Monday, December 27, 2010

उंह... ये भी कोई मुद्दा है

"माटु हमरु, पांणी हमरु, हमरा ही छन यी बौण भी... पितरोंना लगायी बौण, हमुनाही त बचोण भी..."
Soil ours, water ours, ours are these forests. Our forefathers raised them, it's we who must protect them.
-- चिपको आन्दोलन के दौर में चला गढ़वाली लोकगीत 

७२-७५ में कुछ चला था चिपको के नाम पर, तब उन लोगों को पता था कि हमें क्या बचाना है , कौन आएगा पेड़ काटने , पेड़ क्यूँ बचाने हैं वगैरह वगैरह | अब व्यवस्था ने कुल्हाड़ी हमारे ही हाथो में दे दी है , और हम विकास के नाम पर उन्ही पेड़ों को काट रहे हैं| सच बताऊँ तो उन बेचारे कम-पढ़े लिखे इंसानों ने चाहे तो अंधश्रद्धा से चाहे खालिस साइंटिफिक सोच से वो सब करने की प्रेरणा ली है, वो अब हमारे पास नहीं है| चाहे साधुओं की गंगा को अविरल बहने देने का भावुक अनुरोध हो , या सुन्दरलाल बहुगुणा जी का पर्यावरण संरक्षण का वैज्ञानिक दृष्टिकोण, किसी से हमें कुछ फर्क नहीं पड़ता | बाँध बनाना देश के विकास के लिए जरूरी क्यों था, ये घोल घोल कर सबको पिलाया गया | हो गया विकास ? अभी २-३ महीने पहले ऋषिकेश हरिद्वार में बाढ़ आने से १०० लोगों की जान चली गयी | खैर ये खबर तो कश्मीर में पत्थरबाजी के चोंचलों की वजह से दब गयी | दैवीय आपदा ? ये खबर ऐसे हुई कि किसी को फर्क ही नहीं पड़ा | माना वो १०० लोग कोई नहीं थे, ज्यादातर तो उत्तराखंड के भी नहीं थे शायद, लेकिन कुछ तो इंगित है इस खबर में | बच्चे दब जाते हैं बेचारे , दैवीय आपदा ? युवाओं को रोज़गार देने के लिए इन्हें गोपेश्वर, चमोली, पिथोरागढ़, बागेश्वर बहुत हाईट पे लगता है, जब जंगल के जंगल साफ़ करने हो , या बड़े बाँध बनाना हो, तब क्या ? पहाड़ी इलाकों में मशीन , उद्योग विकसित करने के नाम पर ये लोग संस्कृति संरक्षण का रोना रोते है | अरे संस्कृति संरक्षण का मतलब ये तो नहीं कि हम लोग नंगे घूमे | थारु, भोटिया, बुक्सा ये जनजातियाँ कहाँ है ? क्या कर रही हैं ?  इतना ही संरक्षण दे रहे हो तो बता दो | ये सब संस्कृति को गाँव में छोड़कर शहर में मजदूरी कर रहे हैं | 


(माँ हमेशा मुझे कहती है कि 'उलटंत कनी ह्वे तेरी' इट मीन्स कि तू हर काम उल्टा क्यूँ करता है | सही मौके पे सही मुद्दा भी नहीं रख पाता हूँ |)

5 comments:

  1. विकास में बिना विचार किये निर्णय ले चुकने के आदी हो चुके हैं, विनाश को झेलने की शक्ति कहाँ से लायेंगे हम।

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  2. नीरज भाई, अभी पिछली जुलाई को ही हम दिल्ली से कुछ छात्र मिलकर, देवप्रयाग के पास बन रहे तीन बांधों: कोठलीबेल -१ , २ और श्रीनगर में बन रहे बाँध से प्रभावित गाँवों में गए थे और वहां रहने वालों से बात-चीत की. हर जगह हमें इस बड़े पैमाने के विनाश का पता चला.. विशेषकर गाँव की महिलाओं ने जल-स्रोतों और चारे पर होने वाले भयानक दुष्प्रभाव के बारे में बताया, कुछ गाँवों में तो महिलाएं २५ किलोमीटर दूर से चारा लाती हैं. अधिकाँश जगह सरकारी "जन-सुनवाइयां" ढोंग के अलावा कुछ नहीं. गाँव के प्रधान और ताकतवर लोग पैसे खा-कर पूरे गाँव की और से बाँध में ज़मीन देने के लिए तैय्यार हो जाते हैं. ज्यादातर लोग अब इसे नियति मान कर निराश बैठे हैं,या ज्यादा से ज्यादा और अधिक मुआवज़े की बात कहते हैं मर्द बड़ी संख्या में मैदानों में नौकरी करते हैं, असली जहालत तो औरतों को झेलनी पड़ती है. इलाके के नाजुक इको-सिस्टम पर इसका क्या प्रभाव होगा और भविष्य में क्या आपदाएं आ सकती हैं यह सोचकर रूह सिहर जाती है. सूना है हाई-कोर्ट ने फिलहाल इन बांधों के निर्माण पर रोक लगाई है लेकिन कोर्ट भी बिकाऊ हैं ये तो आज सबसे ज़ाहिर बात है.

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  3. आजकल ख़बरें कहा मुद्दों की होती है. टी वी चैनल जिसे उछाल दे वो ही खबर बन जाये. अब चाहे वो किसी से पैसे लेकर किसी का स्टिंग आपरेशन हो या किसी हीरो के बीमार कुतिया की कहानी ही क्यों न हूँ..............आखिर ऐड तो वही खबर दिलवाती है. अब भला ये चैनेल क्योंकर किसी गाँव के इस दुर्दशा की खबर दिखने जायेंगे .. और वहा तक चले भी गए तो क्या पता कितने नाडिया जैसे लोग हो जो उन्हें वापस भेंजने का जुगत लगाये हो कुछ ले- देकर .

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  4. अरे साहब भ्रष्टाचार के बाद एक यही तो मुद्दा है जिस पर विचार विमर्श होना चाहिए. पर्यावरण को बचाना आज के वक्त की सबसे बड़ी जरुरत है जिस पर लिखे आपके दो शब्द मुझे अच्छे लगे.

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