तबले और
ढोलक के पीसेज़ एक तरह से मोटिफ़ का काम करते थे.
‘आन’ के बाद ग़ुलाम मोहम्मद ने स्वतंत्र काम करना शुरू कर
दिया. ‘पारस’, ‘मेरा ख्वाब’. ‘टाइगर क्वीन’ और ‘डोली’ जैसी फिल्मों से ग़ुलाम मोहम्मद
ने अपनी जगह बनाना शुरू किया. उन्होंने ‘पगड़ी’, ‘परदेस’, ‘नाजनीन’, ‘रेल का डिब्बा’,
‘हूर-र-अरब’, ‘सितारा’ और ‘दिल-ए-नादान’ में भी संगीत दिया. अगर उनकी धुनों को
सरसरी सुना जाए तो उनमें एक तरह का दोहराव नज़र आता है पर संजीदगी से सुनने पर उनके
गीतों की खुसूसियत ज़ाहिर होना शुरू करती है. उनकी उत्कृष्टता के नमूनों के तौर पर ‘कुंदन’
का गाना “जहां वाले हमें दुनिया में क्यों पैदा किया ...” और ‘शमा’ का “दिल गम से
जल रहा है पर धुआँ न हो ...” के ज़िक्र अक्सर किया जाता है.
फ़िल्मी गीतों में मटके को बाकायदा एक वाद्य की तरह प्रयोग
करने वाले ग़ुलाम मोहम्मद पहले संगीतकार थे. ‘पारस’ और ‘शायर’ फिल्मों के गीतों में
इनका स्पष्ट प्रयोग देखा जाता है.
फ़िल्म ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ के लिए उन्हें राष्ट्रपति सम्मान दिया
गया. सिचुएशन-फ्रेंडली धुनें बनाना ग़ुलाम मोहम्मद की विशेषता थी.
लेकिन उनका सबसे बड़ा शाहकार थी ‘पाकीज़ा’. बदकिस्मती से यह
फ़िल्म उनकी मौत के बाद जाकर रिलीज़ हो सकी.
1 comment:
मीठी यादों को संजोये एक यादगार पोस्ट...
आभार
अनु
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