हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाडे में मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाडे का
न हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाडे का
बच्चे की सुन बात कहा माता ने अरे सलोने
कुशल करे भगवान लगे मत तुझको जादू टोने
जाडे की तो बात ठीक है पर मै तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौडा कभी एक फुट मोटा
बडा किसी दिन हो जाता है और किसी दिन छोटा
घटता बढता रोज़ किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पडता है
अब तू ही यह बता नाप तेरा किस रोज़ लिवायें?
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आयें?
19 comments:
आह…कितने वर्षों बाद…अद्भुत मानवीकरण्…सहज…सुन्दर!
nostalgic. really found it to be happy.
वर्षों बाद भी यह कविता उतनी ही अच्छी लगती है जितनी अच्छी बचपन में लगती थी.. बेटे को हिंदी कविता पाठ प्रतियोगिता के लिए तैयार कराया था पिछले वर्ष और प्रथम पुरस्कार मिला था.. अच्छा लगा पढ़ कर ..
मुझे भी यह रचना बहुत पसंद है .. याद दिलाने के लिए शुक्रिया !!
ah bachpan ...
हठ कर बैठा बाप इक दिन ,माता से ये बोला कि बच्चे बड़े हो रहे हैं ! और बच्चे तो बड़े हो गए पर बाप छोटा हो गया ! ये क्या मामला हैं बाबा ?
दिनकर की यह रचना बहुत सुन्दर लगती है।
Dhanyavaad !
bahut pyaari kavita hai ye... yaad karadiya bachpan ko...
’ घटता बढता रोज़ किसी दिन ’-कम होगा कि नहीं? बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं । हमारे लपत्तू वाले दिनों में कुछ ऐसे बदलाव भी हमने किए थे ।
'घटता बढता रोज़ किसी दिन ' किस दिन कम होगा कि नहीं?-बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं? हमारे लपत्तू वाले दिनों में यह variation भी होता था।
सुंदर पोस्ट। वाह क्या बालसुलभ पंक्तियां हैः
काव्यवन का सफर और यह मौसम है जाडे का
न हो अगर तो ला दो मुझको कुत्ता ही भाडे का
यह तो हमेशा यादों में बसी कविता है। वो दो पृष्ठों में छपी हुई थी वेसिक शिक्षा परिषद की तीसरी कक्षा की पाठ्यपुस्तिका में। दोनों पन्नों पर घटते-बढ़ते चांद की तस्वीरें थीं।
...अलबत्ता यह याद कतई नहीं था कि इस कविता के रचियता दिनकर हैं। अच्छा होता कि वे बाल कविता ही लिखते, नाहक गर्जन-तर्जन करते उम्र बिता दी।
देक्खा पांडे जी - आपने पुराना लगाया चकाचक कितने लोग खुश हो गए !, है न जबरदस्त - और ध्यान से समझिए तो ऊपर एक फरमाईश लफत्तू के दिनों की भी है - अमरीका से भी फोन आते होंगे हो - :-)
बचपन में प्राइमरी स्कूल की किताब में पढ़ी थी। बहुत दिनों बाद पूरी कविता दुबारा पढ़कर आनन्द आ गया।
धन्यवाद।
मैंने तो यह पहली बार सुनी है.... अच्छी लगी.... चन्दा मामा की जिद वाली कविता
बेहतरीन उम्दा पोस्ट
प्रशंसा करना तो छोटा मुंह बड़ी बात हो जाएगी। बस यह कहूँगा इस से अच्छा बालगीत आज तक न पढ़ा, न सुना। बचपन से ही यह कविता मन को बेहद भाती है।
पुरानी यादें ताजा हो गईं कभी बचपन में यह कविता पढ़ा करता था।
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