Monday, March 31, 2014

उस पर प्रवेश करते हुए तुम प्रविष्ट होते हो अपने भीतर - आज सौ साल के होते पाज़


मैक्सिकी कवि, निबंधकार और राजनैतिक विचारक ओक्तावियो पाज़ (३१ मार्च, १९१४ - १९ अप्रैल १९९८) के काम में तमाम प्रभाव नज़र आते हैं जिनका विस्तृत फलक अपने भीतर मुख्यतः मार्क्सवाद, अतियथार्थवाद और अज़तेक गाथाओं को समाहित किये हुए है.

मैक्सिको सिटी में जन्मे पाज़ ने नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैक्सिको में पढाई की लेकिन १९३६ में उन्होंने सब कुछ छोड़ छाड़ कर गरीब बच्चों की सेवा करने के लिए ग्रामीण यूताकान का रुख किया. १९३७ के स्पानी गृह युद्ध में उन्होंने हिस्सा लिया था. बाद में कुछ समय तक एक वामपंथी पत्रकार और मैक्सिकी कूटनीतिक के तौर पर काम करने के बाद उन्होंने लेखन पर ध्यान केन्द्रित किया.   

उनकी किताब ‘एल लाबेरिन्तो दे ला सोलेदाद’ जिसने उन्हें संसार भर में ख्याति प्रदान की, मैक्सिको की धरोहर की पड़ताल करने वाला अनूठा दस्तावेज़ है. उनकी लम्बी कविता ‘पीयेद्रा देल सोल’ (सूर्य शिला) में विरोधाभासी छवियों का इस्तेमाल हुआ है जो अज़तेक सभ्यता के कैलेण्डर के इर्द गिर्द घूमती हैं और व्यक्तियों के निजी एकाकीपन और दूसरों के साथ मिलने की उनकी इच्छाओं को रेखांकित करती हैं.

१९९० में उन्हें साहित्य का नोबेल मिला.

१९६२ में वे भारत में मैक्सिकी राजदूत बनाए गए. लेकिन ओलिम्पिक खेलों के ठीक पहले मैक्सिकी सरकार द्वारा प्रदर्शन कर रहे २०० छात्रों की हत्या किये जाने के विरोध में उन्होंने १९६८ में इस पद से त्यागपत्र दे दिया. १९७१ में उन्होंने साहित्यिक पत्रिका ‘प्लूरल’ (जिसका नाम बाद में वूएल्ता कर दिया गया) का प्रकाशन शुरू किया. समाजवाद और स्वतंत्रता की पैरवी करती यह पत्रिका मैक्सिकी जनता को कम्यूनिस्ट और अमेरिकी प्रभाव से बाहर आने का आह्वान करती थी.

उनकी एक छोटी कविता -

पुल

अभी और अभी के दरम्यान
मैं हूँ और तुम हो के दरम्यान
शब्दों का पुल.

उस पर प्रवेश करते हुए
तुम प्रविष्ट होते हो अपने भीतर
संसार जुड़ता है
और बंद होता है किसी अंगूठी की मानिंद

एक किनारे से दूसरे तक
एक देह पसरी रहती है
हमेशा:
एक इन्द्रधनुष
मैं सोऊंगा उसकी मेहराबों के तले.

Sunday, March 30, 2014

तुम्हारे कविताएं लिखने छोड़ने पर मेरी बस्ती में बुरांस खिलना बंद हो गया - मणि काफले की कविता - २


ओ प्रेयसी कवयित्री

-मणि काफले

विधवा इच्छाओं की
अनाथ ख्वाबों की
निर्बल बाहों की
आओ ओ प्रेयसी कवयित्री
हम इन सबकी कविताएं लिखें
तुम्हारे कविताएं लिखने छोड़ने पर
मेरी बस्ती में बुरांस खिलना बंद हो गया
कोयल ने गाना छोड़ दिया
असीम हर्ष के गीत
विजय के नगाड़े बजने बंद हो गए
इस समय
मैं अपराधबोध
महसूस कर रहा हूं
तुम्हें कविताएं लिखने न देने पर
तुम समझती होगी
मेरा छल, कपट, षडयंत्र
अनेक बहानों में तुम्हें
रंगीन, प्राणहीन गुडि़या बनाने
मेरे घर संसार की
अधिकारविहीन मालकिन बनाने
गहनों और कपड़ों लत्तों में भुलाने के
सारे के सारे षडयंत्र
ओ मेरी खोई हुई प्रिय कवयित्री
मैं तुम्हारे साथ लिखना चाहता हूं
अपनी कुरूपता
मैं आलोचित होने को तैयार हूं
मैं अपराधबोध महसूस कर रहा हूं
तुम्हारे विरुद्ध इस लड़ाई में
मैं खुद सगर्व
अपनी हार की घोषणा करता हूं
मैंने धर्म के नाम पर
शरीर विज्ञान के नाम पर
प्राकृतिक नियम के नाम पर
प्रेम के नाम पर
संस्कार संस्कृति या
अन्य कई नामों पर
युगों से करता रहा
तुम्हारा बलात्कार
करता रहा
भीषण अत्याचार
मैं यह नहीं सह सकता
कैसे सहा बोलो तुमने?
तुम्हारे अंदर बह रही
पीड़ा की ऐतिहासिक नदियां
तुम्हारे भीतर पनप रही
असमानता की पहाडि़यां
सभी-सभी के बयान चाहिए तुमसे
अब तुमसे
मेरे अत्याचार का
मेरी क्रूरता का
दस्तावेज चाहिए
हमारी संतानों को पता चले
तुम्हारी सहनशीलता
और मेरी क्रूरता का
यह समूचा इतिहास
हिसाब-किताब के बाद
पिफर एक दिन
विधवा इच्छाओं की
अनाथ ख्वाबों की
निर्बल बाहों की
आओ ओ प्रेयसी कवयित्री
हम इन सबकी कविताएं लिखें


(अनुवादः नरेश ज्ञवाली)

Saturday, March 29, 2014

चले आओ, चले आओ मुझे तुमसे मुहब्बत है - जन्नत से मंटो का खत

जन्नत से मंटो का खत

- राजा मेहदी अली खान


(‘पहल’ के फरवरी २०१४ अंक से साभार)

मशहूर शायर और फिल्म गीतगार राजा मेहदी अली खान और सादत हसन मंटो की दोस्ती के अनेक किस्से प्रचलित हैं. मंटो की बेवक्त मौत ने उनके तमाम दोस्तों और उनके चाहने वालों को बुरी तरह से हिला कर रख दिया था. लेकिन उनके दोस्तों की जमात, चाहे वो कृश्न चंदर हो या इस्मत चुगतई या फ़िर राजा, सब के सब ज़माने से निराले लोग थे. न सब की तरह जीते थे और न सब की ही तरह मरे.

राजा मेहदी अली खान ने पहले तो मंटों को याद करते हुए लिखा है ''मैं, मंटो, काली सलवार और धुआं'' और बाद को जब दिल बहलाने के बहाने न रहे तो एक दिन मंटो की तरफ से ही खुद को एक खत लिखकर जन्नत का बुलऊवा ले लिया. लगे हाथ ज़माने और खासकर अदबी दुनिया की भी खबर ले डाली.

१.

मैं खैरियत से हूं लेकिन कहो कैसे हो तुम 'राजा'
बहुत दिन क्यों रहे तुम फिल्म की दुनिया में गुम 'राजा'
ये दुनिया
--अदब से क्यों किया तुमने किनारा था
अरे ऐ बे
-अदब क्या शेर से ज़र तुम को प्यारा था
जो नज़्में तुमने लिखीं थीं कभी जन्नत के बारे में
छपी थीं वो यहां भी 'खुल्द' के पहले शुमारे में   
अदब की, शेर की दुनिया में तुम लौट आए, अच्छा है
अरे लिखवा लो नज़्में
! फिर से तुम चिल्लाए, अच्छा है
मगर फिर सोचता हूं शेर लिखकर क्या करोगे तुम?
ये अन्दाज़ा है मेरा गालिबा भूखे मरोगे तुम
ये बेहतर है किसी मिल में नौकरी कर लो
करो तुम शायरी तफ़रीह को और पेट यूं भर लो

(ख़ुल्द – स्वर्ग, शुमारे में – अंक में)

२.

ये वह दुनिया है जिसने केस चलवाए अदीबों पर
बहुत की बारिशे
-मश्के-सितम हम खुश नसीबों पर   
हुआ पैदा यहां जो नुक्त:दां सदियों में, सालों में       
मरा सड़कों पे वह या सड़ गया फिर हस्पतालों में
हों ज़िन्दा हम तो नाक और भौं चढ़ाकर नाम धरते हैं
यकायक एक दिन रोएंगे ये, बरसी मना लेंगे
ये गाज़ी हम शहीदों के लिए झंडे उठा लेंगे
पढ़ेंगे मर्सिये, तड़पेंगे कर डालेंगे तकरीरें
!
हमारा नाम करने की करेंगे लाख तदबीरें
हमारे बाल
-बच्चों से न पूछेंगे कि कैसे हो
अदीबों
-शायरों की कद्रदानी हो तो ऐसी हो
करें क्या, न ये दुनिया न वो दुनिया अदीबों की
ये दुनिया है सज़ाओं की, वो दुनिया है खतीबों की           

(बारिशे-मश्के-सितम - कहर बरपाना, नुक्त:दां- आलोचक, कला मर्मज्ञ, खतीबों- धर्मोपदेशक)

३.

ज़मीं वाले हों कैसे भी वो हर दम याद आते हैं
जो दुनिया में उठाए वो हसीं गम याद आते हैं
ज़मीं वालों की सुहब्बत में कभी जो दिन गुज़ारे थे
कलम लिखने से कासिर है कि वो दिन कितने प्यारे थे       
वह गलियां बायकला की दूर से मुझको बुलाती हैं
वहां के घर की यादें दिल में अब तक गुनगुनाती हैं
मुझे उस घर में सफ़िया की मुहब्बत याद आती है
मुझे जन्नत में भी वो घर की जन्नत याद आती है
जहां बच्चों की सूरत देखकर मैं मुस्कराता था
जहां आकर मैं दुनिया का हर ग़म भूल जाता था
बिला
-नागा जहां हर शाम तुम मिलने को आते थे
जहां सब दोस्त आकर इक नई जन्नत बसाते थे
वो जन्नत लुट चुकी दिल में मगर आबाद है अब तक
फ़िज़ा उस घर की, वक्फा
--मातम--फरियाद है अब तक
तुम अक्सर अब भी उस घर की सड़क पर से गुज़रते हो
वह सब कुच्छ लुटचुका बेकार तुम क्यों आहें भरते हो?
यही उजड़ा हुआ घर फिर बसाना चाहता हूं मैं
बुलंदी छोड़कर पस्ती पे आना चाहता हूं मैं

(कासिर- असमर्थ)

४.

फलक पर मैं हूं और तुम हो ज़मीं पर, जी नहीं लगता
जहां भी जाऊं जन्नत में कहीं पर जी नहीं लगता
मैं चाहूं भी तो अब दुनिया में वापस आ नहीं सकता
खुशी बनकर तुम्हारी महफिलों में छा नहीं सकता
ज़मीं वालों से ऐ मलऊन कब तोड़ेगे तुम नाते?   
बा
-आसानी तुम आ सकते हो ज़ालिम, क्यों नहीं आते?
फलक से रोज़ मैं आवाज़ देता हूं तुम्हे राजा
तुम्हे मालूम है राजा का है इक काफिया 'आजा'
ज़मीं से बोरिया
-बिस्तर उठाओ और चले आओ
मेरे घर आओ, मेरा बेल बजाओ और चले आओ
करोड़ों मर गए चुपचाप लेकिन तुम नहीं मरते
जो मर्द नेक हैं जीने पे इतनी ज़िद नहीं करते
अगर कुछ उम्र बाकी है तो कर के खुदकशी आओ
मैं हूं जब तक यहां खौफ
--जहन्नुम से न घबराओ
मैं जुर्मे खुदकशी को लड़
-झगड़ के बख्शवा लूंगा
तुम्हारा नाम जन्नत के हर पर्चे में उछालूंगा
चले आओ, चले आओ मुझे तुमसे मुहब्बत है
चले आओ, चले आओ यहां राहत ही राहत है

(मलऊन - दुष्टात्मा)

५.

नहीं मैं खुदगर्ज़ सुन लो तुम्हे मैं क्यों बुलाता हूं
मेरे राजा तुम्हे मैं एक खुशखबरी सुनाता हूं
खबर ये गर्म थी कुछ दिन से जन्नत की हसीनों में
तुम्हारा नाम भी शामिल है जन्नत के मकीनों में     
ये सुनकर मैं नई आबादियों में दौड़ता आया
जो की इंक्वायरी तो इस खबर को मैने सच पाया
तुम्हारा महल भी देखा, बहुत ही खूबसूरत है
ये समझो जगमगाते नूर और चीनी की मूरत है
तुम्हारी मुंतज़िर हूरें वहां बेख्वाब रहती हैं
चमन की अंदलीबों
 की तरह बेताब रहती हैं              
वह मुझसे पूछती रहती हैं बतलाओ वह कैसे हैं
फरिश्ते हैं कि शैतान हैं, वो ऐसे हैं कि वैसे हैं
तुम्हारी झूठी तारीफों के पुल मैं बांध देता हूं
खुदा से बाद में रो
-रो मुआफी मांग लेता हूं
जवां हूरें कहीं बूढ़ी न हो जाएं, चले आओ
ये जंगल में मुहब्बत के न खो जाएं चले आओ
उन्हें छुप
-छुप के एक कम्बख्त मुल्ला घूरा करता है
बचा लो इनको ऐ राजा कि वो उन सब पे मरता है
ये चंचल हिरनियां तकती हैं उसको भाग जाती हैं
मेरी हूरों को आकर हाल अपना सब सुनाती हैं

(मकीनों में
निवासियों में, अंदलीब - बुलबुल)


६.

बहुत जो याद आती हैं अब उनके नाम लेता हूं
ज़मीं के दोस्तों के नाम कुछ पैगाम देता हूं
बहिन इस्मत से कहना कब तलक फिल्में बनाओगी
ये हालत हो गई है आह क्या अब भी न आओगी
जा याद आ जाए इस्मत की तो शाहिद भी चला आए
वो ज़िद्दी आते
-आती अपनी फ़िल्में सब जला आए
महिंदरनाथ को और कृश्न को भी खत ये दिखलाओ
जो मुमकिन हो तो दोनों भाइयों को साथ ले आओ
अगर दुनिया न आती हो मुवाफिक फैज़
--राशिद को
तो उनसे पूछकर लिखो, मैं भेजूं अपने कासिद को
न आएं गर तो कहना पतरस ने बुलाया है
तुम्हारी याद में 'तासीर' तड़पा तिलमिलाया है
तुम्हे हर रोज़ 'हसरत' और 'सालिक' याद करते हैं
तुम्हें दोनो अखबारों के मालिक याद करते हैं
मुझे उम्मीद है ये सुन के दोनों दौड़े आएंगे
मेरी जन्नत में आकर इक नई जन्नत बसाएंगे
दुआ है या खुदा सब ज़मीं के दोस्त मर जाएं.
ये जन्नत के चमन, ये घर, ये सड़कें उनसे भर जाएं

---

इस नज़्म में एक जगह बायकला
(बम्बई का उप-नगर भायखला) का ज़िक्र आता है, जहां कभी मंटो का घर होता था. साफिया उनकी बीवी थीं. शाहिद लतीफ इस्मत चुगतई के पति थे और जिस फिल्म 'ज़िद्दी' का ज़िक्र है वह उसके डायरेक्टर थे.

'पतरस' से मुराद उर्दू के मशहूर हास्य
-व्यंग लेखक पतरस बुखारी (1898-1958) से है. 'तासीर' से आशय डा. दीन मोहम्मद तासीर (1902-1950) से है जो नामवर शायर और अंग्रेज़ी के विद्वान थे. इसी तरह अब्दुल मजीद 'सालिक' (1894-1959) एक शायर होने के अलावा लेखक, पत्रकार और रेडियो ब्रोडकास्टर भी थे.


अजब सा संयोग है कि 1955 में मंटो का जाना हुआ तो उनके ग्यारह बरस बाद 1966 में राजा भी वहीं जा पहुंचे. ग्यारह बरस और इंतज़ार के बाद 1977 में कृश्न चन्दर भी कूच फरमा गए. उनके छोटे भाई महेन्द्रनाथ तो उनमें भी पहले वहां जा पहुंचे थे. शाहिद लतीफ तो 1967 में ही चल दिए थे अलबता इस्मत आपा ने इस जहान में अपने इन तमाम दोस्तों की नुमाइंदगी 1991 तक कायम रखी.

ओ गूगल - मणि काफले की कविता - १

(समकालीन तीसरी दुनिया के ताज़ा अंक से साभार)

मणि काफले नेपाल के उन युवा प्रगतिशील कवियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्होंने अपने रचनाकर्म को जनता के संघर्षों के साथ जोड़ने की जरूरत को बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया और जनआंदोलनों से ऊर्जा ले कर अपने साहित्य सृजन को समृद्ध किया. यही वजह है कि  राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहे नेपाल में एक संवेदनशील रचनाकार के रूप में उनकी अलग पहचान है. नेपाली साहित्य के गहन अध्येता मणि काफले ने कुछ कहानियां भी लिखी हैं.


ओ गूगल

नाम गूगल अर्थ
तुम्हारा
ओ गूगल,
मुझे कई-कई चीजें ढूंढनी हैं
तुम्हारे मार्फ़त
खेतों-खलिहानों में आते-जाते
पहाड़ों में चढ़ते-उतरते
गौरैया जैसी फुर्तीली
चांद जैसी उजली
सुश्री कांछी माया के
जमींदार के बेटे के साथ
बम्बई तक जाने की खबर है.
लेकिन उसके बाद वह गुम गयी
जमींदार का बेटा नहीं गुम हुआ
ओ गूगल,
जरा ढूंढो तो
सुश्री कांछी माया कहां है?
बस्ते में किताब, कॉपी, कलम
और टिफ़िन लेकर स्कूल गए
14 वर्ष तीन महीने के
कक्षा नौ में पढ़ने वाले
बच्चे के बस्ते में
पुलिस द्वारा बम ढूंढने
तक की खबर है
उसके बाद वह घर नहीं लौटा
आज तक
ठीक 12 वर्ष गुजर गए
ओ गूगल
जरा ढूंढो तो
वह बच्चा कहां है?
देवताओं के मंदिर में
लड्डू और नारियल चढ़ाकर
मिस नेपाल के सपने संजोने वाली
इस शहर की तरुणियों के
फोटो मात्र कितना दिखाओगे तुम
इससे अच्छा देवताओं के द्वारा
झुठलायी गयी
फिर भी
झुठलाएपन को इनकार करने वाली
मेरी मां की
अधूरी इच्छाएं और सपने
उनकी झुर्रियों भरे चेहरे में
कहीं दिखेंगे या नहीं
ओ गूगल
वे इच्छाएं ढूंढ पाओगे?
कितना ढूंढोगे
तीन अंगुल की पैण्टियों में
सजी हुई सुंदरियां
कितना ढूंढोगे
डिस्कोथेक में अश्लील नाचती
वीडियो क्लिपें
या पोर्न सुंदरियां?
पति के द्वारा
दहेज न लाने पर कोसते हुए
मिट्टी का तेल लगाकर आग लगाते समय
जिंदा जलती फूलमती की
छाती का घाव
किस चित्र में अंकित है
उसके चेहरे के
जलते हुए साए में
उस समय की तस्वीर
कैसी दिखती है
ओ गूगल
क्या ढूंढ सकते हो उसे?
दगते दगते, पिटते पिटते
समय के बौछारों में से
छल,कपट और षडयंत्रों में से
अपनी मुक्ति और सपनों की खातिर
किसी चमत्कारिक
नायक की खोज में हैं लोग,
ओ गूगल
छोड़ो अब यह व्यर्थ की खोज
इससे अच्छा तुम बताओ
वैसे नायक की कर सकते हो खोज!


(अनुवादः नरेश ज्ञवाली)

Thursday, March 27, 2014

कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूँ तुमसे मैं

          
         कविता

-वीरेन डंगवाल 

एक.

पिछले साल मेरी उम्र ६५ की थी
तब मैं तकरीबन पचास साल का रहा होऊंगा
इस साल मैं ६५ का हूँ
मगर आ गया हूँ गोया ७६ के लपेटे में.

ये शरीर की एक और शरारत है.
पर ये दिल, मेरा ये कमबख्त दिल
डाक्टर कहते हैं कि ये फिलहाल सिर्फ पैंतीस फीसद पर काम कर रहा है
मगर ये कूदता है, भागता है, शामी कबाब और आइसक्रीम खाता है
शामिल होता है जुलूसों में धरनों पर बैठता है इन्कलाब जिंदाबाद कहते हुए
या कोई उम्दा कविता पढ़ते हुए अभी भी भर लाता है इन दुर्बल आखों में आंसू
दोस्तों – साथियों मुझे छोड़ना मत कभी
कुछ नहीं तो मैं तुम लोगों को  देखा करूँगा प्यार से
दरी पर सबसे पीछे दीवार से सटकर बैठा.


दो.               

शरणार्थियों की तरह कहीं भी
अपनी पोटली खोलकर खा लेते हैं हम रोटी
हम चले सिवार में दलदल में रेते में गन्ने के धारदार खेतों में चले हम
अपने बच्चों के साथ शरद की भयानक रातों में
उनके कोमल पैर लहूलुहान महीनों चले हम

पैसे देकर भी हमने धक्के खाये  
तमाम अस्पतालों में
हमें चींथा गया छीला गया नोचा गया
सिला गया भूंजा गया झुलसाया गया
तोड़ डाली गईं हमारी हड्डियां
और बताया ये गया कि ये सारी जद्दोजेहद
हमें हिफाजत से रखने की थीं.

हमलावर चढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से
पंजर दबता जाता है उनके बोझे से
मन आशंकित होता है तुम्हारे भविष्य के लिए
ओ मेरी मातृभूमि ओ मेरी प्रिया
कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूँ तुमसे मैं .