Saturday, December 19, 2009

तुम्हें होना है कविता का पर्याय

निज़ार क़ब्बानी (1923-1998) की कई कवितायें आपको इस बीच पढ़वा चुका हूँ और बहुत जल्द ही कुछेक पत्रिकाओं में उनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित होने वाले हैं। विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस कवि को मात्र एक सीरियायी कवि और मात्र प्रेम कविताओं के एक अरबी कवि के रूप में देखा जाना उसके विपुल व विविध रंगों वाले कवि कर्म के प्रति ज्यादती ही होगी किन्तु आजकल प्रेम का रंग ही गाढ़ा - गाढ़ा है तो क्या किया जाय ! कुछ अन्य रंगों - छटाओं की कवितायें जल्द ही। फिलहाल, आज और अभी तो यह प्रेम कविता :





तुम्हें जब कभी

जब भी कभी
तुम्हें मिल जाय वह पुरुष
जो परिवर्तित कर दे
तुम्हारे अंग- प्रत्यंग को कविता में।
वह जो कविता में गूँथ दे
तुम्हारी केशराशि का एक - एक केश।

जब तुम पा जाओ कोई ऐसा
ऐसा प्रवीण कोई ऐसा निपुण
जैसे कि इस क्षण मैं
कर रहा हूँ कविता के जल से तुम्हें स्नात
और कविता के आभूषणों से ही से कर रहा हूँ तुम्हारा श्रृंगार।

अगर ऐसा हो कभी
तो मान लेना मेरी बात
अगर सचमुच ऐसा हो कभी
मान रखना मेरे अनुनय का
तुम चल देना उसी के साथ बेझिझक निस्संकोच।

महत्वपूर्ण यह नहीं है
कि तुम मेरी हो सकीं अथवा नहीं
महत्वपूर्ण यह है
कि तुम्हें होना है कविता का पर्याय।

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* निज़ार क़ब्बानी की कुछ कवितायें यहाँ और यहाँ भी।

** चित्र : सीरियाई कलाकार ग़स्सान सिबाई की कलाकॄति ( गूगल सर्च से साभार)

9 comments:

  1. प्रेम भी कितना अजीब होता है !!!

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  2. जो सर्वस्व त्याग करने को तैयार हो वही तो असली प्रेम है। वाह।

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  3. महत्वपूर्ण यह नहीं है कि तुम मेरी हो सकीं अथवा नहीं
    महत्वपूर्ण यह है
    तुम्हें होना है कविता का पर्याय.
    वाह! यही तो है प्यार का असल रंग.

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  4. इन्हें लगातार पढ़ रहा हूँ... शुक्रिया... कविता नए मायने समझा रही है...

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  5. wakai sir aapka lekh bahut hi accha hai

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