Tuesday, April 17, 2012

लाल-झर-झर-लाल-झर-झर-लाल - वीरेन डंगवाल की दो कवितायेँ


बकरियों ने देखा जब बुरूँस वन वसन्‍त में

लाल-झर-झर-लाल-झर-झर-लाल 
हरा बस किंचित कहीं ही जरा-जरा
बहुत दूरी पर उकेरे वे शिखर-डांडे श्‍वेत-श्‍याम
ऐसा हाल!
अद्भुत
लाल!
बकरियों की निश्‍चल आंखों में
खुमार बन कर छा गया
आ गया
मौसम सुहाना आ गया

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जल की दुनिया में भी बहार आती है

जल की दुनिया में भी बहार आती है
मछली की आंखों की पुतली भी हरी हुई जाती है

जब आती हवा हांकती लेकर काले-काले जलद यूथ
प्राणों को हरा-भरा करती
बेताब बनाती बूढ़े-भारी पेड़ों तक को
धरती के जर्रे-जर्रे को
जीवन के निरूपमेय रस से भरती
अजब संगीत सुनाती है

यह शीतल राग हवा का, यह तो है खास हमारे पूरब का
यह राग पूरबी दुनिया का अनमोल राग
इसकी धुन जिंदा रखती है मेरे जन को
हैं जहां कहीं, अनवरत सताए जाते जो

जांगर करते
खटते पिटते
लड़ते-भिड़ते
गाने गाते

सन्‍तप्‍त हृदय-पीडित, प्रच्‍छन्‍न क्रोध से भरे
निस्‍सीम प्रेम से भरे, भरे विस्‍तीर्ण त्‍याग
मेरे जन जो यूं डूबे हैं गहरे पानी में
पर जिनके भीतर लपक रही खामोश आग

यह राग पूरबी की धुन उन सब की कथा सुनाती है
जल की दुनिया में भी बहार आती है
मछली की आंखों की पुतली भी हरी हुई जाती है

4 comments:

  1. सुंदर राग पूरबी कि धुन ...!!

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  2. सुन्दर प्रस्तुति... बहुत बहुत बधाई...

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  3. बहुत सुंदर..................
    बुरांश की तरह...............

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  4. याद आ गयी बकरियां , मेरे कॉलेज के पास का जंगल, मेरा घंटों पास के गाँवों में घूमना, और सुलगने की कोशिश करते बुरांश | पुणे में मेरे ६ बाई ६ के कमरे में बसंत आ गया है |

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