सज्जाद के काम की बुनियाद यानी उनकी इस विद्वत्ता को नौशाद
बहुत अपनापे से याद करते हैं “उन्हें अपनी उस्तादी पर गर्व था. वे निर्माता से
कहते थे ‘मैंने ऐसी धुन बनाई है जिसे लता भी नहीं गा सकती’ तो निर्माता कहता ‘अगर
लता नहीं गा सकती तो फिर कौन गाएगा?’ लेकिन सज्जाद ने सादगीपूर्ण और असाधारण धुनें
भी तैयार कीं – मिसाल के तौर पर ‘रुस्तम सोहराब’ का गाना “ ये कैसी अजब दास्तान हो
गयी है.”
वास्तव में जहाँ तक सज्जाद की विराट प्रतिभा की बात है, उसे
लेकर कोई दो राय नहीं हैं. कहते हैं कि मदनमोहन ने, जिन पर सज्जाद ने अपनी धुन
चुराने का आरोप लगाया था, ख़ुद उनसे कहा था “मुझे इस बात का फ़ख्र है कि मैंने आपकी
धुन उठाई न कि किसी दोयम या घटिया दर्ज़े के संगीतकार की.” बड़े रचनाशील जीनियस अनिल
बिस्वास ने एक इंटरव्यू में घोषणा की थी कि हिन्दी फ़िल्मी संगीत के इकलौते ओरिजिनल
कम्पोज़र सिर्फ़ और सिर्फ़ सज्जाद हुसैन थे. “मुझे
मिला कर हम सारे प्रेरणा के लिए किसी स्रोत की तलाश में रहते थे जबकि ... सज्जाद
को ऐसी कोई ज़रुरत नहीं होती थी. उनके रचे संगीत का एक एक स्वर उनका अपना है.”
सज्जाद का करियर शौकत हुसैन रिजवी की फ़िल्म ‘दोस्त’ से १९४४
में शुरू हुआ. उस वकत वे मास्टर अली बख्श के असिस्टेंट हुआ करते थे पर उनकी धुनों
को मास्टर अली बख्श की धुनों पर तरजीह डी गयी. उस फ़िल्म में उनकी धुन पर बना नूरजहाँ
का गाया “बदनाम मोहब्बत कौन करे, दिल को रुसवा कौन करे” आज भी संगीत जानने-समझने
वालों के लिए बेमिसाल है. सज्जाद की रेन्ज उल्लेखनीय थी – अगर रिज़वी की ‘डिमांड’
के हिसाब से ‘दोस्त’ का संगीत एक ख़ास किस्म की पंजाबियत लिए हुआ था तो ‘रुस्तम
सोहराब’ के संगीत में हिन्दुस्तानी संगीत के साथ साथ अरबी धुनों के लिए भी जगह
बनाई गयी. और यह सब एक ऐसा शख्स कर रहा था संगीत की जिसकी औपचारिक शिक्षा अपने
पिता के साथ कुछ समय सीखे सितार तक सीमित थी.
(जारी, अगले अंक में समाप्य)
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