Friday, July 24, 2015

पांच सौ अक्षरों में कैद बहस

‘द हिन्दू’ में 21 अक्टूबर को प्रकाशित लेख का अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय

फ़ोटो: इन्डियन एक्सप्रेस से साभार

पांच सौ अक्षरों में कैद बहस

रोहित धनकर

नई शिक्षा नीति के निर्माण में आम जन की भागीदारी स्वागतयोग्य है, मगर ट्विटर मार्का बहस सुसंगत निष्कर्षों तक नहीं पहुंचा सकती.

अप्रैल के महीने में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने नई शिक्षा नीति के निर्माण के लिए आम जनता को आमंत्रित करने के फैसले की जानकारी दी. उन्होंने बताया कि सरकार ने mygov वेबसाइट के जरिये "पहली बार आम नागरिक को नीतिनिर्माण के काम में हिस्सेदार बनाने का प्रयास किया है, जो अब तक चंद लोगों तक सीमित था." सरकार के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि एक लोकतंत्र के भीतर नीतिनिर्माण में लोगों की ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी से ही बेहतर नीतियां बनती हैं. कम से कम सिद्धांत रूप में यह बात सही है.
      लेकिन वेबसाइट मेंलोगों की टिप्पणियों को 500 अक्षरों और चंद पूर्वनिर्धारित मुद्दोंतक सीमित कर दिया गया है. इस तरह आंशिक रूप से सेंसर की गयी रायशुमारी से ज्यादा से ज्यादा विखंडित और विरोधाभासी सुझाव ही जनता की ओर से मिल पाएंगे. हालांकि विरोधाभासी दृष्टिकोण स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान हैं, फिर भी उन्हें तर्कपूर्ण व व्यवस्थित किए जाने की जरूरत पड़ती है. दूसरे शब्दों में- अगर उन्हें शिक्षा पर एक व्यापक आधार वाले संवाद के उद्देश्य से एकत्र किया जा रहा है तो उन्हें सुविचारित तर्कके रूप में प्रकट करना होगा.
      दूसरे, महत्वपूर्ण दलीलें 500 अक्षरों के अतिसूक्ष्म दायरे में व्यक्त नहीं की जा सकतीं. 500 शब्दों की सीमा के बारे में कहा जा सकता है कि वेबसाइट पर फाइल अपलोड करने की भी छूट है, पर इस तरह अपलोड की गई फाइलें बहस का हिस्सा नहीं बन पातीं. इस तथ्य को वेबसाइट में मौजूद टिप्पणियों को देखकर भी समझा जा सकता है. इसलिए, यह निष्कर्ष निकालना गलत नहीं होगा कि जनता के विचारों को जानने का यह तरीका स्वयं विचारों के विखंडन का पक्षपोषण करता है.

विखंडित विवेक का दौर
मगर यह विखंडित विवेक का दौर है. समाज को इस मान्यता की ओर धकेला जा रहा है कि चिंतन का मतलब विचारों को टुकड़ों में यहां-वहां उछालना भर होता है. वैसे ही जैसे लोग ट्विटर में विचारों को उछालते रहते हैं. विचारों के ये टुकड़े दरअसल किसी खास सन्दर्भ में ही अर्थपूर्ण होते हैं. इस किस्म के विखंडित विचारों से निर्मित संवाद केवल अधपके तर्कों को ही तैयार करता है. वर्तमान सरकार द्वारा कराए जा रहे नीति सम्बन्धी विचार-विमर्श, चाहे इनकी पद्धति की वजह से कहें या फिर समझ की कमी के कारण,महज विचारों के विखंडित और अस्पष्ट बादलों के सामान हैं. यह ट्विटर युग का विवेक है.
      हमारी संस्कृति और राज-व्यवस्था की एक सामान्य प्रासंगिक पृष्ठभूमि कहीं नज़र नहीं आती. यह मान लेगा गलत होगा कि हम अपनी सांस्कृतिक, सामजिक, राजनीतिक और आर्थिक ज़रूरतों को एक सा ही समझते/देखते हैं. ट्वीट करने की थोड़ी-बहुत सार्थकता हो सकती है लेकिन कुल मिलाकर यह एक आधी-अधूरी राय ही है. इससे विचारों के आदान-प्रदान का भ्रम पैदा होता है मगर विचार करने वाले के वास्तविक तर्क और इरादे छुपे रह जाते हैं. शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक सुसंगत तर्क और व्यापक सहमति बनाने के लिए सन्दर्भ बताना बेहद ज़रूरी है.
      ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार नीति (पॉलिसी) एक तरह की दिशा या कार्य को निदेशित करने का सिद्धांत है जिसे किसी संगठन या व्यक्ति ने अपनाया अथवा प्रस्तावित किया हो. इसे विशिष्ट गतिविधियों या क्रियाओं को पैदा करने के लिए उपयोग में लाया जाता है. इसे किन्हीं खास सुझाओं और सिफारिशों की स्वीकार्यता को जांचने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
      मानव संसाधन मंत्रालय इसके द्वारा नियोजित सिलसिलेवार बहस-मुबाहिसे से शिक्षानीति की ऐसी ही रूपरेखा की उम्मीद कर रहा है. mygov वेबसाइट के मुताबिक मंत्रालय ने वेबसाइट पर जो समूह बनाया है उसका उद्देश्य "समावेशी, सहभागितापूर्ण और समग्र दृष्टिकोण से देश के लिए एक नई शिक्षा नीति तैयार करना है." वेबसाइट पर 'संवाद' आयोजित करने के अलावा मंत्रालय की एक "पूर्व परिभाषित सर्वेक्षण प्रश्नावली" के माध्यम से राष्ट्रव्यापी परामर्श एकत्र करने की भी योजना है. इसके लिए भी एक समूह का गठन हो चुका है, एक सरकारी अधिकारी की अध्यक्षता में, हालांकि यह अब तक रहस्यों में घिरा है- जिस जनता से नई नीति पर अपनी राय बताने की अपेक्षा की जा रही है, उसे भी इसके सदस्यों के बारे में कोई जानकारी नहीं है.

दोषपूर्ण पद्धति
इस प्रकार शिक्षा नीति तैयार करने की पद्धति में कम से कम दो गंभीर समस्याएं हैं. पहली, ट्विटर मार्का विचारों की सही-सही व्याख्या की दरकार होती है. लेकिन यह व्याख्या उसी रहस्यमय समूह के हवाले कर दी गई है, जो एक सरकारी अधिकारी की अध्यक्षता में बनाया गया है. व्याख्या के लिए एक सामान्य वैचारिक रूपरेखा की जरूरत पड़ती है, जिसके बारे में चुप्पी साध ली गयी है या उसे सार्वजनिक नहीं किया गया है. इसलिए व्यक्त किए गए विचार पहले से तयशुदा नीतियों को पुष्ट करने के इरादे से तोड़े-मरोड़े जा सकते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि एक छोटे से पसंदीदा समूह के पूर्व-निर्धारित निर्णयों को एक अप्रभावी जन-संवाद के जरिये सही ठहराया जा सकता है.
      दूसरी, सर्वानुमति बनाने के किसी आधारभूत निर्देशक सिद्धांतों के अभाव में इस कवायद का वही नतीजा निकलेगा जिसे शिक्षा के जाने-माने दार्शनिक जॉन व्हाइल "एचसीएफ समस्या" कहते हैं. समूची कवायद से ऐसे अस्पष्ट और अपुष्ट सुझावों का ढेर लग जाएगा, जिनके बीच सामाजिक न्याय और समता के मुद्दे गायब होंगे- क्योंकि इस तरह भिड़ाए गए इन मुद्दों पर कोई आसान सी सहमति उपलब्ध नहीं है. और इस तरह समाज की वास्तविक चिंताएं या तो महत्वहीन हो जाएंगी या सिरे से नदारद होंगी.
      इस विचार-विमर्श के प्रयोजन और उद्देश्य को समझने के लिहाज से प्राथमिक शिक्षा के लिए चुने गए 13 प्रकरणों का पाठ बड़ा दिलचस्प है. प्रत्येक प्रकरण का करीब 200 शब्दों में परिचय दिया गया है और साथ में विमर्श के लिए सवालों की एक सूची है. ज्यादातर सवाल इसके संचालन की बारीकियों से जुड़े हैं. नीति से इनका कोई खास संबंध नहीं है.
      उदाहरण के लिए, एक सवाल में यह पूछा गया है कि टेक्नोलॉजी का शिक्षकों की वास्तविक मौजूदगी को सुनिश्चित करने के लिए कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है. सवाल के गठन से ही स्पष्ट हो जाता है कि मुद्दा यह नहीं कि टेक्नोलॉजी इस्तेमाल करनी चाहिए या नहीं, बल्कि यह है कि कैसे इसे इस्तेमाल करना चाहिए. अगर सवाल 'क्या' से शुरू होता तो यह शिक्षक की विश्वसनीयता, स्वायत्तता, जिम्मेदारी व सम्मान जैसे सभी महत्वपूर्ण मुद्दे उठाता. लेकिन 'कैसे' जोड़ देने से यह पहलेही तय हो गया कि शिक्षकों की कड़ाई से निगरानी करनी चाहिए और उन्हें दंड का भय दिखाना चाहिए. इसलिए 'क्या टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना चाहिए' जैसा सवाल एक नीति से जुड़ा सवाल बन जाता है, क्योंकि यह सामान्य सिद्धांतों के गिर्द घूमता है, जबकि 'कैसे' जुड़ने वाली चर्चा एक तकनीकी सवाल है जिसका नीति से कोई खास ताल्लुक नहीं बल्कि यह कार्यान्वयन का मसला है.वेबसाइट में ज्यादातर प्रश्न इसी मिजाज़ के हैं.
      यहां ध्यान देने लायक बात यह है कि प्रकरणों के परिचय में ही कई पूर्व निर्धारित नीतियां छुपी हुई हैं. उदाहरण के लिए, स्कूल स्तर पर परीक्षा सुधार वाला प्रकरण कहता है कि "परीक्षा सुधार शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को बदल देगा और अधिगम परिणामों में सुधार लाएगा." यह विचार के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा हो सकता था कि क्या 'परीक्षा-उन्मुख सुधार' सफल हो सकते हैं, अथवा वे 'परीक्षा के लिए पढ़ाई' को प्रोत्साहन देंगे और इस तरह समालोचनात्मक तार्किकता के लिए दी जाने वाली शिक्षा का ही बंटाधार कर डालेंगे. परीक्षा का डर क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्याओं में एक नहीं है? लेकिन यहां, परीक्षा-उन्मुख सुधार को आस्था के एक तत्व की तरह स्वीकार कर लिया गया है.
      मैं शिक्षा नीति पर सार्वजनिक बहस की मुखालिफत नहीं कर रहा हूं. न ही मैं शिक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा किए जाने के विरोध में हूं. एक लोकतांत्रिक देश में शिक्षा नीति पर फैसले लेने के लिए ये दोनों सामान रूप से आवश्यक हैं. दिक्कत सिर्फ इतनी है कि तयशुदा सवालों और पूर्व-निर्धारित प्रकरणों से गहरे और निष्पक्ष वाद-विवाद की संभावना सीमित हो जाती है.
      आज भारतीय शिक्षा तीन दिशाओं से खिंचाव महसूस कर रही है. पहली दिशा, शिक्षा को आर्थिक वृद्धि की जरूरतों के अनुरूप ढालने की वकालत की है. इसमें व्यावहारिक कौशल-निर्माण और पर्याप्त कार्यशक्ति तैयार करने पर जोर दिया जाता है. दूसरी दिशा शिक्षा को लोकतंत्र और सामाजिक न्याय को हासिल करने की ओर ले जाने की है. इसमें समाज, राजनीति, अर्थतंत्र की आलोचनात्मक समझ बनाने तथा ज्यादा समतामूलक व सामंजस्यपूर्ण समाज के लिए मूल्यों का ढांचा गढ़ने पर जोर दिया जाता है. तीसरी दिशा, जो दिन पर दिन मजबूत होती जा रही है, शिक्षा को भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के एक खास नजरिये से जोड़ने का दबाव बनाती है. इसका जोर पाठ्यक्रम में हिन्दू नायकों, ग्रंथों और आचरण के लिए ज्यादा से ज्यादा जगह बनाने पर है. तीनों तरह के खिंचाव समाज और राज्य-व्यवस्था की जरूरतों के अलग-अलग दृष्टिकोणों को रेखांकित करते हैं. उदाहरण के लिए, पहला आर्थिक खिंचाव जहां बिकाऊ कौशलों पर जोर देता है, वहीं राजनीतिक आलोचना और सामाजिक न्याय के मुद्दों की उपेक्षा करता है. इसका परिणाम एक कार्यक्षम किन्तु दब्बू कार्यशक्ति और उपभोक्तावाद के विस्तार के रूप में प्रकट होगा. दूसरी ओर, एकमात्र सामाजिक न्याय के लिए शिक्षा को समर्पित कर देने का परिणाम वही होगा जिसे कोठारी आयोग की रिपोर्ट "बेरोजगार स्नातकों की फ़ौज” कहती है. जो सामाजिक न्याय हासिल करने में भी नाकामयाब होगी. और भारतीय संस्कृति व इतिहास की इकतरफा समझ पर जोर देने का परिणाम समाज में विभाजन और कडुआहट के बीजारोपण के रूप में प्रकट होगा. जो आर्थिक प्रगति के साथ-साथ लोकतंत्र तथा सामाजिक न्याय को भी नष्ट कर डालेगा.
      सरकार का ट्विटर मार्का बहस-मुबाहिसे पर जोर यह बताता है कि वह किसी दीर्धकालिक संवाद के पक्ष में नहीं है. पूर्व परिभाषित बिंदुओं और तयशुदा सवालों के जरिए संकीर्ण दायरे में सार्वजानिक बहस को खोलने की रणनीति वास्तविक नीतिगत मुद्दों पर बहस को पहले ही रोक देती है. इस तरह निर्णय कुछ चुनिन्दा हाथों तक सिमट जाते हैं. खुली लोकतांत्रिक बहस का भ्रम पैदा किया गया है लेकिन असल में जनता का दिमाग छोटे-छोटे मामूली विवरणों में उलझाया जा रहा है.
(रोहित धनकर अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बंगलुरु में अकादमिक विकास विभाग के प्रोफ़ेसर व निदेशक हैं.

साथ ही वह दिगंतर, जयपुर के अकादमिक सलाहकार भी हैं.)

Wednesday, July 8, 2015

रोटी लेने वालों ने क़तार ईजाद की और मिलकर गाना सीखा

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की यह कविता ख़ास तौर पर मित्र आशुतोष बरनवाल ने लिए लगाई जा रही है -



शायरी मैंने ईजाद की

काग़ज़ मराकशियों ने ईजाद किया
हुरूफ़ फ़ोनेशियनों ने
शायरी मैंने ईजाद की

कब्र खोदने वालों ने तन्दूर ईजाद किया
तन्दूर पर कब्ज़ा करने वालों ने रोटी की परची बनाई
रोटी लेने वालों ने क़तार ईजाद की
और मिलकर गाना सीखा

रोटी की क़तार में जब चींटियां भी आकर खड़ी हो गईं
तो फ़ाक़ा ईजाद हुआ

शहवत बेचने वाले ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया
शायरी ने रेशम से लड़कियों के लिये लिबास बनाए
रेशम में मलबूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने महलसरा ईजाद की
जहां जाकर उन्होंने रेशम के कीड़े का पता बता दिया

फ़ासले ने घोड़े के चार पांव ईजाद किए
तेज़ रफ़्तारी ने रथ बनाया
और जब शिकस्त ईजाद हुई
तो मुझे तेज़ रफ़्तार रथ के नीचे लिटा दिया गया
मगर उस वक़्त तक शायरी मुहब्बत की ईजाद कर चुकी थी

मुहब्बत ने दिल ईजाद किया
दिल ने खे़मा और कश्तियां बनाईं
और दूर दराज़ के मुक़ामात तय किए
ख़्वाज़ासरा ने मछली का कांटा ईजाद किया
और सोए हुए दिल में चुभो कर भाग गया

दिल में चुभे हुए कांटे की डोर थामने के लिए
नीलामी ईजाद हुई
और ज़ब्र ने आख़िरी बोली ईजाद की

मैंने शायरी बेचकर आग ख़रीदी
और ज़ब्र का हाथ जला दिया

(ईजाद करना: आविष्कार करना, मराकश: मोरक्को, हुरूफ़: शब्द का बहुवचन, फ़ोनेशिया: भूमध्यसागर और लेबनान के बीच एक स्थान, फ़ाक़ा: भूख, शहवत: काम वासना, मलबूस: कपड़े धारण किए हुए, महलसरा: अंतःपुर, ख़्वाज़ासरा: हिजड़ा, ज़ब्र: दमन और अत्याचार)

Tuesday, July 7, 2015

जब बारिश हो रही हो तो किसी से कुछ नहीं मांगना चाहिए

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की कविता की यह नायाब कविता फिर से:


अगर कोई पूछे 

अगर कोई पूछे कि दरख़्त अच्छे होते हैं या छतरियां
तो बताना कि दरख़्त 
जब हम धूप में उनके नीचे खड़े हों
और छतरियां जब हम धूप में चल रहे हों
और चलना अच्छा होता है उन मंज़िलों के लिए
जहां जाने के लिए कई सवारियां और इरादे बदलने पड़ते हैं
हालांकि सफ़र तो उंगली में टूट जाने वाली सुई की नोंक का भी होता है
और उसका भी जो उसे दिल में जाते हुए देखती है

अगर कोई पूछे कि दरवाज़े अच्छे होते हैं या खिड़कियां
तो बताना कि दरवाज़े दिन के वक़्त
और खिड़कियां शामों को
और शामें उनकी अच्छी होती हैं
जो एक इन्तज़ार से दूसरे इन्तज़ार में सफ़र करते हैं
हालांकि सफ़र तो उस आग का नाम है 
जो दरख़्तों से ज़मीन पर कभी नहीं उतरी

मांगने वाले को अगर कच्ची रोटियां एक दरवाज़े से मिल जाएं तो उसे
दियासलाई अगले दरवाज़े से मांगनी चाहिए
और जब बारिश हो रही हो तो किसी से कुछ नहीं मांगना चाहिए
न बारिश रुकने की दुआएं
दुआ मांगने के लिए आदमी के पास एक ख़ुदा का होना बहुत ज़रूरी है
जो लोग दूसरों के ख़ुदाओं से अपनी दुआएं क़ुबूल करवाना चाहते हैं
वो अपनी दाईं एड़ी में गड़ने वाली सुई की चुभन
बाईं में महसूस नहीं कर सकते

बाज़ लोगों को खुदा विरसे में मिलता है
बाज़ को तोहफ़े में, बाज़ अपनी मेहनत से हासिल कर लेते हैं
बाज़ चुरा लाते हैं
बाज़ फ़र्ज़ कर लेते हैं
मैंने ख़ुदा क़िस्तों में ख़रीदा था
क़िस्तों में ख़रीदे हुए ख़ुदा उस वक़्त तक दुआएं पूरी नहीं करते
जब तक सारी क़िस्तें अदा न हो जाएं
एक बार मैं ख़ुदा की क़िस्त वक़्त पर अदा न कर सका
ख़ुदा को मेरे पास से उठा ले जाया गया
और जो लोग मुझे जानते थे
उन्हें पता लग गया
कि अब मेरे पास न ख़ुदा है, न क़ुबूल होने वाली दुआएं
और मेरे लिए एक ख़ुदा फ़र्ज़ कर लेने का मौका भी जाता रहा.

Monday, July 6, 2015

फ़्रांस के चित्रकार रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों - 3

मौने की तारीफ से उत्साहित होकर फ्रांसुआ देपॉ ने इस युवा कलाकार के करियर का नियंत्रण अपने हाथों में लेने का फ़ैसला किया. शुरूआत के तौर पर देपॉ ने पिनशों का ढेर सारा काम खरीद लिया. इस सम्बन्ध ने 1920 तक चलना था.
1904 में  पिनशों ने थियेटर नौर्मैड के एक प्रोग्राम का कवर तैयार किया. गी दे मोपासां का एक नाटक मंचित किया जाना था. 

18 जुलाई से 18 सितम्बर तक पिनशों ने अपने चित्रों को दुबारा से प्रदर्शित किया. इस बार कसीनो दे दीईपे में उनके साथ लूचे, लेबर्ग और कैमोइन के चित्र लगे थे. जब वे उन्नीस साल के थे तो रुआं की गैलरी लेग्रिप में उनकी पहली प्रमुख प्रदर्शनी आयोजित हुई. इसमें चौबीस कैनवास सजाये गए थे. इस बाबत दो महत्वपूर्ण आलेख भी छपे.

उसी साल रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों ने पहली बार पेरिस का रुख किया. 1905 में पेरिस में अक्टूबर नवम्बर में लगी इस प्रदर्शनी में फॉविज़्म का विधिवत जन्म माना गया.आलोचक कमील मौक्लेयर ने लिखा : जनता के मुंह पर रंगों का एक बर्तन उड़ेल दिया गया है.   


लुई वौसेलास ने एक ही कक्ष में लगे और एक  शिल्प का प्रभाव देते कुछेक पेंटर्स के चित्रों को देखकर लेस फॉव्स’ (बनैले पशु) शब्द का आविष्कार किया. 20 नवम्बर को मार्सेल निकोल ने लिखा इन चित्रों का कला से कोई सम्बन्ध नहीं है. इनकी तुलना एक मासूम बच्चे के खेल से की जा सकती है जिसके पास खिलौने के नाम पर केवल रंगों का डिब्बा हो.





(जारी)

Sunday, July 5, 2015

फ़्रांस के चित्रकार रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों - 2

रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों ने शताब्दी की शुरुआत में रुआं के लिसी पीयर-कॉर्नेल में अध्ययन किया. उसकी कक्षा में पढ़ने वाले दो और छात्र विख्यात चित्रकारों में शुमार होने के साथ-साथ अन्तरंग मित्र भी बने. ये थे मार्सेल ड्यूशैम्प और पीयर ड्यूमौन्त. इस स्कूल में 1874 से पढ़ा रहे फ़िलिप ज़कारी (1849-1915) ड्राइंग की कक्षाएं लेते थे और ख़ासे अनुशासनप्रिय और सख्त माने जाते थे. फ्रांस के कला संसार में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के महत्वपूर्ण लोगों में ज़कारी का शुमार किया जाता है.  

कला की विधिवत शिक्षा लेने के साथ-साथ रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों ने 1895-96 में जोसेफ़ देलात्रे द्वारा स्थापित लिबरे अकादमी और रयू देस शारले जाने को अपना नियमित काम बना लिया. नए और उभरते कलाकारों के ये जगहें प्रेरणा के अड्डों का काम किया करती थीं.

फरवरी 1903 में मार्सेल ड्यूशैम्प के अपने दोस्त रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों का पोर्ट्रेट बनाया. उसी साल 15 जून से 31 जुलाई तक रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों ने अपनी दो पेंटिंग्स को रुआं की नगरपालिका के प्रदर्शनी हॉल में अपनी दो पेंटिंग्स प्रदर्शित कीं. उस समय के बड़े कला-पारखी चार्ल्स हिल्बर्ट ड्यूफ़ॉर ने रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों के बारे में अच्छी बातें लिखीं. पिनशों की आयु तब कुल 17 थी.

रुआं में 14 मई से 15 जुलाई 1903 में हुई वार्षिक कला प्रदर्शनी में रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों ने अपना काम जिन कलाकारों के साथ प्रदर्शित किया उनमें चार्ल्स फ्रेकों, ब्लांच मोने और स्वयं क्लाउड मौने शामिल थे. मौने ने यहाँ रुआं के चर्च की अपनी बनाई पेंटिंग टांग रखी थी. रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों के काम को इम्प्रेशनिस्ट कला के संग्राहक फ्रांसुआ देपॉ ने बहुत पसंद किया जबकि क्लाउड मौने ने इस युवा कलाकार के लिए लिखा : चौंका देने वाली एक आँख की सेवा में चौंका देने वाला एक स्पर्श.





 (जारी) 

Saturday, July 4, 2015

फ़्रांस के चित्रकार रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों - 1

फ्रांसीसी पोस्ट-इम्प्रेशनिस्ट लैंडस्केप पेंटर रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों (1886-1943) रुआं स्कूल ऑफ़ पेंटिंग से ताल्लुक़ रखते थे. वे ताजिंदगी अपने स्कूल के प्रति वफादार बने रहे. उन्नीस साल की आयु से लेकर अगले दो वर्षों तक उन्होंने फॉव शैली में काम किया लेकिन वे न तो कभी भी क्यूबिज्म की तरफ बढ़े न ही उन्होंने यह माना कि पोस्ट मॉडर्निज्म किसी भी तरह उनकी कलात्मक आवश्यकताओं के लिहाज़  से कमतर है.

रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो कलात्मक और साहित्यिक दृष्टि से बेहद संपन्न था. उनके पिता रॉबर्ट पिनशों लाइब्रेरियन, पत्रकार, नाटककार और रंगमंच-आलोचक तो थे ही, विख्यात कहानीकार गी दे मोपासां के अन्तरंग मित्र भी थे. वे गुस्ताव फ्लाबेयर के शिष्य भी रहे थे. मोपासां और रॉबर्ट पिनशों ने 1875 में एक नाटक ‘A la Feuille de Rose Maison Turqueकी स्क्रिप्ट लिखी थी जो इरोटिसिज़्म और वैश्यावृत्ति जैसे विषयों को स्पर्श करता था. नाटक का आधिकारिक मंचन 15 मई 1877 को मौरिस लेलोआ के स्टूडियो में किया गया – दर्शकों में गुस्ताव फ्लाबेयर, एमिल ज़ोला और इवान तुर्गेनेव जैसे दिग्गज शामिल थे.

जब रॉबर्ट ने देखा कि बेटे के भीतर कला के लिए शुरूआती रुझान है तो उन्होंने उसके लिए ढेर सारे ऑइल पेंट्स खरीदे और उसे लेकर सन्डे पेंटिंग वॉक्स पर जाना शुरू किया. 1898 के एक फोटो में रॉबर्ट जूनियर को 12 वर्ष की आयु में पेंटिंग करते हुए देखा जा सकता है. सन 1900 में उन्होंने अपने पुत्र की कुछ पेंटिंग्स की एक प्रदर्शनी भी आयोजित की.

उसी साल रयू दे ला रीपब्लीक में रॉबर्ट एन्टोइन ने कैमरा सप्लाई करने वाले विख्यात स्टोर Dejonghe and Dumont के शोकेस में अपना काम प्रदर्शित किया. यह स्थान हालांकि उतना उल्लेखनीय नहीं था लेकिन यहाँ प्रदर्शित कलाकृतियों को जनता ने देखा. इस स्थान की एक खूबी थी कि यह होटल डॉफ़िन एट द’एस्पाने से फ़क़त कुछ ही मीटर की दूरी पर था जहां पॉल गोगां, मोने, पिसारो, देगा, रेनुआ, सेजां, गिलोमीन और सिसली जैसे बड़े कलाकारों का काम नियमित रूप से प्रदर्शित हुआ करता था. 16 मार्च 1900 को ज्योर्ज ड्यूबोक नामक एक आलोचक ने रॉबर्ट एन्टोइन की कला पर एक लंबा आलेख लिखा जो ले जर्नल दे रुआं में प्रकाशित हुआ.







(जारी)

Friday, July 3, 2015

एक पेन्टर तीन फ़ोटोग्राफ़

ये तस्वीरें बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में खींची गयी थीं. फ्रांसीसी पोस्ट-इम्प्रेशनिस्ट पेंटर रॉबर्ट एन्टोइन पिनशों के बारे में कल से एक लम्बी सीरीज शुरू कर रहा हूँ.





Wednesday, July 1, 2015

मिरजाम एप्पलहोफ़ की कला

मिरजाम एप्पलहोफ़
मिरजाम एप्पलहोफ़ नीदरलैंड की आधुनिक कलाकार हैं. अपनी कला को लेकर उनका कथन है – “मैंने कोई चार साल पहले इमेजेज़ बनाना शुरू किया. मेरे भीतर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की उद्दाम इच्छा उठा करती थी. भाग्यवश मुझे मेरा माध्यम मिल गया ... मेरा कैमरा. मेरी रचनात्मकता में गति नज़र आती है क्योंकि मैं समझती हूँ कि इस दुनिया में स्थिर कुछ भी नहीं है. जब भी कोई पल ठहरता है, मेरी कला उसे उस कालखंड से आगे तक निरंतरता प्रदान करती है. मैक्रो लेंस मेरा सबसे प्रिय लेंस है. मुझे छोटी छोटी चीज़ों की मदद से सम्पूर्ण संसार की रचना करने में आनंद आता है. इन छोटी छोटी चीज़ों को मैं अर्थ प्रदान करती हूँ. मेरे काम का निर्माण अमूमन एकाधिक इमेजेज़ की मदद से होता है जिन्हें मैं फ़ोटोशॉप की सहयता से एक साथ जोड़ती हूँ. कभी कभी मैं अपनी छवियों पर पेन्ट भी करती हूँ. इनमें दिखने वाली अधिकतर आकृतियाँ अक्सर खुद मैं होती हूँ.” 
















दीएगो मारादोना पर फ़िल्म – क्रांतिकारी, फुटबॉलर, मनुष्य, ईश्वर, पारिवारिक इंसान, ड्रग-एडिक्ट और मिथक

होरहे लुई बोर्हेस ने एक बार लिखा था कि अर्जेंटीना के लोग उन्हें बंदरगाहों में लंगर से बंधी नावों की याद दिलाते हैं. यह अलग बात है कि ऐसा लिखते समय इस शानदार लेखक ने दिएगो मारादोना के बारे में सोचा ही नहीं होगा. एल दिएगो अपनी माता के लंगर से सिर्फ अपने जन्म तक ही बंधे रहे थे. उसके बाद से ही वे एक ऐसी नाव जैसे दिखाते रहे जिसकी डेक पर कभी कोई रस्सी नज़र नहीं आई. दिएगो आसानी से मेरी पहली फिल्म ‘डू यू रिमेम्बर डॉली बेल’ के नायक हो सकते थे और सारायेवो का वह क़स्बा गोर्सिया आसानी से बूएनोस आयरेस का फीयोरीतो हो सकता था
            
            – फिल्म की स्क्रिप्ट से                           


ये हैं दीएगो मारादोना – क्रांतिकारी, फुटबॉलर, मनुष्य, ईश्वर, पारिवारिक इंसान, ड्रग-एडिक्ट और मिथक – दो बार के पाल्मे दोर अवार्ड से सम्मानित फिल्मकार एमिर कुस्तुरिका के मारादोना. विख्यात निर्देशक एमिर कुस्तुरिका अपनी इस डॉक्यूमेंट्री में फुटबॉल के आधुनिक मिथक बन चुके दीएगो मारादोना की कहानी की तलाश करते हैं. फिल्म में मानू चाओ और सेक्स पिस्टल्स ने संगीत दिया है.



मारादोना की ख्याति एक जनपक्षधर नायक की रही है जो बहुत निर्धन पृष्ठभूमि से निकलकर विश्वविख्यात सितारा बना और जिसने तमाम दुश्वारियों का सामना करने के बाद एक जीवित महानायक का क़द हासिल किया. फिल्म के आगे बढ़ने के साथ साथ निर्देशक और फिल्म के विषय अर्थात दीएगो मारादोना में नज़दीकी बढ़ती जाती है और दीएगो अपने जीवन के उन तथ्यों से आपको रूबरू कराते हैं जिनके बारे में बहुत ज़्यादा मालूमात लोगों को नहीं हैं. फिल्म में आप उन सारी जगहों पर जाते हैं जो दीएगो मारादोना को प्रिय हैं और आपकी समझ में आने लगता है कि किस तरह इस फुटबॉलर के निर्माण में उसके परिवेश का योगदान रहा है. उसके सबसे करीबी लोगों से बात करने के बाद आपको इस रंगबिरंगे व्यक्तित्व की एक बेहद अन्तरंग झलक मिलती है.




क्यूबा के जननेता फिदेल कास्त्रो के साथ का वार्तालाप इस बात को रेखांकित करता है कि किस तरह मारादोना से बात करते समय दुनिया के सबसे बड़ी हस्तियाँ तक झेंप महसूस करने लगती हैं. ‘ब्लैक कैट व्हाईट कैट’ के बाद यह संभवतः कुस्तुरिका की फॉर्म के लिहाज़ से सबसे अभिव्यक्तिपूर्ण और कथ्य के हिसाब से सबसे रेडिकल फिल्म है जिसमें उन्होंने दीएगो मारादोना को न सिर्फ एक उस्ताद खिलाड़ी की तरह चित्रित किया है, वे मारादोना के भीतर का एक ऐसा मनुष्य सामने लाने में सफल रहे हैं जो राजनैतिक रूप से अतीव सजग और सचेत है. 
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साल: 2006
विधा: डॉक्यूमेंट्री 
निर्देशक: एमिर कुस्तुरिका
स्क्रीनप्ले: एमिर कुस्तुरिका
कास्ट:दिएगो मारादोना
सिनेमेटोग्राफी: रोलो पल्पीरो
फिल्म एडिटिंग: स्वेतोलिक म्लीका जाच
प्रोडक्शन: पेंटाग्रामा फ़िल्म्स, टेलीसिंको सिनेमा, फिदेलिते फ़िल्म्स, वाइल्ड बंच प्रोडक्शन्स 

डिस्ट्रीब्यूटर: वाइल्ड बंच