यह पोस्ट मैं मित्र पंकज
श्रीवास्तव की फेसबुक वॉल से लेकर यहाँ लगा रहा हूँ-
“बूड़ा बंस कबीर का, उपजा
पूत कमाल ...”
-पंकज श्रीवास्तव
भगत सिंह को शहीद-ए-आज़म का दर्जा उनके विचारों की धार की वजह से है.
समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में भारत के भविष्य का खाका
था.
फांसी का फंदा सामने देखकर ‘मैं
नास्तिक क्यों हूं’ जैसा लेख लिखना
उनकी वैचारिक तेजस्विता का प्रमाण है. लेकिन अब इस ‘तेज’ पर झूठ के सहारे ग्रहण लगाने की कोशिश हो रही है. खुद को भगत
सिंह का भतीजा बताने वाले यादवेंद्र सिंह संधू को आजकल नरेंद्र मोदी भा रहे हैं. वे
भगत सिंह की ‘जेल
डायरी’ को कॉफी टेबल बुक बनाकर मोदी के हाथो विमोचन कराना चाहते हैं. ये
अलग बात है कि यह ‘जेल डायरी’ 1994 में
ही प्रकाशित हो चुकी है और इसके कई संस्करण निकल चुके हैं. अब कौन बताये
कि विमोचन नई किताब का होता है,
19 साल पहले प्रकाशित हो चुकी किताब का नहीं.
पढ़िये, ‘शुक्रवार’ में प्रकाशित शम्सुल इस्लाम के लेख का एक अंश--
“... यादवेंद्र संधू ने यह दावा किया है कि वे भगत सिंह की जेल डायरी पहली बार प्रकाशित कर रहे हैं, मगर यह सरासर गलत है. इस डायरी के प्रकाशन का एक लंबा सिलसिला है. भगत सिंह ने अपनी यह डायरी कई अन्य दस्तावेजों के साथ एक थैले में शहादत से कुछ दिन पहले कु. लज्जावती के हवाले कर दी थी जो कि ‘भगत सिंह बचाओ’ समिति की सचिव थीं और जालंधर के एक कॉलेज की प्रिंसिपल थींr. भगत सिंह ने यह इच्छा जाहिर की थी कि इसे क्रांतिकारी बिजोय कुमार सिन्हा (जिन्हें भगत सिंह के साथ ही उम्रकैद की सजा देकर काला पानी भेज दिया गया था.) जब रिहा होकर आएं तो उन्हें दे दिया जाए. कुमारी लज्जावती ने सिन्हा की रिहाई से पहले ही लाहौर के प्रसिद्ध पत्रकार और समाजवादी चिंतक लाला फिरोजचंद को ये थैला दिखाया. उन्होंने इसमें से कुछ लेख ‘द पीपल’ पत्रिका में छापे. यह जेल-डायरी कुलबीर सिंह को दे दी गई. कुलबीर सिंह ने इसे गुप्त रखा. पहली बार इस डायरी का संदर्भ रूसी लेखक ए.वी. रायको के भगत सिंह पर लेख (१९७१) में मिला. उनके अनुसार कुलबीर सिंह ने यह डायरी उनको दिखाई थी. डायरी पहली बार भगत सिंह की शहादत की ५०वीं वर्षगांठ (१९८१) पर सार्वजनिक हुई जब कुलबीर सिंह ने इसकी एक माइक्रो फिल्म कराके राष्ट्रीय अभिलेखागार और नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी (दिल्ली) को इस शर्त पर दी कि इसे छापा नहीं जाएगा. इसी बीच भूपेंद्र हूजा ने इस डायरी को १९९४ में प्रकाशित किया जिसे राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल ने सार्वजनिक किया.
“... यादवेंद्र संधू ने यह दावा किया है कि वे भगत सिंह की जेल डायरी पहली बार प्रकाशित कर रहे हैं, मगर यह सरासर गलत है. इस डायरी के प्रकाशन का एक लंबा सिलसिला है. भगत सिंह ने अपनी यह डायरी कई अन्य दस्तावेजों के साथ एक थैले में शहादत से कुछ दिन पहले कु. लज्जावती के हवाले कर दी थी जो कि ‘भगत सिंह बचाओ’ समिति की सचिव थीं और जालंधर के एक कॉलेज की प्रिंसिपल थींr. भगत सिंह ने यह इच्छा जाहिर की थी कि इसे क्रांतिकारी बिजोय कुमार सिन्हा (जिन्हें भगत सिंह के साथ ही उम्रकैद की सजा देकर काला पानी भेज दिया गया था.) जब रिहा होकर आएं तो उन्हें दे दिया जाए. कुमारी लज्जावती ने सिन्हा की रिहाई से पहले ही लाहौर के प्रसिद्ध पत्रकार और समाजवादी चिंतक लाला फिरोजचंद को ये थैला दिखाया. उन्होंने इसमें से कुछ लेख ‘द पीपल’ पत्रिका में छापे. यह जेल-डायरी कुलबीर सिंह को दे दी गई. कुलबीर सिंह ने इसे गुप्त रखा. पहली बार इस डायरी का संदर्भ रूसी लेखक ए.वी. रायको के भगत सिंह पर लेख (१९७१) में मिला. उनके अनुसार कुलबीर सिंह ने यह डायरी उनको दिखाई थी. डायरी पहली बार भगत सिंह की शहादत की ५०वीं वर्षगांठ (१९८१) पर सार्वजनिक हुई जब कुलबीर सिंह ने इसकी एक माइक्रो फिल्म कराके राष्ट्रीय अभिलेखागार और नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी (दिल्ली) को इस शर्त पर दी कि इसे छापा नहीं जाएगा. इसी बीच भूपेंद्र हूजा ने इस डायरी को १९९४ में प्रकाशित किया जिसे राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल ने सार्वजनिक किया.
कुलबीर सिंह के परिवार के सौजन्य से इसे पुस्तक के रूप में २००६-२००७ में (१००० रुपये प्रति कॉपी) छापा गया. इस जेल-डायरी के हिंदी, बंगाली, पंजाबी और मराठी संस्करण भी भगत सिंह प्रेमियों तक पहुंचे. भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने भी इसे प्रकाशित किया. हिंदी में तो इसके बीसियों संस्करण लोगों के बीच लोकप्रिय हैं. यादवेंद्र संधू के इस कथन से भगत सिंह के बृहत परिवार में बहुत से लोगों को और भगत सिंह की विरासत में यकीन रखने वालों को दुख पहुंचाया है. कुलबीर सिंह के एक अन्य बेटे अभय संधू की देखरेख में भी ये डायरी छापी गई थीं. भगत सिंह के एक भाई कुलतार सिंह - जिनसे भगत सिंह की बहुत निकटता थी, उनके बच्चों ने भी बिना किसी आर्थिक स्वार्थ के भगत सिंह के दस्तावेजों को जिनमें जेल-डायरी भी शामिल है, जनता के बीच पहुंचाने में हिरावल भूमिका निभाई है. यदुवेंद्र संधू की योजना और दावों पर प्रतिक्रिया देते हुए, भगत सिंह के भांजे प्रो. जगमोहन सिंह (जो भगत सिंह के विचारों को प्रसार-प्रचार में लगातार लगे हुए हैं) और प्रोफेसर चमनलाल के जो भगत सिंह और उनकी विचारधारा के विश्वविख्यात विशेषज्ञ हैं इसे भगत सिंह के नाम पर पैसा कमाने की एक नौटंकी बताया है.”
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