सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब – ४
(पिछली पोस्ट से जारी)
1930-31 में जब
हिंदुस्तानी फ़िल्मों में साउंड ट्रैक आया, उसके साथ ही
इंसान की आवाज़ और भाषा का प्रयोग हुआ। मूक सिनेमा में लिमिटेसन्स थीं। चित्र के
मतलब नहीं निकलते थे। इसलिए कहानी को समझाने के लिए बारबार लिखे हुए शब्दों का
इंटरल्यूड परदे पर दिखाया जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि एक आदमी स्क्रीन के एक और
खड़ा होकर शब्दों में कहानी बताता। जैसे कि जीते-जागते इंसान को भाषा से अलग नहीं
किया जा सकता, जब तक बोलते-गाते इंसान फ़िल्मों में नहीं आए,
तब तक फ़िल्म इंसान के बारे में थी ही नहीं।
हिंदुस्तान
एक खेतिहर देश है जिसमें ज़िंदा रहने के लिए गीत एक बहुत बड़ा ज़रिया है। लोकगीत
में पुरानी पीढ़ी की विज़्डम डालकर नयी पीढ़ी तक पहुँचाई गई ताकि नयी पीढ़ी अपने
बुजु़र्गों के तजुर्बे का फ़ायदा उठाये और उनकी याद भी ताज़ा रखे। सिनेमा अवाम का
माध्यम है इसलिए उसमें शास्त्रीय संगीत उचित नहीं था। हिंदुस्तान का लोक संगीत ही
फ़िल्म का आधार बना। सिनेमा मे गीत का उपयोग कैसे होना है, संगीतकार आर सी बोराल, मास्टर गु़लाम हैदर, केशव भोले, पंकज मलिक, तिमिर
बारान, अनिल विश्वास इन लोगों ने इसका जवाब निकाला। वह यह कि
फ़िल्म की कहानी आगे बढ़ाने का ज़रिया बनाया जाए। आज भी सबसे सफल गीत वे हैं,
जब उन्हें क्रमबद्ध ढंग से रखा जाए तो सारी कहानी ख़ुद-ब-ख़ुद पता
लग जाती है। गीत को किस सिचुएशन में आना चाहिए, इसका जवाब है
जिसमें जज़्बा इतना बढ़े कि डाॅयलाग से काम न बनता हो, तो
गीत लगाया जाए। कहानी में ऐसी सिचुएशन आती है जहाँ न तो तस्वीर और न संवाद काम
करते हैं, वहाँ गीत उसे पूरा करता है। गीत कहानी को गहराई
देता है। अच्छा डाइरेक्टर और संगीतकार वही है जो कहानी में गीत को पैबंद की तरह
नहीं, ऐसे बुने कि वह अलग न दिखाई दे।
भाई ने एक
बात और बताई कि फ़िल्मी गीत के साथ ब्लैक एंड व्हाइट फ़ोटोग्राफ़ी को रंगीन बनाने
का मंसूबा संगीतकारों ने ही निकाला। वह था आरकेस्ट्रा। हमारे देशी संगीत में इतने
वाद्य नहीं थे कि गीत को इंद्रधनुषी रंग दे सकते। पहले तो, उन्होंने पश्चिमी संगीत से वह साज़ लिये जो हमारे वाद्यों के स्वरों से
मिलते-जुलते थे। जैसे, सरोद की जगह गिटार, वीणा की जगह स्लाइडिंग गिटार, बाँसुरी की जगह धातु
का फ़्लूट, सारंगी की जगह वायलिन, हारमोनियम
की जगह पियानो और एकोर्डियन, शहनाई की जगह ओबो और आवाज़ की
जगह सेक्सोफ़ोन का इस्तेमाल किया। इन वाद्यों को अकेले बजाया जा सकता था और गीतों
को रंगीन करने के लिए आरकेस्ट्रा की ज़रूरत थी। लेकिन आरकेस्ट्रा नोटेशन के बग़ैर
काम में नहीं लाया जा सकता। इसलिए कलाकारों को पश्चिमी संगीत का एल्फ़ाबेट सीखना
पड़ा। 1952 में जब महबूब ख़ान की रंगीन फ़िल्म 'आन' नोवल्टी
सिनेमा में दिखायी गई तो भाई ने कहा, ‘आज हिंदुस्तानी फ़िल्म
भद्दी हो गई। अच्छे गाने होते हुए टेक्नीकलर की ज़रूरत नहीं थी।’
दिल में
छुपाके प्यार का तूफ़ान ले चले
आज हम अपनी मौत का सामान ले चले ...
मिटता है कौन देखिए उल्फ़त की राह में
आज हम अपनी मौत का सामान ले चले ...
मिटता है कौन देखिए उल्फ़त की राह में
उन्होंने
कहा फ़िल्म को बाज़ारू कर दिया है। वह फ़िल्म आधी छोड़कर रीगल में हम लोग फ़िल्म
देखने गए और शहर में ढिंढोरा पीट दिया कि हम लोग फ़िल्म आन से बेहतर है। लेकिन सच
यह है कि मेरे भाई के अलावा फ़िल्म कोई छह लोगों ने ही देखी थी।
चली जा चली
जा
आहों की दुनिया
यहाँ कोई नहीं अपना न घर अपना न दर अपना।
आहों की दुनिया
यहाँ कोई नहीं अपना न घर अपना न दर अपना।
मेरे भाई
उन गिने-चुने लोगों में थे जिनकी बातों में इतना दम था कि वह कभी भूलती नहीं थीं।
भाई के साथ यह सफ़र चालीस साल पहले की बात है। लेकिन लगता है, सब कुछ कल ही हुआ है। रवींद्रनाथ टैगोर के बारे में सिर्फ़ यह मालूम था कि
उन्होंने बिना दरो-दीवार का स्कूल बनाया है। भाई की यह बातें सुनकर मैं यह सोचने
लगा कि जिस स्कूल में मैं जाता हूँ वह तो जेल है और मेरे भाई ने चलती हुई बस को
स्कूल बना दिया जिसमें मनोरंजन के साथ हम सीख भी रहे थे। वह अध्यापक थे और मैं
उनका छात्र।
भाई ने
बताया कि हर विदेशी वाद्य को अपने संगीत में अपनाने से पहले उसकी परीक्षा ली गई।
क्या इन साज़ों में से वे बारीक स्वर निकाले जा सकते हैं जो हमारे संगीत को
अभिव्यक्त कर सकें?
उन्होंने कहा, बहुत से पढ़े-लिखे लोग फ़िल्मी
गीत के आर्केस्ट्रा को पश्चिम का कटा-पिटा मिलावटी आरकेस्ट्रा समझते हैं। 1940
के दशक में ही हमारे संगीतकारों ने आर्केस्ट्रा का हिंदुस्तानीकरण
कर लिया था। उसे अपना बना लिया था। इसकी जो दो मिसालें उन्होंने मुझे दीं वह आज भी
याद है। उन्होंने अपने पार्कर पेन मुझे दिखाया और कहा, यह है
विलायती लेकिन इससे मैं उर्दू लिख सकता हूँ, हिंदी लिख सकता
हूँ, मैं जो भी चाहूँ लिख सकता हूँ। दूसरी मिसाल उस संगीतकार
से जुड़ी है जिसके गाने की खोज में हम यह सफ़र कर रहे हैं। सज्जाद हुसैन इटली के
मैंडोलिन में माहिर थे। हालाँकि मैंडोलिन में मींड नहीं है लेकिन उनमे यह क़ाबलियत
थी कि वह मैंडोलिन के तार में से आधा, चैथाई स्वर निकाल कर
हिंदुस्तानी संगीत दे रहे हैं।
यह कहते
हुए उन्होंने थोड़ा-सा विषय बदला। अरे भाई, अगर हमने तुम्हें
यह इंप्रेशन दिया है कि मोरोगोरो में हमें वह गाना सुनने को मिल जाएगा जिसे हम
ढूँढ़ रहे हैं, हो सकता है नाकाम हो जाएँ। जिन्होंने अपना
रिकार्ड संभाल कर रखा हुआ है वह हमें इतनी आसानी से क्यों सुनाएगा? उस समय उन्होंने वह बात कही जो मुझे आज भी याद है और आगे भी रहेगी कि हो
सकता है, ख़ुदा ने इंसान को इसलिए बनाया है ताकि हमें इस बात
का इल्म हो कि रूह को बचाने के लिए उन्हें कितनी मेहनत करनी पड़ती है।
(जारी)
चलती बस को स्कूल बना देने, और ऑर्केस्ट्रा में कलर फिल्म का सामान मुहैय्या करा देने वाली यादों की जय हो.
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