
अन्ना अख़्मातोवा के नाम से कबाड़ख़ाने के पाठक अपरिचित नहीं होंगे. मैंने उनकी कुछेक रचनाएं यहां लगाई हैं. इत्तेफ़ाक से आज कुछ और खोजते ढूंढते मुझे एक बार फिर गुलाबी कवर वाली उनके अनुवादों की पाण्डुलिपि मिल गई. ये अनुवाद पता नहीं कितने सालों से पड़े हैं. किताब की शक्ल में कब आएंगे, मुझे नहीं पता. फ़िलहाल अन्ना की एक और कविता.
'हैमलेट' पढ़ते हुए
एक.
कब्रों के पास का इलाका धूलभरा और गर्म था
पीछे नदी - नीली और ठण्डी,
तुमने मुझसे कहा - "किसी गिरजाघर में चली जाओ
या शादी कर लो किसी बेवकूफ़ से ..."
ऐसे ही बोला करते हैं राजकुमार - अपनी भयंकर निर्विकार आवाज़ में
मगर इन छोटे से शब्दों को संजो कर धरा हुआ है मैंने
काश ये शब्द बहते रहें चमकते रहें हज़ारों साल
जैसे कन्धों पर होता है फ़र का लबादा.
दो.
और, जैसे बेमौके
मैंने कहा, "आप ..."
प्रसन्नता की कैसी मुस्कान
फैल गई उस चेहरे पर
कही गई या सोची गई इस तरह कह दी गई बातों से
जल उठेगा हरेक गाल
मैं तुम्हें उन चालीस बहनों की तरह प्यार करती हूं
जो प्यार करती थीं और आशीष देती थीं.
behtreen rachna padhvane ke liye shukriya
ReplyDeleteबेहतरीन।
ReplyDeleteमैं भी उनका प्रंशसक हूँ। एक बार मैंने भी उनकी रचनाए लगाई थी अपने ब्लोग पर।
बहुत बेहतरीन हैं ये पंक्तियां..
ReplyDeletepriy ashok ji,
ReplyDeletekripaya apni anuvaadon ki yah durlabh paandulipi jald prakaashit karaayen ! ham intezaar mein hain.
---pankaj chaturvedi
kanpur