Tuesday, September 6, 2011

सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब - 3

(पिछली पोस्ट से जारी)

फ़िल्म गीत है क्या? एक बार पूछने पर उन्होंने कहा था फ़िल्मी गीत धुन के लिफ़ाफ़े में एक पुराना पैग़ाम है जो हमारे पुरखों ने हम तक पहुँचाया है ताकि हम अपने को बेहतर बनायें। यह समझाते हुए उन्होंने आवारा फ़िल्म का ‘दम भर जो उधर मुँह फेरे ओ चंदा’ गीत लिए कहा, ‘ये धार्मिक, मज़हबी गाना है जिसमें राधा और हरि यानी कृष्ण की बातचीत हो रही है। राधा चाँद से, जो कि बलराम है, दरख़्वास्त कर रही है कि यदि वह कुछ देर के लिए बादलों की ओट में हो जाएं तो वह कृष्ण से प्यार का इज़हार कर ले।’

दम भर जो उधर मुँह फेरे ओ चंदा

उन्होंने कहा, राजकपूर - एक इंसान - के लिए ये संभावना है कि वह हरि के रूप में आए।

मैं चोर हूँ काम है मेरा चोरी

क्योंकि हरि माखन चोर थे। वह माखन चुराकर अपनी सौतेली माँ के प्यार का इम्तहान लेते थे। इस गीत में वह हीरोइन से साफ़ कह रहे हैं कि मैं तो चोर हूँ, क्या तब भी मैं प्यार के क़ाबिल हूँ? जिसका जवाब है, बेशक। गाने का अर्थ यही है कि हम दुनिया में एक दूसरे की मोहब्बत के लिए आए हैं। यदि ख़ुदा को प्रेम की ज़रूरत नहीं होती तो वह भी हमें नहीं बनाता। हम जब ईमानदारी से एक-दूसरे से प्यार करते हैं, तो हम भी ख़ुदा के क़रीब आ जाते हैं। यही है फ़िल्म आवारा का पैग़ाम। ये फ़िल्म देखने के दूसरे ही दिन मेरे भाई मोंबासा गए और वहाँ के सलीम रोड के दर्ज़ी से सफ़ेेद गैबर्डीन का कोट और काला वूल ट्राउज़र सिलवाया। उसके साथ सिल्क का मफ़लर पहने सिगरेट पीते उमस भरी गर्मी में चले आ रहे थे राजकपूर की तरह, लेकिन टांगा में।

मैं चोर हूँ, काम है मेरा चोरी, दुनिया में हूँ बदनाम
दिल चुराता आया हूँ मैं, ये ही मेरा काम।


सेकिंड क्लास के डिब्बे में जो हिंदुस्तानियों के लिए था दो घंटे में साठ मील का सफ़र करके हम कोरोग्वे पहुँचे। ये रेलगाड़ी और बसों का जंक्शन था। पंगानी नदी के तट पर बसा ये छोटा सा शहर है। जब भी नदी में बाढ़ आती, तो लोगों के घरों और दूकानों को बहा ले जाती। नदी में बड़े-बड़े मगरमच्छ थे। इस शहर में हमारे बड़े मामू रहते थे। जब भी उनके घर जाते, खाने को आलू का बढ़िया पराँठा मिलता। लेकिन इस बार हम उनके घर नहीं गए। भाई साहब ने समझाया मामू दादा फ़ाल्के की फ़िल्म हरिश्चंद्र के ज़माने के हैं। साइलेंट फ़िल्मों के समय के। फ़िल्म संगीत का रस उन्हें नहीं मालूम। अगर हमने उन्हें बताया कि हम एक फ़िल्मी गीत सुनने के लिए इतनी दूर जा रहे हैं तो वह हमें मोरोगोरो से आगे डोडोमा भेज देंगे। वहाँ टांगानिका का सबसे बड़ा पागलख़ाना था जहाँ से कोई भी लौटकर नहीं आता। भाई ने मुझसे वादा ले लिया था कि इस सफ़र का ज़िक्र कभी किसी से नहीं करोगे। इस राज़ ने हमारे बीच एक नया रिश्ता क़ायम किया।

रेलवे स्टेशन से हम शहर में बस का पता लगाने के लिए करीम भाई के टी रूम में गए। वह भाई के दोस्त थे, ख़ुशी से मिले और बताया कि शहर में निराला फ़िल्म लगी हुई है। फ़िल्म आधी ही है, अभी सिर्फ़ दो रीलें आई हैं, बाक़ी रास्ते में है।

चाय पीते हुए वह मधुबाला के बारे में बात करने लगे। करीम भाई ने बताया, मधुबाला की खू़बसूरती ढलते दिन में, सूरज की आखि़री किरण के समान हैं। चूंकि इंसान किरण को वक़्त से बचा नहीं सकता, इससे इंसान की नाकामी का अंदाज़ा मिलता है। मेरे भाई साहब को फ़लसफ़ा नज़र आया। एक अच्छी बात का अच्छे शब्दों में जबाब देना, वह अपना फ़र्ज़ समझते थे। भाई अय्यूब ने कहा, निराला फ़िल्म के गीत ‘महफ़िल में जल उठी शमा परवाने के लिए’, इसमें जो मद्धम-मद्धम क्लेरेनेट बजता है, वह साज़ की आवाज़ नहीं, बुझते चिराग़ की आह है। सी रामचंद्र ने तीन मिनट में गाना नहीं जादू दिखाया है:

महफ़िल में जल उठी शमा परवाने के लिए
प्रीत बनी है दुनिया में मर जाने के लिए


करीम भाई ने सी रामचंद्र के बारे में सुनते ही उनके सामने चाय का एक और कप रख दिया और कहने लगे, वह बहुत निराश हैं। सरकार शहर को ऊँचाई वाले इलाक़े में नये सिरे से बसाना चाहती है। जब पूछा इसमें ख़राबी क्या है, कहने लगे, ‘इस नदी और इसके सारे जीव-जंतुओं के साथ हमारा बचपन से नाता है। हम एक दूसरे के संगी साथी हैं। जब बाढ़ आती है तो नदी हमारी मेहमान होती है। नदी और इंसान को अलग-अलग करने से पता नहीं क्या-क्या खराबियां आएंगी।’ उनकी सोच हमें बड़ी अनोखी लगी। आसमान की तरफ देखा तो काले बादल लश्कर की तरह बढ़ते चले आ रहे थे। कोरोग्वे और मोरोगोरो का 170 मील का कच्चा रास्ता है जो बारिश में दलदल में बदल जाता है। उस ज़माने में यह बहुत लंबा सफ़र था, लेकिन संगीतकार सज्जाद हुसैन के गाने सुनने के लिए हम दोनों भाई किसी भी आँधी, तूफान का सामना करने के लिए तैयार थे क्योंकि यह गारंटी नहीं थी कि फिर कभी ये गीत सुनने को मिले या न मिले।

जब हम बस स्टेशन पहँुचे और ड्राइवर से पूछा सफ़र कब शुरू होगा, तो वह कहने लगा, ‘ये मोंबासा नहीं है और न ये समुंदरी जहाज़। ये बस बंबई नहीं जा रही है। ये जा रही है मोरोगोरो। शायद आप ग़लत रास्ते पर हैं।’ मेरे भाई ने कहा, ‘हम मोरोगोरो ही जा रहे हैं। बंबई से और भी दूर।’ ये सुनकर ड्राइवर सीटी में गीत गाने लगा:

मेरे दिल की घड़ी करे टिक-टिक
ओ बजे रात के बारह,
हाय तेरी याद ने मारा।


वह कहने लगा, ये है अफ्ऱीक़़ा। ये उस घड़ी पर नहीं चलता जिस पर आप चल रहे हैं। बस उस वक़्त चलेगी जब मेरी मर्ज़ी होगी। भाई ने कहा, ये है सच्चाई। अफ्ऱीक़़ी घड़ी में मिनट की सूई है ही नहीं। सिर्फ घंटे की सूई है। फिर वह गंभीर हो गए। कहने लगे, ‘ये बग़ावत है, अफ्ऱीक़़़ी विलायती घड़ी पर इसलिए नहीं चलता क्योंकि वह घड़ी उसके दास होने का प्रतीक है। इसलिए वह विलायती घड़ी को नहीं मानता। दोपहर दो बजे की बस में हम कोरोग्वे से आगे रवाना हुए। बस में फ़स्ट, सैकंड या थर्ड क्लास का कोई अंतर नहीं था। बस में इंसान, बकरियाँ, मुर्गि़याँ, छोटे, बड़े, बूढ़े सभी एक ही थे। चार पहियों पर एक गाँव साथ चला जा रहा था।

कोरोग्वे से मोरोगोरो तक - हिंदुस्तानी फ़िल्मी गीत का मुखड़ा

हम शहरी अफ्ऱीक़़ा से देहाती अफ्ऱीक़़ा जा रहे थे। उस इलाक़े में जहाँ हिंदुस्तानियों की फ़©लादी लकीरें नहीं थी। हालाँकि हमारा जन्म अफ्ऱीक़़ा में ही हुआ, देहात हमारे लिए अजनबी जगह थी। ऐसी बियाबान जगह में हमें हिंदुस्तानी ख़यालों के सहारे की ज़रूरत और भी महसूस हो रही थी। हल्की बारिश ने रास्ते को कोरा काग़ज़ बना दिया था जिस पर बस कभी दो, कभी चार लकीरें बनाती आगे चली जा रही थी। मैंने भाई से पूछा, ‘हिंदुस्तानी संगीत है क्या? कहाँ से आया है?’ उन्होंने बताया, ‘यह संगीत उसी सरगम से बना है जिससे क्लासिकल और फ़ोक बना है। सरगम संगीत का एल्फ़ाबेट है।’ जब मुझे यह समझ में नहीं आया तो उन्होंने मुझे एक केला खिलाया और कहा इसका स्वाद है, ‘स’। इसके बाद बस के हर पड़ाव पर मुझे अलग-अलग स्वाद के केले खिलाए और हम ‘स’ से ‘नि’ तक पहुँच गए। एक केले और दूसरे केले के बीच जो अंतर समय और जगह का था, उन्होंने कहा ये है श्रुति। पश्चिमी संगीत की भी सरगम है। हमारी सरगम और उनकी सरगम में बहुत अंतर नहीं है, लेकिन श्रुति का उपयोग हमारे संगीत में बहुत अलग है। ‘हमारा गीत सुरों के इतने छोटे-छोटे हिस्सों में बँटा होता है कि हमें पता ही नहीं लगता कि हम एक स्वर से दूसरे स्वर पर कब पहुँच गए। स्वर नदी के पानी या कहें हवा की तरह आगे बढ़ जाता है। वेस्ट की घड़ी अटक-अटक कर चलती है इसीलिए एक स्वर से दूसरे स्वर की दूरी हमें साफ महसूस होती है। लेकिन हमारे संगीत में घड़ी लगातार एक ही रफ़्तार पर चलती है।’ हमारे संगीत में ऐसा क्यों है तो वह कहने लगे, ‘नेचर में वक़्त भी ऐसे ही चलता है, हमारा संगीत ये सिखाता है। यदि तुम जागे हुए नहीं हो तो तुम्हें पता नहीं लगेगा कि समय कब गुज़र गया और ये बहुत ख़तरनाक हो सकता है।’

उन्होंने कहा, जब बीसवीं सदी में हिंदुस्तान का इतिहास लिखा जाएगा, फ़िल्मी संगीत की ईजाद को इंडिया की एक इंक़लाबी कला का दर्जा मिलेगा। उनको इस बात का पूरा भरोसा था कि आर सी बोराल, पंकज मलिक, मास्टर ग़ुलाम हैदर, अनिल विश्वास, सी. रामचंद्र, नौशाद और सज्जाद हुसैन इनको एक दिन वही दर्जा मिलेगा जो तानसेन, बैजू बावरा, अमीर ख़ुसरो और स्वामी हरिदास का है। फ़िल्म में साउंड टेक्नोलाॅजी आने से पहले मूक सिनेमा था। आर सी बोराल जैसे संगीतकार साउंड आने से पहले लाइव आरकेस्ट्रा, जैसे आपेरा में होता है, स्क्रीन के पास बैठ के बजाते थे और यह संगीत फ़िल्म में जान डाल देता था। वर्ना सिर्फ़ तस्वीरें भूत जैसी लगती थी। हमारे लोक संगीत ने उसमें इंसानियत डाली। उनका विचार था, सही फ़िल्म संगीत रवींद्रनाथ टैगोर, नज़रुल इस्लाम, उत्तर प्रदेश के कोठों और नौटंकी से आया है। इसमें छोटे, बड़े सबका योगदान है। सिनेमा सामान्य लोगों के लिए है। इसमें शास्त्रीय संगीत नहीं चलता। रवींद्रनाथ टैगोर के लिए भी शास्त्रीय संगीत का उस्ताद रखा गया था। लेकिन उन्होंने तो सीखने से ही इंकार कर दिया। जब वह इंगलैंड गए तो उन्हें वहाँ का इंग्लिश और आयरिश सादा गीत बहुत पसंद आया। नज़रुल इस्लाम ने भी बंगाली लोक संगीत से प्रभावित होकर सादी कविता जिसे लोग समझ सकंे, सरल धुन में बाँधी जो कोई भी गुनगुना सके। उन्होंने कहा रवींद्र और नज़रुल ने फ़िल्म के लिए गीत तैयार नहीं किये, लेकिन हमारे संगीतकारों ने उनसे प्रेरणा ली कि अच्छे संदेश वाली कविता को सीधी-सादी सुंदर धुन में पिरोया जा सकता है जिससे लोगों को केवल आनंद ही नहीं कुछ सीखने को भी मिले। होशियार के लिए इशारा ही काफ़ी होता है। रवींद्रनाथ टैगोर और नज़रुल इस्लाम के गीतों से प्रेरणा लेकर हमारे संगीतकारों ने अपने गीत सजाए और फ़िल्म संगीत को इतिहास बना दिया। इसमें कोई शक नहीं कि सिनेमा एक टेक्नोलाॅजी है जिससे हिंदुस्तान की तस्वीर बनाई जा सकती थी। लेकिन फ़िल्म संगीत के बिना यह हिंदुस्तानी नहीं हो सकती थी। फ़िल्म संगीत ने इसे देशी बनाया। पुरानों धागों से नया कपड़ा बुना गया। मैंने उनसे पूछा, ‘फिर क्यों पढ़े-लिखे लोग हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत को घटिया समझते हैं?’ उनका जवाब था, ‘हर पढ़ा-लिखा आदमी अक़्लमंद नहीं होता। जो इस संगीत को घटिया कहते हैं, वे इस संगीत के बारे में नहीं अपने बारे में बता रहे होते हैं।’

(जारी)

4 comments:

Pratibha Katiyar said...

maine is poore aalekh ko ek sitinig me padha.bahut sundar aalekh.

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर भावपूर्ण आलेख| धन्यवाद|

प्रज्ञा पांडेय said...

sageet ki dhun men lipata hua lekh hai .. ashok ji . shukriya ise padhaane ka

नीरज गोस्वामी said...

WAAH...BEJOD LEKHAN...BAHUT AANAND AA RAHA HAI IS SAFAR MEN...JAARI RAHE..

NEERAJ