Friday, October 28, 2011

श्रीलाल शुक्ल जी नहीं रहे ,श्रद्धांजलि !

अभी कुछ देर पहले खबर आई है कि श्रीलाल शुक्ल जी नहीं रहे । उन्हें 'कबाड़ख़ाना' की ओर से श्रद्धांजलि !पिछले दिनों ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा के साथ श्रीलाल शुक्ल जी और उनका उपन्यास ‘राग दरबारी’ एक बार फ़िर चर्चा के केंद्र में रहे हैं। इस ठिकाने पर उन्हें और उनके कालजयी रचनाकर्म को बार - बार याद किया गया है। आज २००७ में लिखी एक पोस्ट श्रद्धांजलि  स्वरूप दोबारा साझा की जा रही है। नमन इस कालजयी रचनाकार को!


१९७० में साहित्य अकादेमी ( और २०११  ज्ञानपीठ ) पुरस्कार से सम्मानित श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास `राग दरबारी´ आजादी के बाद के भारतीय जनमानस के सामाजिक जीवन की बहुरंगी छवियों , परिवर्तित - परावर्तित जनाकांक्षाओं , राजनीतिक सदाचार - कदाचार के सार्वजनिक स्वीकार - अस्वीकार , सरकारी - गैर सरकारी योजनाओं - परियोजनाओ -कार्यक्रमों की नीति-अनीति-परिणति , शैक्षिक संस्थानो में फल-फूल रही दार्शनिक दरिद्रता - दकियानूसी और दुकानदारी , बुद्धजीवी तबके की निस्पृह-निस्सार निस्संगता आदि-आदि का जीवंत दस्तावेज तो है ही साथ ही यह आम जनता की उस दुर्दम्य जिजीविषा का प्रमाण भी है जिसके लिए प्रतिकूलताओं का मतलब दैनंदिन चुनौती और दैनिक जीवन -व्यापार का एक पड़ाव भर है । शायद यही वजह है कि यह उपन्यास समाज के हर तबके द्वारा सराहा गया ।

`राग दरबारी´ की कथाभूमि शिवपालगंज हैं , एक छोटा-सा कस्बा या एक बड़ा-सा गांव ।यहां की पंचायत, कोआपरेटिव सोसाइटी , कालेज की प्रबंध समिति ,सबके सब आजादी के बाद के भारतीय सामाजिक तानबाने के प्रतिनिधि हैं । इनके बीच स्वार्थ, लोभ ,लिप्सा का खेल तो है ही , इन्ही के बीच जगह-जगह मानवीय करूणा, अपननत्व,, प्रेम,पीड़ा आदर्श की वे सरितायें भी हैं जिन्हें सदानीरा बनाये रखने की जद्दोजहद को हम लोग साहित्य , संस्कृति, कला , आस्था आदि-आदि का उद्देश्य या प्रयोजन के नाम से जानते समझते -समझाते हैं । यह उपन्यास हिन्दी कथा साहित्य में तेजी से तिरोहित होते हुए उस `स्पेस´ की उपस्थिति भी है जिसे गांव या कस्बा कहते हैं । साथ इस `स्पेस´ को लेकर बनी -बनाई उस रोमानी छवि के ध्वस्तीकरण की ईमानदार कोशिश भी जो ` अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है ´ और मादल -मृदंग के `डिमिक - डिमिक ´ से आस्वाद ग्रहण कर उसी में आंख मूंदकर मुदित रहने की अभ्यस्त है ।

`राग दरबारी´ की भाषा-शैली का अपना एक अलग रंग है । लेखक के सामने इस बात की पूरी गुंजाइश थी कि वह बड़ी सरलता से इसकी भाषा को लोकल कलर या आंचलिक पुट दे सकता था लेकिन संभवत: ऐसा करने पर उसके कथानक की व्यापकता सीमाबद्ध हो जाती , वह अपनी लघुता में विराटता का रूपक प्रस्तुत करने में पिछड़ जाता , वह उतना बेधक और विध्वंसक नहीं रह पाता । कथ्य भाषा को किस तरह साधता है और भाषा कथ्य को कैसे कसती है ,यह इस उपन्यास के माध्यम से सीखा जा सकता है ।

`राग दरबारी´ निरन्तर वर्णनात्मकता में चलने वाला एक असमाप्त गद्य है । इसके पात्रों का एक अपना संसार है , वे शिवपालगंज के `गंजहे´ हैं । वैद्य जी, रूप्पन बाबू , रंगनाथ , सनीचर ,बद्री पहलवान , छोटे पहलवान, बाबू रामाधीन भीमखेड़वी, लंगड़ ,प्रिन्सिपल साहब, पं0 राधेलाल , खन्ना मास्टर ,मास्टर मोतीराम , कुसहर प्रसाद ,जोगनाथ इत्यादि पात्र अपनी दुनिया के भीतर ही एक सार्वजनिक दुनिया ( पब्लिक स्फीयर ) का खाका खीते चलते हैं । पाठक के लिए यह दुनिया नई भी है और अपनी भी । आजादी के बाद के हिन्दी उपन्यास साहित्य में `मैला आंचल´( फणीश्वर नाथ रेणु) के बाद `आधा गांव´( राही मासूम रज़ा) ,`तमस´( भीष्म साहनी) और `राग दरबारी´ की त्रयी ने काफी हलचल पैदा की थी । तीनों की कथाभूमि और कहने का अंदाज जुदा-जुदा था फिर भी तीनों ही एक साथ मिलकर भरतीय जनमानस के वृत्त को पूरा करते हैं ।

`राग दरबारी´ का आखरी हिस्से को श्रीलाल शुक्ल जी ने पलायन संगीत का नाम दिया है । तो आइए ! सुनते हैं वही संगीत । पर ध्यान रहे यह सुनना भी निहायत जरूरी है कि कहीं किसी कोने -कांतर में यह संगीत हमारे भीतर भी बज रहा है क्या ?


पलायन संगीत

तुम मंझोली हैसियत के मनुष्य हो और मनुष्यता के कीचड़ में फंस गए हो । तुम्हारे चारों ओर कीचड़ ही कीचड़ है। कीचड़ की चापलूसी मत करो । इस मुगालते में न रहो कि कीचड़ से कमल पैदा होता है । कीचड़ में कीचड़ ही पनपता है । वही फैलता है वही उछलता है ।
कीचड़ से बचो । यह जगह छोड़ो ।यहां से पलायन करो।

वहां ,जहां की रंगीन तस्वीरें तुमने `लुक´ और `लाइफ´ में खोजकर देखी हैं ( जहां के फूलों के मुकुट, गिटार और लड़कियां तुम्हारी आत्मा को हमेशा नए अन्वेषणों के लिए ललकारती हैं (जहां की हवा सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है, जहां रविशंकर - छाप संगीत और महर्षि-योगी छाप अध्यात्म की चिरंतन स्विप्नलता है । जाकर कहीं छिप जाओ। यहां से पलायन करो । यह जगह छोड़ो.

नौजवान डाक्टरों की तरह ,इंजीनियरों ,वैज्ञानिकों , अंतरराष्ट्रीय ख्याति के लिए हुड़कने वाले मनीषियों की तरह ,जिनका चौबीस घंटे यही रोना है कि सबने यहां मिलकर उन्हे सुखी नहीं बनाया , पलायन करो, यहां के झंझटों में मत पड़ो।

अगर तुम्हारी किस्मत ही फूटी हो ,और तुम्हें यहीं रहना पड़े तो अलग से अपनी एक हवाई दुनिया बना लो । उस दुनिया में रहो जिसमें बहुत -से बुद्धिजीवी आंख मूंदकर पड़े हैं होटलों और क्लबों में ।शराबखानों और कहवाघरों में, चण्डीगढ़ - भोपाल - बंगलौर के नवनिर्मित भवनों में ,पहाड़ी आरामगाहों में ,जहां कभी न खत्म होने वाले सेमिनार चल रहे हैं। विदेशी मदद से बने हुए नए-नए शोध - संस्थानों में , जिनमें भारतीय प्रतिभा का निर्माण हो रहा है। चुरूट के धुयें ,चमकीली जैकेट वाली किताब और गलत , किन्तु अनिवार्य अंग्रेजी की धुन्ध वाले विश्वविद्यालयों में । वहीं जाकर जम जाओ ,फिर वहीं जमे रहो।

यह न कर सको तो तो अतीत में जाकर छिप जाओ । कणाद, पतंजलि, गौतम में , अजन्ता, ऐलोरा ,एलिफेंटा में , कोणार्क और खजुराहो में ,शाल -भंजिका -सुर -सुंदरी-अलसकन्या के स्तनों में, जप-तप-मंत्र में ,सन्त -समागम -ज्योतिष -सामुद्रिक में- जहां भी जगह मिले , जाकर छिप रहो।

भागो, भागो, भागो । यथार्थ तुम्हरा पीछा कर रहा है ।

Wednesday, October 26, 2011

कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में

उजास पर्व दीपावली पर सभी को शुभकामनायें


अज्ञेय की कविता
यह दीप अकेला

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो

यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

Sunday, October 23, 2011

जलना ही रहस्य है

महादेवी वर्मा की कविता

जीवन दीप

किन उपकरणों का दीपक,
किसका जलता है तेल?
किसकि वर्त्ति, कौन करता
इसका ज्वाला से मेल?

शून्य काल के पुलिनों पर-
जाकर चुपके से मौन,
इसे बहा जाता लहरों में
वह रहस्यमय कौन?

कुहरे सा धुँधला भविष्य है,
है अतीत तम घोर ;
कौन बता देगा जाता यह
किस असीम की ओर?

पावस की निशि में जुगनू का-
ज्यों आलोक-प्रसार।
इस आभा में लगता तम का
और गहन विस्तार।

इन उत्ताल तरंगों पर सह-
झंझा के आघात,
जलना ही रहस्य है बुझना -
है नैसर्गिक बात !

Wednesday, October 19, 2011

भोंदू जी की सर्दियाँ

भोंदू जी की सर्दियाँ
(वीरेन डंगवाल की कविता )

आ गई हरी सब्जियों की बहार
पराठे मूली के, मिर्च, नीबू का अचार

मुलायम आवाज में गाने लगे मुंह-अंधेरे
कउए सुबह का राग शीतल कठोर
धूल और ओस से लथपथ बेर के बूढ़े पेड़ में
पक रहे चुपके से विचित्र सुगन्‍धवाले फल
फेरे लगाने लगी गिलहरी चोर

बहुत दिनों बाद कटा कोहरा खिला घाम
कलियुग में ऐसे ही आते हैं सियाराम

नया सूट पहन बाबू साहब ने
नई घरवाली को दिखलाया बांका ठाठ
अचार से परांठे खाये सर पर हेल्‍मेट पहना
फिर दहेज की मोटर साइकिल पर इतराते
ठिठुरते हुए दफ्तर को चले

भोंदू की तरह

Tuesday, October 18, 2011

मैं मुरली मनोहर मंजुल बोल रहा हूँ...३


(दूसरी कड़ी यहाँ देखें)

बाहरी कमेंटरीकारों को जो सुविधाएं सहर्ष दीं गयी,उनसे मुझे महरूम रखने की भरसक कोशिश भी चलती रही. मसलन, उन्हें हवाई यात्रा और मुझे ट्रेन का सफर. शायद १९७८ का बंगलोर टेस्ट रहा होगा.उसके लिए शोर्ट नोटिस होने के कारण मुझे भी हवाई यात्रा की इकतरफा स्वीकृति दी गई. पुष्टि में मैच के तीसरे दिन एक भेदभाव भरा टेलीग्राम दिल्ली के महानिदेशालय से मिला- औरों को लौटने के लिए हवाई यात्रा स्वीकृत, मंजुल ट्रेन से लौटेंगे.पूछा तो बताया- तुम अभी प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव हो. तुम हवाई यात्रा के पात्र नहीं होते. मैंने लाख समझाना चाहा कि बाहरी लोगों के साथ मैं भी वही काम कर रहा हूँ और प्रतिस्पर्द्धा पार करने के बाद मेरा नाम कमेंटरी पैनल में आया है.मगर वहाँ कौन सुनने वाला था? मेरे मानसिक त्रास की सीमा टूट चुकी थी.मैंने अपने पुराने स्टेशन डिरेक्टर और तब के उप-महानिदेशक डा.समर बहादुर सिंह को गुहार लगाई. वे संवेदनशील प्राणी थे.मेरी पीड़ा को समझा और वापसी हवाई यात्रा से लौटने की अनुमति मुझे दी.

मैं अपने महानिदेशालय और मंत्रालय को यह समझाते-समझाते थक गया कि मुझे भी बाहरी कॉमेंटेटर जैसी सुविधाएँ मिलनी चाहिए. परन्तु जवाब वही रटा-रटाया मिलता- वे बाहरी आर्टिस्ट हैं जिन्हें बुक किया गया है.लेकिन तुम स्टाफ के हो और नियमानुसार दौरे पर हो. अर्थात घर की मुर्गी दाल बराबर.मेरी लाख दलील का उन पर कोई असर नहीं- मैं सेंट्रल स्क्रीनिंग कमिटी की अग्नि परीक्षा से गुज़र कर कॉमेंटेटर बना हूँ. पिछले दरवाजे से नहीं आया हूँ,प्रतिस्पर्द्धा में डटकर क्वालिटी के साथ परफॉर्म कर रहा हूँ.जब एक बार मैं दूसरे कमेंटेटर्स के साथ कमेंटरी बॉक्स में बैठ गया तो उसी क्षण से स्टाफ का सदस्य नहीं रहा.मेरे साथ भी सलूक एक कमेंटेटर की तरह होना चाहिए.मगर अफ़सोस, नक्कारखाने में मेरी तूती की आवाज़ किसी ने न सुनी.

तुम सरकारी कर्मचारी हो और प्रसारण तुम्हारी ड्यूटी में शुमार होता है- महानिदेशालय की इस हठधर्मी को मैं आखिर तक नहीं तोड़ पाया.तब एक स्टाफ आर्टिस्ट कॉमेंटेटर को ५०: प्रसारण शुल्क का भुगतान किया जाता था,लेकिन नियमित कर्मचारी होने के नाते मैं एक धेले का भी पात्र नहीं था. जबकि काम हम दोनों का वही था.फिर भुगतान में यह भेदभाव क्यों?इस प्रश्न को मैंने कई सूचना प्रसारण मंत्रियों के सामने व्यक्तिगत रूप से रखा.सर्वश्री गुजराल,वसंत साठे,साल्वे, गायकवाड़ और आडवाणी मेरी मांग से सहमत तो हुए. उन्होंने दिल्ली लौटते ही इस मुद्दे पर कुछ करने का आश्वासन दिया. परन्तु परिणाम वही, ढाक के तीन पात.

खैर धन के लिए न तो मैंने रेडियो को बतौर करियर चुना और न ही क्रिकेट कमेंटरी को. भीड़ से अलग हट कर कमेंटरी के ज़रिये अपनी पहचान बनाने का सुख मुझे मिला.पेशेवर ईमानदारी ने मुझे अपने चहेते खेल क्रिकेट तक ही सीमित रखा. चाहता तो हॉकी,फूटबाल,टेनिस और दूसरे खेलों पर भी खुद को थोप सकता था. (समाप्त)

Monday, October 17, 2011

मैं मुरली मनोहर मंजुल बोल रहा हूँ...(२)

(पिछली कड़ी को यहाँ देखें)

क्रिकेट कमेंटरी करना मेरे लिए परम आत्मिक सुख का सोपान रहा. सुनने वालों ने मेरी शैली, स्वर गति और खेल ज्ञान को हाथों हाथ लिया.जो प्यार और पहचान सर्वत्र मुझे नसीब हुई, कमेंटरी छोड़ने के बाद भी आज तक मुझे सुलभ है.

सब कुछ होते हुए भी कमेंटरी फूलों की सेज नहीं थी.यह तो मेरा दिल ही जानता है, वहाँ टिके रहने के लिए मुझे कितने पक्षपात और निरुत्साह का हर मोड़ मुकाबला करना पड़ा.जलन और ईर्ष्या व्यक्ति को कहीं का नहीं रखती.वे यथाशक्ति चुपचाप अपना मार्ग प्रशस्त करने वालों की टांग खींचे बिना नहीं रहते.क्रिकेट कमेंटरी में वाचालता नहीं वाक्पटुता की ज़रूरत होती है.कुछ यही हुआ मेरे साथ.क्योंकि क्रिकेट कमेंटरी करने वाला रेडियो का मैं पहला नियमित सरकारी सेवक था इसलिए यह बात मेरे कई मुंशी-मित्रों और अधिकारियों को रास नहीं आई.आकाशवाणी महानिदेशालय की स्पोर्ट्स सेल पर वे लोग दबाव बनाते रहे कि मंजुल को कम से कम मैच मिले.क्रिकेट और उसकी कमेंटरी एक नशे की तरह मुझ पर सवार थे.दिल्ली की बन्दर बाँट मुझे विचलित करती रही.१९७८-१९८२ में भारतीय टीम के साथ पाकिस्तान चला तो गया मगर मुझे बीच दौरे से वापस बुलाने की खिचड़ी दिल्ली में पकती रही.अगर तत्कालीन सूचना मंत्री श्री एन. के. पी. साल्वे, अशोक गहलोत और पुरषोत्तम रूंगटा ने दखल न दिया होता तो दिल्ली के मुंशी-मित्र मनचाही करके छोड़ते.वैसे दो बार ऐन वक्त पर मेरा नाम इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के दौरे से हटाया जा चुका था.हालांकि मेरी अंतर्पीड़ा को समझ कर पिताजी ने सौगंध दिलवाई, लेकिन क्रिकेट के प्रेम को मैं छोड़ न पाया.

और तो और १९८७ में विश्व कप से ठीक पहले उदयपुर में कार्यरत होते हुए मैंने क्रिकेट कमेंटरी कला पर पहली हिंदी पुस्तक लिखी आँखों देखा हाल. उसे भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार तृतीय मिला. सभी ने बधाई दी. लेकिन मैं अपने महानिदेशालय से पीठ थपथपाने की बस प्रतीक्षा करता रहा.हम दो-तीन लोगों ने जिस लगन से हिंदी कमेंटरी को लोकप्रियता के रस्ते पर डाला उसका लाभ रेडियो ने तो भरपूर उठाया मगर जंगल में नाचते उस मोर को दिल्ली ने कोई शाबाशी नहीं दी.(जारी)

Sunday, October 16, 2011

मैं मुरली मनोहर मंजुल बोल रहा हूँ....(१)

(रेडियो में बैठे कई लोगों का मानना है कि क्रिकेट की लोकप्रियता के हमारे यहाँ सर चढ कर बोलने का कारण असल में रेडियो पर भाषाई और खासकर हिंदी की कमेंटरी ही है.इस पर किसी तरह की चर्चा यहाँ नहीं की जा रही सिर्फ इतना ही कि पुराने दौर की रेडियो की हिंदी कमेंटरी का ज़िक्र छिड़ते ही जो कई नाम ज़ेहन में आते हैं उनमे एक नाम मुरली मनोहर मंजुल का भी अवश्य होता है. मंजुल साहब रेडियो की अपनी दीर्घ यात्रा पूरी कर अब सेवानिवृत हैं. आपकी लिखी किताब आकाशवाणी की अंतर्कथा के एक अध्याय क्रिकेट कॉमेंटरी को साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.अध्याय लगभग तीनेक कड़ियों तक जाने की सम्भावना है.)

क्रिकेट कॉमेंटरी- मुरली मनोहर मंजुल

मेरे लंबे कार्यकाल में एक उपलब्धि ऐसी रही है जिस पर मैं सच्चे दिल से गर्व कर सकता हूँ.वह है हिंदी में क्रिकेट का आँखों देखा हाल.१९६६ में जब मैं पटना से ट्रान्सफर होकर जयपुर आया तो खेल कवरेज का जिम्मा मुझे दिया गया.क्रिकेट तब धीरे धीरे लोकप्रियता की सीढी चढ़ रही थी. रणजी ट्राफी की रेडियो पर अनदेखी थी.तत्कालीन स्टेशन डिरेक्टर के सामने आने वाली एक रणजी मैच की रनिंग कमेंटरी करने का प्रस्ताव मैंने रखा. मुझ पर उनका अटूट विश्वास था.उन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी.शायद वह राजस्थान और विदर्भ के बीच का मैच था जो चौगान स्टेडियम की मैटिंग विकेट पर खेला गया.सारी व्यवस्थाएं मैंने मुकम्मिल कर लीं थीं.और दिल्ली से एक अंग्रेजी और एक हिंदी कमेंटेटर बुलवा लिया.उन तीन दिनों में मैंने देखा कि हिंदी कमेंटेटर के सामने क्रिकेट फील्ड के दो चार्ट रखें है- पहला दाएँ हाथ की बल्लेबाजी और दूसरा बाएँ हाथ की बल्लेबाजी का.उसी से मुझे पता चल गया कि जनाब क्रिकेट में एकदम कोरे हैं.उनकी कमेंटरी भी इस सच्चाई की ताईद कर रही थी.गेंद घुमा दी, खेल दिया और सुरक्षा के साथ रोक लिया के आलावा उन्हें कुछ आता जाता नहीं था.खेल का तकनीकी पक्ष- गेंद की टर्न, स्विंग, गुड लेंग्थ,ओवर पिच, शोर्ट ऑफ लेंग्थ तथा हुक,पुल,ड्राइव या कट जैसे शॉट उनके शब्द कोष में नहीं थे.

उनके इस अंदाज़ ने मेरी आँखें खोल दी.जिस कमेंटरी को मैं अब तक हौवा समझे बैठा था, मुझे लगा यह काम तो मैं खुद बेहतर कर सकता हूँ. स्कूली स्तर पर मैं अपने जन्म स्थान जोधपुर के गाँधी मैदान पर चलने वाले मारवाड़ क्रिकेट क्लब का सदस्य रह चुका था. फिर बीबीसी से जॉन आर्लेट की कमेंटरी बहुत गौर से सुन चुका था. क्रिकेट का बेसिक ज्ञान और उसकी बारीकियों से मैं पूरी तौर पर वाकिफ था.इसी आत्मविश्वास ने मुझे नमूने की रिकॉर्ड की गयी अपनी क्रिकेट कमेंटरी स्क्रीनिंग कमिटी को भेजने को प्रेरित किया. कमिटी में एक नुमाइंदा आकाशवाणी महानिदेशालय का होता था और दो भूतपूर्व खिलाड़ी. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब कुछ ही महीनों में मेरे नाम को स्क्रीनिंग कमिटी ने पास कर दिया. इस तरह १९७२ में बाकायदा मैं क्रिकेट कमेंटरी के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पैनल में आ गया.१९६६ से १९७२ के बीच रणजी ट्राफी मैचों का आँखों देखा हाल सुनाता रहा.बेशक वह अनुभव मेरे बहुत काम आया.उस समय तक क्रिकेट पैनल पर रेडियो का नियमित सरकारी कर्मचारी कोई नहीं था.सिर्फ स्टाफ आर्टिस्ट के तौर पर जसदेव सिंह थे. मुझे यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं कि क्रिकेट कॉमेंटेटर पैनल तक ले जाने में मेरा वह मित्र मददगार रहा.

हम दोनों के अलावा क्रिकेट कमेंटरी से अंग्रेजी वर्चस्व को हटाने के लिए इंदौर के सुशील दोषी ने भी बीड़ा उठाया.उससे पहले जोगा राव ज़रूर थे लेकिन विशुद्ध रूप से वे हिंदी भाषायी नहीं थे.किसी खेल को किसी भाषा विशेष के साथ बाँधा नहीं जा सकता.फिर हिंदी पर अक्षमता की अंगुली हमें गवारा नहीं थी. क्रिकेट के पारिभाषिक शब्दों को हमने नहीं छेड़ा,अभिव्यक्ति को मौलिक बनाया.खेल के तकनीकी पक्ष पर पकड़ रखी.क्रिकेट के असंख्य प्रेमियों की नब्ज़ को पहचाना.अपनी कमेंटरी को रवानी दी.यहाँ वहाँ कल्पना के हलके ब्रश चलाये.परिणाम वही हुआ.दो-तीन वर्षों में आकाशवाणी से प्रसारित हिंदी क्रिकेट कमेंटरी ने अपनी अंग्रेजी बड़ी बहन को पीछे छोड़ दिया. कुछ नए स्वर आकर जुड़ गए.इस सतत प्रयास की बदौलत घर-घर हिंदी कमेंटरी का प्रवेश हो गया.तब तक ट्रांसिस्टर का आगमन हो चुका था.अतिशयोक्ति नहीं, हिंदी की क्रिकेट कमेंटरी किचन से कमोड तक मार करने लगी.आज टेलीविज़न जिस तरह बढ़-चढ कर क्रिकेट कमेंटरी का ब्याज खा रहा है, कौन नहीं जानता, उसके पीछे रेडियो के गहन परिश्रम का मूलधन लगा हुआ है.(जारी)

Saturday, October 15, 2011

कुल्लू में एक बड़ा नाटक

कुल्लू मे पिछले दिनो कौन सा बड़ा ईवेंट हुआ ? कोई पूछे तो एक सहज उत्तर होगा -- दशहरा ! अंतर्राष्ट्रीय लोक नृत्य उत्सव । श्री रघुनाथ भगवान जी की रथ यात्रा, राजा जी की पालकी और 365 देवताओं का उन्माद पूर्ण महा मिलन । सरकारी प्रदर्शनियाँ और गैर सरकारी वेराईटी शोज़. गगन चुम्बी हंडोले और भीमकाय *डॉम्ज़* । अचार से ले कर कार तक का कारोबार . शहरों से आये हज़ारों दुकानदार और गाँवों से उतरे लाखों किसान . छोटे मोटे उत्पादों के बड़े बड़े खरीददार और बड़े बड़े उत्पादों के छोटे मोटे खरीद दार . करोड़ों के वारे न्यारे , अरबों का घमासान ! सच पूछो तो इस कस्बानुमा पहाड़ी शहर के लिए दशहरा एक महत्वपूर्ण ईवेंट होता है. एक बड़ा नाटक , जिस का स्थानीय लोग साल भर बेसब्री से इंतज़ार करते हैं , और जिस की खुमार मे साल के बाक़ी बचे दिन आराम से गुज़ार लेते हैं । चींटी को *कण* , हाथी को *मण* ...........इस महा उत्सव मे जिस को जो चाहिए वो मिलता है.



लेकिन जैसा कि प्रायः हर *ग्रो* करते हुए शहर के साथ होता है , चन्द असंतुष्ट लोग यहाँ भी छूट ही जाते हैं जिन्हे उनकी मनचाही खुराक नही मिल पाती. मैं भी उन खब्ती लोगों मे से एक हूँ . अव्वल तो इस ड्रामे में शामिल होने आता ही नही ; गलती से आ भी जाता हूँ तो साल भर पछ्ताता रहता हूँ. और आज यह पोस्ट इस लिए लिख रहा हूँ कि आप सब से यह शेयर कर सकूँ कि इस बार मैं कुल्लू आ कर नहीं पछताया।



वह इस लिए कि ढाल पुर मैदान के एक कोने मे इस हाहाकारी महानाटक के ठीक समानंतर बहुत गुपचुप एक शदीद नाटक और चल रहा था। विजय दान देथा की चर्चित कहानी पर आधारित नाटक --" नागिन तेरा वंश बढ़े" । यह नाटक स्थानीय कॉलेज मे आयोजित तीस दिनो के एक हेक्टिक वर्कशॉप मे तय्यार नाटकों मे से एक था . कॉलेज लाईब्रेरी की रीडिंग रूम को अस्थायी थियेटर मे कंवर्ट किया गया था। प्रकाश और ध्वनि प्रभावों का इतना सटीक इस्तेमाल कुल्लू के दर्शकों ने शायद पहली बार देखा . दो चार स्पॉट लाईट्स थे, दो म्यूज़िक एकम्पनिस्ट ; जिन्हो ने हर्मोनियम , सारंगी , ढोलक, तबला , और सिंबल्ज़ जैसे अति साधारण वाद्यों प्रयोग का बेहद कलात्मकता के साथ किया । युवा अभिनेताओं की अनगढ़ता को इन *टूल्ज़* के माध्यम से बहुत नफासत के साथ कवर किया गया। कॉस्ट्यूम मे एथनिक कुल्लुवी और राजस्थानी चीज़ों का कंट्रास्ट जादुई प्रभाव दिखा रहा था . यही प्रयोग संवाद मे भी नज़र आया. यह लगभग एक प्रोफेशनल क़िस्म काम था। बहुत व्यवस्थित, अनुशासित , और फोकस्ड. बहुत अद्भुत........ और मेरे लिए बहुत बड़ा ईवेंट . एक पवित्र उत्सव जैसा ।

इस उत्सव के देवी देवता थे स्थानीय कॉलेज के 32 मेधावी छात्र अभिनेता .केन्द्रीय पात्र नागिन की भूमिका मे ज्योति ने बहुत परिपक्व काम किया । एक अमेच्योर कलाकार की हैसियत से निश्चित तौर पर *फ्लॉलेस्*. मंच पर उस की उपस्थिति दर्शक को अनायास ही बाँध कर रख देती थी। कथा वाचक की भूमिका मे राज और सेठानी की भूमिका मे आरती की आवाज़ प्रभाव शाली थी मेधा और सुमित के अभिनय को भी दर्शकों ने खूब सराहा।                                                                           

इस अनुष्ठान के रघुनाथ जी थे - NCERT (CIET wing) से सम्बद्ध पटकथा लेखक व रंगकर्मी अवतार साहनी । उन्हों ने स्वयं ही मूल कथा का नाट्य रूपांतरण किया , सम्वाद और गीत लिखे, संगीत भी कम्पोज़ किया। गीतों मे पश्चिमी हिन्दी क्षेत्र की लोक भाषा और लोक संगीत पूरा पूरा आस्वाद था. और पूरे शो मे साहनी जी की पर्सनल इंवॉल्वमेंट अभिभूत करने वाली थी। उन्होने बताया कि कुल्लू मे टेलेंट की कमी नहीं . सम्भावनाए अपार हैं. अलबत्ता हिन्दी उच्चारण, लहजे, और डिक्शन के मामले मे उन्हे काफी मशक्कत करनी पड़ी।



राजा की पालकी मे मुझे स्थानीय कॉलेज की प्रवक्ता रंगकर्मी बहस नाट्य एवम कला मंच की संस्थापक डॉ उरसेम लता नज़र आईं। उन्होंने बताया कि बिना कॉलेज की प्राचार्य डॉ. धनेश्वरी शर्मा और उनके अन्य सहकर्मियों , सोम नेगी , राकेश राणा और विशेष  रूप से पुस्तकालयाध्यक्ष श्री रतन ठाकुर के सकारात्मक रवैये के यह वर्कशॉप सफल नही हो सकता था .

...और इस मेले मे अथाह मानवीय सम्वेदनाओं का कारोबार हुआ।
...और गहन जीवनानुभवों और विचारों का लेन देन हुआ।
...और कुल्लू का दर्शक विजयदान देथा जैसे कथाकार के काम से परिचित हुआ। 
...और कुल्लू शहर श्री साहनी को उन के इस सार्थक योगदान के लिए याद करेगा .


Tuesday, October 11, 2011

कोई बर्फ का तूफ़ान उड़ाता आया है देखने कि मेरा क्या हुआ


नोबेल पुरूस्कार से सम्मानित किए गए स्वीडिश कवि टॉमस ट्रांसट्रोमर पर एक लम्बी पोस्ट लगाने का मन था/ है पर घर की अनिवार्य व्यस्तताओं ने हाथ थामा हुआ है. और व्यस्तता का यह सिलसिला अभी शायद दो-तीन सप्ताह और खिंचेगा.

फ़िलहाल जोधपुर से हमारे कबाड़ी संजय व्यास ने कवि की एक कविता का अनुवाद कर भेजा है. उम्दा अनुवाद है और कविता की विषयवस्तु टिपिकल ट्रांसट्रोमर वाली. पेश है -


एकाकीपन-१

तोमास ट्रांसट्रोमर

(अनुवाद- संजय व्यास)

फरवरी की एक शाम यहाँ मैं मृत्यु के एकदम पास आ गया था
कार फिसल कर बर्फ पर एक ओर आ गयी थी
सड़क पर गलत दिशा में. सामने से आती हुईं कारें ...
नज़दीकतर होतीं ... उनकी रोशनियाँ .

मेरा यश, स्त्रियाँ, काम
सब मुक्त हो कर छूट गए ख़ामोश कहीं पीछे
दूर, बहुत दूर. मैं परिचयहीन था
एक लड़के की तरह घिरा हुआ खेल के मैदान में दुश्मनों से जैसे.


आते हुए ट्रेफिक के विशाल प्रकाश पुंज
मुझ पर चौंध मारते और मैं
स्टेयरिंग से लटका था अंडे की सफ़ेदी की तरह
तैरते पारदर्शी आतंक में.
विस्फारित हो गए थे वे क्षण
उनमें बनता गया अवकाश
वे फ़ैल गए चिकित्सालयों जितने बड़े.


कि जैसे कुचले जाने से पहले
आप यहाँ ठहर कर
सांस ले सकते थे कुछ देर.

और तब कुछ पकड़ में आया रेत के एक कण का सहारा
या हवा का अद्भुत झोंका कार बंधन मुक्त हो
बड़ी दक्षता से आप ही जैसे सड़क के उस ओर सरसराती चली गयी.
एक खम्भा टक्कर खाकर टूटा एक तेज़ आवाज़
और गया उछलता अँधेरे में कहीं.

फिर..निस्तब्धता. मैं अपने सीट बेल्ट में
पीछे झुक कर बैठा था और देख रहा था कि
कोई बर्फ का तूफ़ान उड़ाता आया है देखने कि
मेरा क्या हुआ.

Sunday, October 9, 2011

यह एक खामोश दुनिया है : टॉमस ट्रांसट्रोमर

१९३१ में जन्मे  स्वीडन  के कवि ८० वर्षीय   टॉमस ट्रांसट्रोमर  को २०११ के साहित्य के नोबेल  पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई है। वे विश्व  के सर्वाधिक सम्मानित साहित्यकारों में से एक हैं। दुनिया भर के अखबारों में इस बाबत बहुत  कुछ छपा है  व  छप रहा है। विश्व कविता की विविधवर्णी  रचनाओं  के अनुवादों को कविता  प्रेमियों  से साझा करने के क्रम में  आज प्रस्तुत हैं उनकी दो कवितायें :


टॉमस ट्रांसट्रोमर की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )


०१- 
सूर्य - दृश्य

घर के पिछवाड़े से
उभरता है सूर्य
खड़ा हो जाता है सड़क के बीचोबीच
और हम पर छोड़ता है
रक्तिम वायु से पूरित उसाँस।

इन्सब्रुक ,  मैं त्याग दूँगा तुम्हें
लेकिन आने वाले कल
भूरे रंग के अर्धमृत जंगल में
वहाँ  एक और सूर्य होगा चमकदार
जहाँ हमको करना होगा काम
और जीना होगा जीवन।

०२- 
मध्य - शीतकाल

यह मध्य है शीतकाल का
बज रही है हिम की  डफलियाँ
मेरे पहनावे से
प्रस्फुटित हो रहा है
एक नीला प्रकाश।

मैं मूँद लेता हूँ
अपने नयन -द्वय
यह एक खामोश दुनिया है
प्रकट है एक  दरार
जिस राह से होता है
मृत देहों का अवैध व्यापार ।
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टॉमस ट्रांसट्रोमर की  कुछ कवितायें  'कर्मनाशा ' पर )


Wednesday, October 5, 2011

रात अच्छी है अलविदा कहने के लिये

ये कविताएं क्युबा के महान कवि और आज़ादी की लड़ाई के नायक खोसे मार्ती द्वारा लिखी गयी हैं। अनुवादक जे एन यू दिल्ली मे विज़िटिंग प्रोफेस्सर हैं. उन्हो ने मुझे *असिक्नी* पत्रिका के लिए स्पेनिश से अनूदित सुन्दर आलेख, कविताएं और कहानियाँ भेजी हैं... एक खास कबाड़ खाना के पाठकों के लिए :



दो वतन

दो वतन हैं मेरे: क्यूबा और रात ।

या एक ही हैं दोनो ?

लाल फूल लिये हाथो में

ज्यों ही छिपता है महान सूर्य,

लम्बे नकाब में

दिखने लगती है मुझे

खामोश क्यूबा - उदास चील सी ।

जानता हूँ मैं क्या है यह खून सना लाल फूल

जो काँपता है हाथों मे सूर्य के ।

रिक्त है मेरा वक्ष, नष्ट और रिक्त है

वह जगह जहाँ हुआ करता था हृदय

समय हो चला है मरने की पहल करने का ।

रात अच्छी है अलविदा कहने के लिये ।

रोकते हैं प्रकाश और मानवीय शब्द ।

सृष्टि बोलती है बेहतर मनुष्य से ।

जिसका झंडा

बुलाता है लड़ने को,

जलती है लाल लौ मशाल की ।

खुद में जकड़ा हुआ मैं,खोल देता हूँ खिड़कियाँ ।

और

तोड़ता हुआ पत्तियाँ लाल फूल की, जैसे ढँक ले एक बादल आसमान को,

क्यूबा, चील, गुजर जाता है…………


हिन्दी अनुवाद:

पी.कुमार मंगलम

शोध छात्र और अतिथि अध्यापक

स्पेनी भाषा विभाग, जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय, नई दिल्ली.

pkmangalam@gmail.com

Tuesday, October 4, 2011

जय -जय जग जननि देवि

आज अष्टमी है। पिछले साल दशहरा - दुर्गापूजा बिलासपुर - भिलाई में बीता था। इस बार कई तरह की व्यस्तताओं और परेशानियों के कारण कहीं बाहर जाना न हो सका। जिस जगह रहता हूँ वहाँ दशहरा - रामलीला तो  ठीकठाक होती है लेकिन दुर्गापूजा को स्मृतियों में ही सँजोना - याद करना होता है। आज  अष्टमी के अवसर पर सबको  दुर्गापूजा की बधाई - शुभकामनायें देते हुए एक देवी गीत साझा करने का मन है जिसे हमारे समय के सबसे सुरीले गायकों में  एक जोड़ी ने  गाया है। नीचे दिया गया  देवी का चित्र  टाटानगर  के पूजा पंडाल का है जिसे  फेसबुक  से भाई राधेश्याम मौर्य जी  के चित्र - संग्रह से लिया गया है। आइए सुनते हैं यह देवी गीत :


जय -जय जग जननि देवि


स्वर : अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन
अलबम : भावना ( वंदना, स्तुति और भजन)

Monday, October 3, 2011

'स्पर्श' और 'संयोग' : आक्तावियो पाज़

इस ठिकाने पर आप  नियमित रूप से विश्व कविता से कुछ चुनिंदा अनुवादों से रू-ब-रू होते रहे हैं। इसी क्रम में आज प्रस्तुत हैं १९९० के नोबेल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित कवि आक्तावियो पाज़ ( ३१ मार्च १९१४ – १९ अप्रेल १९९८ ) की दो कवितायें :  


 आक्तावियो पाज़ की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )


01- स्पर्श

मेरे हाथ
खोलते हैं तुम्हारे अस्तित्व के पर्दे।
पहनाते हैं
नग्नता से परे का परिधान।
उघाड़ते हैं
तुम्हारी देह के भीतर की देहमालायें।
मेरे हाथ
अविष्कार करते हैं
तुम्हारी देह के लिए
एक दूसरी देह।

02- संयोग

मेरे नेत्र
खोज करते है
तुम्हारी निर्वसनता
और उसे आच्छादित कर देते हैं
दृष्टि की
गुनगुनी बारिशों से।
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( * पेंटिंग : दिमित्रि फिलातोव )

Sunday, October 2, 2011

कविता अन्न में बदल गई :गांधी और कविता'

आज  २ अक्टूबर , महात्मा गाँधी की जयन्ती के अवसर पर  प्रस्तुत है एक कविता जिसका शीर्षक है : 'गाँधी और कविता।' इस कविता के रचनाकार हैं मलयालम  की  नई कविता  के  प्रमुख प्रस्तुतकर्ता  और हमारे समय के सुप्रसिद्ध कवि - आलोचक के० सच्चिदानंदन। मूल मलयालम कविता का अंगेजी में अनुवाद स्वयं कवि ने किया है जो उनके संग्रह 'सो मेनी बर्थ्स' में संग्रहीत है और कवि के वेब ठिकाने 'कैक्टस' पर भी उपलब्ध है।  इस कविता  को  साभार यहाँ  प्रस्तुत किया जा रहा है। आइए देखें -पढ़े - गुनें इस कविता को :


के० सच्चिदानंदन की कविता
गांधी और कविता
(अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह)

एक दिवस
एक कृशकाय कविता
पहुँची गांधी - आश्रम तक
उनकी एक झलक पाने के लिए।

गांधी कताई में लीन
सरकाए जा रहे थे राम की ओर अपने सूत
कोई ध्यान नहीं उस कविता का
जो द्वार पर किए जा रही थी सतत इंतज़ार।

लाज आ रही थी कविता को कि वह बन सकी कोई भजन
उसने खँखार कर किया अपना गला साफ
तब गांधी ने उसे देखा अपनी उस ऐनक से
जिससे देखे जा चुके थे तमाम तरह के नर्क।
उन्होंने पूछा-
'क्या तुमने कभी सूत काता है ?
क्या कभी खींचा है मैला ढोने वाले की गाड़ी को ?
क्या कभी सुबह- सुबह रसोई के धुएं में खड़ी रही हो देर तक?
क्या तुम रही  हो कभी भूखे पेट?'

कविता ने कहा:
'एक बहेलिए के मुख में
जंगल में हुआ मेरा जन्म
मछुआरे ने पाला पोसा अपनी कुटिया में.
फिर भी मुझे नहीं आता कोई काम
जानती हूँ केवल गान.
पहले मैंने दरबारों में गायन किया
तब मेरी काया थी हृष्ट-पुष्ट और कमनीय
लेकिन अब सड़कों पर हूँ
लगभग भूखी - दीन - क्षुधातुर।'

'अच्छी बात है' गांधी ने कहा
एक वक्र मुस्कान के साथ -
'लेकिन तुम्हें छोड़ना चाहिए
संस्कृत संभाषण की इस आदत को
जाओ खेत - खलिहानों में
सुनो कृषकों की बातचीत।'

कविता अन्न में बदल गई
और खेतों में  जाकर  करने लगी इंतज़ार
कि प्रकट हो कोई हल
और उसके ऊपर बिछा दे
नई बारिश से आर्द्र भुरभुरी कुंवारी मिट्टी की सोंधी पर्त।

Saturday, October 1, 2011

गुलदान में शोभायमान एक अकेले फर्न की हिलडुल

इस ठिकाने पर आप  नियमित  रूप से विश्व कविता के अनुवादों  से रू-ब-रू होते रहे हैं। आज इसी क्रम में प्रस्तुत है स्त्री स्वर की एक  सशक्त  प्रस्तुतकर्ता  और पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित अमरीकी कवि कैरोलिन कीज़र की  यह  एक कविता। 



 कवि - कुटुंब कथा 
(कैरोलिन कीज़र )



मोटी जर्सी में कसी
पुष्ट देहदारी कवि की देह
एक अधेड चोर की तरह
ले रही है पंजों के  बल आश्चर्यजनक उछाल
अरे!  कहीं नन्हे पाखी रोबिन को लग तो नहीं गई चोट?

II

हंसों को दाने चुगाने  के वास्ते  झुकती है वह
घुघराली केशराशि के नीचे
प्रकट हो उठता है उसकी ग्रीवा का  उजला वक्र
उसके पति को लगता है मानो कुछ दिखा ही नहीं
जबकि उसकी कविताओं  में
वही स्त्री  कर रही  है झिलमिल - झिलमिल।

III

पूरे घर में व्याप्त है
नीरवता का  समृद्ध साम्राज्य
गुलदान में शोभायमान एक अकेले फर्न की हिलडुल
इसे किंचित भंग कर रही है अलबत्ता।
पोर्च में पसरा प्रचंड कवि
अपने आप से कर रहा है सतत वार्तालाप।
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(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)