Tuesday, December 24, 2013

मैं रहता हूँ एक स्त्री के चेहरे में

अदूनिस की कविताओं के अनुवादों की श्रृंखला जारी है -


अपनी प्रेमरत देह के लिए एक आईना

जब प्रेम करती है मेरी देह,
वह गला देती है दिन को उसके बवंडर के भीतर.
ख़ुशबुएँ आती है
उसके बिस्तर पर जहाँ से
सपने अदृश्य हो जाते हैं महक की मानिंद
और लौटती हैं, महक की मानिंद.
मेरी देह के हैं
शोक करते बच्चों के गीत.
पुलों के एक सपने में खोया
हुआ मैं, अनदेखी कर देता हूँ
किनारों से किनारों तक अपने सामने पड़ने वाली
तेज़ी से उठती सड़क की.



किसी भी आदमी के लिए एक सपना

मैं रहता हूँ एक स्त्री के चेहरे में
जो रहती है एक लहर में
एक उठानभरी लहर में
जिसे मिलता है
सीपियों के तले खो गए एक बंदरगाह
जैसा एक किनारा.
मैं रहता हूँ एक स्त्री के चेहरे में
जो खो देती है मुझे
ताकि वह बन पाए
मेरे पगलाए और यात्रारत खून के वास्ते
इंतज़ार करता एक प्रकाशस्तम्भ.



एक स्त्री और एक पुरुष

“कौन हो तुम?”
“निर्वासित कर दिया गया मसखरा समझ लो,
समय और शैतान के कबीले का एक बेटा.”
“क्या तुम थे जिसने सुलझाया था मेरी देह को?”
“बस यूं ही गुज़रते हुए.”
“तुम्हें क्या हासिल हुआ?”
“मेरी मृत्यु.”
“क्या इसीलिये तुम हड़बड़ी में रहते थे नहाने और तैयार होने को?
जब तुम निर्वस्त्र लेटे रहते थे, मैंने अपना चेहरा पढ़ा था तुम्हारे चेहरे में.
मैं तुम्हारी आँखों में सूरज और छाँव थी,
सूरज और छाँव. मैं तुम्हें कंठस्थ कर लेने दिया मुझे
जैसे एक छिपा हुआ आदमी करता है.”
“तुम जानती थीं मैं तुम्हें देखा करता था?”
“लेकिन तुमने मेरे बारे में क्या जाना?
क्या अब तुम मुझे समझते हो?”
“नहीं.”
“क्या मैं तुम्हें खुश कर सकी, क्या बना सकी तुम्हें कम भयभीत?”
“हाँ.”
“तो क्या मुझे नहीं जानते तुम?”
“नहीं. तुम जानती हो?”

2 comments:

  1. उम्दा , बेहतरीन अंदाज़ में दिल को छूने वाली बात । ज़रूर ये शिया होंगे । विश्व साहित्य और सिनेमा में शियाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।

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