Wednesday, December 30, 2009

बिल्लियों जैसी होती हैं भाषाएं

येहूदा आमीखाई की ये कविता पहले भी लगा चुका हूं. आज पुनः लगा रहा हूं. इसलिए लगा रहा हूं कि इसकी प्रासंगिकता कभी ख़त्म नहीं होती:


येहूदा आमीखाई (१९२४-२०००) इज़राइल में पैदा हुए बीसवीं सदी के बहुत बड़े कवि थे. तीस से अधिक भाषाओं में अनूदित हो चुके येहूदा की कविता युद्ध और नफ़रत से जूझ रहे संसार की ख़ामोश पुकार है. उनके बग़ैर बीसवीं सदी की विश्व कविता ने अधूरा रह जाना था. ज़्यादा लिखने से बेहतर है उनकी आख़िरी रचनाओं में से एक आप के सम्मुख रख दी जाए.

मेरे समय की अस्थाई कविता

हिब्रू और अरबी भाषाएं लिखी जाती हैं पूर्व से पश्चिम की तरफ़
लैटिन लिखी जाती है पश्चिम से पूर्व की तरफ़
बिल्लियों जैसी होती हैं भाषाएं
आपको चाहिये उन्हें ग़लत तरीके से न सहलाएं
बादल आते हैं समुद्र से
रेगिस्तान से गर्म हवा
पेड़ झुकते हैं हवा में
और चारों हवाओं से पत्थर उड़ते हैं
चारों हवाओं तलक. वे पत्थर फेंकते हैं
इस धरती को फेंकते हैं एक दूसरे पर
लेकिन धरती वापस गिरती है धरती पर.
इसके पत्थर, इसकी मिट्टी -
आप इससे छुटकारा पा ही नहीं सकते.
वे मुझ पर पत्थर फेंकते हैं
पत्थर फेंकते हैं
सन १९३६ में १९३८ में १९४८ में १९८८ में
सेमाइट* पत्थर फेंकते हैं सेमाइटों पर
और एन्टी सेमाइट पत्थर फेंकते हैं
एन्टी सेमाइटों पर
दुष्ट पत्थर फेंकते हैं और उदारजन
पापी लोग पत्थर फेंकते हैं और फुसलाने वाले
भूगर्भवेत्ता पत्थर फेंकते हैं और दार्शनिकगण
गुर्दे और पित्ताशय पत्थर फेंकते हैं
सिरों के पत्थर
माथों के पत्थर और दिलों के पत्थर
पुरातत्ववेत्ता पत्थर फेंकते हैं और महाशैतान
चीखते मुंह के आकार के पत्थर
आपकी आंख की नाप के पत्थर
चश्मे की जोड़ी जैसे
बीता हुआ वक्त पत्थर फेंकता है भविष्य पर
और वे सारे के सारे गिरते हैं वर्तमान के ऊपर.
रोते हुए पत्थर और हंसते हुए कंकड़
यहां तक कि ईश्वर ने भी पत्थर फेंके थे बाइबिल के मुताबिक
यूरिम और तूमिम को भी फेंका गया था
और वे जा चिपके थे न्याय की तश्तरी पर
और हैरड ने फेंके थे
उसके बाद जो निकल कर सामने आया वह एक मन्दिर था

उफ़, पत्थरों की उदासी की कविता!
उफ़, पत्थरों पर फेंकी गई कविता!
उफ़, फेंके ग पत्थरों की कविता!
क्या इस धरती पर एक भी ऐसा पत्थर है
जिसे कभी फेंका न गया हो
न बनाया गया हो न पलटा गया हो
जो कभी किसी दीवार पर से न चीखा हो
और जिसे किसी भवन निर्माता ने अस्वीकार न किया हो
जिसे कभी न धरा गया हो किसी कब्र के ऊपर
जिसके ऊपर कभी न लेटे हों प्रेमीजन
और जिसे कभी किसी बुनियाद में तब्दील न किया गया हो

कृपा करके अब और पत्थर मत फेंको
तुम धरती को हटा रहे हो
इस पवित्र
सम्पूर्ण खुली धरती को
तुम उसे समुद्र में डाल रहे हो
जबकि समुद्र उसे नहीं चाहता
समुद्र कहता है "ना मेरे भीतर नहीं"

मेहरबानी करके नन्हे पत्थर फेंको
सीपियों के जीवाश्म फेंको
कंकड़ फेंको
मिगदाल त्सादेक की खदानों से न्याय और अन्याय को फेंको
मुलायम पत्थर फेंको
मीठे ढेले फेंको
चूने के पत्थर फेंको
मिट्टी फेंको
समुद्रतट की रेत फेंको
लोहे की जंग फेंको
मिट्टी फेंको
हवा फेंको
कुछ मत फेंको
जब तक कि तुम्हारे हाथ थक न जाएं
और युद्ध भी थक जाए
और यह भी हो कि शान्ति थक जाए
और बनी रहे.

*सेमाइट: मध्यपूर्व और उत्तरी अफ़्रीका में सेमाइटिक भाषा बोलने वालों का समूह

Tuesday, December 29, 2009

एक हिमालयी यात्रा - ग्यारहवां हिस्सा

(पिछली किस्त से जारी)

तीन नवयुवक बाहर खड़े हैं. उनकी पोशाकें बतला रही हैं कि वे पेशेवर ट्रैकर हैं. वे अपना परिचय देते हैं - महाराष्ट्र से आए कोई दर्ज़न भर ट्रैकर्स के टीम लीडर्स हैं ये लोग. उनके चेहरों पर एक तरह की चमक है. उनकी दाढ़ियों पर हफ़्ते भर पुराने लापरवाही से उगे हुए बाल हैं और इससे वे और भी ज़्यादा रफ़टफ़ और मजबूत नज़र आते हैं .

"हमने सुना है कि आप लोग दारमा से आ रहे हैं. तो आप ने सिन-ला पार कर लिया?" उनमें सबसे बड़ा नज़र आ रहा युवक विनम्रता से पूछता है. जब मैं हां मैं जवाब दिया तो वह हमारी माउन्टेनियरिंग गीयर देखने की इच्छा प्रकट करता है. मैं उसे बताता हूं कि हमारे पास ऐसी कोई चीज़ नहीं है, वह मेरी बात पर यकीन नही करता दीखता और चाहता है कि वह हमारी रस्सियां, हार्नेसेज़, कैराबाइनर्स, बर्फ़ काटने की कुल्हाड़ियां वगैरह देखने पर आमादा है. मैं उसे तहजीब से बतलाता हूं कि मैंने सच कहा था.

"चलिये, ठीक है" वह कुछ पल सोचकर कहता है "क्या मैं आप लोगों के बूट्स पर निगाह डाल सकता हूं?"

मैं तुरन्त झुकता हूं और अपने वॉकिंग शूज़ खोलना शुरू करता हूं.

"नहीं, नहीं, मेरा मतलब है जिन बूट्स से आपना अपना एक्सपैडीशन पूरा किया था.

अभियान! मैं नहीं समझता हमारे दुस्साहसभरे कृत्य को ’अभियान’ कहा जा सकता है.

"मैंने यही जूते पहन के सिन-ला पार किया था भाई. और मेरे पास बस यही जोड़ी है."

वह सवालिया निगाहों से मुझे देखता है और मुझे पक्का यकीन है कि वह मुझ पर ज़रा भी भरोसा नहीं कर रहा.

"आप लोग भीतर क्यों नहीं आते. एक चाय हो जाए."

इगलू के भीतर आकर वे बहुत करीब से हमारे तीन मासूम दिख रहे बैग्ज़ को देखते हैं. उनकी आंखें किसी जासूस की तरह हमारे बड़े रक्सैक्स और बाकी उपकरण तलाश रही हैं जिन्हें शायद हमने कहीं छिपा दिया है.

अन्ततः ऐसा लगता है कि अब उन्हें हमारी बात पर भरोसा हो गया है.

"हम लोग सुबह रास्ते की टोह लेने जौलिंगकौंग गए थे लेकिन इधर की तरफ़ जितनी बर्फ़ है उसे देख कर सिन-ला चढ़ना तो नामुमकिन लगता है. हम लोग आपसे मिलना चाहते थे पर आप लोग सो रहे थे. ... बहुत मुश्किल रहा होगा न?"

मैं सबीने की तरफ़ निगाह डालता हूं, जो निश्छल तरीके से मुस्कराती है और ट्रैकरों के मुखिया से मुखा़तिब होकर कहती है "हां, थोड़ा मुश्किल था."

(जारी)

Sunday, December 27, 2009

नौछम्मी नरैण एक बार फिर से

नौछम्मी नरैण एक बार फिर से सुनिये/देखिये. यह इस गीत का ओरिजिनल वर्ज़न है. कल यह किसी कारणवश यूट्यूब पर नहीं चल पा रहा था.

यकीन मानिये यह पूरा वीडियो बेहद दर्शनीय है.

कृपया यूट्यूब में दिखाए जा रहे शीर्षक पर न जाएं. कल से मूल शीर्षक पता नहीं कैसे अपने आप बदल गया. यह भी नरैण महिमा ही मानी जानी चाहिये सम्भवतः

Saturday, December 26, 2009

कलजुगी औतारी उर्फ़ नौछम्मी नरैण

पर्वतपुत्र विकासपुरुष के नाम से ब्रह्माण्ड में ख्यात एक देवतुल्य राजनेता उर्फ़ नौछम्मी नरैण एक बार पुनः अपने अन्तःपुर में गोपियों के साथ पाए गए.

पता नहीं इतना बावेला काहे मचा पड़ा है. उत्तराख्ण्ड में तो हर कोई कृष्णावतार की अलौकिक लीलाओं से वाकिफ़ है ही भाई!

किन्तु धन्य हो! नब्बे का आंकड़ा छूने को तैयार बैठे इन्ही कलयुगी कृष्णावतार की प्रशस्ति में गढ़वाल के मशहूर और अतीव लोकप्रिय गायक और मेरे अजीज़ मित्र श्री नरेन्द्र सिंह नेगी ने कुछ वर्ष पूर्व इन्हीं देवतुल्य राजनेता पर आधारित एक गीत लिखा और गाया था. सूचना विभाग में अधिकारी के पद पर तैनात नेगी जी को इन्हीं नरैण की कृपा से नौकरी छोड़नी पड़ी थी.

लीजिये देखिये इस गीत का वीडियो. गुज़ारिश है कि गीत को पहले पूरा लोड हो जाने दें, तभी आनन्द आएगा.



(साभार: http://www.youtube.com)

Friday, December 25, 2009

एक हिमालयी यात्रा - दसवां हिस्सा



(पिछली किस्त से जारी)

जौलिंगकौंग से निकलते-निकलते हमें बारह बज गया है. जौलिंगकौंग छोड़ते हुए मैं किसी छोटी-मोटी फ़तह की धुंधलाई प्रसन्नता में एक दफ़ा पलटकर सिन-ला पर निगाह डालता हूं. जीवन में देखे गए सुन्दरतम लैन्डस्केप हैं ये.

कुटी के रास्ते में हमें विचित्र भूगर्भीय संरचनाएं नज़र आती हैं - ये पुराकालीन टैथीज़ महासागर के अवशेष हैं. चट्टानें मुझे नीदरलैन्ड्स एन्टीएज़ के कुरासाओ द्वीप में देखे समुद्रतटों की याद दिलाती हैं. वे खुरदरी हैं और उनमें तमाम फ़ॉसिल्स धंसे हुए हैं. मैं आंखें बन्द करता हूं और कल्पना करता हूं कि कुरासाओ की समुद्री गुफा बोका ताब्ला के सम्मुख खड़ा हूं. एक संक्षिप्त क्षण को मुझे वह असम्भव जादू घटता महसुस होता है.

मुझे विशाल लहरों की सुदूर ध्वनियां सुनाई देती हैं और मैं प्रस्तरयुग से पहले की सड़ी मछलियों की बदबू तक सूंघ पाता हूं. अचानक मेरा दिमाग मारकेज़ के उपन्यासों सरीखी जादुई छवियों से अट जाता है जिनमें तमाम सूख चुके महासागर हैं. मुझे एक पल को लगता है मैं इस दुनिया में हूं ही नहीं.

यह सब इतनी तेज़ी और संक्षिप्तता के साथ हुआ है कि मैं हक्काबक्का हूं.

हम कोशिश करते हैं कि कुछ फ़ॉसिल्स स्मृति के वास्ते अपने साथ रख लें लेकिन वे बेहद मजबूती के साथ चट्टानों में खुभे हुए हैं. उन्हें निकाल पाने के लिए छैनी-हथौड़ी की ज़रूरत पड़ेगी. इसी सूखे समुद्रतट का रास्ता कुछ देर साथ चलता है. इस सम्पूर्ण बंजर इलाके में हमें अचानक एक बौना सा भोजपत्र का वृक्ष दिखता है.

"तुम्हें अहसास है, चोको" सबीने पूछती है "पिछले तीन दिनों में हमने यह पहला पेड़ देखा है."

मैं तुरन्त इस बौने गांठदार पेड़ के गांठदार तने को गौर से देखने लगता हूं.

जौलिंगकौंग से कुटी के बीच के चौदह किलोमीटर के फ़ासले के दौरान कोई भी, किसी भी तरह की बसासत नहीं है. चाय की एक दुकान तक नहीं. रास्ते में कई जगह भूस्खलन हुआ है. इनमें से कई ताज़े लग रहे हैं. और अब पेड़ हैं - काफ़ी सारे. हम कुटी यांगती के बगल - बगल चल रहे हैं. लैन्ड्स्केप थोड़ा सा घुमावदार होने लगा है - नदी के दोनों तरफ़ विशाल पर्वत हैं. नदी अब भी शान्त बहती जाती है.

जौलिंगकौंग के दो खुशनुमा दिनों ने हमारी थकान काफ़ी हद तक दूर कर दी है. दो स्थानीय लोग नज़र आते हैं - यानी हम कुटी पहुंचने को हैं. दोनों लोग जयसिंह के पास जाकर हमारे बारे में सवाल करते हैं. मुझे यह जानकर हंसी में फूट पड़ने की इच्छा होती है कि वे मुझे भी फ़िरंगी समझे हुए हैं.

व्यांस घाटी में सबसे ज़्यादा ऊंचाई पर स्थित गांव है कुटी. कुटी जब आपके सामने आता है वह उतना नाटकीय तरीके से हतप्रभ कर देने वाला सुन्दर नहीं होता जितना दारमा घाटी का बालिंग गांव. अलबत्ता छतों के ठीक सामने दो विशालकाय पहाड़ हैं. इन्हें देखकर पीठ के बल लेटे दो बूढ़े और प्राचीन रोमन योद्धाओं की छवि उभरती है. उनकी आंखें बन्द हैं और ऐसा लगता है कि वे एक दूसरे की उपस्थिति से बेपरवाह हैं.

कुमाऊं मन्डल विकास निगम का कैम्प गांव के प्रवेश पर अवस्थित है. हम करीब पांच बजे वहां हैं. वही दो इगलू, वही तीन लोगों का स्टाफ़ - एक मैनेजर, एक कुक और एक वायरलैस ऑपरेटर. तीनों ताश खेलने में मगन हैं और हमें आता हुआ देख चुकने के बाद भी बहुत बेरुखी दिखलाते हैं.

मुझे तीन बार अपनी उपस्थिति जतानी होती है तब जाकर उनमें से एक बेमन से उठता है और हमें इगलू का रास्ता दिखाता है. जब मैं उसे बतलाता हूं कि हम जौलिंगकौंग से आ रहे हैं, उसके व्यवहार में अचानक बदलाव आ जाता है.

"ओ! सो यू आर मिस्टर पाण्डे? कल रात शर्माजी ने मुझे वायरलैस किया था. तुमूंल पैली किलै नी बताय? (आपने पहले क्यों नहीं बताया)"

वह तीन भाषाओं में तीन वाक्य बोलता है - क्रमशः अंग्रेज़ी, हिन्दी और कुमाऊंनी में.

"वन मोर ब्रदर फ़ॉर यू चोको" सबीने मेरी टांग खेंचना शुरू करती है.

दोनों इगलू खाली हैं. हम उनमें से एक चुन लेते हैं.

मैं मैनेजर से पूछता हूं कि कुटी में आई. टी. बी. पी. की चैकपोस्ट है या नहीं. हां सुनने पर हम तुरन्त आई. टी. बी. पी. कैम्प का रुख करते हैं. जौलिंगकौंग जैसी घटना की पुनरावृत्ति हम नहीं चाहते.

आई. टी. बी. पी. कैप इन सारी घाटियों में देखा गया सबसे बड़ा है. बहुत सारे सिपाही हैं. सारे किसी न किसी काम में लगे हुए हैं. दस मिनट के भीतर तमाम ऑपचारिकताएं पूरी हो जाती हैं और कोई भी हमें उबाऊ वार्तालाप में नहीं घसीटता.

इगलू के दरवाजे पर खटखट होती है. कोई बेहद नफ़ीस अंग्रेज़ी में कहता है: "मे आइ डिस्टर्ब यू फ़ॉर अ व्हाइल सर?"

(जारी)

Thursday, December 24, 2009

एक हिमालयी यात्रा - नवां हिस्सा

(पिछली किस्त से जारी)

चूंकि नेपाली रानी का खेत शेषनाग के आशीर्वाद से वंचित रह गया था, उसकी पूजा अधूरी रह गई. इस वजह से हर साल आप उस खेत में धान के पौधों को उगता हुआ देख सकते हैं. पौधे अपनी पूरी लम्बाई तक बढ़ते हैं पर उनमें दाने नहीं लगते. कुटी गांव में तिब्बती रानी की नमक की खदान भी पत्थर में तब्दील हो गई.

"जब आप कुटी जाएं आप किसी से पूछ कर उस जगह पर जा सकते हैं जहां यह नमक की खान हुआ करती थी. कुटियाल लोग उस जगह को छागानी या छागा कहते हैं."

फर्त्याल जी यानी मैनेजर साहब भी इस दौरान बातचीत का हिस्सा बन जाते हैं. कथा पूरी हो चुकने पर वे हमें बताते हैं कि पिछले साल पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय के कुछ वैज्ञानिक यहां से सैम्पल ले गए थे और उन्होंने पाया कि पौधे वास्तव में धान के थे.

मैं कथा और धान के खेत की बाबत असमंजस में पड़ा रहता हूं. शाम उतर रही है. हम महिलाओं को धन्यवाद देते हैं और अपने इगलू की तरफ़ बढ़ते हैं. सबीने एक बार और पार्वती सरोवर की तरफ़ चलने की ज़िद करती है.

इस दफ़ा हमारी मुलाकात एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति से होती है. दारमा के सौन गांव के मूल निवासी ये लोग फ़िलहाल आगरा से व्यांस घाटी के रौंगकौंग गांव मे किसी रिश्तेदारी में आए हुए हैं. चूंकि वे जौलिंककौंग के इतना नज़दीक थे, उन्हें लगा की दारमा तक हो आने में क्या हर्ज़ है. फ़िलहाल बिचारे तीन दिनों से कुटी में अटके हुए हैं. लोग उन्हें सिन-ला चढ़ने में आने वाली मुसीबतों को लेकर आगाह कर चुके हैं. वे अभी ही जौलिंगकौंग पहुंचे हैं - दूसरी मर्तबा. हुआ तो वे कल सिन-ला चढ़ने की कोशिश करेंगे.

अपनी दुस्साहसिक यात्रा के बाद मैं उनसे आग्रह करता हूं कि वे अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें.

"दो दिनों में पूरा चांद होगा!" विचारों में डूबी, सोने में नहाए सामने पसरे नज़ारे को देखती सबीने अचानक कहती है. कहानी सुनने के बाद धान के खेत अब एक अलग आयाम ले चुके हैं. हम खेत के पास जाकर उसे थोड़ा नज़दीक से देखते हैं.

कैम्प पहुंचकर हमें अच्छा लगता है कि वे तीन महिलाएं भी कैम्प में ही रहने वाली हैं - दूसरे इगलू में. कैम्प की रसोई में जलती आग के गिर्द बैठकर हम देर तक व्यांस घाटी की कुछ लोकगाथाओं के बारे में बातें करते हैं. उन्हें आश्चर्य होता है कि हम उनके देवताओं और परम्पराओं के बारे में इतना कैसे जानते हैं. मैं उन्हें हमारे पिछले फ़ील्डवर्क के बारे में कुछ जानकारियां देता हूं.

इस दौरान फर्त्याल जी अपने साथ एक खासे दिलचस्प दिखाई देने वाले सज्जन के साथ आकर आग के बगल में बैठ चुके हैं. इन साहब को मैंने दोएक बार फर्त्याल जी के टैन्ट में देखा है.

जैसे ही उनका परिचय कराया जाता है वे बात करना चालू कर देते हैं. शर्मा जी यहां के वायरलैस ऑपरेटर हैं और बरेली के रहनेवाले हैं - काफ़ी दिमाग़दार हैं और विज्ञान में गहरी दिलचस्पी रखते हैं. वे बहुत बातूनी हैं और मुझे जबरन सापेक्षता के सिद्धान्त और कम्प्यूटर वगैरह पर केन्द्रित एक बहस में फंसा लेते हैं.

मुझे वे तकरीबन घसीटते हुए अपने टैन्ट में ले जाते हैं और तफ़सील में बताते हैं कि उनकी मशीन किस तरह काम करती है. जल्द ही वे अपनी शिक्षा, परिवार, कैरियर इत्यादि के बारे में उसी उत्साह से बताने लगते हैं जिसका प्रदर्शन बीदांग के आई.टी.बी.पी. कमान्डैन्ट ने उस रात किया था. मिलिटरी साइंस में पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद फ़िलहाल वे दस सालों से इस सरकारी नौकरी में हैं और ख़ुश हैं ...

मैं कुछ बहाना बना कर दुम दबाए कुत्ते जैसा उनके तम्बू से बाहर निकल पाता हूं.

सबीने जर्मन में नोट्स लिखने में तल्लीन है. मुझे अक्सर यह जिज्ञासा होती है कि वह क्या लिखती होगी - अपने चश्मेदार चेहरे पर ऐसा विचारमग्न भाव लिए हुए. क्या मैं कभी भी उसके लिखे पढ़ सकने में सक्षम हो पाऊंगा!

मैं अपनी डायरी निकाल लेता हूं.

कल सुबह हम कुटी के लिए रवाना होंगे.

कुटी गांव


(जारी)

मिर्ज़ा ग़ालिब को सुनिये रफ़ी साहब की आवाज़ में



आज मोहम्मद रफ़ी साहब का जन्मदिन है. इस मौक़े पर सुनिये उनकी गाईं मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां याने चचा ग़ालिब की चन्द ग़ज़लें.



बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़दीक
इक बात है ऐजाज़-ए-मसीहा मेरे आगे

होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे

मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख के क्या रंग है तेरा मेरे आगे

ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे



मुद्दत हुई है यार को महमाँ किये हुए
जोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किये हुए

माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशाँ किये हुए

इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
चेहर फ़ुरोग़-ए-मै से गुलिस्ताँ किये हुए

जी ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए

"ग़ालिब" हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किये हुए



ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दाँ अपना

मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से इधर होता काश के मकाँ अपना

दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक, ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ
उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामाख़ूँचकाँ अपना

हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यक्ता थे
बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आस्माँ अपना

*अपने शानदार कबाड़ी भाई संजय पटेल ने आज के मौके पर एक शानदार पोस्ट लगाई है. पढ़ें ज़रूर:

रफ़ी साहब के ड्रायवर अल्ताफ़ भाई की यादें

Wednesday, December 23, 2009

हिमालय की कुछ और छवियां

आज प्रस्तुत कर रहा हूं कुमाऊं की व्यांस घाटी के चन्द फ़ोटोग्राफ़. जिस हिमालयी यात्रा की सीरीज़ पिछले कुछ दिनों से यदा-कदा लगाई जाती रही है, हिमालय की ये चोटियां उसी यात्रा के दौरान नज़र आया करती हैं. यह तस्वीरें हल्द्वानी निवासी मेरे मित्र मनोज भट्ट के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं. सो उनका शुक्रिया.








Tuesday, December 22, 2009

मैंने अभी तक प्रेम से सुन्दर कुछ भी नहीं देखा


इधर कुछ दिनों या कुछ महीनों से बहुत सारी प्रेम कविताओं को पढ़ा है। यह क्रम अब भी जारी है। उम्मीद है कि 'जिन्दगी की धूप में घना साया' की तलाश करते हुए यह क्रम आगे भी चलता ही रहेगा। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में विश्व कविता के अथाह समुद्र से एक बूँद या उससे कम भी कोशिश के एक हस्तक्षेप के रूप में अपनी पसंदीदा कविताओं से आपको रू - ब -रू करवाना और कुछ - कुछ साझा करने की कड़ी में आज प्रस्तुत है ज़िबा शिराज़ी की एक कविता का अनुवाद :





स्वप्न
/ ज़िबा शिराज़ी*



एक रात मैंने सपना देखा -
कि मैं बादलों के बीच विचर रही हूँ
कि मैं आसमान में दौड़ लगा रही हूँ
कि मैं एक अकेली मुस्कुराहट के लिए दो सितारे तोड़ लाई हूँ
मैंने चाँद के घर में छिटकी चाँदनी देखी
और यूँ ही चहलकदमी करते हुए मैं पहुँच गई सूर्य तक।

मैंने बादलों की छाँव में बरसती बारिश देखी
और छू लिया आकाशगंगा का छोर
मैंने सब कुछ देख लिया
और नाप ले लिया अनंत व्योम का।

किन्तु मैंने अभी तक
प्रेम से सुन्दर कुछ भी नहीं देखा
भाग्य की कृपा है कि मैं स्वर्ग की सैर कर आई
और स्वयं से प्रश्न किया-' वह कौन है जिसने हमें ढाला है?'
कौन है वह जो लिखता ही जाता है मनुष्यता कथायें
और हमें सिखलाए जा रहा है कि अच्छा क्या है, बुरा क्या?

अब जबकि मैं
स्वर्ग के रहवासियों के साथ कर आई हूँ संवाद
और सुनकर आई हूँ हजारों जिन्दगियों का कथासार
सब यही कहते हैं कि चलता ही रहता है जीवन
तब भी
जब दिन होते हैं बुरे
और तब भी जब दिवस होते हैं प्रसन्नता से परिपूर्ण।
स्वप्नों का क्या कहा जाय
वे तो होते हैं मात्र स्वप्न
और जीवन चलता ही रहता है अविराम
एक दिन जल की तलाश में भटकते - भटकते
मरीचिका - सा चुक जाता है जीवन राग।

जब से खुली है नींद
विचारों का पीछा किए जा रही हूँ
जिसको भी देखा है ; जिससे भी हुआ है संवाद
उन सभी के लिए लाई हूँ एक समाचार।

मैं तुम्हारे कानों में फुसफुसाकर
जो सुना है, वही कुछ कहना चाहती हूँ
इसलिए
सारे प्रेमियों के लिए यही है छोटा -सा संदेश -
कि 'आई लव यू' कहने से
आज तक कभी नहीं हुई है किसी की मौत।

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* ज़िबा शिराज़ी : एक कवि , एक गीतकार एक गायिका। ईरान में जन्म , अमरीका में निवास। उनकी कुछ और कविताओं के अनुवाद जल्द ही। ** चित्र: गूगल सर्च से साभार

Monday, December 21, 2009

मीना बाज़ार नहीं था नीरज कुमार का जीवन

मैं सैनिकों के रानीखेत क्लब में पर्वतराज हिमालय की ओर मुंह किये नंदा देवी की मनोरम चोटी को अपलक निहार रहा था, जो मुझे मिस्र के किसी बच्चा पिरामिड की तरह लग रही थी. वह सोमवार की जोशीली सुबह थी. 'कबाड़खाना' वाले अशोक भाई खुद को फुर्ती से भरकर मित्रों के साथ थोड़ी ही दूर पर चहलकदमी कर रहे थे और लखनऊ वाले कामता प्रसाद बगल की कुर्सी पर बैठे दवाइयां खा रहे थे. इसी बीच बरगद उखड़ जाने का एसएमएस आया. लिखा था- नीरज कुमार कल शाम नहीं रहे. दिल का भीषण दौरा पड़ने से नीरज जी का निधन इतवार को हो गया था. सन्देश पढ़ते ही मेरे भीतर कड़ाक की आवाज़ के साथ कुछ टूट गया. यह कोई जाने की उम्र भी नहीं थी. अभी वह ५० नहीं छू पाए थे लेकिन आखिर इस बेमुरव्वत दुनिया को कब तक झेलते? वर्त्तमान वाचाल और खाऊ संस्कृति को वह पानी पी-पी कर कोसते थे. मानसिक और शारीरिक आघातों ने उनकी आत्मा में छेद कर दिया था. एक हद तक कड़वाहट भी उनमें भर गयी थी. दोस्तों की दुनियादारी से भी वह बेजार थे. उन्होंने कहा था-

'आस्तीन में बहुत छिपे हैं तुम भी शामिल हो जाओ
अपना तो दस्तूर मेरी जाँ यारों से डंसवाना दिल.'


मेरा लटका हुआ मुंह देखकर अशोक भाई ने पूछा भी कि क्या हुआ है, मैंने वह दुखद समाचार कह सुनाया. अशोक भाई ने याद किया- 'अच्छा, अच्छा! वही नीरज कुमार, जिनका जिक्र आप कल शाम कर रहे थे.' मैंने कहा 'हाँ' और एक सर्द आह मेरे मुंह से निकल गयी. अब इसे संयोग कहें कि कुछ और, जिस समय नीरज जी के प्राण मुंबई में निकल रहे थे, लगभग उसी समय मैं उनका एक शेर रानीखेत में अशोक भाई और उनके मित्रों को सुना रहा था. शेर था-

'मीना बाज़ार सा न मेरा रखरखाव था
फुटपाथ की दुकाँ थी बड़ा मोल-भाव था.'


यह शेर नीरज जी की ज़िंदगी पर सौ फ़ीसद खरा उतरता है. बहरहाल, बदहवाश होकर मैंने फ़ौरन वहीं से गोपाल शर्मा, सिब्बन बैजी और सैय्यद रियाज़ को मुंबई फोन लगाया. पूछा कि कुछ पता है कि क्या हुआ था. फोन आलोक भट्टाचार्य को भी लगाया लेकिन वह उस वक्त लगा नहीं. ये लोग एक समय के हमप्याला और हमनिवाला थे. मुंबई का एक दुखद पहलू यह भी है कि यह एक बार लोगों को अलग करती है तो सालों मिलना-जुलना नहीं हो पाता. सबके रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं. दसियों साल एक साथ करने वाले लोग काम की जगह बदल जाने पर यहाँ बीसियों साल तक नहीं मिल पाते. फिर नीरज जी के पास तो कोई काम भी नहीं था. वह वर्षों से बेरोज़गार थे.

यह समाचार मिलते ही ये लोग कुर्ला की तरफ भागे, जहां जरी-मरी इलाके की एक बैठी चाल में नीरज जी रहा करते थे. लेकिन तब तक सारा खेल ख़त्म हो चुका था. वह मुस्कुरा कर बात करने वाला पका हुआ तांबई चेहरा, वह गर्व से उठा हुआ चौड़ा माथा और उस माथे का गहरा बड़ा तिल, वह तंज करती मुहावरेदार हिन्दुस्तानी भाषा, वह हमेशा पुराने लगनेवाले पैंट-शर्ट में नई-नई सी लगने वाली रूह पता नहीं कहाँ रुखसत हो चुकी थी. मुझे गहरी उदासी ने घेर लिया था रानीखेत में. फिर दिन यंत्रवत चलता रहा. हलद्वानी लौटते समय पूरे रास्ते मेरी देह कार में थी और दिमाग में यादों का बगूला उठ रहा था.

वे मेरे अंडे से निकलने के दिन थे. कान्वे प्रिंटर्स का 'नया सिनेमा' साप्ताहिक वरली नाका की रेडीमनी टेरेस नामक इमारत से निकलता था. 'उर्वशी' के सम्पादक रह चुके आलोक सिसोदिया इस रंगीन और सचित्र साप्ताहिक के सम्पादक थे. मैं यहाँ उप-सम्पादक नियुक्त हुआ था. यह १९८९-९० का वर्ष था. नीरज जी से मेरी पहली मुलाक़ात और पहली भिड़ंत भी इसी दफ़्तर में हुई. दरअसल वह मेरे चतुर्वेदी होने का अपनी विशेष शैली में मज़ा लेने लगे और मैं आग-बबूला हो उठा. वह तो बहुत बाद में मुझे अहसास हुआ कि वह मुझे प्रगतिशीलता का पहला पाठ पढ़ा रहे थे. लेकिन गाँव से आये संस्कारी ब्राह्मण नवयुवक विजयशंकर को वह बेहद नागवार गुजरा और अत्यंत जूनियर होने के बावजूद उसने पर्याप्त उत्पात उनके साथ मचाया.

उसी समय एक ऐसी घटना घटी कि किसी लेख पर सम्पादक जी के साथ मैंने बहस फंसा ली और लगा कि नौकरी गयी. लेकिन नीरज जी ने मेरा हर तरह से साथ देकर मुझे बचा लिया और उनकी इस कार्रवाई से प्रभावित होकर उस दिन से मैं उनकी बातें ध्यान से सुनने लगा. वह जिस तरह से ईश्वर, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषा के ब्राह्मणत्व की धज्जियां उड़ाते थे, उसे सुन-सुन कर मैं दंग था. ऐसी क्रांतिकारी स्थापनाएं मैंने जीवन में पहली बार सुनी थीं. मैं गहरे रोमांटिसिज्म के नशे में गिरफ्तार हो गया और शीघ्र ही उनका फैन बन गया. फिर तो जल्द ही उन्होंने सीनियर-जूनियर का फर्क मिटा दिया और जहां भी जाते अपने साथ ले जाते. उन्हीं के साथ मैंने मुम्बई का वह 'अंडरवर्ल्ड' देखना शुरू किया जिसमें देसी दारू के अड्डे, हिजड़े, वेश्यालय, जुआ खाने, सटोरिये, चौपाटियाँ, मुम्बई रात की जगमगाती बांहों में, नंगी सड़कें, झोपड़पट्टियां और मुशायरे तक की बेपनाह दुनिया थी.

इसके बाद की दास्ताँ बयान करने के लिए एक उम्र भी कम है और कलेजा भी चाहिए. इसमें नीरज जी की तंगहाली, स्वाभिमान, मानसिक उलझनें, भावनात्मक टूटन, पारिवारिक बियाबान और बरजोरी के अनेक किस्से है. आखिरकार स्थायी बेरोज़गारी से आज़िज आकर उन्हें मुंबई त्याग कर रोजी की उम्मीद में पटना जाना पड़ा. वह कृष्ण होते तो लोग 'रणछोड़' नाम दे देते. लेकिन चमचमाती दुनिया के कामयाब साथी उन्हें कब का मुंहफट और शराबी करार देकर उनसे कन्नी काट चुके थे. अधिकाँश लोगों को तो पता भी नहीं था कि पिछले १० वर्षों से नीरज जी कहाँ हैं. इस हालत पर उनका ही एक शेर कितना मौजूं है-

'शाइस्ता यारों ने उसको पत्थर करके छोड़ दिया,
जंगल का इक शख्स शहर में इन्सां बनने आया था.'


इस दरम्यान नीरज जी साल-छः माह में मुंबई आते-जाते रहते थे. मुंबई उन्हें जबरदस्त तौर पर खींचती थी. दो-चार मुलाकातें इस बीच की मुझे याद हैं जो पहले जैसी ही आवारगी और गर्मजोशी और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक बहस और गर्मागर्मी और झगड़ों से भरी हुई थीं. पिछले वर्ष नीरज जी हमेशा के लिए अपनी प्यारी मुंबई आ गए थे. बेटी की शादी हो चुकी थी और बेटा स्नातक की पढ़ाई कर रहा था.

एक दिन हम मिले- मैं, सैयद रियाज़ और नीरज जी. मेरे घर पर ही बैठक हुई. माँ की लगातार बिगड़ती तबीयत और सायन अस्पताल में होने जा रहे ऑपरेशन को लेकर वह बहुत चिंतित थे. फिर भी उन्होंने कहा- 'ज़रा जी को सुकून और मुझे दुनिया से फुर्सत मिले तो आराम से बैठेंगे विजय... और ऐसे वक्त में जब दोस्तों के घर चाय की प्याली भी नसीब नहीं, तुम्हारा घर शराब के लिए भी खुला रहता है. जीते रहो! फिर आज तो गाना-बजाना भी नहीं हुआ'. सुबह जल्द उठकर वह कुर्ला चले गए और हम सोते ही रह गए. मुझे याद आया कि नीरज जी की आवाज़ कितनी सुरीली और तरन्नुम कितना दिलकश था. जब वह मस्ती में होते तो अपना एक रोमांटिक शेर ऐसे दर्द और अवसाद भरे तरन्नुम में गुनगुनाते कि कलेजा मुंह को आता-

'अक्सर तुम्हें देखा है, तुम देख के हंसते हो
ज़रा अपना पता देना, किस बस्ती में बसते हो.'

छपने-छपाने की तरफ से वह किस कदर लापरवाह थे इसका एक सबूत यह है कि उनकी सारी गज़लें और नज्में न तो किसी किताब में मिलेंगी, न किसी दोस्त के पास और न ही उनके घरवालों के पास. उनकी शायरी में मुद्दों की गहरी समझदारी, पैनी राजनीतिक दृष्टि, महीन व्यंग्य, साम्प्रदायिकता विरोध और भविष्य में तीखे जनवादी संघर्ष का आशावादी दृष्टिकोण साफ़ नजर आता है. दरअसल वह दुष्यंत कुमार के बाद की पीढ़ी के चंद उम्दा शायरों में से एक थे. पेश हैं उनके चंद अश'आर-

'पुल क्या बना शहर से आफ़त ही आ गयी
इस पार का जो कुछ था उस पार हो गया.'

'बादल सहन पे छायें तो किसी गफ़लत में मत रहना
हवा का रुख बदलते ही घटा का रुख बदलता है.'

'यूं ही इधर-उधर न निशाने खता करो
मौसम फलों का आयेगा ढेले जमा करो.'

'कुछ शरीफों ने कल बुलाया है
आज कपड़े धुला के रखियेगा.'

'हमको पता यही था के सलमान का घर था
वो कह रहे हैं हमसे मुसलमान का घर था.'

'गुज़रो तो लगेंगी ये शरीफ़ों की बस्तियां
ठहरो तो लगे आबरू अब कैसे बचाएं.'

'आपसे हुई थी इल्म बेचने की बात
रह-रह के क्यों ईमान मेरा तोल रहे हैं.'

'रोज़ी तलाशने सभी शोहदे शहर गए
पनघट से छेड़छाड़ का मंजर गुज़र गया.'


नीरज जी के बारे में मेरे पास लिखने और कहने को बहुत अधिक है. तमाम ऐसे किस्से हैं जिनसे हमारी आवारगी और बदमिजाजी का गुमाँ होता है. कितनी ऐसी छेड़ें हैं जो यारों और अय्यारों के साथ चली आती थीं. लेकिन वह कहानी फिर सही...

हमारी आख़िरी बैठकबाज़ी यही कोई चार माह पहले हुई थी. उन्हें किसी ने पुराना मोबाइल दे रखा था जिसका बैलेंस ख़त्म होने के बाद करीब दो माह से बातचीत भी नहीं हो पा रही थी. सैयद रियाज़ से ही मैं पूछा करता था कि नीरज जी से मुलाक़ात हुई या नहीं. इधर कुछ दिनों से उनका अपने सबसे पुराने यार सैयद रियाज़ से भी कुछ ठीक नहीं चल रहा था. रियाज साहब ने मुझसे कहा था कि अब वह नीरज जी से कभी मिलना नहीं चाहेंगे. वजह वही दारू की टेबल पर हुए झगड़े की, दोस्ती की, स्वाभिमान की, वही पाक-साफ़ होने के अनुपात की. मैं जानता हूँ कि न मिलने की ऐसी कसमें जाने कितनी बार टूटी हैं. इस बार भी टूटतीं. लेकिन इस बार तो नीरज जी ने ही कोई मौक़ा नहीं दिया और दुनिया-ए-फ़ानी से चले गए. अकबर इलाहाबादी ने शायद नीरज जैसे कबीरों के बारे में ही कहा है-

'इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊंगा बेलौस
साया हूँ फ़क़त नक्श-ब-दीवार नहीं हूँ.'

Saturday, December 19, 2009

तुम्हें होना है कविता का पर्याय

निज़ार क़ब्बानी (1923-1998) की कई कवितायें आपको इस बीच पढ़वा चुका हूँ और बहुत जल्द ही कुछेक पत्रिकाओं में उनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित होने वाले हैं। विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस कवि को मात्र एक सीरियायी कवि और मात्र प्रेम कविताओं के एक अरबी कवि के रूप में देखा जाना उसके विपुल व विविध रंगों वाले कवि कर्म के प्रति ज्यादती ही होगी किन्तु आजकल प्रेम का रंग ही गाढ़ा - गाढ़ा है तो क्या किया जाय ! कुछ अन्य रंगों - छटाओं की कवितायें जल्द ही। फिलहाल, आज और अभी तो यह प्रेम कविता :





तुम्हें जब कभी

जब भी कभी
तुम्हें मिल जाय वह पुरुष
जो परिवर्तित कर दे
तुम्हारे अंग- प्रत्यंग को कविता में।
वह जो कविता में गूँथ दे
तुम्हारी केशराशि का एक - एक केश।

जब तुम पा जाओ कोई ऐसा
ऐसा प्रवीण कोई ऐसा निपुण
जैसे कि इस क्षण मैं
कर रहा हूँ कविता के जल से तुम्हें स्नात
और कविता के आभूषणों से ही से कर रहा हूँ तुम्हारा श्रृंगार।

अगर ऐसा हो कभी
तो मान लेना मेरी बात
अगर सचमुच ऐसा हो कभी
मान रखना मेरे अनुनय का
तुम चल देना उसी के साथ बेझिझक निस्संकोच।

महत्वपूर्ण यह नहीं है
कि तुम मेरी हो सकीं अथवा नहीं
महत्वपूर्ण यह है
कि तुम्हें होना है कविता का पर्याय।

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* निज़ार क़ब्बानी की कुछ कवितायें यहाँ और यहाँ भी।

** चित्र : सीरियाई कलाकार ग़स्सान सिबाई की कलाकॄति ( गूगल सर्च से साभार)

Thursday, December 17, 2009

छत पर शाम : कुछ छवियाँ कुछ शब्द



कल शाम छत पर गपशप करते और मूँगफलियों के जरिए धूप का आनंद लेते - लेते मोबाइल से कुछ तस्वीरें ली हैं । आइए साझा करते हैं :


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तो ऐसे आती है शाम
ऐसे उतरता है सूरज का तेज
ऐसे घिरता है अँधियारा
ऐसे आती है रात।
ऐसे लौटते हैं विहग बसेरों की ओर
ऐसे ही नभ होता है रक्ताभ
ऐसे ही देखती हैं आँखें सुन्दर दृश्य
फिर भी कम नहीं होता है कुरुपताओं का कारोबार।

Tuesday, December 15, 2009

जब शुक्रवार की रात को तितलियाँ छोड़ देती हैं इस घर का बसेरा

'कबाड़ख़ाना' पर आप विश्व कविता के कोष से रू-ब-रू होते रहे हैं और कोशिश रहती है कि यह क्रम बीच-बीच में अपनी शक्ल दिखाता रहे और कविता प्रेमियों को पढ़ने के लिए कुछ बढ़िया मिलता रहे।अब तक आप बहुत - सी कविताओं के अनुवाद यहाँ देख-पढ़ चुके हैं , इसी कड़ी में आज अरबी की एक मशहूर युवा कवि ( कवयित्री कहना कहना जरूरी तो नहीं ?) फ़ातिमा नावूत की एक कविता 'स्केचबुक' प्रस्तुत है। हिन्दी में कविता का स्त्री स्वर या स्त्री कविता पर खूब लिखा गया और खास स्त्री कविताओं के संग्रह भी बहुत से आए हैं। उन सब कविताओं के समानान्तर इसे रख कर देखना एक जरूरी बात हो सकती है।
१९६४ में जन्मीं फातिमा जी कवि हैं , गद्य लिखती हैं, अनुवादक हैं , नील नदी के देश मिस्र में रहती हैं और कविता में प्रबल स्त्री पक्ष की हिमायती हैं। उनकी कुछ और कविताओं के अनुवाद जल्द ही ...


स्केचबुक

चालीस की उम्र में
औरतों के बैग थोड़े बड़े हो जाते हैं
ताकि उनमें अँट सकें
ब्लड प्रेशर की गोलियाँ और मिठास के डल्ले ।
नजर को ठीक करने के वास्ते
चश्मे भी
ताकि चालाक अक्षरों को पढ़ा जा सके इत्मिनान से ।

बैग की चोर जेब में
वे रखती हैं जरूरी टिकटें तथा कागजात
और ग्रहण के दौरान
हिचकी की रोकथाम करने का नुस्खा भी।
वे रखती हैं एक अदद मोमबत्ती
क्योंकि आग से दूर भागते हैं पिशाच
जो रात में चुपके से आकर
रेत देते है औरतों की गर्दनें ।
वे बैग में रखती हैं वसीयतनामा :
मेरे पास हैं 'रंगों के निशान'
( जो हाथों में आकर अटक जाते हैं
जब कोई तितली इन पर बैठ जाती है )
मेरे पास है एक स्केचबुक
और एक ब्रश
- एक अकेली औरत की तरह -
जिसे सौंपती हूँ मैं अपने मुल्क को ।

चालीस की उम्र में
मोजों से झाँकने लगते हैं घठ्ठे
और जब शुक्रवार की रात को
तितलियाँ छोड़ देती हैं इस घर का बसेरा
तब हृदय हो जाता है किसी खाली बरतन की मानिन्द
वे कहाँ जाती होंगी भला ?
शायद राजधानी के पूरबी छोर पर रहने वाली
किसी अच्छी मामी, चाची, फूफी, मौसी के कंधों पर
जमाती होंगीं अपना डेरा ।
एक ..दो ..तीन ..चार ..पाँच ..छह..
छह रातें..
एक चुप , उदास औरत
अपनी बालकनी में बैठकर
तितलियों की वापसी का करती है इंतजार ।

चालीस की उम्र में
एक औरत बताती है अपनी पड़ोसन को
कि मेरा एक बेटा है
जिसे नापसंद है बोलना - बतियाना ।

इससे पहले कि वह कहे -
अम्मी , तुम जाओ
अब मैं ठीक हूँ
अब मैं बड़ा हो गया हूँ..
हे ईश्वर ! मुझे थोड़ा वक्त तो दो खुद के वास्ते ।

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फ़ातिमा नावूत की और एक कविता का अनुवाद यह भी है।

Monday, December 14, 2009

एक हिमालयी यात्रा: आठवां हिस्सा

(पिछली किस्त से जारी)



जौलिंगकौंग

अगली सुबह हम थोड़ा देर से उठते हैं. इगलू की नन्ही खिड़कियों से छन कर आए धूप के दो चमकीले आयत भीतर किसी सर्रियल पेन्टिंग का सा अहसास दे रहे हैं. मैं जयसिंह की खोज में निकलता हूं ताकि चाय की व्यवस्था की जा सके. बाहर आते ही अपने सामने फैले लैन्डस्केप की विराट सुन्दरता मुझे पत्थर जैसा कर गूंगा बना देती है.

दिन बेहद साफ़ है - लगातार तीसरा साफ़ शफ़्फ़ाफ़ दिन. मेरे ठीक सामने बर्फ़ से ढंकी चोटियों के मध्य अतुलनीय आदिकैलाश है. पलटकर देखता हूं - बेहद ऊंचे, बंजर, अकल्पनीय आकारों वालों हल्की भूरी रंगत वाले पहाड़. हरियाली का कोई नामो-निशान नहीं. हमारे कैम्प के बग़ल में शान्त कुटी यांगती बह रही है. खुले में पर्याप्त गरमी महसूस होती है.

मैं सबीने को जगाता हूं और हम काफ़ी देर तक लैन्डस्केप को देखते रहते हैं. हमारे पैरों पर मासूम दिख रहे छाले पड़े हुए हैं. हम कल के दुस्साहसिक अभियान की याद करते हैं - हमें हैरत होती है कि हम असल में इस काम को अंजाम दे सके. सबीने की तबीयत आज बेहतर है.

दोपहर के आसपास हम आई.टी.बी.पी. कैम्प जाते हैं. सिपाही हमें पहचान लेते हैं और उन में से एक हमें कमान्डैन्ट के तम्बू तक ले जाते हैं. कमान्डैन्ट के ऊपर भालू जैकेट और नीचे गांधी आश्रम वाला गन्दा पाजामा पहना हुआ है - उसके चेहरे पर मनहूसियत और क्षमायाचना पसरी हुई है.

"आइये सर!" वह अपनी ओर से दोस्ताना होने की पूरी कोशिश में है, "मैं कल रात के लिए शर्मिन्दा हूं". ऐसा कहता हुआ वह अपने तम्बू में बिखरी बेतरतीब चीज़ों को तरतीब में लगाने की जुगत करता रहता है.

मैं उसकी नकली दोस्ताना बातों पर ध्यान नहीं देता हुआ अपने काग़ज़ात उसे दिखाता हूं. वह काग़ज़ों पर उड़ती सी निगाह डालता है और कहता है - "मेरे ख़याल से अब इनकी कोई ज़रूरत नहीं. आप कॉफ़ी लेंगे या चाय?"

मैं अब भी काफ़ी अपसैट हूं और कल रात जयसिंह के साथ उसके सिपाहियों द्वारा किये गए दुर्व्यवहार के लिए उसकी ऐसीतैसी करना चाहता हूं लेकिन मेरा मन कहता है कि इतने शानदार लैन्डस्केप के बीच ऐसा करना ठीक नहीं. हम उठने को होते हैं कि एक सिपाही ट्रे में कॉफ़ी लेकर तम्बू के भीतर आता है. चीनी के शर्बत जैसी घटिया कॉफ़ी को ज्यूंत्यूं निबटा कर हम बाहर आते हैं. किसी भी तरह का वार्तालाप कर सकने की कमान्डैन्ट की सारी कोशिशों को मैं नज़र अन्दाज़ करता रहा.

बाहर कुछ भी नहीं बदला है. क्या शानदार नज़्ज़ारा है! कैम्प-मैनेजर ने हमें पार्वती सरोवर और उससे लगे मन्दिर की बाबत बतलाया हुआ है. हम बांई तरफ़ को जाकर एक छोटी सी पहाड़ी चढ़ते हैं जिसके ऊपर पार्वती सरोवर अवस्थित है. यहां से आदि कैलाश के आधार पर स्थित एक और झील नज़र आती है.

मन्दिर के कैम्पस से तीन अधेड़ स्त्रियां बाहर आती हैं. उनमें से एक हमें इतनी देर तक घूरती रहती है कि मुझे खीझ होने लगती है. लेकिन मेरी खीझ बेमानी निकलती है जब वह हमारे पास आकर विनम्रता से पूछती है कि क्या हमीं लोग पिछले साल लम्बे समय तक उसके गांव गुंजी में लम्बे समय तक रहे थे. हमारा परिचय बाकी की दो महिलाओं से कराया जाता है. दरअसल ये तीनों बहनें हैं और क्रमशः गुंजी, गर्ब्यांग और नपल्चू गांवों से एक मन्नत मांगने इतनी दूर चलकर आई हैं.

वे हमें जॉलिंगकौंग के भूगोल से परिचित कराती हैं. आदि कैलाश के आधार पर मौजूद झील को राक्षस ताल कहा जाता है. दीगर है कि कैलाश पर्वत की बग़ल में अवस्थित झील भी इसी नाम से जानी जाती है. महिलाएं हमें पार्वती सरोवर तक लेकर जाती हैं. झील ठीकठाक बड़ी है. पास ही ज़मीन के एक टुकड़े पर हल्के धानी रंग की उंची घास उगी हुई है. सारा दृश्य किसी पिक्चर पोस्टकार्ड का भ्रम देता है. गुंजी से आई महिला पूछती है कि क्या हम इस खेत की कहानी से परिचित हैं. मेरे ना कहते ही वह इस खेत की कहानी सुनाना चालू कर देती है. दरअसल यह घास नहीं पवित्र धान के पौधे है.

"लेकिन इसमें धान पैदा नहीं होता" वह जोड़ती है.

पौधे वास्तव में धान के पौधे लग रहे हैं. लेकिन करीब सोलह हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर धान उगने की बात कल्पनातीत लगती है. मैं नकली आश्चर्य व्यक्त करता हूं ताकि उसकी भावनाओं को आहत न कर दूं.

वापस कैम्प की तरफ़ जाते हुए हम तमाम तरह की बातें करते जाते हैं. मैंने उनसे हमारे साथ चलकर चाय पीने का आग्रह किया है.

कैम्प पहुंच कर पार्वती सरोवर की दास्तान विस्तार में सुनाई जाती है.

कभी कुटी गांव में लीबेनह्या नाम का एक राजा रहता था. उसकी दो पत्नियां थीं. एक पत्नी तिब्बत की थी जबकि दूसरी नेपाल के मारमा इलाके की.

तिब्बती रानी किसी तरह की शिकायतें नहीं करती थी. कुटी जैसी ऊंचाई पर जो भी मोटा अनाज उगता था उसी से उसका काम चल जाया करता था. तिब्बत के बीहड़ पठारों में उपलब्ध ज़्यादातर खाद्य सामग्री इस अनाज के सामने भूसा लगने लगी थी उसे. नेपाली रानी को अपने मायके में स्वादिष्ट व्यंजनों की आदत पड़ी हुई थी और बहुत चाहने पर भी वह व्यांस घाटी के परम्परागत भोजन के साथ स्वयं को एडजस्ट नहीं कर सकी.

वह धर्मपारायण ब्राह्मण स्त्री थी और अपने देवताओं पर बहुत आस्था रखती थी. उसने फ़ैसला किया कि किसी भी कीमत पर इन ऊंचाइयों पर भी धान, जौ और मडवा उगा कर दिखाएगी. उसने एक सन्देशवाहक को अपने पिता के पास नेपाल भेजकर वहां से इन सब के बीज मंगवाए. जौलिंगकौंग में इस उद्देश्य हेतु एक खेत तैयार करवाया गया.

शौका परम्परा के मुताबिक नेपाली रानी ने संसार के तमाम कीड़ों से प्रार्थना की कि वे आकर उसके खेत को उपजाऊ बनाएं. इसमें एक तकनीकी अड़चन भी थी. स्थान की उंचाई की वजह से वहां सांपों का जीवित रह सकना असम्भव था. लेकिन चूहों और छछूंदरों से ग्रस्त उस खेत में सांपों का रहना ज़रूरी शर्त थी.

सो इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु नेपाली रानी ने शेषनाग की आराधना करने का निर्णय लिया.

इस दौरान तिब्बती रानी हालिया महीनों में राजा द्वारा नेपाली रानी पर दिए जा रहे अतिरिक्त ध्यान की वजह से डाहग्रस्त हो गई. इसी डाह में उसने तय किया कि वह कुटी गांव में नमक की खान पैदा कर देगी जैसा कि उसके मायके यानी तिब्बत में हुआ करती थीं. स्वयं उसके पिता के राज्य में कई नमक की खानें थीं जिनसे दुनिया का सबसे सफ़ेद नमक निकला करता था.

नेपाली रानी की आराधना से प्रसन्न हो शेषनाग ने दारमा घाटी से जौलिंगकौंग की यात्रा शुरू की - वे स्येला ग्लेशियर के रास्ते पन्द्रह किलोमीटर की दुरूह यात्रा करते हुए ऊपर की तरफ़ चढ़ने लगे.

तिब्बती रानी को यकीन था कि नेपाली रानी के प्रयत्न बर्बाद हो जाएंगे. लेकिन जब उसे शेषनाग की यात्रा का पता चला उसकी ईर्ष्या की कोई सीमा न रही. उसने गांव में रहनेवाली एक दुष्ट जादूगरनी को मदद के लिए बुलवाया. जादूगरनी और तिब्बती रानी स्येला ग्लेशियर से जौलिंगकौंग पहुंचने वाले पहाड़ की चोटी के उस तरफ़ पहुंचकर छिप गईं. जैसे ही शेषनाग ने नीचे की तरफ़ उतरना शुरू किया, इन दो दुष्ट औरतों ने कालीन बुनने में काम आने वाले तीखी धार वाले ’थल’ की मदद से शेषनाग का सिर काट डाला.

शेषनाग का सिर तीखी ढलान से होता हुआ नीचे कुटी यांगती के किनारे जा गिरा जबकि उसकी बाकी की देह ने चट्टानों पर अपना निशान छोड़ दिया.

इस अपराध के बाद राजा आगबबूला हो गया - राजा अपराधस्थल पर पहुंचा जहां उसके साथ तिब्बती रानी और जादूगरनी की जंग हुई. इस जंग के अन्त में तीनों की मृत्यु हो गई.

"आप कुटी गांव से शेषनाग के निशान देख सकते हैं. और अगर आप नीचे उतरकर कुटी यांगती नदी के किनारे तक जाएं तो आपको शेषनाग का सिर नज़र आएगा. पहाड़ी के आधार से दो पतली धाराएं बहती हैं - एक में सफ़ेद द्रव होता है दूसरी में काईदार भूरा. सफ़ेद वाला द्रव मृत राजा के दिमाग से बाहर आता है जबकि दूसरा वाला दुष्ट तिब्बती रानी के दिमाग से ..."
गुंजीनिवासिनी की आवाज़ में भरपूर आत्मविश्वास है.

(जारी)

Sunday, December 13, 2009

एक हिमालयी यात्रा: सातवां हिस्सा





(पिछली किस्त से जारी)

हम अपने जूते उतारते हैं. पैरों में ज़रा ज़रा सनसनी महसूस होती है अलबत्ता बर्फ़ उन्हें पत्थर बना चुकी है. इगलू के भीतर एक बड़ा सा आईना है. सोलर लालटेन की मद्धम रोशनी में मैं अपना प्रतिविम्ब देखता हूं. ऐसा लगता है पिंडारियों के किसी गिरोह ने मेरी ज़बरदस्त ठुकाई की है.

सबीने मुझे खुद को आईने में देखता हुआ देखती है और हंसने लगती है: "नो चान्स फ़ॉर यू नाउ, चोको! नो मोर प्रेटी कुमाऊंनी वाइफ़ फ़ॉर यू! हू वुड मैरी सच एन अगली येती! ..."

"पहले तुम अपनी नाक देखो ..." चिढ़ाने की बारी अब मेरी है. दरवाज़े पर खटखट होती है और एक लड़का दो बाल्टियों में गर्म पानी लेकर भीतर आता है.

वह बाल्टी रखकर जाने ही को है जब बाहर हल्लागुल्ला सुनाई देता है. सुनाई दे रही आवाज़ों में एक आवाज़ जयसिंह की जैसी लगती है.

बाहर जाकर देखता हूं. जयसिंह को कोई आधा दर्ज़न सिपाही घेरे हैं - सारे के सारे धुत्त. आंखों में आंसू भरे जयसिंह भय से कांप रहा है. सिपाहियों ने बेबात जयसिंह को अपमानित और परेशान किया है. चरवाहों के तम्बुओं से वापस कैम्प की तरफ़ लौटते उसे इन टुन्न सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और उससे परमिट वगैरह की बाबत फ़िज़ूल सवालात किए. जब तक बिचारा कुछ समझ पाता उसे गिरफ़्तार किए जाने का फ़रमान सुना दिया गया. मुझे पक्का यकीन है उन्होंने जयसिंह के साथ हाथापाई भी की होगी.

मैं सिपाहियों को सारे कागज़ात दिखाकर चेताता हूं कि वापस पिथौरागढ़ और दिल्ली जाकर मैं उच्चाधिकारियों तक इस वाकये की रपट लिखवाऊंगा. इसका असर फ़ौरी होता है और वे नकली माफ़ी मांग कर अपने रास्ते निकल जाते हैं. चलो आखिरकार सब सुलझ तो गया - मैं जयसिंह की पीठ थपथपाता हूं

इगलू के दरवाज़े पर एक बार फिर खटखट होती है. इस बार करीब एक दर्ज़न सिपाही अपने कमान्डैन्ट के साथ सामने हैं. कमान्डैन्ट का व्यक्तित्व इस कदर बेहूदा और मनहूस है ... वह कोई पचास-बावन साल का है और चालढाल में भारतीय सेना के फ़ील्डमार्शल की हज़ारवीं कार्बन कॉपी के ठसके का बदतमीज़ प्रदर्शन करने के कुटैव से पीड़ित है. इस कार्य को अंजाम देने के लिए सस्ती उबकाईभरी रम का प्रचुर इस्तेमाल भी किया गया है.

"क्या मैं आपके पेपर्स देख सकता हूं, सर?"

मेरी खीझ अपनी हद पार करने को है.

"ज़रूर. पर मुझे लगता है कि आप यह काम कल करते तो कहीं बेहतर होता." इस बार सबीने कमान्डैन्ट से ढिठाई से कहती है.

"देखिये यह एक वर्जित इलाका है और बगैर सही काग़ज़ात के यहां कोई नहीं घूम सकता."

"मुझे मालूम है सर और हम पिछले दो महीनों से इस इलाके में घूम रहे हैं. और रही बात काग़ज़ात की ..."

सबीने कागज़ात लेकर तैयार है. कमान्डैन्ट अफ़सर जैसा दिखने की भरपूर कोशिश कर रहा है.

"हम्म! कागज़ तो ठीक लग रहे हैं ... मगर ..." वह किसी न किसी बहाने से कुछ कमी निकालने की फ़िराक में लगा हुआ है ... "अपके परमिट में आपके पोर्टर का नाम दर्ज़ नहीं है."

"जयसिंह जी पांगला के नज़दीक दंदौला गांव के रहनेवाले हैं और नियमों के हिसाब से स्थानीय लोगों को किसी परमिट इत्यादि की ज़रूरत नहीं पड़ती. और आपको कोई और शंका है तो कृपा करके अपने उच्चाधिकारियों से बात करे. अभी हम थोड़ा आराम करना चाहेंगे. थैंक्यू सो मच."

खीझ और गुस्से में मैं पलटता हूं. वह सबीने से कह रहा है - "मैं चाहूंगा कि कल किसी वक्त आकर आप हमारे कैम्प में अपने नाम रजिस्टर करवाने आएं."

इतनी भीषण यात्रा के बाद इस गैरज़रूरी घटना ने जी खट्टा कर दिया है. मैं ज़ोर ज़ोर से कमान्डैन्ट और उसकी टुन्नटुकड़ी को करीब दस लाख गालियां समर्पित करता हूं. बीदांग में गिफ़्ट में मिली व्हिस्की की बची हुई बोतल इस सत्कर्म को अंजाम देने हेतु अनुप्रेरक का काम करती है.

(जारी)

Friday, December 11, 2009

ओ आमाजी मोर नी मारणा मोर नी गवांणा हो



’सिल्क रूट’ नामक बैन्ड की ’मोर नी’. यह अविस्मरणीय हिमांचली कम्पोज़ीशन मुझे हमारी कबाड़न विनीता यशस्वी के मार्फ़त मिली. आनन्द उठाइये.



अम्मा पुछदी सुन धिये मेरे ए
दुबड़ी इतणी तू किया करि होई हो

पारली बणिया मोर जो बोले हो
आमाजी इना मोरे निंदर गंवाई हो

सद लै बन्दूकी जो सद लै शिकारी जो
धिये भला ऐता मोर मार गिराणा हो

मोर नी मारणा मोर नी गवांणा हो
आमाजी ऐता मोर पिंजरे पुवाणा हो

कुथी जांदा चन्द्रमा कुथी जांदे तारे हो
ओ आमाजी कुथी जांदे दिलांदे पियारे हो

छुपी जांदा चन्द्रमा छुपी जांदे तारे हो
ओ धिये भला नईंयो छुपदे दिलांदे पियारे हो


भावानुवाद: (मां बेटी से पूछती है कि मेरी प्यारी तू इतनी उदास क्यूं है. बेटी कहती है कि अगले जंगल में मोर पुकारें लगा रहा है वह मेरी नींदें उड़ा ले जा रहा है. मां कहती है : शिकारियों को उनकी बन्दूकों समेत बुलवा लेंगे जो इस मोर को मार डालेंगे. बेटी कहती है : नहीं हम मोर को मारेंगे नहीं. मैं उसे पिंजरे में रख लूंगी.

"मां चांद कहां चला जाता है और कहां चले जाते हैं तारे? ओ मां हमारे दिलों में बसे लोग कहां चले जाते हैं?"

"चांद छिपने चला जाता है और छिपते चले जाते हैं तारे. ओ मेरी प्यारी बेटू, हमारे दिलों में बसे लोग कहीं नहीं जाते. वे रहते हैं हमारे दिलों में"
)

* १. अनुवाद की ख़ामियों के लिए मैं ज़िम्मेदार हूं.
** २. सुनने में आये आनन्द की ज़िम्मेदारी विनीता की है.


('सिल्क रूट’ का कुछ और संगीत और इन प्रतिभाशाली युवा संगीतकारों पर एक और पोस्ट जल्द ही.)

Thursday, December 10, 2009

क्या मेरा वक्त आ गया है ! / श्रद्धांजलि : दिलीप चित्रे

* याद करें आज से कई बरस पहले एक फिल्म आई थी 'गोदाम'। ....कुछ याद आया। इस फिल्म के लेखक / निर्देशक थे दिलीप चित्रे।

* याद करें आज से कई बरस पहले दिलीप चित्रे की कविताओं का अनुवाद हिन्दी में चन्द्रकान्त देवताले ने किया था।

दिलीप चित्रे :


मराठी व अंग्रेजी के एक कवि
एक फिल्मकार
एक चित्रकार
एक संपादक....
एक अनुवादक

दिलीप चित्रे :

एक आदमकद इंसान

आज सुबह उनका निधन हो गया। ***** आइए उन्हें याद करें।
'कबाड़खाना' की ओर से श्रद्धांजलि ! प्रस्तुत है उनकी एक कविता:





क्या मेरा वक्त आ गया है / दिलीप चित्रे
( अनुवाद: चन्द्रकान्त देवताले )

क्या मेरा वक्त आ गया है
यहाँ घड़ी नहीं है न है कोई कलेण्डर
पर जानता हूँ
कि पहुँच गया हूँ
पागलपन की स्तब्ध नोक पर
आईने ही दीवारे हैं कफन
कफन ही कैप्सूलें
अवकाश में तैरने वाली
क्या मेरा वक्त आ गया?

मैं हो रहा हूँ वहशी
निर्विकारता में धुँधआता
किसी संत‍-सा
अपनी ही आँखें उखाड़ता
अंधे आनन्द में नाचता
नापता कुद्ध फासले
मेरे और अपने बीच
करता
अपनी ही शव-चिकित्सा
अपनी ही अँतड़ियों और भेजे के द्रव्य
अपनी ही अस्तित्व के जोड़ और तुरवाई की--
चमड़े के बटुए की जिसमें
सुरक्षित रक्खा था मैंने ब्रह्माण्ड
क्या मेरा वक्त आ चुका है?

इस चीख के भीतर है
एक फैलती हुई खामोशी
स्मतिविहीन मुस्कान
वैश्विक पागलखाने की खिड़कियों के बाहर
झाँकते शब्दों की
पहियेवाली कुर्सी के
चक्करदार वक्तव्य
पिघल रहे हैं धूप में
स्वर्ग के अस्तपताल में हैं
आनन्द के ढलान
मैं पहले से ही फिसल रहा हूँ
ढलानों पर
क्या मेरा वक्त आ चुका है?
-----------

कविता 'कृत्या' से और चित्र 'मस्कारा लिटरेरी रिव्यू' से साभार !

Wednesday, December 9, 2009

काने तिवाड़ी के धानः अंतिम

(सात दिन लंबी दबोच, तैंतीस करोड़ देवता और पांच अप्रेंटिस, बैल की पूंछ, ग्यारह दिन दैत्याकार पहलवानों की कुलेल और धर्माथ निर्मित स्वीट डिश और प्राइवेट बलिदान की परंपरा। क्या ठाठ बांधा है धन्य कबाड़ी अशोक पांडे ने इस गल्प में। यहां परंपरा, पुरखे और लोकदेवता इस सहजता से पहाड़ की बदलती जिंदगी में आवाजाही करते हैं कि कहानी अपने समय का अतिक्रमण कर कहीं और ले जाती है। यह किस्सागोई मुझे कुछ बड़े लतीन अमरीकी लेखकों की याद दिलाती है, कह कर मैं अपनी ईर्ष्या का विस्तार नहीं करना चाहता। ...तो पढ़िए यह दूसरी किश्त)
















...धूलि छंटी तो सामने मार बड़े-बड़े चार दैत्याकार पहलवान निर्मित हो चुके थे. पंचदेवों ने उनसे कुश्ती खेलकर उनका मनोरंजन करने का आदेश दिया. पहलवानों का कद लगातार बढ़ता गया और ग्यारह दिन ग्यारह रात बिना खाए-पिये चारों पहलवान पंचदेवों का मन बहलाते रहे. और जब उनका मन बहल गया तो वे थैंक्यू कहकर जाने लगे जब चारों पहलवालों ने उनका रास्ता रोक कर कहा कि ग्यारह दिन भूखे प्यासे उनका मनोरंजन करने की फीस के एवज़ में कुछ खाने का प्रबन्ध तो किया जाना चाहिये. जब पंचदेवों ने अपनी थैलियों, पोटलियों का मुआयना किया तो उनमें समीर के अतिरिक्त कुछ न था.

वे सोच ही रहे थे जब आसमान तक पहुँचने को तैयार कद वाले पहलवानों ने धमकाते हुए कहा कि अगर भोजन नहीं मिला तो एक लंच के लिए उन्हीं को जीमने से भी हिचकेंगे नहीं. जान बचाने के चक्कर में पंचदेवों ने उन्हें भरपूर भोजन मिलने का आश्वासन देकर काणत्याड़ि के घर का रास्ता बता दिया. पहलवानों का जाना था और पंचदेव अपने अपने शॉर्टकटों से अपने अपने ठीहों को रवाना हुए.

काणत्याड़ि की बारहवीं पीढ़ी इन दिनों मन्दिर के मैनेजमैन्ट पर काबिज़ थी. पहलवान लम्बे रूट से आ रहे थे जबकि तब तक काफ़ी नाम कमा चुके पंचदेव उनसे कहीं पहले वहाँ पहुंच चुके थे. पंचदेवों ने काणत्याड़ि के वंशजों को पहलवानों का भय दिखाकर अपनी जान बचाने के वास्ते उनसे कुछ दिन कहीं और जाकर रहने को पटा लिया.

इधर काणत्याड़ि के वंशजों का जाना था उधर पंचदेवों ने काणत्याड़ि के खानदानी बक्से में से बैल की पूंछ निकाल ली. पंचचूली से गगास तक का लम्बा रास्ता तय करते हुए यदा-कदा यात्रियों वगैरह से अपनी मंज़िल का पता पूछते पहलवानों को काणत्याड़ि के बारे में जितनी बातें पता लगीं उन से वे इतना तो जान ही गए कि पंचदेवों ने उन्हें फंसा दिया है. एक जगह बहुत से लोग आराम कर रहे थे – बगल में उनके लिए खाना बन रहा था. खाने की खुशबू ने पहलवानों की भूख को ऐसा भड़काया कि वे इस भोजन पर टूट पड़े. आराम कर रहे लोगों ने जान गंवाने के बजाय चुपचाप पड़े रहना उचित समझा. सारा पका हुआ भोजन जैसे पहलवानों की ऐड़ियों में कहीं उतर गया. कच्चे अनाज की बोरियां उनके घुटनों तक पहुँच सकीं. और भूख के अतिरेक से क्रुद्ध पहलवानों ने एक एक कर सारे लोगों को भी खा लिया.

पहलवानों की भूख शान्त हो गई और काणत्याड़ि का पूरा कुनबा उजड़ गया.

जब तक पहलवान काणत्याड़ि के घर पहुंचे पंचदेवों को पता लग चुका था कि बालों का वह गुच्छा भिसौणे की चुटिया नहीं बैल की पूंछ थी. और यह भी कि पहलवान समूचे काणत्याड़ि वंश को सूत आए हैं. स्त्रियों का वेश धारण किए पंचदेवों ने पहलवानों का टीका लगाकर स्वागत किया और उनसे आंगन में बैठने का अनुरोध किया. भीतर रसोई में बड़े बड़े भांडों में हलवा पक रहा था जो पहलवानों को बतौर स्वीट डिश प्रस्तुत किया गया.

सुबह चारों पहलवान आंगन में चित्त मरे पाए गए – गले में बालों का गुच्छा अटकने से.

काणत्याड़ि का वंश समाप्त हो चुका था. काणत्याड़ि का मन्दिर पहलवानों की विराट देहों के बोझ से सपाट हो चुका था.

पंचदेवों में से एक ने वहीं रहने की इच्छा व्यक्त की तो बाकी चार ने उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए स्वीकार कर लिया और चम्पावत की तरफ़ निकल पड़े.

मुंड मुंडे-कान फड़ाए इन पंचदेव गुरुभाइयों को आजीवन ब्रह्मचारी रहने का कौल दिलाया गया था. सो बहादुरी और अक्लमन्दी का प्रदर्शन करते करते ही इनकी ज़िन्दगानियाँ कटीं. जाहिर है इस चक्कर में कई साधारणजन लाभान्वित भी हुए. पहलवान अलबत्ता उन्होंने फिर कभी नहीं बनाए. गगास किनारे रह रहे गुरुभाई की मृत्यु के बाद ग्रामीणों ने काणत्याड़ि की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया और मृतक की याद में एक मन्दिर स्थापित कर दिया.

अब वहाँ दिन में काले बकरे की और रात को प्राइवेट में दारू की बोतल की बलि देने की अनूठी परम्परा चल निकली है. कहते हैं इस से इष्टदेव खुश रहते हैं. भूतहूत तो खैर अब भी नहीं आते. काने तिवारी के धान के खेत अब बंजर हो चुके हैं क्योंकि गगास में पानी हर दिन कम होता जाता है. गाँव में बचे खुचे ज़्यादातर लोगों के रिश्तेदार शहरों से आते हैं तो नॉस्टैल्जिया को खुजाने की रस्म के तौर पर झुंगरे के चावल या मडवे के आटे की डिमान्ड करते हैं.

“खेती पर कब का बजर गिर चुका” कहती हुई घर की बूढ़ी स्त्रियां पाव पाव भर आटा और चावल अहसान की तरह देती कहा करती हैं: “काणत्याड़ि के धान हैं बेटा. सम्हाल के ले जाना. इतने ही हैं बस. हमारा तो देवता बिगड़ा हुआ है इस साल.”

Tuesday, December 8, 2009

फुटबाल के मैदान पर ओस की बूंदे

संजय जी,
टन्न। गुल्लक में पहला चमकदार सिक्का डालने के लिए धन्यवाद। अच्छा
राइटअप बन पड़ा है।

प्रिय भाई;
पावती मिली.एक आपत्ति ...संबोधन के आगे 'स्वीकार्य' नहीं.
ब्रुरोक्रेटिक है ये शब्द .मैं सिर्फ़ संजय और संजय भैया,संजय भाई से कम
कुछ नहीं ले सकता. पैदाइश वर्ष १९६१ (यदि यह संबोधन तय करता हो तो).
अशेष शुभेच्छाएँ अनिल भाई.
संजय
30.8.2008

कुछ मामूली सी लगती बातें दिमाग में फंसी रह जाती हैं। न जाने कहां गुम हो जाने को रह-रह लौटती हैं। जैसे यही "सुर-पेटी" वाले संजय भाईsanjay patel की दो लाईनों की, साल भर से ज्यादा पुरानी एक चिट्ठी। "जी" ब्रुरोक्रेटिक कैसे हो गया। क्या सिविल सेवा की शुरूआत करने वाले अंग्रेजों ने गंगा जी, बाला जी, स्वामी जी या "मोरे राजा जी" कहना शुरू किया था।
अभी पंद्रह दिन पहले तक झेंप लगती थी। कौन सा तीर मार लिया है कि इसका जिक्र किया जाए। फिर पलटी मार गए तो। हुआ यह है कि पंद्रह साल की मुतवातिर शराबखोरी और सिगरेट के चस्के से बाहर निकल कर फुटबाल खेलना शुरू किया है। केडी सिंह बाबू स्टेडियम के ग्राउंड पर हर सुबह किसिम-किसिम के पेशे वाले लोग, जिन्होंने "सनराइज" नाम का एक क्लब बनाया है, हर सुबह खेलते हैं। कुछ दुकानदार हैं, कुछ पत्रकार, कुछ बेरोजगार, कुछ क्लर्क...कुछ संतोष या डुरंड खेले पुराने खिलाड़ी जो गोल पोस्ट के पास ही टूंगते- ताड़ते रहते हैं और एन वक्त पर शातिर लचक के साथ गोल दाग देते हैं।
पहला दिन ठीक-ठाक बीता। गेंद मिलती तो मन में पुरानी पुलक उठती। लेकिन जरा सी देर में लगता कि गेंद का वजन कुछ ज्यादा है। थोड़ा भागते ही बेलगाम धौंकनी और दिमाग में बजती सीटियों से पश्चाताप भरा संतोष होता कि भीतर कुछ टूट रहा है और उखड़ी सांस छब्बीस साल पहले के लड़के को झकझोर कर बुला रही है जो टाउन नेशनल इंटर कालेज, सैदपुर, (गाजीपुर) के मैदान पर और गांव के खलिहान में खेला करता था। जिसे फुटबाल का पंचर बनवाने के लिए भटकने में वही सुख मिलता था जो शायद किसी सच्चे साधु को बड़े मकसद के लिए भीख मांगने में मिलता होगा। उसके बाद मैं फुटबाल जमीन से ज्यादा अपनी कल्पनाओं में खेलता रहा हूं। रड गुलिट का हेडर लेता जटाधारी सिर, माराडोना की रबड़ की टांगे, बबीटो की शतरंज की चाल जैसी पेनाल्टी किक मेरे दिवास्वप्नों में निरंतर रहे हैं बस, उनके धड़ पर सर मेरा होता था। यही कारण रहा होगा कि बारिश की रातों में, सूनी सड़क पर पांच-सात मिनट के लिए अचानक शराबियों की दो टीमें बन जाती थीं और बीयर के केन या थर्मोकोल के टुकड़े पर अपना सारा नशीला कौशल निछावर कर देती थीं। पैवेलियन में बैठी आसमान की बिजली के लिए?
दूसरे दिन, मेरी टीम के पांच लोगों ने अलग-अलग पोजिशन से खेलने का लगभग आदेश दिया। आखिरी वाले सज्जन से मैने कहा भाईजान, पहले तय कर लो कि एक आदमी कितनी टांगे लेकर मैदान पर आया करे या एक ही आदमी उर्फ कप्तान फील्ड सजाए। उन्होंने जिस तरह से मुझे देखा मैं समझ गया कि अगर मुझे आदेश सुनने की आदत नहीं है तो यहां भी किसी को इस तरह के जबाब की तवक्को नही है।
ऐ हीरो..ऐ हीरो...। तीसरे दिन गोलपोस्ट से चिपके रहने वाले परमानेंट फुलबैक जेपी सिंह लगातार किसी को टेर रहे थे। थोड़ी देर बाद पता लगा कि वे मुझसे ही कह रहे थे कि विपक्षी टीम के फारवर्ड यानि उनके बहनोई नागेन्द्र सिंह को मार्क कर खेलूं। दो दिनों में टांगे चढ़ चुकी थीं और अचानक दौड़ना, दुनिया का कठिनतम काम हो चुका था और ऊपर से "ऐ हीरो...।" मैने उनसे जाकर कहा कि भाईसाहब, यह हीरो-हिरोईन कहना कृपया बंद कीजिए। कोई आरसेनल और बोका का मैच नहीं हो रहा है कि हम हार गए तो स्टेडियम में लाशें बिछ जाएंगी। उसके तुरंत बाद से मेरा नया नाम ऐ आरसेनल हो गया। ऊपर से यह तुरपाई कि इन्हें अपनी टीम के हारने की परवाह ही नहीं है। चौथे दिन तो जेपी सिंह ने मेरी बांह पकड़ ली और गोलपोस्ट के पीछे जाकर बैठने को कहा। कुछ सेकेन्ड सकते में रहने के बाद मैने हाथ झटकते हुए खुद को यह कहते पाया कि तुम कौन होते हो यार, मुझे बाहर बिठाने वाले। खैर एक परिचित सीनियर पत्रकार ने बीच-बचाव कर मामले को तुरंत रफा किया।
पांचवे दिन पूरी निष्ठा से टैकल करने की कोशिश की तो नागेन्द्र सिंह ने जबड़े पर कुहनी चिपका दी। बिलबिला कर रह गया। उसे रोक कर कहा कि खेल के बहाने मारोगे तो मैं बद कर मारूंगा। खांटी प्रोफेशनल की तरह पास आते रेफरी के दर्शनार्थ नागेंद्र ने अपना गाल आगे कर दिया मारोगे, लो मारो...मारोगे लो मारो। रेफरी जरा दूर हुआ तो भुनभुनाया...चूतिया कहीं के। साले कह दिया न कि रंगबाजी नहीं चल सकती..बिल्कुल नहीं चल सकती। इसके जवाब में गाली दोगे...तो गाली दोगे का कौआरोर।
सालों से उखड़ती सांसों के बीच होने वाली ऐसी झन्नाटेदार बतकही का अवसर नहीं मिला था और ईगो, मैदान की हरी घास पर चकनाचूर होकर ओस की बूंदों का भ्रम पैदा कर रहा था।
इसी बीच घुटने का रपचर्ड लिगामेंट टीस मारने लगा और हाकी वाले बुजुर्ग अशोक तिवारी जी की सलाह पर उसे ठीक करने के लिए फुटबाल खेलना छोड़ कर स्टेडियम के जिम जाने लगा। दो दिन बीत गए तो जिम की ओर जाते देख कोई बीस-बाईस के फारवर्ड नदीम ने आवाज लगाई... अबे आ...चला आ थोड़ी-बहुत तो लगती ही रहती है। तिवारी जी ने धीमे से कहा कि ये लालच बहुत खतरनाक होता है। घुटना चाहिए तो कतई मत जाना।
...लेकिन जाना तो है। बस घुटना फिर से काम चलाऊ हो जाए। इस खेल में अंतरात्मा से जुड़ी कोई बात है।
सोचता हूं उम्र बढ़ने के साथ हम खेलना क्यों छोड़ देते हैं। ईगो को पोसने के लिए या विशेषाधिकार के साथ जीने के भ्रम को स्थाई बनाने के लिए। या कोई और बात है आप सब बताएं।

एक सूटकेस में भरे प्रेम के सारे विशेषण

निज़ार क़ब्बानी की कुछ कवितायें आप पहले भी पढ़ चुके हैं। प्रेम और ऐंद्रिकता को उदात्त धरातल पर स्थापित कर उसे इसी दुनिया के मनुष्यों के बीच देखने , दिखाने और नए नजरिए से देखे जाने की राह का अन्वेषी यह कवि बार - बार अपनी ओर खींचता है तथा देश , दुनिया व दुनियादारी के पचड़ों से उपजी शुष्कता को कविता के मीठे जल से सींचता है। आइए, आज उनकी इस छोटी - सी इस कविता के बहाने अपने भीतर तनिक आर्द्रता को महसूस करें।


भाषा

प्रेम में डूबा हुआ आदमी
कैसे इस्तेमाल कर सकता है पुराने शब्द ?
कैसे बर्दाश्त कर सकती है कोई स्त्री
कि उसका प्रियतम
शयन करे
व्याकरणाचार्यों और भाषा वैज्ञानिकों के साथ।

कुछ नहीं कहा मैंने उस स्त्री से
जिससे करता हूँ प्रेम
बस इतना भर किया -
एक सूटकेस में भरे
प्रेम के सारे विशेषण
और उड़ चला सारी भाषाओं के पार।

Saturday, December 5, 2009

काने तिवाड़ी के धान 1

हमारे इधर पहाड़ों में तिवारी लोग तिवाड़ी कहे जाते हैं. गगास नदी के किनारे बसे एक गाँव में एक किसी तिवाड़ी का घर था. तिवाड़ी काना था यानी उसकी एक आँख फूटी हुई थी. सो गगास नदी के इस छोर से उस छोर तक के गाँवों में उसे काणत्याड़ि यानी काना तिवाड़ी के नाम से ख्याति प्राप्त थी. काणत्याड़ि बहुत साँवला था और हमारे इधर काले ब्राह्मण को बहुत ख़तरनाक माना जाता है. काणत्याड़ि खतरनाक ही नहीं झगड़ालू भी था. हर किसी से झगड़ा कर चुकने के बाद वह पूरी तरह से एकलकट्टू हो गया और गगास नदी से लगे एक खाली खेत में जा बसा. इस खेत में लम्बे समय से एक भूत रह रहा था और लोग उस से डरा करते थे.

लोग उस भूत से डरते थे ऐसा काणत्याड़ि ने भी सुन रखा था पर सारे गाँव से बैर ले चुकने के बाद उसके पास और कोई चारा नहीं बचा था. इस बेहद उपजाऊ खेत में किसी ज़माने में बढ़िया धान उगा करते थे पर कई पीढ़ियों से छोड़ा होने के कारण अब वह बंजर हो चुका था.

काणत्याड़ि ने मेहनत में कोई कसर नहीं छोड़ी और भूत ने उसे ज़रा भी परेशान नहीं किया. काणत्याड़ि ने सोचा कि भूत-हूत कुछ नहीं होता. गाँव के लोगों का भरम रहा होगा.

बारिशें आते ही बाकी के गाँववालों की तरह काणत्याड़ि ने भी अपने खेत में धान रोपे. सुबह उठकर वह क्या देखता है कि रात में धान के सारे पौध कोई उल्टे रोप गया है. काणत्याड़ि ने गाँववालों पर ही शक किया और बिना किसी तथ्य की तस्दीक किये एकाध लोगों पर हाथ साफ़ किया. धान दोबारा रोपने के बाद काणत्याड़ि उस रात देर एक पेड़ की ओट में छिपकर इन्तज़ार करता रहा कि कोई आए और उसे रंगे हाथों पकड़कर उसकी ठुकाई की जाए.

जब भोर होने को हुई तो काणत्याड़ि की आँख लग गई. आँख खुली तो सूरज चढ़ आया था और सारे पौध उलटे पड़े थे. यही क्रम कई दिनों तक चलता रहा.

अपनी मेहनत को यूँ व्यर्थ जाता देखना काणत्याड़ि की बरदाश्त से बाहर हो चुका था और उसने तय कर लिया कि किसी भी कीमत पर सोएगा नहीं. तब जाकर अगली भोर उसने देखा कि एक छहफुटा चुटियाधारी धान की पौधों को बिजली की गति से उलटाए दे रहा है. ग़ुस्से से आगबबूला काणत्याड़ि ने अचानक नोटिस किया कि चुटियाधारी के पैर उल्टी दिशा में मुड़े हुए थे. यानी चुटियाधारी और कोई नहीं गगास का भिसौण के नाम से कुख्यात वही भूत था जो उनके खेत को लगा हुआ था. एकबारगी तो काणत्याड़ि की हवा डर के मारे सरक गई पर अगले ही पल उसे पिछले कई महीनों की अपनी मेहनत याद आई और उसका नैसर्गिक गुस्सा फट पड़ा.

उसने पीछे से जाकर गगास के भिसौण की चुटिया थामी और कीचड़ में पटक डाला. भिसौण को मनुष्यों द्वारा इस प्रकार का व्यवहार किए जाने की आदत न थी. वे तो उसके सामने पड़ते ही सूखे पत्ते की तरह काँपने लगते थे और डर के मारे उनकी घिग्घी बंध जाती थी.

वह जब तक सम्हलता काणत्याड़ि ने अपने पिता से सीखी पहलवानी की कला का ज़ोर भिसौण पर आजमाने के साथ साथ उस पर लात घूंसों की बरसात चालू कर दी. भिसौण भी खासा ताकतवर था और किसी तरह काणत्याड़ि की दबोच से बचकर बग्वालीपोखर नामक गाँव की दिशा में भागा. काणत्याड़ि ने कुछेक मील उसका पीछा किया और दोबारा उसकी चुटिया थामकर ठुकाई कार्यक्रम चालू कर दिया.

काणत्याड़ि की दबोच से बच भागने का सिलसिला सात दिन सात रात चलता रहा और इस चक्कर में वे दोनों काली कुमाऊं के आधे इलाके का भ्रमण कर आए. सातवीं रात वे वापस काणत्याड़ि के खेत में थे. बुरी तरह पिट चुकने के बाद भिसौण पस्त पड़ चुका था और उसका अंग अंग दुखने लगा था. अन्ततः रोते हुए उसने छोड़ देने की मिन्नतें करना शुरू किया. छोड़ देने के ऐवज में काणत्याड़ि ने उससे वायदा लिया कि वह पलटकर उसके खेत का मुंह नहीं देखेगा. भिसौण ने जार जार रोते हुए यहाँ तक कह दिया कि काणत्याड़ि के खेत क्या अब तो वह उस पट्टी पल्ला अट्ठागुल्ली के किसी भी गाँव का रुख़ नहीं करेगा.

इतनी लम्बी कुश्ती के बाद काणत्याड़ि के खेत में उस साल धान बहुत कम उगा था पर उगा. और यह अलग बात है कि इस कुश्ती के प्रत्यक्षदर्शी गाँववालों ने काणत्याड़ि से अब भी बात करना बन्द ही रखा पर भीषण मेहनत से प्राप्त होने वाली किसी भी चीज़ को काने तिवाड़ी के धान कहने की परम्परा शुरू हो गई.

पट्टी पल्ला अट्ठागुल्ली के लोग अब किसी भी तरह के भूत प्रेत के सामने आने पर खुद को काणत्याड़ि का सगा सम्बन्धी बतलाने में किसी तरह का गुरेज़ नहीं करते थे. नतीज़तन सारी पट्टी सभी तरह के भिसौणों, टोलों और एड़ियों से मुक्त हो गई. टोलों में भूतों की पार्टी हाथों में मशालें लेकर मनुष्यों को रातों को डराने का काम किया करती थी जबकि एड़ि नाम से जाने जाने वाले भूत लोग स्वाभावतः कमीने और काइयां हुआ करते थे. उल्टे ही पैरों वाली अनिन्द्य सुन्दरी आंचरियां इस प्रेतसमुदाय में ग्लैमर का तड़का लगाने का काम किया करती थीं. आंचरियों के बाबत काणत्याड़ि और भिसौण के दरम्यान क्या महासन्धि हुई इस बाबत कोई आधिकारिक साक्ष्य नहीं मिलते.

यह दीगर है कि इतने भूत-प्रेतों का पट्टी पल्ला अट्ठागुल्ली में रह रहे देवता भी बाल बांका नहीं कर सके थे.

हिन्दू धर्म में बतलाए जाने वाले तमाम तैंतीस करोड़ देवता तो इस सो कॉल्ड देवभूमि में पहले से ही रह रहे थे पर जिस तरह गली-मोहल्ले में उत्पात मचाने वाले हर दुकड़िया नवगुंडत्वप्राप्त लौंडे को सीधा करने को माननीय रक्षामन्त्री या फ़ौज के जरनील नहीं आ सकते उसी तरह एड़ि-आंचरि जैसे छोटे टटपुंजिया भूतों की सुताई करने को भोले बाबा से रिक्वेस्ट थोड़े ही की जा सकती है कि बाबा पप्पू के भाई ने मेरा बल्ला चुरा लिया है. उसके लिए तो मुन्नन भाई या कल्लू दादा टाइप के देवताओं की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि वे घटनास्थल की लोकेल और जुगराफ़िये से भली भांति परिचित होते हैं और समय और ज़रूरत के हिसाब से लोकल सपोर्ट भी जुटा सकते हैं.

गगास के भिसौण का आतंक ख़त्म हो जाने के बाद बहुत सालों तक शान्ति बनी रही. काणत्याड़ि का लड़का अपने बाप जैसा वीर तो न था चतुर और कामचोर ज़रूर था. उसने एक मरे बैल की पूंछ के बालों की लट बनाकर अपने ख़ानदानी बक्से में छिपा कर रख ली और एक बार गाँव में पंचायत लगने पर जब चोरी का एक आरोपी अपना अपराध स्वीकार करने से मुकर रहा था तो काणत्याड़ि के बेटे ने सरपंच से मुखातिब हो कर कहा: “पधानज्यू, अगर ये साला गगास के भिसौणे की चुटिया को छू कर कसम खा ले कि इसने चोरी नहीं की है तो आप इसे छोड़ दोगे ना!”

गगास के भिसौणे की चुटिया का ज़िक्र सुनते ही वहाँ मौजूद तमाम लोगों में झुरझुरी सी मची. काणत्याड़ि के कारनामे को अभी तक लोग भूले नहीं थे. सरपंच के जवाब की प्रतीक्षा किये बिना काणत्याड़ि के बेटे ने अपने घर का रुख किया. मरता क्या न करता, सरपंच और चोर और पंच और ग्रामीण सारे के सारे उसके पीछे आने लगे. तब बहुत ठेटर-नौटंकी के बाद काणत्याड़ि के बेटे ने बक्से से बैल की पूंछ निकाली और चोर से कहा: ” है हिम्मत तो इसको देखकर खा कसम कि तूने चोरी नहीं की है. झूठ बोलेगा तो गगास के मसाण से बुला लाऊंगा भिसौणे को.”

चोर का रोना, चोरी के शिकार ग्रामीण का काणत्याड़ि के बेटे के पैर पड़ना और “त्याड़ज्य़ू की जै हो” के नारे का लगना एक साथ हुआ. कालान्तर में काणत्याड़ि के नाम पर एक मन्दिर गगास किनारे प्रतिष्ठित हुआ और काणत्याड़ि के बेटे ने मन्दिर के आचार्य की गद्दी सम्हाली. यूं काणत्याड़ि के कामचोर कुनबे के लिए फ़ोकट की रोटी का जुगाड़ बैठा.

कई पीढ़ियों बाद तैंतीस करोड़ देवताओं की वार्षिक मीटिंग में जब इस वाकये के ज़िक्र का नम्बर लगा तो पाया गया कि हिमालय की पंचचूली चोटियों की गुरुस्थली में पाँच गुरुभाई देवतावृत्ति की अप्रेन्टिसशिप का फाइनल परचा पास कर चुके हैं और यह भी कि जहाँ तैंतीस करोड़ वहाँ तैंतीस करोड़ पाँच भी चल जाएंगे. राउन्ड फिगर में तो संख्या उतनी ही रहनी है. नियत यह किया जा चुका था कि गगास किनारे हो रही इस अनियमितता को यही पाँच गुरुभाई काबू में लाएंगे.

क्रमशः गोल्ल, गंगनाथ, भोला, हरू और सैम के नाम से जाने जाने वाले ये पाँच भाई अपनी बहादुरी और अक्लमन्दी के चलते अपने जीवनकाल में ही काली कुमाऊं पाली पछाऊं के पाँच लोकदेवताओं के तौर पर प्रतिष्ठित हुए. ऊपर से मिले हुए ऑर्डर अलबत्ता अब तक पूरे नहीं हो सके थे.

देवता बन चुकने के बाद भी इनका मन एक जगह नहीं रमता था और अपनी वार्षिक यात्राओं के लिए ये लोग वसन्त के महीने में अलग अलग जगहों से पंचचूली की तरफ निकल जाया करते थे. तो ऐसे ही वसन्त के एक दिन जब मंजरियों, बौर, फूल, समीर, सुरम्य इत्यादि का ठाठ बंधा हुआ था ये पाँचों एक पूर्वनिश्चित स्पॉट पर मिले. हालचाल लेने के बाद सब ने अपने बैरागी मन में उठ रही मनोरंजन की तीव्र इच्छा के बाबत स्टेटमेन्ट जारी किए. आसपास पड़ी धूलि को मुठ्ठी में उठाकर उनमें से एक ने मन्त्रोच्चर किया और धूलि को पटककर वापस ज़मीन पर दे मारा.


(जारी)

Friday, December 4, 2009

इस संसार में लगा हुआ है पीड़ा का अथाह अंबार !

अन्ना अख़्मातोवा की कवितायें आप पहले भी कई दफा पढ़ चुके हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक और कविता:


अगर आसमान में परिक्रमा करना छोड़ दे चाँद

अगर आसमान में परिक्रमा करना छोड़ दे चाँद
मगर लुटाता रहे शीतलता
और चमकता रहे छापे की तरह.
मेरा मृत पति दाखिल होता है घर में
प्रेमपत्रों को पढ़ने के वास्ते.

वह याद करता है
आबनूस की काठ से बने संदूक को
जिस पर जड़ा है
अलहदा किस्म का गु्प्त ताला
वह बिखरा देता है तमाम चीजें
लौह -जंजीरों से जड़े पैरों की धमक से
धँसकता है फर्श.

वह देखता - परखता है मेल - मुलाकातों का बीता वक्त
और धुँधले पड़ते जाते हस्ताक्षरों की पाँत
उसके तईं कतई इकठ्ठी नहीं हैं पर्याप्त तकलीफें
और जबकि
इस संसार में
लगा हुआ है पीड़ा का अथाह अंबार !
---------
अन्ना अख़्मातोवा की कुछ कवितायें यहाँऔर यहाँ भी...

Wednesday, December 2, 2009

चौथाई सदी का विश्वासघात : इन नासूरों के निशान मेरी आत्मा पर हैं


आज पच्चीस साल हो गए...


एक दिन कोई लिखेगा आज पचास, आज सौ और फिर न जाने कितने और साल हो गए...


एक दिन लोग चुप भी हो जायेंगे... धरना,प्रदर्शन,विरोध सब बंद हो जाएगा..ज़ख्म हद से गुज़र जायेगा और फिर आदत बन जायेगा…


बंबई में जितने लोग मारे गये, अमेरिका के वर्ड ट्रेड सेंटर में या कहीं और उनसे कई गुना मरे थे भोपाल हादसे में। एक पूरी पीढी तबाह्…एक पूरा इलाक़ा विकलांग…पता नहीं कितने पागल…और क्या-क्या! परंतु सब ऐसे गुज़र गया जैसे मक्खन से छूरी। दूर की छोडिये पिछले दस साल में मैने मध्यप्रदेश के भीतर दूसरे शहरों में इस पर कोई विशेष हलचल नहीं देखी।


और सरकारों का क्या कहें? अगर आज के हिंदू में छपी रपट के हवाले से कहें तो सरकार ऐसे व्यवहृत कर रही है कि अपराध जितना पुराना होता जा रहा है उतना ही कम!एंडरसन अमेरिका के अपने शानदार बंगले में ऐयाशी कर रहा है और उसके भाई-बिरादरों के दबाव में सरकार उसके प्रत्यार्पण को भूले बैठी है।


हमें भी कितना याद है?

दीपक के जलने में आली , फिर भी है जीवन की लाली

आज सुबह जब 'कर्मनाशा' पर 'प्रेम कई तरह से आपको छूता है' शीर्षक से एक पोस्ट लगाई तो तो दुनिया जहान की और अपनी कई प्रेम कविताओं की याद हो आई। फिर सोचा कि क्या प्रेम सिर्फ कविताओं में है / कविताओं के लिए है? हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में प्रेम कहाँ, कैसा और कितना है? यह सब गुनते - बुनते काम पर निकल गया लेकिन भीतर ही भीतर 'एक विकल रागिनी' बजती रही। मौका मिलने पर बार- बार अपने भीतर झाँकता रहा और तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद अपने भीतर की नमी की मिकदार को आँकता रहा।

जैसा कि कह चुका हूँ कुछ कवितायें / कुछ और कवितायें आद आती रहीं और 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' वाली हालत होती रही। किशोरावस्था में पढ़ी गई एक कविता हमेशा संग- साथ रही है।आज उसे ही साझा करते हैं। अच्छी तरह याद है कि यह उसी तरह 'परिभाषा' ( प्रेम की ! ) की तर याद की गई थी जैसी उन दिनों अर्थशास्त्र की विभिन्न परिभा्षायें याद की गईं थीं। वक्त बहुत बीत गया है लेकिन अब भी लगता है कि इस 'परिभाषा' में कुछ न कुछ बात जरूर है ! खैर , आइए पढ़ते - देखते हैं हिन्दी की आधुनिक कविता के सर्वाधिक प्रसिद्ध हस्ताक्षरों में से एक और 'भारत- भारती' के रचयिता मैथिलीशरण गुप्त की यह कविता ' दोनो ओर प्रेम पलता है' और ऊर्दू कविता में सर्वाधिक व्यवहृत प्रतिकों 'शमा और परवाना' को 'दीपक और पतंग' के रूप में यहाँ देखते हुए अपनी अंदरूनी दुनिया की पैमाइश करें कि वहाँ की तरावट अब भी कुछ बची है कि 'वक्त ने किया क्या हसीं सितम' का आलम अवतरित हो गया है ? और हो सके तो यह पड़ताल भी करें कि प्रेम कवितायें वक्त के हसीं सितम को सोखने के वस्ते कितनी कारगर सोख्ते का काम करती है?



दोनो ओर प्रेम पलता है / मैथिलीशरण गुप्त

दोनों ओर प्रेम पलता है !
सखि पतंग भी जलता है हा ! दीपक भी जलता है !!

सीस हिलाकर दीपक कहता
बंधु वृथा ही तू क्यों दहता
पर पतंग पड़कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है !

बचकर हाय पतंग मरे क्या
प्रणय छोड़कर प्राण धरे क्या
जले नही तो मरा करें क्या
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है !

कहता है पतंग मन मारे
तुम महान मैं लघु पर प्यारे
क्या न मरण भी हाथ हमारे
शरण किसे छलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है !

दीपक के जलने में आली
फिर भी है जीवन की लाली
किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली
किसका वश चलता है !
दोनों ओर प्रेम पलता है!

जगती वणिग्वृत्ति है रखती
उसे चाहती जिससे चखती
काम नही परिणाम निरखती
मुझको ही खलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है!

Monday, November 30, 2009

एक हिमालयी यात्रा: छ्ठा हिस्सा

आज सिर्फ़ कुछ तस्वीरें ...

पहली तस्वीर जसुली दताल की मूर्ति की है बाकी शौका समाज और वहां के लैन्डस्केप. सभी फ़ोटो डॉ. सबीने लीडर के खींचे हुए हैं और एक कॉफ़ीटेबल बुक Uttaranchal: A Cultural Kaleidoscope में छप चुके हैं.








Sunday, November 29, 2009

एक हिमालयी यात्रा: पांचवां हिस्सा

(पिछली किस्त से जारी)

जयसिंह के जूते के तले में एक बड़ा सा छेद हो गया है. उसे चलने में तकलीफ़ हो रही है. सबीने उसे रुकने को कहती है. वहीं पर अपन बैग खोल कर वह जयसिंह को अपने दूसरे जूते उसे पहनने को देती है. पहनने से पहले जयसिंह काफ़ी ना-नुकुर करता है.

चोटी का कोई नामोनिशान नज़र नहीं आ रहा. अगर कमान्डैन्ट ने सही कहा था तो उसे आस पास ही होना चाहिए. उसके हिसाब से करीब साढ़े ग्यारह तक हमें वहां पहुंच चुकना चाहिए था. अब तो पौने बारह बज चुका है. हर कदम के साथ चलना मुश्किल होता जा रहा है. सबीने की क्या हालत हो रही होगी - मैं बस अन्दाज़ा ही लगा सकता हूं.



बर्फ़ काफ़ी है. एक एक कदम बढ़ाने में बहुत श्रम करना पड़ रहा है. मुझे अपने साथियों के चेहरों पर हताशा, भय और थकान नज़र आ रहे हैं. शायद यही भाव मेरे चेहरे पर भी होंगे.

लाटू काकू मेरे लिए रुका हुआ है. उसकी मुद्रा में कुछ है जो मुझे खटकता है. वह मेरी तरफ़ निगाह करता है और उसकी आंखों से आंसू गिरने लगते हैं.

"साहब मैं नहीं जानता था कि इतनी मुश्किल होगी. मैं वापस जाना चाहता हूं. मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं साहब." वह फफक कर रोने लगता है. भाग्यवश सबीने काफ़ी पीछे है और इस दृश्य को देखने के लिए सिर्फ़ जयसिंह ही मेरे साथ है.

मेरी समझ में नहीं आ रहा उससे क्या कहूं. अपने दिमाग में किसी उचित वाक्य की संरचना करता हुआ मैं उसके कन्धे थपथपाता हूं. जयसिंह बिल्कुल हक्का बक्का है - मेरी तरह.

"देखो काकू, हम सब के अपने परिवार हैं. हम भी थक गए हैं और चिन्तित हैं पर आप तो हमारे गाइड हैं. हम सब तो आप के ही भरोसे हैं. अगर आपने जाना है तो आपकी इच्छा है पर हम कहां जाएंगे?"

सबीने भी पहुंच जाती है.

"क्या चल रहा है?" वह पूछती है.

लाटू काकू सबीने के थके हुए चेहरे पर दॄढ़ इच्छाशक्ति देखता है - अचानक कोई चीज़ उसे प्रेरित करती है - वह उठता है और तेज़ तेज़ चलना शुरू कर देता है - अपने आंसुओं को पोंछने की परवाह किए बग़ैर.



"ऐसे ही कुछ दिक्कत थी" मैं सबीने से कहता हूं. "अब ठीक है." मैं संक्षेप में उसे बताता हूं. अब हम साथ चलने की कोशिश कर रहे हैं. साढ़े बारह बज गया है और हम अब भी सिन-ला के आसपास तक नहीं हैं. मुझे थोड़ी फ़िक्र होने लगी है. जयसिंह और लाटू काकू अनिश्चित कदमों से आगे-आगे घिसट जैसे रहे हैं.

मैं सबीने से इजाज़त लेकर घुटनों घुटनों बर्फ़ में तकरीबन भागता हुआ उन दोनों के पास पहुंचता हूं और रुकने का इशारा करता हूं. हम पलट कर देखते हैं - कैम्प अब भी दिख रहा है. मैं एक बार नक्शा निकाल कर देखता हूं. मुझे लग रहा है कि हम गलत दिशा में जा रहे हैं. मैं लाटू काकू से कहता हूं कि अगर हम थोड़ा वापस चलकर बांईं तरफ़ से चढ़ना शुरू करें तो शायद सिन-ला पहुंच जाएं. वह तुरन्त सहमत हो जाता है. उसे खुद नहीं पता रास्ता कहां खो गया है.

अब मैं आगे-आगे चल रहा हूं और सावधानीपूर्वक बाईं तरफ़ चढ़ रहा हूं. करीब पचास मीटर आगे मुझे एक समतल सी सतह होने का आभास होता है. मैं लाटू काकू के पहुंच चुकने का इन्तज़ार करता हूं.

"क्या सिन-ला ऊपर हो सकता है काकू?"

"हां. शायद यही है." उसकी आवाज़ में एक क्षणिक अनिश्चितता है.

मैं सबीने की तरफ़ हाथ हिला कर इशारा करता हूं कि हम पहुंचने ही वाले हैं. करीब आधा घन्टा और चढ़ने पर सिन-ला दर्रा साफ़ दिखाई दे रहा है. वहां भी पत्थरों की ढेरियां बना कर स्मारक बनाए गए हैं - ताज़ी बर्फ़ से ढंके हुए फ़िलहाल. लाटू काकू बहुत प्रसन्नता से कहता है: "वही है साब सिन-ला! वही है."

जयसिंह भी खु़शी में हंस रहा है.

यह भूलकर कि मुझे अपने पैर और नाक दोनों के होने का अहसास तक नहीं हो रहा, मैं करीब करीब दौड़ता हुआ सिन-ला पहुंच जाता हूं. घड़ी देखता हूं जो रास्ते में सबीने ने मुझे पकड़ा दी थी -डेढ़ बजा है. बीदांग से इतना नज़दीक दिख रहे सिन-ला तक पहुंचने में हमें आठ घन्टे लग गए. मैं अपनी नाक छूता हूं. मेरी त्वचा पपड़ी बन कर उखड़ने लगी है.



हताश आत्मीयता में लाटू काकू मेरे गले से लग जाता है. जयसिंह भी. लाटू मुझे दूसरी तरफ़ का दृश्य दिखाता है - हमारे ठीक दांईं तरफ़ आदि कैलाश की चोटी है जो कैलाश पर्वत की प्रतिलिपि जैसी ही दिखाई देती है. नीचे खोखल जैसी एक खाई है जिसमें ताज़ा बर्फ़ इकठ्ठा है. फिर नीचे सलेटी-भूरी ज़मीन है. दूर कहीं कुछ छतें चमक रही हैं - यह जौलिंगकौंग है.

"आपने वहां पहुंचना है साब!" लाटू काकू मुझे उत्साहपूर्वक समझा रहा है.

दस मिनट में सबीने भी पहुंच गई है - भयंकर थकान उसके चेहरे पर है. असम्भव कर चुकने का भाव भी. हम एक दूसरे को बधाई देते हैं. वह तुरन्त अपना दर्द भूलकर आसपास के दृश्य में खो जाती है. दिव्य - शान्ति और एकाकीपन. चारों तरफ़ बर्फ़. जयसिंह खाना निकाल लेता है. रास्ते की घबराहट की वजह से हम खाने को तो भूल ही गए थे. जल्दी जल्दी सूखे परांठों और अचार का लन्च निबटाया जाता है. करीब आधा घन्टा वहां रुक कर गप्पें मारी जाती हैं, सबीने तस्वीरें खींचती है. लाटू काकू को विदा करने के उपरान्त हम जौलिंगकौंग का रुख़ करते हैं.

एक बार जौलिंगकौंग की तरफ़ देख कर हम अनुमान लगाते हैं कि सब ठीकठाक रहा तो दो घन्टे में हमें वहां होना चाहिए. चारों तरफ़ ताज़ा बर्फ़ है. सबीने ने अपना दूसरा वाला धूप का चश्मा मुझे दे दिया है ताकि आंखें चुंधिया न जाएं. वह मेरा मज़ाक भी उड़ाती है - पर चश्मा बिचारा अपना काम तो कर ही रहा है. - दिख मैं चाहे कैसा भी रहा होऊं.

दूसरी तरफ़ जाते ही हमारा पूर्वानुमान बिल्कुल बुरी तरह गलत साबित होता है. रास्ते का कोई निशान है ही नहीं. मैं बस ऐसे ही चलता जा रहा हूं आगे-आगे. करीब दस-बारह कदम बाद मैं एक गहरे गड्ढे में धंस जाता हूं - कमर तक. मुझे अब पता लग रहा है कि हमारी परेशानियां अभी कम नहीं हुई हैं. ढलान पर की बर्फ़ बहुत धोख़ा पैदा करने वाली है. कहीं तो बस घुटनों भर है और कहीं-कहीं इतनी कि आप खड़े-खड़े दफ़न हो जाएं.

सबीने और जयसिंह मेरे बचाव के लिए आते हैं. वे बमुश्किल मुझे निकालते हैं. सबीने मुझसे कहती है कि हमें सावधानी से चलना होगा क्योंकि मुसीबतें अभी और आएंगी. वह ऑस्ट्रिया की रहने वाली है - आल्प्स को जानती है और बर्फ़ देखने की आदी है - इसलिए बर्फ़ की उसकी समझ हमसे कहीं बेहतर है.

हाल में हुई इस दुर्घटना के बाद भी मैं आगे-आगे चल रहा हूं. एक भी कदम उठाने से पहले मैं अपनी बांस की लाठी को बर्फ़ में धंसाकर उसकी गहराई का अनुमान लगा लेता हूं. हम करीब पांच घन्टों से बर्फ़ पर चल रहे हैं. मेरे पैरों से सनसनी ग़ायब हो चुकी है अलबत्ता घुटनों के सुन्न हो चुकने का अहसास भर है. मेरे अन्दर कोई है जो कहता जाता है - एक कदम चलो! अब एक और!

घन्टे बीतते जा रहे हैं और बर्फ़ ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही. हमारी दिक्कतें बढ़ती जा रही हैं और अक्ल भी काम करना बन्द कर रही है. हम दोनों बमुश्किल बातें करते हैं पर जब भी ऐसा होता है हमारी भाषा में गुस्से और उत्तेजना का अंश मिला होता है. जाहिर है जयसिंह भी थक गया है और इस संघर्ष के समाप्त होने का इन्तज़ार कर रहा है.

मैं अचानक फिसलता हूं और कमर तक बर्फ़ में धंस जाता हूं. मुझे अपनी हथेलियों पर कुछ गर्म गीली चीज़ महसूस होती है. दोनों हथेलियों से खून की धारें बह रही हैं. मैं जहां धंसा था वहां बर्फ़ के नीचे की ज़मीन ब्लेड जैसी तीखी थी. पूरी तरह गिर न जाने के लिए मैंने अपनी हथेलियां नीचे टिका ली थीं. खून देखकर मुझे शुरू में अजीब लगता है. इसके बाद की प्रतिक्रिया होती है - असहाय गुस्सा.

"तुम्हारी वजह से मैं यहां मरने जा रहा हूं. इस रिसर्च के चक्कर में हम सब यहां मरने वाले हैं. भाड़ में जाओ तुम सब ..." मैं पाता हूं कि मैं चिल्ला रहा हूं.



हम करीब सत्रह हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर हैं. सबीने और जयसिंह भागकर मेरे पास आते हैं. सबीने देखना चाहती कि मुझे कितनी चोट लगी है लेकिन मैं गुस्से में अब भी अन्धा हूं. दर्द अब नहीं है पर सफ़ेद बर्फ़ पर टपकते खून ने मुझे एक अनिश्चित भय से भर दिया है कि ज़्यादा खून बहने से कुछ भी हो सकता है - कुछ भी.

उसकी परवाह किए बिना मैं गुस्से, असहायता और नासमझी के दौरे के बीच उठकर आगे बढ़ जाता हूं. करीब पांच मिनट तक गिरते-पड़ते चलने के बाद पलटकर देखता हूं कि मेरे दोनों साथी अभी वहीं खड़े हैं. नीचे देखता हूं. पूरे रास्ते भर खून ने एक लकीर सी खींच दी है. मुझे अचानक अपनी बेवकूफ़ी का अहसास होता है. वापस होश में आकर मैं क्षमायाचना का संकेत करता हूं. वे चलना शुरू करते हैं. सबीने पास आती है तो मैं उससे माफ़ी मांगता हूं. उसकी आंखों में आंसू हैं. मुझे उसके पेटदर्द का ख्याल आता है और मैं शर्म से गड़ जाता हूं. मैं बार-बार माफ़ी मांगता हूं. सबीने ने मेरे हाथ थामे हुए हैं. खून जमने लगा है,

"चोको, दर्द हो रहा है?" वह लाड़ से पूछती है.

"नहीं. ठीक है अब. मैं अपने शब्दों के लिए शर्मिन्दा हूं. पता नहीं मुझ पर क्या पागलपन सवार हो गया था." मैं रुआंसा होकर बर्फ़ को देख रहा हूं. "हम समय रहते जौलिंगकौंग पहुंच जाएंगे न? ... और तुम्हारा दर्द कैसा है?"

"हां पहुंच जाएंगे और मैं ठीक हूं. मुझे तुम्हारी चिन्ता है. तुम थोड़ा और बहादुर हो पाओगे? और चौकन्ने? अब तो पास ही है - वो देखो कितनी पास दिख रही है वो पहाड़ी."

साढ़े चार बज गया है. मैं पलटकर देखता हूं. पिछले दो-ढाई घन्टों में हम सिन-ला से बमुश्किल कुछ सौ मीटर नीचे उतर सके हैं. दाईं तरफ़ आदिकैलाश है.

"देखो कितना शानदार है!" मैं सबीने से कहता हूं.

"हां, मैं तो पूरे रास्ते इसे देखती रही हूं - तुम्हें चाहिए कि इसे गौर से देखो. और वो देखो." वह मेरे कन्धे थामकर मुझे उल्टी तरफ़ घुमा देती है - क्षितिज तक फैली हुई हिमालय की विस्तृत सौन्दर्यराशि मेरे सामने पसरी हुई है.

"वहीं कहीं तिब्बत भी होगा ..." मैं फुसफुसाता हूं.

"हां तिब्बत ... और ... ल्हासा ... और मानसरोवर. हमें वहां जाना है. है न?"

मैं सहमति में सिर हिलाता हूं.

"पर उससे पहले हमें जौलिंगकौंग पहुंचना है और मैं नहीं चाहती कि तुम और कोई बेवकूफ़ी करो." वह प्यारभरे स्वर में डांटती है और हिन्दी में कहती है - "थीक है?"

"ठीक है. येस ठीक है."



अब हम साथ-साथ उतर रहे हैं - थोड़ा सा बढ़ी हुई उम्मीद के साथ. धीरे-धीरे बर्फ़ कम होती जा रही है और चलना आसान. शाम तेज़ी से उतर रही है. आखिरकार जब हम ज़मीन पर पहुंचते हैं करीब-करीब अन्धेरा हो चुका है. एक चट्टान पर बैठ हम जयसिंह के आ चुकने की प्रतीक्षा करते हैं. मैं सिगरेट जलाने की कोशिश करता हूं पर हवा के दाब की वजह से ऐसा कर पाना असम्भव है. जब मैं करीब आधा डिब्बा माचिस बरबाद कर चुकता हूं सबीने मुझे डपटती है और धैर्य धरने को कहती है.

जयसिंह आ गया है और पांच मिनट बाद हम उतरना शुरू करते हैं. भयंकर अंधेरे में तीखी ढलानों और कीचड़भरे रास्ते पर गिरते-पड़ते हमें दो घन्टे और लगते हैं. आखिरकार हम कुमाऊं मण्डल विकास निगम के कैम्प तक पहुंच गए हैं. कैम्प का मैनेजर हमें देखकर आश्चर्य व्यक्त करता है. उसे यकीन नहीं हो रहा कि हम सिन-ला होकर आ रहे हैं.

"पर इतना अन्धेरा है! आपको हमारा कैम्प मिला कैसे? चरवाहों के कुत्तों ने आपको तंग नहीं किया ... मैं यकीन नहीं कर सकता ..."

मुझे उसकी आवाज़ सुनाई ही नहीं पड़ रही. हम रात के रुकने की व्यवस्था की बाबत पूछताछ करते हैं. वह एक बार फिर से हैरत के साथ हमें देखता है. फिर शायद उसने हमारी हालत पर गौर किया होगा. वह जल्दी उठता है और हमसे अपने पीछे आने को कहता है. वह एक सोलर लालटेन थामे है. हमारे सामने अर्धवृत्ताकार टैन्ट जैसी संरचना है - धातु और फ़ाइबर की बनी हुई. उसे देखकर किसी इगलू की याद आती है. थोड़ी दूरी पर कुटी-यांग्ती नदी बह रही है. उसका बहाव सुनाई दे रहा है.

मैनेजर हमें भीतर ले जाता है - बहुत सफ़ाई है और हवा में धूप की महक है. फ़ोम के गद्दों का ढेर एक कोने में है और कम्बलों का दूसरे कोने में. न्यूयॉर्क, वालेन्सिया, रियो, काराकास, कुरासाओ के कैसे कैसे होटलों में रह चुकने के बावजूद मुझे नहीं लगता मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में रहने की इतनी शानदार जगह देखी है.

मैं मैनेजर से कुमांऊंनी में बातें करने लगता हूं. वह अब तक मुझे अंग्रेज़ समझे हुए है. वह मेरी कुमाऊंनी से हक्काबक्का है.

"यू स्पीक वैरी गुड कुमाऊंनी सर"

उसे अब भी कुछ समझ में नहीं आ रहा. मैं उसे बताता हूं कि मैं भी कुमाऊंनी हूं - द्वाराहाट का मूल निवासी.

शुरुआती सदमे और संशय की हालत से करीब पांच मिनट बाद बाहर आकर वह अचानक बहुत शिष्ट और शालीन मेजबान की तरह व्यवहार करना शुरू कर देता है.

(जारी)