हिन्दी साहित्य के परिदृश्य पर इधर के दो-चार सालों में घटनाएं कम घटी
हैं दुर्घटनाएं और प्रकरण ज़्यादा. जैसे मोबाइल फ़ोनों में कैमरे लगने के बाद अश्लील
एमएमएस बनाने का रिवाज़ चल निकला था और इंटरनेट के प्रसार के बाद उन्हें बाकायदा
शीर्षक दिए गए ताकि सुधीजनों को वांछित अश्लील एमएमएस खोजने में दिक्कत न हो;
मिसाल के तौर पर डीपीएस स्कैंडल, मिस जम्मू स्कैंडल वगैरह वगैरह ... उसी तरह
हिन्दी साहित्य भी पिछले कुछ महीनों से ऐसे ही शीर्षक पैदा कर रहा है – छिनाल प्रकरण, साहित्य अकादमी पुरुस्कार प्रकरण वगैरह, वगैरह. और हिन्दी का बड़ा वर्ग जिसमें पाठक और रचनाकार दोनों
शामिल हैं - इसका रस लेता नज़र आ रहा है. पत्रिकाएँ एक से एक सनसनीखेज़ विशेषांक
निकाल रही हैं. ख़ूब इनाम बंटते-बंटवाये जाते हैं, इनकी राजनीति की चर्चा होती है, ख़ूब थू थू ख़ूब ही ही हा हा होती है.
यहाँ मैं फ़क़त अपनी तुच्छ दृष्टि की बात कर रहा हूँ. इसका
पहला विशुद्ध परिणाम व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए यह रहा है कि हिन्दी के समकालीन
लेखन के प्रति मेरी दिलचस्पी काफ़ी कम हुई है और घर में आने वाली तमाम पत्रिकाओं
में से कई को तो अब खोलने तक का मन नहीं करता.
फ़िलहाल कल शाम से दिमाग भन्नाया हुआ है – फेसबुक पर एक
मित्र की वॉल पर किन्हीं आशीष कुमार ‘अंशु’ ने ज्योति कुमारी से अपनी लंबी बातचीत
का लिंक पोस्ट किया हुआ था. आशीष एक ब्लॉग बतकही चलाते हैं. यह दुर्भाग्य मेरे हिस्से आना था कि मैं उस लिंक की
मार्फ़त हिन्दी साहित्य के तथाकथित उदार लोकतांत्रिक घटिया नैक्सस के एक और रूप से परिचित हुआ. इस तरह का खटका मन में पहले से था तो पर पहली बार किसी ‘बड़ी’ पत्रिका से सम्पादक से सम्बंधित किसी वाकये को पढ़ते हुए
लगा जैसे ‘मनोहर कहानियां’ पढ़ रहा हूँ. और इसी बड़ी पत्रिका के पुनर्प्रकाशन के शुरुआती दौर में मैंने हिन्दी साहित्य से जुड़ना शुरू किया था. समय बीतते बीतते पत्रिका की भाषा बेलगाम होती गयी और कोई दसेक साल से मैंने इस पत्रिका को देखने की ज़रुरत तक महसूस नहीं की है.
आशीष कुमार 'अंशु' की वॉल पर एक पाठक Mahi Singh की टिप्पणी ये रही:
''दो तीन दिन से आशीष कुमार 'अंशु' भाई का पोस्ट पढ़ रहा हूँ ... किसी राजेंद्र यादव के बारे में है , वो जो कि साहित्य के एक बड़े नाम है , मै नहीं जानता कि वो क्या है ? पर साहित्य से थोडा प्रेम होने के कारण टिप्पणी को विवश हूँ और इतना तो जरुर कहूँगा कि आज के इन तथाकथित साहित्यकारों ने साहित्य को दोयम दर्जे पर खड़ा कर दिया है. जो साहित्य समाज का आईना कहलाता था आज वो आईना धुंधला पड़ गया है.''
यह एक पाठक की प्रतिक्रिया है जो युवा है और पढ़ना चाहता है. खैर जाने दीजिये.
अफ़सोस मुझे इस बात का है कि हिन्दी के सारे महामना
शुतुरमुर्ग बने हुए हैं.
भाई आशीष कुमार ‘अंशु’ ने ज्योति
कुमारी से लंबी बातचीत के अंत में लिखा है कि वे दूसरी पार्टी की बात सुनने से
पहले इस ‘कहानी’ को पूरा नहीं मानेंगे अलबत्ता रात अपनी फेसबुक वॉल पर आशीष कुमार
‘अंशु’ ने यह लिखा – जैसा
कि इस श्रृंखला के पहले अंक में लिखा गया था कि यह कहानी अधूरी है, जब तक राजेन्द्र यादव का पक्ष इसके साथ नहीं जुड़ जाता. इस संबंध में बतकही की तरफ से राजेन्द्र यादव से उनका पक्ष को
जानने के उद्देश्य से फोन किया गया था, श्री
यादव के अनुसार- इस संबध में उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं है. राजेन्द्रजी का पक्ष अभी भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है. यदि उनका पक्ष नहीं आता तो ज्योति के बयान पर उनका यह मौन, ‘सहमति’ माने जाने का भ्रम उत्पन्न करेगा. वैसे राजेन्द्र यादव के शुभचिन्तक कह रहे हैं कि राजेन्द्र
यादव ब्लॉग को गंभीर माध्यम नहीं मानते, यदि
उन्हें जवाब देना होगा तो हंस के नवम्बर अंक में अपने संपादकीय के माध्यम से देंगे. वास्तव में हमारे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उनका पक्ष कहां
आता है, किसके माध्यम से हम सबके बीच आता है. महत्वपूर्ण यह है कि उनका पक्ष सबके सामने आए. बहरहाल आशीष कुमार ‘अंशु’ से ज्योति कुमारी की बातचीत का दूसरा भाग यहां प्रकाशित कर रहे
हैं. इस बातचीत को साक्षात्कार या रिपोर्ट कहने से अच्छा होगा कि हम
बयान कहें. चूंकि पूरी बातचीत एक पक्षीय और घटना केन्द्रित
है. यहां गौरतलब है कि दूसरा पक्ष जो राजेन्द्र यादव का है, उन्होंने इस विषय पर बातचीत से इंकार कर दिया है. फिर भी उनका पक्ष उनकी सहमति से कोई रखना चाहे तो स्वागत है. यदि राजेन्द्र यादव स्वयं अपनी बात रखें तो इससे बेहतर क्या
होगा?
उन्होंने मुझे अनुमति दी है कि मैं उनकी इस पोस्ट का
इस्तेमाल कर सकता हूँ. कबाड़खाने में इस पूरी की पूरी पोस्ट को लगाता हुआ मैं
उम्मीद कर रहा हूँ कि हिन्दी के कुछ ‘बड़े’ लेखकों का जमीर जागेगा और वे कुछ तो
कहेंगे. चाहे गाली ही दे जाएं. वैसे भी ‘राजेन्द्र यादव ब्लॉग को गंभीर माध्यम नहीं मानते’. और इतने खुलासों के बाद भी किसी और तस्दीक की ज़रुरत है क्या. ज्योति कुमारी स्त्री पहले हैं और लेखिका बाद में. एक बहादुर स्त्री की बहादुरी को कबाड़खाने का सलाम. इसे यहाँ पोस्ट करने की अनुमति देने के लिए भाई आशीष कुमार ‘अंशु’ का आभार.
मूकदर्शक बने रहे राजेन्द्र यादव: ज्योति कुमारी
जुलाई 2013 में एक खबर आई थी कि राजेन्द्र यादव की प्रिय
लेखिका ज्योति कुमारी ने ‘हंस’ का बहिष्कार किया है. सितम्बर के संपादकीय में
ज्योति को लेकर श्री यादव का अनर्गल प्रलाप छपा. अक्टूबर संपादकीय में उन्होंने
अपनी गलती के लिए युवा लेखिका से क्षमा मांग ली. राजेन्द्र यादव और हंस के
बहिष्कार को लेकर आशीष कुमार ‘अंशु’ ने ज्योति कुमारी से लंबी बातचीत की. ज्योति
ने विस्तार से पूरी कहानी बयान की. इस कहानी में यदि आने वाले समय में राजेन्द्र
यादव का पक्ष शामिल होता है तो यह कहानी पूरी मानी जाएगी. यहां प्रस्तुत है, ज्योति का बयान,
जैसा उन्होंने आशीष को बताया.
‘हंस’ का बहिष्कार करना किसी भी नई लेखिका के लिए आसान
फैसला नहीं होता. खास तौर पर जब मेरे लेखन की अभी शुरूआत है. इस बात से कोई इंकार
नहीं है कि हंस में जब कहानी छपती है तो अच्छा रिस्पांस मिलता है. मेरी कहानियां ‘हंस’, ‘पाखी’, ‘परिकथा’, ‘नया ज्ञानोदय’ और अभी बहुवचन में छपी है
लेकिन हंस में प्रकाशित किसी भी कहानी के लिए सबसे अधिक फोन, एसएमएस और चिट्ठियां मिली हैं. किसी भी लेखक को यह अच्छा लगता है.
मैं पिछले दो सालों से राजेन्द्र यादव और हंस के लिए काम कर
रहीं थी. मेरा वहां काम यादवजी जो बोले, उसे लिखने का था, हंस में अशुद्धियों को दुरुस्त करना और उसके संपादन से जुड़े काम को भी
मैं देखती थी. जब ‘स्वस्थ्य आदमी के बीमार विचार’ पर काम शुरू किया, उसके थोड़ा पहले से मैं उनके पास जा रही थी. लगभग दो साल से मैं उनके पास
जा रही हूं. इस काम के लिए वे मुझे दस हजार रूपए प्रत्येक महीने दे रहे थे. मैं
मुफ्त में उनके लिए काम नहीं कर रही थी. सबकुछ ठीक था. यादवजी का स्नेह भी मिल रहा
था. उस स्नेह में कहीं फेवर नहीं था. अपनी कहानियों के लिए कभी मैंने उन्हें नहीं
कहा. मैं उन्हें लिखने के बाद कहानी दिखलाती थी और कहती थी कि यह यदि हंस में छपने
लायक हो तो छापिए. मेरी पांच-छह कहानियां हंस में छपी.
यदि किसी लेखिका की पहली कहानी छपना उसे किसी साहित्यिक
पत्रिका का प्रोडक्ट बनाता है तो मुझे ‘परिकथा’ का प्रोडक्ट कहा जाना चाहिए. मेरी
पहली कहानी ‘परिकथा’ में छपी है. मैं हंस की प्रोडक्ट नहीं हूं. यह सच है कि कथा
संसार में मेरी पहचान हंस से बनी. ‘हंस’ मेरे लिए स्त्री विमर्श की पत्रिका रही है.
‘हंस’ से मैने स्त्री अधिकार और स्त्री सम्मान को जाना है. राजेन्द्र यादव जो अपने
संपादकीय में लिखते रहे हैं और जो विभिन्न आयोजनों में बोलते रहे हैं. इन सबसे
उनकी छवि मेरी नजर स्त्री विमर्श के पुरोधा की बनी.
एक जुलाई 2013 को उनके घर में जो दुर्घटना हुई, उससे पहले उनसे
मेरी कोई शिकायत नहीं थी. सबकुछ उससे पहले अच्छा चल रहा था. मैं उन्हें अपने
अभिभावक के तौर पर पितातुल्य मानती रहीं हूं. मेरा उनसे इसके अलावा कोई दूसरा
रिश्ता नहीं रहा. इसके अलावा केाई दूसरी बात करता है तो गलत बात कर रहा है.
राजेन्द्र यादव मुझसे कहते थे- ‘तुझे देखकर मेेरे अंदर इतना वातशल्य उमरता है,
जितना बेटी रचना के लिए भी नहीं उमरा. कभी मैं उन्हें कहती थी कि
मुझे हंस छोड़ना है तो वे मुझे बिटिया रानी, गुड़िया रानी
बोलकर, हंस ना छोड़ने के लिए मनाते थे. राजेन्द्र यादव हमेशा
मेरे साथ पिता की तरह ही व्यवहार करते थे.
जब से मैं उनके पास काम कर रहीं हूं, प्रत्येक सुबह
8ः00 बजे- 8ः30 बजे उनके फोन से ही मेरी निन्द खुलती थी. फोन उठाते ही वे कहते- अब
उठ जा बिटिया रानी. मैं उनके घर 10ः30 बजे सुबह पहुंचती थी. वे रविवार को भी
बुलाते थे. रविवार को उनके घर शाम तीन-साढे तीन बजे पहुंचती थी.
राजेन्द्र यादव का मानना था कि वे हंस कार्यालय में एकाग्र
नहीं हो पाते हैं. इसलिए वे संपादकीय लिखवाने के लिए घर ही बुलाते थे. जब मैंने
राजेन्द्र यादव के साथ काम करना शुरू किया, उन दिनों राजेन्द्र यादव दफ्तर नहीं
जाते थे. वे बीमार थे. तीन-चार महीने तक वे बिस्तर पर ही पड़े रहे. ‘स्वस्थ्य आदमी
......’ वाली किताब उन्होंने घर पर ही लिखवाई. उस दौरान वे हंस नहीं जा रहे थे. जब
उन्होंने हंस जाना प्रारंभ किया, उसके बाद भी वे रचनात्मक
लेखन घर पर ही करते थे. दफ्तर में वे चिट्ठियां लिखवाते थे. मेरी नौकरी उनके घर से
शुरू हुई थी, इस तरह मेरा एक दफ्तर उनका घर भी था.
30 जून 2013 की रात 10ः00-10ः15 बजे के आस-पास मेरे मोबाइल
पर नए नंबर से फोन आया. नए नंबर के फोन इतनी रात को मैं उठाती नहीं. लेकिन एक नंबर
से दो-तीन बार फोन आ जाए तो उठा लेती हूं.
जब दूसरी बार में मैंने नए नंबर वाला फोन उठाया तो दूसरी तरफ से आवाज आई-
‘मैं प्रमोद बोल रहा हूं.’ जब मैने पूछा -‘कौन प्रमोद?’ तो उसने
राजेन्द्र यादव का नाम लिया. प्रमोद, राजेन्द्र यादव का
अटेन्डेन्ट था. ‘हंस’ में मेरी राजेन्द्र यादव और संगम पांडेय से बात होती थी और
किसी से कुछ खास बात नहीं होती थी. मैं बातचीत में थोड़ी संकोची हूं, यदि सामने वाला पहल ना करे तो मैं बात शुरू नहीं कर पाती. प्रमोद से मेरी
बातचीत सिर्फ इतनी थी कि वह दफ्तर पहुंचने पर राजेन्द्र यादव के लिए और मेरे लिए
एक गिलास पानी लाकर रखता था और पूछता था- ‘मैडम आप कैसी हैं?’
इससे अधिक मेरी प्रमोद से कोई बात हुई हो, मुझे याद नहीं.
उसका फोन आना मेरे लिए आश्चर्य की बात थी. उसने फोन पर कहा-
‘मुझसे आकर मिलो. मैंने तुम्हारा वीडियो बना लिया है. उसे मैं इंटरनेट पर डालने जा
रहा हूं.’
यह फोन मेरे लिए झटका था. कोई यदि वीडियो बनाने की बात कर
रहा है तो निश्चित तौर पर यह किसी आम वीडियो की धमकी नहीं होगी. वह नेकेड वीडियो
की बात कर रहा होगा. मैंने राजेन्द्र यादव को उसी वक्त फोन मिलाया. जब राजेन्द्र
यादव से मेरी बात हो रही थी, उस दौरान भी प्रमोद का फोन वेटिंग पर आ रहा
था. राजेन्द्र यादव को मैने फोन पर कहा- ‘प्रमोद नेकेड वीडियो की बात कर रहा है,
आप देखिए क्या मामला है?’
राजेन्द्र यादव ने कहा- अब मेरे सोने का वक्त हो रहा है.
सुबह बात करूंगा. उनसे बात खत्म हुई प्रमोद का फोन जो वेटिंग पर बार-बार आ ही रहा
था. फिर आ गया- उसने फिर मुझे धमकाया.
राजेन्द्र यादव जो दो साल से प्रतिदिन मुझे फोन करके उठाते
थे. उस दिन उनका फोन नहीं आया. जब मैंने फोन किया तो उन्होंने कहा- ‘मैं आंख
दिखलाने एम्स जा रहा हूं. तुमसे दोपहर में बात करता हूं. फिर राजेन्द्र यादव का
फोन नहीं आया. फिर मैंने ही फोन किया, राजेन्द्र यादव ने फोन पर मुझे कहा-
प्रमोद कह रहा है, वीडियो सुमित्रा के पास है और सुमित्रा कह
रही है वीडियो प्रमोद के पास है. पता नहीं चल पा रहा कि वीडियो किसके पास है. ऐसा
करो, इस मसले को अभी रहने दो. इस पर बात 31 जुलाई वाले
कार्यक्रम के बीत जाने के बाद बात करेंगे. मुझे यह बात बुरी लगी. मैंने कहा- ‘आज
एक जुलाई है. 31 जुलाई में अभी तीस दिन है. इस बीच प्रमोद ने कुछ अपलोड कर दिया तो
फिर मेरी बदनामी होगी. आप भारतीय समाज को जानते हैं. मैं कहीं की नहीं रहूंगी.
मैंने कई बार राजेन्द्र यादव को फोन किया और एक बार प्रमोद को भी फोन किया- ‘आप सच
बोल रहे हैं या कोई मजाक कर रहे हैं. क्या है उस वीडियो में?’
उसने ढंग से बात नहीं की. उसका जवाब था- ‘जब दुनिया देखेगी, तुम भी देख लेना.’
जब कई बार फोन करने के बाद भी राजेन्द्र यादव ने मेरी बात
पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया फिर मैंने उन्हें फोन करके कहा कि मैं शाम में आपके घर
आ रही हूं. यह छोटी बात नहीं है. आप प्रमोद से बात करिए.
मेरे साथ जो दुर्घटना हुई, उसके बाद मैने लोगों से बातचीत बंद
कर दी थी. अब जब फिर से बातचीत हो रही है तो यह सुनने में आ रहा है कि कुछ लोग कह
रहे हैं- ज्योति अगर राजेन्द्र यादव के घर में कुछ गलत काम नहीं कर रही थी,
राजेन्द्र यादव के साथ उसके नाजायज संबंध नहीं थे फिर वह वीडियो की
बात से डरी क्यों? यहां स्पष्ट कर दूं कि यह वीडियो मेरा और
राजेन्द्र यादव का होता तो मैं बिल्कुल नहीं डरती. ना मैं घबरातीं, वजह यह कि प्रमोद राजेन्द्र यादव के पास काम करता था, फिर क्या वह अपने मालिक का वीडियो अपलोड करता? अपलोड
करता तो क्या सिर्फ ज्योति की बदनामी होती? क्या राजेन्द्र
यादव की नहीं होती. राजेन्द्र यादव का कद बड़ा है. उनकी बदनामी भी बड़ी होती. यदि
वे सेफ होते तो मैं भी सेफ होती लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था. वे मुझे बेटी तुल्य
मानते रहे थे. मेरे लिए वे पितातुल्य थे. इसका मतलब था कि यदि प्रमोद ने कोई
वीडियो वास्तव में बनाया था तो वह मेरे अकेले की वीडियो होगी. मैं राजेन्द्र यादव
के यहां काम करती थी तो उनका बाथरूम भी इस्तेमाल करती थी. राजेन्द्र यादव से मेरी
घनिष्ठता हो ही गई थी. कई बार जब मेरे घर पानी नहीं आया होता तो राजेन्द्र यादव कहते
थे- मेरे घर आ जाओ. डिक्टेशन ले लो और यहीं पर नहा लेना. उनके बाथरूम का कई बार
मैने इस्तेमाल नहाने के लिए किया है. मेरा डर यही था, बाथरूम
में नहाते हुए कैमरा छुपाकर मेरा नेकेड वीडियो प्रमोद, राजेन्द्र
यादव के घर में बना सकता है. एक अकेली लड़की का नेकेड वीडियो जब इंटरनेट पर डाला
जाता है तो बिल्कुल नहीं देखा जाता कि वह अकेली है या फिर किसी के साथ है. यदि
लड़की वीडियों में नेकेड है तो उसकी बदनामी होनी है, उसकी
परेशानी होनी है. इस बात से मैं डरी थी. यदि राजेन्द्र यादव के साथ कोई वीडियो
होता फिर डर की कोई बात नहीं थी. यदि राजेन्द्र यादव सेफ हैं तो उनके साथ वाला भी
सेफ है.
वीडियो वाली बात से मैं काफी परेशान थी. परेशान होकर मैं
राजेन्द्र यादव के घर पहुंची. एक जुलाई को 6:30-6:45 बजे शाम में. मैंने राजेन्द्र
यादव से कहा- ‘सर आप मेरे सामने प्रमोद से बात करें कि वह क्या वीडियो है? वह दिखलाए.’
मैं राजेन्द्र यादव को सर ही कहती हूं. उनका जवाब था- ‘मैं
प्रमोद को कुछ नहीं कहूंगा. उसे बुला देता हूं, तुम खुद ही उससे बात कर लो.’
यह बातचीत राजेन्द्र यादव के कमरे में हुई. वे उस वक्त शराब
पी रहे थे. उनके सामने ही प्रमोद ने अपशब्दों का प्रयोग किया. यह मामला अभी
न्यायालय में है. प्रमोद यह आलेख लिखे जाने तक जेल में है. इस पूरी घटना में दुखद
पहलू यह है कि यह सब एक ऐसे आदमी की नजरों के सामने हुुआ जिसकी छवि देश में
स्त्रियों के हक में खड़े व्यक्ति के तौर पर है. वह मुकदर्शक बनकर अपने कर्मचारी
द्वारा एक स्त्री के लिए प्रयोग किए जा रहे अशालीन भाषा को सुनता रहा. वे उस वक्त
भी शराब पीने में मशगूल थे, जब उनका कर्मचारी स्त्री के साथ अमर्यादित व्यवहार कर रहा था.
इस पूरी घटना के दौरान राजेन्द्र यादव बीच में सिर्फ एक वाक्य प्रमोद को बोले-
‘यार कुछ है तो दिखा दे ना...’
मानों छुपन-छुपाई के खेल में चॉकलेट का डब्बा गुम हो गया हो.
जबकि प्रमोद कई बार राजेन्द्र यादव के सामने धमका चुका था- वीडियो इंटरनेट पर
अपलोड कर दूंगा. फिर भी वे चुप थे. मैं भी चुप हो जाती. कोई कदम नहीं उठाती लेकिन
उसके बाद जो प्रमोद ने किया वह किसी भी स्त्री के लिए अपमानजनक था. मामला न्यायालय
में है इसलिए उस संबंध में यहां नहीं बता रहीं हूं. मेरे साथ जो हुआ, उसके बाद मैं समझ
गई थी कि मेरा अब यहां से बच कर निकलना नामूमकिन है. मैंने राजेन्द्र यादव के कमरे
में रखे टेलीफोन से सौ नंबर मिलाया. उस वक्त राजेन्द्र यादव बोले- ‘यह क्या कर रही
हो? फोन रख.’ तब तक दूसरी तरफ फोन उठ चुका था. मैंने फोन पर
सारी बात बता दी. मेरे साथ क्या हुआ और मुझे मदद की जरूरत है.
फोन रखने के बाद अब तक शांत पड़े राजेन्द्र यादव फिर बोले-
‘यह सब क्या कर रही हो? पुलिस के आने से क्या हो जाएगा? बेवजह
बात ना बढ़ा.’
पुलिस को फोन मिलाने के बाद प्रमोद शांत हो गया था.
राजेन्द्र यादव ने अब प्रमोद से कहा- ‘तू जा यहां से.’ उनकी आज्ञा मिलते ही प्रमोद
आज्ञाकारी बच्चे की तरह चला गया. अब राजेन्द्र यादव ने मुझसे कहा- पुलिस को कुछ
नहीं बताना है. मैंने कहा- ‘यह नहीं होगा सर. आपके सामने, आपके घर में इतनी
बुरी हरकत हुई है मेरे साथ. आपसे मैं बार-बार फोन पर कहती रही कि आप प्रमोद से बात
कीजिए लेकिन आपने वह भी नहीं किया. अब मैं पुलिस को सारी बात बताऊंगी.’
यदि मेरे मन में कोई चोर होता तो मैं वहां डर जाती. मेरे मन
में कोई चोर नहीं था, इसलिए मैं डरी नहीं. मेरे अंदर सिर्फ इतनी बात थी कि मेरे साथ
जो हुआ है, वह गलत हुआ है. इसलिए मैं पुलिस में शिकायत
करूंगी.
राजेन्द्र यादव लगातार मुझे समझाते रहे कि पुलिस में शिकायत
करने से कुछ नहीं होगा. सौ नंबर पर उन्होंने रिडायल किया, शायद यह कन्फर्म
करने के लिए कि उनके घर से पुलिस के पास फोन गया था या नहीं? जब उधर से कहा गया कि फोन आया था तो यादवजी ने कहा- ‘अब पुलिस को भेजने की
जरूरत नहीं है. आपसी मारपीट थी. अब सुलझ गया सब कुछ.’
मैं वहीं बैठी थी. मैने दुबारा फोन मिलाया कि पुलिस अभी तक
नहीं आई? दूसरी तरफ से
मुझसे सवाल पूछा गया- ‘मैडम आप इतनी सुरक्षित तो हैं ना, जितनी
देर में पुलिस आप तक पहुंच सके?’
मैंने कहा- सुरक्षित हूं. प्रमोद बाहर बैठा है और राजेन्द्र
यादव फोन पर किसी से बात कर रहे हैं.
पुलिस आई. उन्होंने प्रमोद को थाने ले जाने के लिए पकड़ा.
साथ में मुझे भी बयान के लिए ले जा रहे थे. राजेन्द्र यादव ने पुलिस वाले से कहा-
‘क्या इतनी छोटी सी बात के लिए ले जा रहे हो? बैठो यहां. स्कॉच लोगे या व्हीस्की?
मेरे पास 21 साल पुरानी शराब है. एक से एक अच्छी शराब है. कहो क्या
लोगे?’
लेकिन पुलिस वाले ने कहा- ‘सर लड़की के साथ ऐसा हुआ है. यह
छोटी बात नहीं है.’
मेरा कुर्ता खींच-तान में फट गया था. मेरे पास ऐसी खबर आ
रही है कि कुछ लोग कह रहे हैं कि ज्योति ने खुद ही अपने कपड़े फाड़ लिए. कोई भी
लड़की पहली बात इतनी बेशरम नहीं होती कि अपने कपड़े खुद फाड़ ले. यदि फाड़ेगी तो
उसका उद्देश्य क्या होगा? सामने वाले पर इल्जाम लगाना. मैने इसके लिए प्रमोद पर आरोप
नहीं लगाया है. मैंने कहा है कि यह खींच-तान में फटा है.
प्रमोद राजेन्द्र यादव के पास अप्रैल में आया है. वह
राजेन्द्र यादव के घर में रहता है. उनके कमरे में सोता है. उसकी गिरफ्तारी भी
राजेन्द्र यादव के घर से हुई थी.
इन सारी
घटनाओं के दौरान जब मैं थाने में बैठी थी. मेरे मित्र मज्कूर आलम के पास फोन किया
जा रहा था. मज्कूर आलम उस दिन अपने घर बक्सर (बिहार) में थे. उन्हें फोन पर बताया
जा रहा था- ‘ज्योति थाने में है. यह अच्छा नहीं है. उसे वापस बुला लीजिए.’
मैने सुना
थाने में कई लोगों से कह कर फोन कराया गया.
दबाव बनाने के लिए. यदि यह बात सच है तो दिल्ली पुलिस की सराहना की जानी चाहिए कि
वे किसी के दबाव में नहीं आए.
मैं
अकेली रात एक बजे तक थाने में बैठी रही. इस बीच मेरा एमएलसी (मेडिकल लीगल केस)
कराया गया. मैं वहां देर रात तक इसलिए बैठी रही क्योंकि मैंने तय कर लिया था, जब तक मेरा एफआईआर (फर्स्ट इन्फॉरमेशन रिपोर्ट) नहीं हो जाता, मैं वहां से हिलूंगी नहीं. मेरे एमएलसी में आ गया कि चोट है. ईएनटी में
दिखलाया, वहां कान के चोट की भी पुष्टी हो गई. एक बजे रात में एक
लेडी कांस्टेबल मुझे घर तक छोड़ कर गई.
मुझे
जानकारी मिली कि मेरे घर आने के थोड़ी देर बाद ही प्रमोद को छोड़ दिया गया. उसके
बाद दो महीने तक केाई कार्यवायी नहीं हुई. मै अपने कान के दर्द से परेशान थी. मुझे
चोट लगी थी. दो महीने तक पुलिस की तरफ से कोई कार्यवायी नहीं हुई. पुलिस की जांच
पड़ताल चल रही होगी, यह अलग बात है. उन्होंने दो महीने तक एक जुलाई की घटना के
लिए सीआरपीसी की धारा 164 में मेरा बयान भी
नहीं कराया.
घटना के
अगले दिन दो जुलाई को राजेन्द्र यादव का फोन आया मेरे पास. उन्होंने कहा -‘क्या
मिल गया, पुलिस में बयान दर्ज कराके. लड़का छुट गया. लड़का घर आ गया.’
मैने
जवाब दिया- ‘क्या हो गया यदि प्रमोद छुट कर आ गया. मैंने वही किया जो मुझे करना
चाहिए.’
फिर
राजेन्द्र यादव ने कहा- ‘अच्छा ऐसा कर शाम छह बजे मेरे घर आ जा.’
मैंने
जवाब में कहा- ‘अब मैं आपके घर कभी नहीं आने वाली.’
राजेन्द्र
यादव- ‘कभी नहीं आना, आज आ जा.’
ज्योतिः
‘क्यों आज ऐसा क्या खास है कि मुझे इतना कुछ हो जाने के बाद भी आपके घर आ जाना
चाहिए.’
राजेन्द्र
यादवः ‘मैने पुलिस वाले को कह दिया है, वकील को भी बुला लिया है.
तू भी आ जा. प्रमोद भी रहेगा. वह तुझे सॉरी बोल देगा. बात खत्म हो जाएगी.’
ज्योतिः
‘उसे पब्लिकली सॉरी बोलना होगा. उसने इतनी बूरी हरकत की है मेरे साथ. तब मैं माफ
करूंगी. मुझे लगता है कि जिसे वास्तव में महसूस होगा कि उसने गलती की है, वह सार्वजनिक तौर पर माफी मांगेगा. जब कोई महसूस करता है, अपनी गलती तो उसे सार्वजनिक तौर पर गलती की माफी मांगनी चाहिए. यदि वह
सार्वजनिक तौर पर माफी मांगेगा तो उसे सुधरने और अच्छा बनने का एक मौका दिया जा
सकता है. उस माफी के बाद भी उसकी हरकतें नहीं बदलती तो उस पर फिर कार्यवायी होनी
चाहिए लेकिन प्रमोद को एक मौका मिलना चाहिए, इस बात के मैं हक में हूं.’
राजेन्द्र
यादवः ‘फिर ऐसा कर, सोनिया गांधी को बुला ले, मनमोहन सिंह को बुला ले, ओबामा को बुला ले. रामलीला
मैदान में माफी मांगने का सार्वजनिक कायक्रम रख लेते हैं.’
ज्योतिः
‘आपको जो भी लगे लेकिन जब तक वह सार्वजनिक तौर पर माफी नहीं मांग लेता, मैं माफ नहीं करूंगी.’
जब मेरी
और राजेन्द्र यादव की फोन पर यह बात हो रही थी, मीडिया और साहित्य में बहुत से लोगों को इस घटना की जानकारी हो चुकी थी. बहुत
से लोगों के फोन आने लगे थे.
एक दिन
पहले यानि एक जुलाई को जिस दिन दुर्घटना हुईं, जब मैं पुलिस के आने का इंतजार कर रही थी, उसी वक्त साहित्यिक पत्रिका पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज राजेन्द्र यादव के
घर आए थे. प्रेम भारद्वाज जब भी पाखी का नया अंक आता है, उसे देने के लिए वे स्वयं हर महीने राजेन्द्र यादव के घर आते हैं. उस दिन भी
वे पाखी देने ही आए थे. जब प्रेम भारद्वाज वहां पहुंचे तो उन्होंने मेरी हालत देखी.
राजेन्द्र यादव ने प्रेम भारद्वाज के हाथ से पाखी लेकर बोला- ‘ठीक है, ठीक है. अब जाओ.’
मैने
कहा- ‘प्रेम भारद्वाज जाएं क्यों, उन्हें भी पता चलना चाहिए, आपके घर में क्या हुआ है?
प्रेम
भारद्वाज ने पूछा - ‘क्या हुआ?’
राजेन्द्र
यादव का जवाब था- ‘कुछ नहीं हुआ, तुम जाओ यहां से.’
प्रेम
भारद्वाज के जाने के बाद पुलिस आई. पुलिस के आने का जिक्र मैं पहले कर चुकी हूं.
राजेन्द्र यादव द्वारा दिया गया, शराब पीने का ऑफर जब
दिल्ली पुलिस ने ठुकरा दिया और इस बात पर भी सहमत नहीं हुए कि किसी स्त्री पर हमला
छोटी बात होती है तो राजेन्द्र यादव को लगा कि यह बात उनसे अब नहीं संभलेगी.
उन्होंने किशन को कहा- ‘भारत भारद्वाज को फोन मिलाओ.’
जब तक
भारत भारद्वाज आए, पुलिस दरवाजे तक आ चुकी थी. भारत भारद्वाज ने आते ही कहा-
‘मैं डीआईजी हूं आईबी डिपार्टमेन्ट में. आप पहले मुझसे बात कीजिए, उसके बाद प्रमोद को लेकर जाइएगा.’
मैने
वहीं पर कहा- ‘ये रिटायर हो चुके हैं.’
मैने
देखा, प्रेम भारद्वाज गए नहीं थे. वे भारत भारद्वाज के साथ लौट आए
थे. हो सकता है कि वे भारत भारद्वाज के पास पत्रिका देने गए हों और राजेन्द्र यादव
का फोन आ गया हो.
भारत
भारद्वाज ने फिर पूछा- ‘क्या हुआ?’
मैने
पूरी कहानी उन्हें बताई, यह भी बताया कि घटना के
बाद मैने शिकायत की है और मेरी शिकायत पर
पुलिस आई है.
भारत
भारद्वाज फिर राजेन्द्र यादव के लिए, सलाह देने में व्यस्त हो
गए. अनंत विजय को बुला लो, उसके एक भाई सुप्रीम कोर्ट
में वकील हैं. पुलिस ने भारत भारद्वाज से कहा- ‘सर आपको जो भी बात करनी है, थाने में आकर करिए.’
जब एक
महिला के साथ बलात्कार होता है या फिर बलात्कार की कोशिश होती है. लड़की की इससे
सिर्फ शरीर की क्षति नहीं होती. उसका मन भी टूटता है. हमले का मानसिक असर भी गहरा
होता है. मेरे साथ जो हुआ, मैं उससे अभी तक बाहर निकल
नहीं पाई हूं. यह अलग बात है कि मैं लड़ रही हूं. मैने हिम्मत नहीं हारी है.
कानूनी रूप से जो कर सकती थी, कर रही हूं. लेकिन इस घटना
का मेरे अंदर जो असर हुआ है, उसे सिर्फ मैं समझ सकती
हूं. इस तरह के अपराध के लिए समझौता कभी नहीं हो सकता है. कोई ऐसे मामले में
समझौता शब्द का इस्तेमाल करता है, इसका मतलब है कि वह लड़की
के साथ अन्याय करता है. मैने इस अन्याय को भोगा है. इस तरह के मामले में समझौते की
बात कहीं आनी नहीं चाहिए. मैं ना समझौते के लिए कभी तैयार थी, ना हूं और ना इस मामले में आने वाले समय में समझौता करूंगी. यह संभव है कि कोई
गलती करता है और अंदर से इस बात को महसूस करता है और माफी मांगता है तो उसे माफ
करके एक मौका दिया जा सकता है. समझौता और माफी देने में अंतर होता है. यदि मैं
प्रमोद को माफ करने पर विचार कर रही हूं तो इसे समझौता बिल्कुल ना कहा जाए. यह
शब्द एक पीड़ित लड़की के लिए अपमानजनक है. एक तो लड़की के साथ गलत हुआ है. लड़की
ने उसे भुगता. उस पीड़ा के शारीरिक मानसिक असर से लड़की गुजरी. अब उस पीड़ा से जुझ
रही लड़की से अपराधी को माफ करने के लिए कहा जा रहा है और उसे समझौता नाम दिया जा
रहा है. यह ऐसा ही है जैसे किसी ने पीड़ा से गुजर रही लड़की को दो थप्पड़ और मार
दिया हो. वही सारी घटनाएं फिर एक बार मेरे साथ दुहराई जा रही हों. इसलिए समझौता
नहीं, प्रमोद के लिए माफी शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए. यदि उसे
अपनी गलती का एहसास है तो जरूर उसे एक मौका मिलना चाहिए.
अकेला
प्रमोद इस गुनाह में शामिल है या फिर कुछ और लोग भी प्रमोद के पीछे इस गुनाह में
शामिल हैं. इसका सही-सही जवाब राजेन्द्र यादव दे सकते हैं. मान लीजिए प्रमोद ने
किसी के बहकाने पर यह सब किया. पैसा लेकर किया. लेकिन सच यह है कि मेरे साथ अपराध
प्रमोद ने किया. मेरा अपराधी प्रमोद है. उसने ऐसा कदम क्यों उठाया? इसका जवाब प्रमोद दे सकता है.
सच्चाई
है कि राजेन्द्र यादव ने मेरा वीडियो नहीं बनाया, मुझ पर शारीरिक हमला भी नहीं किया. फिर भी मैने हंस का बहिष्कार किया. इसके
पीछे वजह यही है कि राजेन्द्र यादव स्त्री सम्मान की बात करते हैं लेकिन जब उनके
सामने स्त्री सम्मान पर हमला हुआ तो वे चुप थे. प्रमोद को पहले दिन थाने से
निकलवाने में राजेन्द्र यादव की अहम भूमिका रही. प्रमोद के खिलाफ एफआईआर ना हो, इसमें राजेन्द्र यादव की पूरी भूमिका
रही. वह नहीं रूकवा पाए, यह अलग बात है, लेकिन उन्होंने जोर पूरा लगा लिया था. पहले दिन जब प्रमोद थाने से छुट कर आया
तो उनके घर में ही था. उनके घर में वह काम करता रहा. उसकी दूसरी बार दो महीने
बाद गिरफ्तारी उनके घर से ही हुई. यदि कोई
लड़का आपके यहां काम करता हो तो यह बात समझ में आती है कि वह आपके नियंत्रण में ना
हो और उसका अपराध आपकी जानकारी में ना हो. लेकिन जब राजेन्द्र यादव एक जुलाई की
घटना के चश्मदीद हैं, सबकुछ उनकी आंखों के सामने घटा है, वे कम से कम प्रमोद से अपना रिश्ता खत्म कर सकते थे. प्रमोद उनके घर में रहा
और काम करता रहा. इतना ही नहीं, उलट राजेन्द्र यादव मुझपर
ही दबाव बनाते रहे कि समझौता कर लो. केस वापस ले लो. उनकी तरफ से कई लोगों के फोन
आ रहे थे- ‘तुम्हारा साहित्यिक कॅरियर चौपट हो जाएगा. तुम साहित्य से बाहर हो
जाओगी.’
मैं नहीं
मानी.
राजेन्द्र
यादव ने तरह-तरह के एसएमएस भी मेरे पास भेजे. वे साहित्यिक व्यक्ति हैं, इसलिए उनकी धमकी भी साहित्यिक भाषा में थी.
‘तुम जो
कर रही हो, समझो इसमें सबसे अधिक नुक्सान किसका है?’
‘मूर्ख
उसी डाल को काटता है, जिस पर बैठा होता है.’
‘तुम्हें
आना तो मेरे पास ही पड़ेगा.’
यह सारे
एसएमएस मेरे पास सुरक्षित हैं. 27 जुलाई को राजेन्द्र यादव का फोन आया- ‘प्रमोद
माफी मांगने को तैयार है. लेकिन सार्वजनिक माफी से पहले, वहां कौन-कौन से लोग होंगे, यह तय करने के लिए हम लोग
मिले. मिलकर बात करते हैं. वह मिलकर भी तुमसे माफी मांग लेगा और सार्वजनिक तौर पर
भी माफी मांग लेगा. मिलने की जगह नोएडा (उत्तर प्रदेश), सेक्टर सोलह का मैक डोनाल्ड तय हुआ.
बात हुई
थी माफी मांगने की लेकिन प्रमोद वहां भी मुझे धमकाने लगा. अपना केस वापस ले लो
वर्ना मार के फेंक देंगे. लाश का भी पता नहीं चलेगा. किशन भी साथ दे रहा था. उस
दिन मज्कूर आलम मेरे साथ थे. राजेन्द्र यादव उनके द्वारा सार्वजनिक माफी के लिए
सुझाए जा रहे सारे नामों को एक-एक करके खारिज कर रहे थे. मानों घर से राजेन्द्र
यादव प्रमोद के साथ सार्वजनिक माफी की बात सोचकर निकले हों और यहां आकर बदल गए हों.
नामों को लेकर राजेन्द्र यादव की आपत्ति कायम थी. नहीं यह नहीं होगा. इसे क्यों
बुलाएंगे. ऐसा करो कि वकील को बुला लेते हैं. बात खत्म करो.
उनका यह
रूख देखकर मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा.
‘जब मैने
स्पष्ट कर दिया है कि सार्वजनिक माफी से कम पर बात नहीं होगी और आपको यह स्वीकार्य
नहीं है तो मिलने के लिए क्यों बुलाया?’
राजेन्द्र
यादव का वहां बयान था- ‘अब मैं और तुम आमने-सामने हैं. अब प्रमोद से तुम्हारी
लड़ाई नहीं है. यदि तुमने मेरी बात नहीं मानी तो अब तुम्हारी लड़ाई मुझसे है.’
इस घटना
से पहले मैं राजेन्द्र यादव को ई मेल पर हंस और राजेन्द्र यादव के बहिष्कार की
सूचना दे दी थी. उन्होंने हंस के अंक में मेरी कहानी की घोषणा की थी. मैने कहानी
देने से मना कर दिया. मैं ऐसी पत्रिका को कहानी नहीं दे सकती, जिसका दोहरा चरित्र हो. मेरे ई मेल भेजे जाने के बाद भी उन्होंने मेरी समीक्षा
छाप दी. (यह बातचीत हंस, अक्टूबर 2013 अंक आने से
पहले हो चुकी थी, उस वक्त हंस में ‘समीक्षा’ के लिए राजेन्द्र यादव की माफी
नहीं छपी थी) मैने जो ई मेल राजेन्द्र यादव को भेजा था, उसमें साफ शब्दों में लिख दिया था कि मेरा निर्णय समीक्षा पर भी लागू होता है.
इसके बावजूद उन्होंने समीक्षा छाप दी. समीक्षा छापने के बाद उन्होंने मुझे सूचना
भी नहीं दी. मेरी लेखकीय प्रति अब तक मेरे पास नहीं आई.
मेरे पास
एक परिचित का फोन आया, तुमने हंस का बहिष्कार किया है और तुम्हारी समीक्षा हंस में
छपी है. यह फोन आने के बाद मैने राजेन्द्र
यादव को फोन किया. उनकी पत्रिका 20-21 से पहले कभी प्रेस में नहीं जाती है लेकिन
राजेन्द्र यादव ने कहा- इस बार पत्रिका 18 को ही प्रेस में चली गई. इसलिए समीक्षा
रोक नहीं पाए. मैने कहा- आप अगले अंक में छाप दीजिएगा कि समीक्षा कैसे छप गई? जिससे पाठकों में भ्रम ना रहे. राजेन्द्र यादव ने उस वक्त कहा कि ठीक है. तीन
दिनों बाद राजेन्द्र यादव का फोन आया- ‘समीक्षा छापने का निर्णय संजय सहाय का था, इसलिए वही बताएंगे कि क्या जाएगा?’
मैने
राजेन्द्र यादव से कहा- ‘आप संजय सहाय से बात करके खबर करवा दीजिएगा.
उनकी तरफ
से कोई फोन नहीं आया. मैंने फिर उन्हें ई मेल किया. आपने स्पष्टीकरण की बात कही थी, आप इस बार हंस में क्या छाप रहे हैं, आपका जवाब नहीं आया. इस ई
मेल का जवाब नहीं आया तो मैने एक और ई मेल उन्हें लिखा. लेकिन उसका जवाब भी नहीं
आया.
जब हंस
का सितम्बर अंक हाथ में आया, उसमें राजेन्द्र यादव ने
मेरे लिए अपमानजनक बातें लिखी थी. जो उन्हें लिखना था, ज्योति ने हंस का बहिष्कार किया है. वह कहीं नहीं लिखा. उन्होंने मना करने के
बावजूद समीक्षा छापने की बात भी कहीं नहीं लिखी. जब तक मैं उनके पास काम कर रही थी, तब तक बहुत अच्छी थी. जब मैने उनके घर में हुए गलत हरकत का विरोध किया तो
उन्होंने मेरा साथ नहीं दिया. जब मैने उनका और उनकी पत्रिका का बहिष्कार किया तब
उनको याद आया कि मेरा काम दस हजार के लायक भी नहीं था. यदि मेरा काम अच्छा नहीं था
तो मुझे हंस में अपने पास रखा क्यों था? निकाला क्यों नहीं? मैंने तो कभी उनसे चंदा नहीं मांगा. क्या राजेन्द्र यादव जबर्दस्ती चंदा
बांटते हैं. यदि राजेन्द्र यादव जबर्दस्ती चंदा बांटते है तो फिर यह चंदा सिर्फ
ज्योति को क्यों? यदि चंदा ही दे रहे थे तो फिर बदले में इतना काम क्यों लेते
थे?
19 comments:
हिन्दी साहित्य के 'शिखर' पुरुषों के कारनामे सुनकर अक्सर लगता है कि मेहनत और लम्बी साधना से उन्होंने अपने लिए वही जीवन बना लिया है जिसपर थूकते हुए और जिसे ललकारते हुए वे संस्कृति, ज्ञान और लेखन की दुनिया में दाख़िल हुए थे। पिछले दौर के नव-उदारीकरण ने उनकी ताक़त और बेहयाई को कुछ बढ़ाया ही है। नतीजा यह है कि जिस अनुपात में वे अपनी मनुष्यता से गिरे हैं उसी अनुपात में नई पीढ़ी के लिए रोल मॉडल भी बने हैं। शिखर पुरुष या मठाधीश शब्द सुनकर सहज ही तीन-चार चेहरे सामने आ जाते हैं, पर ये तो प्रतिनिधि चेहरे हैं। असल संख्या दर्जनों में, शायद एकाध सौ में है । बहुत से वैसा बनने का अरमान भी रखते हैं।
कभी कभी लगता है ये लोग बड़े बेबस हैं। पर ये 'बेबसी' नारायणदत्त तिवारी, संत आसाराम बापू, बाबा रामदेव और भगवान चंद्रास्वामी की 'बेबसी' से किसी क़दर कम नहीं है। इनसे आतंकित होने के बजाय इनका सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार करना ज़रूरी है - निजी तौर पर भी और संगठित होकर भी। राजनीतिक शून्य और दिशाहीनता के बीच में भी यह ज़िम्मेदारी नए लोगों पर आयद होती है, क्योंकि संघर्ष और आत्मसंघर्ष की दौलत बेशतर उन्हीं के पास है। उनका सब कुछ 'आज और अभी' में नहीं भविष्य में है, जो - भले ही वे मानें या न मानें - उन्हीं के हाथ में है।
हिंदी साहित्य में राम होना सांप्रदायिक हो सकता है, इसीलिए सब मठाधीश उम्र के आखिरी पड़ाव तक रावण हुए जाते हैं..
निखिलानन्द जी की बात भी पाएदार लगी लेकिन यहाँ मुद्दा शायद सांप्रदायिक नहीं है बल्कि लैंगिक है और लैंगिकता के ज़ेरे साए ही कोई क़ायदे की बात हो सकती है । कबाड़खाना वो अकेला गंभीर मंच है जिस पर बिना किसी रसलोलुपता के इस ज़रुरी बहस को आगे ले जाना मुमकिन है वरना अभी तक जो कुछ अन्य मंचों पर दिखा है वो राजेंद्र के गौरवमयी अतीत को भी लांछित करता है जो मुझे हैरान करता है । बात प्रकरण तक रहेगी तभी शायद सार्थकता भी रहेगी ।
मैं ज्योति कुमारी के पक्ष में हूँ...राजेन्द्र यादव ने जिस तरह से अपने नौकर प्रमोद को शह दी है, उससे सिद्ध होता है के स्त्री उनके लिए एक खिलौना मात्र है...हंस के माध्यम से राजेन्द्र लेखिकाओं का मानसिक शोषण करते दीखते हैं..यदि वे ज्योति को बच्ची मानते थे, रचना की तरह तसव्वुर करते थे तो प्रमोद को प्रोटेक्ट न करते...उनके विकार-ग्रस्त जीवन से इसीलिए आ. मन्नूजी उनसे अलग हो गई थीं...राजेन्द्र यादव के आचरण की भर्त्सना की जानी चाहिए और ज्योति कुमारी के पक्ष में हमें खडा होना चाहिए...एक स्त्री के लिए बड़ा मुश्किल है देह और सम्मान बचाकर पुरुषों के समाज में जी लेना....ज्योति कुमारी की हतक हुई है...हम ज्योति के साथ हैं...क्या मज़ाक है कि एक अवकाशप्राप्त डी आई जी भारत भारद्वाज, राजेन्द्र यादव और उनके नौकर के पक्ष में खडा होता है...ये एक नेक्सस है...इसे व्यूह को भेदने के लिए ज्योति कुमारी की हिम्मत को नमन.....
शिखर पुरुषोँ के व्यूह को भेदने के लिए ज्योति को बेहद निर्मम होना होगा।अगर यह पूरा वाकया सच है तो न केवल प्रमोद बल्कि उसे बचाने मेँ लगे तमाम लोगोँ को कटघरे मेँ खिँचे जाने की जरूरत है।कानून के औजारोँ के साथ-साथ सभी लोकतांत्रिक अधिकारोँ का उपयोग करने की जरूरत है।क्योँकि क्या जरूरी है कि यह गैँग आगे ऐसा नहीँ करेगा? आखिर पता भी तो चले कि शिखर के महारथियोँ के बड़े(बड़बोले) विमर्शोँ का दूसरा पहलू क्या है?
किसी के किसी के हाथों पुरुस्कार ले लेने या कहीं किसी नाटक का मंचन भर होने से उफन उफन कर आने वाले वे वाग्वीर अब कहीं दिखाई नहीं देते किन्तु असल ज़ात की पहचान तो ऐसे ही मौक़ों पर होती है । एक लड़की के पक्ष में बोलने से कतरा रहे वे तमाम बक्काल ही असल कारण हैं साहित्यिक पतनशीलता के इस चरम का ।
"इनसे आतंकित होने के बजाय इनका सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार करना ज़रूरी है - निजी तौर पर भी और संगठित होकर भी। राजनीतिक शून्य और दिशाहीनता के बीच में भी यह ज़िम्मेदारी नए लोगों पर आयद होती है, क्योंकि संघर्ष और आत्मसंघर्ष की दौलत बेशतर उन्हीं के पास है। उनका सब कुछ 'आज और अभी' में नहीं भविष्य में है, जो - भले ही वे मानें या न मानें - उन्हीं के हाथ में है।"
मैं असद ज़ैदी की बात से शब्दशः सहमत हूं. जिस तरह राजेंद्र यादव प्रमोद नाम के अपने नौकर को बचा रहे हैं इससे साफ़ है कि उनकी कई नसें उसके हाथ में हैं. ऐसे मौक़ों पर अच्छे नेटवर्क वाले जिस आत्मविश्वास से भरे रहते हैं, राजेंद्र यादव उसका अपवाद नहीं हैं. मैं ऐसे उन सभी वर्चस्वशाली लोगों को धिक्कारता हूं जिन्होंने ज्योति के विरोध में अपने सारे शक्तिस्रोतों को आज़माया. ज्योति के साथ मैं हर तरह के समर्थन में खुद को प्रस्तुत पा रहा हूं. हिंदी साहित्य के अनेक स्थापित लोग पाठकों के मन में अपनी कृतियों के प्रति इतना भी भरोसा और स्नेह नहीं जगा सके हैं कि उनकी किताबें बिना किसी सेकंड थॉट के कबाड़ी को न दी जा सकें.
आज इरफ़ान को यों आस्तीनें चढ़ाए देख गुज़रे दिनों की याद आ गई जब इसी मंच पर कई ऐतिहासिक बहसों में मैंने उसे सत्य और न्याय के साथ खड़ा देखा । कौन आया कौन नहीं , अब मेरी ये शिक़ायत जाती रही है । इस धिक्कार नाद में मुझे अपने साथ जानें केवल बाबा रामदेव के नामोल्लेख पर मेरी असहमति है बाक़ी जो राय पंचों की ।
"स्त्री विमर्श के पुरोधा" की नज़र से देखे जा रहे ऐसे वरिष्ठ व्यक्ति की इस पूरी घटना में जो बूमिका रही, वह न सिर्फ सरासर गैर-जिम्मेदाराना है, बल्कि किसी छुपे एजेंडा/स्वार्थ की आशंका भी जताती है। वरना इस मामले में साफ तौर पर ज्योति कुमारी का पक्ष मजबूत और प्रमोद की हरकत अपराधिक है। ऐसे में अगर सब कुछ अपनी आंखों से देखने के बाद भी कोई लगातार अपराधी के पक्ष में खड़ा दिखता है, उसका बचाव तक करता है और आरोपी पर शुरू से ही लगातार दबाव डालता है कि वह अपनी बात न कहे, पुलिस में न जाए, माफ कर दे, समझौता कर ले, और आखिर में वही स्त्री-विरोधी गंदा हथियार कि तुम किसी लायक नहीं थी (मैंने ही पर दया की, इंसान बनाया, वरना तू कौन!)तो निसचित तौर पर यह नैतिक अपराध है। कानून तो अपना काम करेगा, वह अलग बात है।
भारतीय जनमानस में रावण है, कंस है, आसाराम है और राजेन्द्र यादव है...ऐसा नही है कि मेरी हंस से कोई खुन्नस है...मेरी अब तक हंस मेंपांच कहानियां छप चुकी हैं...हंस हमारे समय का व्यस्क लेखन परोसने में अग्रणी है..असहमति में सहमती की गुंजाइश हंस में है...पाठकों की सक्रीय भागीदारी हंस का कीर्तिमान हैं...लेकिन राजेन्द्र यादव ने यदि नौकर प्रमोद के प्रति नरमी न दिखलाई होती तो कोई बात थी...उन्होंने ज्योति कुमारी की हतक को महत्त्व नही दिया और ताल-मटोल करते रह गए...इससे उनकी स्त्री-विमर्श की पोल खुलती है...जिस तरह से भक्त आसाराम से कोई प्रश्न नही करते उसी तरह हिंदी के नए लेखक स्टार सम्पादक राजेन्द्र यादव से कोई प्रश्न नही कर पाते...ये सिलसिला जाने कब से चल रहा है...लेखक धन और धर्म दोनों दांव पर लगाते हैं...
मुनीश जी की बात से मैं भी सहमत हूँ । सबको एक लाठी से हाँकना ठीक नही है ।
ज्योति जी ने सत्य व सम्मान के लिये जो कदम उठाया है वह बेहद जरूरी था । आखिर नाम के लिये ऐसे लोगों की कठपुतली बनना किसी तरह भी सही नही जो गलत हैं ।
हंस से मेरा कुछ लेना देना नहीं है, न भविष्य में किसी तरह का सम्बन्ध की चाह है, लेकिन मैं ज्योति को भी नहीं जानती, न इस मामले को ही. ज्योति कुमारी + राजेंद्र यादव गूगल किया तो दिखता है कि फरवरी से लेकर अब तक ज्योति कई तरह के विवादों की रोशनी में ही खड़ी हैं, इसीलिए पहली नज़र में ये भी विवाद की अगली कड़ी ही लगती है (मेरी दूरी और सीमित जानकारी के चलते ये मानकर चल रही हूँ कि मेरा ये इम्प्रेशन गलत हो सकता है, ऐसा हो तो बहुत अच्छा, पहले से माफी भी माँगती हूँ ). ऐसे खिलाड़ियों के पीछे मैं खड़ी नहीं हो सकती, जो लगातार एक के बाद दूसरे विवाद से चर्चा में बने रहते हैं (कभी नामी-बदनाम बुड्ढों की गोद में, कभी उनके विरोध में). मालूम नहीं कि हमारे समय में विरोधों का भी क्या औचित्य है, दुर्गा शक्ति नागपाल और कमल भारती दोनों महीनें भर के भीतर समझोतों की झोली में जा गिरे हैं, ऐसे सामर्थ्य वाले लोग जिनके पीछे समाज खड़ा रहा, जिनकी बुनियाद कुछ पुख्ता थी और विरोध का स्वर भी मौलिक था, भी खड़े नहीं रह सके. मैं औरतों की खुदमुख्तारी की कद्र करती हूँ, और उन पर हुए किसी भी तरह के हमले का विरोध भी करती हूँ, लेकिन इस प्रसंग को लेकर फिलहाल संशय मैं हूँ…
गीता श्री के सम्पादन में एक पुस्तक आई थी जिसका शीर्षक था 'नागपाश में स्त्री' जो समर्पित थी ''स्त्री-विमर्श के प्रथम पुरुष हमारे राजेंद्र यादव के लिए'' पर दुखद ..यह तो साफ़ साफ़ दीख रहा है कि एक स्त्री पुरुषवादी मानसिकता के नागपाश में हैरान परेशांन है 'बीमार आदमी के स्वस्थ्य अंजुमन' में यह जो कुछ भी हुआ बहुत निर्मम, बेहद शर्मनाक बहुत निराश करने वाला था ..हंस के अक्टूबर अंक में अपने सितम्बर सम्पादकीय पर राजेंद्र यादव ने खेद प्रकट किया है कि बहिष्कार के बावजूद ज्योति की लिखी समीक्षा पत्रिका में छाप दी गई , अब सवाल यह है कि जिसे वे बेटी सा स्नेह दे रहे थे जो उनके परिवार का हिस्सा बन चुकी थी और ज्योति वैसा महसूस भी कर रही थीं कैसे उसी से जुड़े इतने संवेदनशील मुद्दे पर वे इस कदर तटस्थ रहे, कलम क्रांति अवसर पड़ते ही बेतरह चौपट क्यों हो गई। अपने कार्यालय के अपराधी मानसिकता वाले कर्मचारी को इतना अनुभवी आदमी पहचान ही न सका यह भी अविश्वसनीय है आखिर प्रमोद का गुनाह उनकी नाक का सवाल क्यों बन जाना चाहिए था किन्तु मित्रों अविश्वसनीय यह भी है कि ज्योति राजेन्द्र यादव द्वारा गिफ्तिद जिन गालियों का उल्लेख बड़ी मासूमियत से करती रही हैं उन्हें वे ''बड़ा स्वाभाविक है'' मात्र यह मान कर आल्हादित होती रहीं | आत्मसमान आत्म सजगता भी माँगता है एक व्यस्क स्त्री इसे भली तरह समझती है पर इसे वे समझ बूझकर भूलीं रहीं हम सभी स्त्रियों को इससे सबक सीखना चाहिए |
सचमुच यह हैरान कर देने वाली बात है ..शर्मनाक ...निंदनीय और घृणित भी .....लेकिन क्या हम इन मठाधीशों का कुछ भी बिगाड़ पायेंगे ...फिलहाल लगता तो नहीं है ...
वैसे मैंने राजेंद्र यादव और ज्योति की 'बीमार विचार' किताब पढ़ी है , जिसमें राजेन्द्र जी द्वारा अपने को 'साली-हरामी' कहे जाने पर ज्योति कुमारी लहालोट दिखाई देती हैं ....काश ! वे उस आने वाले समय को पहचान लेती ....
स पोस्ट की चर्चा, शुक्रवार, दिनांक :-18/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -27 पर.
आप भी पधारें, सादर ....नीरज पाल।
कहानी का अन्य पहलू यह है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है......मूल तथ्य यह है कि क्यों ज्योति इतने दिनों तक राजेन्द्र यादव के घर जाती रही..सिर्फ .....सिर्फ हंस में छपास व उससे जुड़े रहने केतर तक सीमित नहीं रही... लालच में ही न.....क्यों नहीं प्रारम्भ में ही उसने सीधी राह अपनाई ..अपनी राह चलने की..
----- महिला को न कहना सीखना होगा, किसी भी प्रलोभन से परे रहना होगा,सिर्फ पानी सहज राह चुनकर चलना होगा ... अन्यथा मेनका-विश्वामित्र...से आशाराम ...राजेन्द्र यादव-ज्योति के किस्से होते ही रहेंगे ....
---आग और पानी का संगम हो तो क्या अंजाम हो.... न आज तक कोइ रोक पाया है न रोक पायेगा...राजेन्द्र यादव क्या चीज़ है .....
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