गांव में एक आदमी रहता था जिसका नाम
गयादीन था. वह जोड़-बाकी, गुणा-भाग में बड़ा
काबिल माना जाता था, क्योंकि उसका पेशा सूदखोरी था. उसकी एक
दुकान थी जिस पर कपड़ा बिकता था और रूपये का लेन-देन होता था. उसके एक जवान लड़की थी,
जिसका नाम बेला था और बहिन थी, जो बेवा थी और
एक बीवी थी जो मर चुकी थी. बेला स्वस्थ, सुन्दर, ग्रह कार्य में कुशल और रामायण और माया-मनोहर कहानियां पढ़ लेने-भर को
पढ़ी-लिखी थी. उसके लिए एक सुन्दर और सुयोग्य वर की तलाश थी. बेला तबीयत और जिस्म,
दोनों से प्रेम करने लायक थी. और रुप्पन बाबू उसको प्रेम करते थे,
पर वह यह बात नहीं जानती थी. रूप्पन बाबू रोज रात को सोने के पहले
उसके शरीर का ध्यान करते थे और ध्यान को शुद्ध रखने के लिए उस समय वे सिर्फ़ शरीर
को देखते थे, उस पर के कपड़े नही. बेला की बुआ गयादीन के घर
का काम देखती थी और बेला को दरवाजे से बाहर नहीं निकलने देती थी. बेला बड़ों की
आज्ञा मानती थी और दरवाजे से बाहर नहीं निकलती थी. उसे बाहर जाना होता तो छत के
रास्ते, मिली हुई छतों को पार करती हुई, किसी पड़ोसी के मकान तक पहुंच जाती थी. रूप्पन बाबू बेला के लिए काफ़ी विकल
रहते थे और उसे सप्ताह में तीन-चार पत्र लिखकर उन्हें फ़ाड़ दिया करते थे.
इन बातों का कोई तात्कालिक महत्व
नहीं है. महत्व इस बात का है कि गयादीन सूद पर रूपया चलाते थे और कपड़े की दुकान
करते थे. कोआपरेटिव यूनियन भी सूद पर रूपया चलाती थी और कपड़े की दुकान करती थी,
दोनों शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व में रहते थे. वैद्यजी से उनके अच्छे
सम्बन्ध थे. वे कालिज की प्रबन्ध-समिति के उप-सभापति थे. उनके पास पैसा था,
इज्जत थी: उन पर वैद्यजी, पुलिस, रुप्पन, स्थानीय एम. एल. ए. और जिला बोर्ड के
टैक्स-कलेक्टर की कृपा थी.
इस सबके बावजूद वे निराशावादी थे.
वे बहुत संभलकर चलते थे. अपने स्वास्थ्य के बारे में बहुत सावधान थे. वे उड़द की
दाल तक से परहेज करते थे. एक बार वे शहर गये हुए थे. वहां उनके एक रिश्तेदार ने
उन्हें खाने में उड़द की दाल दी. गयादीन ने धीरे-से-थाली दूर खिसका दी और आचमन करके
भूखे ही उठ आये. बाद में उन्हें दूसरी दाल के साथ दूसरा खाना परोसा गया. इस बार
उन्होंने आचमन करके खाना खा लिया. शाम को रिश्तेदार ने उन्हें मजबूर किया कि वे
बतायें,
उड़द की दाल से उन्हें क्या ऎतराज है. कुछ देर इधर-उधर देखकर
उन्होंने धीरे-से बताया कि उड़द की दाल खा लेने से पेट में वायु बनती है और गुस्सा
आने लगता है.
उनके मेजबान ने पूछा,"अगर गुस्सा आ ही गया तो क्या हो जायेगा? गुस्सा कोई
शेर है या चीता? उससे इतना घबराने की क्या बात है?"
मेजबान एक दफ़्तर में काम करता था.
गयादीन ने समझाया कि उसका कहना ठीक है. पर गुस्सा सबको नही छजता. गुस्सा करना तो
सिर्फ़ हाकिमों को छजता है. हुकूमत भले ही बैठ जाये, पर वह तो हाकिम ही रहेगा. पर हम व्यापारी आदमी है. हमें गुस्सा आने लगा तो
कोई भूलकर भी हमारी दुकान पर न आयेगा. और पता नही कब कैसा झंझट खड़ा हो जाये.
गयादीन के यहां चोरी हो गयी थी और
चोरी में कुछ जेवर और कपड़े-भर गये थे और पुलिस को यह मानने मे ज्यादा आसानी थी कि
उस रात चोरों का पीछा करने वालों में से ही किसी ने चोरी कर डाली है. चोर जब छत से
आंगन में कूदा था तो गयादीन की बेटी और बहिन ने उसे नहीं देखा था और तब देखती तो
उसका चेहरा दिख जाता. पर जब चोर लाठी के सहारे दीवार पर चढ़कर छत पर जाने लगा तो
उसे दोनों ने देख लिया था और तब उन्होंने उसकी पीठ-भर देखी थी और पुलिस को उनकी इस
हरकत से बड़ी नाराजगी थी. पुलिस ने पिछले तीन दिनों में कई चोर इन दोनो के सामने
लाकर पेश किये थे और चेहरे के साथ-साथ उनकी पीठ भी उन्हें दिखायी दी थी: पर उनमें
कोई भी ऎसा नही निकला था कि बेला या उसकी बुआ उसके गले या उसकी पीठ की ओर से
जयमाला डाल कर कहती कि "दारोगाजी, यही
हमारा उस रात का चोर है." पुलिस को उनकी इस हरकत से भी बड़ी नाराजगी थी और
दारोगाजी ने भुनभुनाना शुरू कर दिया था कि गयादीन की लड़की और बहिन जान-बूझकर चोर
को पकड़वाने से इनकार कर रही हैं और पता नही, क्या मामला है.
गयादीन का निराशावाद कुछ और ज्यादा
हो गया था, क्योंकि गांव मे इतने मकान थे,
पर चोर को अपनी ओर खीचनेवाला उन्हीं का एक मकान रह गया था. और नीचे
उतरते वक्त चोर के चेहरे पर बेला और उसकी बहन की निगाह बखूबी पड़ सकती थी, पर उन निगाहो ने देखने के लिए सिर्फ़ चोर की पीठ को ही चुना था और दारोगाजी
सबसे हंसकर बोलते थे, पर टेढी बात करने के लिए अब उन्हें
गयादीन ही मिल रहे थे.
उस गांव में कुछ मास्टर भी रहते थे
जिनमें एक खन्ना थे जो कि बेवकूफ़ थे: दूसरे मालवीय थे,
वह भी बेवकूफ़ थे: तीसरे, चौथे, पाचवें, छठे और सातवें मास्टर का नाम गयादीन नही
जानते थे, पर वे मास्टर भी बेवकूफ़ थे और गयादीन की निराशा इस
समय कुछ और गाढ़ी हुई जा रही थी, क्योंकि सात मास्टर एक साथ
उनके मकान की ओर आ रहे थे और निश्चय ही वे चोर के बारे में सहानुभूति दिखाकर एकदम
से कालेज के बारे में कोई बेवकूफ़ी की बात शुरू करने वाले थे.
वही हुआ. मास्टर लोग आधे घण्टे तक
गयादीन को समझाते रहे कि वे कालिज की प्रबन्ध-समिति के उपाध्यक्ष हैं और चूंकि
अध्यक्ष बम्बई में कई साल से रहते आ रहे है और वही रहते रहेगें,
इसलिए मैनेजर के और प्रिंसिपल के अनाचार के खिलाफ़ उपाध्यक्ष को कुछ
करना चाहिए.
गयादीन ने बहुत ठण्डे ढंग से
सर्वोदय सभ्यता के साथ समझाया कि उपाध्यक्ष तो सिर्फ़ कहने की बात है,
वास्तव में यह कोई ओहदा-जैसा ओहदा नही है, उनके
पास कोई ताकत नहीं है, और मास्टर साहब, ये खेल तुम्हीं लोंग खेलो, हमें बीच में नहीं घसीटो.
तब नागरिक-शास्त्र के मास्टर उन्हें
गम्भीरता से बताने लगे कि उपाध्यक्ष की ताकत कितनी बड़ी है. इस विश्वास से कि
गयादीन इस बारे मे कुछ नही जानते, उन्होंने
उपाध्यक्ष की हैसियत को भारत के संविधान के अनुसार बताना शुरू कर दिया, पर गयादीन जूते की नोक से जमीन पर एक गोल दायरा बनाते रहे जिसका अर्थ यह न
था कि वे ज्योमेट्री के जानकार नहीं है, बल्कि इससे साफ़
जाहिर होता था कि वे किसी फ़न्दे के बारे में सोच रहे हैं.
अचानक उन्होंने मास्टर को टोककर
पूछा,"तो इसी बात पर बताओ मास्टर साहब कि भारत के उपाध्यक्ष कौन है?"
यह सवाल सुनते ही मास्टरों में भगदड़
मच गयी. कोई इधर को देखने लगा कोई उधर; पर
भारत के उपाध्यक्ष का नाम किसी भी दिशा में लिखा नहीं मिला. अन्त में
नागरिक-शास्त्र के मास्टर ने कहा,"पहले तो राधाकृष्णनजी
थे, अब इधर उनका तबादला हो गया है.
गयादीन धीरे-से बोले,"अब समझ लो मास्टर साहब, उपाध्यक्ष की क्या हैसियत
होती है.
मगर मास्टर न माने. उनमें से एक ने
जिद पकड़ ली कि कम-से-कम कालिज की प्रबन्ध-समिति की एक बैठक तो गयादीनजी बुलवा ही
ले. गयादीन गांव के महाजन जरूर थे, पर
वैसे महाजन न थे जिनके किसी ओर निकलने पर पन्थ बन जाता है. वे उस जत्थे के महाजन
थे जो अनजानी राह पर पहले किराये के जन भेजते हैं और जब देख लेते हैं कि उस पर
पगडण्डी बन गयी है और उसके धंसने का खतरा नही है, तब वे
महाजन की तरह छड़ी टेक-टेककर धीरे-धीरे निकल जाते हैं. इसलिए मास्टरों की जिद का उन
पर कोई खास असर नहीं हुआ. उन्होंने धीरे-से कहा,"बैठक
बुलाने के लिए रामाधीन को लगा दो मास्टर साहब! वे ऎसे कामों के लिए अच्छे रहेंगे."
"उन्हें तो लगा ही दिया है."
"तो बस,
लगाये रहो. खिसकने न दो, "कहकर गयादीन
आसपास बैठे हुए दूसरे लोगों की ओर देखने लगे. ये दूसरे लोग नजदीक के गांव के थे जो
पुराने प्रोनोट बढ़वाने, नये प्रोनोट लिखवाने और किसी भी हालत
में प्रोनोट से छुटकारा न पाने के लिए आये हुए थे. खन्ना मास्टर ने फ़ैसला कर लिया
था कि आज गयादीन से इस मसले की बात पूरी कर ली जाये. इसलिए उन्होंने फ़िर समझाने की
कोशिश की. बोले,"मालवीयजी, अब आप
ही गयादीनजी को समझाइए. यह प्रिंसिपल तो हमें पीसे डाल रहा है." गयादीन ने
लम्बी सांस खीची, सोचा शायद भाग्य में यही लिखा है, ये निकम्मे मास्टर यहां से जायेगे नहीं. वे देह हिलाकर चारपाई पर दूसरे
आसन से बैठ गये. आदमियों से बोले, "तो जाओ भैया!
तुम्हीं लोग जाओ. कल सबेरे जरा जल्दी आना."
गयादीन दूसरी सांस खींचकर खन्ना
मास्टर की ओर मुंह करके बैठ गये. खन्ना मास्टर बोले, "आप इजाजत दे तो बात शुरू से ही कहूं."
"क्या कहोगे मास्टर साहब?"
गयादीन ऊबकर बोले,"प्राइवेट स्कूल की
मास्टरी-वह तो पिसाई का काम है ही. भागोगे कहां तक?"
खन्ना ने कहा,"मुसीबत यह है कि एक कालिज की जनरल बाडी की मीटिंग पांच साल से नहीं हुई है.
बैदजी ही मैनेजर बने हुए है. नये आम चुनाव नहीं हुए हैं, जो
कि हर साल होने चाहिए."
वे कुछ देर रामलीला के राम-लक्ष्मण
के तरह भावहीन चेहरा बनाये बैठे रहे. फ़िर बोले,"आप लोग तो पढ़े-लिखे आदमी है. मैं क्या कह सकता हूं? पर
सैकड़ो संस्थाएं है जिनकी सालाना बैठकें बरसों नहीं होतीं. अपने यहां का जिलाबोर्ड!
एक जमाने से बिना चुनाव कराये हुए इसे सालों खीचा गया है." गाल फ़ूलाकर वे
भर्राये गले से बोले, "देश-भर में यही हाल है."
गला देश-भक्ति के कारण नहीं, खांसी के कारण भर आया था.
मालवीयजी ने कहा,"प्रिंसिपल हजारों रूपया मनमाना खर्च करता है. हर साल आडिटवाले एतराज करते
हैं, हर साल यह बुत्ता दे जाता है."
गयादीन ने बहुत निर्दोष ढंग से कहा,"आप क्या आडिट के इंचार्ज है?"
मालवीय ने आवाज ऊंची करके कहा,"जी नहीं, बात यह नहीं है, पर
हमसे देखा नहीं जाता कि जनता का रूपया इस तरह बरबाद हो. आखिर......."
गयादीन ने तभी उनकी बात काट दी उसी
तरह धीरे-से-बोले, "फ़िर आप किस
तरह चाहते है कि जनता का रुपया बरबाद किया जाये? बड़ी-बड़ी
इमारतें बनाकर? सभाएं बुलाकर? दावतें
लुटाकर?" इस ज्ञान के सामने मालवीयजी झुक गये. गयादीन
ने उदारतापूर्क समझाया,"मास्टर साहब, मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा तो हूं नहीं, पर अच्छे दिनों मे
कलकत्ता-बम्बई देख चूका हूं. थोड़ा बहुत मै भी समझता हूं. जनता के रुपये पर इतना
दर्द दिखाना ठीक नहीं. वह तो बरबाद होगा ही." वे थोड़ी देर चुप रहे, फ़िर खन्ना मास्टर को पुचकारते-से बोले,"नहीं
मास्टर साहब, जनता के रुपये के पीछे इतना सोच-विचार न करों;
नहीं तो बड़ी तकलीफ़ उठानी पड़ेगी."
मालवीयजी को गयादीन की चिन्ताधारा
बहुत ही गहन जान पड़ी. गहन थी भी. वे अभी किनारे पर बालू ही में लोट रहे थे. बोले,"गयादीनजी, मै जानता हूं कि इन बातों से हम मास्टरों
का कोई मतलब नहीं. चाहे कालिज के बदले वैद्यजी आटा चक्की की मशीन लगवा लें,
चाहे प्रिंसिपल अपनी लड़की शादी कर लें; फ़िर भी
यह संस्था है तो आप लोगो की ही! उसमें खुलेआम इतनी बेजा बाते हो! नैतिकता का जहां
नाम ही न हो!"
इतनी देर में पहली बार गयादीन के
मुंह पर कुछ परेशानी-सी झलकी. पर जब वे बोले तो आवाज वही पहले-जैसी थकी-थकी सी थी.
उन्होंने कहा,"नैतिकता का नाम न लो
मास्टर साहब, किसी ने सुन लिया तो चालान कर देगा."
लोग चुप रहे. फ़िर गयादीन ने कुछ
हरकत दिखायी. उनकी निगाह एक कोने की ओर चली गयी. वहां लकड़ी की एक टूटी-फ़ूटी चौकी
पड़ी थी. उसकी ओर उंगली उठाकर गयादीन ने कहां,"नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है. एक कोने में पड़ी है.
सभा-सोसायटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है. तब बड़ी बढ़िया दिखती है. इस पर
चढ़कर लेक्चर फ़टकार दिया जाता है. यह उसी के लिए है."
इस बात ने मास्टरों को बिल्कुल ही
चुप कर दिया. गयादीन ने ही उन्हें दिलासा देते हुए कहां,"और बोलो मास्टर साहब, खुद तुम्हें क्या तकलीफ़ है?
अब तक तो तुम सिर्फ़ जनता की तकलीफ़ बताते रहे हो."
खन्ना मास्टर उत्तेजित हो गये. बोले,"आपसे कोई भी तकलीफ़ बताना बेकार है. आप किसी भी चीज को तकलीफ़ ही नही मान
रहे है."
"मानेगे क्यों नहीं?"
गयादीन ने उन्हें पुचकारा,"जरूर मानेगें.
तुम कहो तो!" मालवीयजी ने कहा,"प्रिंसिपल ने हमसे
सब काम ले लिये हैं. खन्ना को होस्टल-इंचार्ज नहीं रखा, और
मुझसे गेम का चार्ज ले लिया. रायसाहब हमेशा से इम्तिहान के सुपरिण्टेण्डेण्ट थे,
उन्हें वहां से हटा दिया है. ये सब काम वह अपने आदमियों को दे रहा
है."
गयादीन बड़े असमंजस में बैठे रहे.
फ़िर बोले,"मैं कुछ कहूगां तो आप नाराज होगें. पर जब प्रिंसिपल साहब को अपने
मन-मुताबिक इंचार्ज चुनने का अख्तयार है तो उसमें बुरा क्या मानना?"
मास्टर लोग कसमसाये तो वे फ़िर बोले,"दुनिया में सब काम तुम्हारी समझ से थोड़े ही होगा मास्टर साहब? पार साल की याद करो. वही बैजेगांव के लाल साहब को लाट साहब ने वाइस-चांसलर
बना दिया कि नही? लोग इतना कूदे-फ़ांदे, पर किसी ने क्या कर लिया. बाद में चुप हो गये. तुम भी चुप हो जाओ.
चिल्लाने से कुछ न होगा. लोग तुम्हें ही लुच्चा कहेंगे."
एक मास्टर पीछे से उचककर बोले,"पर इसका क्या करें? प्रिंसिपल लड़कों को हमारे खिलाफ़
भड़काता है. हमें मां-बहिन की गाली देता है. झूठी रिपोर्ट करता है. हम कुछ लिखकर
देते हैं तो उस कागज को गुम करा देता है. बाद में जवाब तलब करता है."
गयादीन चारपाई पर धीरे-से हिले. वह
चरमरायी,
तो सकुच से गये. कुछ सोचकर बोले,"यह तो
तुम मुझे दफ़्तरों का तरीका बता रहे हो. वहां तो ऎसा होता ही रहता है."
उस मास्टर ने तैश में आकर कहा,"जब दस-पांच लाशें गिर जायेंगी, तब आप समझेंगे कि नयी
बात हुई है."
गयादीन उसके गुस्से को दया के भाव
से देखते रहे, समझ गये कि आज इसने उड़द की दाल
खायी है. फ़िर धीरे से बोले,"यह भी कौन सी नयी बात है.
चारों तरफ़ पटापट लाशें ही तो गिर रहीं है."
खन्ना मास्टर ने बात संभाली. बोले,"इनके गुस्से का बुरा न मानें. हम लोग सचमुच ही परेशान हैं. बड़ी मुश्किल है.
आप देखिए न, इसी जुलाई में उसने अपने तीन रिश्तेदार मास्टर
रखे हैं. उन्हीं को हमसे सीनियर बनाकर सब काम ले रहा है. कुनबापरस्ती का बोलबाला
है. बताएं हमें बुरा न लगेगा?"
"बुरा क्यों लगेगा भाई?"
गयादीन कांखने लगे,"तुम्हीं तो कहते हो
कि कुनबापरस्ती का बोलबाला है. वैद्यजी के रिश्तेदार ना मिले होगें, बेचारे ने अपने ही रिश्तेदार लगा दिये."
एकाध मास्टर हंसने लगे. गयादीन वैसे
ही कहते गये,"मसखरी की बात नहीं. यही आज
का जुग-धर्म है. जो सब करते हैं, वही प्रिंसिपल करता है.
कहां ले जाये बेचारा अपने रिश्तेदारों को?"
खन्ना मास्टर को सम्बोधित करके
उन्होंने फ़िर कहां,"तुम तो इतिहास
पढ़ाते हो न मास्टर साहब? सिंहगढ़-विजय कैसे हुई थी?"
खन्ना मास्टर जवाब सोचने लगे.
गयादीन ने कहां,"मैं ही बताता हूं. तानाजी
क्या लेकर गये थे? एक गोह. उसको रस्से से बांध लिया और किले
की दीवार पर फ़ेंक दिया. अब गोह तो अपनी जगह जहां चिपककर बैठ गयी, वहां बैठ गयी. साथवाले सिपाही उसी रस्से के सहारे सड़ासड़ छत पर पहुंच गये."
इतना कहते-कहते वे शायद थक गये. इस
आशा से कि मास्टर लोग कुछ समझ गये होंगे, उन्होंने
उनके चेहरे को देखा, पर वे निर्विकार थे. गयादीन ने अपनी बात
समझायी,"वही हाल अपने मुल्क का है, मास्टर साहब! जो जहां है, अपनी जगह गोह की तरह चिपका
बैठा है. टस-से-मस नही होता. उसे चाहे जितना कोचों,चाहे
जितना दुरदुराओ, वह अपनी जगह चिपका रहेगा और जितने
नाते-रिश्तेदार हैं,सब उसकी दुम के सहारे सड़ासड़ चढ़ते हुए ऊपर
तक चले जायेंगे. कालिज को क्यों बदनाम करते हो, सभी जगह यही
हाल है!
फ़िर सांस खीचकर उन्होंने पूछा,"अच्छा बताओ तो मास्टर साहब, यह बात कहां नही है?"
मास्टर का गुट चमरही के पास से
निकला. सबके मुंह लटके हुए थे और लगता था कि टपककर उनके पांवों के पास गिरनेवाले
हैं.
'चमरही' गांव
के एक मुहल्ले का नाम था जिसमें चमार रहते थे. चमार एक जाति का नाम है जिसे अछूत
माना जाता है. अछूत एक प्रकार के दुपाये का नाम है जिसे लोग संविधान लागू होने से
पहले छूते नही थे. संविधान एक कविता का नाम है जिसके अनुच्छेद १७ में छुआछूत खत्म
कर दी गयी है क्योंकि इस देश में लोग कविता के सहारे नहीं बल्कि धर्म के सहारे
रहते हैं और क्योकिं छुआछूत इस देश का एक धर्म है, इसलिए
शिवपालगंज में भी दूसरे गांवो की तरह अछूतों के अलग-अलग मुहल्ले थे और उनमें सबसे
ज्यादा प्रमुख मुहल्ला चमरही था जिसे जमीदारों ने किसी जमाने में बड़ी ललक से बसाया
था और उस ललक का कारण जमीदारों के मन में चर्म-उद्योग का विकास करना नहीं था बल्कि
यह था कि वहां बसने के लिए आनेवाले चमार लाठी अच्छी चलाते थे. संविधान लागू होने
के बाद चमरही और शिवपालगंज के बाकी हिस्से के बीच एक अच्छा काम हुआ था. वहां एक
चबूतरा बनवा दिया गया था, जिसे गांधी-चबूतरा कहते थे. गांधी,
जैसे कि कुछ लोगों को आज भी याद होगा, भारतवर्ष
में ही पैदा हुए थे और उनके अस्थि-कलश के साथ ही उनके सिद्धांन्तों को संगम में बहा देने के बाद यह तय किया गया था
कि गांधी की याद में अब सिर्फ़ पक्की इमारतें बनायी जायेंगी और उसी हल्ले में
शिवपालगंज में यह चबूतरा बन गया था. चबूतरा जाड़ों में धूप खाने के लिए बड़ा उपयोगी
था और ज्यादातर उस पर कुत्ते धूप खाया करते थे; और
चूंकि उनके लिए कोई बाथरूम नहीं बनवाया जाता है इसलिए वे धूप खाते-खाते उसके कोने
पर पेशाब भी कर देते थे और उनकी देखादेखी कभी-कभी आदमी भी चबूतरे की आड़ में वही
काम करने लगते थे.
मास्टर के गुट ने देखा कि उस चबूतरे
पर आज लंगड़ आग जलाकर बैठा है और उस पर कुछ भुन रहा है. नजदीक से देखने पर पता लगा
कि भुननेवाली चीज एक गोल-गोल ठोस रोटी है जिसे वह निश्चय ही आसपास घूमनेवाले
कुत्तों के लिए नहीं सेंक रहा था. लंगड़ को देखते ही मास्टरों की तबीयत हल्की हो
गयी.
उन्होंने रूककर उससें बात करनी शुरू
कर दी और दो मिनट में मालूम कर लिया कि तहसील में जिस नकल के लिए लंगड़ ने
दरख्वास्त दी थी, वह अब पूरे कायदे
से, बिना एक कौड़ी गलत ढ़ग से खर्च किये हुए, उसे मिलने वाली ही है.
मास्टर लोगो को यकीन नहीं हुआ.
लंगड़ की बातचीत में आज निराशावाद;
धन-नियतिवाद-सही-पराजयवाद-बटा-कुण्ठावाद का कोई असर न था. उसने
बताया ,"बात मान लो बापू. आज मैं सब ठीक कर आया हूं.
दरख्वास्त में दो गलतियां फ़िर निकल आयी थी, उन्हें दुरूस्त
करा दिया है."
एक मास्टर ने खीजकर कहा,"पहले भी तो तुम्हारी दरख्वास्त में गलती निकली थी. यह नकलनवीस बार-बार
गलतियां क्यों निकाला करता है? चोट्टा कहीं का!"
"गाली न दो बापू,"लंगड़ ने कहां,"यह धरम की लड़ाई है. गाली-गलौज का
कोई काम नहीं. नकलनवीस बेचारा क्या करे! कलमवालों की जात ही ऎसी है."
"तो नकल कब तक मिल जायेगी?"
"अब मिली ही समझो बापू-यही
पन्द्रह बीस दिन. मिसिल सदर गयी है. अब दरख्वास्त भी सदर जायेगी. नकल नही बनेगी,
फ़िर वह यहां वापस आयेगी; फ़िर
रजिस्टर पर चढ़ेगी...."
लंगड़ नकल लेने की योजना सुनाता रहा,
उसे पता भी नही चला कि मास्टर लोग उसकी बात और गांधी-चबूतरे के पास
फ़ैली हुई बू से ऊबकर कब आगे बढ़ गये. जब उसने सिर ऊपर उठाया तो उसे आसपास चिरपरिचित
कुत्ते, सुअर और घूरे भर दिखायी दिये जिनकी सोहबत में वह
दफ़्तर के खिलाफ़ धरम की लड़ाई लड़ने चला था. गोधूलि बेला. एक बछड़ा बड़े उग्र रूप से
सींग फ़टकारकर चारों पांवो से एक साथ टेढ़ी-मेढ़ी छलांगे लगाता हुआ चबूतरे के पास से
निकला. वह कुछ देर दौड़ता रहा, फ़िर आगे एक गेहूं के हरे-भरे खेत में जाकर ढीला पड़ गया. लंगड़ ने हाथ जोड़कर
कहा, "धन्य हो, दरोगाजी!"
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