बहुत
जुरूरी सवालात खड़े करती फ़ज़ल ताबिश की यह बेहद सामयिक नज़्म भी मैंने
मुबारक अली की फेसबुक वॉल से ली है –
नहीं
चुनी मैंने वो ज़मीन जो वतन ठहरी
नहीं चुना मैंने वो घर जो खानदान बना
नहीं चुना मैंने वो मजहब जो मुझे बख्शा गया
नहीं चुनी मैंने वो ज़बान जिसमें माँ ने बोलना सिखाया
नहीं चुना मैंने वो घर जो खानदान बना
नहीं चुना मैंने वो मजहब जो मुझे बख्शा गया
नहीं चुनी मैंने वो ज़बान जिसमें माँ ने बोलना सिखाया
और अब
मैं इन सबके लिए तैयार हूँ
मरने मारने पर
मैं इन सबके लिए तैयार हूँ
मरने मारने पर
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