Monday, December 15, 2008

ये संसार कागद की पुड़िया

एक दोस्त हैं श्रीमान राजेन्द्र बोरा. अल्मोड़ा रहा करते थे. रोहित उमराव के कैमरे से इस साल अल्मोड़ा के दशहरे की जो तस्वीरें आपने देखीं थीं उनमें ज़्यादातर को बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है. पिछले कोई चालीस सालों से अल्मोड़ा की सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र में रहे बोरा जी की पुतले बनाने की कला के ऊपर बाकायदा एक फ़िल्म बनाई जा चुकी है: 'द बर्निंग पपेट्स'. राजेन्द्र बोरा के कुमाऊंनी फ़िल्में बनाई हैं, उनमें अभिनय किया है, गीत लिखे हैं और जाने क्या-क्या. अल्मोड़ा के विख्यात हुक्का क्लब के ऐतिहासिक महत्व के वार्षिक प्रकाशन 'पुरवासी' के सम्पादक मंडल के वे मुख्य सूत्रधारों में रहे हैं. वे कवि हैं, भाषाविद हैं, संगीतकार हैं और भले आदमी.

मेरा उनसे परिचय कोई पांच साल पुराना है. पहली दो मुलाकातें दारू के भीषण नशे में हुईं. दूसरी मुलाकात के अगले दिन मैंने उनका दूसरा रूप देखा - वे वहां एक बैंक के मैनेजर भी थे. और दूर-दराज़ के गांवों से आए ग्राहकों के साथ बहुत ही मानवीयता से पेश आने वाले सहृदय इन्सान के तौर पर उनकी छवि अब भी मन में जस की तस है. लंच टाइम में वे मुझे बैंक के ही पिछले कमरों में स्थित अपने आवास में ले गए और अपने हाथों से स्वादिष्ट खिचड़ी बना कर खिलाई.

पिछले साल इन्हीं दिनों एक रात करीब दस बजे हल्द्वानी में उनका फ़ोन आया: "यार बहुत बीमार हूं. इलाज कराने आया हूं. जल्दी मिलो." उनकी आवाज़ बता रही थी वे धुत्त थे. इत्तफ़ाकन घर पर रोहित था. हम दोनों हल्द्वानी के रेलवे बाज़ार में एक होटल में उनसे मिले जहां वे क़याम किये थे. बहुत ही रद्दी होटल था - गन्दा और बदबूदार. मैंने घर चलने का आग्रह किया पर किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह वे आदतन बोले "मैं किसी के घर - वर नहीं जाऊंगा!". उन्होंने मुझे नोटों की गड्डी थमाई और कहा: "शायद इसकी ज़रूरत पड़े. कम होंगे तो और आ जाएंगे. अब गुड नाइट!"

खैर! सुबह उन्हें एक परिचित अस्पताल में दाखिल कराया. डॉक्टर बोले कि हल्द्वानी में इलाज़ सम्भव नहीं. मुझे पता था उनकी बीमारी की जड़ में दारू और सिगरेट थे. मैंने उन्हें कुछ दिन फ़कत आराम दिलाने के उद्देश्य से प्राइवेट वार्ड में भर्ती करा दिया. दो दिन में उनके चेहरे पर नूर उतरने लगा. तीन टाइम खाना, न दारू न सिगरेट, और वक्त पर ज़रूरी चिकित्सकीय सहायता. दिन भर हम बतियाया करते. दुनिया जहान की बातें होतीं. उन्हें अचानक बहुत सारी बातों पर अफ़सोस होने लगा था. ठीक हो जाने के बाद खूब काम करने की अनेक योजनाएं थीं उनके जेहन में. कोई तीन दिन बाद उनके एक बहनोई साहब नैनीताल से तशरीफ़ लाए. रात को उन्होंने वार्ड में सोने का ज़िम्मा सम्हाला और कोई सप्ताह भर बाद उनके बड़े भाई आए. दिल्ली ले जाने को. बस अड्डे पर उन्हें विदा किया. दिल्ली पहुंचकर उन्होंने फ़ोन किया और आगामी दो महीनों में होने वाले तीन आपरेशनों के बाबत बताया.

कई माह उनका फ़ोन आउट ऑफ़ रीच आता रहा. पर मैं निश्चिन्त था. मुझे दूसरे सूत्रों से खबर लगी कि उनके आपरेशन सफल रहे. वापस अल्मोड़ा आ कर उनका फ़ोन आया. मैं डरा हुआ था कि कहीं वे पुनः अल्मोड़ा की पुरानी बुद्धिजीवी राह न थाम लें.

अचानक मेरे अपने घर पर विपदाएं पड़नी शुरू हुईं जो अब तक जारी हैं. ... खैर, मैं उनसे न तो मिल ही सका न फ़ोन कर सका. दशहरे के समय रोहित अल्मोड़ा जा कर फ़ोटो खींचने को लालायित था. मैंने बोरा जी को फ़ोन किया. वे खुश हुए. "गुंडागर्दी कैसी चल रही है आपकी?" मैंने उनसे पूछा. "न न अब कोई गुंडागर्दी नहीं." उन्होंने बच्चों की तरह आश्वस्त करने की शैली में जवाब दिया.

रोहित गया और वापस आ गया. फ़ोटो खींच कर लाया. खुश था. बोला बोरा जी बिल्कुल बदल गए. मुझे अच्छा लगा.

अभी कुछ दिन पहले वे मुझे आश्चर्यचकित करने मेरे घर पधारे. उनके एक हाथ में सोनी का अल्ट्रामॉडर्न वीडियो कैमरा था और दूसरे में कमंडल. "अब तो काम करना है. बस." वे बोले और उन्होंने मुझे शर्मसार करते हुए सब के सामने मेरे पैर छू लिए. तब पता नहीं कैसा लगा पर अब अच्छा सा लगता है कि वे जहां भी होंगे जीवन के नज़दीक होंगे. और मैं दुआ करता हूं खुश भी. राजेन्द्र बोरा से त्रिभुवनगिरि स्वामी बनने उपरोक्त क्रम की बानगी ये रही. सारे फ़ोटो रोहित उमराव के हैं.






11 comments:

  1. बाबूजी , इन बाबाजी के दर्शन आपके घर पर हुए थे पिछली १८ अक्टूबर को. आपसे उनके किस्से सुन रक्खे थे सो मिल कर भला लगा. जिन्दगी कितने - कितने रूप बदलती है !

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  2. भई वाह...बोरा बाबा से मिल कर अच्छा लगा।

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  3. यकीन नहीं आ रहा कि बोरा जी सन्यासी हो गए ! फोटू सही तो है न?

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  4. अशोक भाई बोरा जी का परिचय पा कर अच्छा लगा।

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  5. लगता है आपने मेरा जीवन पथ सुझा दिया है!

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  6. अच्छी पोस्ट्।इस भागमभाग मे सच मे कभी-कभी लगत्ता ज़रुर है की सब कुछ छोड कर भागा जाये,हालांकि परेशानी जैसी कोई बात नही है मगर तनाव और भागदौड इतना थका देती है कि…………………।

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  7. i seek blessings of this noble soul and feel proud of u as he sought ur blessings. Blessed are the meek for they shall inherit the earth ...Amen.

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  8. जिसने जीवन और मृत्यु को करीब से देखा हो, वही सच्चा स्वामी बन सकता है। शायद यही स्वामी त्रिभुवनजी के जीवन की घटनाएं बताती है।

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  9. पढ़कर विचित्र सा लग रहा है और विचलित भी हूँ । क्या हुक्का क्लब और साधुत्व के बीच और कुछ नहीं है ? या चरम ही हमें मोहित भी करता है और बाँधता भी है । बीच का 'कुछ' हमें बाँधने में अक्षम है क्या ?
    क्या यही चरम का चुम्बक किसी दिशाहीन को आतंक की ओर ले जाता है और किसी को स्वामित्व की ओर ?
    चित्र बढ़िया हैं व स्वामी जी का यह रूप अच्छा ही लग रहा है । फिर भी...
    बोराजी अर्थात त्रिभुवनगिरि स्वामी जी के लिए शुभकामनाओं सहित
    घुघूती बासूती

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  10. padhakar achchha laga .. sudhar jaane se behtar kuchh nahin hota hai .

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