Monday, December 31, 2012

प्‍यारी लड़कियो, अगर तुम इस लड़ाई में इसलिए शामिल नहीं हो कि


कबाड़न मनीषा पांडे की फेसबुक वॉल से नवीनतम स्टेटस. इस शिद्दत से लगातार अपना प्रतिरोध दर्ज कराते रहने के लिए शाबास दोस्त मनीषा!  जज्बा कायम रहे! -


प्‍यारी लड़कियो,

अगर तुम इस लड़ाई में इसलिए शामिल नहीं हो क्‍योंकि तुम्‍हें लगता है कि 

- जिस लड़की के साथ गैंगरेप हुआ, वो तुम नहीं हो 

- कि जिस लड़की के मुंह पर तेजाब फेंका गया, वो तुम नहीं हो 

- कि जिस लड़की को दहेज के लिए जलाकर मार डाला गया, वो तुम नहीं हो 

- कि जिस औरत का पति उसे रोज या साल में कभी एक बार ही सही, पीटता है, वो तुम नहीं हो 

- कि जो लड़की महंगी पढ़ाई इसलिए नहीं कर पाई कि पापा सिर्फ भाई की फीस भर सकते थे, वो तुम नहीं हो 

- कि जो दिन रात घर-गृहस्‍थी के चूल्‍हे में फुंक रही है, वो तुम नहीं हो 

- कि घर में अच्‍छी सब्‍जी और मिठाई जिसकी थाली में सबसे कम आती है, वो तुम नहीं हो

- कि दो घंटे लोकल टेन में सफर करने के बाद घर पहुंचते ही जो और सबसे पहले रसोई में घुसती है, वो तुम नहीं हो

- कि जिसके पति ने कभी बिस्‍तर पर उसकी भावनाओं और जरूरतों का ख्‍याल नहीं रखा, वो तुम नहीं हो

- कि पीरियड्स के समय भी जो रोज की तरह घर और ऑफिस में खटती है, वो तुम नहीं हो

- कि जिसके पेट का बच्‍चा गिराया गया क्‍योंकि वो लड़की थी, वो तुम नहीं हो

- कि सफदरजंग अस्‍पताल के वुमन वॉर्ड से जो अभी-अभी अबॉर्शन करवाकर बाहर निकली थी और उसका पति उसे कह रहा था, "तेज-तेज चलो," वो तुम नहीं हो

तो तुमसे बड़ी अभागी कोई नहीं है।

नए साल की शुभकामनाएं


जापानी कवि शुन्तारो तानीकावा की यह अति प्रसिद्ध कविता कबाड़खाने पर पहले भी पोस्ट की जा चुकी है. आप सभी को नए साल की शुभकामनाएं देते हुए आज पुनः इसी को यहाँ लगाने में क्या हरज है -

नए साल की क़समें 

क़सम खाता हूं शराब और सिगरेट पीना नहीं छोड़ूंगा 
क़सम खाता हूं, जिन से नफ़रत करता हूं उन्हें नहला दूंगा नीच शब्दों से
क़सम खाता हूं, सुन्दर लड़कियों को ताका करूंगा
क़सम खाता हूं हंसने का जब भी उचित मौका होगा, खूब खुले मुंह से हंसूंगा
सूर्यास्त को देखा करूंगा खोया खोया
फ़सादियों की भीड़ को देखूंगा नफ़रत से
क़सम खाता हूं दिल को हिला देने वाली कहानियों पर रोते हुए भी सन्देह करूंगा
दुनिया औए देश के बारे में दिमागी बहस नहीं करूंगा
बुरी कविताएं लिखूंगा और अच्छी भी
क़सम खाता हूं समाचार संवाददाताओं को नहीं बताऊंगा अपने विचार
क़सम खाता हूं दूसरा टीवी नहीं खरीदूंगा
क़सम खाता हूं अंतरिक्ष विमान चढ़ने की इच्छा नहीं करूंगा
क़सम खाता हूं कसम तोड़ने का अफ़सोस नहीं करूंगा

इस की तस्दीक में हम सब दस्तख़त करते हैं.


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और अब ब्रायन साइलस से पियानो पर यह मशहूर गीत -

प्रचारमंत्री के बगै़र कोई लड़की राज़ी नहीं होगी गर्भवती होने को



बर्तोल्‍त ब्रेख्‍़त की इस कविता का अनुवाद वरिष्ठ साहित्यकार नरेन्‍द्र जैन ने किया है -

शासन करने की मुश्‍किलें

मंत्रीगण हमेशा लोगों को बताते हैं
कि शासन करना कितना मुश्‍किल काम है
मंत्रियों के बगै़र मकई डाल पर
नहीं उगेगी, ज़मीन में पकेगी
यदि सम्राट इतने चतुर न हों तो
कोयले का एक टुकड़ा तक खदान को
नहीं छोड़ेगा

१.

प्रचारमंत्री के बगै़र कोई
लड़की राज़ी नहीं होगी गर्भवती होने को
युद्धमंत्री के बगै़र कोई युद्ध
ही नहीं होगा, वाकई,
क्‍या पता सुबह सूरज न उगे
सम्राट की अनुमति के बगै़र
यह संदेहास्‍पद है और यदि वह
उगा, ग़लत दिशा में होगा

२.

इतना ही मुश्‍किल है, वे बताते हैं
कि कारखाना चलाना, मालिक
के बग़ैर दीवारें गिर पड़ेंगी और
मशीनों को जंग लग जायेगा ऐसा
वे बताते हैं
यदि कहीं कोई हल बनाया जाये
वह कारखाना मालिक के चतुर
शब्‍दों में कभी ज़मीन तक पहुँचेगा ही नहीं

३.

यदि शासन करना आसान होता
सम्राट जैसे प्रेरणास्‍पद मस्‍तिष्‍कों की
ज़रूरत ही न होती
यदि मज़दूर जानता कि मशीन कैसे
चलायी जाये और यदि रसोई में बैठा
किसान अपने खेत के बारे में बता पाता
तो वहाँ कारखाना मालिक या भूपति की
ज़रूरत ही न होती
ये सब इसलिये कि वे सब मूर्ख हैं
कि कुछ चुने हुए होशियार लोग ही चाहिए

४.

या शायद
शासन करना इसलिये मुश्‍किल होता हो
कि हेराफेरी और शोषण के लिए
भी कुछ शिक्षा चाहिए?

नया साल - अब तो बाँटिए मित्रों में कलाकंद !


मुबारक हो नया साल 

- बाबा नागार्जुन

फलाँ-फलाँ इलाके में पड़ा है अकाल
खुसुर-पुसुर करते हैं, ख़ुश हैं बनिया-बकाल
छ्लकती ही रहेगी हमदर्दी साँझ-सकाल
--अनाज रहेगा खत्तियों में बन्द !

हड्डियों के ढेर पर है सफ़ेद ऊन की शाल...
अब के भी बैलों की ही गलेगी दाल !
पाटिल-रेड्डी-घोष बजाएँगे गाल...
--थामेंगे डालरी कमंद !

बत्तख हों, बगले हों, मेंढक हों, मराल
पूछिए चलकर वोटरों से मिजाज का हाल
मिला टिकट ? आपको मुबारक हो नया साल
--अब तो बाँटिए मित्रों में कलाकंद !

घोरतम तमस के सच में विजन में जन हों अपनेपन में



अवधेश कुमार की एक और कविता याद आ रही है –

बादल राग

बादल इतने ठोस हों
कि सिर पटकने को जी चाहे

पर्वत कपास की तरह कोमल हों
ताकि उनपर सिर टिका कर सो सकें

झरने आँसुओं की तरह धाराप्रवाह हों
कि उनके माध्यम से रो सकें

धड़कनें इतनी लयबद्ध
कि संगीत उनके पीछे-पीछे दौड़ा चला आए

रास्ते इतने लम्बे कि चलते ही चला जाए
पृथ्वी इतनी छोटी कि गेंद बनाकर खेल सकें
आकाश इतना विस्तीर्ण
कि उड़ते ही चले जाएँ
दुख इतने साहसी हों कि सुख में बदल सकें
सुख इतने पारदर्शी हों 
कि दुनिया बदली हुई दिखाई दे

इच्छाएँ मृत्यु के समान
चेहरे हों ध्यानमग्न
बादल इस तरह के परदे हों
कि उनमें हम छुपे भी रहें
और दिखाई भी दें

मेरा हास्य ही मेरा रुदन हो
उनके सपने और उनका व्यंग्य हो
घोरतम तमस के सच में
विजन में जन हों अपनेपन में
सूप में धूप हो
धूप में सब अपरूप हो

बादल इतने डरे हों
कि अपनी छाती पर
मेरा सिर न टिकने दें
झरने इतने धारा प्रवाह न हों
कि मेरे आँसुओं को पिछाड़ सकें.

(चित्र- रूसी चित्रकार बोरिस अलेक्सांद्रोविच की रचना “बादल”)

Sunday, December 30, 2012

मिलो दोस्त, जल्दी मिलो


देहरादून के अपने प्रिय स्वर्गीय मित्र अवधेश कुमार की एक कविता साझा करने का दिल हुआ –


मिलो दोस्तजल्दी मिलो

सुबह--एक हल्की-सी चीख़ की तरह
बहुत पीली और उदास धरती की करवट में
पूरब की तरफ़ एक जमुहाई की तरह
मनहूस दिन की शुरुआत में खिल पड़ी.

मैं ग़रीब, मेरी जेब ग़रीब पर इरादे ग़रम
लू के थपेड़ों से झुलसती हुई आँखों में
दावानल की तरह सुलगती उम्मीद.

गुमशुदा होकर इस शहर की भीड़ को
ठेंगा दिखाते हुए न जाने कितने नौजवान
कब कहाँ चढ़े बसों में ओर कहाँ उतरे
जाकर : यह कोई नहीं जानता.

कल मेरे पास कुछ पैसे होंगे
बसों में भीड़ कम होगी
संसद की छुट्टी रहेगी
सप्ताह-भर के हादसों का निपटारा
हो चुकेगा सुबह-सुबह
अख़बारों की भगोड़ी पीठ पर लिखा हुआ.

सड़कें ख़ाली होने की हद तक बहुत कम
भरी होंगी : पूरी तरह भरी होगी दोपहर
जलाती हुई इस शहर का कलेजा.

और किस-किस का कलेजा नहीं जलाती हुई.
यह दोपहर आदमी को नाकामयाब करने की
हद तक डराती हुई उसके शरीर के चारों तरफ़.

मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
मैं ग़रीब, तुम ग़रीब
पर हमारे इरादे ग़रम.

बिल ब्राइसन का साक्षात्कार – अंतिम हिस्सा



(पिछली कड़ी से जारी)

वे ब्रिटिश जड़ें कितनी स्थाई हैं? मिसाल के लिए क्या आप यह जान सके कि लोगों देश को गणराज्य बनाने के लिए अच्छा समर्थन देते हैं?

अफ़सोस, देश को गणराज्य बनाने के लिए अच्छा समर्थन तो ख़ास अच्छा नहीं है. मेरा मानना है कि उनकी स्थिति खासी असुविधापूर्ण है, वे लम्बे समय तक ब्रिटेन का उपनिवेश रहे थे और वे जैसे भी हैं पिछले पचास सालों से एक अलग पहचान बनाने में लगे हैं और उसमें समय लगता है. ऐसा करना मुश्किल होता है पर वे लोग धीरे धीरे वहां पहुँच रहे हैं. मेरा ख्याल है ओलिम्पिक्स ने काफी मदद की. वह एक आखिरी कदम था जिसे लिया ही जाना था ताकि एक मुक्त आत्मनिर्भर समाज के रूप में उनकी पहचान बने और उनके भीतर वह आत्मविश्वास आए.

ऑस्ट्रेलिया में बच गई ब्रिटिश विशिष्टताओं में एक क्रिकेट है. ऑस्ट्रेलिया में रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री सुनने पर ‘डाउन अंडर’ में एक बढ़िया टुकड़ा है जिसे हम बिल से पढ़कर सुनाने को कहेंगे.

(बिल किताब से पेज ११० से ११३ तक पढ़कर सुनाते हैं.)

एक और चीज़ जिसने आपको बाँधा वह भौतिक तौर पर अपने अलग थलग पड़े होने के कारण ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप की उल्लेखनीय जैव और वन्य विविधता है. आपने किताब में ऐसी ऐसी और इतनी सारी प्रजातियों को दर्ज किया है जिन्हें इस ग्रह पर और कहीं नहीं पाया जाता.

हाँ, और हर वक़्त नई नई प्रजातियाँ खोजी जा रही हैं. वे जानते ही नहीं वहां और क्या क्या है. ऑस्ट्रेलिया के बारे में एक और शानदार बात यह है कि यह अब भी एक न खोजा गया मुल्क है. मुझे संख्या ठीक से याद नहीं लेकिन कोइ एक लाख कीट पतंगों की प्रजातियाँ वहां ऐसी हैं जिनका किसी वैज्ञानिक ने न निरीक्षण किया है, न उन्हें कोई नाम दिया गया है न उनका कोई कैटलोग तैयार हुआ है. यही बात वनस्पतियों के बारे में सच है. इस तरह की करीब पचास हज़ार प्रजातियाँ हैं. ऐसी ऐसी चीज़ें भी हैं जो कैंसर का इलाज कर सकती हैं. संभावनाएं अविश्वसनीय हैं. कोई भी असल में नहीं जानता वहां क्या क्या है.

और वह एक ऐसा देश है जिसके ढंग से नक्शे तक नहीं बनाए गए हैं.

बमुश्किल. ऑस्ट्रेलिया के नक़्शे वैसे तो बनाए जा चुके हैं जैसे हवाई जहाज़ से लैंडस्केप के काफी नज़दीक से गुजरते वक्त दीखते हैं पर वास्तविक ज़मीनी स्तर पर एक विशाल भूखंड के नक़्शे अभी बनने बाकी हैं. आप एक ऐसी जगह के बारे में बात कर रहे हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका महाद्वीप यानी निचले ४८ राज्यों जितना बड़ा है और जिसकी आबादी न्यूयॉर्क जितनी है. उसका इतना सारा हिस्सा अभी खाली पड़ा है. आप ऑस्ट्रेलियामें ऐसी जगहों पर भी अपने को पा सकते हैं जहां आप सड़क किनारे खड़े होकर एक तरफ देखें तो संभवतः अगले फुटपाथ को देखने आपको १५०० किलोमीटर आगे जाना पड़े. मुझे यह सब बहुत अचरजकारी लगता है.

मुझे ऑस्ट्रेलिया के तटीय इलाकों से काफी दूर के इलाकों के शुरुआती खोजियों के किस्से बहुत पसंद हैं. वो कहानी क्या थी अपना खुद का मूत्र पीने के बारे में? या किसी दूसरे का?

नहीं, मेरा अपना नहीं!

होता यह था कि खोजी लोग ऑस्ट्रेलिया जाया करते थे और चूंकि उनमें से ज़्यादातर ब्रिटेन और आयरलैंड जैसे मुलायम और समशीतोष्ण देशों से जाते थे, उन्हें कतई पता नहीं होता था कि वे जा कहाँ रहे हैं, न तो वहां के आकार के बारे में उन्हें बहुत मालूमात होते थे न वहां के पर्यावरण की मुश्किलों के. उनके जीवन की किसी भी चीज़ ने उन्हें इस के लिए तैयार नहीं किया होता था. सो वे समूचे महाद्वीप को आरपार कर लेने के बड़े मंसूबों के साथ सफ़र शुरू करते थे जो आज के मोटरगाड़ियों के ज़माने में भी ख़ासा बड़ा काम होता है.सो उन्नीसवीं शताब्दी में ऐसा करना बेहद मुश्किल होता था और निरपवाद रूप से उन सब का सामना ऐसी परिस्थितियों से होता था जब उनके पास पीने को पानी की एक बूँद तक नहीं होती थी और उन्हें अपना या अपने घोड़े का मूत्र पीने को विवश होना पड़ता था. ऐसा आम तौर पर उल्टा असर करने वाला होता है क्योंकि मूत्र में उपस्थित लवण प्यास को और बढ़ा दिया करते थे. ऐसा मैंने पढ़ा है – कभी जांचकर नहीं देखा.

कुछ समय के लिए आपका एक साथी भी था – आपका दोस्त एलन – जो आपके साथ कुछ समय के लिए आया था और जिसे आप ऑस्ट्रेलिया में उसके साथ घट सकने वाली हैबतनाक बातों की कहानियाँ सुनाकर डराया करते थे. क्या आप एलन के साथ क्वींसलैंड वाला हिस्सा पढ़कर सुनाएंगे?

उस हिस्से की पृष्ठभूमि समझाना चाहूँगा पहले. मैं क्वींसलैंड के उत्तरी विषुवतीय इलाके में हूँ एक बीच पर टहलता हुआ और मेरे साथ मेरे ब्रिटिश दोस्त एलन शेर्विन है जो कुछ दिन मेरे साथ घूमने के लिए पहुंचा है. तब तक मैं इस तथ्य से भली भाँती परिचित हो चुका था कि सैद्धांतिक रूप से हालांकि जानवर बहुत खतरनाक होते हैं, वास्तविकता में वे नहीं होते, लेकिन एलन को यह मालूम नहीं था और यह सब उसके लिए नया था. और मैं स्वीकार करना चाहूँगा कि मैंने उसके इस अज्ञान का फायदा उठाया. आपको यह भी पता होना चाहिए कि वह क्वींसलैंड में बॉक्स जेलीफिश का सीज़न था. बॉक्स जेलीफिश अंडे देने के लिए इन दिनों भीतरी तटों तक आया करती थीं और यह भी कि यह धरती पर सबसे ज़हरीली प्रजातियों में एक होती है.

(बिल इस हिस्से को पढ़ते हैं)

आपने ऑस्ट्रेलिया को एक भाग्यशाली देश कहा है, लेकिन जो एक हिस्सा इस तस्वीर में फिट नहीं बैठता वह वहां के आदिवासियों का कष्ट है. आधुनिक समाज में इन आदिवासियों की स्थिति को लेकर आपने जो आंकड़े उद्धृत किये हैं वे तबाहकुन हैं और ऐसा लगता ही कि इसके लिए सतही उत्तर यही दिया जाता है कि बीसवीं सदी और आदिवासी आपस में मेल नहीं खाते. आपकी किताब में सबसे दुखी करने वाला हिस्सा वह है जिसमें आप इन दो संसारों के बीच की खाई पाटने के लिए की जा रही सोशल इंजीनियरिंग का वर्णन करते हैं. क्या आप हमें थोड़े से में बता सकेंगे कि वह प्रयोग क्या था और उन तथाकथित “चुरा ली गयी पीढ़ियों” का क्या हुआ?

उसे ही “चुरा ली गयी पीढ़ियाँ” कहा जाता था और यह सारे ऑस्ट्रेलिया में सबको मालूम है और सभी को उस की वजह से बेहद ग्लानि महसूस होती है.

जैसा कि आप कह रहे हैं यह सोशल इंजीनियरिंग की एक प्रक्रिया थी जिसे सदी के शुरू में लागू किया गया और हाल के समय तक यानी साठ के दशक तक चालू थी. आदिवासी बच्चों को उनके माँ-बाप से अलग कर के – हालांकि इसके पीछे भलमनसाहत की भावना होती थी - सरकारी स्कूलों – एक तरह के सरकारी अनाथालयों में ले जाया जाता था – या शहरों में रह रहे शहरी यूरोपियनों को गोद दे दिया जाता था ताकि वे गरीबी और अज्ञान के चक्र से बाहर आ सकें. इस नीति को इन लोगों के मोक्ष की तरह देखा गया जो मूलतः जंगली थे, कि उन्हें उनकी गरीबी से बाहर लाकर एक बेहतर वातावरण में रखा जाए. लेकिन सच यह था कि इस वजह से परिवार तबाह हो रहे थे. परिवार टूटते जा रहे थे. एक माता-पिता के तौर पर आप को कैसा लगेगा अगर एक दिन आपके घर के बाहर आकर एक सरकारी वैन रुके और उसमें से लोग उतर कर आपसे कहें “माफ़ कीजिये, हम आपके चार बच्चों को ले जा रहे हैं. हम उन्हें आपसे दूर ले जा रहे हैं. इसमें आप कोई भी विरोध नहीं कर सकते. किसी बच्चे को जन्म देने वाला आदिवासी अपने बच्चे का कानूनी अभिभावक नहीं था - यह सरकार का काम था. सरकार के पास बच्चे को उठा ले जाने की कानूनी अनुमति थी. इस मामले की सुनवाई के लिए कोर्ट कचहरी जैसा भी कुछ नहीं था. सरकार अपने “बच्चों” की कस्टडी खुद ले सकती थी, जैसा की उस समय का कानून कहता था. वे बच्चों को उठा ले जाते थे. आप कल्पना कीजिये इस से बच्चों पर क्या असर पड़ा होगा. आप कल्पना कीजिये इस से माता-पिताओं पर क्या असर पड़ा होगा. कुछ मामलों में यह कई सालों तक चलता रहा. कभी कभी एक ही परिवार के चार बच्चे देश के चार बिलकुल अलग-अलग हिस्सों में पहुंचा दिए जाते थे. तो आप के देश में छेद दिए गए परिवार थे. आप ने हर तरह की समस्या जैसे अपने बच्चों से बिछड़ गए माता-पिताओं की आत्महत्या और अल्कोहोलिज्म के लिए ज़मीनी काम तो कर ही दिया था. और उन बच्चों के लिए नई जगहों पर खुद को ढालने की समस्या? – किस कदर गहरे ट्रौमा से गुजरना पड़ता था उन्हें. कभी कभी तो वे चार और पांच की आयु में उठा लिए जाते थे.

क्या उन्हें उठाये जाने के बाद किसी तरह का आपसी संपर्क हो पाता था?

नहीं, क्योंकि माना जाता था कि ऐसा करना एक कदम पीछे हटना होगा. इसे परोपकार की भावना से किया गया कार्य कहा जाता था. लेकिन जिस तरह से उसका कार्यान्वयन होता था वह खौफनाक था. मुल्क उस बात की कीमत आज भी चुका रहा है क्योंकि इस सारे तमाशे ने आदिवासियों और सरकार के लिए उनकी भावनाओं के बीच बड़ी खाई बना दी थी. बहुट से परिवार तहस नहस हुए और अल्कोहोलिज्म का एक भयानक चक्र शुरू हो गया

तो वर्तमान एकीकरण नीति को लेकर आप क्या सोचते हैं?

ज़ाहिर है, अब वे जो कर रहे हैं उसमें विवेक का इस्तेमाल ज्यादा होता है. यह अब भी एक बड़ी समस्या है. सामाजिक अभाव के किसी भी इंडैक्स में आदिवासी हमेशा सबसे नीचे आते हैं. अगर आप गिरफ्तारियों, नशीली दवाओं, गरीबी, स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु जैसी चीज़ों के आंकड़े देखें तो तो वे सबसे नीचे होते हैं. साफ़ है उन्हें बेहतर जीवन देने के लिए बहुत कुछ और किया जाना है. इस समस्या का सबसे बड़ा हिस्सा यह है कि उनमें से अधिकतर सुदूर इलाकों में रहते हैं. सो उनके पास शिक्षा और रोज़गार के वैसे अवसर नहीं हैं जैसे उन्हें शहरों में रहते हुए मिलते. यह एक्बहुत बड़ी समस्या है और कोई भी आज तक किसी ठोस समाधान के साथ आगे नहीं आया.

ओलिम्पिक्स की बात करते हैं. आप सिडनी मॉर्निंग हैरल्ड और द टाइम्स के लिए रिपोर्टिंग करने ओलिम्पिक्स में मौजूद थे. दर असल मैंने आप का लिखा तलवारबाजी और टेबल टेनिस जैसे कम चर्चित खेलों पर लिखा हुआ एक टुकड़ा पढ़ा था. मुझे बताया गया है कि वहां कुछ लोग थे जो टेबल टेनिस में आप से बेहतर थे?

मैं उन सारे ‘अल्पसंख्यक’ खेलों को देखने गया लेकिन कोई भी मुझे भाया नहीं. जैसे तलवारबाजी - सिर्फ ‘क्लिक क्लिक क्लिक’ और हो गया. फिर वे आराम करते हैं. दोबारा गार्ड लिया और ‘क्लिक क्लिक क्लिक’ और फिर हो गया. आप बस सोचते रह जाते हैं “ये खेल है क्या चीज़ यार?” मुझे वह बेहद उबाऊ लगा और मैंने जूडो पर ध्यान लगाया. वह भी ऐसा ही था. अब ये दो बन्दे हैं लगातार एक दुसरे के गिर्द चक्कर लगा रहे हैं जैसे कि दूसरे के जाने बिना उसकी कमीज़ उतार देने की जुगत में लगे हुए हैं. मैंने सोचा – ‘ये है क्या? मेरी समझ में कुछ नहीं आया.” फिर मैं टेबल टेनिस पर गया जो मेरी समझ में आ गया क्योंकि मैं उसे खेल चुका था – ओलिम्पिक के स्तर पर नहीं – पर मेरी समझ में आता था वह. मेरी समझ में आया कि ये लोग उस सब से कहीं आगे पहुँच चुके लोग हैं जिसका मैं सपना देख सकता हूँ. मुझे बड़ा खराब लग रहा था कि मैं तलवारबाजों की कला की तारीफ करने लायक न था. वे मेरी समझ में इस वजह से नहीं आटे थे कि वे इस कदर शानदार थे, इस कदर फुर्तीले कि मैं देख ही नहीं पा रहा था कि वे कर क्या रहे थे.

तलवारबाजी को लोकप्रिय बनाने के लिए आपके पास कुछ विचार थे ...

हाँ, कुछ सुझाव थे. मुझे लगा कि आप सरप्राइज़ अटैक जैसे दाँवों को प्रोत्साहित कर सकते थे . मुझे लगा कि ऐसा अच्छा रहेगा. मुझे यह विचार भी भाया कि एक खिलाड़ी पारंपरिक तलवार लिए हो और दूसरा बरछी. सबसे प्रिय मुझे यह विचार लगा कि दोनों ही की आँखों पर पट्टी बाँध दी जाए और दोनों को  थोड़ा गोल गोल घुमाकर अचानक एक दूसरे की तरफ धकेल दिया जाए. इस से खेल लम्बा खींचेगा ...

खासी गंभीर खेल पत्रकारिता है जनाब! ... खैर. ‘डाउन अंडर’ में आपके एक वाक्य ने मुझे हैरत में डाला था जब आपने तनिक निराशा के साथ कहा था कि आज के समय में यात्रा का बड़ा हिस्सा चीज़ों को देख लेना होता है, जब तक कि वे बची हुई हैं. कौन सी चीज़ गायब हो रही है?

स्पष्टतः दुनिया में आप जहां भी जाएं हर जगह एक सी में बदल रही है, और यह मुझे हतोत्साहित करने वाला लगता है. अमेरिका के किसी भी शहर में अगर आपने कॉफ़ी पीनी है तो स्टारबक्स कप हर जगह मिलता है. दुनिया का मैक्डोनाल्डीकरण. और ऐसा हर जगह और और ज्यादा होता दीखता है. यह सिर्फ अमेरिकी फिनोमेना नहीं है – बॉडी शॉप और एनी संस्थाएं भी इस में सहयोग कर रही हैं, जैसा कि व्यावसायिक संसार के साथ होना ही होता है, अमेरिका पथप्रदर्शक है. यह भी हतोत्साहित करने वाला है. जब मैं एलिस स्प्रिंग्स पहुंचा तो मुझे बहुत निराशा हुई थी. मैं डार्विन से हज़ार किलोमीटर गाड़ी चलाकर इस खाली रेगिस्तान में पहुंचा था. में होटल के कमरे में घुसा और जैसे ही मैंने परदे खोले सड़क के उस पर के-मार्ट दिख गया. मैं इतनी दूर के-मार्ट देखने नहीं आया था.

आप ने एलिस स्प्रिंग्स को ऐसे समुदाय के तौर पर वर्णित किया है जो एक ज़माने में सुदूर होने की वजह से विख्यात था और अब वहां हज़ारों लोग सिर्फ यह देखने आते हैं कि अब वह कितना सुदूर नहीं रह गया है. यह आधुनिक यात्रा की एक विडम्बना है कि आप किसी ख़ास जगह को ढूंढते हैं, जो इस वजह से भी ख़ास है कि काफी दूर है और वहां पहुँचने के लिए काफी मशक्कत करनी होती है और यह कि आप भी ख़ास होने जा रहे हैं क्योंकि आपने वहां पहुँचने के लिए मशक्कत की है और जब आप वहां पहुँचते हैं आप पाते हैं कि वहां आप ही जैसी सोच वाले असंख्य लोग जमा हैं और यही नहीं वह जगह आपका इंतज़ार कर रही है. यह सब दर असल आपके स्वागत के लिए तैयार किया गया होता है. जब आप एलिस स्प्रिंग्स जैसी जगह पहुँचते हैं जहां बाकी असंख्य लोग भी उसी वजह से पहुंचे हैं तो क्या आपको निराशा होती है?

माफ़ कीजिये, क्या मैं एक बात कह सकता हूँ. क्या हम लोग एक ड्रिंक के लिए अभी जाएंगे या नहीं?

बस पांच मिनट! आप सवाल का जवाब दे दीजिये.

मैं निराश हुआ था. इस से कोई बचाव भी नहीं था. मेरी उम्मीदें काफी ज्यादा थीं. एलिस स्प्रिंग्स टिम्बकटू किस्म की जगह है. बाहर से आने वाले ज़्यादातर लोग इस बारे में जानते ही नहीं सो आप अपने दिमाग में कुछ छवियों का निर्माण करने लगते हैं. मैंने सोचा था कि वह कोई धूलभर गायों वाला शहर होगा जहां पोस्टों से घोड़े बंधे हुए होंगे वगैरह. वहां जाकर मैं पाता हूँ कि वह बिलकुल आधुनिक नगर है जो मेलबर्न या ऐसे ही किसी महानगर से सटा हुआ उपनगर भी हो सकता था. इस लिहाज़ से मैं निराश हुआ था. पर असल में वह अच्छा था. एलिस स्प्रिंग्स में कुछ भी गलत नहीं. बस वह उतना एक्ज़ोटिक नहीं था जैसे मैंने सोच रखा था

यह कह चुकने के बाद भी, यात्रा करने से हतोत्साहित होने के बजाय, ‘डाउन अंडर’ के आखीर में मुझे ऐसा लगा कि आप वापस वहां जाना चाहेंगे. कि अभी वहां बहुत कुछ है जिसे आपने देखना बाकी है. यह कहता हुआ मैं खोटेपन का प्रदर्शन कर रहा हूँ पर क्या आप वाकई निराश हुए थे क्योंकि ‘डाउन अंडर’ खत्म करने के बाद मुझे ऑस्ट्रेलिया जाने की प्रेरणा मिलने लगी थी और मैं उन सब जगहों पर जाना चाहता था जिनके बारे में आपने बताया है. सो मैं तो बेशर्मी से हर किसी को ‘डाउन अंडर’ पढने की सिफारिश करूंगा क्योंकि यह श्रेष्ठतम कोटि का यात्रावृत्त है क्योंकि इस को पढ़कर आप का मनोरंजन होता है, आप बहुत कुछ सीखते हैं, और यह आपको यात्रा करने की प्रेरणा भी देता है.

फिलहाल मैं बिल को मुक्त करता हूँ.
 (जारी)

बिल ब्राइसन का साक्षात्कार – ३



(पिछली कड़ी से जारी)

क्या यह आपका स्थाई निर्णय है? उदाहरण के लिए यह बताइये कि अमेरिका के पास क्या है जो ब्रिटेन आप को नहीं दे सकता?

जो इकलौती चीज़ दिमाग में आती है वो यह कि मैं बेसबाल का दीवाना हूँ. मैं बोस्टन रेड सॉक्स के प्रति खासा समर्पित हूँ. बेसबाल के बारे में बढ़िया चीज़ यह है कि यह तकरीबन आधे साल चलता रहता है. खेल तकरीबन रोज़ होता है और आपके दिमाग में यह बात धंसी रहती है कि अगर शाम को करने को कुछ नहीं है तो आप टेलीविज़न पर बेसबाल का गेम देख सकते हैं. यह मुझे बहुत पसंद है.

आपके यात्रावृत्तों का एक विशिष्ट आनन्द आपके सहयात्रियों के चित्रण से आता है. अपनी जवानी में आपने मिसाल के लिए कुख्यात काट्ज़ के साथ विदेश यात्रा की थी और उसके बारे में आप ने लिखा था “काट्ज़ के साथ विदेश यात्रा करने की सबसे बेहतरीन बात यह थी कि बाकी बचे अमेरिका को उसके साथ गर्मियां नहीं बितानी थीं.” और तब भी तीन साल पहले आप उसे अपने साथ एप्पलाकियन ट्रेल पर उस मूर्खतापूर्ण साहसिक अभियान ‘वॉक इन द वुड्स’ में ले गए. क्यों?

क्योंकि मैं अकेले यात्रा करना नहीं चाहता था और वह इकलौता शख्स था जो मेरे साथ आ सकता था. सीधी सी बात है. मैं निकलने ही वाला था जब मुझे अहसास हुआ कि मैंने खुद को कहाँ अटका लिया है : मैं इस विराट यात्रा पर निकल रहा था और हफ़्तों हफ़्तों तक मैं निर्जन इलाके में रहने जा रहा था, मुझे सचमुच ख्याल आया कि मैं अकेलापन और एकांत नहीं चाहता था. मुझे इस बात का भान ही नहीं था कि रास्ते में मुझे कितने लोग मिलने वाले थे. असल में वह एक खासी सौहार्दपूर्ण यात्रा रही क्योंकि और भी कितने ही लोग इस तरह की हाईकिंग पर निकलते हैं. पर तब मुझे पता नहीं था. सो मैं बेताबी से चाहता था कि कोई मेरे साथ चले. मैंने किया यह कि क्रिसमस के समय लिखे जाने वाले कार्डों में अलग से नोट लिख कर डाला कि कोई भी मेरे साथ इस यात्रा पर चलाना चाहे तो उसका स्वागत है, चाहे वह यात्रा के एक हिस्से के लिए ही हो. मैंने वह नोट अपने हरेक दोस्त को लिखा और किसी का भी जवाब नहीं आया. फिर कई दिनों बाद काट्ज़ का फोन आया और उसने थोड़ा हिचकते हुए कहा कि अगर वह पूरी यात्रा भर साथ आना चाहे तो. मैं बहुत खुश हो गया. ज़रुरत से ज्यादा प्रसन्न. मुझे पता था काट्ज़ बहुत मशक्कत का काम होगा. मैं नहीं जानता था कितनी मशक्कत का जब तक कि वह आ न गया. लेकिन मैं इस कदर कृतज्ञ था कि कोई तो मेरे साथ है. जैसा कि मैंने किताब में लिखा भी है जब तक उसकी नाड़ी चल रही थी, उसकी संगत से मुझे कोई ऐतराज़ न था.

उस यात्रा के मेरे सर्वप्रिय लोगों में मैरी-एलेन है, जिसे आप यूँ ही टकरा गए थे, अलबत्ता मैं नहीं समझता अपने उसे साथ आने को चुना था. क्या ऐसा था?

मैरी-एलेन दर असल हमारे साथ नत्थी हो ली टी और कई दिनों तक उसने हमें पागल बनाए रखा. उसका नाम मैरी-एलेन नहीं था पर वह ठीक वैसी ही थी जैसा किताब में दिखाया गया है.

वास्तविक व्यक्तियों के ये चित्रण कितने सच होते हैं?

निर्भर करता है. अक्सर जीवन में जब आपको मैरी-एलेन जैसा उपहार-सरीखा पात्र मिलता है, आप बहुत सच्चे बने रह सकते हैं. बाकी मौकों पर मैं थोड़ा बढ़ा चढ़ा कर लिखता हूँ या लोगों के चरित्र के अलग अलग हिस्सों के बारे में लिखता हूँ. उदाहरण के लिए काट्ज़ के साथ: मैं कसम खाकर कहता हूँ कि काट्ज़ के साथ चलना ठीक वैसा ही था जैसा किताब में दिखाया गया है, सिवा इसके कि वास्तविक जीवन में उसके और भी पहलू हैं जिनके बारे में उतना ज्यादा मैंने नहीं लिखा. मेरा मतलब है कि उसका एक संवेदनशील हिस्सा भी है. लेकिन उसके साथ यात्रा में इस कदर मुश्किल संघर्ष करना और उसका हमेशा गुस्से में रहना और अपने बैकपैक से नफरत करना – सब कुछ वैसा ही था. मैंने इस सब को असल में किताब में नहीं लिखा क्योंकि उसे बयान कर सकना किसी भी सूरत में मुमकिन नहीं होता, लेकिन मैं कसम खा कर कहता हूँ कि हम अलग अलग रफ़्तार से चला करते थे और अक्सर जब मैं उस से काफी आगे पहुँच जाया करता था तो उस के लिए रुक जाता और वह किस रफ़्तार से मेरे नज़दीक आ रहा है इसका अनुमान सुदूर गूँजती उसकी “फ़क, फ़क, फ़क” से लग जाता था.
       
यह तो वही हो सकता था. और मैरी-एलेन? क्या आप के पास वास्तविक मैरी-एलेन के बारे में बताने को कुछ ख़ास है?

यही वास्तविक मैरी-एलेन है. लोग मुझसे पूछते हैं “क्या उसने वाकई वो सारी बातें कही थीं?” और मेरा उत्तर होता है नहीं, ठीक ठीक वो ही नहीं. लेकिन अगर आप मुझ से पूछें कि उसके साथ चार दिन रहना कैसा था तो आप मेरा यक़ीन कीजिये वह ऐसी ही थी.

आपकी सबसे हालिया यात्रा ऑस्ट्रेलिया की थी जिसके बारे में आपने अपनी नई किताब ‘डाउन अंडर’ में लिखा है (अमेरिका में इसे ‘इन अ सनबर्न्ट कंट्री’ शीर्षक से छपा गया है). सबसे पहले वह कौन सी बात थी जिसने आप को ऑस्ट्रेलिया जाने और उस बारे में लिखने की दिशा में आकर्षित किया?

हम्म, मैंने ऑस्ट्रेलिया के बारे में ज्यादा कभी सोचा नहीं था. मेरे लिए ऑस्ट्रेलिया कभी भी दिलचस्प नहीं था. वह तो पार्श्व में घटी कोई चीज़ थी. ‘नेबर्स’ और ‘क्रोकोडाइल डंडी’ फ़िल्में और इस तरह की चीज़ें थी जो कभी मेरे जेहन में ठीक से दर्ज नहीं रह सकीं और जिन पर मैंने बहुत ध्यान भी नहीं दिया था. मैं वहां १९९२ में गया चूंकि मुझे मेलबर्न रायटर्स फेस्टीवल के लिए बुलाया गया था, सो मैं वहां गया और करीब करीब वहां पहुँचते ही मुझे लगा कि यह एक दिलचस्प देश है जिसके बारे में मैं ज़रा भी नहीं जानता. जैसा कि मैंने किताब में लिखा है मुझे इस बात से हैरत हुई थी कि उनके एक प्रधानमंत्री हैरल्ड होल्ट के बारे में मुझे बिलकुल पता नहीं था जो १९६७ में गायब हो गया था. मुझे आपको संभवतः इस बारे में बताना चाहिए क्योंकि बहुत सारे औरों को भी यह बात पता नहीं होती. १९६७ में हैरल्ड होल्ट प्रधानमंत्री थे और विक्टोरिया की एक बीच पर क्रिसमस से ठीक पहले टहल रहे थे जब उन्हें अचानक तैरने की इच्छा हुई और वे पानी में कूद पड़े. सौ फीट तक पानी में तैरने के बाद वे लहरों के नीचे गायब हो गए – अनुमानतः उन्हें उन बनैले अधोप्रवाहों ने अपने भीतर चूस लिया था जो ऑस्ट्रेलियाई समुद्रीतट के बड़े हिस्से की विशेषता हैं. जो भी हो उनका शव कभी मिला ही नहीं. इस बारे में दो बातों ने मुझे चमत्कृत किया. पहली यह कि कोई देश इस तरह अपने प्रधानमंत्री को गँवा सकता है – यह मुझे बहुत ख़ास बात लगी थी – और दूसरी यह कि इस बारे में कभी कुछ सुने होने की मुझे कोई स्मृति नहीं थी. १९६७ में मैं सोलह साल का था. मुझे इस बारे में पता होना चाहिए था और तब मुझे अहसास हुआ कि ऑस्ट्रेलिया के बारे में बहुत सी दिलचस्प बातें मुझे पता नहीं थीं. मैंने जितना अधिक इस बाबत खोजा मेरी दिलचस्पी बढ़ती चली गयी. जिस बात ने  ऑस्ट्रेलिया को मेरे लिए हैरल्ड होल्ट को लेकर बहुत प्रिय बनाया वह उनकी त्रासद मृत्यु नहीं बल्कि यह थी कि अपने गृहनगर मेलबर्न ने, उनके गायब होने के एक साल बाद फ़ैसला किया कि उनकी स्मृति में कुछ किया जाना चाहिए. सो नगरपालिका के एक स्विमिंग पूल का नामकरण उनके नाम पर कर दिया गया. मैंने सोचा – मुल्क है तो मजेदार.

आपके भीतर अजीब तरह से हैरान कर देने वाली चीज़ों को लेकर एक ख़ास तरह की स्ट्रीक है. आपमें और आपके लेखन के भीतर अमेरिका और ब्रिटेन के मिश्रण मैं वापस लौटा जाए तो आप ऑस्ट्रेलिया का वर्णन एक वैकल्पिक दक्षिणी कैलिफोर्निया के तौर पर करते हैं – ‘बेवॉच और क्रिकेट’. क्या आपने ऑस्ट्रेलिया में अमेरिका और ब्रिटेन की यह मिलावट देखी?

हाँ, मेरा ख्याल है यह एक बड़ा कारण था कि ऑस्ट्रेलिया पहुँचते ही मैं इस कदर आराम महसूस करने लगा था. अब आप देखिये एक इंसान है यानी मैं जो आधी ज़िन्दगी ब्रिटेन में काट चुका है और आधी अमेरिका में और वह एक ऐसे देश में जा रहा है जो इन दोनों के आधे आधे से बना हुआ है. कई मामलों में ऑस्ट्रेलिया मुझे अमेरिका सरीखा लगता है. चाक्षुष पहलू से सिडनी, एडीलेड और पर्थ सरीखे शहर यूरोपीय होने के बजाय उत्तर अमेरिकी ज्यादा हैं, क्योंकि वे बहुमंजिला इमारतों से अटे पड़े हैं और वहां सड़कों का ज्यामितीय जाल है. और ऑस्ट्रेलियाइयों का रवैया और जीवन को देखने की निगाह काफी अमेरिकन है. वे बहुत मिलनसार लोग होते हैं जिन्हें अजनबियों के साथ ज़रा भी असुविधा महसूस नहीं होती, और उनके भीतर एक ख़ास तरह की डाइनैमिज़्म और सब कुछ कर सकने वाला जज्बा होता है जो काफी कुछ अमेरिका की याद दिलाता है.लेकिन उनकी संस्कृति की बुनियाद बेहद, बेहद ब्रिटिश हैं. वे चाय पीते हैं, बाईं तरफ ड्राइव करते हैं और क्रिकेट खेलते हैं. उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर काफी ब्रिटिश है और उनकी शिक्षा व्यवस्था वगैरह बाकी सब. सो यह सब एक वाक़ई दिलचस्प मिश्रण है.

(जारी)