Friday, October 4, 2013

एक बारिश जो थी मेरा टपकता हुआ घर


काबुलीवाला

-वीरेन डंगवाल   


मुझे प्रेम करने की आदत पड़ चुकी है 

दरअसल एक तकियाकलाम हूं मैं 
मुझे दोहराओ-दोहराओ 
पुराने गाने की एक प्रीतिकर धुन 

अपने लबादे से निकाल कर 
तुम्‍हें दूंगा मैं 
डोरियों वाला कपड़े का बटुआ 
और रहस्‍यमय चिलगोजे 
दिखाऊंगा 
रूपहली लडियों से झमकता 
एक दुपलिया दस्‍ती शीशा 
जो खुल जाता है किताब की तरह 


एक बादल जो दरअसल एक नम दाढ़ी था 
एक बारिश जो थी मेरा टपकता हुआ घर 
एक ख्‍वाब 
ऐसा ऊभ-चूभ कि चूता था 
भौंहों तक से आंसू सरीखा 
एक तलब 
इतनी हसीन अपनी बेताबी में 

एक फरेब 
जानबूझकर कौर की तरह जिसे मुंह में डालते 
दिल चूर-चूर हुआ 



वह रास्‍ता हेरात की तरफ जाता है 
उससे भी आगे कुस्‍तुंतुनिया की तरफ 
जहां के शायर और आलूचे सारी दुनिया में मशहूर हैं 

वहीं तो इकट्ठा हुए थे पहले जिद्दी लश्‍कर 
बास्‍फोरस पार करने चरमराते हुए काठ के बेड़ों पर 

उधर से ही होकर वापस ले जाई गई थी 
बुखार खाकर मरे दिग्विजयी सिकंदर की मिट्टी 

तब तक तो बनाए भी नहीं गए थे 
पहाड़ तराश कर 
बामियान के वे विशाल बुत 
जिन्‍हें गढ़ना 
व्‍याकरण के पहले सूत्रों को रचने से कम 
दुष्‍कर और कमनीय न था 

इधर तो वे भी ढहाए जा चुके 
गोले दाग कर 
हालांकि 
आसान यह काम भी नहीं ही था 
उनके लिए जिन्‍होंने इसे कर डाला 
महान मित्रताओं जैसी सदा वत्‍सल 
वे नदियां 
जिन में धोते थे अपने जख्‍म और जिरहबख्‍तर घायल योद्धा 
भले ही अब सूख चुकी हैं 
भले ही बार-बार बदले हों वर्दियां, झण्‍डे और असलहे 
रसद और फौजों को लादने का काम 
टट्टुओं से लेकर चाहे सिपुर्द कर दिया गया हो अब 
बड़ी लड़ाई के बच रहे 
इन गट्टू ट्रकों को 
हम कभी बाहर नहीं हो पाए 
हड्डियां गलाती हवाओं 
और फटकारते हुए कोड़ों की जद से 

न कम्‍बल जैसे सुखद 
मुस्‍तकबिल के ख्‍वाबों से

1 comment:

Unknown said...

वाह, क्या बात है..
...तब तक तो बनाए भी नहीं गए थे
पहाड़ तराश कर
बामियान के वे विशाल बुत
जिन्‍हें गढ़ना
व्‍याकरण के पहले सूत्रों को रचने से कम
दुष्‍कर और कमनीय न था...