महीने भर की हाड़ तोड़ व्यस्तता के के बाद कल जब अपने ठिए पर आया तो क्या देखता हूँ कि हियां तो लठ्ठम - लठ्ठ होय रही है और और दुनिया चैन से सोय रही है. सावन का महीना का चल्लिया है: कभी तेज धूप - कभी हल्की बारिश तो कभी धुंध - कोहरा.... ऐसे में क्या किया जाय ? जरा सोचो तो - 'सब ठाठ पड़ा रह जाएगा' फिर भी अपनी प्यारी 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' जमावड़ा अपने हाथ में लुकाठ लिए 'चुभते चौपदे' गा रहा है और वक्त है कि निकला जा रहा है ..किसका फायदा - किसका नुकसान .. जरा सोचो सिरीमान .. मैं ठहरा मूढ़मति - मेरी क्या गति ! बातचीत चलती रहे...अजी किसने रोका है .. पर.. मगर.. इस ठिए पर कित्ते दिनों से गाना बजाना ना हुआ..गल्त बात है ... सो आज गाना... बस्स गाना....आइए सुनते हैं यह ग़ज़ल ...
तेरे आने का धोका - सा रहा है.
दिया सा रात भर जलता रहा है.
अजब है रात से आँखों का आलम,
ये दरिया रात भर चढ़ता रहा है.
सुना है रात भर बरसा है बादल,
मगर वह शहर जो प्यासा रहा है.
वो कोई दोस्त था अच्छे दिनों का,
जो पिछली रात से याद आ रहा है.
किसे ढूँढोगे इन गलियों में 'नासिर',
चलो अब घर चलें दिन ढल रहा है.
शब्द : नासिर काज़मी
स्वर : आबिदा परवीन
सुना है रात भर बरसा है बादल,
ReplyDeleteमगर वह शहर जो प्यासा रहा है.
waah bahut khub
वाह..वाह.. और वाह...
ReplyDeleteयहां तो राग जातिकल्याण, पूरियाजोगी और क्लेशधनाश्री सुन-सुनकर ही कान पक गए थे...बुरा कहो या भला अपन को सिद्धेश्वरजी की बात जमी।
भई वाह
कई दिनों तक चूल्हा रोया
चक्की रही उदास....
कबाड़खाने के कौओं को पांख खुजाने का
मौका देनेवाले सिद्धेश्वर बाबू की जै जैकार है।
बहुत दिनों की उठापटक के बाद ब्लॉग पर कुछ सुकून मिला !!
ReplyDeleteनासिर काज़मी की गज़ल सुन कर
ReplyDeleteबड़ा सुकून मिला।
अजब है रात से आँखों का आलम,
ReplyDeleteये दरिया रात भर चढ़ता रहा है.
अहा ! क्या बात है ... सिद्धेश्वर जी ...आबिदा सुनकर सारे मौसम खुशनुमा ...बहुत आभार आपका
कुछ कहना नहीं है .... क्या कह सकता हूँ ? जैसा कि आप ने कहा .... बस्स सुनते हैं !! वाह !!!
ReplyDeletetaazgi ke liye shukriya saaheb.
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteDon't be so coy Mehek ! Look straight 'cos we are all gentle souls by jove pleeees!
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