Wednesday, April 30, 2008

लिख सकता हूं आज की रात बेहद दर्दभरी कविताएं

अपनी पत्नी मातिल्दे के साथ पाब्लो नेरूदा

पाब्लो नेरूदा का पहला काव्य संग्रह था 'वेइन्ते पोएमास दे आमोर ई ऊना कान्सीयोन देसएस्पेरादा' (बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत)। १९२४ में इस पतली सी किताब के प्रकाशित होने के बाद पाब्लो विश्वविख्यात नाम हो गये। फ़कत बीस साल की उम्र थी तब उनकी।

यह इन कविताओं में पूरी ईमानदारी से बयान किया हुआ युवा नेरूदा का अगाध प्रेम और उस से उपजी हताशा और कुंठा सब मिलकर इस संग्रह को कालजयी बना चुके हैं। जब मैं १९९४-९५ के समय वेनेज़ुएला में था, इस संग्रह की यह ख़ास कविता ने मुझे कई और कारणों से आकर्षित किया था। मौज मस्ती पसन्द करने वाले लातीन अमरीकी स्त्रियों के बीच यह कविता ख़ासी लोकप्रिय थी और पार्टी वगैरह में ज़रा सा इसरार करने पर वे इसे सुनाने को भी तैयार हो जाती थीं; यहां यह बात अलहदा है कि गीत का अन्त आते आते वे बाकायदा रोना शुरू कर देती थीं और यह रोना हर दफ़ा होता था. नेरूदा की कविताएं गाई जाती हैं, उन्हें पता नहीं कितने लोगों ने अपनी आवाज़ दी है और विशेषतः इस वाली कविता के तो संभवतः पांच सौ से ज़्यादा अलग-अलग रेकॉर्ड्स इत्यादि उपलब्ध हैं. होसे हुआन तोर्रेस की आवाज़ में आप भी सुनिये इस अद्भुत कविता को. हो सकता है स्पानी भाषा समझ में न आये, पर उसकी मिठास को और उस के दर्द को अनुभव कीजिए. आगे कविता का अनुवाद भी दिया गया है:

boomp3.com

Puedo escribir los versos más tristes esta noche

Escribir, por ejemplo: "La noche está estrellada,
y tiritan, azules, los astros, a lo lejos."

El viento de la noche gira en el cielo y canta

Puedo escribir los versos más tristes esta noche
Yo la quise, y a veces ella también me quiso.

En las noches como ésta la tuve entre mis brazos.
La besé tantas veces bajo el cielo infinito.

Ella me quiso, a veces yo también la quería.
Cómo no haber amado sus grandes ojos fijos.

Puedo escribir los versos más tristes esta noche.
Pensar que no la tengo. Sentir que la he perdido

Oír la noche inmensa, más inmensa sin ella.
Y el verso cae al alma como al pasto el rocío.

Qué importa que mi amor no pudiera guardarla.
La noche está estrellada y ella no está conmigo.

Eso es todo. A lo lejos alguien canta. A lo lejos.
Mi alma no se contenta con haberla perdido.

Como para acercarla mi mirada la busca.
Mi corazón la busca, y ella no está conmigo.

La misma noche que hace blanquear los mismos árboles.
Nosotros, los de entonces, ya no somos los mismos.

Ya no la quiero, es cierto, pero cuánto la quise.
Mi voz buscaba el viento para tocar su oído.

De otro. Será de otro. Como antes de mis besos.
Su voz, su cuerpo claro. Sus ojos infinitos.

Ya no la quiero, es cierto, pero tal vez la quiero.
Es tan corto el amor, y es tan largo el olvido.

Porque en noches como ésta la tuve entre mis brazos,
Mi alma no se contenta con haberla perdido.

Aunque éste sea el último dolor que ella me causa,
y éstos sean los últimos versos que yo le escribo

अब प्रस्तुत है कविता का अनुवाद:

लिख सकता हूं आज की रात बेहद दर्दभरी कविताएं

लिख सकता हूं उदाहरण के लिये: "तारों भरी है रात
और तारे हैं नीले, कांपते हुए सुदूर"

रात की हवा चक्कर काटती आसमान में गाती है.

लिख सकता हूं आज की रात बेहद दर्दभरी कविताएं
मैंने प्रेम किया उसे और कभी कभी उसने भी प्रेम किया मुझे

ऐसी ही रातों में मैं थामे रहा उसे अपनी बांहों में
अनन्त आकाश के नीचे मैंने उसे बार-बार चूमा.

उसने प्रेम किया मुझे और कभी-कभी मैंने भी प्रेम किया उसे.
कोई कैसे प्रेम नहीं कर सकता था उसकी महान और ठहरी हुई आंखों को.

लिख सकता हूं आज की रात बेहद दर्दभरी कविताएं.
सोचना कि मेरे पास नहीं है वह. महसूस करना कि उसे खो चुका मैं.

सुनना इस विराट रात को जो और भी विकट उसके बग़ैर.
और कविता गिरती है आत्मा पर जैसे चरागाह पर ओस.

अब क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मेरा प्यार संभाल नहीं पाया उसे.
तारों भरी है रात और वह नहीं है मेरे पास.

इतना ही है. दूर कोई गा रहा है. दूर.
मेरी आत्मा संतुष्ट नहीं है कि वह खो चुकी उसे.

मेरी निगाह उसे खिजने की कोशिश करती है जैसे इस से वह नज़दीक आ जाएगी.
मेरा दिल खोजता है उसे और वह नहीं है मेरे पास.

वही रात धवल बनाती उन्हीं पेड़ों को
हम उस समय के, अब वही नहीं रहे.

मैं उसे और प्यार नहीं करता, यह तय है पर कितना प्यार उसे मैंने किया
मेरी आवाज़ ने हवा को खोजने की कोशीस की ताकि उसे सुनता हुआ छू सकूं

किसी और की. वह किसी और की हो जाएगी. जैसी वह थी
मेरे चुम्बनों से पहले. उसकी आवाज़ उसकी चमकदार देह उसकी अनन्त आंखें

मैं उसे प्यार नहीं करता यह तय है पर शायद मैं उसे प्यार करता हूं
कितना संक्षिप्त होता है प्रेम, भुला पाना कितना दीर्घ.

क्योंकि ऐसी ही रातों में थामा किया उसे मैं अपनी बांहों में
मेरी आत्मा संतुष्ट नहीं है कि वह खो चुकी उसे.

हालांकि यह आख़िरी दर्द है जो सहता हूं मैं उसके लिये
और ये आख़्रिरी उसके लिये कविताएं जो मैं लिखता हूं.


(संवाद प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत' से)

नेरूदा की एक और कविता कबाड़ख़ाने में
यहां सुनी और पढ़ी जा सकती है. कबाड़ख़ाने पर ही नेरूदा से सम्बन्धित एक और लेख यहां देखें.

Tuesday, April 29, 2008

सावन झरी लागेला धीरे-धीरे...


आज मिलते हैं स्वर और संगीत के वरदान से समृद्ध गायिक रत्ना बसु से.रत्ना जी कोलकाता में रहती हैं,उसी 'कलकत्ता' में जो पूर्वांचल के लोकगीतों में विरहिणी नायिका की कातर पुकार में बार-बार 'पुरबी बनिजिया' और 'परदेस' के रूप में आता है जहां उसका नायक कमाने गया हुआ है.रत्ना जी ने भातखंडे संगीत विद्यापीठ ,लखनऊ से संगीत विशारद की उपादि प्राप्त करने के बाद कई गुरुओं जैसे पं.ए.टी. कण्णन,श्री संजय बनर्जी,श्रीमती दालिया राउत और श्रीमती शुभ्रा बोस से शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत की दीक्षा ली है. उन्होंने अपने गायन के लिये कई ख्यातनाम पुरस्कार अर्जित किये हैं.रत्ना जी फ़्यूजन बैंड 'कर्मा' के लिये भी गा चुकी हैं,उनका एक अलबम 'बाउला, शीर्षक से आया है और खास बात तो यह है कि वह अपनी ही बिरादरी की हैं यानि कि ब्लागर.उनके ब्लाग का नाम है 'आलाप'. तो देर किस बात की ,सुनते हैं -सावन झरी लागेला धीरे-धीरे...

(मित्रो! २४ अप्रेल को जिस पोस्ट को एक बार लगाकर तकनीकी कारणों से हटा दिया था उसे आज फिर लगा रहा हूं - इस उम्मीद के साथ कि इस बार आप संगीत जरूर सुन सकेंगे.यह संगीत मुझे 'रेडियो सबरंग' के मार्फत मिल सका है,सो आभार)

पॉल रॉब्सन और बोझिल इतवार का एक गीत

हंगरी के कम्पोज़र और पियानोवादक रेसो सेरेस द्वारा १९३३ में लिखा गया गीत 'ग्लूमी सन्डे' आने वाले वर्षों में कई गायकों ने गाया था. १९४१ में बिली हॉलीडे का गाया संस्करण बहुत लोकप्रिय हुआ.

इस गीत को लेकर तमाम किंवदन्तियां चल निकलीं थीं मसलन यह कि इस गीत को सुनकर सैकड़ों लोग ख़ुदकुशी कर चुके हैं वगैरह वगैरह. बात यहां तक बढ़ी कि अमरीकियों ने तो इस गाने को 'हंगरी का आत्महत्या गीत' की पदवी दे डाली.

यह अलग बात है कि इस गीत के सर्जक रेसो सेरेस ने स्वयं १९६८ में कुछ अन्य कारणों के चलते आत्महत्या कर ली थी. इस गीत को लेकर फैलाई गई अफ़वाहें असल में बिली हॉलीडे के गाये संस्करण की महीन मार्केटिंग-स्ट्रैटेजी का हिस्सा थीं.

मूल गीत की मारक निराशाभरी वाणी और तिक्त दुःख इस क़दर असह्य थे कि इसे हंगरी के कवि लास्लो जावोर ने पुनर्सृजित किया. बाद में इसका अंग्रेज़ी तर्ज़ुमा छपा. सैम लुईस और डेसमंड कार्टर के इस अंग्रेज़ी अनुवाद को पॉल रॉब्सन ने भी गाया लेकिन कुछेक तब्दीलियों के साथ और अब यह एक सर्वमान्य तथ्य बन चुका है कि महान पॉल रॉब्सन का गाया संस्करण ही सबसे मानवीय है. पॉल रॉब्सन इस गीत की निराशा और दुःख को एक तरह की शाश्वत और मीठी उदासी में तब्दील कर देते हैं

गीत के बोल:

Sadly one Sunday I waited and waited
With flowers in my arms for the dream I'd created
I waited 'til dreams, like my heart, were all broken
The flowers were all dead and the words were unspoken
The grief that I knew was beyond all consoling
The beat of my heart was a bell that was tolling

Saddest of Sundays

Then came a Sunday when you came to find me
They bore me to church and I left you behind me
My eyes could not see one I wanted to love me
The earth and the flowers are forever above me
The bell tolled for me and the wind whispered, "Never!"
But you I have loved and I bless you forever
Last of all Sundays.

boomp3.com

(यह प्लेयर मान्यवर हरी मिर्च वाले श्री मनीष जोशी के सौजन्य से प्राप्त हुआ है. उन्हें धन्यवाद.)

यहां ज़रूर जाएं.


परवीन सुल्ताना की आवाज़ में अब सुनिये रागेश्री



असमिया पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाली परवीन सुल्ताना ने पटियाला घराने की गायकी में अपना अलग मुकाम बनाया है. उनके परिवार में कई पीढ़ियों से शास्त्रीय संगीत की परम्परा रही है. परवीन सुल्ताना के गुरुओं में आचार्य चिन्मय लाहिरी और उस्ताद दिलशाद ख़ान प्रमुख रहे हैं. पिछले दिनों मैंने कबाड़ख़ाने पर उन की आवाज़ में रागेश्री सुनवाने की कोशिश की थी पर कुछ तकनीकी कारणों से ऐसा संभव न हो सका. आज सुनिये वह रचना.


boomp3.com

Monday, April 28, 2008

आज नाज़िम हिकमत की स्त्री को लगना चाहिये सुन्दर - एक बाग़ी झण्डे की तरह

नाज़िम और पिराये

नाज़िम हिकमत यदा - कदा चित्रकारी पर भी हाथ आज़माया करते थे. ये रहे जेल में उनके बनाये पिराये के दो पोर्ट्रेट:


'९-१० रात्रि की कविताएं' शीर्षक श्रृंखला का तीसरा और आखिरी हिस्सा प्रस्तुत है. इस श्रृंखला के बारे में जानने हेतु यहां और यहां देखें.

२७ अक्टूबर १९४५

हम हैं एक सेब का आधा हिस्सा,
बाक़ी का आधा है यह पूरी दुनिया.
हम हैं एक सेब का आधा हिस्सा
बाक़ी का आधा हैं हमारे जन.
तुम हो एक सेब का आधा हिस्सा
बाक़ी का आधा हूं मैं,
हम दोनों ...

५ नवम्बर १९४५

भूल जाओ फूलते बादामों को.
वे इस लायक नहीं:
इस धंधे में
याद नहीं करते उसे जिसका लौटना मुमकिन नहीं.
सुखाओ अपने केश धूप में:
भीगे -भारी सुर्ख़ वे चमकें
पके फल की अलसता के साथ ...
मेरी प्रिया, मेरी प्यारी,
मौसम
पतझड़ ...


८ नवम्बर १९४५

मेरे सुदूर शहर की छतों के ऊपर से
मार्मरा सागर की तलहटी से
और पतझड़ लदी धरती के आर पार
तुम्हारी आवाज़ आई
सघन और तरल.
तीन मिनट तक.
फिर फ़ोन काला पड़ गया.


१२ नवम्बर १९४५

दक्षिणी वायु के आख़्रिरी ऊष्म झोंके बहते हैं
गुनगुनाते जैसे रक्त फूटता किसी धमनी से.
मैं सुनता हूं हवा को:
धीमी पड़ गई है नब्ज़.
उलुदाग़ पर्वत पर बर्फ़ है,
और चेरी पहाड़ी के भालू चले गए हैं सोने
पांगर की सुर्ख़ पत्तियों पर गुड़ी मुड़ी और भव्य.
मैदान में कपड़े उतार रहे हैं चिनार.
रेशमी कीड़ों के अण्डे सहेजे जा रहे हैं भीतर सर्दियों के लिये,
पतझड़ अब लगभग ख़त्म है,
धरती डूब रही है अपनी गर्भवती नींद में.
और हम गुज़ारेंगे एक और सर्दी
अपने महान ग़ुस्से में,
अपनी पवित्र आशा की आग तापते हुए ...


१३ नवम्बर १९४५

इस्तांबूल की ग़रीबी - वे बताते हैं - बयान के बाहर है,
भूख ने - वे बताते हैं - रौंद डाला है लोगों को,
टीबी -वे बताते हैं - हर कहीं है.
छोटी बच्चियां इतनी-इतनी - वे बताते हैं -
मण्डराती जली हुई इमारतों, सिनेमाघरों में ...
बुरी ख़बरें आती हैं मेरे सुदूर शहर से
ईमानदार, मेहनती ग़रीब लोगो -
असली इस्तांबूल की -
जो तुम्हारा घर है मेरी प्यारी,
और जिसे ढोता घूमता हूं अपनी पीठ के झोले में
मैं जहां कहीं निर्वासित होऊं जिस किसी जेल में
इस शहर को मैं लिये चलता हूं अपने दिल में
औलाद की मौत के शोक की तरह
वैसे ही जैसे अपनी आंखों में तुम्हारी तस्वीर को ...


४ दिसम्बर १९४५

वही पोशाक निकालो जिसमें पहले पहल देखा था मैंने तुम्हें,
सुन्दरतम सजो,
सजो वसन्त वृक्षों की तरह ...
अपने बालों में लगाओ
वह गुलाबी कार्नेशन फूल जो मैंने भेजा था जेल से
अपने पत्र में तुम्हें,
उठाओ अपना चूमने क़ाबिल रेखा-खिंचा चौड़ा गोरा माथा.
आज नाज़िम हिकमत की स्त्री को लगना चाहिये सुन्दर
- एक बाग़ी झण्डे की तरह.


५ दिसम्बर १९४५

पोत ने लंगर झटक दिया है
ग़ुलाम तोड़ रहे हैं अपनी ज़ंजीरें.
वह बह चली है उत्तर पूर्वा,
पटक कर चूर कर डालेगी वह पेंदे को चट्टानों पर.
यह संसार, यह दस्यु पोत, डूब जायेगा -
जहन्न्म आये चाहे ऊंचे थपेड़े, यह डूब जाएगा.
और हम बनाएंगे एक दुनियां इतनी उम्मीद भरी, स्वतंत्र और खुली
जैसे तुम्हारा माथा, मेरी पिराये ...


६ दिसम्बर १९४५

मेरी प्यारी, वे दुश्मन हैं उम्मीद के
बहते पानी के
और फलदार पेड़ के
विकसित होते खिलते जीवन के.
मौत दाग़ चुकी है उन्हें -
झड़ते दांत, सड़ती खाल -
और जल्द ही मरकर वे हमेशा के लिये ख़त्म हो जाएंगे.
और हां, मेरी प्रिया,
आज़ादी घूमेगी चहुं ओर बाहें झुलाती
अपनी सर्वोत्तम रविवारी पोशाक - मजूर की डांगरी में!
हां इस सुन्दर देश में आज़ादी ...


७ दिसम्बर १९४५

वे दुश्मन हैं रजब, बस्ती के उस बुनकर के
कराबुक, फ़ैक्ट्री के फ़िटर हसन के,
ग़रीब किसान औरत हातिजे के,
दिहाड़ी मज़दूर सुलेमान के
वे तुम्हारे दुश्मन हैं और मेरे
हरेक उस आदमी के जो सोचता है
और यह देश उन लोगों का घर -
मेरी प्यारी वे दुश्मन हैं इस देश के ...

१२ दिसम्बर १९४५


मैदानों के दरख़्त एक आखिरी कोशिश करते हैं चमकने की
चमचमाता सोना
तांबा
कांसा और काठ ...
बैलों के पैर आहिस्ता से धंसते हैं नम धरती पर.
और पहाड़ डूबे हैं कोहरे में;
गहरा, सलेटी, गीला-टपटपाता ...
यानी -
अन्तत: आज पतझड़ पूरी तरह ख़त्म हो जाएगा.
जंगली मुर्ग़ाबियां तड़तड़ाती हुईं गुज़रीं अभी-अभी
शायद इज़निक झील को जातीं.
हवा शीतल है
और महकती है कुछ-कुछ काजल जैसी:
हवा में बर्फ़ की गन्ध है.
इस समय बाहर होना
घोड़े पर सवार हो पहाड़ों की तरफ़ चौकड़ियां मारना ...
तुम कहोगी, "तुम्हें आता ही कहां है घोड़े पर सवारी करना"
पर हंसो नहीं
न जलो:
इधर मैंने एक नई आदत डाल ली है जेल में,
मैं प्रकृति को क़रीब इतना ही प्यार करता हूं जितना तुम्हें.
और तुम दोनों ही बहुत दूर ...

१३ दिसम्बर १९४५

रात बर्फ़ अचानक गिरी.
सुबह थी
सफ़ेद शाखाओं पर विस्फोट करते कौए.
बर्सा के मैदान में जहां तक आंखें देख सकती हैं सर्दियां:
एक अन्तहीन संसार.
मेरी प्यारी, मौसम बदल गया है
कठिम श्रमसाध्य एक लम्बी छलांग में.
और बर्फ़ तले गर्वीला
कर्मठ जीवन
जारी है ...

१४ दिसम्बर १९४५

सत्यानास,
इतनी भयानक ठण्ड पड़ रही है ...
तुम और मेरा सच्चा इस्तांबूल, कौन जाने कैसे हो तुम?
क्या कोयला है तुम्हारे पास?
क्या मुमकिन हो पाया लकड़ियां ख़रीदना?
खिड़कियों में अख़बार मढ़ देना.
ज़रा सो जाया करना जल्दी.
बेचने काबिल तो शायद कुछ भी न बचा हो घर में.
ठण्डा और अधपेट खाकर रहना:
यहां भी हम बहुसंख्यक हैं
दुनियां में, अपने देश में, और अपने शहर में ...


(सभी अनुवाद: वीरेन डंगवाल, 'पहल' पुस्तिका - जनवरी-फ़रवरी १९९४ से साभार)

जीना एक संगीन मामला है तुम्हें प्यार करने की तरह


पिछली पोस्ट में आपने नाज़िम हिकमत की इस कविता श्रृंखला का पहला हिस्सा पढ़ा था. जेल से अपनी पत्नी पिराये को लिखी इन कविताओं में आप नाज़िम के विचारों की सच्ची और उदात्त उड़ान को देख सकते हैं. वह अपनी पत्नी को भी उतना ही प्रेम करता है जितना ईमानदार, मेहनती, भले लोगों को. नाज़िम ने एक जगह लिखा था:

दोस्त-
उन्हें कभी मैंने नहीं देखा है
फिर भी हम एक साथ मरने को उद्यत हैं
एक - सी आज़ादी पर
एक - सी रोटी पर
एक - सी उम्मीद पर

(सभी अनुवाद: वीरेन डंगवाल, 'पहल' पुस्तिका - जनवरी-फ़रवरी १९९४ से साभार)

२० सितम्बर १९४५

इतनी देर गये
पतझड़ की इस रात
मैं भरा हूं तुम्हारे शब्दों से
शब्द
अन्तहीन जैसे समय और पदार्थ
नग्न जैसे आंखें
भारी जैसे हाथ
और चमकीले जैसे सितारे
तुम्हारे शब्द आये
तुम्हारे दिल, देह और दिमाग़ से.
वे तुम्हें लाये:
मां
पत्नी
और दोस्त.
वे थे उदास पीड़ादायी प्रसन्न उम्मीदभरे बहादुर -
तुम्हारे शब्द मानवीय थे ...


२१ सितम्बर १९४५

हमारा बेटा बीमार है
उसका पिता है जेल में
थके हाथों में तुम्हारा भारी सिर
हमारू क़िस्मत है दुनियां की क़िस्मत जैसी ...
लोग लाते हैं अच्छे दिन
हमारा बेटा ठीक हो जाता है
जेल से बाहर आ जाता है उसका पिता
तुम्हारी सुनहली आंखें मुस्कुराती हैं:
हमारी क़िस्मत है दुनियां की क़िस्मत जैसी.

२२ सितम्बर १९४५

मैं एक किताब पढ़ता हूं
तुम हो उनमें
मैं एक गीत सुनता हूं
तुम हो उनमें
मैं रोटी खाता हूं
तुम मेरे सामने बैठी हो;
मैं काम करता हूं
और तुम बैठी देखती हो मुझे.
तुम जो हो हर कहीं मेरी 'सदा विद्यमान'
मैं तुम से बात नहीं कर सकता,
हम एक दूसरे की आवाज़ें नहीं सुन सकते:
तुम हो मेरी आठ साला विधवा ...


२३ सितम्बर १९४५

वह क्या कर रही होगी अभी
ठीक अभी, इसी पल?
क्या वह घर में है? या बाहर?
क्या वह काम कर रही है? लेटी है? या खड़ी है?
शायद उसने अभी-अभी उठाई अपनी बांह -
वाह, ऐसे में कैसे उसकी गोरी गदबदी कलाई उघड़ जाती है!
वह क्या कर रही होगी अभी?
ठीक अभी? इसी पल?
शायद वह थपथपा रही है
गोद में एक बिल्ली का बच्चा.
या शायद वह टहल रही है, रखने को ही एक कदम -
वे प्यारे पांव जो ले आते हैं उसे सीधे मुझ तक
मेरे इन अन्धेरे दिनों में -
और वह किस चीज़ के बारे में सोच रही है -
मेरे?
उफ़ मुझे नहीं मालूम
गली क्यों नहीं ये सेमें?
या शायद
क्यों ज़्यादातर लोग हैं इतने नाख़ुश?
वह क्या कर रही होगी अभी?
ठीक अभी? इसी पल?

२४ सितम्बर १९४५

सबसे सुन्दर समुद्र
अभी तक लांघा नहीं गया.
सबसे सुन्दर बच्चा
अभी बड़ा नहीं हुआ.
हमारे सब से सुन्दर दिन
अभी देखे नहीं हमने.
और सबसे सुन्दर शब्द जो मैं तुमसे कहना चाहता था
अभी कहे नहीं मैंने ...

२५ सितम्बर १९४५

नौ बजे.
गजर बजा शहर के चौराहे पर
किसी भी क्षण बन्द हो जाएंगे वार्ड के दरवाज़े.
इस बार कुछ ज़्यादा ही लम्बी खिंची जेल:
... आठ साल.
जीना उम्मीद का मामला है मेरी प्यारी.
जीना
एक संगीन मामला है
तुम्हें प्यार करने की तरह

२६ सितम्बर १९४५

उन्होंने हमें पकड़ लिया,
उन्होंने हमें तालाबन्द किया:
मुझे दीवारों के भीतर,
तुम्हें बाहर.
मगर यह कुछ नहीं.
सबसे बुरा होता है
जब लोग - जाने - अनजाने -
अपने भीतर क़ैद्ख़ाने लिये चलते हैं ...
ज़्यादातर लोग ऐसा करने को मजबूर हुए हैं,
ईमानदार, मेहनती, भले लोग
जो उतना ही प्यार करने लायक हैं
जितना मैं तुम्हें करता हूं ...

३० सितम्बर १९४५

तुम्हारे बारे में सोचना सुन्दर है
और उम्मीद भरा
जैसे सुनना दुनिया की सबसे बढ़िया आवाज़ को
गाना सबसे प्यारा गीत.
मगर उम्मीद काफ़ी नहीं मेरे लिये:
मैं अब सिर्फ़ सुनते ही नहीं रहना चाहता,
मैं गाना चाहता हूं गीत ...

६ अक्टूबर १९४५

बादल गुज़रते हैं लदे हुए ख़बरों से.
मैं मसलता हूं वह ख़त हाथों में जो आया ही नहीं.
मेरा दिल है मेरी पलकों की कोरों पर.
असीसता पृथ्वी को जो विलीन होती जाती दूरी में.
मैं पुकार डालना चाहता हूं - "पि रा ये !
पि रा ये !"

Sunday, April 27, 2008

९-१० रात्रि की कविताएं: भाग १


नाज़िम हिकमत का जन्म १९०१ में तुर्की में हुआ था और १९६३ में सोवियत रूस में उन की मौत . कुल ६२ साल की उम्र में से अड़तालीस साल उन्होंने कविताएं लिखीं. इस कावयमय जीवन के साथ साथ उनका जीवन संघर्ष भी चलता रहा. बहुत छोटी वय में क्रांतिकारी के रूप में चिन्हित कर लिए गए नाज़िम को कुल १८ साल जेल में काटने पड़े और १३ सालों तक वे एक से दूसरे देश निर्वासन में भटका किये.


दुनिया भर की भाषाओं में अनूदित किये जाने के बावजूद उनकी कविता उनकी मातृभूमि में प्रतिबंधित रही. नाज़िम की कविता की ताक़त जनता और सिद्धान्त के प्रति उनकी उनकी उत्कट आस्था में निहित है. यही कारण रहा कि उनकी कविता दुनिया भर में चर्चित हुई और पसंद की गई. नाज़िम हमारे समय के एक बड़े मार्गदर्शक कवि हैं.


नाज़िम के कुछ महान अनुवाद हमारे कबाड़ख़ाने के प्रमुख श्री वीरेन डंगवाल द्वारा किये गए थे और वर्ष १९९४ में 'पहल' द्वारा एक विशेष पुस्तिका के रूप में छपे थे. मैं आज से अनुवादों की उस श्रृंखला की शुरुआत यहां करने जा रहा हूं. आज प्रस्तुत है नाज़िम की प्रेम कविताओं की एक सीरीज़ का पहला हिस्सा:



९-१० रात्रि की कविताएं - एक


(इस श्रृंखला का शीर्षक जेल में रात नौ बजे बत्ती बुझने के समय से संबंधित है.हिकमत ने अपनी पत्नी पिराये* से वायदा किया था कि इन क्षणों में वे सिर्फ़ उसी के बारे में सोचेंगे और उसी को संबोधित कर लिखेंगे. *पिराये नाज़िम की दूसरी पत्नी थीं)


कितना खुशनुमा तुम्हारे बारे में सोचना
मौत और जीत की खबरों के बीच
जेल में
जब कि मैं चालीस पार ...


कितना सुन्दर तुम्हारे बारे में सोचना:


तुम्हारे हाथ सुस्ताते नीले कपड़े पर
तुम्हारे बाल घने-भारी और मुलायम
जैसे मेरे प्यारे इस्तांबूल की धरती ...


तुम्हें प्यार करने का सुख
गोया एक दूसरा शख़्स है मेरे भीतर ...
जिरेनियम की पत्तियों की तीख़ी महक मेरी उंगलियों में एक धुपैली ख़ामोशी,
और देह की पुकार एक गर्म
गहरा अंधेरा
चमकीली सुर्ख़ रेखाओं से द्विभाजित ...


कितना सुन्दर तुम्हारे बारे में सोचना,
तुम्हारी बाबत लिखना,
जेल में बैठे तुम्हें याद करना:
इस या उस दिन फ़लां - फ़लां जगह तुमने जो कहा,
शब्द ठीक-ठीक वही नहीं
मगर उनके आभामण्डल की दुनियां ...


कितना सुन्दर तुम्हारे बारे में सोचना!
मुझे लकड़ी से गढ़ना चाहिये तुम्हारे लिये कुछ -
कोई बक्सा
कोई छल्ला -
और बुन देना चाहिये क़रीब तीन मीटर उम्दा रेशम
और कूद कर
तनते
और झकझोरते अपनी खिड़की के लौह सींखचे
मुझे चिल्ला देनी चाहिये वे बातें जो मैं तुम्हारे लिये लिखता हूं
दुग्ध - धवल नील स्वतंत्रता के लिये ...


कितना सुन्दर तुम्हारे बारे में सोचना:
मौत और जीत की ख़बरों के बीच
जेल में
जबकि मैं
चालीस पार !

Friday, April 25, 2008

परवीन सुल्ताना: रागेश्री

गरमियां चढ़ना शुरू होती हैं और मुझे परवीन सुल्ताना की आवाज़ याद आने लगती है. पता नहीं ऐसा क्यों होता है पर बाहर जितनी ज़्यादा गरमी पड़ने लगती है मैं इसी अद्वितीय आवाज़ की शरण में पहुंच जाता हूं. कल इस कदर गर्मी थी. उफ़!

दूसरा माफ़ीनामा:

पहले सिद्धेश्वर को तकलीफ़ हुई गाना अपलोड करने में अब आज जब मैंने एक नया प्रयोग करना चाहा तो वह भी फ़ेल हो गया। इस पोस्ट में संगीत चढ़ा चुकने के बाद मैं देख रहा हूं कि मेरे कम्प्यूटर पर तमाम फ़ॉन्ट्स अजीब से हो गए हैं। लगातार दूसरी बार, सिर्फ़ तकनीकी कारणों से आप लोगों को परेशानी उठानी पड़ी - क्षमाप्रार्थी हूं। लाइफ़लॉगर के ठीक होते ही या हुछ और समाधान मिलते ही आपको इस पोस्ट पर परवीन सुल्ताना का गायन सुनने को मिलेगा।

.....तो मेरे हक़ में दुआ करोगे !


कल रात एक पोस्ट लगाई-'सावन झरी लागे ला धीरे-धीरे' ,रत्ना बसु की गायकी ने बड़ा प्रभावित किया है उसी को सबके साथ बांटना चाहता था. बाद में तमाम तरह की परेशानियों के चलते उस पोस्ट को हटाना पड़ा.वह पोस्ट 'ब्लागवाणी'पर दीख तो रही थी,पर 'कबाड़खाना' पर गायब थी.हमारे बहुत से चाहने वाले वहां पहुंचे होंगे,उन्हें परेशानी हुई ,सो माफी,क्षमा, खेद..

लाइफलागरवा ने बड़ा दुख दीना
रात-रात भर अंखियां फोड़ीं,छोड़ा खाना पीना
पेस्ट-डिलीट में आया भैया मुझको खूब पसीना
सुबह -सुबह है काम पे जाना यही सोच के सोया
ढ़ंग न आया ,या है गड़बड़ मेरा काम न होया !

शाम को एक बार फिर कोशिश करूंगा,अभी तो माफी 'कबाड़खाना' के सभी कबाड़ियों और चाहने वालों से,हमसे भूल हो गई हमका माफी दै दो!अशोक दद्दा,सब आपका ही सिखाया ठैरा,कहीं एकाध सबक बाकी रह गया है शायद!आपने बाबा का शेर लगाया है,बहुत बढ़िया . बाकी सब ठीक-ठाक है.बाबा मीर तक़ी मीर मुझे भी याद रहे है.पेश है यह शेर-

ग़मे मुहब्बत से 'मीर'साहब बतंग हूं मैं ,फ़क़ीर हो तुम
जो वक्त होगा कभी मुसाइद तो मेरे हक़ में दुआ करोगे
!
------
बतंग = तंग,परेशान / मुसाइद = शुभ, अच्छा, अनुकूल

वही है रोना, वही है कुढ़ना

ब्लॉगवाणी पर कबाड़ख़ाने की नई पोस्ट तो नज़र आ रही है लेकिन पोस्ट असल में हटा ली गई है. सिद्धेश्वर सिंह हमें रत्ना बसु की आवाज़ सुनाने वाले थे पर शायद लाइफ़लॉगर में कोई दिक्कत के कारण ऑडियो सुनाई नहीं दे रहा था.

उम्मीद करनी चाहिए कि कल को पहली फ़ुरसत में वे हमें इसका आनन्द पहुंचाएंगे.

फ़िलहाल, तब तक के लिए मेरा बेहद पसन्दीदा बाबा मीर तक़ी मीर का एक शेर पेश है:

वही है रोना, वही है कुढ़ना, वही है सोज़िश जवानी की सी

बुढ़ापा आया है इश्क़ ही में, प मीर तुमको न ढंग आया

Thursday, April 24, 2008

मुझे बेहतर लगती है सामान्य पोशाकें पहने लोगों की धरती

सम्भावनाएं

-विस्वावा शिम्बोर्स्का

मुझे बेहतर लगती हैं फ़िल्में
मुझे बेहतर लगती हैं बिल्लियां
मुझे वार्ता नदी के किनारे के बांज बेहतर लगते हैं
मुझे दोस्तोव्स्की से डिकेन्स बेहतर लगता है
मुझे बेहतर लगता है मेरा लोगों को पसन्द करना
बजाय मेरा पसन्द करना मानवता को
मुझे बेहतर लगता है सुई-धागा पास रखना कभी ज़रूरत पड़ने के वास्ते
मुझे हरा रंग बेहतर लगता है
मुझे बेहतर लगता है यह न सोचना
कि कारण को दोष दिया जाए हर बात के लिए.
मुझे बेहतर लगते हैं अपवाद
मुझे जल्दी निकल पड़ना बेहतर लगता है
मुझे बेहतर लगता है डॉक्टरों के साथ किसी और विषय पर बातें करना
मुझे बेहतर लगते हैं पतली रेखाओं वाले पुराने चित्र.
मुझे बेहतर लगती है कविता लिखने की निस्सारता
कविता न लिखने की निस्सारता से
मुझे बेहतर लगती हैं, जहां तक प्रेम का संबंध है, वे जयन्तियां
जिन्हें हर दिन मनाया जा सकता है.
मुझे बेहतर लगते हैं वे नैतिकतावादी
जो कोई वादा नहीं करते मुझसे
मुझे बेहतर लगती है ईर्ष्यापूर्ण दयालुता बजाय
अति विश्वासपूर्ण दया के.
मुझे बेहतर लगती है सामान्य पोशाकें पहने लोगों की धरती.
मुझे जीते जा चुके देश बेहतर लगते हैं
बजाय जीत रहे देशों के.
मुझे बेहतर लगता है कुछ विषयों पर आपत्ति करना.
मुझे अव्यवस्था का नर्क बेहतर लगता है
व्यवस्था के नर्क से.
मुझे ग्राइम्स की परीकथाएं बेहतर लगती हैं
बजाय अखबारों के मुखपृष्ठों के.
मुझे बेहतर लगती हैं बिना फूलों के पत्तियां
बजाय बिना पत्तियों के फूलों के.
मुझे बेहतर लगते हैं बिना पूंछ काटे गए कुत्ते.
मुझे हल्के रंग की आंखें अच्छी लगती हैं
क्योंकि मेरी आंखें गहरी हैं.
मुझे बेहतर लगती हैं डेस्क की दराज़ें
मुझे बेहतर लगती हैं वे बहुत सी चीज़ें
जिनका मैंने यहां ज़िक्र नहीं किया है
बजाय उनके जिन्हें मैंने अनकहा छोड़ दिया है.
मुझे ख़ाली शून्य बेहतर लगते हैं
बजाय उनके जो संख्याओं के पीछे लगे होते हैं.
मुझे कीट-पतंगों का युग बेहतर लगता है सितारों के युग से.
मुझे लकड़ी पर दस्तक देना बेहतर लगता है.
मुझे बेहतर लगता है यह न पूछना कि कितनी देर और कब.
मुझे बेहतर लगता है ध्यान में रखना इस संभावना को
कि हमारे अस्तित्व के पास, बने रहने के अपने कारण होंगे.

एक अस्तित्वहीन हिमालयी अभियान से नोट्स

एक अस्तित्वहीन हिमालयी अभियान से नोट्स

-विस्वावा शिम्बोर्स्का

तो ये रहा हिमालय.
चन्द्रमा तक दौड़ते पर्वत.
उनके प्रारम्भ के क्षण आकाश के
आश्चर्यजनक उघड़े हुए कैनवस पर दर्ज़.
बादलों के रेगिस्तान में गोदे गए छिद्र.
कहीं भी नहीं घोंपे हुए.
प्रतिध्वनि: एक धवल निःशब्दता.
शान्ति.

येती, यहां हमारे पास हैं बुधवार,
डबलरोटी और वर्णमाला.
दो दूनी दो चार होता है
यहां लाल होते हैं ग़ुलाब
और बनफ़शा नीले.

येती, वहां हम केवल अपराधों पर ही आमादा नहीं हैं.
येती, वहां हर सज़ा का मतलब
मौत नहीं होता.

उम्मीद हमें विरासत में मिली है -
विस्मृति का उपहार.

तुम देख सकते हो हम किस तरह
नया जीवन रचते हैं खण्डहरों के बीच

येती, हमारे पास शेक्सपीयर है
येती, हम पत्ते खेलते हैं
और वॉयलिन बजाते हैं. रात होने पर
हम बत्तियां जलाते हैं, येती!

ऊपर यहां न चन्द्रमा है न धरती
जम जाते हैं आंसू
ओह येती, तुम अर्ध चन्द्रमानव
लौट आओ, ज़रा फिर से सोचो!

हिमस्खलन की चार दीवारों के भीतर से
मैंने यह पुकार कर कहा येती से,
अनन्त बर्फ़ पर
पटकते हुए अपने पैर
गरमाहट के लिए.

हमारे सांपों ने त्याग दी है अपनी बिजली

एक आकस्मिक मुलाकात

- विस्वावा शिम्बोर्स्का

हम एक दूसरे के साथ अतिशय शालीनता के साथ व्यवहार करते हैं
हम कहते हैं बड़ा अच्छा लगा आपसे मिलकर .


दूध पीते हैं हमारे चीते
धरती पर चलते हैं हमारे बाज़
हमारी शार्क मछलियां डूब चुकी हैं
खुले पिंजरों के परे उबासी लेते हैं हमारे भेड़िये .


हमारे सांपों ने त्याग दी है अपनी बिजली
हमारे लंगूरों ने अपनी कल्पना की उड़ान;
हमारे मोरों ने छोड़ दिया है अपने पंखों को
हमारे केशों से काफ़ी पहले उड़ गए थे चमगादड़ .


हम ख़ामोश पड़ जाते हैं वाक्य के बीच में
बस मुस्कराते हैं,कोई नहीं कर सकता हमारी मदद .


हमारे मनुष्यों को
यह तक नहीं मालूम कि एक दूसरे से बात कैसे की जाए.

मुझे उस आदमी के भय पर यकीन है जो महान खोज करेगा


विज्ञान, दर्शन, राजनीति और स्मृति विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविताओं में नए और नायाब अर्थों के साथ प्रकट होते हैं और चीज़ों को देखने की हमें एक अद्वितीय दृष्टि प्राप्त होती है. विस्वावा शिम्बोर्स्का की कुछ कविताएं आप पहले भी समय-समय पर आप यहां पढ़ते रहे हैं. नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित हमारे समय की इस बहुत बड़ी कवयित्री की एक और कविता प्रस्तुत है. आज आप को समय-समय पर शिम्बोर्स्का की कुछेक और कविताएं भी यहां कबाड़ख़ाने में पढ़ने को मिलेंगी.

खोज

मुझे महान खोज पर यकीन है
मुझे उस आदमी पर यकीन है जो महान खोज करेगा
मुझे उस आदमी के भय पर यकीन है जो महान खोज करेगा
मुझे यकीन है सफ़ेद पड़ते उसके चेहरे पर
उसकी बेचैनी पर, ठण्डे पसीने से भीगे उसके ऊपरी होंठ पर
मुझे उसके नोट्स के जलने पर यकीन है
उनके राख में बदलने और
उनके आखिरी टुकड़े के जल चुकने पर यकीन है
मुझे संख्याओं के बिखराए जाने पर यकीन है
उन्हें बग़ैर किसी पश्चाताप के बिखराए जाने पर
मुझे आदमी की हड़बड़ी पर यकीन है
उसकी गति की सुघड़ता पर
और उसकी मुक्त इच्छाशक्ति पर यकीन है
मुझे दवा की गोलियों के टूटने पर यकीन है
द्रवों के उड़ेले जाने पर
और किरणों के बुझ जाने पर यकीन है
मैं पक्का विश्वास करती हूं कि इस सब का अन्त भला होगा
कि ऐसा होने में बहुत देर नहीं हो जाएगी
और यह कि बिना किसी प्रत्यक्षदर्शी के सब कुछ घटेगा
मुझे पक्का मालूम है कि कोई नहीं जान पाएगा असल में क्या हुआ था
न कोई पत्नी, न कोई दीवार,
वह चिड़िया भी नहीं जो ऊंची आवाज़ में गाती है
मुझे चीज़ों में हिस्सा न लेने पर यकीन है
मुझे तबाह ज़िन्दगानियों पर यकीन है
मुझे वर्षों की बर्बाद मेहनत पर यकीन है
मुझे उस रह्स्य पर यकीन है जिसे कोई शख्स अपनी कब्र तक ले जाता है
मेरे लिए इन शब्दों की ऊंची उड़ान तमाम कानूनों के परे है
जिसके वास्ते मुझे वास्तविक उदाहरणों की ज़रूरत नहीं पड़ती
मेरा यकीन है ठोस, अन्धा और निराधार.

Tuesday, April 22, 2008

चंद्रकांत देवताले

अशोक ने पिछले दिनों देवताले जी की एक कविता लगाई थी जो माँ के बारे में थी - मैं बेटी के बारे में लिखी एक कविता लगा रहा हूँ !

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता !

तुम्हारी निश्चल आंखें
चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
जरूर दिखायी देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों -सी

दुनिया भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वां नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बगीचे की दुनिया में तुम अव्वल हो
पहली कतार में मेरे लिए

मुझे माफ करना
मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था
मेरी छाया के तले ही
सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी
तुम्हारी

अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो
मैं खुश हूं सोचकर
कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई !

प्रेम, गिलहरी और गाय

यह हर किसी के नसीब में नहीं होता कि उसे सुबह सुबह उठा कर उसकी भाषा का कोई बड़ा कवि अपनी नवीनतम कविता का पहला ड्राफ़्ट पढ़ कर सुनाए और इसरार करने पर फ़ोन पर ही लिखा भी दे.

मेरे साथ अभी सुबह सुबह ऐसा ही हुआ.

जब जगूड़ी जी ने ये दो कविताएं मुझे सुनाईं तो मुझे लगा कि यह कवि आयु के साथ साथ और बड़े विषयों की तरफ़ बढ़ रहा है जो हिन्दी में बहुत देखा नहीं जाता. जगूड़ी जी न सिर्फ़ एक कवि के रूप में मेरे पसंदीदा हैं, एक शानदार और खुले-फ़क्कड़ इन्सान के रूप में मैंने उन्हें कभी अपना हमउम्र समझा है, कभी गुरू माना है, कभी बड़ा भाई और कभी पितासदृश. एक सिपाही की मामूली नौकरी से जीवन शुरू करने वाले जगूड़ी जी के अनुभवों का संसार बहुत विस्तृत है और ज्ञान की उनकी कोठरियों तलक बिना सेंध मारे नहीं पहुंचा जा सकता. मैं पिछले कई वर्षों से उनसे एक औपन्यासिक या संस्मरणात्मक गद्य हिन्दी समाज को देने की गुज़ारिश कर चुका हूं.उम्मीद है ऐसा जल्द होगा. आमीन!

कबाड़ख़ाने के पाठक पहले भी जगूड़ी जी को पढ़ चुके हैं. साहित्य अकादमी पुरुस्कार से सम्मानित पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी जी की दो बिल्कुल ताज़ा और अप्रकाशित कविताएं आपके लिए खा़सतौर पर:

1

प्रेम


प्रेम ख़ुद एक भोग है जिसमें प्रेम करने वाले को भोगता है प्रेम
प्रेम ख़ुद एक रोग है जिसमें प्रेम करने वाले रहते हैं बीमार
प्रेम जो सब बंधनों से मुक्त करे, मुश्किल है
प्रेमीजनों को चाहिये कि वे किसी एक ही के प्रेम में गिरफ़्तार न हों
प्रेमी आएं और सबके प्रेम में मुब्तिला हों
नदी में डूबे पत्थर की तरह
वे लहरें नहीं गिनते
चोटें गिनते हैं
और पहले से ज़्यादा चिकने, चमकीले और हल्के हो जाते हैं

प्रेम फ़ालतू का बोझ उतार देता है,
यहां तक कि त्वचा भी.


2


गिलहरी और गाय के बहाने


कौन नहीं जानता ये अलग प्रजातियों के प्राणी हैं
पर एक दूसरे से काम लायक जो समाज बनाया जाता है
यह कोई देवताओं से नहीं बल्कि उनके प्रति मनुष्य की श्रद्धा से सीखे
तो नतीज़े कुछ और निकलेंगे

गिलहरी को मनुष्य पालतू नहीं बना सका या बनाना नहीं चाहता था
क्योंकि वह गाय जैसी दुधारू नहीं हो सकती
अगर होती भी तो आदमी कभी उसे दुह नहीं पाते

लतखोर गाय से लाख गुना चंचल है वह
एकदम पारे जैसी
पर पारे की चंचलता पारे को सिर्फ़ लुढ़का सकती है, छितरा सकती है
पारा अपने पैरों से पेड़ पर उतर-चढ़ नहीं सकता

गाय में भी एक ख़ास गाय है हिमालय की चंवरी गाय
जो संभवतः हूणों और खसों के साथ आई थी
जिसके बछड़े को याक कहते हैं
-दोनों की पूंछ के बनते हैं चंवर

चलते चलते भी याक स्थूल और स्थिर दिखाई देता है
चंचल गिलहरी की चंवर जैसी पूंछ देख कर
मुझे सुस्त चंवरी गाय और मोटा मन्द याक याद आये
- यह समुद्र देख कर हिमालय याद आने की तरह है

एक धरती की विराट जांघों के बीच आलोढ़ित जलाशय है
दूसरा उसके सिर पर चढ़कर जमा हुआ
-नीलाशय में पीठाधीश्वर,
महाशय श्वेताशय - मीठी नदियों का अक्षय स्रोत

जैसे किसी पहाड़ से भी दोगुनी-तिगुनी उसकी पगडंडी होती है
वैसे ख़ुद से दुगुनी-तिगुनी होती है गिलहरी की पूंछ
जिसके चेहरे और पूंछ में से कौन ज़्यादा चंचल है कुछ पता नहीं चलता
चंचल लहरों से बनी नदी का संक्षिप्ततम शरीर है गिलहरी
- पूंछ के अंतिम बाल तक धुली-खिली


मुंह से दुम तक की स्पंदित लहरियों में गिन नहीं पा रहा मैं एक भी लहर
गिलहरी की चंवराई चंचलता
क्या याक की घंटे जैसी लटकी ध्यानस्थ दुम बन सकती है?
जो अपनी पीठ पर बैठनेवाली मक्खियों को
हमेशा वैसे ही उड़ा देती है
जैसे दुनिया के अनर्थों से दूर रखने के लिये
हम उसे भगवानों पर डुलाते हैं

Monday, April 21, 2008

अलविदा फ़ैन्टम


नैनीताल के बिड़ला विद्यामन्दिर में मेरे पहले प्रधानाचार्य थे श्री एन. सी. शर्मा. बेहद आकर्षक व्यक्तित्व था उनका. स्कूलों में अध्यापकों के उपनाम रखे जाने की अक्षुण्ण परम्परा के चलते मुझसे पहले वाली पीढ़ियों ने उनका नाम फ़ैन्टम रख छोड़ा था. जिस तरह अपनी बहादुरी से कॉमिक वाला फ़ैन्टम दुनिया भर के अपराधियों को सबक सिखाया करता था उससे लगता था कि फ़ैन्टम का कभी भी कोई बाल-बांका नहीं कर सकता. ठीक ऐसा ही हमें अपने महान प्रिंसिपल साहब को देख कर लगा करता था. बीती १४ अप्रैल को उनका देहान्त हो गया. बदक़िस्मती से मुझे यह खबर आज सुबह अपने एक स्कूली साथी से मिली.



नैनीताल की सबसे ऊंची पहाड़ियों में एक शेर का डांडा की चोटी पर है बिड़ला विद्यामन्दिर. जिस साल मैंने वहां छात्रावास में दाखिला लिया था, स्कूल में कुल दो बड़े मैदान थे और एक छोटा. छोटा वाला फ़ील्ड नम्बर थ्री कहलाता था. आज फ़ील्ड नम्बर थ्री अपने आकार के हिसाब से दूसरे नम्बर पर है. हम जूनियर-सीनियर सभी बच्चे शाम के खेलने वाले घन्टे के दौरान इस फ़ील्ड में साप्ताहिक श्रमदान किया करते थे. एक पूरी की पूरी ऊबड़खाबड़ पहाड़ी को खोद कर कुछेक सालों में बाकायदा समतल किया गया और अब इस पर क्रिकेट मैच तक खेले जाते हैं. फ़ील्ड की दास्तान इस लिए बता रहा हूं क्योंकि हमारे फ़ैन्टम गुरूजी ने इस फ़ील्ड पर हर रोज़ श्रमदान किया: जूनियर और सीनियर दोनों के खेलने के घन्टों में और वह भी कई वर्षों तक. हाफ़ पैन्ट पहने शर्मा जी के हाथ में कभी फ़ावड़ा होता था कभी मिट्टी पत्थर ढोने वाली गाड़ी. नैनीताल स्टेशन से बिड़ला विद्यामन्दिर तक जीप चला कर लाने वाले नैनीताल के इतिहास में वे पहले शख़्स थे: यह सन १९७१ की बात है जब भले भले ड्राइवर स्कूल की आधी चढ़ाई तक पहुंचते पहुंचते दम तोड़ दिया करते थे.


वे बढ़िया खिलाड़ी थे, हमारे लिए मां-बाप-अभिभावक सब कुछ थे, और एक महान शिक्षाविद तो ख़ैर थे ही. उनके समय में बच्चों के सर्वांगीण विकास को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता था. आज जब तमाम बड़े पब्लिक स्कूलों में बच्चों के बोर्ड-परिणामों तक ही सारी मेहनत सीमित रहती है, शर्मा जी की कार्यशैली में हर चीज़ के लिए जगह थी. हमारे स्कूल में कारपेन्टरी, लोहे का काम, संगीत, चित्रकला, बाटिक, इलैक्ट्रोनिक्स भी सीखने को मिलता था और खेलने को बॉक्सिंग, जिम्नास्टिक्स जैसे खेल भी. स्कूल की लाइब्रेरी आज भी इलाके की सर्वश्रेष्ठ लाइब्रेरियों में एक है. अपवाद के तौर पर अगर कोई छात्र खेलने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लेता था तो उसके लिए लाइब्रेरी में विशेष व्यवस्था की जाती थी.



बिड़ला विद्यामन्दिर की टीमें शर्मा जी के समय में शहर की तमाम खेल-प्रतियोगिताओं में अव्वल आया करती थीं. उनके कार्यकाल में बिड़ला विद्यामन्दिर ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी भी देश को दिए. खेलों में उनकी रुचि का ही परिणाम रहा होगा कि उनके एक सुपुत्र चारु शर्मा आज देश के मशहूर क्रिकेट कमेन्टेटर हैं. फ़ुटबॉल टीम के बेहद शानदार गोलकीपर चारु भाई हमारे स्कूल की हर टीम में होते थे. १९८२ के एशियाड के दौरान तैराकी की कमेन्ट्री से अपने कैरियर का आगाज़ किया था उन्होंने.



एशियाड के समय की एक घटना याद आती है. एशियाड के समय देश में रंगीन टीवी आया था और ज़्यादातर बच्चे अपने घर जाकर इस का मज़ा लेना चाहते थे. स्कूल प्रिफ़ेक्ट्स और हाउस-कैप्टन्स के मार्फ़त हरेक बात प्रधानाचार्य महोदय के सामने पहुंचाई जाती थी. सुबह की असेम्बली के आखिर में फ़ैन्टम गुरुजी दो-चार मिनट कुछ न कुछ बताया करते थे: कभी कोई प्रेरक घटना, कभी कोई दिलचस्प बात, कभी कोई सूचना और अक्सर कोई लतीफ़ा. हमारे लिये ये दो-चार मिनट दिन के सबसे बहुमूल्य क्षण हुआ करते थे. खैर. जब एशियाड के समय छुट्टी देने का मसला उठा तो असेम्बली खत्म होते ही गुरूजी ने पूछा: "मानसून की छुट्टियों में जिन जिन बच्चों ने वर्ल्ड कप फ़ुटबॉल देखा था, वो अपने अपने हाथ खड़े करें." क़रीब पचास हाथ उठे. जिन जिन ने हाथ खड़े किए थे उन में से एक सीनियर से उन्होंने पूछा: "यूरोप की फ़ुटबॉल और हमारे यहां की फ़ुटबॉल में क्या अन्तर है?" इत्तेफ़ाक़ से सीनियर ने सही उत्तर दिया. "जिन जिन बच्चों ने हाथ खड़े किए हैं, वे सारे कल से छुट्टी पर जा सकते हैं." इस तरह के त्वरित फ़ैसले लेने में उन्हें कलकत्ता में बैठे मैनेजमैन्ट से कुछ नहीं पूछना होता था: ध्यान रहे इस तरह के पब्लिक स्कूलों में आजकल प्रधानाचार्य को एक ईंट तक यहां-वहां करने से पहले मैनेजमेन्ट से अनुमति लेनी होती है.


उन तक कोई भी बच्चा किसी भी तरह की शिकायत ले कर पहुंच सकता था. मैं ख़ुद एक बार लंच के समय मिले चावलों में आये दो पत्थरों को चम्मच में लेकर उनके द्फ़्तर चला गया था. मुझे हैरत हुई उन्हें मेरा नाम मालूम था. उन्होंने मेरे साथ जा कर खाना बनाने वाले स्टाफ़ की ख़बर ली और मेरी याददाश्त में इकलौती दफ़ा हमारे हॉस्टल की मेज़ पर हमारे साथ लंच किया. दूसरे हॉस्टल की मेज़ पर उनकी जगह नियत थी.


लंच के बाद उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुलाया, अपनी अलमारी से मुझे एक चॉकलेट दी और मुझसे मेरी भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछा. मैंने जो कुछ कहा होगा, वह मुझे याद नहीं है मगर फ़ैन्टम गुरुजी ने जो कहा वह आज भी मेरे लिए सबसे बड़ा गुरुमंत्र है. मुझे सलाह देते हुए उन्होंने कहा था: "कैरियर नाम की चीज़ से घबराना कभी मत. वह एक भ्रामक शब्द है. जीवन में वह करना जो तुम्हारा अन्तर्मन तुम्हें करने को बोले. यानी वह करना जो तुम्हें लगे तुम सबसे अच्छा कर सकते हो. मां-बाप, भाई-बहन, गुरु-रिश्तेदार अपने अपने तरीकों से अपनी बात तुम पर लादेंगे. उस फेर में न आना. जब साठ साल के हो जाओगे तब तुम्हारे भीतर कोई पछतावा नहीं होना चाहिये."


१९८३ में वे इन्टरनेशनल पब्लिक स्कूल्स मीट में भाग लेने एक महीने के लिए इंग्लैण्ड गए थे. स्कूल के बच्चों में यह बात फैल चुकी थी कि मैनेजमेन्ट को शर्मा जी से निजात पाने का एक यही तरीका सूझा है. उस एक महीने में कलकत्ता से बिड़ला ग्रुप के कई बड़े अधिकारी स्कूल में आए और कुछ ही समय बाद अफ़वाहें सच निकलीं और शर्मा जी को प्रधानाचार्य का पद त्यागना पड़ा. अपने विदाई समारोह में उन्होंने एक बेहद मार्मिक भाषण दिया और हम सब बच्चे रोने लगे थे. हमें इस बात पर यकीन ही नहीं हो रहा था कि गुरुजी वाकई चले जाएंगे.


गुरुजी चले भी गए और बिड़ला विद्यामन्दिर को उस ज़माने से जानने वाले लोग, छात्र, कर्मचारीगण और अध्यापक इस बात को मानते हैं कि उनके जाने के बाद से हमारा स्कूल वैसी शान फिर अर्जित नहीं कर पाया.


फ़ैन्टम गुरुजी को श्रद्धांजलि.

(फ़ोटो के लिए आदरणीय गुरुजी श्री राजशेखर पन्त का आभार)

Saturday, April 19, 2008

वेस्ट इंडीज़ के ड्रम और हरिप्रसाद चौरसिया जी की बांसुरी का संगम



पंडित हरिप्रसाद चौरसिया ने सन २००२ में कैरिबियाई संगीतकारों के साथ मिलकर एक अलबम तैयार की थी. इस अलबम में कुल बारह कम्पोज़ीशन्स हैं. उन्हीं में से तीन आप की सेवा में प्रस्तुत हैं. पहली का नाम है 'सॉन्ग टू ओचूम'. ओचूम कैरिबियन्स (खा़सतौर पर क्यूबा) और दक्षिण अमेरिका (विशेषतः ब्राज़ील) में पूजी जाने वाली ईसाई धर्म की वर्जिन मैरी के समतुल्य एक देवी. हल्की नीली आंखों वाली यह देवी प्रेम, सौन्दर्य और संपन्नता लाती है. इस देवी के थान में बीन्स और प्याज़ चढ़ाए जाने की परम्परा है.



दूसरी है 'ऑन द वे टू ला हाबाना'. स्पानी भाषा में क्यूबा की राजधानी हवाना को ला हाबाना कहा जाता है.



तीसरी का शीर्षक है 'सॉन्ग टू कामा'. जिस तरह अंग्रेज़ी में योग को 'योगा', धर्म को 'धार्मा' और ईश्वर को 'ईश्वरा' कहे जाने का फ़ैशन है. यहां 'कामा' से अभिप्राय काम से है. संस्कृत वाला काम.

इन सभी में भारतीय बांसुरी के साथ बजते कैरिबियाई ड्रम काफ़ी अलग क़िस्म का प्रभाव पैदा करते हैं

Friday, April 18, 2008

त्रिवेणीः फैज की नज्म,मोमिन की गजल और नूर का स्वर


इस त्रिवेणी में स्नान किया
कल रात काफी देर तक
जब तक कि नींद ने आ नहीं घेरा
और आज दिन भर तमाम कामकाज के बावजूद॥


कविताओं की कोई खास समझ नहीं
काव्यशास्त्र की किताबें कोई खास मदद नहीं करतीं इस बाबत
जिंदगी ही दिखाती-बताती है कविता की राह
संगीत के लय-सुर-ताल को पकड़ने की तमीज नहीं आई
महसूसता हूं बस,केवल आनंद और आह्लाद
अक्सर,कभी-कभी अवसाद में
डुबोने और उबारने का रास्ता भी लगता है यह सब
बस अच्छा-सा लगता है
कविता और संगीत की नदी में अवगाहन...

आप भी सुनें-गुनें
और ठीक समझें तो राय दें
बाकी सब ठीक...


वो जो हममें तुममें करार था तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

वो नए गिले वो शिकायतें वो मजे मजे की हिकायतें
वो हरेक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो

कोई बात ऐसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयान से पहले ही रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

सुनो जिक्र है कई साल का कोई वादा मुझसे था आपका
वो निबाहने का जिक्र क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

कभी हममें तुममें भी चाह थी कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

जिसे आप गिनते थे आशना जिसे आप कहते थे बावफा
मैं वही हूं मोमिन-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

यूं ही ज़रा सी कसक है दिल में, जो ज़ख़्म गहरा था, भर गया वो

गु़लाम अली और आशा भोंसले की जुगलबन्दी में बीसेक साल पहले आया अलबम 'मेराज-ए-ग़ज़ल' मेरे सर्वप्रिय संगीत-संग्रहों में एक है.

ख़ास तौर पर नासिर काज़मी की यह उदासीभरी मीठी ग़ज़ल :

गए दिनों का सुराग़ लेकर, किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो

न अब वो यादों का चढ़ता दरिया, न फ़ुरसतों की उदास बरखा
यूं ही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था, भर गया वो

वो हिज्र की रात का सितारा, वो हमनफ़स हमसुख़न हमारा
सदा रहे उसका नाम प्यारा, सुना है कल रात मर गया वो

वो रात का बेनवा मुसाफ़िर, वो तेरा शायर, वो तेरा नासिर
तेरी गली तक तो हमने देखा था, फिर न जाने किधर गया वो

मां पर नहीं लिख सकता कविता

मां पर नहीं लिख सकता कविता

मां के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊंटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
मां वहां हर रोज़ चुटकी - दो- चुटकी आटा डाल जाती है

मैं जब भी सोचना शुरू करता हूं
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़
मुझे घेरने बैठ जाती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूं

जब भी कोई मां छिलके उतारकर
चने, मूंगफली या मटर के दाने
नन्हीं हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर
थरथराने लगते हैं

मां ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिये
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया

मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा

मां पर नहीं लिख सकता कविता

-चन्द्रकान्त देवताले जी की यह कविता मांओं पर लिखी गई श्रेष्ठतम कविताओं में से एक है : इस पूरे विश्व के साहित्य में: कहीं भी, कभी भी

Thursday, April 17, 2008

गंगा आये कहां से

परसों रात स्टॉकहोम से मेरे प्रिय दोस्त ज़ुबैर का फ़ोन आया. मूलतः बांग्लादेश का रहने वाला ज़ुबैर भारतीय और पाश्चात्य दोनों तरह के शास्त्रीय संगीत का ख़लीफ़ा है और उस के दो-तीन अल्बम आ चुके हैं. वह गायक तो है ही, अपने गाने भी खुद लिखता है. अपने अल्बमों का संगीत निर्देशन भी उसी ने किया है. नैनीताल, हल्द्वानी और दिल्ली से लेकर हमारी पुरानी दोस्ती और आवारागर्दियों के तार स्टॉकहोम और विएना तक बिखरे हुए हैं.

जब हम नैनीताल में कॉलेज में थे, दोस्तों के साथ आधी रातों को अक्सर किलबरी या बारापत्थर की तरफ़ टहलते निकल जाना हुआ करता था. ज़ुबैर के पास उसका गिटार होता था और हमारे पास अपनी जेब के हिसाब से खरीदा हुआ ओल्ड मॉंक की बोतल या अद्धा और कविताओं की कोई किताब.

किसी वीरान जगह पर महफ़िल सजती थी और ज़ुबैर की आवाज़ का जादू अचानक आसपास की हर चीज़ को अपनी गिरफ़्त में ले लिया करता था. अक्सर रात का आखिरी गाना 'चाहे जितना शोर करें ये नदिया के धारे ... ' हुआ करता था. मछुवारों की लोकधुन 'भटियाली' पर आधारित यह गीत मूलतः बांग्लादेश के अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध गायक अलीमुद्दीन ने गाया था. गीत की ख़ूबी यह थी कि इसे दो भाषाओं में गाया गया था.

परसों रात ज़ुबैर ने फ़ोन पर ही इस गीत की दो-एक लाइनें फिर से सुनाईं. कल दिन भर सारा घर तहस-नहस किया पर न तो अलीमुद्दीन की सीडी मिली न ज़ुबैर की. और मन में लगातार 'चाहे जितना शोर करें ये नदिया के धारे ... ' गूंजता हुआ और और बेचैन कर रहा था.

अभी सुबह उठते ही मुझे हेमन्त कुमार का पता नहीं कौन सा गीत याद आने लगा. उस की तलाश जुटा तो एक सीडी पर निगाह पड़ी और मन प्रसन्न हो गया. न मिले अलीमुद्दीन की या ज़ुबैर की सीडी, अपने हेमन्त दा ने भी तो गाया है भटियाली : एक से ज़्यादा बार. फ़िलहाल 'काबुलीवाला' फ़िल्म में गाए उनके इस गीत की धुन सौ फ़ीसदी वही है जो मुझे कल दिन भर हॉन्ट करती रही थी. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि १९६६ में बनी इस फ़िल्म का निर्माण बिमल रॉय ने किया था. हेमेन गुप्त निर्देशक थे और संगीत दिया था सलिल चौधरी ने. बलराज साहनी साह्ब ने काबुलीवाले का रोल किया था.

अब सुनिये हेमन्त दा की आवाज़ में:

Wednesday, April 16, 2008

प्रभु मेरी दिव्यता में सुबह-सबेरे ठंड में कांपते रिक्शेवाले की फटी कमीज़ ख़लल डालती है

प्रभु मेरी दिव्यता में
सुबह-सबेरे ठंड में कांपते
रिक्शेवाले की फटी कमीज़ ख़लल डालती है

मुझे दुख होता है यह लिखते हुए
क्योंकि यह कहीं से नहीं हो सकती कविता
उसकी कमीज़ मेरी नींद में सिहरती है
बन जाती है टेबल साफ़ करने का कपड़ा
या घर का पोछा
मैं तब उस महंगी शॉल के बारे में सोचती हूं
जो मैं उसे नहीं दे पाई

प्रभु मुझे मुक्त करो
एक प्रसन्न संसार के लिए
उस ग्लानि से कि मैं महंगी शॉल ओढ़ सकूं
और मेरी नींद रिक्शे पर पड़ी रहे.

'एक और प्रार्थना' शीर्षक यह कविता अनीता वर्मा की है. अनीता वर्मा जी को आप कबाड़ख़ाने में पहले भी पढ़ चुके हैं. विन्सेन्ट वान गॉग पर उनकी कविता भी यहां लगाई जा चुकी है. बहुत हर्ष का विषय है कि सन २००६ का प्रतिष्ठित बनारसीदास भोजपुरी सम्मान उन्हें उनके कविता संग्रह 'एक जन्म में सब' के लिये दिया गया है. ६ अप्रैल को उनके नगर रांची में उन्हें यह सम्मान हिन्दी के वरिष्ठ कवि श्री लीलाधर जगूड़ी़ द्वारा प्रदान किया गया. समारोह में हिन्दी के अनेक नामचीन्ह समकालीन कवि-आलोचक उपस्थित थे. उस अवसर का एक फ़ोटो मुझे कल अनीता जी के सौजन्य से मेल द्वारा प्राप्त हुआ.


इस अवसर पर कबाड़ख़ाना अनीता जी को बधाई प्रेषित करता है. वे दर असल आज की फ़तवेबाज़ और बगूलाभगत दार्शनिकता का पर्याय बन चुकी अधिकतर हिन्दी कविता से इतर बहुत संवेदनशील और सार्थक रचना करने वाले विरल कवियों में हैं. अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा भी कि कविता उनके लिए जीवन की तरह ही पवित्र, सुंदर और निष्कलुष है.

प्रस्तुत है उनकी एक कविता:

यथास्थिति

आप पहाड़ पर रहते हैं तो आ जाएं नीचे
आप ज़मीन पर हैं तो आइए ऊंचाई पर
पहाड़ की सुगंध क्या साथ आई है आपके
या आप उठा लाए हैं पहाड़
ज़मीन की घास पर न रखें पहाड़
उसे रहने दें यूं ही
घास मिट्टी की उजास है
और पहाड़ नदियों का पिता.

(भूलसुधार: ब्लॉगवाणी में प्रदर्शित किया जा रहा पोस्ट का शीर्षक भूल से ग़लत लग गया. कविता में "रिक्शेवाले की फटी कमीज़ " है, "रिक्शेवाले की नींद" नहीं. क्षमा करें. )

Tuesday, April 15, 2008

वीरेन डंगवाल

SHAMSHER

The night is my mirror
In whose hard coldness is hidden also the morning
Bright, clear.

The seven sages, wetting their beards in the lake
Point at me and smile at each other
Only because I loved
I had to suffer such revenge

Loneliness was the evening star
Solitary
Which I swallowed
Like a sleeping pill but couldn't sleep

Winds, may I dissolve
Streams, spread me out to dry over the broad shoulders of the waterfalls
Leaves, let me, keep up like you, night and day - A soft, trembling stubbornness
Workers, may you be able to say - " This too is us"
Immortality, may I disappear in you
Sticking always in your heart
Like a sweet splinter.


Translated by ASHOK PANDE
(From 'Its been Long Since I Found Anything' - 2005 - Adharshila Publication)

शुभा मुदगल : राग दीपचन्दी


शुभा मुदगल की मधुर वाणी में सुनिये राग दीपचन्दी की एक कम्पोज़ीशन (सावनी ताल)


Monday, April 14, 2008

कैलाश मानसरोवर यात्रा से कुछ और तस्वीरें

कैलाश पर्वत
जौलिंकौंग में कुत्ता

यमद्वार पर याक

नदी चली जाएगी ...

पत्थर और पानी
मानसरोवर और राकसताल

तिब्बत में बस के भीतर तिजारत करती स्थानीय स्त्री
परिक्रमा रत लामा

पर्वत और मेघ
सफ़र के बीच चाय का ठिकाना
बूदी गांव में घराट (पनचक्की)
काली नदी
छतरी झरना

गुंजी गांव से सफ़र की शुरुआत

खच्चरगाड़ी का गाना

'म्यूल ट्रेन' एक पुराना अमरीकी काउबॉय-गीत है जिसे १९४९ में फ़्रैंकी लेन ने गाया था. इसी गाने को उस के बाद बिंग क्रॉस्बी, टेनेसी अर्नी फ़ोर्ड और वॉन मुनरो ने भी अपनी अपनी शैली में प्रस्तुत किया.
अपनी गाड़ी में जुते खच्चरों को हांकता गाड़ीवान बताता चलता है कि उसकी गाड़ी में किस-किस के लिये क्या-क्या सामान लदा हुआ है. मेरे पास टेनेसी अर्नी फ़ोर्ड और वॉन मुनरो की आवाज़ों में यह गीत है. दोनों में बस एक स्टैंज़ा का फ़र्क़ है.


तो देखिये ये साहब क्या-क्या लादे लिए जा रहे हैं, अपने खच्चरों पर चाबुक फटकारते और मौज-मज़े में गाते हुए: किसी के लिए चबाने वाला तम्बाकू, एक काउबॉय के लिए गिटार, एक सुन्दरी के लिये पोशाक, किसी परिवार के लिए सुई-धागा, एक मज़दूर के लिए फावड़ा, घुटनों के दर्द की गोलियां, उदासी से भरा एक ख़त जिसके गहरे रंग वाले कोने कुछ और ही कहानी बता रहे हैं, एक साहब के जूते जिनकी नाप वे पिछली दफ़ा शहर में दे कर आए थे, और मिस्टर ब्लैक नामक पादरी के लिए बाइबिल ...


आपको किशोर दा के गाए 'झुमरू' और ऐसी ही कई फ़िल्मों के गीत याद आ जाएं इसे सुनकर तो हैरत नहीं होनी चाहिये.


पहले सुनिये टेनेसी अर्नी फ़ोर्ड को. ये रही लिरिक:


Mule train (yeah-ha)
Clippity-cloppin' over hill and plain
Seems as how they never stop
Clippity-clop, clippity-clop
Clippity-clippity, clippity-clippity
Clippity-cloppin' along

Mule train (eeh, heahy-ah)
Mule train (weuh)

Clippity-cloppin' on the mountain chain
Soon they're gonna reach the top
Clippity-clop, clippity-clop
Clippity-clippity, clippity-clippity
Clippity-cloppin' along

There’s a plug of chaw tobaccy for a rancher in Corolla;
A guitar for a cowboy way out in Arizona;
A dress of callico for a pretty Navajo.
Get along mule, get along.

Clippity- cloppin' through the wind and rain
A'keep 'em goin' 'til they drop
Clippity-clop, clippity-clop
Clippity-clippity, clippity-clippity
Clippity-cloppin' along

There's cotton thread 'n' needles for the folks way out yonder
A shovel for a miner who left his home to wander
Some rheumatism pills for the settlers in the hills
Get along mule, get along

Clippity-clop, clippity-clop
Clippity-clippity, clippity-clippity
Clippity-cloppin' along
Mule train (I'll skin you, aeah)
Mule train



वॉन मुनरो वाले गाने में "There's cotton thread 'n' needles for the folks way out yonder" वाले स्टैंज़ा के स्थान पर यह है:


There’s a letter full of sadness and it’s black around the border.

A pair of boots for someone who had them made to order.

A Bible in the pack for the Reverend Mr Black.

Get along mule, get along.


आती है बात बात मुझे याद बार बार


फ़रीदा ख़ानम किसी परिचय की मोहताज़ नहीं हैं. 'आज जाने की ज़िद ना करो' आज भी तमाम तरह की शौकिया-पेशेवर गायन महफ़िलों में बज़िद सुना-सुनाया जाता है. दाग़ देहलवी की ग़ज़ल सुनें इस दिलकश आवाज़ में:

आफ़त की शोख़ियां हैं तुम्हारी निगाह में
महशर के फ़ितने खेलते हैं जल्वागाह में

वो दुश्मनी से देखते हैं, देखते तो हैं
मैं शाद हूं कि हूं तो किसी की निगाह में

आती है बात बात मुझे याद बार बार
कहता हूं दौड़ दौड़ के क़ासिद से राह में

इस तौबा पर है नाज़ मुझे ज़ाहिद इस कदर
जो टूट कर शरीक हूं हाल-ए-तबाह में

मुश्ताक इस अदा के बहुत दर्दमन्द थे
ऐ 'दाग़' तुम बैठ गए एक आह में

Saturday, April 12, 2008

क्या यह चोरी है?

ये रहे मोत्ज़ार्ट (सातवीं सिम्फ़नी)






और ये रहे अपने सलिल चौधरी साहब के संगीत में गाते तलत महमूद और लता मंगेशकर फ़िल्म 'छाया' में

आज तुझे देने को मेरे पास कुछ नहीं ... (?)

'जिप्सी किंग्स' फ़्रांस के एक मशहूर शहर आर्लेस से ताल्लुक रखते हैं. ये वही आर्लेस है जो विन्सेंट वान गॉग के जीवन का भी हिस्सा रहा था. स्पानी गृह युद्ध के समय इन लोगों के मां-बाप स्पेन से भाग कर यहां आए थे. मूलतः ये लोग रोमा संगीतकार हैं और दुनिया भर में फ़्लेमेंको के नाम से जाने जाने वाले संगीत के लोकप्रिय संस्करण रुम्बा कातालेना को लोगों के सामने लाने के लिए विख्यात हैं. साल्सा और रुम्बा जैसे पारम्परिक नृत्यों में बजाया जाने वाला संगीत भी उनकी ख़ूबी है.

मुझे ख़ुद ऐसा लगता है कि इस ग्रुप को चलाने वाले ये भाई काफ़ी कुछ अपन जैसे हैं. सुनिये उन्हीं का एक गीत : "कामीनान्दो पोर ला कायेस ज़ो ते वी" माने रास्ते पर चलते हुए मैंने तुझे देखा. यहां इस बात को बताया ही जाना चाहिए कि हमारे महान देश के महान संगीतकार अन्नू मलिक इस धुन को 'तुझे देने को मेरे पास कुछ नहीं'(हो सकता है मैं शब्दों में गड़बड़ा रहा हूं) नामक दो कौड़ी के गाने में अपना बना कर पेश कर चुके हैं.


मजरूह अपनी छाती को बखिया किया बहुत

अपने भाई लोगों की 'मीर' जुगलबन्दी देखकर एक पोस्ट से पहल अब तो लग रहा है कि बाबा मीर तकी 'मीर'के चंद अशआर मैं भी प्रस्तुत
कर ही दूं। सो अर्ज है-


हम जानते तो इश्क न करते किसू के साथ,
ले जाते दिल को खाक में इस आरजू के साथ।


नाजां हो उसके सामने क्या गुल खिला हुआ,
रखता है लुत्फे-नाज भी रू-ए-निकू के साथ।


हंगामे जैसे रहते हैं उस कूचे में सदा,
जाहिर है हश्र होगी ऐसी गलू के साथ।


मजरूह अपनी छाती को बखिया किया बहुत,
सीना गठा है 'मीर' हमारा रफू के साथ.
----
नाजां = गर्वित, रू-ए-निकू = सुन्दर मुख ,हश्र = कयामत , गलू = शोर , मजरूह = घायल

Friday, April 11, 2008

मीर

खेंचा है आदमी ने बहुत दूर आप को
इस परदे में, ख़याल तो कर टुक, खुदा न हो

होगा किसू दीवार के साए में पड़ा

होगा किसू दीवार के साए में पड़ा 'मीर'
क्या काम मोहब्बत से उस आरामतलब को

Thursday, April 10, 2008

एक बेरोज़गार की कविताएं

सुन्दर चन्द ठाकुर हिन्दी के नामी कवि हैं और कबाड़ख़ाने के कबाड़ियों में शुमार है उनका. यह अलग बात है कि आज तक उन्होंने अपने आलस्य के कारण यहां एक भी पोस्ट नहीं लगाई है. ख़ैर! अभी अभी नया ज्ञानोदय में उनकी कुछ कविताएं आई हैं. इन अच्छी कविताओं के शुरुआती पाठकों में मैं रहा हूं सो उनके आलस्य के बावजूद उनकी कविताएं यहां लगा रहा हूं. आशा है वे जल्द ही ख़ुद अपनी तरफ़ से कबाड़ख़ाने को नवाज़ेंगे.

एक बेरोज़गार की कविताएं

चांद हमारी ओर बढ़ता रहे

अंधेरा भर ले आग़ोश में

तुम्हारी आंखों में तारों की टिमटिमाहट के सिवाय

सारी दुनिया फ़रेब है

नींद में बने रहें पेड़ों में दुबके पक्षी

मैं किसी की ज़िन्दगी में ख़लल नहीं डालना चाहता

यह पहाड़ों की रात है

रात जो मुझसे कोई सवाल नहीं करती

इसे बेख़ुदी की रात बनने दो

सुबह

एक और नाकाम दिन लेकर आयेगी.

कोई दोस्त नहीं मेरा

वे बचपन की तरह अतीत में रह गए

मेरे पिता मेरे दोस्त हो सकते हैं

मगर बुरे दिन नहीं होने देते ऐसा

पुश्तैनी घर की नींव हिलने लगी है दीवारों पर दरारें उभर आई हैं

रात में उनसे पुरखों का रुदन बहता है

मां मुझे सीने से लगाती है उसकी हड्डियों से भी बहता है रुदन

पिता रोते हैं, मां रोती है फ़ोन पर बहनें रोती हैं

कैसा हतभाग्य पुत्र हूं, असफल भाई

मैं पत्नी की देह में खोजता हूं शरण

उसके ठंडे स्तन और बेबस होंठ

क़ायनात जब एक विस्मृति में बदलने को होती है

मुझे सुनाई पड़ती हैं उसकी सिसकियां

पिता मुझे बचाना चाहते हैं मां मुझे बचाना चाहती है

बहनें मुझे बचाना चाहती हैं धूप, हवा और पानी मुझे बचाना चाहते हैं

एक दोस्त की तरह चांद बचाना चाहता है मुझे

कि हम यूं ही रातों को घूमते रहें

कितने लोग बचाना चाहते हैं मुझे

यही मेरी ताक़त है यही डर है मेरा.

इस तरह आधी रात

कभी न बैठा था खुले आंगन में

पहाड़ों के साये दिखाई दे रहे हैं नदी का शोर सुनाई पड़ रहा है

मेरी आंखों में आत्मा तक नींद नहीं

देखता हूं एक टूटा तारा

कहते हैं उसका दिखना मुरादें पूरी करता है

क्या मांगूं इस तारे से

नौकरी!

दुनिया में क्या इस से दुर्लभ कुछ नहीं

मैं पिता के लिये आरोग्य मांगता हूं

मां के लिये सीने में थोड़ी ठंडक

बहनों के लिये मांगता हूं सुखी गृहस्थी

दुनिया में कोई दूसरा हो मेरे जैसा

ओ टूटे तारे

उसे बख़्श देना तू

नौकरी!

सितारो

मुझे माफ़ कर देना

तुम्हारी झिलमिलाहट में सिहर न सका

पहाड़ो

माफ़ करना

मुझे सिर उठा कर जीना न आया

पुरखो

मुझ पर ख़त्म होता है तुम्हारा वंश

मेरे जाने का वक़्त हुआ जाता है

मैं खुश हूं कि कोई दुश्मन नहीं मेरा

मुझ नाकारा के पास हैं उदार माता-पिता

इस उम्र में भी पालते-पोसते मुझे

मेरी चिन्ता में ख़ाक होते हुए

वे मर चुके होते तो

ज़िन्दगी कुछ आसान होती.

मैं क्यों चाहूंगा इस तरह मरना

राष्ट्रपति की रैली में सरेआम ज़हर पी कर

राष्ट्रपति मेरे पिता नहीं

राष्ट्रपति मेरी मां नहीं

वे मुझे बचाने नहीं आएंगे.

मैं जानता हूं मैं खोखला हो रहा हूं

खोखली मेरी हंसी

मेरा गुस्सा और प्यार

एक रैली में किसी ने कहा मुझे

उठा लें हथियार

मरना ही है तो लड़ कर मरें

मैं किसके ख़िलाफ़ उठाऊं हथियार

सड़क चलते आदमी ने कुछ नहीं बिगाड़ा मेरा

इस देश में कोई एक अत्याचारी नहीं

दूसरॊं का हक़ छीननए वाले कई हैं

मैं माफ़ ही कर सकता हूं सबको

इतना ही ताक़त बची है अब.

इस साल वसन्त में मेरी बेटी दो बरस की हो जाएगी

ख़ुशी आएगी हमारे घर में भी वसन्त में हम मनाएंगे

विवाह की तीसरी सालगिरह

मेरी बहन ने नौकरी के लिए की है किसी से बात

वसन्त तक मिलेगा जवाब

वसन्त आने में

एक जन्म का फ़ासला है.

उम्मीदो

शुक्रिया तुम्हारा तुम्हीं रोटी बनीं तुम्हीं नमक

ग़रीबी

तुमने मुझे रोटी और नमक बांटना सिखाया

आवारा कुत्तो

पूरी दुनिया जब दूसरे छोर पर थी इस छोर पर तुम थे मेरे साथ

बेघर

शाम के धुंधलके में

भोर का स्वागत करते हुए.

१०

मेरे काले घुंघराले बाल सफ़ेद पड़ने लगे हैं

कम हंसता हूं बहुत कम बोलता हूं

मुझे उच्च रक्तचाप की शिकायत रहने लगी है

अकेले में घबरा उठता हूं बेतरह

मेरे पास फट चुके जूते हैं

फटी देह और आत्मा

सूरज बुझ चुका है

गहराता अंधेरा है आंखों में

गहरा और गहरा और गहरा

और गहरा

मैं आसमान में सितारे की तरह चमकना चाहता हूं.