Tuesday, September 30, 2008

आप किस दिन किस रंग के कागज पर लिखना चाहते हैं ?

१- सोमवार को सफ़ेद कागज पर
२- मंगलवार को लाल कागज पर
३- बुधवार को हरे कागज पर
४- गुरुवार को पीले कागज पर
५-शुक्रवार को सफ़ेद कागज पर
६- शनिवार को नीले कागज पर
७- रविवार को गुलाबी कागज पर

* बाजार में आज तरह - तरह का कागज है, किसिम - किसिम के रंगो वाला लेकिन हर कागज शब्द लिखने के लिए ही बना है.इसी में दोनों की सार्थकता है - कागज की भी और उस पर उकेरे गए अभिव्यक्ति के पतीकों की भी. आदिम मनुष्य से लेकर आज तक के इसान ने जितनी खोजें , जितने आविष्कार किए है उनमें लेखन सबसे बड़ा आविष्कार है एक प्रकार से समस्त आधुनिक आविष्कारों का उत्स और उद्गम.आज के दिन कागज पर बात करते समय भारतेन्दु हरिश्चंद्र की याद आ रही है. उन्होंने मात्र पैंतीस वर्षों (1850-1885) का लघु जीवन जिया परंतु इसी अल्प जीवनावधि में इतना विपुल साहित्य रचा है कि आश्चर्य होता है. कवि, कथाकार, निबंधकार,नाटककार, अनुवादक, संगीतकार,अभिनेता, पत्रकार आदि- आदि रूपों में उन्होंने कितना कागज बरता होगा,यह सोचकर ही पसीना चुहचुहाने लगता है लिखना तो दूर की बात है .

** भारतेन्दु की जीवनी और उनकी रचनाओं को पढते समय कई - कई परते खुलती जाती हैं। उन्होंने अपने समकालीनों और साथियों को ढ़ेर सारे पत्र लिखे हैं. १८७१ की अपनी हरिद्वार यात्रा से लौटने बाद भारतेन्दु ने हरिद्वार के एक पंडे को कविता में पत्र लिखा था जिसका आखिरी दोहा यह था -

'विमल वैश्य कुल कुमुद ससि सेवत श्रीनंदनंद,
निज कर कमलन सौं लिख्यो यह कबिबर हरिचंद.'

उनके पत्रों के नीचे प्राय: यह दोहा लिखा रहता था -

बंधुन के पत्राहि कहत, अर्ध मिलन सब कोय .
आपहु उत्तर देहु तौ , पूरो मिलनो होय ।

बात यहीं खत्म नहीं होती है। भारतेन्दु ने सप्ताह के हर दिन के लिए के लिए अलग - अलग रंग का कागज तय कर रखा था जिसका उल्लेख ऊपर दी गई सूची में किया गया है. इस बारे में वे स्वयं कहते हैं - 'हमने अपने पत्रों को लिखने हेतु सात वारों के भिन्न - भिन्न रंग के कागज और उनके ऊपर दोहे आदि बनाए थे. इसमें लाघव यह था कि बिना वार का नाम लिखै ही पढ़ने वाला जान जाएगा कि अमुक वार को पत्र लिखा हुआ था.' सप्ताह के सभी दिनों के रंगों क जिक्र कर दिया गया है यदि सभी दिनों के दोहों को भी लिखा जाय तो यह पोस्ट कुछ लंबी हो जाएगी इसलिए उदाहरणार्थ केवल रविवार का मंत्र और दोहा प्रस्तुत है -

' भक्त कमल दिवाकराय नम:'
'मित्र पत्र बिनु हिय लहत , छिनहूं नहिं विश्राम ,
प्रफुलित होत कमल जिमि, बिनु रवि उदय ललाम.'

आज आप किस रंग के कागज पर लिखना चाहते हैं ?

*** 'कबाड़खाना' के एक बरस पूरे हो चुके हैं. इस बाबत इस ठिए के मुखिया श्री अशोक पांडे विस्तार से लिख चुके हैं व सभी कबाड़ियों का आभार जताते हुए इस ठिकाने पर आने वाले पाठको - श्रोताओं-दर्शकों के प्रति तहे दिल से शुक्रिया अदा कर चुके है. टिप्पणियां बताती हैं कि हम सबकी साझी मेहनत कुछ हद तक सफल हुई है. यह मौका यह भी जताता - बताता है कि कबाड़ियों के लिखने -पढ़ने-सुनने-गुनने-बुनने का क्रम न केवल जारी रहना चाहिए बल्कि इसकी विविधता को बरकरार रखते हुए बारंबारता को अधिक गतिमान किए जाने की सख्त जरूरत है. अतएव आवश्यक / अनिवार्य / अपरिहार्य है कि हर कबाड़ी अपने -अपने हिस्से का कबाड़ पेश करने में आलस्य और देरी न करे.उम्मीद है कि आप सब अपने इस साथी की गुजारिश पर गौर करेंगे.

आज दिन कौन सा है ? यह बखूबी याद होगा। हो सकता है कि भारतेन्दु बाबू के पत्र लेखन हेतु कागज के रंग के चुनाव से मुतास्सिर होकर आपने अपने लिखने के लिए कागज के रंग का चुनाव कर लिया होगा ? यदि नहीं तो जैसा भी, जिस रंग का भी कागज मिल जाय उसी पर लिखें लेकिन लिक्खें जरूर, रंग तो अपने आप उतर आएगा !

देख लें स्वयं भारतेन्दु 'हिन्दी की उन्नति पर व्याख्यान' में क्या कह गए हैं -

'प्रचलित करहु जहान में निज भाषा करि जत्न,
राज - काज दरबार में फैलावहु यह रत्न।

डा शिवमंगल सिंह सुमन की कविता: आभार

कबाड़खाने के एक साल पूरा होने के उपलक्ष्य में डा शिवमंगल सिंह सुमन (जीवनकालः १९१५-२००२) की लिखी कविता आभार स्वरूप पेश है। शिवमंगल सिंह सुमन को सन् १९७४ में साहित्य अकादमी पुरस्कार और सन् १९९९ में पद्म भूषण से नवाजा गया है।

आभार

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।
जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं,
सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं।
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अंतर
कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर
आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गये व्यथा का जो प्रसाद
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

Monday, September 29, 2008

"तन्हाई" - एक नज़्म : फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़"

बहुत दिनों पहले फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़" की एक नज़्म का अंग्रेज़ी अनुवाद "किस से कहें ?" पर पोस्ट किया था. आज यहाँ पेश है "फ़ैज़" की एक और नज़्म ....... "तन्हाई"

पहले अंग्रेज़ी में अनुवाद, और फिर "तन्हाई" ............. अनुवाद किया है आगा़ शाहिद अली ने. आगा़ शाहिद अली के बारे में संक्षेप में आप उसी पोस्ट पर यहाँ देख सकते हैं


Solitude


Someone, finally, is here ! No, unhappy heart, no one -
just a passerby on his way.

The night has surrendered
to clouds of scattered stars.

The lamps in the halls waver.

Having listened with longing for steps,
the roads too are asleep.

A strange dust has buried every footprint.

Blow out the lamps, break the glasses, erase
all memories of wine. Heart,
bolt forever your sleepless doors,
tell every dream that knocks to go away.

No one, now no one will ever return.



"तन्हाई"





फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार ! नहीं, कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा

ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गु़बार
लड़खडाने लगे ऐवानों में ख्वाबीदा चिराग़
सो गई रास्ता तक - तक के हर इक राहगुज़र
अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिए क़दमों के सुराग़
गुल करो शम्मे, बढ़ा दो मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़
अपने बेख्वाब किवाडों को मुक़फ़्फ़ल कर लो

अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा


राहरौ = राही
ऐवानों में = महलों में
ख्वाबीदा = सोये हुए
मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़ = शराब, प्याला और सुराही
मुक़फ़्फ़ल कर लो = ताले लगा लो

शायरी के मैदान में, कोमल, हरी दूब...महबूब



समय जिन लोगों के साथ सौतेला व्यवहार करता है उनमें से एक हैं रमेश शर्मा ’महबूब’ इन्दौर में रहते हुए नगर पालिक निगम में बरसों मुलाज़िमत की.पूरा जीवन ही ग़रीबी और अभावों की दास्तान रहा. श्रमजीवी और फ़क़ीराना अंदाज़ से ज़िन्दगी बसर करने वाले महबूब को डॉ.शिवमंगलसिंह सुमन जैसे समर्थ वरिष्ठ कवियों का प्रेमपूर्ण सान्निध्य मिला. कविता के साथ महबूब ने हिन्दी ग़ज़ल में भी अजूबे किये. इन ग़ज़लों में ज़िन्दगी,समाज और परिवेश का दर्द चीख़ता सा सुनाई देता है.कहीं कहीं व्यंग्य का टोन भी बख़ूबी मौजूद है महबूब की रचनाओं में.एक शेर मुलाहिज़ा फ़रमाएँ;

यह न प्रकाशित हो पाएगी ख़बर किसी अख़बार में ,
सारी रात नर्तकी नाची अंधों के दरबार में !



वरिष्ठ कवि और महबूब के अनन्य सखा श्री नरहरि पटेल कहते हैं......

‘महबूब' नाम के इन्सानी चोले में एक निहायत नेक और मौलिक रूह बसती है। आधुनिक कविता/शायरी में "महबूब' जैसे संवेदनशील रचनाकार की बड़ी अनदेखी हुई है, क्योंकि अपने समग्र प्रकाशन के लिये उनकी जेब हमेशा ख़ाली रही और मंच पर चमकने-दमकने के लिये उन्हें कोई "जेक' लगाना नहीं आया! आज उन जैसे सीधे-सादे मौलिक क़लमकार में इंसानी करुणा देखते ही बनती है! "महबूब' ने हमेशा ज़िंदगी की क्रूर वास्तविकता और संवेदनहीनता पर बेशक़ीमती रचनाएँ रची हैं। अपने समय के शीर्ष और जुझारू समर्थ कवि बालकृष्ण शर्मा "नवीन' ने जब उन्हें पहली बार सुना तब भरे समारोह में नवीनजी की आँखों से अश्रुधारा बह चली थी। उनके ये आँसू ‘महबूब' की प्रेरणा बने।

‘महबूब' की शायरी में सादगी और गहराई है। सामाजिक प्रदूषणों और उपयोगितावादी तौलिया-संस्कृति के दूषित तटबंधों को निरंतर तोड़ती रही है ‘महबूब' की शायरी। संघर्षरत जीवन जीने वाले इस फ़ाक़ामस्त भावुक शायर की चंद बानगियॉं ख़ुद पता देती हैं कि उनके रचाव में ईमानदारी और अपने समय की बेहाली को दर्शाने की कितनी ताक़त है ! ख़ास बात यह है कि उन्होंने शायरी की किसी पाठशाला या कालेज का कभी मुँह नहीं देखा। शायरी उन्होंने अनुभूतियों की किताब-क़लम से ही पढ़ी-लिखी। सचमुच ‘महबूब' दिखने, लिखने और रहने में मालवा के बाबा नागार्जुन हैं।

कबाड़ख़ाना पर एक अपरिचित काव्य हस्ताक्षर को प्रस्तुत कर मन विशेष ख़ुशी का अनुभव कर रहा है.तसल्ली से यदि आप महबूब की रचनाओं को पढ़ सके तो शायद यही इस संघर्षशील शायर के प्रति एक सच्ची आदरांजली होगी.आपकी टिप्पणियाँ उन तक पहुँचाकर मैं अपने आपको भी धन्य समझूँगा.

(१)
ख़ूबसूरत प्यारी-प्यारी औरतें
द़फ़्तरों में न्यारी-न्यारी औरतें

औरतें कुछ हैं ग़रीबी की शिकार
कुछ नज़र आईं शिकारी औरतें

कुछ तो हैं वी.आय.पी. की सूटकेस
कुछ नज़र आईं सफ़ारी औरतें

साग-भाजी लेके घर जाती हुईं
द़फ़्तरों से थकी-हारी औरतें

द़फ़्तरों में इन दिनों ‘महबूब' जी
जा रहीं घर से हमारी औरतें

(२)
मेहमॉं आएँगे, ख़बर आई है
न नमक है, न घर में राई है

न तो नीचे से ज़ेब में आटा
और न ऊपरी कमाई है

कुर्सियॉं किनके साथ जाएँगी
कुर्सियॉं किनके साथ आईं हैं ?

आप घर आयेंगे, पछताएँगे
न चटाई, न चारपाई है

भूख खाना बनाने बैठी है
पूछती है दियासलाई है ?

मक़्ता ‘महबूब' का लगा होगा
ये ग़ज़ल दर्द ने सुनाई है

(३)
दरख़्तों की कटाई हो रही है।
परिन्दों की बिदाई हो रही है।।

अपाहिज की तरह मौसम खड़ा है।
दिसम्बर में जुलाई हो रही है।।

तऱक़्क़ी आदमी ने इतनी की है।
जहॉं गड्ढे थे खाई हो रही है।।

शहर बदबू से जाना जा रहा है।
शहर भर में सफ़ाई हो रही है।।

दुल्हन बिन ब्याहे अपने घर गई है।
हमारी जगहॅंसाई हो रही है।।

करेंगे दोस्ती कल ख़ूब पक्की।
हमारी हाथापाई हो रही है।।

नहीं ख़ाली है दिल ’महबू’ साहब।
किसी से आशनाई हो रही है।।

(४)
सपने सजा रहा हूँ मैं मछली की आँख में
एक घर बना रहा हूँ मैं मछली की आँख में

आये हो मेरा काम ज़रा देखकर जाना
हीरा बिठा रहा हूँ मैं मछली की आँख में

देखो जो सजावट को तो तारीफ़ भी करना
दुनियॉं सजा रहा हूँ मैं मछली की आँख में

काजल ही मेरे पास है और कुछ भी नहीं है
काजल लगा रहा हूँ मैं मछली की आँख में

देखोगे अगर ग़ौर से हर चीज़ दिखेगी
दुनिया दिखा रहा हूँ मैं मछली की आँख में

’महबूब' कहॉं दिल है हमें भी तो बताओ
हॅंसकर बता रहा हूँ मैं मछली की आँख में

(५)
अब चैन किसको आता है घर छोड़ने के बाद
लगता है घर बुलाता है घर छोड़ने के बाद

उस हमउम्र दरख़्त की यारी भी ख़ूब है
सपनों में आता-जाता है घर छोड़ने के बाद

खुलती थी आँख जागता था घर सुबह-सुबह
कोई नहीं जगाता है घर छोड़ने के बाद

घर सुनता-समझता है मगर बोलता नहीं
यादों के ख़त भिजाता है घर छोड़ने के बाद

यों तो कईं मकान में आये, गये, रहे
कुछ भी नहीं सुहाता है घर छोड़ने के बाद

’महबूब' से मिलने के इरादे हैं आज भी
ख़्वाबों में गुनगुनाता है घर छोड़ने के बाद

एक बरस का हुआ आप सब का साझा कबाड़ख़ाना

तकनीकी रूप से देखा जाय तो इस कूड़मण्डल को बनाए एक साल जुलाई की चौदह तारीख़ को हो चुका था. पर उस रोज़ यानी १४ जुलाई को मैंने तनिक हिचक के साथ अपने परम मित्र आशुतोष उपाध्याय के कहने पर कबाड़ख़ाने का निर्माण किया और एक लाइन भर लिखी: "कबाड़खाने में सभी का स्वागत है."

क़रीब दो माह तक कोई नहीं आया, भाईसाब! मैं अपने अनुवादों की व्यस्तता में इस कदर मसरूफ़ रहा कि उसे भूल ही गया. उस के बाद आशुतोष द्वारा लगातार लतियाये जाने पर २९ सितम्बर २००७ को अल्मोड़ा के बद्री काका का एक विख्यात किन्तु लोकल क़िस्म का क़िस्सा लगाया. इस वजह से मैं आज ही के दिन कबाड़ख़ाने का जनमदिन मानता हूं. ख़ैर, सात या आठ किस्तों में उसे मौज मज़े में लिखने के बाद समझ में ही नहीं आया कि यह क्या कर रहा हूं. अपने जानने वाले दस पन्द्रह कुमाऊंनी मित्रों को उसके बाबत मेल इत्यादि करने का उद्यम किया. सच तो यह है कि मैं तब तक इसे लेकर ज़रा भी संजीदा नहीं था. केवल गपाष्टक-स्टोर बनाने की नीयत थी. साहित्य-अनुवाद इत्यादि के लिए काग़ज़-क़लम की एक अलग दुनिया सालों से बनी हुई थी.

इधर दिमाग का पुनर्भूसीकरण हो चुका था. लतियाये जाने के भाग दो के उपरान्त सवाल पैदा हुआ कि अब क्या करूं इस कबाड़ख़ाने का. ईराक के महाकवि सादी यूसुफ़ के अनुवाद बस ख़त्म ही किये थे. माल रेडी था सो लग पड़ा उसी को चिपकाने. शायद दिल्ली वगैरह के एकाध मित्रों ने फ़ोनफ़ान किये. तब तक मुझे यह नहीं मालूम था कि एग्रीगेटर क्या होता है और यह भी कि कौन-कौन इस वर्चुअल संसार में क्या-क्या कर रहा है.

ठीकठीक याद नहीं पड़ता कब इसे कम्यूनिटी ब्लॉग बनाने का विचार आया. आशुतोष उपाध्याय, शिरीष मौर्य और सिद्धेश्वर सिंह की इसमें बड़ी भूमिका रही. मेरा खोया हुआ अज़ीज़ इरफ़ान पता नहीं कितने सालों बाद जीवन में दुबारा घुस आया. उसके बाद राजेश जोशी, दीपा, भूपेन ... अविनाश, दिलीप मंडल ... पता नहीं क्या-क्या किस क्रम में हुआ. लेकिन अक्टूबर के महीने में इस ब्लॉग पर कुल जमा अट्ठानवे पोस्टें चढ़ीं और कुछेक कमेन्ट भी आये. नए-नए नाम थे कमेन्ट करने वालों के. यानी ब्लॉग एग्रीगेटरों ने कहीं से सुराग लगा कर इसे बाक़ायदा ट्रेस कर लिया था.

इधर आशुतोष ने कबाड़वाद का मैनिफ़ेस्टो यूं लिख मारा:

"दुनिया के सबसे खादू और बरबादू देश अमेरिका की कोख से जन्मा है कबाड़वाद (फ्रीगानिज्म) और बनाना चाहता है इस दुनिया को सबके जीने लायक और लंबा टिकने लायक। कबाड़वादी मौजूदा वैश्विक अर्थव्यवस्था में उत्पादित चीजों को कम से कम इस्तेमाल करना चाहते हैं। फर्स्ट हैण्ड तो बिल्कुल नहीं। ये लोग प्राकृतिक संसाधनों से उतना भर लेना चाहते हैं, जितना कुदरत ने उनके लिए तय किया है। कबाड़वाद के अनुयायी वर्तमान व्यवस्था की उपभोक्तावाद, व्यक्तिवाद, प्रतिद्वंद्विता और लालच जैसी वृत्तियों के बरक्स समुदाय, भलाई, सामाजिक सरोकार, स्वतंत्रता, साझेदारी और मिल बांटकर रहने जैसी बातों में विश्वास करते हैं। दरअसल कबाड़वाद मुनाफे की अर्थव्यवस्था का निषेध करता है और कहता है इस धरती में हर जीव को अपने हिस्से का भोजन पाने का हक है। इसलिए कबाड़वादी खाने-पीने, ओढ़ने बिछाने, पढ़ने-लिखने सहित अपनी सारी जरूरतें कबाड़ से निकाल कर पूरी करते हैं।

मैं समझता हूं हम कबाड़खाने के कबाडियों में भी ऐसा कोई नहीं, जो कबाड़वाद की भावना की इज्जत न करता हो। कबाड़वादी बनना आसान नहीं लेकिन हम सब उसकी इसपिरिट के मुताबिक `बड़ा´ बनने की लंगड़ीमार दौड़ से बाहर रहने के हिमायती रहे हैं।

तो हे कबाडियो! आज कसम खाएं, कबाड़खाने में सहृदयता के बिरवे को हरा-भरा रखने के लिए अपनी आंखों की नमी को सूखने नहीं देंगे। आमीन!"


यह "कारवां बनता गया" टाइप का हिसाबकिताब चल निकला. दिसम्बर में मोहम्मद रफ़ी साहब के बर्थ डे के दिन किन्हीं साहब ने मेरी इस कदर ऐसी-तैसी फेरी कि कबाड़ख़ाने को बन्द कर देने का पूरा फ़ैसला कर लिया. अपने संवेदनशील (मूर्ख?) मन के आगे इस कदर ख़ुद को बेबस पाया कि उन्हीं दिनों शुरू किये गए 'सुख़नसाज़' को एक झटके में मेट दिया. और 'लपूझन्ना' को भी.

अंग्रेज़ी में कहते हैं ना कि "गुड सेन्स फ़ाइनली प्रीवेल्ड" सो आप के सामने है एक साल का हो गया आपका पाला-पोसा आपका ही का यह साझा प्लेटफ़ॉर्म.

कहना न होगा इस दौरान कई-कई शानदार मित्र बने - आधी रातों को टेलीफ़ोन पर बातों का सिलसिला जो चला वो अब तक जारी है. ... नामों की लिस्ट बनाने लगूंगा तो डर है कोई नाम छूट न जाए. सब से बेपनाह मोहब्बत मिली है और इस ने जीवन को नई ऊर्जा से भरा है. पहले साल में छः किताबों का अनुवाद करता था, इस साल बारह निबटाईं. पहले बारह घन्टे काम करता था अब चौदह से सोलह. कई बरसों से स्थगित पड़ा 'लपूझन्ना' आज आप के सामने कबाड़ख़ाने की वजह से है. 'सुख़नसाज़' भी.

बहुत क्या कहूं. लपूझन्ना के लफ़त्तू का डायलॉग चुरा कर कहूं तो कन्फ़ेस करने में मुझे ज़रा भी हिचक नहीं कि कबाड़ख़ाना हम सब के लिए "तत्तान के पीते तुपे धलमेन्दल" का काम करता रहा है और हमारे समय के "अदीतों" की शिनाख़्त करने में मदद भी. यह उम्मीद करनी ही चाहिये कि ऐसा होता रहेगा.

आप सब के स्नेह और प्रोत्साहन के लिए आत्मा तक कृतज्ञता महसूस करता मैं साथी कबाड़ियों की तरफ़ से शुक्रिया कहता हूं.

जै हिन्द! जै हिन्दी भाषा!

Sunday, September 28, 2008

सॉरी, भगत सिंह..सॉरी!

प्यारे भगत सिंह,

आज तुम्हारा एक सौ एकवां जन्मदिन है। 28 सितंबर 2008, दिन रविवार। ये बात मुझे तब पता चली जब मैं अपनी कुछ पुरानी किताबे कबाड़ी वाले को बेचने जा रहा था। हमने तय किया था कि इस वीकएंड पर पिज्जा खाने के लिए पैसे का इंतजाम पुरानी किताबें बेचकर किया जाए। दरअसल महीने का आखिरी है और मेरे क्रेडिट कार्ड की लिमिट पहले ही पार हो चुकी है। ऐसे में फिजूलखर्ची करना समझदारी नहीं। तमाम किताबें और आल्मारी तो पहले ही बेच चुका, पर पत्नी ने कुछ किताबें फिर भी रख ली थीं। खासतौर पर जिन्हें खरीदने के बाद मैंने दस्तखत करके तारीख डाली थी और उसे उपहार में दिया था। ये शादी के पहले की बात है। लेकिन अब दिल्ली के छोटे से फ्लैट में रहते हुए उसे भी समझ में आ गया है कि किताबें जगह काफी घेरती हैं। बच्चों को सन्डे-सन्डे पिज्जा खिलाने का वादा उसे परेशान कर रहा था। यूं भी किताबों के पहले पन्ने पर किए गए मेरे दस्तखत अब खासे बदरंग हो चुके हैं। इसलिए कबाड़ी बुला लिया था। इसी बीच मुझे तुम्हारी जीवनी दिख गई। बी.ए में खरीदी थी। इसमें तुम्हारे लेख भी थे जो कभी मुझे जबानी याद थे। कबाड़ी को सौंपने के पहले मैंने एक बार कुछ पन्ने उलटे तो कहीं दिख गया कि तुम 28 सितंबर 1907 को पैदा हुए थे।

...कबाड़ी करीब ढाई सौ रुपये देकर जा चुका है। पिज्जा का आर्डर दे दिया है। सोचता हूं कि जब तक पिज्जा आता है, तुम्हें एक पत्र लिख दूं । ताकि तुम्हें मेरा किताब बेचना बुरा न लगे। वैसे भी अब मुझे सारी बातें साफ-साफ बता देनी चाहिए। दुनिया काफी आगे बढ़ गई है। बेहतर हो कि तुम भी किसी भ्रम में न रहो, जैसे मैं नहीं हूं।

...तुम सोच रहे होगे कि सूचना क्रांति के दिनों में तुम्हारे जन्मदिन की जानकारी इतनी छिपी क्यों रह गई। गलती मेरी नहीं है। मैंने सुबह चार-पांच अखबार देखे थे और कई न्यूज चैनल भी सर्फ किए थे। तुम कहीं नहीं थे। हां, लता मंगेशकर के जन्मदिन के बारे में जानकारी जरूर दी गई थी। कहीं-कहीं उनका गया ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’... भी बज रहा था लेकिन तुम्हारी तस्वीर नहीं दिखा...या हो सकता है मेरी नजर न पड़ी हो। वैसे कोई छाप या दिखा भी देता तो क्या फर्क पड़ जाता। तुम्हारे बारे में सोचना तो हमने कब का बंद कर दिया है।

... तुम्हें लगता होगा कि तुमने असेंबली में बम फेंककर बहुत बड़ा तीर मारा था। लेकिन आजकल दिल्ली में आए दिन बम धमाके हो रहे हैं और तमाम बेगुनाह मारे जा रहे हैं। ये सारा काम वे कमउम्र नौजवान कर रहे हैं जिन पर तुम कभी बहुत भरोसा जताते थे। कहते थे कि नौजवानी जीवन का बसंत काल है जिसे देश के काम आना चाहिए। एक ऐसा देश बनाने में जुट जाना चाहिए जहां कोई शोषण न हो, गैरबराबरी न हो, सबको बराबरी मिले...वगैरह-वगैरह। लेकिन फिलहाल इन फिजूल बातों से नौजवान अपने को दूर कर चुके हैं। उनका एक तबका अमेरिका में बसने के लिए मरा जा रहा है, दूसरा ऐसा है जिसकी देशभक्ति सिर्फ क्रिकेट मैच के दौरान जगती है। कुछ ऐसे जिन्हें तुम्हारे हैट से ज्यादा ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी अपनी ओर खींच रही है और कुछ इसे हिंदू राष्ट्र बनाने में जुटे हुए हैं। सब एक दूसरे के दुश्मन बन गए हैं और जरा सी बात पर किसी की जान ले लेना उनके बाएं हाथ का खेल बन गया है। तुम अश्फाक उल्लाह खान के साथ मिलकर जो देश बनाना चाहते थे, वो अब सपनों से भी बाहर हो चुका है। बल्कि ऐसी दोस्तियां भी सपना हो रही हैं।

पर तुम इन बातों को कहां समझ पाओगे। तुम तो नास्तिक थे। तुम्हीं ने लिखा था- “मैं नास्तिक क्यों हूं।“… उसमें तुमने ईश्वर को नकारा था। कहा था कि अगर भारत की गुलामी ईश्वार की इच्छा का परिणाम है, अगर करोड़ों लोग शोषण और दमन की चक्की में उसकी वजह से पिस रहे हैं तो वो नीरो है, चंगेज खां है, उसका नाश हो!.....तो सुन लो, न ईश्वर का नाश हुआ, न धर्म का। मुल्ला, पंडित, ज्योतिषी, ई बाबा, ऊ बाबा, अलान बाबा, फलान बाबा सबने मिलकर युद्द छेड़ दिया है। अखबार, न्यूज चैनल, पुलिस, सरकार, सब इस मुहिम में साथ हैं। नौजवानों के बीच तुम कहीं नहीं हो। वे घर से निकलने के पहले न्यूज चैनलों के ज्योतिषियों की राय सुनते हैं। उसी के मुताबिक कपड़ों का रंग और दिशा तय करते हैं। तुम्हारी हस्ती एक तस्वीर से ज्यादा नहीं। उसमें भी घपला हो गया है। तुम लाख नास्तिक रहे हो, लोग तुम्हें सिख बनाने पर उतारू हैं। संसद परिसर में तुम्हारी मूर्ति लगा दी गई है, जिसमें तुम पगड़ी पहने हुए हो। तुम्हारी शक्ल ऐसी बनी है कि तुम्हारे खानदान वाले भी नहीं पहचान पाए। पहचानी गई तो सिर्फ पगड़ी।

और हां, तुम जिस साम्राज्यवाद से सबसे ज्यादा परेशान रहते थे, वो उतना बुरा भी नहीं निकला। तुम तो कहते थे कि विश्वबंधुत्व तभी कायम हो सकता है जब साम्राज्यवाद का नाश हो और साम्यवाद की स्थापना हो। लेकिन जिन्हें साम्राज्यवादी कहा जाता था वे तो बड़े शांतिवादी निकले। वे अशांति फैलाने वालों का सफाया करने मे जुटे हैं। अभी हाल में उन्होंने ईराक और अफगानिस्तान को नेस्तनाबूद करके शांति स्थापित कर दी है। उनकी रुचि अब हमपर शासन करने की नहीं है। वे हमसे अच्छा रिश्ता बना रहे हैं। वे हमें तरह-तरह के हथियार, परमाणु बिजली घर अजब-गजब कंप्यूटर और मोबाइल फोन सौंप रहे हैं। यहां तक कि बेचारे साफ पानी और कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों को भी हिंदुस्तान के गांव-गांव पहुंचाने में जुटे हैं। हम भी उन्हें बड़े भाई जैसा सम्मान दे रहे हैं। बल्कि उनसे बेहतर बातचीत होती रहे, इसके लिए हमने अंग्रेजी को दिल से अपना लिया है। तुम्हारे पंजाब के ही पैदा हुए सरदार मनमोहन सिंह आजकल देश के प्रधानमंत्री हैं। वे बाकायदा लंदन जाकर आभार जता आए हैं कि उन्होंने हमें टेक्नोलाजी दी और अंग्रेजी सिखाई। हम अहसान करने वालों को भूलते नहीं। हम उन्हें अपने खेत सौंपने की भी सोच रहे हैं। वे कहते हैं कि उनके बीज ज्यादा पैदावार देते हैं। थोड़ी गलतफहमी हो गई, इस वजह से कुछ हजार किसानों ने खुदकुशी जरूर कर ली, पर जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा। बड़े भाई ने भरोसा दिलाया है।

...और हां, जिस साम्यवाद की तुम बात करते थे, वो अब किसी की समझ में नहीं आता। हालांकि ऐसी बातें करने वाली कुछ पार्टियां बाकायदा मौजूद हैं। कुछ प्रदेशों में उनका शासन भी है। लेकन फिलहाल वे तुम्हारी तरह किसानों और मजदूरों के चक्कर में नहीं पड़ी हैं। वे एक कार कारखाने के लिए किसानों पर गोली चलाने से नहीं चूकतीं। कुछ ऐसे भी साम्यवादी हैं जो जंगलों में छिपकर क्रांति करने का सपना देख रहे हैं। पर न उन्हें जनता की परवाह है न जनता को उनकी। वैसे जिस रूसी क्रांति और लेनिन का तुम बार-बार जिक्र करते थे, वे अब भूली कहानी बन चुके हैं या फिर इतिहास में दर्ज एक मजाक।
6 जून 1929 को तुमने लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में बयान दिया था कि “क्रांति से तुम्हारा मतलब है कि अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन। धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठा रंगरेलियां मना रहा है और करोड़ों शोषित एक खड्ड के कगार पर हैं, इसे बदलना होगा।“… तो समझ लो कि तुम्हारी बात सुनने वाला कोई नहीं है। भारत में जो कुछ हो रहा है वो भी आमूल परिवर्तन ही है।

... अगर तुम फिर से भारत में जन्म लेकर कुछ करने को सोच रहे हो तो भूल जाओ। कवि शैलेंद्र ने बहुत पहले लिखा था कि “भगत सिंह इस बार न लेना काया भरतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की’...तब ये व्यंग्य लगता था। पर अब सचमुच ऐसा होगा। मेरे इलाके के दरोगा देवीदत्त मिश्र इंस्पेक्टर बनना चाहते हैं। एक बड़े एन्काउंटर स्पेशलिस्ट की टीम में हैं। तुम अगर अपने पुराने सिद्धांतों पर अमल करते मिल गए तो गोली मारते देर नहीं लगाएंगे। अब अंगरेजी शासन नहीं है कि नाटक के लिए ही सही, मुकदमा चलाना जरूरी समझा जाए। मिश्रा जी तुम्हें मारकर शर्तिया प्रमोशन पा लेंगे।

इसलिए जहां हो, वहीं बैठे रहो। मुझे भी अब इजाजत दो। दरवाजे की घंटी बज गई है। शायद पिज्जा वाला आ गया है।

तुम्हारा कोई नहीं

पंकज...

भारत का रहनेवाला हूं भारत की बात सुनाता हूं


महेन्द्र कपूर नहीं रहे.

कल शनिवार की रात बम्बई में दिल के दौरे की वजह से, चौहत्तर साल की आयु में उनका देहावसान हुआ. वे बीते कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे.

९ जनवरी १९३४ को अमृतसर में जन्मे कपूर साहब मोहम्मद रफ़ी की गायकी के बड़े प्रशंसक थे और प्लेबैक सिंगिंग में अपना भाग्य आजमाने १९५० के दशक में बम्बई चले आए थे. बी आर चोपड़ा को उनकी आवाज़ बहुत भाई और उन्होंने महेन्द्र कपूर से 'गुमराह', 'हमराज़', 'धूल का फूल', 'वक़्त' जैसी कालजयी फ़िल्मों के अविस्मरणीय गाने गवाए.

बी आर चोपड़ा के अलावा कई अन्य निर्माता-निर्देशक उनकी आवाज़ के चाहनेवाले थे. जहां उन्होंने मनोज कुमार के लिए 'मेरे देश की धरती सोना उगले' और 'है प्रीत जहां की रीत सदा' जैसे गीतों को स्वर दिया, वहीं 'नवरंग' में 'आधा है चन्द्रमा रात आधी जैसा अमर गीत भी गाया.

मैं उनके गाए मशहूर गानों की फ़ेहरिस्त बनाने या उनका जीवनवृत्त प्रस्तुत करने का जतन नहीं करना चाहता. वह सब आजकल इन्टरनैट पर थोक में पाया जा सकता है. बस इस मौके पर उनकी याद करता हुआ आपको एक पसन्दीदा डूएट सुनाना रहा हूं:



(फ़ोटो: महेन्द्र कपूर व उनके अभिनेता पुत्र रोहन. साभार 'द हिन्दू')

Saturday, September 27, 2008

चांद चुरा के लाया हूं, चल बैठें चर्च के पीछे


चोरी कभी-कभी इतनी खूबसूरत होती है कि कई बार जीवन को, उसमें धड़कते रिश्तों को नए मानी दे जाती है। लगता है जैसे यह चोरी न की होती तो इस योनि में मिला जीवन कितना अकारथ चला जाता। चोरी ने इसे मायने दे दिए। कुछ रंगत दे दी। कुछ खुशबू दे दी। दिल चुराना, नजरें चुराना, काजल चुराना जैसे मुहावरे तो हमारे यहाँ खूब चलते हैं लेकिन यदि कोई अपनी माशूका के लिए चाँद चुरा के लाए तो क्या कहने। यूँ तो चाँद और चाँदनी को लेकर हजार गीतों की रचना की गई है लेकिन चाँद को चुराना और उसके बाद माशूका के साथ चर्च के पीछे और किसी पेड़ के नीचे बैठने की बात करना, कुछ नया है। यानी चर्च के पीछे बैठने को, पेड़ के नीचे बैठने को यह चाँद कोई मायने दे रहा है। सरगोशियों में कुछ रंगत घोल रहा है, जो उसे और भी खूबसूरत बनाती है, और भी मुलायम। जैसे चाँदनी का स्पर्श पाकर ये सरगोशियाँ फूलों की तरह झरती हुईं हमेशा-हमेशा के लिए दिल की गहराइयों में उतर जाएँगी। और यह चाँद ऐसे ही नहीं आ गया है, उसे आशिक ने हासिल किया है, अपनी नाजुक कल्पना से, वह यूँ ही नहीं चला आया है। यह कहने का एक अंदाजभर नहीं है, आशिक की एक अदा भी है। चाहें तो शरारत कह लें, चाहें तो गुस्ताखी। इसमें मजा भी है। गुलजार हमारे लिए कई तरह से चाँद को करीब लाते हैं। चाँद को चुराकर लाते हैं। यूँ तो चुराने को दुनिया में कई चीजें हैं, मगर चाँद को चुराना कुछ अनोखा है। चंद्रमा की कलाएँ हैं, लेकिन चंद्रमा को चुराकर लाना भी चोरी की एक आला दर्जे की कला है।
यह अदा भी है और इस पर मन फिदा हो जाता है। यह गीतकार अपनी माशूका के लिए इस कायनात की सबसे खूबसूरत चीज चुराकर लाया है। हमारे यहाँ चंद्रमा को मन का कारक माना गया है। सुंदर मुखड़े का प्रतीक माना गया है। चाँद-सी मेहबूबा, चाँद-सी दुल्हन, चाँद सी बहू, चाँद-सा मुखड़ा लेकिन यहाँ बात कुछ निराली है। यहाँ कोई उपमा नहीं, कोई मिसाल नहीं, खुद एक पूरा चाँद है। यह चाँद अपने होने से एक जोड़े के होने को, उनके एकांत को, रात की नीरवता को धड़कता हुआ बना रहा है। गीत इन पंक्तियों से शुरू होता है :

चाँद चुरा के लाया हूँ
चल बैठें चर्च के पीछे
जरा गौर फरमाइए। पहली लाइन बहुत सादा है और इसमें एक खबर दी जा रही है। खबर में एक रहस्योद्घाटन है, लेकिन कहने का ढंग चौंकाने का नहीं है बल्कि बात कुछ इस अदा से कही गई है कि यही वक्त है जब इत्मीनान से बैठकर मन की बातें की जा सकें। राहत के पल बिताए जा सकें। कोई नहीं, शोर नहीं, बस रात है और मैं जिसे चुराकर लाया हूँ, वह चाँद है। दूसरी पंक्ति में चर्च के पीछे बैठने की बात है। इस पर भी थोड़ा ध्यान दें। मंदिर नहीं, मस्जिद नहीं, चल बैठें चर्च के पीछे। आज की तारीख में यह कल्पना करना ही एक दहशत से भर देता है कि कोई प्रेमी जोड़ा रात में मंदिर के पीछे, पेड़ के नीचे बैठकर बात कर सके। उन्हें वहाँ से धकेला जा सकता है, भगाया जा सकता है, पीटा जा सकता है और मुँह काला किया जा सकता है। और मस्जिद के पीछे बैठना भी मुश्किल - लाहौलविलाकुवत। इसलिए शायर चर्च के पीछे बैठने की बात करता है। एक तो चर्च प्रेमियों के लिए वह स्पेस है जहाँ वे अपने हाथ में हाथ पकड़े, निगाहों से एक-दूसरे को थामते हुए चलते हैं, आते हैं और बुदबुदाते हुए प्रार्थना करते हैं। मोहब्बत का इजहार करते हैं, कन्फेशन करते हैं। (हिंदी फिल्मों के ऐसे कई सीन और प्रसंग आप यहाँ याद कर सकते हैं) । फिर चर्च एक तरह के एकांत का, नीरवता का स्थापत्य बनाते हैं। एकदम शांत।
वहाँ चारों तरफ एक सात्विक खामोशी पसरी रहती है। प्रकृति की छोटी सी गोदी में धड़कती यह स्पेस प्रेमियों के लिए एक निरपेक्ष जगह हो सकती है। वहाँ पेड़ है जिसके नीचे बैठकर दिल से दिल की बात की जा सकती है। और फिर वहाँ न कोई देखने वाला है और न ही पहचानने वाला। इसीलिए ये पंक्तियाँ हैं-

न कोई देखे, न पहचाने

बैठें पेड़ के नीचे

इसके ठीक बाद माशूका की आवाज आती है और लगता है कि यहाँ बातचीत का एक सिलसिला शुरू हो चुका है। इस हसीन सिलसिले में माशूका एक आशंका व्यक्त कर रही है और लापरवाह प्रेमी से कहा जा रहा है कि- कल बापू जाग गए थे मेरी लाज की सोचो। इस गीत में बापू ही जाग सकते थे क्योंकि शायर यह जानता है कि इस भारतीय समाज में बापू को ही अपनी बेटियों की सबसे ज्यादा चिंता होती है कि बेटी जवान हो गई है।उसका ब्याह करना है, कहीं उसे किसी से मोहब्बत न हो जाए और आखिर में वह दारूण आशंका भी कि कहीं बेटी किसी के साथ भाग न जाए लेकिन प्रेमी में बेपरवाही है और कल की चिंता न करने की और इस इक पल के बारे में, इस पल को जी लेने के बारे में मस्ती से कहता है कि

अरे, जो होना था कल हुआ था

आज तो आज की सोचो

( यहाँ गुलजार साहब का एक और गीत भी याद किया जा सकता है जिसके बोल हैं- आने वाला पल जाने वाला है, हो सके तो इसमें जिंदगी बिता तो, वरना ये पल जाने वाला है।) चांद चुरा के लाया हूं गीत में जब प्रेमिका अपने प्रेमी की बेपरवाह और प्रेम का इसरार करती आवाज सुनती है तो आशंका के बादल छँटते हैं और वह प्रेमी की बात को दोहराती है चाँद चुरा के लाई हूँ चल बैठें चर्च के के पीछे लेकिन दोनों की ख्वाहिश कुछ ज्यादा है, कुछ ज्यादा हसीन है, कुछ ज्यादा रोमांटिक है। वे बस्ती से कहीं दूर निकल जाना चाहते हैं, जहाँ सिर्फ वे दोनों हों। एक दरिया, एक कश्ती, रात और प्रेम करते हुए अपने धड़कते दो दिल। ये एक माहौल है जिसमें दो दिल रहना चाहते हैं। लेकिन यह सब एक ख्वाहिश ही है फिर भी कितनी खूबसूरत। गुलजार जो चाँद लाते हैं, जो दरिया और कश्ती की बात करते हैं, ख्वाहिश की बात करते हैं, वे सब हमारी ही ख्वाहिशें हैं। इस तरह वे चाँद को चुराकर हमारी ख्वाहिशें पूरी करते हैं। यह सिर्फ गुलजार के बूते की बात है कि वे चाँद चुरा के लाते हैं और हमें सौंप जाते हैं। एक हसीन रात हमारे जीवन में उस चाँद के साथ हमेशा के लिए ठहर जाती है। उसी एक रात में, किसी पेड़ के नीचे बैठकर मैंने उस चाँद को एकटक निहारा है। बस उसे ही इस पेंटिंग में चुराकर लाने की एक कोशिश की है। मैं इसे वापस गुलजार साहब को सौंपता हूँ।

राह अन्धेरी बाट न छूटे समझ के क़दम उठाना

कौन देस है जाना, बाबू कौन देस है जाना ... यह गीत अक्सर गुनगुनाते हुए इस के संगीतकार-गायक महान पंकज मलिक की कृतज्ञतापूर्ण याद लगातार बनी रहती है.

१० मई १९०५ को कलकत्ता में मणिमोहन मलिक के घर जन्मे पंकज मलिक ने कलकत्ते के विख्यात स्कॉटिश चर्च कॉलेज में अध्ययन किया. उनके पिता का संगीत की तरफ़ कतई रुझान न था अलबत्ता युवा पंकज को बचपन से ही संगीत आकृष्ट करता था. इत्तफ़ाक से एक पारिवारिक संगीतकार मित्र दुर्गादास बन्दोपाध्याय ने पंकज को गाते हुए सुना तो उन्होंने उसे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में पारंगत बना देने का कार्य करने का फ़ैसला करने में एक क्षण भी नहीं लिया.

बाद में पंकज मलिक ने दीनेन्द्रनाथ टैगोर से रवीन्द्र संगीत की विधिवत दीक्षा ली. इस क्षेत्र में देखते-देखते वे सबसे अधिक जाने-माने गायक-संगीतकार बन गए. उन्हें गुरुदेव की सबसे विख्यात रचनाओं में से कुछ का संगीत रचने का अवसर भी मिला. 'नेमेछे आज प्रोथोम बादोल' उनका पहला रिकॉर्ड था जो १९२६ में रिलीज़ हुआ.

उनके जीनियस ने शनैः शनैः संगीत के तमाम इलाकों में उस्तादी हासिल की को सन १९७३ में दादासाहेब फाल्के सम्मान दिया गया था. वे एक अच्छे गायक के अलावा एक सफल अध्यापक, निर्देशक और अभिनेता थे. प्रमथेश बरुआ की १९३७ में रिलीज़ हुई फ़िल्म 'मुक्ति' ने उन्हें बहुत प्रसिद्धि दिलाई. इस में वे गायक, संगीत निर्देशक और अभिनेता की तिहरी भूमिका में उपस्थित थे.

हिन्दी और बांग्ला फ़िल्मों में अपनी बहुआयामी संगीत प्रतिभा का शानदार प्रदर्शन कर चुके इस अमर संगीतज्ञ को भारतीय फ़िल्म संगीत का पहला "मॉडर्न" संगीत निर्देशक माना जाता है. सारे बड़े पुरुस्कार पा चुके पंकज मलिक को १९७३ में सिनेमा का लब्धप्रतिष्ठ दादासाहेब फाल्के सम्मान दिया गया.

१९ फ़रवरी १९७८ को उनका देहावसान हुआ.



कौन देस है जाना, बाबू कौन देस है जाना
खड़े-खड़े क्या सोच रहा है, हुआ कहाँ से आना

सूरज डूबा चाँद न निकला
बीता समाँ सुहाना
राह अन्धेरी बाट न छूटे
समझ के क़दम उठाना

कौन देस है जाना, बाबू कौन देस है जाना
खड़े-खड़े क्या सोच रहा है, हुआ कहाँ से आना

सास ये आवन-जावन हरदम
यही सुनाती गाना
जीते-जी है चलना फिरना
मरे तो एक ठिकाना

कौन देस है जाना, बाबू कौन देस है जाना
खड़े-खड़े क्या सोच रहा है, हुआ कहाँ से आना

Friday, September 26, 2008

कौन है श्रीधर वाकोड़े?

गीत चतुर्वेदी परम प्रतिभाशाली कबाड़ी हैं - श्रेष्ठ कबाड़ियों की जमात में उनका नाम बेवजह ही नहीं है. कुछ समय पहले उन्होंने अपने ब्लॉग पर एक ज़बरदस्त पोस्ट लगाई थी. उक्त पोस्ट मुझे लगातार हॉन्ट करती रहती है और झूठ नहीं कहता उसका गद्य इस क़दर लुभावना और मर्मभेदी है कि मुझे उसे बार-बार पढ़ने की लत पड़ चुकी है.

यह हो ही सकता है कि मेरा अपना आग्रह बाक़ी लोगों को नागवार गुज़रे पर मैं इतनी बार इस पोस्ट को पढ़ चुकने और उससे आजिज़ न आने के उपरान्त गीत के गद्य की इस शानदार बानगी को कबाड़ख़ाने के पाठकों के सम्मुख रखने के लालच को रोक नहीं पा रहा हूं. ये रही वह असाधारण पोस्ट:


किताब के पहले पन्‍ने पर दस्‍तख़त-सा आदमी


श्रीधर वाकोड़े कौन है, मुझे नहीं पता, पर इसका नाम मैं बरसों से पढ़ता आ रहा हूं। मेरी कई किताबों के शुरुआती पन्नों पर मराठी में उसके दस्तख़त हैं। उसे देखने की इतनी आदत पड़ गई है कि कई बार मैं उसकी तरह दस्तख़त करना चाहता हूं।

अरिहंता ने बताया था कि वह चिकनी का पप्पा है। चिकनी कौन है? उससे बातचीत में पता लगा, आगे किसी बिल्डिंग में रहती है और यहां बस पकड़ने आती है और यहां के लड़के उसे टापने में कोई क़सर नहीं बाक़ी रखते।

अरिहंता कौन है? सिर्फ़ इतना जानता हूं कि मुलुंड चेक नाके के पास उसकी रद्दी की दुकान थी, जो अब वहां नहीं है। उसका असली नाम भी नहीं पता। उसके दुकान का नाम था अरिहंता पेपर मार्ट, तो मेरी स्मृति में उसका नाम यही बस गया है।

मैंने उससे कहा था, मुझे उसके घर ले चलेगा? तो उसे लगा कि मैं भी चिकनी की क़तार में हूं। मैंने कहा, नहीं, उसके बाप के पास? वह बोला, सब लड़की के पीछे और तू बाप के पीछे, सही है बावा।

पर अरिहंता कभी लेकर नहीं गया। मैंने भी फिर कभी पूछा नहीं। श्रीधर वाकोड़े उसके यहां अपनी किताबें बेचता रहा और मैं वहां से उन किताबों को ख़रीदता रहा। यह सिलसिला बारह-तेरह साल पहले शुरू हुआ था। श्रीधर वाकोड़े के दस्तख़त वाली पहली किताब जो मिली थी, वह थी मारकेस की 'नो वन राइट्स टु द कर्नल'। इस तरह उसने मारकेस से परिचय कराया। उस संग्रह की एक कहानी उस वक़्त भी मुझे बहुत पसंद आई थी, वह थी 'ट्यूज़डे सीएस्टा'। वह अब भी मेरी पसंदीदा कहानी है। बाद में मारकेस को और पढ़ा, तो पता चला, वह उनकी भी पसंदीदा है। बर्गमान की 'द मैजिक लैंटर्न' और बुनुएल की 'द लास्ट साय' भी वहीं मिली। 'पिकासो इन इंटरव्यूज़', इनग्रिड बर्गमैन की मराठी में आत्मकथा, मैरी पिकफोर्ड, डगलस फेयरबैंक्स, विवियन ली और क्लार्क गैबल की जीवनियां। और एक नई-नवेली एलन सीली की 'द एवरेस्ट होटल'। इन सबमें श्रीधर वाकोड़े अपनी लचकदार साइन और पेंसिल के निशानों के साथ मौजूद है। जहां दुख और उदासी की सबसे गहरी पंक्तियां हैं, किसी मटमैले पुच्छल तारे की तरह उसकी पेंसिल वहां से ज़रूर गुज़री है। जिन पन्नों पर आंख गीली हो जाए, उन पन्नों को शायद बार-बार पढ़ा गया। उनके किनारे मुड़े हुए रहे होंगे, क्योंकि तिकोना मोड़ अब भी वहां निशान में है। उसकी किताबें उसके और मेरे बीच जाने कैसा रिश्ता बनाती हैं।

वह क्या था, कोई कलाकार या कोई संघर्षरत फिल्मकार या कोई नाटककार, अभिनेता, कोई लेखक-कवि या फिर कोई साधारण पाठक? किसी साधारण पाठक के पास तो ये किताबें मिलने से रहीं। कोई नामचीन रहा होगा, इसमें भी शक है, क्योंकि बिल्कुल पास के अरिहंता के लिए वह सिर्फ़ चिकनी का पप्पा था। फिर क्या था वह? अरिहंता की दुकान रोड वाइडेनिंग में उजड़ गई और अरसे से मुंबई अपने से छूटी हुई है। अब रद्दी की दुकानें भी दिखती नहीं। जो दिखती हैं, उनमें अख़बार, फेमिना, कॉस्मो मिलती हैं, कहीं दबाकर रखी कोई पुरानी डेब या पीबी।

जिन किताबों को कोई भी पढ़ा-लिखा शान से अपनी शेल्फ़ में लगाकर रखे, उन किताबों को वह बाक़ायदा पढ़कर या बरसों संभालकर, एक दिन रद्दी में क्यों बेच आता था? एक दोस्त से यह बात की, तो वह जि़ंदगी और मौत के अद्वैत में लग गया- हर किताब को एक दिन रद्दी की दुकान में जाना होता है।

कई बार लगता है कि वह शब्दों से बाहर निकल गया कोई पात्र है, जो शुरुआती ख़ाली पन्ने पर सिर उचकाकर उपस्थिति दर्ज करा रहा हो। या ड्रामे के ठीक पहले परदा खींचने वाला हाथ है, जिसकी उंगलियों की झलक तक हमको नहीं दिख पाती। या कैमरे की नज़र से छूट गया एक भरा-पूरा लैंडस्केप हो या एडिटिंग टेबल पर कट कर गिर गया कोई दृश्य हो। वह आलमारी से निकलकर फुटपाथ पर पहुंच गई कोई किताब ही रहा हो। मेरी किताबों के बीच वह किसी असहाय किसान की तरह लगता है, जिस पर एक-एक टुकड़ा ज़मीन बेचने का बज्जर गिरा हो। अशोक के बाद कलिंग पर राज करने वाले राजा खारवेल की तरह, इतिहास में जिसके पास कोई जीवन नहीं बचा, हाथीगुफा की दीवारों पर गुदा नाम बचा बस। वैसे ही, श्रीधर वाकोड़े भी कोई जीवन था या सिर्फ़ किताबों पर लिखा हुआ एक नाम?

जब भी किताबी कोना पर जाता हूं, श्रीधर वाकोड़े बेसाख़्ता याद आता है। क्‍या आपकी किताबों में भी कोई श्रीधर वाकोड़े रहता है?

ब्रजेश्वर मदान की दूसरी कविता

ब्रजेश्वर मदान साहेब की एक कविता आप लोग पहले भी कबाड़खाने पर पढ़ चुके हैं। कविता संग्रह जल्द ही छपकर आने वाली है। आज फ़िर उन्होंने एक कविता कबाड़खाने के पाठकों को समक्ष पेश की है। यह कविता सात सितम्बर को किसी खास के लिए जन्मदिन पर लिखी थी। ... विनीत उत्पल

तुम्हारे जन्म दिन पर

हरी है

उस क्षणों की याद

हरी मिर्च की तरह

जब दोपहर

रेस्तरां में

तुम्हारे साथ

खाना खाते

अपने खाने की थाली से

हरी मिर्च उठाकर

रख देता था

तुम्हारी थाली में

तब नहीं

लगता था

की एक हरी मिर्च

के बिना

खाने की पूरी थाली

भी लग सकती है खाली

हो सकती है

एक मिर्च में भी

दुनिया भर की

हरियाली।

ब्रजेश्वर मदान

Thursday, September 25, 2008

मारकेज़: उसके अंधविश्वास, सनकें और रुचियां

बीसवीं सदी के लातीन अमरीकी साहित्य के ख़लीफ़ा और नोबेल पुरुस्कार प्राप्त गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ उर्फ़ गाबो की कुछ व्यक्तिगत सनकें विख्यात हैं. अपने पत्रकार साथी और अंतरंग मित्र प्लीनीयो आपूलेयो मेन्दोज़ा को उन्होंने बहुत सारे इन्टरव्यू दिए थे जो बाद में 'फ़्रैगरेन्स ऑफ़ गुवावा' नाम की प्रसिद्ध पुस्तक के रूप में छपे. इसी पुस्तक के एक दिलचस्प अध्याय का अनुवाद प्रस्तुत है. गाबो के इसरार पर ही इस को जानबूझ कर पुस्तक का तेरहवां अध्याय बनाया गया था.




तुमने एक बार कहा था, 'अगर तुम ईश्वर में यकीन नहीं करते हो तो कम से कम अंधविश्वासी तो बनो' क्या यह तुम्हारे लिए गम्भीर मसला है?

बहुत गम्भीर.

क्यों?

मैं मानता हूं कि अंधविश्वास, या आमतौर पर जो भी इस तरह की चीजों को कहा जाता है प्राकृतिक शक्तियों से संचालित होते हैं जिसे तार्किक विचारशीलता (उदाहरण के लिए पश्चिमी देशों की) ने पूरी तरह अस्वीकार कर दिया है.

चलो सबसे आम उदाहरणों से शुरू करते हैं - तेरह का अंक. क्या तुम मानते हो कि यह दुर्भाग्य लेकर आता है?

मेरे ख्याल से इसका बिल्कुल उल्टा होता है. जानकार लोगों ने इसे एक अपशकुन में तब्दील कर दिया है (अमरीका में होटल बारहवीं से चौदहवीं मंजिल तक जाते हैं) ताकि और लोग इसका फायदा न उठा पाएं और उन्हीं को इसका सबसे ज्यादा लाभ मिले. असल में यह एक भाग्यशाली संख्या है. ऐसा ही काली बिल्लियों और सीढ़ियों के नीचे टहलने के साथ भी है.

तुम्हारे घर हमें हमेशा पीले फूल होते हैं. इसका क्या महत्व है?

अगर मेरे चारों तरफ पीले फूल हों तो मेरे साथ कोई भी गम्भीर घटना नहीं घट सकती. पूरी तरह सुरक्षित होने के लिए मुझे पीले फूल (पीले गुलाब हों तो बेहतर) चाहिए होते हैं और मेरे चारों तरफ स्त्रियां.

मेरेसेदेस (गाबो की पत्नी) हमेशा तुम्हारी डेस्क पर एक गुलाब लगाती है.

हमेशा! कई बार ऐसा भी हुआ है कि मैं काम करना चाह रहा हूं पर कोई भी चीज ठीक नहीं हो रही. मैं पन्ने पर पन्ने फेंके जा रहा हूं. मैं गुलदस्ते को देखता हूं और कारण मेरी समझ में आता है ... कोई गुलाब नहीं. मैं चीखकर एक फूल मंगाता हूं जिसे वे ले कर आते हैं और सब कुछ ठीक से होना शुरू हो जाता है.

क्या पीला तुम्हारा भाग्यशाली रंग है?

पीला भाग्यशाली है पर सोना नहीं, न ही सोने का रंग मैं सोने को हमेशा गू की तरह पहचानता हूं. बचपन से ही मैं टट्टी को नकारता आया हू¡, जैसा एक मनोविश्लेषक ने मुझे बताया था.

`वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड´ में एक पात्र सोने की तुलना कुत्ते की टट्टी से करता है.

हां, जब होसे आरकादियो बुएनदिया धातुओं को सोने में बदलने का नुस्खा खोज लेता है और अपने प्रयोगों के परिणाम अपने बेटे को दिखाता है, वह कहता है, 'यह कुत्ते की टट्टी जैसा दिख रहा है'

तो तुम सोना कभी नहीं पहनते?

कभी नहीं. न मैं घड़ी पहनता हूं, न कोई जंजीर, न सोने की अंगूठी, न कड़ा. न ही तुम मेरे घर सोने की बनी कोई चीज देखोगे.

तुमने और मैंने वेनेजुएला में एक ऐसी चीज सीखी थी जो जीवन में बहुत सहायक सिद्ध हुई है-कुरूचि और दुर्भाग्य के बीच सम्बन्ध! वेनेजुएला के लोगों के पास इस तरह के लोगों, चीजों और प्रवृत्तियों के लिए एक विशेष शब्द है. वे इसे `पावा´ कहते हैं.

हां. यह एक असाधारण सुरक्षा-मैकेनिज्म है जो वेनेजुएला के सामान्य लोगों के विवेक ने नवधनाढ्य वर्ग की कुरूचि के बरखिलाफ खड़ा किया है.

तुमने उन तमाम चीजों की लिस्ट बना रखी है जिनमें `पावा´ होता है, है ना? क्या तुम्हें उनमें से कुछ याद हैं?

हां, कई सारी हैं और सबसे आम - दरवाजे के पीछे बड़े-बड़े शंख ...

घरों के भीतर एक्वेरियम ...

प्लास्टिक के फूल, मोर, कशीदाकारी वाले मनीला शॉल ... लिस्ट बहुत लम्बी है.

तुमने स्पेन के उन नौजवानों का भी जिक्र किया था जो लम्बे काले लबादे पहने रेस्त्राओं में मनोरंजन करते हैं?

छात्रों के म्यूजिकल ग्रुप. बहुत कम चीजें होती हैं जिनमें उनसे अधिक `पावा होता है.

और औपचारिक पोशाक

हां, पर उसके अलग-अलग स्तर हैं. `टेल्स´ में डिनर जैकेट से ज्यादा पर `फ्रॉक कोट´ से कम `पावा´ होता है. इस प्रकार की पोशाकों में केवल ट्रॉपिकल डिनर जैकेट इस लिस्ट में नहीं आती.

तुमने कभी `टेल्स´ पहनी है?

कभी नहीं.

कभी पहनोगे? अगर तुम्हें नोबेल पुरस्कार मिलेगा तो पहननी ही पड़ेगी

मेरे किसी भी उत्सव या अनुष्ठान में शामिल होने की शर्तों में मैंने टेल्स न पहनना रखना ही था. और मैं क्या-क्या कर सकता हूं-`टेल्स´ में इतना अपशकुन होता है.

हमने पावा के और रूप खोजे थे. तुमने एक बार तय किया था कि बिना कपड़े पहने सिगरेट पीने का मतलब दुर्भाग्य नहीं होता जबकि बिना कपड़े पहने टहलते हुए सिगरेट पीने में दु्र्भाग्य होता है. और सिर्फ जूते पहने-पहने टहलने में.

हा¡, अवश्य ही. और मोज़े पहनकर सैक्स करने से. वह घातक होता है. ऐसी चीज कभी काम नहीं कर सकती.

और कौन सी चीजें?

विकलांग लोग जो अपनी विकलांगता का इस्तेमाल वाद्य यंत्र बजाने में करते हैं. उदाहरण के लिए बिना बांह वाले लोग अपने पैरों से ड्रम बजाते हुए या कानों से बांसुरी बजाने वाले लोग या अंधे संगीतकार.

मेरे ख्याल से बहुत से शब्द भी अभिशप्त होते हैं. मेरा मतलब है ऐसे शब्द जिन्हें तुम कभी भी अपने लेखन में इस्तेमाल नहीं करतेण.

हां, तमाम समाजशास्त्रीय जार्गन -`स्तर´, `संदर्भ´ जैसे शब्दों में बहुत `पावा´ है.

`एप्रोच´ भी ऐसा ही शब्द है.

हां, `एप्रोच´. `हैण्डीकैप्ड´ के बारे में क्या ख्याल है? मैं कभी भी `अथवा/तथा´ का इस्तेमाल नहीं करता.

क्या लोगों का भी वैसा ही प्रभाव होता है?

हां, पर बेहतर है उस बारे में बात न की जाय.

मैं भी यही समझता हूं, एक लेखक है जो जहां जाता है अपने साथ `पावा´ लेकर चलता है. मैं उसका नाम नहीं लूंगा क्योंकि अगर मैं वैसा करूंगा तो यह किताब बरबाद हो जाएगी. इस तरह के लोगों से मिलने पर तुम क्या करते हो?

मैं उन्हें नजरअंदाज कर देता हूं. सबसे बड़ी बात तो ये कि जहां वे होते हैं मैं उस जगह पर सोने से साफ मना कर देता हूं. कुछ साल पहले मैंने और मेरसेदेस ने कोस्ता ब्रावा पर एक शहर में एक फ्लैट किराये पर लिया. हमें बहुत जल्दी मालूम पड़ गया कि हमारी एक पड़ोसन जो नमस्ते करने आई थी, के भीतर `पावा´ है. मैंने वहां सोने से इन्कार कर दिया. मैंने दिन वहीं बिताया पर रात काटने में एक दोस्त के घर चला गया. मेरसेदेस इस बात पर बहुत झल्लाई पर उसके अलावा मैं कुछ भी नहीं कर सकता था.

जगहों के बारे में क्या ख्याल है? क्या उनका भी तुम पर ऐसा प्रभाव पड़ता है?

हां, पर इसलिए नहीं कि वे खुद दुर्भाग्यशाली होते हैं पर वहां पहुंचकर कई बार मुझे पूर्वाभास होने लगते हैं. कादाकेस में मेरे साथ ऐसा ही हुआ. मुझे पता है अगर मैं एक भी बार वापस वहां गया तो मेरी मौत हो जाएगी.

तुम तो वहां हर गर्मियों में जाया करते थे। क्या हुआ?

हम एक होटल में रूके थे जब वह उत्तरी हवा बहनी शुरू हुई जो आपके स्नायुओं को बेहद उत्तेजित कर देती थी. तीन दिन तक मैं और मेरसेदेस कमरे के भीतर रहे क्योंकि बाहर निकल पाना मुमकिन न था. अचानक मुझे ऐसा निश्चित आभास हुआ कि मेरा जीवन खतरे में है. मैं जानता था कि अगर मैं कादाकेस से जिन्दा निकल आया तो दुबारा वहां नहीं जा सकूंगा. जब हवा थमी, हम तुरन्त उस संकरी, घुमावदार सड़क से लौट पड़े. तुम जानते हो कौन सी वाली. जेरोना पहुंचकर ही मैंने इत्मीनान की सांस ली. मैं चमत्कारिक तरीके से बच गया पर मैं जानता था कि दुबारा वहां जाने पर जरूरी नहीं था कि भाग्य उतना ही साथ देता.

अपने प्रसिद्ध पूर्वाग्रहों के बारे में तुम्हारा क्या कहना है?

मैं समझता हूं वे उन छोटे-छोटे संकेतों और सूचनाओं के कारण होते हैं जिन्हें मैं अपने अवचेतन में दर्ज करता हूं.

मुझे याद है काराकास में एक जनवरी 1958 की जब तुम्हें अचानक लगा था कि कभी भी कुछ भी आशातीत घट सकता था और असल में हुआ भी वैसा ही. हमारी नाक के सामने राष्ट्रपति के महल पर बिल्कुल आशातीत हवाई हमला शुरू हो गया था. मैं आज तक अपने आपसे पूछता हू¡ कि तुम्हें उसका पूर्वाभास हुआ कैसे?

मुझे पक्का यकीन था क्योंकि जब मैं उस सुबह अपने हॉस्टल में जागा, तो मैंने फाइटर जहाज के इंजन की आवाज सुनी. उसने मेरे अवचेतन को बताया होगा कि कुछ गड़बड़ होने वाली है क्योंकि मैं तभी यूरोप से लौटा था जहां फाइटर जहाज शहरों के ऊपर केवल युद्धकाल में उड़ा करते हैं.

क्या तुम्हारे पूर्वाभास बिल्कुल स्पष्ट होते हैं?

नहीं. वे बहुत अस्पष्ट होते हैं लेकिन वे हमेशा किसी निश्चित चीज से जुड़े होते हैं. देखो, एक दिन बारसीलोना में मैं अपने जूतों के तस्मे बांध रहा था जब मुझे लगा कि घर पर मैक्सिको में कुछ हो गया है. बहुत बुरा नहीं पर कुछ हुआ है. मैं चिंतित था क्योंकि उसी दिन मेरा बेटा रोद्रीगो कार से आकापुल्को जा रहा था. मैंने मेरसेदेस से घर फोन करने को कहा. वास्तव में उसी वक्त जब मैं अपने जूते के फीते बांध रहा था घर पर कुछ हुआ था. हमारी नौकरानी का बच्चा हुआ था - एक लड़का. मैंने चैन की सांस ली क्योंकि मेरे पूर्वाभास का रोद्रीगो से कुछ लेना-देना नहीं था.

तुम्हारे पूर्वाभास और तुम्हारे अन्तर्ज्ञान ने तुम्हारी बहुत मदद की है. तुम्हारे कई महत्वपूर्ण फैसले उन पर आधारित रहे हैं?

महत्वपूर्ण ही नहीं सारे के सारे.

सारे के सारे! क्या यह सच है?

सारे के सारे. हर दिन, हर समय मैं फैसला अपनी इन्ट्यूशन की मदद से करता हूं.

तुम्हारी सनकों के बारे में बात करते हैं. तुम्हारी सबसे बड़ी सनक क्या है?

मेरे सबसे पुरानी सनक है समय की पाबंदी. मैं जब बच्चा था तब भी समय का बहुत पाबंद था.

तुम कह रहे थे कि जब तुम टाइपिंग की गलती करते हो, तुम पूरा पन्ना दुबारा शुरू करते हो। यह सनक है या अंधविश्वास?

यह निहायत एक सनक है. मेरे लिए टाइपिंग की गलती शैली की गलती के बराबर है. (यह शायद लिखने का भय हो)

तुम्हारे भीतर कपड़ों को लेकर भी सनक है? मेरा मतलब है कोई ऐसे कपड़े जो अपने साथ बुरा भाग्य लाते हों और तुम्हें जिन्हें नहीं पहनते?

मुश्किल से. यदि उसमें `पावा´ होगा तो मैं उसे खरीदने से पहले जान जाऊंगा. अलबत्ता एक बार, मैंने मेरेसेदेस के कारण एक जैकेट पहनना बंद कर दिया. एक बार वह बच्चों को स्कूल से लेकर आ रही थी और उसने सोचा कि उसने मुझे घर की एक खिड़की पर खानेदार जैकेट पहने देखा. हालांकि मैं घर के दूसरे हिस्से में था. जब उसने मुझे यह बताया, मैंने उसके बाद उस जैकेट को पहनना बंद कर दिया-वैसे वह जैकेट मुझे पसंद है.

तुम्हारी रूचियों पर आया जाय, जैसा कि महिलाओं की पत्रिकाओं में होता है. तुमसे वही सवाल पूछना मनोरंजक है जो हम अपने कोलिम्बया में ब्यूटी क्वीनों से पूछते हैं. तुम्हारी सबसे प्रिय किताब कौन सी है?

ईडिपस रेक्स

तुम्हारा प्रिय संगीतकार?

बेला बारतोक

और चित्रकार?

गोया

किस फिल्म निर्देशक को तुम सबसे ज्यादा पसंद करते हो?

ऑरसन वेल्स को खासतौर पर `द इस्मॉर्टल स्टोरी´ के लिए और कुरोसावा को `रेड बीयर्ड´ के लिए

किस फिल्म में तुम्हें सबसे ज्यादा आनंद आया?

रोसेलिनी की 'Il Generale de la Roverse'

और कोई?

त्रूफो की `जूल्स एट जिम´

किस फिल्म पात्र का निर्माण तुम करना चाहते?

जनरल दे ला रोवेयर

कौन सा ऐतिहासिक पात्र तुम्हें सबसे रूचिकर लगता है?

जूलियस सीजर, पर केवल साहित्यक दृष्टिकोण से.

और कौन सबसे नापसंद है?

क्रिस्टोफर कोलम्बस. उसमें सचमुच `पावा´ है. `ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क´ का एक पात्र ऐसा कहता भी है.

तुम्हारे प्रिय साहित्यक हीरो?

गारगान्टुआ, एडमंड दान्ते और काउन्ट ड्रैकुला

कौन सा दिन नापसंद है?

इतवार

तुम्हारा पसंदीदा रंग पीला है हम जानते हैं पर पीले का कौन सा शेड?


मैंने एक दफे उसे जमैका से दोपहर तीन बजे दिखने वाले कैरिबियन के पीले के तौर पर बताया था.

('अमरूद की ख़ुशबू' के नाम से यह अनुवाद संवाद प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य)

Tuesday, September 23, 2008

'त्रिशूल', कंप्यूटर और हिन्दी ब्लाग


स्कूल की पढाई के दिनों में लगभग हम सभी ने 'विज्ञानः वरदान या अभिशाप' एवं 'विज्ञान के चमत्कार' जैसे विषयों पर निबंध अवश्य लिखा होगा।इसके प्रस्तावना,विषय-प्रवेश,लाभ-हानि, उपसंहार-निष्कर्ष जैसे शीर्षक-उपशीर्षकों पर अपनी कलम अवश्य चलाई होगी। रोज विज्ञान के नये चमत्कार होते रहते हैं. दुनिया में रोज नई-नई चीजें आती रहती हैं जो एक दिन स्वयं पुरानी पड़ जाती हैं-हमको अपना अभ्यस्त और आदी बनाकर एक और 'नये' के आगमन का रास्ता तैयार करती हुई. कंप्यूटर भी इन्हीं में से एक चीज हुआ करती 'थी'।

प्रश्नः क्या कंप्यूटर आपके लिए अथवा किसी और के लिए एक नया,अनजाना या अपरिचित शब्द है? एक ऐसा शब्द जिसे आप पहली बार सुन रहे हों,सुनकर चौंके हों या फिर सुनकर भी ध्यान देने योग्य न समझा हो?

उत्तरः नहीं।

* अमिताभ बच्चन से आज लगभग सभी परिचित हैं।यह कोई नया या अपरिचित नाम नहीं रह गया है।वह व्यक्ति भी, जो किसी भी रूप में साहित्य-संगीत-कला-सिनेमा से कोई वास्ता नहीं रखता उसके लिये भी यह नाम बहुपरिचित-सुपरिचित है.भला हो राजनीति की टीवी और टीवी की राजनीति का! आज अमिताभ बच्चन को मैं निजी तौर पर दो विशेष वजहों से याद कर रहा हूं-

१- आज से लगभग बीस-बाइस बरस पहले रिलीज हुई 'बच्चन रिसाइट्स बच्चन' नामक आडियो कैसेट के कारण,जो मुझे बहुत पसंद थी किंतु बाद में किसी 'कलाप्रेमी' ने पार कर दी।

२-त्रिमूर्ति फिल्म्स प्रा०लि० की फिल्म 'त्रिशूल' के कारण। ४ मई १९७८ को रिलीज हुई इस फिल्म के निर्देशक यश चोपड़ा थे और लेखक जावेद अख्तर। १६७ मिनट की इस फिल्म का अधिकांश हिस्सा अमिताभ अभिनीत एंग्री यंग मैन 'विजय' नामक चरित्र के इर्द-गिर्द घूमता है.फिल्म मे अमिताभ के अतिरिक्त संजीव कुमार,शशि कपूर,वहीदा रहमान,हेमा मालिनी, राखी गुलजार,प्रेम चोपड़ा,पूनम ढिल्लों,मनमोहन कृष्ण,सचिन, इफ्तेखार,यूनुस परवेज,गीता सिद्धार्थ आदि कलाकारों ने भी काम किया है....लेकिन मेरी निजी राय में इस फिल्म में एक कलाकार और है जिसका क्रेडिट्स में कहीं उल्लेख नहीं हुआ है.वह महत्वपूर्ण कलाकार है कंप्यूटर! जी हां, 'कौन बनेगा करोड़पति' के अमिताभ जी के वही 'कंप्यूटर जी' और बाद में अपने शाहरुख भाई के 'कंप्यूटर साईं' आदि-इत्यादि.आज यत्र-तत्र-सर्वत्र विद्यमान वही कंप्यूटर जो मेरे लिये ,आपके लिये ,किसी के लिये भी अनजाना, अनचीन्हा, अपरिचित नहीं रह रह गया है. लेखन और पत्रकारिता का अभिनव अवतार यह ब्लाग भी तो इसी कंप्यूटर का तिलस्म है, माया है,मोह है ,मोक्ष है!

* मेरी अभी तक की जानकारी के अनुसार,हिन्दी सिनेमा में पहली बार कंप्यूटर शब्द का उल्लेख फिल्म त्रिशूल में हुआ था। विदेश से पढ़कर लौटा युवा उद्यमी शेखर गुप्ता(शशि कपूर)अपने दफ्तर में काम करने वाली युवती गीता(राखी) को जब कई दफा कंप्यूटर और मिस कंप्यूटर कहकर संबोधित करता है तो वह एक दिन कुछ खीझकर पछती है कि तुम मुझे बार-बार कंप्यूटर-कंप्यूटर क्यों कहते हो? उत्तर में नायक बड़े उत्साह से बताता है कि विदेशों में एक ऐसी मशीन आई है जो बेहद जल्दी और फुर्ती से बिना कोई गलती किये जोड़-घटाव-टाइपिंग जैसे काम चुटकियों में निपटा देती है,वह भी बिना थके.मेरी अभी तक की जानकारी में यह हिन्दी सिनेमा के कथ्य में कंप्यूटर के उल्लेख की पहली आहट या धमक थी.यह १९७८ और उसके आसपास के समय की बात है .याद करने की कोशिश करें कि उस वक्त हमारे आसपास कितना और किस तरह का कंप्यूटर था तथा उससे हमारी कितनी और किस तरह की जान-पहचान थी? वह हमारे लिये कितना नया-पुराना ,परिचित-अपरिचित था? आज जो परिदृश्य है वह सामने है ,कंप्यूटर की ताकत और तिलस्म को बच्चा-बच्चा जानता है।

* काफी लंबे समय से हिन्दी सिनेमा को देखने-परखने-पढ़ने के अपने अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकने की स्थिति में हूं कि हिन्दी सिनेमा की कथा-पटकथा-संवाद-गीत में तकनीक के उल्लेख के सिलसिले पर गंभीरता से पड़ताल किया जाना चाहिए। मैं सिनेमा के तकनीकी पक्ष की नहीं बल्कि लेखकीय पक्ष की बात कर रहा हूं।ऐसी पड़ताल का अर्थ केवल 'मेरे पिया गए रंगून,किया है वहां से टेलीफून' की अनुक्रमणिका निर्माण मात्र नहीं बल्कि तकनीक के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक रिश्ते के उत्स और उल्लेख का उत्खनन जरूरी नुक्ता नजर आता है.यदि इस तरह का काम हुआ है या हो रहा है तो यह मेरी अनभिज्ञता है कि मुझे उसकी जानकारी नहीं है और यदि नहीं हुआ है तो होना जरूरी है.जैसा कि ऊपर कहा गया है कि तकनीक की ताकत और तिलस्म को आज बच्चा-बच्चा जानता है।

* हिन्दी ब्लाग के उद्भव,विकास,परंपरा,प्रयोग और प्रासंगिकता के सवाल पर ब्लाग-संसार में बहुत कुछ लिखा गया है और निरंतर लिखा जा रहा है।अभी कुछ समय पहले तक इससे हमारी पहचान भी लगभग वैसी ही थी जैसी कि १९७८ कुछ-कुछ त्रिशूल में दिखाई देती है.हिन्दी ब्लाग से जुड़े हम लोगों को एक बड़ी हिन्दी भाषी जमात को ब्लाग के बारे में वैसे ही बताना है जैसे शशि कपूर ने राखी को बताया था,संभवतः उससे कुछ आगे बढ़कर भी।

Monday, September 22, 2008

प्रकृति कविता है, मनुष्य गद्य या कथा



श्रीनरेश मेहता
प्रकृति न तो कृपण और न ही पक्षपात करती है। यदि वह नदी, पहाड़ या वनराशि बनकर खड़ी या उपस्थित है तो वह सबके लिए है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसे कितना ग्रहण करते हैं। वस्तुतः प्रकृति कविता है और मनुष्य गद्य या कथा। प्रकृति को अपने होने के लिए किसी अन्य की उपस्थिति की अपेक्षा नहीं होती। वह वस्तुतः ही सम्पूर्ण है लेकिन मनुष्य नहीं। अपनी पूर्णता के लिए मनुष्य को अन्य की उपस्थिति ही नहीं, सहभागिता भी चाहिए होती है। यह सहभागिता ही वह घटनात्मकता है जिसके बिना मनुष्य का अक्षांश-देशांतर इस देशकाल में परिभाषित नहीं किया जा सकता। अपने देशकाल के साथ यह संबंध-भाव ही सारी लिखित-अलिखित घटनात्मकता या कथात्मकता को जन्म देते हैं। संबंध, वस्तुतः मनुष्य का भोग रूप हैं। व्यक्तियों और वस्तुअों के माध्यम से यह भोगरूप प्रतिफलित होता है। शायद इसीलिए प्रकृति में विशाल पर्वत, उत्कट नदियां, प्रशस्त रेगिस्तान आदि कोई पात्र या चरित्र नहीं हैं। इन सबकी उपस्थिति काव्य-बिम्बों की भांति होती है और उपरान्त मौन घटनाहीनता में तिरोहित हो जाती है। चाहे वह नदी का समुद्र में विलीन होना हो, कविता होना है, कभी कथा नहीं। शताब्दियों से हवाएं और अंधड़ सहारा के असीम बालू व्यक्तित्व को उलट-पुलट रहे हैं, सूर्य, धूप की भट्टी में सबको रोज तपा रहा होता है परन्तु रेगिस्तान हैं कि अपने पर कविता का यह झुलसा वस्त्र नहीं उतारता। लेकिन इसके ठीक विपरीत मनुष्य है, वह अपने घर की दीवारों पर ही नहीं बल्कि देशकाल की दीवारों पर भी कीलें गाड़ कर वस्त्र, चित्र या और कुछ टांगकर निश्चिन्त होना चाहता है। और यहीं से मनुष्य और प्रकृति में अंतर या दूरी आरंभ हो जाती है। सूर्यास्त चित्र बनकर अपनी सारी गतिशीलता खोकर जड़ हो जाता है। चित्रवाला सूर्यास्त जड़ है लेकिन आकाश वाला नहीं।
इसी प्रकार संबंधों को जब हम भोग बना लेते हैं तब वे जड़ हो जाते हैं। तब वे या तो सुख या दुःख देने लगते हैं। चूंकि सुख क्षणिक होता है, इंद्रियगत होता है इसलिए इंद्रिय-तृप्ति के बाद वही दुःख में परिणत हो जाता है। शायद हमारे चारों अोर इस ताने-बाने को कथा या उपन्यास कहते हैं। वैसे उन दिनों ऐसा विश्लेषण करना संभव नहीं था, लेकिन प्रकृति से संलाप करना सीख रहा था।
हम अनिकेतन (मेरे लेखन के पचास वर्ष) से साभार
पेंटिंगः रवींद्र व्यास

Sunday, September 21, 2008

चंद्रकांत देवताले की कवितायें

मित्रो मैं देवताले जी स्त्री केंद्रित कविताओं के संचयन पर काम कर रहा हूँ, जो "एक सपना यह भी " नाम से २००९ के आरम्भ में प्रकाशित होगा। ये कवितायें उसी संचयन से। इस किताब को तैयार करना मेरे लिए एक अलग अनुभव रहा है , जिसे मैं किताब की भूमिका में आपके साथ बांटूंगा ........
औरत

वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है

पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत
आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंध रही है?
गूंध रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियां सूरज की पीठ पर पका रही है

एक औरत दिशाओं के सूप में खेतों को फटक रही है
एक औरत वक़्त की नदी में दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गई, एड़ी घिस रही है

एक औरत अनन्त पृथ्वी को अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है
एक औरत अपने सिर पर घास का गट्ठर रखे कब से
धरती को नापती ही जा रही है

एक औरत अंधेरे में खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसन जागती शताब्दियों से सोई है

एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं
उसके पाँव जाने कब से सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।


एक सपना यह भी

सुख से पुलकने से नहीं
रचने-खटने की थकान से सोई हुई है स्त्री

सोई हुई है जैसे उजड़कर गिरी सूखे पेड़ की टहनी
अब पड़ी पसर कर

मिलता जो सुख वह जागती अभी तक भी
महकती अंधेरे में फूल की तरह
या सोती भी होती तो होठों पर या भौंहों में
तैरता-अटका होता
हँसी - खुशी का एक टुकड़ा बचा-खुचा कोई

पढ़ते-लिखते बीच में जब भी नज़र पड़ती उस पर कभी
देख उसे खुश जैसा बिन कुछ सोचे
हँसना बिन आवाज़ में भी

नींद में हँसते देखना उसे मेरा एक सपना यह भी
पर वह तो
माथे की सिलवटें तक नहीं मिटा पाती
सोकर भी
000
कवि की तस्वीर अनुनाद से

Friday, September 19, 2008

बन्दे का अंग्रेजी ज्ञान ! नमूने तो देख लेवें सिरीमान !!

प्राथमिक स्तर की अपनी पढ़ाई-लिखाई 'बोरिस कानवेंट' में बड़े मौज में हुई और बाकी तमाम मौजों के साथ उस समय गजब की एक मौज यह थी कि महीने - दो महीने में 'इटैलियन स्टाइल' में बाल कटवाने का लुत्फ़ मिला करता था. यह बोरिस कानवेंट कहीं और नहीं अपने ही गांव मिर्चा में था और यह दीगर बात है कि उसकी दीवारों पर बे.प्रा.पा.( बेसिक प्राईमरी पाठशाला ) लिखा हुआ था .पाठशाला के तीनों कमरों और एकमात्र ओसारे की छत गायब थी और हम भविष्य के कर्णधार प्राय: महुए के पेड़ के नीचे निज-निज गृह से लाया हुआ बोरा या बोरिया बिछाकर इमला,नकल,अंकगणित,पहाड़े आदि पढ़ा करते थे. अध्ययन के इस अनव्रत क्रम में तख्ती, कापी, किताब,स्याही-दवात व सरकंडे की कलम की जितनी अनिवार्यता थी उतना ही अथवा उससे कहीं अधिक अनिवार्य उपादान बोरा या बोरिया था. अब आप ही विचार करें कि अपने उस स्कूल को 'बोरिस कानवेंट' न कहें तो और क्या कहें? अब रही बात 'इटैलियन स्टाइल' में बाल कटवाने की तो आप यूं समझ लें कि 'जम्बू द्वीपे - भारतखंडे' के तत्त्कालीन पूर्व रेलवे के मुगलसराय और बक्सर स्टेशनो के बीच अवस्थित दिलदारनगर नामक जंक्शन के रेलवे फ़ाटक के अगल-बगल विराजमान नाई महाराज एक ईंट पर बैठे हैं और दूसरी ईंट पर उनका सम्मानित ग्राहक तथा धड़ाधड़ काट रही है कैंचियां, उछल रहे हैं उस्तरे. अगर आपने यह दृष्य देख रक्खा है तो ठीक नहीं तो कल्पना करने कोशिश करें, संभवत: समझ में आ जाय इटैलियन स्टाइल की हेयर कटिंग. अब साहब ! ऐसे माहौल से आने वाले बन्दे का अंग्रेजी ज्ञान कैसा होगा क्या बतायें? वैसे यह भी सच है बिना बताए आप समझ भी नहीं पायेंगे. सो बताना यह है कि इस बन्दे ने छठवीं कक्षा से ए.बी.सी.डी. सीखनी शुरू की और उस्तादों की इनायत व खुद की लगन का परिणाम यह रहा कि आर.के.जी.ए.वी. इंटर कालेज,दिलदारनगर,जिला-गाजीपुर यू.पी. में हाईस्कूल और इंटर दोनो में अंग्रेजी में टॊप किया किया. आगे की पढाई अंग्रेजियत के तलछट वाले शहर नैनीताल में हुई. मतलब यह कि हर तरफ़ अंग्रेजी ही अंग्रेजी. अब ऐसे होनहार के अंग्रेजी ज्ञान का मुजाहिरा न हो तो बहुत नाइंसाफ़ी होगी. इसलिए पेश हैं इन पंक्तियों के लेखक के विद्यार्थी जीवन के जीवंत अंग्रेजी ज्ञान के तीन जीवित नमूने -

नमूना नंबर वन / क्लास- सेवेंथ (बी) -

अंग्रेजी मास्साब ने छमाही इक्जाम के लिए 'माइ स्कूल' शीर्षक से एस्से तैयार करवाया था लेकिन गजब तो यह हुआ कि पेपर में प्रश्न कुछ और ही आ गया. प्रश्न था - 'राइट ऐन एस्से ऒन योर स्कूल' . थोड़ी देर के लिए तो अपना सिर चकरा गया था, फ़िर लगा छपाई की गलती से ऐसा हो गया होगा.मास्साब से मिनमिनाते हुए कुछ कहा तो उन्होंने ऐसे घूरा कि ....अब तो बस्स यही बाकी था कि अक्ल के घोड़े दौड़ाओ, जितना दौड़ा सको. मरता क्या न करता, दौड़ा दिया जी टॊप गियर में, कच्ची गोलियां तो खेली नहीं थी. याद किए एस्से में जहां-जहां 'माइ' था वहां-वहां 'योर' कर कर दिया, मसलन- याद किया था कि 'माइ स्कूल्स नेम इज..डैश-डैश..' और लिखा 'योर्स स्कूल्स नेम इज...डैश-डैश..' . जहां - जहां 'माइ', वहां - वहां 'योर'.कोई नकल नहीं ,कोई मिलावट नहीं - एकदम खांटी,एकदम प्योर.. अब यह न पू्छिएगा कि कुछ दिनों बाद कापी दिखाते वक्त क्लास सेवेंथ (बी) में क्या ड्रामा हुआ था ? इतने विलक्षण, इतने प्रतिभाशाली विद्यार्थी की क्या गत्त बनी थी?

नमूना नंबर टू / क्लास- एम. ए। -

एक जन थे अरविंद के. पांडेय - एम.एस-सी.(केमेस्ट्री) के स्टूडेंट. वे हमारी तरह गांव-गिरांव से नहीं बल्कि दिल्ली से आए थे और फ़र्र-फ़र्र इंगलिश बोला करते थे, वे गिटार बजाकर अंग्रेजी गाने भी गाया करते थे और ब्रुकहिल छात्रावास के सभी विद्यार्थियों को 'डार्लिंग' कह कर संबोधित करते थे.तमाम रईसी शौको के साथ पांडेय जी को लॊन टेनिस खेलने का शौक भी था. एक दिन शाम के वक्त उन्होंने होस्टल में अपन को फ़ोन कर कहा - 'डार्लिंग,मैं न्यू क्लब टेनिस खेल रहा रहा हूं. इफ़ यू आर कमिंग डाउनटाउन काइंडली ब्रिंग माय ब्लेजर. एंड अगर मैं कोर्ट पर न मिलूं तो मार्कर से पूछ लेना कि मैं क्लब में कहां हूं और क्या कर रहा हूं' .खैर, ब्लेजर लेकर अपन कोर्ट पहुंचे तो मिस्टर पांडेय नहीं दिखे. अंदर क्लब में जाकर रिसेप्शन पर ठसकेदार अंग्रेजी में पूछा- 'एक्स्क्यूज मी,ह्वेयर आइ कैन फ़ाइंड मिस्टर मार्कर?
'मिस्टर मार्कर?
रिसेप्शन - पुरुष भकुआया-सा ताकने लगा. शायद वह मेरे अंग्रेजी ज्ञान को भांप गया था.बोला- 'आपको काम क्या है? किससे मिलना है? मार्कर नाम का कोई मेंबर नहीं है इस क्लब में' .
'यह कोट अरविंद पांडे जी को दे देना' कहकर अपन मालरोड की ओर खिसक लिए. रात को डिनर के समय जब यह किस्सा छिड़ा तो खूब मौज हुई.अरविंद के. पांडेय - एम.एस-सी.(केमेस्ट्री) के स्टूडेंट ने फ़रमाया - ओ डार्लिंग, ओ माय गुडनेस, मार्कर कोर्ट में लाइन खीचने वाले या चूना डालन वाले सहायक कर्मी को बोलते हैं'. अब भाई लोग-बहन लोग ,अपना क्या दोष? अपन तो मार्कर को मार्कर सरनेम धारी कोई जेंटलमैन समझ बैठे थे.

नमूना नंबर थ्री / क्लास- पी-एच. डी। -

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में लेक्चरर का ईंटरव्यू देने जाना हुआ. जे.एन.यू. में एक दोस्त के साथ ठहरे. वह उसी दिन कोई प्रतियोगी परीक्षा देने ग्वालियर निकल लिया. अपन निपट अकेले. पूर्वांचल से ६६६ नंबर की बस पकड़ी, गंगा के सामने गिरे, चोट खाई, बस कंडक्टर की गालियां झेलीं और मरहम-पट्टी से लैस होकर कर इंटरव्यू दिया. अगले दिन तक दोस्त लौटा नहीं था. सितम्बर की उमस भरी गर्मी, पट्टी बदलवाना जरूरी परंतु यह हो तो कहां -कैसे? अपनखरामा-खरामा मुनीरका पहुंचे. थोड़ा ध्यान देने पर एक क्लीनिक दिखा तो लपक कर शीशे का दरवाजा अंदर ठेलते हुए अंदर पहुंचे और सोफ़े पर उठंग लिए. अंदर का मंजर इतना मोहक,मारक और मादक था कि क्या कहने. सुंदर-सुंदर देवियां और बला की बालायें. एक भी अकेली नहीं सबके सथ कम से कम एक सुंदर श्वान और अपन निपट अकेले, संग में न कुत्ता न बिल्ली. जब वहां विद्यमान मनुष्यों और पशुओं की निगाहें मुझी टिक गईं तो दिमाग में भार्गव बुक डिपो चौक वाराणसी द्वारा प्रकाशित 'भार्गवा'ज स्टैंडर्ड इलस्ट्रेटेड डिक्शनरी' के पन्ने घूमने लगे.अरे यार ! बाहर 'पेट्स क्लीनिक' का बोर्ड लगा था,पी.ई.टी. पेट,पेट माने पालतू जानवर, यह तो कुत्तों का अस्पताल है ,भागो. अब साहब ! इसमें अपनी क्या खता थी ,अपन तो यही समझ के घुस लिए थे कि यह पेट्ट सरनेम धारी किसी डाक्टर का क्लीनिक होगा .दुनिया में तरह - तरह के नाम-सरनाम होवें है!

उपसंहार-

अब तो भई बात यह है कि अंग्रेजी भाषा जो न कराए वह कम है ! शायद इसीलिए तो अंग्रेजी में दम है ! ! ऊपर लिखे तीन किस्सों के आधार पर अब यह न समझ लीजिएगा कि इस बन्दे का अंग्रेजी ज्ञान कुछ कम है ! ! !
जय कबाड़ - जय जुगाड़ !

Thursday, September 18, 2008

नए कबाड़ी का आत्मतर्पण (आत्मसमर्पण)

असोक दा बोले कबाड़खाने पर आकर अपना सराद करो करके। सराद कैसे करना हुआ पता ही नहीं ठहरा। नामकरण कैसे करते हैं तक नहीं मालूम हुआ मुझको। अब मुझ खसी को तो बामणगिरी आने वाली हुई नहीं, जनम-जनमान्तर के नास्तिक ठहरे। इजा कहने वाली हुई सौ मंदिर गिरे होंगे तब तेरा धरती पर आने का पिलान बना होगा। मंदिर का तो पता नहीं पर मलखौले के त्याड़ज्यू जरूर टपक गए मेरे पैदा होने वाले दिन। उन्होनें ही मेरा नामकरण करना था, मौका ही नहीं मिला उनको। उनके बेटे, नान त्याड़ज्यू ने अपनी दुकान का उद्घाटन मेरे नामकरण से ही किया कहते हैं। हो न हो उन्ही से कोई गड़बड़ हो गई होगी संस्कार करने में। अब जो भी हो जो बनना-बिगड़ना था सो बन-बिगड़ गए। वो अद्वैतवाद वाले क्या कहने वाले हुए, एको ब्रह्म, द्वितियो नास्ति। हमारा तो एको ब्रह्म भी गड़बड़ा गया है, सिर्फ़ ना अस्ति बच रहा है।

इधर कबाड़ी लोग अपना कबाड़ी धर्म निभाने की बात कहते हैं। मुझे तो अभी से डाउट हो गया है। धर्म तो बड़ी बात है मुझसे तो आजतक अपना अधर्म भी नहीं निभाया गया। कभी-कभी चल देने वाला हुआ तिरुपति बालाजी। ब्वारी कहने वाली हुई कि मुझको तो तुम्हारा धरम-करम समझ में नहीं आता हो।

खैर जो भी हुआ। एक कबाड़ी बनने की कमी थी वो असोकदा ने पूरी कर दी। अपना ठील-ठीया छोड़कर पहले ही निकल पड़े थे और अब जो इतने सालों में कबाड़ इकठ्ठा किया है वो सब कबाड़खाने पर सजाने का पिलान कर रिया हूँ। तो सुधीजनो, तैयार रैना। कबाड़ी के पास से कुछ भी निकल सकने वाला हुआ। चकराने की नही रखी इधर।


ये तो हुई मज़ाक की बात। तर्पण करने के अलावा मुझे अपने बारे में कुछ कहना भी पड़ेगा ही।

बरसों पहले दिल्ली में कामर्स पढ़ते हुए एक खुराफ़ात दिमाग में आई कि चलो हिन्दी में पढ़ाई की जाए। हिन्दी के हमारे लेक्चरर ने बहुत गरियाया-लतियाया। बोले साले भूखों मरोगे। हमें देखो – चालीस के हो गए। आजतक एक अदद नौकरी नहीं मिली। अपन कहाँ सुनने वाले थे। कुछ अरसा, जबतक खुराफ़ात दिमाग में रही, एम ए चालू रखा। पढ़ना जो 13-14 साल की उम्र में शुरु हुआ था, इस दौरान बढ़ गया। हिन्दी का काफ़ी कुछ चाट गया। उन दिनों राजन सिंह नेगी और राजेश डोबरियाल सरीखे दोस्तों के साथ कुतुब इंस्टिट्यूश्नल एरिया की शांत हरियाली सड़क के किनारे टंकू के ढाबे पर एक-एक परांठे पर साहित्य (कुसाहित्य) पर चर्चाएँ घंटों खिंचा करती थीं। दीपक डोबरियाल के प्रेम-प्रसंगों के अंतरंग क्षणों की चर्चाएँ उसके थिएटर के कार्य-कलापों से ज़्यादा मुखरित रहती थीं।

सांस्कृतिक गलियारों में चप्पलें फटकानी शुरु कीं। साहित्यकार नाम का जो जीव होता है उसे ढूँढकर खंगालना शुरु किया। बहुतों ने काटा। एक बार अल्मोड़ा जाते हुए बस में एक सुधी साहित्यकार टाइप बंधु ने पूछ लिया हिन्दी में कौनसा उपन्यास पसंद है। उन्ही दिनों शेखर: एक जीवनी खत्म किया था और उसी में गोते लगा रहा था सो जोश में कह दिया। वे पिल पढ़े। बोले यही एक उपन्यास मिला था पढ़ने को? कुछ समय बाद समझ आएगा। समझ आने में कुछ साल लग गए। जान बचाने के लिये चेख़व के तीन नाटकों के नाम भी गिना दिये और कसप की बात भी छेड़ दी। तो भी रास्ते भर लताड़ते रहे कुछ और भी करने के लिये। बात भेजे में अटक गई। जब सुध आई तो देखा कहीं नहीं जा रहे। सोचा चलो जर्मन ही सीख लेते हैं। हिन्दी पीछे छूटती गई। किताबों के बंडल में तब भी हिन्दी ही भरी पड़ी थी, अब भी है। भाषा की पूंछ पकड़कर जहां भी पहुंचा लगता रहा कुछ बाकी रह गया है।

बंगलौर आकर तो दाल-रोटी ने पूरा निगल लिया। किताबें सिर्फ़ सजाने भर को रह गईं। वे किताबें जो पहले खरीदना पहले औकात के बाहर थीं अब बुक-शेल्फ़ की शोभा बढ़ा रही थीं मगर पढ़ना चार सालों तक लगातार टलता रहा।

किसी तौर शुरुआत हो इसलिये ब्लोगिंग पर उतर आया। यहाँ आकर देखा तमाम तरह के जीव मौजूद हैं। किसी ने कहा था, “America is a country where you will find at least five examples of everything.” ब्लोगिंग पर आकर लगा ये बात जस की तस ब्लोगिंग पर लागू होती है। जो भी है, ब्लोगिंग मेरे लिये पढ़ने-लिखने का सालिड माध्यम है। संजय चतुर्वेदी, राजेश जोशी जैसों को, जो कालेज के दिनों में पढ़ने के बाद दिमाग के कोल्ड स्टोरेज में जम चुके थे, यहाँ आकर फिर पढ़ने का मौका मिला। मज़े की बात तो ये कि जिनको अकसर पत्रिकाओं में पढ़ा था मालूम होता है वो सब कबाड़ी हो गए हैं। अस्तु। अब तो खैर कबाड़ी मैं भी बना ही दिया गया हूँ। दुकान फिलहाल खाली है इसलिये कुछ दिन चुप रहूंगा।

Wednesday, September 17, 2008

नैनीताल का नन्दादेवी मेला - २००८

नैनीताल में 1918-19 से प्रति वर्ष नन्दा देवी मेले का आयोजन किया जाता है जो कि 3-4 दिन तक चलता है। इस बार भी यह मेला 7 सितम्बर को आयोजित किया गया। मेले के धार्मिक अनुष्ठान पंचमी के दिन से प्रारम्भ हो जाते है। जिसके प्रथम चरण में नन्दा व सुनन्दा की मूर्तियों का निर्माण होता है। मूर्तियों के निर्माण के लिये केले के वृक्षों का चुनाव किया जाता है। केले के वृक्ष को लाने का भी अनुष्ठान किया जाता है। जिसके बाद मूर्तियों का विधि विधान से निर्माण किया जाता है। नंदा की मूर्ति का स्वरूप उत्तराखंड की सबसे उंची चोटी नंदा के आकार की तरह ही बनाया जाता है। अष्टमी के दिन इन मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है और भक्तों के दर्शनों के लिये इन्हें डोले में रखा जाता है। 3-4 दिन तक नियमित पूजा पाठ चलता है और उसके बाद नन्दा-सुनन्दा के डोले के पूरे शहर में घुमाने के बाद संध्या काल में नैनी झील में विसर्जित कर दिया जाता है। इस बार 10 सितम्बर को मूसलाधार बारिश के बीच इस आयोजन का समापन हुआ।

इस दौरान मल्लीताल में मेले का आयोजन किया जाता है। जिसमें बाहर से व्यापारी आकर अपनी दुकानें लगाते हैं। नैनीताल के आस-पास बसे गांव के लोगों के लिये इस मेले का एक विशेष महत्व रहता है। अब इस मेले का स्वरूप काफी बदल गया है और इसे महोत्सव का रूप दिया जा चुका है।

प्रस्तुत हैं इस महोत्सव के कुछ फ़ोटो:































कल सदा-सुरीली सुब्बु अम्मा का जन्मदिन था –सुन लें ये कबीरी पद


मेरे शहर में मुझे दिल्ली का जनसत्ता एक दिन बाद मिलता है. कल तारीख़ थी 16 सितम्बर थी और भाषा के हवाले से जनसत्ता ने ही याद दिला दी भारतरत्न एम.एस.सुब्बुलक्ष्मी की. कल भी हमारे बीच होतीं तो 92 बरस की हो जातीं.2004 में हमारे बीच से विदा हो चुकीं एम.एस. भारतीय भक्ति-संगीत का स्मारक थीं.ऐसे स्वर वास्तु अब कहाँ.भाषा से ऊपर उठ कर जिन कलाकारों ने हमारा दिल जीता है उनमें सुब्बु अम्मा सबसे ज़्यादा आदर की पात्र हैं.सन 1983 में ख़ाकसार को श्री सत्य साई बाबा के आश्रम में एम.एस. को सुनने का दुर्लभ मौक़ा मिला था. तक़रीबन पचास हज़ार लोगों से भरे उस कार्यक्रम में एम.एस. जब गा रहीं थीं लो लग रहा था जैसे हमारी भक्ति-संगीत परम्परा इस महान विभूति की चेरी है. वह दृष्य स्मृति से ओझल नहीं होता जब श्री सत्य साई बाबा एम.एस.की अगवानी पहुँचने मंच से नीचे उतरकर आए थे. जबकि उस आयोजन में कई जानेमाने राजनेता मौजूद थे (संभवत: उपराष्ट्रपति डॉ.शंकरदयाल शर्मा भी)लेकिन बाबा किसी के लिये मंच से नीचे नहीं आए थे. आइये आज इस सर्वकालिक महान गायिका से ये कबीरी पद सुन लें
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Monday, September 15, 2008

मां, लोटा और बाघ

हिंदी-दिवस गया। हिंदी-रात भी खर्च हो गई। अब नया हिंग्लिश दिन है। मेरा मानना है कि देश के भूगोल के बारे में बात करने से बेहतर है कि एक नागरिक के बारे में बात की जाए। क्यों न हिंदी के एक व्यक्तित्व के बारे में बात की जाए।

........बीते सालों का एक ठेठ बनारसी दिन ........................................

कुछ दोस्तों की मांओं के सामने पड़ने पर सिगरेट वाला हाथ पीठ के पीछे चला जाता है। चला क्या जाता है, उन्हें दिखाते हुए ले जाता हूं यानि सोच रहा होता हूं कि काश मेरी मां भी ऐसी ही होतीं। चांदी में मढ़ा, आत्मविश्वास से दिपदिप सांवला चौड़ा चेहरा, पान से रचे होंठ और बगल में पानदान, माथे पर बड़ी सी लाल खांटी बनारस की बिंदी, उलाहने और मीठी डांट में लयबद्ध काशिका में अंग्रेजी की छींट। वे मेरे एक कवि दोस्त की मां हैं। एक स्कूल में प्रिंसिपल।

अपने युवा दिनों में कविताएं लिखती थीं। अपने भाई के साथ कभी-कभार गोदौलिया पर दि रेस्टोरेंट में और बरामदे में कवि-लेखकों के सहेत-महेत में शामिल होती थी। यह धूमिल, काशी, महेश्वर, नामवर समेत तमाम रचना के ताप से तपते युवाओं का गोल था। सन पचास से साठ के बीच का पुरूष अहंकार से गंधाता, घूरता बनारस और अपनी कविताओं के साथ गोदौलिया पर किसी बहस में उलझी मेरी मां। मुझे गर्व हो आता है।

ठीक है, ठीक है। जानता हूं। वे मेरी असली मां नहीं हैं।

एक दिन। बहुत दिन बाद वे मिलीं। वहां कई हिंदी के नए-पुराने कागज और पिलाश्टिक के सुमन थे। किसी बात के बीच में बेधक वे काशिका में बोलीं, हई नमवरवा बहुत लुच्चा हौ। देश के हिंदी विभागों में अपने रिश्तेदारों और चेलों को भर दिया है, एक से एक गदाई पकड़ कर लाता है और उन्हें लेखक-कवि घोषित कर देता है और वे बदले में इसे साहित्य का अमिताभ बच्चन कहते हैं। जान लो कि हिंदी में साहस खत्म हो चला है। कोई सच लिखने वाला नहीं है।

कोई लिखे तो? मैने इतराते हुए सिगरेट छिपाई।

तो वो जो कहता, मैं खिलाती। सोहारी, दालपूड़ी, ठोंकवा, जाऊर, कटहर की तरकारी, अनरसा, काला जाम, मगदल जो जी चाहे.... कोई लिखने वाला तो हो।

लालच के मारे मेरे मुंह में पानी भर आया।

उन्हें पता नहीं था कि अगले ही दिन बनारस में -नामवर के निमित्त- हो रहा है और हिंदी पट्टी में रेनेसां की कमान उन्हें सौंपी जानी है। यानि पचहत्तर साल के होने पर घनघोर अभिनंदन। मैं अगले पूरे दिन वहीं टंगा रहा। शाम को कागज पर जो लिखा उन्हें दे आया और कई दिन दावत उड़ाई। बाहर बहुत गालियां पड़ी, मित्रों ने कहा साले कालीदास, हिंदी में जिंदा कैसे रहोगे। लेकिन मां ने पीठ ठोंकी। उस थपकी की याद और उस कागज की एक कॉपी इस हिंग्लिश दिन, उछल कर निकल आई। आप भी पढ़िए।


------बनारस, शनिवार ३ अगस्त २००२---------------------------------------------------


आलोचना गांव के ठाकुर नामवर सिंह बोलने (ऑरेटरी) के लिए जाने जाते हैं। यह हुनर उन्हें कुछ इस तरह प्राप्त है कि टिकिट लगा दिया जाए तो भी सोचने और लिखने वाले लोग उन्हें आएंगे। जो जिस हुनर के लिए जाना जाने लगता है उसके प्रति खासतौर से सचेत हो जाता है। अगर मूंछे किसी की पहचान बन जाएं तो वह उन्हें थोड़ा तेल-पानी से चिकना कर रखता है। लिहाजा नामवर भी यूं कुछ नहीं बोल देते। बोलने से पहले पान घुलाते हुए लहरें गिनते हैं।

कुछ लिखते क्यों नहीं, पूछने वालों को उनकी भक्त मंडली बताने लगी है- लिखने का क्या है, वह हद से हद कुछ दशकों की यात्रा है लेकिन वाचिक परंपरा की पगडंडी सदियों लंबी है। सुदूर भविष्य में जाती सूनी पगडंडी के यात्री नामवर ने उस शाम यूपी के कालेज के राजर्षि सभागार में वह वृत्तांत क्यों सुनाया।

स्मृति चिन्ह, अभिनंदन पत्र, शाल-नारियल और अपनी मूर्ति। मालाएं इतनी कि कई दिनों तक गरदन दुखती रही होगी। प्रशंसा इतनी कि कई दिनों तक खीझ होती रही होगी। हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष प्रभाष जोशी ने कई प्रधानमंत्रियों से अपनी निकटता का यूं ही रेखांकन करने के बाद कहा कि हिंदी पट्टी में पुनर्जागरण के नायक नामवर सिंह ही हो सकते हैं। बघनख और बम लेकर गली-गली घूमते सांप्रदायिकों और भारत पर जाल फेंकती मल्टीनेशल कंपनियों के इस हत्यारे समय में इस पिछड़े, भुच्च और दीन इलाके की मूर्छित विचार परंपरा को सिर्फ वही जगा सकते हैं। भारतीय मनीषा को रचने और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का ध्वंस करने वाले इस हिंदी महादेश के बीमार, कंकाल प्राय ढांचे को बस वही चला सकते हैं।......तो वहां बैठे तुंदियल-तृप्त तेल और तेल की धार देखकर जीवन पथ पर निष्कंटक संचरण करने वाले मास्टरों, लिपिको, लेखकों और समधियों ने मालवा के प्रभाष जी के बाइस्कोप से पुनर्जागरण के महास्वप्न के रशेज और फुटेज देखे।

थकान, यदा-कदा सायास उत्तेजना से तनने वाली, मधुमेह के पाउचों से घिरी ढेरों आंखे उन पर टिकी थीं तभी नामवर सिंह ने वह वृत्तांत सुनाया.........। अठारह सौ सत्तावन के आसपास चंदौली के महाइच परगना के खड़ान गांव में उनके पूर्वज थे शिवरतन सिंह (काशी नाथ सिंह के संस्मरणों में झूरी सिंह) जो अंग्रेजी पलटन में सिपाही थे। जाड़े की एक सुबह कंबल लपेटे, लोटा लेकर निपटान के लिए गए, वहां इलाके में आतंक मचाए एक बाघ ने अचानक हमला कर दिया। बाघ पर कंबल फेंका और लगे लोटे से मारने। आदमखोर से जूझ कर लोटे-लोटे मार ही डाला। पिचके लोटे, चिथड़े कंबल और बाघ की खाल से वीरता के सत्यापन के बाद अंग्रेजों ने उन्हें चंदौली के चार गांव दिए। फिर उन्होंने वह श्लोक सुनाया जिसमें एक गाभिन सिंघनी, आसमान में गरजते बादलों को बरजती हुई कहती है- बादलों मत गरजो, मत गरजो... कहीं ऐसा न हो कि तुम्हे मतवाला हाथी समझ कर मेरा शावक मेरा पेट फाड़कर बाहर निकल आए।

यह हिंदी पट्टी में पुनर्जागरण का महास्वपन देखते शावक की यह गुजरात के रक्त सरोवर में क्रीड़ा करते मदमस्त सांप्रदायिक हाथियों को चुनौती थी। गर्व और शौर्य के उत्ताप से रोंये खड़े हो गए। रोएं खड़े होने के बाद, सभागार में कुर्सियों के चरमराने जैसी एक और जैविक प्रतिक्रिया हुई लेकिन फिर सन्नाटा....। जैसे किसी उबाऊ फिल्म में कोई छू लेने वाला अबोध सा दृश्य आ गया था फिर वही उबासियां।

शायद वहां बैठे दुनियादार लोग जानते थे कि सांप्रदायिक फासीवाद ने मध्यवर्ग को आहत हिंदुत्व की जड़ी सुंघाकर सम्मोहित कर लिया है और मल्टीनेशनलों ने उन सभी को पटा लिया है जो कभी विरोध में बांहे भांजते थे। बच्चे अब मैकडोनाल्ड का बर्गर खाते हुए कटुओं की क्रिकेट मैच में पराजय पर देशी कट्टा दाग रहे हैं। ऐसे में आलोचना के कंबल और सिर्फ लफ्जो के लोटे से यह दानवाकार बाघ कैसे मारा जाएगा। नामवर जी आप ही बताइए।

---------लखनऊ, सोमवार १५ सितंबर २००८-----------------------

उस आयोजन, जिसमें एक शलाका पुरूष ने दूसरे शलाका पुरूष को हिंदी पट्टी के कल्पित रेनेसां का महानायक मुकर्रर किया था, के कोई छह साल बाद मैं, आप दोनों (प्रभाष जी और नामवर जी) से पूछता हूं कि उसके शुरू होने का अगला मुहूर्त कब है?

भैरवी के स्वरों से भोर को भिगोते पं.अजय चक्रवर्ती


पटियाला घराने के उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब के एकलव्य शागिर्द
पं.अजय चक्रवर्ती का नाम संगीतप्रेमियों के लिये अनजाना नहीं है.अजय दा के साथ सबसे बड़ी बात यह है कि वे एक अत्यंत रचनाधर्मी फ़नकार हैं.नित नये प्रयोग करने वाले अजय चक्रवर्ती कोलकाता के आई.टी.सी.संगीत रिसर्च अकादमी से बरसों जुड़े रहे. वे एक कुशल हारमोनियम वादक भी हैं.मैने ख़ुद एक कंसर्ट में उन्हें विदूषी गिरिजादेवी को संगति देते सुना है.

बहरहाल आज भोर बेला में आइये सुन लेते हैं अजय दा की गाई ये भैरवी रचनाएँ.....इसमे प्रमुख है
बाट चलत नई चुनरी रंग डारी , जो एक अत्यंत लोकप्रिय बंदिश है और लगभग हर एक घराने में गाई जाती है.सरगम के साथ गमक भरी उनकी संक्षिप्त बलखाती तानें कहर ढा रहीं हैं .यहाँ अजय चक्रवर्ती ने मध्यलय और द्रुत लय में ये रचनाएँ पेश की हैं.बताता चलूँ अजय भाई ने उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब के दर्शन ज़रूर किये थे लेकिन सीखा उनके साहबज़ादे उस्ताद मुनव्वर अली ख़ाँ साहब से.पं.अजय चक्रवर्ती आज संगीत समारोहों में श्रोताओं के पसंदीदा गायक हैं.

तक़रीबन पन्द्रह मिनट की यह रसवर्षा आपकी सुबह को ज़रूर सुरीला बना देगी.
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Sunday, September 14, 2008

हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र


( १४ सितम्बर ... आज हिन्दी दिवस है. अखबारों,पत्रिकाओं और नेट-टीवी-ब्लाग सब जगह हिन्दी-हिन्दी दिखाई दे रहा है.आह हिन्दी (!) और वाह हिन्दी (!),हाय हिन्दी (!) और बाय हिन्दी (!) दोनो ही तरह की बातें हर साल सितम्बर महीने में सुनाई देती हैं. भारतेन्दु के जमाने में हिन्दी नई चाल में ढ़ली थी, उसके बाद भी ढ़ली और अब इक्कीसवीं सदी के इस शुरुआती दशक में हिन्दी लगातार नई चाल में ढ़ल रही है.जरुरत है कि खुद को 'हिन्दी हैं हम' कहने वाले लोग इसकी चाल को पहचानें और अप्नी चाल बिगड़ने न दें.स्यापा करने के मुकाबले सचेत रहना हमेशा मुफ़ीद होता है.

आज सोचा था कि हिन्दी दिवस के 'उपलक्ष्य' में कोई छोटा-सा लेख लिखूंगा , पर लिख न सका या यों कहें कि लिखने का मन न हुआ. बिना मन के कलम घिसाई करने से आटा कम चोकर अधिक निकलता है. आज सुबह से ही निराला बहुत याद आ रहे हैं. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' - 'हिन्दी के हित का अभिमान वह'. हां वही निराला,हिन्दी का महान कवि और गद्यकार जिस जिसके लिए 'दु:ख ही जीवन की कथा रही'. आज प्रस्तुत है निराला की कविता -हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र।)


हिन्दी के
सुमनों के प्रति पत्र /
निराला

मैं जीर्ण - साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन
मैं हूं केवल पदतल - आसन,
तुम सहज विराजे महाराज .

ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि
मैं ही वसंत का अग्रदूत,
ब्राह्मण - समाज में ज्यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छवि.

तुम मध्यभाग के महाभाग !
तरु के उर के गौरव प्रशस्त,
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त
तुम अलि के नव रस - रंगराग.

देखो, पर, क्या पाते तुम 'फल'
देगा जो भिन्न स्वाद रस भर,
कर पार तुम्हरा भी अन्तर
निकलेगा जो तरु का सम्बल.

फ़ल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुम बांधकर रंगा धागा;
फल के भी उर का, कटु, त्यागा,
मेरा आलोचक एक बीज.