Monday, November 30, 2009

एक हिमालयी यात्रा: छ्ठा हिस्सा

आज सिर्फ़ कुछ तस्वीरें ...

पहली तस्वीर जसुली दताल की मूर्ति की है बाकी शौका समाज और वहां के लैन्डस्केप. सभी फ़ोटो डॉ. सबीने लीडर के खींचे हुए हैं और एक कॉफ़ीटेबल बुक Uttaranchal: A Cultural Kaleidoscope में छप चुके हैं.








Sunday, November 29, 2009

एक हिमालयी यात्रा: पांचवां हिस्सा

(पिछली किस्त से जारी)

जयसिंह के जूते के तले में एक बड़ा सा छेद हो गया है. उसे चलने में तकलीफ़ हो रही है. सबीने उसे रुकने को कहती है. वहीं पर अपन बैग खोल कर वह जयसिंह को अपने दूसरे जूते उसे पहनने को देती है. पहनने से पहले जयसिंह काफ़ी ना-नुकुर करता है.

चोटी का कोई नामोनिशान नज़र नहीं आ रहा. अगर कमान्डैन्ट ने सही कहा था तो उसे आस पास ही होना चाहिए. उसके हिसाब से करीब साढ़े ग्यारह तक हमें वहां पहुंच चुकना चाहिए था. अब तो पौने बारह बज चुका है. हर कदम के साथ चलना मुश्किल होता जा रहा है. सबीने की क्या हालत हो रही होगी - मैं बस अन्दाज़ा ही लगा सकता हूं.



बर्फ़ काफ़ी है. एक एक कदम बढ़ाने में बहुत श्रम करना पड़ रहा है. मुझे अपने साथियों के चेहरों पर हताशा, भय और थकान नज़र आ रहे हैं. शायद यही भाव मेरे चेहरे पर भी होंगे.

लाटू काकू मेरे लिए रुका हुआ है. उसकी मुद्रा में कुछ है जो मुझे खटकता है. वह मेरी तरफ़ निगाह करता है और उसकी आंखों से आंसू गिरने लगते हैं.

"साहब मैं नहीं जानता था कि इतनी मुश्किल होगी. मैं वापस जाना चाहता हूं. मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं साहब." वह फफक कर रोने लगता है. भाग्यवश सबीने काफ़ी पीछे है और इस दृश्य को देखने के लिए सिर्फ़ जयसिंह ही मेरे साथ है.

मेरी समझ में नहीं आ रहा उससे क्या कहूं. अपने दिमाग में किसी उचित वाक्य की संरचना करता हुआ मैं उसके कन्धे थपथपाता हूं. जयसिंह बिल्कुल हक्का बक्का है - मेरी तरह.

"देखो काकू, हम सब के अपने परिवार हैं. हम भी थक गए हैं और चिन्तित हैं पर आप तो हमारे गाइड हैं. हम सब तो आप के ही भरोसे हैं. अगर आपने जाना है तो आपकी इच्छा है पर हम कहां जाएंगे?"

सबीने भी पहुंच जाती है.

"क्या चल रहा है?" वह पूछती है.

लाटू काकू सबीने के थके हुए चेहरे पर दॄढ़ इच्छाशक्ति देखता है - अचानक कोई चीज़ उसे प्रेरित करती है - वह उठता है और तेज़ तेज़ चलना शुरू कर देता है - अपने आंसुओं को पोंछने की परवाह किए बग़ैर.



"ऐसे ही कुछ दिक्कत थी" मैं सबीने से कहता हूं. "अब ठीक है." मैं संक्षेप में उसे बताता हूं. अब हम साथ चलने की कोशिश कर रहे हैं. साढ़े बारह बज गया है और हम अब भी सिन-ला के आसपास तक नहीं हैं. मुझे थोड़ी फ़िक्र होने लगी है. जयसिंह और लाटू काकू अनिश्चित कदमों से आगे-आगे घिसट जैसे रहे हैं.

मैं सबीने से इजाज़त लेकर घुटनों घुटनों बर्फ़ में तकरीबन भागता हुआ उन दोनों के पास पहुंचता हूं और रुकने का इशारा करता हूं. हम पलट कर देखते हैं - कैम्प अब भी दिख रहा है. मैं एक बार नक्शा निकाल कर देखता हूं. मुझे लग रहा है कि हम गलत दिशा में जा रहे हैं. मैं लाटू काकू से कहता हूं कि अगर हम थोड़ा वापस चलकर बांईं तरफ़ से चढ़ना शुरू करें तो शायद सिन-ला पहुंच जाएं. वह तुरन्त सहमत हो जाता है. उसे खुद नहीं पता रास्ता कहां खो गया है.

अब मैं आगे-आगे चल रहा हूं और सावधानीपूर्वक बाईं तरफ़ चढ़ रहा हूं. करीब पचास मीटर आगे मुझे एक समतल सी सतह होने का आभास होता है. मैं लाटू काकू के पहुंच चुकने का इन्तज़ार करता हूं.

"क्या सिन-ला ऊपर हो सकता है काकू?"

"हां. शायद यही है." उसकी आवाज़ में एक क्षणिक अनिश्चितता है.

मैं सबीने की तरफ़ हाथ हिला कर इशारा करता हूं कि हम पहुंचने ही वाले हैं. करीब आधा घन्टा और चढ़ने पर सिन-ला दर्रा साफ़ दिखाई दे रहा है. वहां भी पत्थरों की ढेरियां बना कर स्मारक बनाए गए हैं - ताज़ी बर्फ़ से ढंके हुए फ़िलहाल. लाटू काकू बहुत प्रसन्नता से कहता है: "वही है साब सिन-ला! वही है."

जयसिंह भी खु़शी में हंस रहा है.

यह भूलकर कि मुझे अपने पैर और नाक दोनों के होने का अहसास तक नहीं हो रहा, मैं करीब करीब दौड़ता हुआ सिन-ला पहुंच जाता हूं. घड़ी देखता हूं जो रास्ते में सबीने ने मुझे पकड़ा दी थी -डेढ़ बजा है. बीदांग से इतना नज़दीक दिख रहे सिन-ला तक पहुंचने में हमें आठ घन्टे लग गए. मैं अपनी नाक छूता हूं. मेरी त्वचा पपड़ी बन कर उखड़ने लगी है.



हताश आत्मीयता में लाटू काकू मेरे गले से लग जाता है. जयसिंह भी. लाटू मुझे दूसरी तरफ़ का दृश्य दिखाता है - हमारे ठीक दांईं तरफ़ आदि कैलाश की चोटी है जो कैलाश पर्वत की प्रतिलिपि जैसी ही दिखाई देती है. नीचे खोखल जैसी एक खाई है जिसमें ताज़ा बर्फ़ इकठ्ठा है. फिर नीचे सलेटी-भूरी ज़मीन है. दूर कहीं कुछ छतें चमक रही हैं - यह जौलिंगकौंग है.

"आपने वहां पहुंचना है साब!" लाटू काकू मुझे उत्साहपूर्वक समझा रहा है.

दस मिनट में सबीने भी पहुंच गई है - भयंकर थकान उसके चेहरे पर है. असम्भव कर चुकने का भाव भी. हम एक दूसरे को बधाई देते हैं. वह तुरन्त अपना दर्द भूलकर आसपास के दृश्य में खो जाती है. दिव्य - शान्ति और एकाकीपन. चारों तरफ़ बर्फ़. जयसिंह खाना निकाल लेता है. रास्ते की घबराहट की वजह से हम खाने को तो भूल ही गए थे. जल्दी जल्दी सूखे परांठों और अचार का लन्च निबटाया जाता है. करीब आधा घन्टा वहां रुक कर गप्पें मारी जाती हैं, सबीने तस्वीरें खींचती है. लाटू काकू को विदा करने के उपरान्त हम जौलिंगकौंग का रुख़ करते हैं.

एक बार जौलिंगकौंग की तरफ़ देख कर हम अनुमान लगाते हैं कि सब ठीकठाक रहा तो दो घन्टे में हमें वहां होना चाहिए. चारों तरफ़ ताज़ा बर्फ़ है. सबीने ने अपना दूसरा वाला धूप का चश्मा मुझे दे दिया है ताकि आंखें चुंधिया न जाएं. वह मेरा मज़ाक भी उड़ाती है - पर चश्मा बिचारा अपना काम तो कर ही रहा है. - दिख मैं चाहे कैसा भी रहा होऊं.

दूसरी तरफ़ जाते ही हमारा पूर्वानुमान बिल्कुल बुरी तरह गलत साबित होता है. रास्ते का कोई निशान है ही नहीं. मैं बस ऐसे ही चलता जा रहा हूं आगे-आगे. करीब दस-बारह कदम बाद मैं एक गहरे गड्ढे में धंस जाता हूं - कमर तक. मुझे अब पता लग रहा है कि हमारी परेशानियां अभी कम नहीं हुई हैं. ढलान पर की बर्फ़ बहुत धोख़ा पैदा करने वाली है. कहीं तो बस घुटनों भर है और कहीं-कहीं इतनी कि आप खड़े-खड़े दफ़न हो जाएं.

सबीने और जयसिंह मेरे बचाव के लिए आते हैं. वे बमुश्किल मुझे निकालते हैं. सबीने मुझसे कहती है कि हमें सावधानी से चलना होगा क्योंकि मुसीबतें अभी और आएंगी. वह ऑस्ट्रिया की रहने वाली है - आल्प्स को जानती है और बर्फ़ देखने की आदी है - इसलिए बर्फ़ की उसकी समझ हमसे कहीं बेहतर है.

हाल में हुई इस दुर्घटना के बाद भी मैं आगे-आगे चल रहा हूं. एक भी कदम उठाने से पहले मैं अपनी बांस की लाठी को बर्फ़ में धंसाकर उसकी गहराई का अनुमान लगा लेता हूं. हम करीब पांच घन्टों से बर्फ़ पर चल रहे हैं. मेरे पैरों से सनसनी ग़ायब हो चुकी है अलबत्ता घुटनों के सुन्न हो चुकने का अहसास भर है. मेरे अन्दर कोई है जो कहता जाता है - एक कदम चलो! अब एक और!

घन्टे बीतते जा रहे हैं और बर्फ़ ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही. हमारी दिक्कतें बढ़ती जा रही हैं और अक्ल भी काम करना बन्द कर रही है. हम दोनों बमुश्किल बातें करते हैं पर जब भी ऐसा होता है हमारी भाषा में गुस्से और उत्तेजना का अंश मिला होता है. जाहिर है जयसिंह भी थक गया है और इस संघर्ष के समाप्त होने का इन्तज़ार कर रहा है.

मैं अचानक फिसलता हूं और कमर तक बर्फ़ में धंस जाता हूं. मुझे अपनी हथेलियों पर कुछ गर्म गीली चीज़ महसूस होती है. दोनों हथेलियों से खून की धारें बह रही हैं. मैं जहां धंसा था वहां बर्फ़ के नीचे की ज़मीन ब्लेड जैसी तीखी थी. पूरी तरह गिर न जाने के लिए मैंने अपनी हथेलियां नीचे टिका ली थीं. खून देखकर मुझे शुरू में अजीब लगता है. इसके बाद की प्रतिक्रिया होती है - असहाय गुस्सा.

"तुम्हारी वजह से मैं यहां मरने जा रहा हूं. इस रिसर्च के चक्कर में हम सब यहां मरने वाले हैं. भाड़ में जाओ तुम सब ..." मैं पाता हूं कि मैं चिल्ला रहा हूं.



हम करीब सत्रह हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर हैं. सबीने और जयसिंह भागकर मेरे पास आते हैं. सबीने देखना चाहती कि मुझे कितनी चोट लगी है लेकिन मैं गुस्से में अब भी अन्धा हूं. दर्द अब नहीं है पर सफ़ेद बर्फ़ पर टपकते खून ने मुझे एक अनिश्चित भय से भर दिया है कि ज़्यादा खून बहने से कुछ भी हो सकता है - कुछ भी.

उसकी परवाह किए बिना मैं गुस्से, असहायता और नासमझी के दौरे के बीच उठकर आगे बढ़ जाता हूं. करीब पांच मिनट तक गिरते-पड़ते चलने के बाद पलटकर देखता हूं कि मेरे दोनों साथी अभी वहीं खड़े हैं. नीचे देखता हूं. पूरे रास्ते भर खून ने एक लकीर सी खींच दी है. मुझे अचानक अपनी बेवकूफ़ी का अहसास होता है. वापस होश में आकर मैं क्षमायाचना का संकेत करता हूं. वे चलना शुरू करते हैं. सबीने पास आती है तो मैं उससे माफ़ी मांगता हूं. उसकी आंखों में आंसू हैं. मुझे उसके पेटदर्द का ख्याल आता है और मैं शर्म से गड़ जाता हूं. मैं बार-बार माफ़ी मांगता हूं. सबीने ने मेरे हाथ थामे हुए हैं. खून जमने लगा है,

"चोको, दर्द हो रहा है?" वह लाड़ से पूछती है.

"नहीं. ठीक है अब. मैं अपने शब्दों के लिए शर्मिन्दा हूं. पता नहीं मुझ पर क्या पागलपन सवार हो गया था." मैं रुआंसा होकर बर्फ़ को देख रहा हूं. "हम समय रहते जौलिंगकौंग पहुंच जाएंगे न? ... और तुम्हारा दर्द कैसा है?"

"हां पहुंच जाएंगे और मैं ठीक हूं. मुझे तुम्हारी चिन्ता है. तुम थोड़ा और बहादुर हो पाओगे? और चौकन्ने? अब तो पास ही है - वो देखो कितनी पास दिख रही है वो पहाड़ी."

साढ़े चार बज गया है. मैं पलटकर देखता हूं. पिछले दो-ढाई घन्टों में हम सिन-ला से बमुश्किल कुछ सौ मीटर नीचे उतर सके हैं. दाईं तरफ़ आदिकैलाश है.

"देखो कितना शानदार है!" मैं सबीने से कहता हूं.

"हां, मैं तो पूरे रास्ते इसे देखती रही हूं - तुम्हें चाहिए कि इसे गौर से देखो. और वो देखो." वह मेरे कन्धे थामकर मुझे उल्टी तरफ़ घुमा देती है - क्षितिज तक फैली हुई हिमालय की विस्तृत सौन्दर्यराशि मेरे सामने पसरी हुई है.

"वहीं कहीं तिब्बत भी होगा ..." मैं फुसफुसाता हूं.

"हां तिब्बत ... और ... ल्हासा ... और मानसरोवर. हमें वहां जाना है. है न?"

मैं सहमति में सिर हिलाता हूं.

"पर उससे पहले हमें जौलिंगकौंग पहुंचना है और मैं नहीं चाहती कि तुम और कोई बेवकूफ़ी करो." वह प्यारभरे स्वर में डांटती है और हिन्दी में कहती है - "थीक है?"

"ठीक है. येस ठीक है."



अब हम साथ-साथ उतर रहे हैं - थोड़ा सा बढ़ी हुई उम्मीद के साथ. धीरे-धीरे बर्फ़ कम होती जा रही है और चलना आसान. शाम तेज़ी से उतर रही है. आखिरकार जब हम ज़मीन पर पहुंचते हैं करीब-करीब अन्धेरा हो चुका है. एक चट्टान पर बैठ हम जयसिंह के आ चुकने की प्रतीक्षा करते हैं. मैं सिगरेट जलाने की कोशिश करता हूं पर हवा के दाब की वजह से ऐसा कर पाना असम्भव है. जब मैं करीब आधा डिब्बा माचिस बरबाद कर चुकता हूं सबीने मुझे डपटती है और धैर्य धरने को कहती है.

जयसिंह आ गया है और पांच मिनट बाद हम उतरना शुरू करते हैं. भयंकर अंधेरे में तीखी ढलानों और कीचड़भरे रास्ते पर गिरते-पड़ते हमें दो घन्टे और लगते हैं. आखिरकार हम कुमाऊं मण्डल विकास निगम के कैम्प तक पहुंच गए हैं. कैम्प का मैनेजर हमें देखकर आश्चर्य व्यक्त करता है. उसे यकीन नहीं हो रहा कि हम सिन-ला होकर आ रहे हैं.

"पर इतना अन्धेरा है! आपको हमारा कैम्प मिला कैसे? चरवाहों के कुत्तों ने आपको तंग नहीं किया ... मैं यकीन नहीं कर सकता ..."

मुझे उसकी आवाज़ सुनाई ही नहीं पड़ रही. हम रात के रुकने की व्यवस्था की बाबत पूछताछ करते हैं. वह एक बार फिर से हैरत के साथ हमें देखता है. फिर शायद उसने हमारी हालत पर गौर किया होगा. वह जल्दी उठता है और हमसे अपने पीछे आने को कहता है. वह एक सोलर लालटेन थामे है. हमारे सामने अर्धवृत्ताकार टैन्ट जैसी संरचना है - धातु और फ़ाइबर की बनी हुई. उसे देखकर किसी इगलू की याद आती है. थोड़ी दूरी पर कुटी-यांग्ती नदी बह रही है. उसका बहाव सुनाई दे रहा है.

मैनेजर हमें भीतर ले जाता है - बहुत सफ़ाई है और हवा में धूप की महक है. फ़ोम के गद्दों का ढेर एक कोने में है और कम्बलों का दूसरे कोने में. न्यूयॉर्क, वालेन्सिया, रियो, काराकास, कुरासाओ के कैसे कैसे होटलों में रह चुकने के बावजूद मुझे नहीं लगता मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में रहने की इतनी शानदार जगह देखी है.

मैं मैनेजर से कुमांऊंनी में बातें करने लगता हूं. वह अब तक मुझे अंग्रेज़ समझे हुए है. वह मेरी कुमाऊंनी से हक्काबक्का है.

"यू स्पीक वैरी गुड कुमाऊंनी सर"

उसे अब भी कुछ समझ में नहीं आ रहा. मैं उसे बताता हूं कि मैं भी कुमाऊंनी हूं - द्वाराहाट का मूल निवासी.

शुरुआती सदमे और संशय की हालत से करीब पांच मिनट बाद बाहर आकर वह अचानक बहुत शिष्ट और शालीन मेजबान की तरह व्यवहार करना शुरू कर देता है.

(जारी)

Saturday, November 28, 2009

एक हिमालयी यात्रा: चौथा हिस्सा



(पिछली किस्त से जारी)

कैम्प का कमान्डैन्ट उत्तर भारतीय नौजवान है. उसकी यूनिट में दर्ज़न भर सिपाही हैं. शुरुआती जांच पड़ताल के बाद हमारे साथ उसका सुलूक दोस्ताना हो जाता है. सुरज कभी भी डूबने वाला है - हमारे चारों तरफ़ का लैन्डस्केप बहुत शानदार है. कमान्डैन्ट एक चोटी की तरफ़ इशारा कर के बतलाता है कि व्यांस घाटी पहुंचने के लिए हमें वहां से होकर जाना होगा - "वो सिन-ला है और ये दाईं तरफ़ को पंचचूली टू" हमने इतने पास से हिमालय को पहले कभी नहीं देखा है.

हमें यह भी बताया जाता है कि तिब्बती जनजाति खम्पा का भारत में स्थित इकलौता मन्दिर बीदांग में है. खम्पा लोग अपने साहस और शौर्य के लिए जाने जाते रहे हैं.



किसान और घुमन्तू खम्पा लोग तिब्बती प्रान्त सिचुआन के पश्चिमी इलाके के मूल निवासी हैं. खाम उनकी मातृभूमि का नाम है. एक ज़माने में समूचे हिमालयी इलाके में खम्पाओं का कहर था. ’सेवेन ईयर्स इन तिब्बत’ लिखने वाले हाइनरिख हैरर ने कहीं इस बात का ज़िक्र किया है. कई और यात्रियों ने भी खम्पाओं के बारे में लिखा है. १९६० के दशक के एक मानवशास्त्री माइकेल पेइसेल ने उनका वर्णन करते हुए लिखा है: "खम्पा लोग छः फ़ीट लम्बे होते हैं ... भारी जूते, खाकी पहनावे और चाल-ढाल में एक आदिम आकर्षण ... अन्य तिब्बतियों की तुलना में उनके नक्श कम मंगोल होते हैं - बड़ी-बड़ी आंखें और सपाट चेहरे ..." उनमें से कई अब नेपाल और भारत में रहने लगे हैं.

मुझे खम्पा लोगों के रीति-रिवाज़ों पर पढ़े किसी लेख की धुंधली सी स्मृति है - मुझे इतना ही याद है कि उसमें रोते हुए सियारों और हाड़ कंपा देने वाली ठण्डी रातों की विकट छवियां अटी पड़ी थीं.

एक सिपाही बताता है कि खम्पा लोग अब भी हर साल पूजापाठ के लिए यहां आते हैं. हमारे सामने सूखी बंजर ज़मीन का फैलाव है - यहीं कहीं उनका मन्दिर होगा. मैं वहां जाना चाहूंगा पर सम्भवतः उसके लिए पर्याप्त समय नहीं बचा है.

हम अब भी बाहर ही बैठे हैं. थोड़ी ठण्ड भी पड़ने लगी है. कमान्डैन्ट हमें अपने जीवन की तकलीफ़ों के बारे में बता रहा है लगातार. इस दुर्गम स्थान पर उसे और उसके साथियों को रोज़ बिसियों कष्ट झेलने होते हैं. कैम्प में दो बैरकें हैं. टिन की बनी इन लम्बी बैरकों को देखना उत्साह को निचोड़ लेने का काम करता है. पास ही डेढ़ कमरे का एक स्थाई मकान भी है - यह कमान्डैन्ट साहब का आवास है.

कमान्डैन्ट हमें एक सस्ती सिगरेट पेश करता है और फिर वही शिकायतें कि यहां तो तमीज़ की सिगरेट तक नहीं मिलती वगैरह वगैरह. वह और खुल जाता है और अपने घर, परिवार, पढ़ाई और आई.टी.बी.पी.. में अपने चयन की प्रक्रिया के वर्णन प्रस्तुत देता जाता है.

सबीने के चेहरे पर असहायता मुझे साफ़ नज़र आ रही है - इस एकतरफ़ा बातचीत से तो बेहतर होता हमें अपनी पीठ टिकाने को ज़रा सी जगह मिल पाती. हमारी किस्मत से अन्धेरा जल्दी हो जाता है.

उदार सिपाहियों ने हमारे लिए एक बैरक खाली कर दी है. यह सूचना मिलते ही हम कमान्डैन्ट की अनुमति लेकर बैरक की तरफ़ चल पड़ते हैं. बैरक काफ़ी बड़ी और ऊंची है. नीचे की तरफ़ लकड़ी के तख़्ते ठुंके हुए हैं - यही सिपाहियों के लिए चारपाई का काम करते हैं. हमने आज तक स्लीपिंग बैग के अलावा कुछ भी गरम बिस्तर साथ नहीं रखा है और हम जानते हैं कि रात भयंकर ठण्ड से सामना होना है.



बाहर अन्धेरा है. जयसिंह और लाटू काकू के सोने का रसोई में हो गया है. कमान्डैन्ट हमें अपने निवास पर आने का आमन्त्रण देता है. इस ऊबे हुए नौजवान के साथ बैठकर हम दो व्हिस्की पीते हैं. इतने हफ़्तों लगातार च्यक्ती पीते रहने के बाद व्हिस्की का स्वाद थोड़ा अजीब लगता है पर परिणाम वांछित ही होता है. कमान्डैन्ट अब पूरे जोश में है और अपनी सैन्य उपलब्धियों के बारे में बता रहा है. वह बताता है कि यहां रहना कैसी बहादुरी और जीवट का काम है. सच भी है. सर्दियों के मौसम में यहां रह पाने की कल्पना कर पाना भी असम्भव है.

एक सिपाही आकर बता जाता है कि खाना पन्द्रह मिनट में तैयार हो जाएगा. हम खाने से पहले थोड़ा हाथ-मुंह धोने के बहाने से अपनी बैरक में चले जाते हैं. हम जैसे ही वहां पहुंचते हैं, एक सिपाही विनम्रतापूर्वक हमारे पीछे-पीछे आता है और ठेठ कुमाऊंनी में मुझसे मुखातिब होता है: "मैं भी कुमाऊंनी हुआ साहब! बागेश्वर का हूं. इतनी ठण्ड में आप रात कैसे काटोगे? अभी तो आपको बस यही दे सकता हूं." वह अपने ओवरकोट के भीतर से एक गर्म शॉल निकालता है. "और शायद यह भी आपके काम आए" इस बार वह व्हिस्की की बोतल निकालता है.

"नहीं, नहीं. हमने पी ली है थोड़ी. आप रखिये इसे. मैं यह नहीं ले सकता." मैं उसे मना करता हूं पर उसके चेहरे के भाव साफ़ बताते हैं कि कोई आदमी इतने प्यार से दी जा रही चीज़ को कैसे लौटा सकता है - वो भी शराब की बोतल!

"आप को बाद में ज़रूरत पड़ सकती है. उस तरफ़ जौलिंगकौंग में कुछ नहीं मिलेगा. और मैं आपका भाई नहीं हूं क्या?" अब इमोशनल ब्लैकमेल किया जाता है. "और एक कुमाऊंनी दूसरे कुमाऊंनी के लिए इतना तो कर ही सकने वाला हुआ."

"ठीक है, ठीक है, अगर आप ऐसा ही चाहते हैं तो. पर आपको एक पैग हमारे साथ पीना पड़ेगा." मैं मान जाता हूं.

वह अपने ओवरकोट के अन्दर से स्टील के तीन गिलास निकालता है. उसे शायद पता था कि ऐसा ही होगा. वह बाहर जाता है पानी लाने के लिए.

यह सब इतनी तेज़ी से हुआ है कि सबीने की समझ में कुछ नहीं आया. मैं उसे संक्षेप में बताता हूं - सिपाही की आहट सुनकर चुप होना पड़ता है.

वह बहुत शालीनता से एक बड़ा पैग पीकर जल्दी-जल्दी चला जाता है. शायद अब हम उसे नहीं देख पाएंगे.

वापस कमान्डैन्ट के कमरे में. कमान्डैन्ट बताता है कि हमें सुबह चार बजे जगा दिया जाएगा. अब उसकी आवाज़ थोड़ा लड़खड़ा रही है. वह बताता है कि उस तरफ़ जौलिंगकौंग की आई.टी.बी.पी. पोस्ट को हमारे बारे में सूचित कर दिया जाएगा. और हमारे रास्ते के लिए लन्च पैक कर दिया जाएगा. मैं कृतज्ञता जताता हूं. अचानक उसका स्वर गम्भीर हो जाता है - "अगर आप को रात को बाहर जाना हो तो निश्चित कर लें कि आपने पहरे पर तैनात सिपाही को बतला दिया है. यदि आप ऐसा न कर पाएं और ’थम’ की आवाज़ सुनें तो जहां-जैसे खड़े हैं वहीं जम जाएं. एक कदम न हिलें. वरना वह गोली चला देगा. आप बस वहीं रहें, वह आपके पास आएगा और सब ठीक हो जाएगा."

कमान्डैन्ट के थम कहने का तरीका मुझे मनोरंजक लगता है.

"जी सर! हम ध्यान रखेंगे!"

"तो याद रहे. थम की आवाज़ सुनते ही आप जहां-जैसे हैं वहीं खड़े रहें."

"हां सर वरना पहरेदार गोली चला देगा और हमारी जान भी जा सकती है. हम ध्यान रखेंगे सर." खाना बहुत बेमन से पकाया गया है और नमक का अतिरेक है. कमान्डैन्ट काफ़ी टुन्न हो चुका है और ठीक से खाना भी नहीं खा पा रहा.

"हम जाएं सर? हमें सुबह निकलना होगा."

वह लड़खड़ाता हुआ हमें छोड़ने दरवाज़े तक आता है और गुडनाइट कहने से पहले कुछ अस्पष्ट वाक्य बुदबुदाता है. फिर कहता है - "ओके. गुडनाइट मैडम! गुडनाइट ब्रदर! आपकी यात्रा शुभ हो! ... पर याद रहे आपको बाहर जाना हो और थम की आवाज़ आए ..."

"हां सर" मेरी हंसी छूटने को है "हम तुरन्त रुक जाएंगे सर वरना पहरेदार ... गुडनाइट सर!"

बैरक के अन्दर हम कुछ देर को हंसते हैं. भीतर बहुत ठण्ड है और सो पाना नामुमकिन. हम बैरक के पिछले दरवाज़े से बाहर आ जाते हैं. चांद की रोशनी में सिन-ला की बर्फ़ चमक रही है. आकाश चमकीले सितारों से अटा पड़ा है. यह सब जादू सरीखा है. हम बहुत देर तक पहाड़ों और आसमान को ताकते रहते हैं. अभी नौ भी नहीं बजा है. हमें अब भी थोड़ा अनिश्चिततापूर्ण डर तो है ही. सिन-ला और उसके बारे में सुनी कथाओं ने हमें इतने दिनों से काफ़ी सहमा रखा है.

लेकिन मेरे भीतर कोई चीज़ बहुत प्रसन्न है. मैं दांतू गांव की बुढ़िया पूनी, उनके परिवार के बारे में सोच रहा हूं. मुझे कुमाऊंनी सिपाही और प्यारे और भले कमान्डैन्ट का भी ख़्याल आ रहा है. दिन भर की ऐसी ही और अच्छी बातें - जीवन इतना बड़ा लैन्डस्केप होता है - भलाई करने के लिए अपार सम्भावनाओं से भरा हुआ.

हालांकि बारिश के कोई आसार नहीं पर हम मन ही मन प्रार्थना करते हैं कि कल बारिश न हो.

बैरक के भीतर थोड़ी देर गर्मी का अहसास होता है पर जल्दी ही ग़ायब हो जाता है. सोना बहुत ही कठिन है. हमारे पास ओढ़ने को पर्याप्त बिस्तर नहीं पर एक रात की ही तो बात है. हम देर रात तक बातें करते हैं - फिर किसी पल नींद आ जाती है.

सुबह टिन के दरवाज़े पर हो रही निरन्तर खटखट से हमारी आंख खुलती है. एक सिपाही हमारे लिए गाढ़ी चाय का एक जग और गरम पानी की बाल्टी लेकर आया है. चाय का शरबत जैसा स्वाद फ़ौजी कैम्पों में अक्सर मिलने वाली चाय जैसा ही है. मैं उसे न पीने का फ़ैसला करता हूं. अपनी आज तक की सबसे कठिन यात्रा के बीच में, मैं नहीं चाहूंगा मेरा हाजमा बिगड़ जाए.

लेकिन सबीने की हालत खराब है. उसके पेट में भयंकर दर्द है. मैं राय देता हूं कि हमें एक दिन रुक जाना चाहिए पर वह कहती है वह सम्हाल लेगी.

सुबह बेहद चमकीली है. कल शाम के धुंधलाए रंग इस समय पूरी तरह निखर गए हैं. साढ़े पांच के आसपास तमाम सिपाही हमें गर्मजोशी से विदा करते हैं. हमारे लन्च के लिए परांठे और अचार की बोतल रख दिए गए हैं. मैं तेज़ तेज़ चलना शुरू कर देता हूं पर याद आता है कि सबीने अस्वस्थ है. रुकता हूं और धीमा होकर उसके साथसाथ चलता हूं. जयसिंह और लाटू काकू हमारे आगे आगे चल रहे हैं. थोड़ी सी घास और नन्ही झाड़ियों के अलावा कोई वनस्पति नहीं है. ज़मीन पथरीली होती जा रही है. भोजन की तलाश में कुछेक तितलियां उड़ रही हैं. जल्द ही वे भी नहीं होंगी. लगातार ऊपर चढ़ते हुए हम उस पहाड़ की तली पर पहुंच जाते हैं जिसकी चोटी पर सिन-ला है. हमें करीब दो घन्टे लग गए हैं. कैम्प से यह इतना नज़दीक लग रही थी. लाटू काकू हमसे रुकते रहने को कहता है ताकि सांस लेने में तकलीफ़ न हो. ज़मीन अब बिल्कुल सूखी और बंजर है. मैं आंख उठाकर पहाड़ को देखता हूं - कई जगहों पर बर्फ़ है.

सबीने का हाल बुरा है. वह चार कदम चलती है. रुकती है, चलती है, फिर रुकती है. मैं जान रहा हूं पेट में दर्द हो और उन्नीस-बीस हज़ार फ़ीट की ऊंचाई चढ़नी हो तो श्रम बहुत तकलीफ़देह होना है. लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं है. मैं उसे चढ़ते रहने को उत्साहित करता रहता हूं. वह थके हुए हाथ से इशारा करके मुझसे कहती है कि मैं उसकी चिन्ता करना छोड़ दूं. अब रास्ते जैसी कोई चीज़ नहीं है. हमें पहाड़ की पथरीली सतह पर पैर जमाते हुए सावधानी से चलते जाना है. हम पहाड़ की पसलियों पर चढ़ रहे हैं. अचानक एक विस्फोट की आवाज़ आती है. हम रुक जाते हैं और पलटकर देखते हैं.

अलौकिक! हम काफ़ी ऊपर चढ़ चुके हैं और हमारे ठीक सामने पंचचूली की गरिमामय चोटियां हैं. आई.टी.बी.पी. के कैम्प की छतें नज़र आ रही हैं. विस्फोट की आवाज़ पंचचूली श्रृंखला में कहीं पर बर्फ़ टूटने से आई थी. अजीब भयमिश्रित प्रसन्नता में हम अवाक खड़े हैं. अचानक एक और विस्फोट की आवाज़ आती है. इस बार यह कानफोड़ू है. पंचचूली की चोटी से टनों बर्फ़ टूटकर गिर रही है - वह सरसराती हुई ढाल पर रपटती आ रही है.



बर्फ़ टूटने की आवाज़ से बड़ी, ज़्यादा कड़कदार और डरावनी आवाज़ मैंने आज तक नहीं सुनी है. यह बहरा कर देने वाली चीख जैसी होती है. यही है हिमालय! मैं अपने आप को बताता हूं और चारों तरफ़ देखता हूं. इन विराट पहाड़ों के बीच हम चार लोग कितने असहाय लग रहे होंगे - चींटियों जैसे. मान लिया इस पहाड़ की चोटी से बर्फ़ टूट कर गिरे तो! - शायद हमारे बचने की कोई राह तो नहीं ही होगी. यह विचार मेरी रीढ़ में झनझनाहट पैदा करता है. पर मुझे साहस दिखाना होगा. मैं अपने को डपटता हूं. हमें धैर्यपूर्वक चढ़ते जाना है. चोटी पर पहुंचने के बाद सब ठीक हो जाएगा. पहली बार मेरा जूता ताज़ी बर्फ़ पर पड़ता है. बर्फ़ धीरे धीरे बढ़्ती जा रही है. - एक इंच, फिर दो इंच, फिर पिंडलियों तक. मुझे अपने पैर जमते महसूस होना शुरू हो गए हैं.

(जारी)

Friday, November 27, 2009

एक हिमालयी यात्रा: तीसरा हिस्सा



(पिछली किस्त से जारी)

... हर जगह लोग हमसे इतने प्यार से मिलते रहे हैं. गुमानसिंह तितियाल की पानीदार आंखें मेरी नींद में उभरती हैं. इस समय वे कोई तीख़ी चढ़ाई चढ़ रहे होंगे. नाच-गाने के बीच किसी पल वे अपने एक सहयोगी के साथ उठकर चले गए थे. वे भुवन के पास हमारे वास्ते कुछ स्मृतिचिन्ह छोड़ गए हैं - भोजपत्र की कुछ छालें और जड़ी-बूटियां.

मौसम अब भी ख़राब है. लगता नहीं हम सिन-ला की तरफ़ जा पाएंगे. अगले दिन हम बेहद हताश मनःस्थिति में वापस दांतू की तरफ़ चलना शुरू करते हैं.

करीब दर्ज़न भर लोग हमें ढाकर तक विदा करने आते हैं. भावभीनी विदाई दी जाती है.

दांतू गांव के प्रवेश पर लगी जसुली दताल की आदमकद मूर्ति के चेहरे पर धीर-गंभीर मातृभाव है.

जसुली दताल जिसे आमतौर पर जसुली बुड़ी के नाम से जाना जाता है, करीब पिचहत्तर साल पहले दांतू में रहने वाली एक धनवान स्त्री थी. उसकी सम्पत्ति और दानशीलता को लेकर ढेरों किस्से प्रचलन में हैं. उसकी कोई सन्तान नहीं थी - इस कारण वह दुखी रहा करती थी. जसुली के बारे में प्रचलित किस्सों में से सर्वाधिक लोकप्रिय संस्करण के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वह इस कदर निराश हो गई थी कि उसने अपना सारा पैसा और ज़ेवर-जवाहरात धौलीगंगा में बहा देने का फ़ैसला किया. जब वह ऐसा करने ही जा रही थी, एक अंग्रेज़ अफ़सर का कारवां वहां से गुज़रा. बुढ़िया की कहानी सुनकर अफ़सर ने उससे निवेदन किया कि उसे अपने पैसे का बेहतर उपयोग करना चाहिए. ऐसा भी कहा जाता है कि कई खच्चरों पर लदी हुई बुढ़िया की सम्पत्ति को लेकर अंग्रेज़ अफ़सर जब वापस लौटा, उसने पूरे कुमाऊं-गढ़वाल और नेपाल के कुछ हिस्सों में शौका व्यापारियों और तीर्थयात्रियों के लिए धर्मशालाएं बनवाईं. मैंने ख़ुद अल्मोड़ा, मजखाली, सुयालबाड़ि इत्यादि जगहों पर इन्हें देखा है. इन धर्मशालाओं के भीतर यात्रियों और उनके खच्चर-घोड़ों के रात बिताने को अलग अलग कमरे हुआ करते थे. इन ऐतिहासिक शौका-इमारतों को जीर्णशीर्ण हालत में देखना अच्छा नहीं लगता.

ख़ैर!



हम फिर से दांतू में हैं. करीब दो बजा है. हम दतमलसिंह जी को अपने तीदांग प्रवास और गुमानसिंह तितियाल के बारे में बताते हैं. वे कहते हैं कि पूरी घाटी में गुमानसिंह जैसा हिम्मती शिकारी और कोई नहीं. वे हमें गुमानसिंह के बारे में कई कहानियां सुनाते हैं. मुझे ख़ुशी होती है कि सबीने ने दारमा घाटी के जिम कॉर्बेट के साथ मेरी फ़ोटो खींची है.

उदयसिंह की दीदी के घर हमारा स्वागत होता है. वे पैंसठ साल के आसपास हैं और उनके चेहरे पर जीवनभर की मशक्कत की दमक है. वे पाब्लो नेरूदा की ’बड़ी मां’ जैसी हैं -

"... जीवन ने तुम्हें रोटी बना दिया था
और हम तुम पर जीवित रहते थे
- लम्बे जाड़ों से उदास जाड़ों तलक.
घर के भीतर तक रिस आया करती थी
बरसात की बूंदें
और तुम सदा मौजूद रहती थीं
- उदारता समेत -
गरीबी का तिक्त आटा छानती हुईं
मानो लगी हुई थीं तुम
हीरे-जवाहरातों से भरी एक नदी को
बांटने के काम में ..."


ऐसा लगता है वे जानती थीं हम लौट आएंगे. वे खुली बांहों से हमारा स्वागत करती हैं. जयसिंह सौन गांव तक जाना चाहता है ताकि हमारे किए रात को गेस्टहाउस में रुकने का प्रबन्ध कर सके. हमें बताया जाता है कि उदयसिंह वापस अपने गांव नागलिंग चला गया है और गेस्टहाउस बन्द पड़ा है. उदयसिंह की दीदी हमसे कहती हैं कि हम चिन्ता न करें और जबरन जयसिंह से कहकर हमारा सामान अपने दुमंजिले कमरे में रखवा देती हैं. मैं उन्हें शौका भाषा में ’पूनी’ (ताई) कहता हूं. वे हमें अपने ही बच्चों जैसा प्यार देती हैं और बार-बार पूछती हैं कि हमें कुछ चाहिए तो नहीं. वे हमें ’मरती’ पीने को देती हैं. ’मरती’ का स्वाद रैड वाइन और बीयर का मिलाजुला जायका देता है - और बहुत चैतन्यकारी होता है. सबीने को ’मरती’ पसन्द आती है और वह उसे बनाने की विधि के बारे में कई सवाल पूछती है.

पूनी के पति अपनी बहू और नन्हे से पोते के साथ, खेतों से लौट आए हैं. वे थके दीखते हैं और हमें वापस आया देख कर उन्हें तनिक भी अचरज नहीं होता. उनकी बहू भीतर चली जाती है. आज हम दोनों मेहमानों के कारण पूरे परिवार को रसोई में सोना होगा. मुझे लगता है कि यह ज़्यादती होगी. मैं संकोचवश कहता हूं कि हमें नीचे की मंज़िल में सोने में कोई दिक्कत नहीं है. वे ज़ोर से हंसते हैं - जब उनकी बहू आती है वे उसे बताते हैं कि मैंने क्या कहा. इस पर बहू भी हंसने लगती है. थोड़ी देर बाद पूनी भी हंसती है. हम दोनों असहाय मुस्कराते हैं - हंसी रोक कर बहू कहती है कि अगर नीचे की मंज़िल में हम सोएंगे तो उन लोगों को बकरियों के सोने का प्रबन्ध ऊपर की मंज़िल में करना पड़ेगा. सबको हंसता देखकर बच्चा भी ख़ुश होकर आंगन में दौड़ना शुरू कर देता है. आसपास की खिड़कियों से कुछ लोग इस मनोरंजक दृश्य को देखकर प्रसन्न हो रहे हैं - आप असीम कृतज्ञ होने के अलावा क्या कर सकते हैं!

दौड़ने के बाद बच्चा थक कर दादाजी की गोदी में बैठ जाता है. इस बीच हमें चाय दे दी गई है. बच्चा चाय मांगता है तो दादाजी उंगली चाय में डुबाकर उसे चटाते हैं. वह और मांगता है. चाय के बाद बच्चा अपने पिचहत्तर साल के दादाजी को घोड़ा बनाता है. फिर कहानी की मांग करता है. बाहर ठण्ड हो रही है सो हम सब भीतर चले जाते हैं, जहां दादाजी बच्चे को कहानियां सुनाते हैं. बच्चा सो जाता है. मिट्टी के तेल के लैम्प की रोशनी में बूढ़े झुर्रीदार चेहरे पर थकान चमक रही है. सोते हुए बच्चे ने अपनी बांई हथेली में दादाजी का काना थामा हुआ है. वे बच्चे को लाड़ से देख रहे हैं. सबीने फुसफुसाकर कहती है कि ऐसे दादाजी का होना कितना दुर्लभ है जिनके साथ आप कुछ भी कर सकते हों.



च्यक्ती और खाने के बाद हम उनकी गर्म रसोई में आधी रात तक बैठे गप्पें मारते रहते हैं और अपने बारे में कई बातें साझा करते हैं. दोनों स्त्रियां बात करती जाती हैं और दक्ष हाथों से गलीचा भी बुनती जाती हैं.

हमारे पास अपनी ब्रान्ड की सिगरेटें बहुत कम बची हुई हैं इसलिए हमने इन दिनों यहां चलने वाली नेपाली सिगरेट ’खुकरी’ पीना शुरू किया हुआ है. हम अपने कोटे में से बस एक-एक सिगरेट पीते हैं. सबीने अपने कोटे की सिगरेट अपनी बगल में बैठी पूनी को प्रस्तुत करती है. हम लोग आग के गिर्द बैठे हैं. पूनी दो-तीन कश लेकर सिगरेट अपने पति को बढ़ा देती हैं. दादाजी भी एक दो कश लेकर सिगरेट जयसिंह को दे देते हैं. जयसिंह हमेशा की तरह सिगरेट को दो हाथों से ग्रहण करता है. इस चक्कर में सिगरेट नीचे गिर जाती है. मैं इस पूरी प्रक्रिया को डूब कर देख रहा हूं. क्षमायाचना की मुद्रा में जयसिंह सिगरेट उठाकर एक कश लगाता है - फिर जैसे उसे याद आती है कि मैं भी हूं. सिगरेट अब मेरे हाथ में है - अभी करीब तीन-चार कश बचे हुए हैं. मैं एक गहरी सांस खींचता हूं और सबीने की कोहनी अपनी पसलियों में गड़ता महसूस करता हूं. "ओके ओके" कहकर मैं आखिरी हिस्सा उसे देता हूं. मुझे मालूम है कि हमारे तथाकथित सभ्य संसार इस तरह के दृश्य देखे जा सकने की कल्पना भी नहीं की सकती. अभी मेरे कोटे की सिगरेट बची हुई है. उसे भी सारे लोग इसी तरह समाप्त करते हैं.




बातचीत के दौरान यह तय पाया जाता है कि अगर हम सिन-ला जाने पर उतारू ही हैं तो दताल दम्पत्ति कल हमारे वास्ते किसी गाइड की व्यवस्था करेंगे जो हमें सिन-ला की चोटी तक पहुंचाएगा. जयसिंह भी रसोई में ही सोने वाला है.

...

सुबह नींद खुलती है तो पाता हूं कि पूनी मेरे सिरहाने बैठी हुई है.

"जाग गए?"

"हां पूनी"

"लो, पी लो! मैं तुम्हारे उठने का इन्तज़ार कर रही थी." उनकी आवाज़ में मातृसुलभ प्रेम है. वे जग से स्टील के गिलास में चाय डालना शुरू करती हैं. खिड़कियां बन्द होने के कारण कमरे में अब भी काफ़ी अन्धेरा है. मैं गिलास थामता हूं. गिलास कतई ठण्डा है. बेचारी पूनी बहुत देर से मेरे उठने की प्रतीक्षा कर रही होंगी - चाय बिल्कुल बर्फ़ हो चुकी है. मैं उन्हें और तकलीफ़ नही देना चाहता कि वे चाय दोबारा से गर्म करें. मैं एक घूंट सुड़कता हूं और तुरन्त उठकर बैठ जाता हूं. मैं चाय नहीं मरती पी रहा हूं.

"पी लो, पी लो. आज तुम्हें बहुत चढ़ना है मेरे बेटे. लाटू काकू भी आ गया है तुम्हारे साथ चलने को."

मेरे पास और कोई रास्ता नहीं है. वे बताती जाती हैं कि लाटू काकू उनका रिश्ते का भतीजा है और पांचेक बार सिन-ला चढ़ चुका है. वे बहुत धीमी आवाज़ में बोल र्ही हैं ताकि सबीने की नींद में बाधा न पड़े. मैं मरती निबटा लेता हूं. मेरे बगल के स्लीपिंग बैग में कुछ हरकत होती है और एक उनींदी आवाज़ आती है - "चोको! क्या बजा? बाहर बारिश तो नहीं हो रही?"

मैं अभी से अपने भीतर मरती की ऊष्माभरी ताज़गी महसूस कर रहा हूं.

"बहुत देर हो गई है - तुम चाहो तो सोती रह सकती हो. शायद हम आज नीचे तवाघाट की तरफ़ उतरना शुरू करेंगे." मुझे बच्चों जैसी एक शरारत सूझती है. "तुम अपनी चाय क्यों नहीं ख़त्म कर लेती वरना यह कतई बर्फ़ बन जाएगी. वैसे ही इतनी ठण्डी हो चुकी है." पूनी दूसरे गिलास में मरती भर चुकी हैं और उत्सुकता से हमारी तरफ़ देख रही हैं.

"ओके ओके" स्लीपिंग बैग से सबीने का अधसोया मुंह बाहर निकलता है. मैं उसे गिलास थमाता हूं. गिलास छूते ही वह उसे पीने से इन्कार कर देती है. अंधेरे के कारण अभी उसने पूनी को नहीं देखा है.

"मैं सुबह-सुबह ठण्डी चाय नहीं पी सकती. इसे गर्म कर दो प्लीज़!"

मैं उसे हल्की सी डांट लगाता हुआ कहता हूं कि सारे लोग खेतों की तरफ़ जा चुके हैं और दोबारा चाय गर्म करने का मतलब होगा बेशकीमती ईंधन की बरबादी. वह मान जाती है.

अधसोए में, वह अनमनी होकर गिलास को एक घूंट में आधा कर देती है. मैं उसकी प्रतिक्रिया से पहले से ही वाकिफ़ हूं सो चौकन्ना हूं और स्लीपिंग बैग से बाहर आ चुका हूं. सबीने को यह जानने में एक सेकेन्ड लगता है कि उसने क्या पिया है. वह चीखना शुरू ही करती है कि मैं भागकर नंगे ही पैर आंगन में भाग जाता हूं. वह भी स्लीपिंग बैग से बाहर आकर चीखना शुरू कर चुकी है. भाग्यवश पूनी को अंग्रेज़ी ज़रा भी नहीं आती. मुझे अचानक उनके ज़ोर-ज़ोर से हंसने की आवाज़ सुनाई देती है. अचानक ही सबीने भी चुप हो गई है. उसे मेरा मज़ाक अटपटा ज़रूर लगा होगा पर अच्छा ही है - हम जल्दी तैयार होकर चलना शुरू कर सकते हैं. जब मैं हिम्मत कर के भीतर जाता हूं वह दोनों स्लीपिंग बैग पैक कर चुकी है और प्रसन्न नज़र आ रही है. वह बताती है कि उसने मरती के दो गिलास पी लिए हैं और यह कि इस ठण्ड में मरती चाय का बेहतर विकल्प लगा उसे. पूनी इस दौरान एक इंच भी नहीं हिली है. शायद वे जानना चाहती होंगी कि सबीने मेरे साथ क्या सुलूक करने वाली है. लेकिन जब कुछ भी दिलचस्प नहीं घटता तो वे बची हुई मरती मेरे लिए उड़ेलकर रसोई में चली जाती हैं यह बता कर कि आधे घन्टे में नाश्ता तैयार हो जाएगा और हमने हद से हद बारह बजे तक दांतू गांव छोड़ देने की कोशिश करनी चाहिए.

ग्यारह बजे हम दांतू से रवाना हो जाते हैं. इस बार हम चार हैं. लाटू काकू हमारे साथ सिन-ला की चोटी तक जाएंगे. आज रात हम सोलह हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर बीदांग में रुकेंगे. वहां कोई गांव तो नहीं अलबत्ता आई.टी.बी.पी. की चौकी है. बीदांग पहुंचने के लिए पहले हमें नदी के उस तरफ़ जाना होगा और गो गांव के बांई तरफ़ से बेहद मुश्किल यात्रा शुरू होनी है.

पूनी ने हमारे रास्ते के लिए कुछ रोटियां बांध दी हैं और एक बोतल मरती की भी. शुरू शुरु में रास्ता बहुत चटियल और बेहद तीखी चढ़ाई वाला है. हम धीरे-धीरे चढ़ते रहते हैं. पिछले कई दिनों से हम नौ-दस हज़ार फ़ीट की सतहों पर ही चलते रहे हैं. चढ़ाई का अभ्यास छूटा हुआ है और हम दोनों को पैरों में हल्का दर्द महसूस हो रहा है.

रास्ते भर तमाम स्मृतिशिलाएं और पत्थरों की ढेरियां बनी हुई हैं. लोग इतनी ऊंचाई पर आ कर अपने प्रियजनों की स्मृति में इन स्मारकों का निर्माण करते हैं. किसी किसी के भीतर तस्वीरें भी रखी हुई हैं. ज़्यादातर तस्वीरें लगातार धूप और बारिश के कारण धुंधला चुकी हैं. एक तस्वीर बिल्कुल नई है. आसपास पूजा की सामग्री बिखरी पड़ी है. यह एक चौदह साल के लड़के का स्मारक है जो गए बरस अपने पैतृक गांव आते हुए रास्ते में भूस्खलन के कारण अकाल मृत्यु का शिकार हो गया था. यह उसकी तस्वीर के नीचे लिखा हुआ है - हिन्दी और अंग्रेज़ी में. तेज़ हवाएं भाग रही हैं - पहाड़ विशाल हैं और तकरीबन नंगे. कभी दूर बकरियों के मिमियाने की आवाज़ सुनाई दे जाती है. थोड़े विषाद से मैं बच्चे की तस्वीर को और करीब से देखने की कोशिश करता हूं. बच्चा अपने घर के आंगन में खड़ा है - उसके चौड़े चेहरे पर उतनी ही चौड़ी मुस्कान है. मैं कुछ दार्शनिक मुद्रा धारण करता हुआ जीवन के बारे में विचार करने को होता ही हूं कि सबीने मुझे जल्दी जल्दी आगे चलने को कहती है ताकि समय पर बीदांग पहुंचा जा सके.



रास्ते में कई जगहों पर भूस्खलन हुआ है - खूब सारे ग्लेशियर भी हैं. चढ़ाई अब खासी मुश्किल है. हम करीब पन्द्रह हज़ार फ़ीट पर हैं. सबीने घड़ी देखती है तो लाटू काकू कहता है कि हम पहुंचने ही वाले हैं. शाम का पांच बजा है. हालांकि दिन भर बादलों की लुकाछिपी चलती रही है पर भाग्यवश बारिश ज़रा भी नहीं हुई. दूर किसी पहाड़ पर सबीने ऊंचाई पर चर रहे एक रेवड़ की तरफ़ इशारा करती है. बकरियां एक गोल चक्कर में चर रही हैं और दूर से उनका रेवड़ किसी घड़ी के डायल जैसा दीख रहा है. वह मेरा ध्यान इस तरफ़ दिलाती है.

"हां करीब पांच पैंतीस बज रहा है वहां"

"नहीं - गौर से देखो - पांच पैंतालीस है" वह कहती है.

हम थक कर चूर हैं. मैं आसानी से पांच पैंतालीस पर सहमत हो जाता हूं. हम सुस्ताने को एक चट्टान पर बैठने को ही हैं कि लाटू बताता है कि पांच मिनट में हम आई.टी.बी.पी. कैम्प में होंगे.

ठीक साढ़े पांच बजे हम कैम्प पहुंच जाते हैं. हिमालय की उत्तुंग चोटियां कैम्प की पृष्ठभूमि में हैं.

(जारी)

Thursday, November 26, 2009

एक हिमालयी यात्रा: दूसरा हिस्सा

(पिछली किस्त से आगे)

तीदांग, न्यौली, टोपी शुक्ला, बारिश वगैरह

भुवन ने पूरा मकान किराए पर लिया हुआ है - सौ रुपया महीने पर. दरवाज़ों-खिड़कियों की लकड़ी पर महीन नक्काशी है और यह मकान समूची दारमा घाटी में देखे गए सुन्दरतम मकानों में से एक है. भीतर उसने कमरा अपने हिसाब से जमा रखा है. परम्परागत शौका घर में तमाम तरह के ऊनी कालीन, खालें, टोकरियां वगैरह होती हैं पर भुवन के कमरे में एक मेज़ है और दो घिसी हुई कुर्सियां. मेज़ पर कागज़-पत्तर-किताबें हैं और फ़िलिप्स का तीन बैण्ड वाला रेडियो.

भुवन हमारे अब तक किए गए काम के बारे में जानने को आतुर है. हम बातें कर रहे हैं. कोई उसे आवाज़ लगाता है. एक सुदर्शन व्यक्ति भीतर आता है. गुमानसिंह तितियाल - हमारा परिचय कराया जाता है. गुमानसिंह मुझसे हाथ मिलाते हैं और सबीने से नमस्ते कहते हैं. वे ख़ूब हंसते हैं - बच्चों वाली निश्छल हंसी. उनकी उपस्थिति जीवन्त और दोस्ताना है.

अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तो कल सुबह हम सिन-ला की चढ़ाई शुरू करेंगे. भुवन हमें बताता है कि हमें आई. टी. बी. पी. जाकर अपने नाम दर्ज़ कराने पड़ेंगे.

कुटी गांव


करीब चार बजे हम चैकपोस्ट पहुंचते हैं. हमारा स्वागत उसी उत्साह और गर्मजोशी से किया जाता है जिसकी हमें आदत पड़ चुकी है. कमान्डैन्ट भला आदमी है और औपचारिकताओं के बीच हमें कॉफ़ी प्रस्तुत की जाती है. कमान्डैन्ट हमें बताता है कि इस मौसम में सिन-ला चढ़ने में हमें काफ़ी तकलीफ़ होगी. शुक्रिया वगैरह के बाद हम जाने को ही हैं कि वह कहता है "हमने यहां एक छोटी सी लाइब्रेरी बना रखी है" फिर किंचित अभिमान से वह जोड़ता है "मैंने खुद अपने संग्रह से किताबें यहां डोनेट की हैं."

मैं लाइब्रेरी देखने की इच्छा जताता हूं. लाइब्रेरी में करीब डेढ़ दर्ज़न पेपरबैक्स हैं और कुछ पुरानी फ़िल्मी पत्रिकाएं. निर्मल वर्मा की कहानियां और राही मासूम रज़ा की ’टोपी शुक्ला’ देखकर सुखद अचरज होता है.

मुझे अचानक अकेलापन महसूस होने लगता है. दो महीनों से मैंने हिन्दी में कुछ नहीं पढ़ा है. कमान्डैन्ट अपनी किताबों, रुचियों और जीवन के बारे में बहुत कुछ कह रहा है पर मैं सुन नहीं रहा.

खिड़की से बाहर देखता हूं. घने बादल और सलेटी आकाश - मेरी उदासी को प्रतिविम्बित करते जैसे. मैं और उदास हो जाता हूं. दोनों किताबें रात भर के लिए ’इश्यू’ करा लाता हूं.

"मुझे अपनी किताबों की याद आ रही है" मैं सबीने से कहता हूं. वह सहानुभूतिपूर्ण स्वीकृति में सिर हिलाती है और चट्टानों पर फांदती हुई नई फ़ोटो खींचने की तैयारी करने लगती है. कमान्डैन्ट उसके कैमरे को सन्देह की दृष्टि से देखता है. मैं उसे बताता हूं कि हमारे पास कैमरा-परमिट है. वह परमिट दिखाने कि नहीं कहता.

हम गांव की तरफ़ उतर रहे हैं. भुवन अनजाने ही बहुत मीठी, मद्धम आवाज़ में कुमाऊंनी विरह-गीत ’न्यौली’ गुनगुना रहा है - प्रेमी के विरह में नायिका विलाप कर रही है कि उस मन का क्या करे जो थामा ही नहीं जाता जबकि बहता पानी तक थम जाता है और उस पर मौसम की उदासी -

काटन्या, काटन्या
पौली ऊंछौ चौमासी को बाना,
बगन्या पाणी थामी जांछौ
नी थामीनै मन ...


माया लागी


भुवन के महीन स्वर मेरे भीतर घने अवसाद का परदा खींच देते हैं. अचानक तेज़ बारिश लग जाती है. करीब दो माह से हम लोग ऐसी ही तर बारिशों में बंजारों की तरह एक गांव से दूसरे गांव भटकते रहे हैं.

मैं थक गया हूं. मुझे घर जाना है, मुझे धूप चाहिए. मैं अकेला अपने कमरे में होना चाहता हूं. चाहता हूं कुछ दिन कुछ न करूं.

इसी उदासी में हम कमरे के भीतर हैं. लालटेन की रोशनी और बाहर बारिश. मैं निर्मल जी की कोई कहानी पढ़ रहा हूं -सबीने अपनी नोटबुक में व्यस्त है.

ठण्ड विकट पड़ रही है. बारिश रुकने पर भुवन गांव में हमारे खाने के जुगाड़ के लिए निकल जाता है. वह काफ़ी औपचारिक हो रहा है और अपनी तरफ़ से आतिथ्य में कोई कमी नहीं रहने देना चाहता. सात बजे के आसपास गुमानसिंह आते हैं - निश्छल हंसी और च्यक्ती की बोतल लेकर. कमरा अचानक भर सा गया है. परसों सुबह गुमानसिंह ने ऊंचाइयों की तरफ़ निकलना है - अपने शिकार अभियान पर. इस बार उन्होंने एक बड़ा जानवर मार कर लाना है ताकि नवम्बर तक के लिए उनके परिवार के पास खाने को पर्याप्त मांस हो. हमारे गिलासों में च्यक्ती भरते हुए वे हमें अपने शिकारी जीवन के बारे में बतलाते हैं. वे भुवन को भूल गए लगते हैं. असल में उनकी बातों में हम भी भुवन को भूल से गए हैं. भुवन भीतर आता है तो उसके चेहरे पर झेंप और इतनी देर तक हमें अकेला छोड़कर जाने के लिए क्षमायाचना का भाव है पर हमें गुमानसिंह जी के साथ मगन देखकर वह सामान्य हो जाता है.

बांएं भुवन पांडे, दांए गुमानसिंह तितियाल, बीच में निर्माणाधीन कबाड़ी


"खाने के बाद हमें नाच-गाने के लिए एक घर जाना है - और खाना गुमानसिंह जी के घर बन रहा है." हमें सूचना देकर, जल्दी से एक गिलास च्यक्ती पीकर वह आग जलाने में व्यस्त हो जाता है.

....

जब गुमानसिंह को हमारे सिन-ला जाने की योजना का पता चलता है, वे तुरन्त हमसे कहते हैं कि यह असम्भव है - "जब भी मारछा गांव के ऊपर की पहाड़ी पर बर्फ़ होती है, सिन-ला चढ़ने की हिमाकत कोई नहीं करता! हम लोग पीढ़ियों से ऐसा करते आए हैं."

गुमानसिंह सिन-ला की दिक्कतों के बारे में लम्बी दास्तानें सुनाते जाते हैं. सबीने और मैं एक दूसरे को चिन्तित निगाहों से देखते हैं.

थोड़े खाने और नाच-गाने के बाद हम अपने-अपने स्लीपिंग बैग्स के भीतर हैं. नींद नहीं आती और हम तमाम सम्भावनाओं पर विचार करते हैं. "कल देखी जाएगी!" कहकर अन्ततः हम एक-दूसरे का ढाढ़स बंधाते हैं.

अगली सुबह उठते हैं तो देखते हैं कि बारिश की झड़ी लगी है. आठ बज चुका है. तो!

तो क्या!

- सिन-ला का इरादा छोड़ना पड़ेगा शायद.

दिन भर लोग आते रहते हैं और सिन-ला के बारे में भयावह किस्से-कहानियां सुनाते हैं. हम सिगरेट पर सिगरेट फूंके जा रहे हैं और इस तथ्य से हिले हुए हैं कि अब हमें पूरा तवाघाट तक उतरना होगा और फिर कुटी गांव तक की दुर्दान्त चढ़ाई - इसमें करीब दो सौ किलोमीटर तक चलना होगा.

भुवन की मेज़ पर मुझे कैल्कुलेटर जैसा दीखने वाला एक वीडियो गेम मिल जाता है. मैं पागलों की तरह इस बचकाने खेल को घन्टों तक खेलता रहता हूं - सबीने खीझती रहती है. जब भी एक बम मेरी कार पर गिरता है, एक तीखी इलेक्ट्रॉनिक महिला आवाज़ निकलती है: "रौन्ग! रौन्ग! रौन्ग!" मशीन के भीतर कुछ तकनीकी गड़बड़ है और स्पीकर से आने वाली आवाज़ कर्कश और असहनीय है: "वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग!" जब भी ऐसा होता है सबीने कोशिश करती है मैं गेम को छोड़ दूं. पर मुझे हर हाल में इस लेवल से आगे जाना है. वह बहुत चिढ़ गई है.

"बारिश रुक गई है. चलो टहल कर आते हैं" वह मुझे मना रही है. "वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग!" - पाजी बम ने फिर से मेरी कार तबाह कर डाली. "तुम सुन रहे हो?" - सबीने अब मुझे डांट रही है. मुझे कैसे भी अगले लेवल पर पहुंचना है. "प्लीज़ एक बार और खेल लेने दो ना!" - मैं याचना करता हूं. "ठीक है. बस एक बार. फिर हम टहलने जा रहे हैं!" - उसकी आवाज़ में धमकी है.

"वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग!" - उफ़ साले हरामज़ादे बम! मैं खेलता रहता हूं. भयंकर गुस्से में मुझे बुरा भला कहकर सबीने अकेली ही बाहर चली गई है.

"वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग!" मुझे अपनी गलती का अहसास होता है पर बहुत देर हो चुकी है.

मुझे अचानक भान होता है कि हमारी इस पूरी यात्रा का यह सबसे निरर्थक दिन रहा है. मैं वीडियोगेम मेज़ पर फेंक बाहर खुले में आ जाता हूं. पर तुरन्त बारिश आ जाती है. मेरे पास वापस भीतर जाने के अलावा कोई चारा नहीं.

मेज़ पर पड़ा फूहड़ वीडियोगेम मुझे अगले लेवल पर चलने को ललचा रहा है. मैं करीब-करीब उसे उठा ही रहा था कि भाग्यवश सबीने आ गई है. वह छाता ले जाना भूल गई थी और लगता है कि उसे याद नहीं कि उसने मुझे डांट पिलानी है. "उफ़! मैं पागल हो जाऊंगी इस बारिश से!" वह खीझती हुई कहती है.

"तुम्हारे लिए चाय बनाऊं?" - मैं नहीं चाहता वह मुझे डांटे. और अब तो मैं गेम भी नहीं खेल रहा. सग्गड़ पर जली आग पर मैं चाय बनाता हूं. हम देर तक एक-दूसरे का हाथ थामे खिड़की से बाहर बारिश देखते रहते हैं. हम मारकेज़ की कहानी ’वॉचिंग इट रेन इन माकोन्दो’ के बारे में बात करते हैं. मैं उसे नैनीताल के अपने स्कूल के छात्रावास के दिनों की असम्भव बारिशों के बारे में एक किस्सा सुनाता हूं. फिर एक और किस्सा. अब वह मुस्करा रही है.

"चोको!" वह प्रस्ताव रखती है "क्या ख़्याल है, कल की बची च्यक्ती ख़त्म की जाए?"

जल्द ही भुवन भी कहीं से खाना और च्यक्ती लेकर आ जाता है. फिर गुमानसिंह और प्रधानजी पहुंचते हैं. प्रधानजी गांव के बारे में आश्चर्यजनक किस्से-कहानियां सुनाते हैं - तमाम भूत-प्रेत, चुड़ैल-आंचरी, दबे हुए ख़ज़ाने वगैरह की एक से एक दिलचस्प कहानियां. वार्तालाप धीरे-धीरे ख़ासा उत्तेजनापूर्ण हो जाता है. कुछ और लोग कमरे में आ जाते हैं. अचानक इस छोटे से कमरे में बाकायदा छोटी-मोटी पार्टी चालू है - हंसी-ठठ्ठ-किस्से-कहानियां...

मां


यह अविस्मरणीय समय है. सबीने जैसे मेरा मन पढ़ कर कैमरा निकाल लेती है. इस कार्यक्रम के उपरान्त हम सारे लोग एक पड़ोसी की रसोई की तरफ़ चल पड़ते हैं. हमें कुछ खाना परोसा जाता है. सारा गांव हमारे लिए इकठ्ठा है. देर रात तक नाच-गाना चलता रहता है. धुंए से भरी रसोई में स्त्री-पुरुष नाच रहे हैं. चूल्हे से निकलती कोई लपट कभी किसी चेहरे को आभासित कर देती है. यह सब बेहद सम्मोहक है हमेशा की तरह. हमने न जाने कितनी बार ऐसी दावतों में हिस्सेदारी की है - पर इनका जादू कभी समाप्त नहीं होता. अचानक मुझे अपनी देखी हुई सारी बर्फ़बारियां याद आती हैं. हर बार की बर्फ़ अलग होती है - हरेक का अपना तिलिस्म होता है, हरेक का अपना व्यक्तित्व.

(जारी)

(सभी फ़ोटो - डॉ. सबीने लीडर)

Wednesday, November 25, 2009

एक हिमालयी यात्रा: पहला हिस्सा

(सन १९९५,१९९६,१९९७,१९९९ और २००० में उत्तराखण्ड के सुदूर हिमालयी क्षेत्र में स्थित व्यांस, चौदांस और दारमा घाटियों में कुल मिलाकर तकरीबन ढाई साल रहकर सबीने और मैंने इन घाटियों में रहनेवाली महान शौका अथवा रं जनजाति की परम्पराओं और लोकगाथाओं पर शोधकार्य किया था. भारत-चीन युद्ध से पहले शौका जनजाति को तिब्बत से व्यापार में एक तरह का वर्चस्व प्राप्त था. ये घुमन्तू लोग गर्मियों में तिब्बत जाकर वहां से नमक, सुहागा, ऊन वगैरह लेकर आते थे और जाड़ों में निचले पहाड़ी कस्बों, गांवों और मैदानी इलाकों में व्यापार किया करते थे. प्रामाणिक दस्तावेज़ तो यहां तक साबित करते हैं कि इनमें से कुछ साहसी व्यापारी कालिम्पोंग, दार्जिलिंग और यहां तक कि कर्नाटक तक पहुंचा करते थे. हमारे पहाड़ों के लोगों ने कई पीढ़ियों तक इन्हीं शौकाओं के लाए नमक पर गुज़ारा किया है.

प्रस्तुत यात्रावृत्त सद्यः प्रकाश्य एक लम्बे सफ़रनामे का अनूदित हिस्सा है. इसमें हम दारमा घाटी के एक गांव दुग्तू से चलकर कुमाऊं गढ़वाल का सबसे ऊंचा दर्रा सिन-ला पार करके व्यांस घाटी पहुंचते हैं.)


दांतू से तीदांग

... अगली सुबह हम सामान बांधकर तीदांग की तरफ़ चल पड़ते हैं. लेकिन पहले हमें सौन और दुग्तू गांवों के लोगों के साथ दांतू गांव में चल रहे मशहूर गबला-मेले में जाना होगा. शौकाओं के अति-आदरणीय गबला देवता का थान दांतू में है. नर्तकों की कतार के साथ-साथ हम एक बार फिर दांतू गांव पहुंचते हैं. आज मेले का अन्तिम दिन है और वॉलीबॉल का फ़ाइनल भी. आई. टी. बी. पी. की टीम किसी गांव के साथ खेल रही है. आई. टी. बी. पी. चौकी के प्रभारी सूबेदार महोदय को इस महत्वपूर्ण अवसर पर मुख्य अतिथि बनाया गया है. बन्दरटोपी धारण किए हुए मुख्य अतिथि के सामने एक टूटी सी मेज़ धरी हुई है और वे स्वयं गन्दी दरी से ढंके एक तखत पर विराजमान हैं. लोगों की भीड़ है और कोलाहल.

दांतू गांव


मुख्य अतिथि करीब पचास के हैं और अवसर के अनुरूप उन्होंने कृत्रिम गरिमा ओढ़ रखी है. हम दोनों दतमलसिंह जी की दुकान पर बैठे अपने पोर्टर जयसिंह के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. भीड़ बहुत है इसलिए बिक्री बढ़िया हो रही है. बाकी दिनों यह दुकान बहुत सादगीभरी दिखाई देती है पर आज टॉफ़ी, चूरन, सुपारी, तम्बाकू इत्यादि के प्लास्टिक पाउचों की मालाएं सजी हुई हैं. मुख्य अतिथि ने अभी तक हमें नहीं देखा है. हमारे लिए नूडल्स का नाश्ता बन रहा है. जयसिंह भी सामान लेकर पहुंच चुका है. तथाकथित डाकबंगले का चौकीदार उदयसिंह भी साथ है और सुबह सुबह धुत्त है. दतमलसिंह जी हमें आगे की यात्रा की कठिनाइयों की बाबत चेताते हैं और ध्यान रखने की हिदायत देते हैं.

तीदांग का रास्ता पकड़ने के लिए हमें वॉलीबॉल कोर्ट से होकर गुज़रना होगा क्योंकि और कोई रास्ता है ही नहीं. हमें देखते ही खेल रुक जाता है. मुख्य अतिथि की निगाह जैसे ही हम पर पड़ती है, उन्हें जैसा दौरा पड़ जाता है. वे हमसे करीब बीस मीटर दूर हैं और वहीं से चिल्लाकर "हैलो सर! गुडमॉर्निंग मैडम!" वगैरह करते हैं. फिर हमें पास आने का निमंत्रण दिया जाता है और बाद में कैम्प में लन्च करने का भी. मैं उनकी तरफ़ देखता भी नहीं क्योंकि उनकी आवाज़ बता रही है वे जमकर पिए हुए हैं. वे ऐसी अंग्रेज़ी बोल रहे हैं जिसे खूब दारू पीकर अंग्रेज़ी न जाननेवाले धाराप्रवाह बोला करते हैं. हम बिना रुके, बिना इधर-उधर देखे चलते जाते हैं - वे चीखते रहते हैं. मुझे अपनी पीठ पर सैकड़ों निगाहों की गड़न महसूस हो रही है. सबीने कुछ उखड़ गई सी दीखती है पर मैं उससे चलते रहने का निवेदन करता हूं. बारिश आने से पहले-पहले हमें अपने गन्तव्य तक पहुंच जाना चाहिए.

उदयसिंह अब भी हमारे साथ है. हालांकि हमने उसके गैस्टहाउस में रहने-खाने का हिसाब कर दिया है पर उसका अनुग्रह है कि वह जहां तक मुमकिन हो हमारे साथ आना चाहता है क्योंकि इसके बाद शायद हम दोबारा दारमा घाटी कभी न आएं. उसने खूब च्यक्ती (स्थानीय शराब) पी रखी है और खूब भावुक हो रहा है. करीब एक किलोमीटर तक हमारे साथ चलने के बाद वह हमें सावधानी बरतने की हिदायत देता है और अन्ततः विदा लेता है. वह मुझसे हाथ मिलाता है और फिर जयसिंह से भाइयों की तरह गले मिलता है. फिर हमें दोबारा दारमा आने का न्यौता देता है और बताता है कि हम भले लोग हैं.

वह भरी भरी आंखों से हमें देख रहा है. हम करीब पन्द्रह दिन उसके साथ रहे हैं. मैं पचास का एक नोट उसकी तरफ़ बढ़ाता हूं - वह साफ़ मना कर देता है. मैं कहता हूं कि वह बच्चों की मिठाई के लिए है. वह कुछ नहीं कहता पर उसकी आंखें आंसुओं से भर जाती हैं. मैं आगे बढ़कर उसे गले लगा लेता हूं और पचास के नोट पर ज़ोर नहीं देता. अब वह खुश लगता है. सबीने मुस्करा कर कहती है: "अच्चा उदैसिंह जी!"

...

रास्ते में केवल एक गांव पड़ता है. ढाकर सम्भवतः पूरे दारमा की सबसे छोटी बसासत है. इस साल एक या दो परिवार ही गर्मियों के लिए ऊपर आए हैं.

बरसातों में धौलीगंगा



करीब आठ किलोमीटर धलीगंगा के किनारे किनारे मुलायम ऊंचाई चढ़ते हुए हम तीदांग में हैं. रास्ते भर हमें कोई भी नहीं मिला. तीदांग पहुंचने से पहले हमें दूर पल्थी के गुलाबी खेतों की धुंधली छटा दिखलाई देती है - ये इस घाटी के अन्तिम गांव हैं - सीपू और मारछा.

तीदांग


तीदांग में मकानों की दो या तीन कतारें हैं. इन्हीं में से किसी एक में मेरा संगीतकार - अध्यापक दोस्त भुवन पांडे रहता है. वह हमें स्कूल में मिलता है. एक कमरे के स्कूल में कोई दर्ज़न भर बच्चे पढ़ते हैं - पहली से आठवीं तक - भुवन इकलौता अध्यापक है. (जारी है)

(तीदांग और दांतू के फ़ोटो http://sadanandsafar.blogspot.com से साभार)

रफ़ी साहब की आवाज़ में दो अंग्रेज़ी गाने दोबारा से



हालांकि मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में अंग्रेज़ी में गाए ये दो गीत कबाड़ख़ाने में अर्सा पहले भी लगाए जा चुके हैं पर दोबारा लगा देने में क्या हर्ज़ है ख़ासतौर पर यह देखते हुए कि जिन पोस्ट्स में ये गीत लगे हुए हैं वहां उन्हें अब सुना नहीं जा सकता क्योंकि प्लेयर्स ने काम करना बन्द कर दिया है.

ये गीत ख़ासतौर पर दिल्ली में रहने वाले मित्र आशुतोष बरनवाल की फ़रमाइश पर पेश किए जा रहे हैं.

पहला है राग शिवरंजनी में गाया गया "रफी लाइव इन हौलैंड" से. बोल हैं:

Although We Hail from Different Land
We share one earth and sky and sun
Remember friends, the world is one



दूसरे के बोल लिखे जाने की ज़रूरत है क्या? गाना सुनने से पहले नीचे की तस्वीर देख लीजिए:



Monday, November 23, 2009

क्या यह स्वप्न है अथवा आकार ले रहा है कोई यथार्थ

अभी कुछ देर पहले ही 'कर्मनाशा' के पन्नों पर पर अपनी पसंदीदा रूसी कवि अन्ना अख़्मातोवा की एक कविता का अनुवाद प्रकाशित किया था. उस पोस्ट में अनजाने में रह गईं गलतियाँ खोजते - खोजते मन हुआ कि अन्ना की एक और कविता आपको पढ़वा दी जाय. सो, देर काहे की.. लीजिए प्रस्तुत है यह कविता...

बर्फ की गहरी कठोर तह के सानिध्य में

बर्फ की गहरी कठोर तह के सानिध्य में
तुम्हारे सफेद घर में है रह्स्यों का है डेरा
कितनी सौम्यता व शान्ति के साथ
हम दोनों घूम रहे हैं
नीरवता में अधखोए हुए - से.

हम गा रहे हैं सबसे मधुर गान
जो पहले कभी न गाया गया
क्या यह स्वप्न है
अथवा आकार ले रहा है कोई यथार्थ
तुम्हारे सिल्वर स्प्रूस से
हल्के छल्ले की तरह लिपटी हुई नन्हीं टहनियाँ
सहमति में हिलाए जा रही हैं अपनी मुंडियाँ लगातार।

Saturday, November 21, 2009

सिर्फ़ विपन्न विस्मयता ही हमारे खून में खेल रचाया करती है



व्यक्तिगत रूप से मेरा ठोस यकीन है कि जीवनानन्द दास बांग्ला कविता के शीर्षस्थ कवि हैं - किसी भी कालखण्ड के. ठाकुर रवीन्द्र से भी बड़े और सुकान्त भट्टाचार्य से भी. हालांकि उन्हें उनकी कविता ’वनलता सेन’ (बौनोलता शेन) के लिए सबसे अधिक ख्याति मिली पर उनकी अनेकानेक रचनाएं मुझे आज भी हैरत और उद्दाम प्रसन्नता से भर देती हैं.

उनकी एक कविता आज लगा रहा हूं. जल्द ही जीवनानन्द दास के जीवन और उनकी रचनाओं को लेकर एकाध पोस्ट लेकर हाज़िर होता हूं. इस ख़ास कविता का मेरे लिए बहुत बड़ा महत्व इस मायने में है कि घनघोर अवसाद के जब तब आने वाले समयों में इस रचना ने मुझे बचाया है.


एक दिन आठ साल पहले

जीवनानन्द दास
-----------

सुना चीर फाड़ कर
ले गए हैं उसे,
कल फागुन की रात के अन्धेरे में
जब डूब चुका था पंचमी का चांद
तब मरने की उसे हुई थी साध,
पत्नी सोई थी पास - शिशु भी था,
प्रेम था - आस थी -
चांदनी में तब भी कौन सा भूत देख लिया था
कि टूट गई थी उसकी नींद?
इसी लिए चला आया चीर-फाड़ घर में नींद लेने अब!
पर क्या चाही थी उसने यही नींद!

महामारी में मरे चूहे की तरह
मुंह से ख़ून के थक्के उगलता, कन्धे सिकोड़े, छाती में अन्धेरा भरे
सोया है इस बार कि फिर नहीं जागेगा कभी एक भी बार.
जानने की गहरी पीड़ा
लगातार ढोता रहा जो भार
उसे बताने के लिए
जागेगा नहीं एक भी बार
यही कहा उसे -
चांद डूबने पर अद्भुत अन्धेरे में
उसके झरोखे पर
ऊंट की गरदन जैसी
किसी निस्तब्धता ने आकर.
उसके बाद भी जागा हुआ है उल्लू.
भीगा पथराया मेंढक उष्ण अनुराग की कामना से
प्रभात के लिए दो पल की भीख मांग रहा है.

सुन रहा हूं बेरहम मच्छरदानी के चारों ओर
भिनभिनाते मच्छर अन्धेरे में
संग्राम करते जीवित हैं -
जीवन स्रोत को प्यार करके.

ख़ून और गन्दगी पर बैठकर धूप में उड़ जाती है मक्खी,
सुनहली धूप की लहर में कीड़ों का खेल
जाने कितनी कितनी बार देख चुका हूं.
सघन आकाश या किसी विकीर्ण जीवन ने
बांध रखा है इनका जीवन,
शैतान बच्चे के हाथ में पतंगे की तेज़ सिहरन
मरण से लड़ रहा है,
चांद छिपने पर गहरे अंधेरे में
हाथ में रस्सी लेकर अकेले गए थे तुम अश्वत्थ के पास
यह सोचकर कि मनुष्यों के साथ में
कीड़े और पक्षी को जीवन नहीं मिलेगा!

अश्वत्थ की शाख ने
नहीं किया प्रतिवाद? क्या जुगनुओं के झुण्ड ने आकर
नहीं किया सुनहले-फूलों का स्निग्ध झिलमिल?

थुरथुरे अन्धे घुग्घू ने आकर
क्या नहीं कहा - "बूढ़ा चांद बाढ़ में बह गया क्या?
बहुत अच्छा!
अब दबोच लूं एक दो चूहे."
बांचा नहीं घुग्घू ने आकर यह प्रमुख समाचार?
जीवन का यह स्वाद - पके जौ की गन्ध सनी
हेमन्त की शाम -
असह्य लगी तुम्हें
तभी चले आए हो ठण्डे घर में कुचल कर मरे चूहे के रूप में.

सुनो तब भी इस मॄतक की कहानी -
यह किसी नारी के प्रेम का चक्कर नहीं था
विवाहित जीवन की चाह थी
ठीक समय पर एक जीवनसंगिनी
ख़ुद ही आ गई.

ग्लानि से हड्डी टूट जाए या दुख से मर जाए
ऐसा कुछ नहीं था उसके जीवन में
जो चीर-फाड़ घर में
तखत पर चित
आ लेटता.

इन सबके बाद भी, जानता हूं
नारी का हृदय, प्रेम, शिशु, घर ही सब कुछ नहीं है
धन नहीं, मान नहीं, सदाचार ही नहीं
सिर्फ़ विपन्न विस्मयता ही हमारे
खून में खेल रचाया करती है,
क्लान्ति हमें थकाती है,
लेकिन क्लान्ति वहां नहीं है
इसलिए लाशघर की
मेज़ पर चित सोया है.
तब भी रोज़ रात को देखता हूं
आहा ...
अश्वत्थ की डाल पर थरथर कांपता अन्धा घुग्घू -

आंख पलटाए कहता है -
"बूढ़ा चांद! बाढ़ में बह गया क्या?
बहुत अच्छा!
अब दबोच लूं एक दो चूहे."

हे आत्मीय पितामह आज करो चमत्कार
मैं भी तुम्हारी तरह बूढ़ा हो पाऊं
और इस बूढ़े चांद को
पहुंचाऊं कालीदह की बाढ़ के पार ...

हम दोनों मिलकर शून्य कर जाएंगे जीवन का प्रचुर भंडार.

(यह अनुवाद समीर वरण नन्दी का है. अलबत्ता मैं यहां हिन्दी के वरिष्ठ कवि प्रयाग शुक्ल द्वारा किया गया अनुवाद लगाना चाहता था पर अपनी किताबें खंगाल चुकने पर मुझे अहसास हुआ कि किन्ही सज्जन को जीवनानन्द दास पर ज्ञानपीठ द्वारा छापा गया वह छोटा सा मोनोग्राफ़ ज़्यादा पसन्द आ गया होगा.)

Friday, November 20, 2009

एक दिव्य जलयात्रा



रानी जयचन्द्रन की दो कविताओं के अनुवाद आप 'कबाड़ख़ाना' पर पहले भी देख चुके हैं । उनकी हाल ही में प्रकशित कविता पुस्तक Echoes of Silence में बहुत अच्छी कवितायें हैं। आज इसी संग्रह से एक कविता The Celestial Voyage का अनुवाद प्रस्तुत है।


एक़ दिव्य जलयात्रा / रानी जयचन्द्रन

जब प्रसन्नता से परिपूर्ण मैं
अग्रसर हूँ खेती हुई एक नाव
तो सुनाई दे रही है एक लयबद्ध ताल
क्या यह प्रवाह से भरे जल की ध्वनि है ?
अथवा आवाज है मेरे भीतर हिलोरें मारते आह्लाद की ?
क्या यह स्पंदन है मेरे हृदय का ?
या फिर
कोई आलाप है हाँफते हुए मन - मस्तिष्क का ?

मन्द शीतल हवा
जो संदेशवाहि्का है
पुष्पित होते चंपक की भीनी सुवास की
वही इस क्षण उर्ध्वमान किए जा रही है अंतरात्मा को
स्वर्गिक ऊँचाइयों की ओर
और जिसने मेरे मस्तक पर सजा दिया है
सुबह - सुबह की धुन्ध का दिपदिपाता मुकुट।

घास चरते मृग , चह - चह करते विहग
गीत गाती कोकिल , प्रस्फुटित होते पुष्प
नर्म - नाजुक तृण , छाया बाँटने वाले वॄक्ष
कुमुद की पंखुड़ियों पर जमे हुए तुहिन कण..
समूचे दृश्य को बना रहे हैं देवताओं का उपवन - देवोद्यान
जिसमें अवतरित हो रहा है
स्वर्गिक आभा का सहज सतत समुच्चय।

कोहरे में स्नात सघन वन प्रान्तर से
झाँक रहे हैं सुनहले किरणों के पुंज
रुपहली ढलानों पर फिसल रहा है रश्मित आलोक
जिसकी छुवन से पिघल रही है जमी हुई ओस
और छितरा रही है छोटी- छोटी बूँदें
जो समीरण के वेग में प्रशान्ति भर कर
इस सुन्दर दृश्य को बनाए जा रही हैं एक रहस्यपूर्ण संसार।

मैं सुन रही हूँ...सुन रही हूँ
मन्द हवा की आहट - सरसराहट
बहुत स्पष्ट है
अपनी ही लहरों से भरी यह लोरी
जो मेरे अशक्त अंतस में आह्लाद कर
उसे हिरन की तरह
चौकड़ियाँ भरने को प्रेरित कर रही है लगातार।

क्या मैं लम्बे समय तक खेती रह सकूँगी यह नाव ?
क्या मैं अकेले ही देखती रहूँगी
प्रकृति का यह अनुपम उपहार
यह दृश्य
जिसमें समाहित हुआ है दिव्यता का दिव्य भाव ?

अब जबकि बिन माँझी की मेरी नौका
सौन्दर्य से भरे तट तक पहुँचने से है बस थोड़ी ही दूर
देखती हूँ कि नाविक तो बैठा है बिल्कुल पास
अपनी थपकियों से मेरी व्याकुलता का शमन करता
धीरे - धीरे पतवार चलाता
जैसे रची जा रही हो कोई शोभाकृति चुपचाप.
मेरे ह्रूदयस्थल में अंकुरित होने लग गई हैं
कोमल भावनायें अकस्मात
और पंखों को फैलाकर गंतव्य की ओर भरने लगी हैं उड़ान
मैं स्वयं को समर्पित कर देती हूँ
जैसे कि कोई सजल सरिता
समुद्र की विशालता में हो जाती है विलीन।

प्रेम की वाणी से पूरित चुप्पी और एकान्त ने
प्रार्थनाओं से भर दिया हैं मेरे अंतर्मन को
इस उदात्त ऊष:काल में बह जाने दो मुझे
हो जाने दो मग्न मुग्ध मुदित बेपरवाह।

कोई विघ्न न डाले
वरदान से आप्लावित इस मन:लोक में
कोई नष्ट न कर दे
इस स्वर्गिक संसार को
प्रेम के शाश्वत प्रतीक
कृष्ण की तरह और राधा की तरह
अनश्वरता से सहेज लेने दो इस अद्भुत जलयात्रा को
जो मुझे बनाए जा रही है
तुम्हारा एक सच्चा साथी और एक प्रसन्नचित्त दोस्त।

Wednesday, November 18, 2009

प्रश्न और पागलपन


आज एक बार फिर निज़ार क़ब्बानी की दो प्रेम कवितायें !

प्रश्न

मेरे महबूब ने पूछा :
'क्या अन्तर है
मुझमें और आसमान में ?'

अन्तर , मेरे प्यार,
बस इतना ही :
कि जब हँसते हो तुम
तो मैं भूल जाता हूँ आसमान ।

पागलपन

ओह, मेरे प्यार
अगर तुम पहुँच जाओगे
पागलपन के मेरे मुकाम तक
तो गला दोगे अपने सारे आभूषण
बेच आओगे अपने कंगन
और मेरी आँखों में
सो जाओगे
सुख की नींद ।
-------------

( निज़ार क़ब्बानी की कुछ कवितायें और परिचय यहाँ और यहाँ और यहाँ भी )

Sunday, November 15, 2009

अंतरंग संबंधों पर लेखन : अवधारणा और बाजार

आत्मकथा के आयाम में बहुत चितेरे होते हैं, जो पाठकों को आकर्षित करते हैं, किंतु उससे कहीं अधिक आकर्षित करते हैं समाज और निजी जिंदगी के प्रवाह में डूबते-उतराते रिश्ते। संबंधों की अंतरंगता हर किसी के जीवन के खास पहलू होते हैं। उन संबंधों की याद में लोग भावुक होते हैं, जिंदगी से तृष्णा व वितृष्णा होती है और फिर किसी हवा के झोंके के साथ उससे गाहे-बगाहे सामना भी करना पड़ता है।
पाश्चात्य संस्कृति में पति-पत्नी के रिश्ते की बुनियाद या हकीकत जो भी हो लेकिन भारतीय परिवेश में इसके मायने अहम हैं। साहित्य, फिल्म के अलावा राजनीति की चमचमाती जिंदगी में संबंधों की अपनी अहमियत है और अंतरंग प्रसंगों को चटखारे लेने की परंपरा भी नई नहीं है। यही कारण है कि पत्रकार नंदिता पुरी द्वारा लिखी गई किताब ‘अनलाइकली हीरो : द स्टोरी ऑफ ओमपुरी’ लोकार्पण होने के पहले ही सुर्खियां बटोर रही है और ओमपुरी के बयान के कारण विवादों की चपेट में है। किसी की जिंदगी के महत्वपूर्ण और पवित्र हिस्सों को सस्ते और चटखारे वाली गॉसिप में बदलना किसी विश्वासघात से कम नहीं है।
अब्दुल बिस्मिल्लाह, वरिष्ठ साहित्यकार : कई महिलाओं ने अंतरंग प्रसंगों पर लिखा है। चाहे अपने जीवन में आए पुरूषों से संबंधों को लेकर हो या पति को लेकर। माना जा रहा है कि यह काफी साहस का काम है, खासकर पति के क्रियाकलापों पर। अभी तक घर की महिलाएं उनके कारनामों पर टिप्पणी करने का साहस भी नहीं कर पाती थीं। भयभीत रहती थीं, लज्जा के साथ-साथ संकोच भी करती थीं। जब पढ़-लिखकर उनमें चेतना आईं तो वह बात कहने लगीं जिसे कहने में उन्हें संकोच होता था। साहस आया तो वह खुलकर कहने लगीं। वर्तमान दौर में बाजार इस कदर हावी है कि चीजों को माल बनाकर बेचना एकमात्र लक्ष्य हो गया है। इसमें मीडिया भी व्यापक तौर पर काम कर रहा है। ऐसी किताबें छपती हैं जो बाजार लुभाता है। हालांकि यह पूरी स्त्री जाति की कहानी नहीं है। स्त्रियों का एक वर्ग है जो यह काम कर रहा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि स्त्रियों पर व्यापक अत्याचार हुआ है। लेकिन ऐसे अनुभवों को शब्दों में पिरोने का काम गांव की स्त्रियां नहीं, महानगरों में रहने वाली स्त्रियां कर रही हैं। संस्कृत में ए क श्लोक है, ‘सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यमप्रियं’। हमारी संस्कृति में यह बात रही है। इसलिए किसी के बारे में कुछ बोलने या लिखने के पहले इसका ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए । इसमें संदेह नहीं कि आत्मकथा या कहानी के जरिए अपनी या अपने पति की जिंदगी के अंतरंग प्रसंगों को लिखा जाना एक साहस का काम है। इसे नकारात्मक ढंग से न लेकर सकारात्मक ढंग से लिया जाना चाहिए । ए क स्त्री ने जो झेला है, भोगा है, वह लिख रही है। लेकिन सवाल यह है कि इसका साहित्यिक स्तर क्या है। आ॓मपुरी के मामले में बाजार एक बड़ा फैक्टर है। स्त्रियों द्वारा अंतरंग प्रसंगों को लिखा जाने का मामला इतना सरल नहीं है जितना समझा जा रहा है। यह आत्मकथा है तो साहित्यिक स्तर देखा जाना चाहिए ।

पति-पत्नी या किसी स्त्री के द्वारा किसी पुरूष या अपने पति के किसी स्त्री के साथ अंतरंग संबंधों को शब्दों को पिरोकर पन्नों में समेटने के मामले में जेहन में पहला नाम कमला दास का आता है। इन्होंने अपने दौर में ‘माई स्टोरी’ लिखकर न सिर्फ अंग्रेजी में बल्कि साहित्य जगत में एक बहस की शुरूआत की थी। इसके बाद अमृता प्रीतम में ‘रसीदी टिकट’ लिखा। कालांतर में अपने संबंधों और पब्लिक स्पेस के साथ-साथ जिंदगी की राहों पर मुश्किलों से रूबरू होने की कहानी तसलीमा नसरीन ने ‘द्विखंडिता’ के जरिए पेश किया। ऐसे ही समय में मन्नू भंडारी ने ‘एक कहानी यह भी’, प्रभा खेतान ने ‘अन्या से अनन्या तक’, मैत्रेयी पुष्पा ने ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ से स्त्रीवादिता के नए आयाम को जन्म दिया।
अनामिका, कवियित्री : कुछ घाव छोटे होते हैं और जब पछुवा चलती है तो गुमचोट या
गुमजोड़ों का दर्द उभरकर सामने आ जाता है। पश्चिम का प्रभाव बुरा नहीं होता क्योंकि
गांधीजी से लेकर रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था खिड़कियां खुली रखी जानी चाहिए । इससे
प्रभावित लेखनी भी बुरी नहीं है। सामान्य तौर पर जब लड़कियां ससुराल जाती हैं तो कहा
जाता है कि दोनों घरों के सुख-दुख तुम्हें देखने हैं, मुंह सील कर रखना। पिटाई खाकर भी वह सब कुछ सहती है, खुद को भूल जाती है, कई दिक्कतों के साथ घर-गृहस्थी चलाते-चलाते वह खुद को हाशिये पर ला खड़ा करती हैं। स्त्री-पुरूष संबंधों में दो तकलीफें हैं, पहला कामना का सरप्लस मतलब यौनानुराग। हर स्त्री चाहती है कि उसका पुरूष जितेंद्रिय हो, लेकिन घर-गृहस्थी में फंसे होने के कारण स्त्री खुद पर ध्यान नहीं देती और पुरूष दूसरों के आकर्षण में रीझ जाता है। दूसरा है गुस्सा, बाहर का गुस्सा घर में उतारा जाता है। पुरूषों को बाहर में काफी कुछ झेलना होता है, इस कारण घर में स्त्री साफ्ट टारगेट बनती है। स्त्री-पुरूष की लड़ाई न तो दो वर्गों की लड़ाई है और न ही दो जातियों के बीच। यह गोरे-काले की भी लड़ाई नहीं है और न ही यहां सत्ता परिवर्तन का व्याकरण ही लागू होता है। स्त्री आंदोलन प्रतिशोध का आंदोलन नहीं है। परिवार में पीढ़ियों के बीच जेंडर का मुद्दा संवाद के जरिए सुलझाया जा सकता है। यहां भेड़-भेड़िये का रिश्ता नहीं है। तसलीमा नसरीन से लेकर मैत्रेयी पुष्पा ने वही लिखा है जो उसने पब्लिक स्फेयर में महसूस किया। जब वे किसी संपादक से मिलती है, गॉड फादर से मिलती है या किसी और से। प्रेम तो सबसे बड़ा लोकतांत्रिक स्पेयर है। यदि आप किसी स्त्री से पूछें तो वह यही कहेगी तो उसका शरीर तो ए कमात्र ढोल है जिसे वह जबर्दस्ती ढोने के लिए मजबूर हैं। यही कारण है कि पब्लिक स्पेयर में जाने से वह घबराती है कि पता नहीं क्यों होगा। जो स्त्रियां ऐसे लिख रही हैं उनका संवाद आने वाली पीढ़ियों से है, किशोरों से है, युवाओं से है। अंतरंग संबंधों को लेकर उनको शर्मिंदा करना ए क भाव होगा लेकिन इसके जरिए संदेश देने का काम कर रही हैं।
सामान्यतौर से लोग नकारात्मक उदाहरणों से सीखते हैं। यह इसलिए लिखा जा रहा है कि
आने वाली पीढ़ी अपनी मां, बहनों की तकलीफों को समझे। इसलिए संदर्भ सहित बातें रखी
जाती हैं। क्योंकि जाने-अनजाने लोग ऐसा करने से एक बार सोचें। यह लेखन आत्मनिरीक्षण का एक अवसर देता है।

क्या वास्तव में पति-पत्नी संबंध या जीवन के किसी मोड़ पर पर स्त्री या पर पुरूष से मुलाकात व संबंधों की यह विवेचना गंभीर साहित्य पर सवाल खड़ा नहीं करती? क्या समाज की नैतिकता इस कदर विलुप्त हो चुकी है कि साहित्यकारों व पत्रकारों को निजी जिंदगी के तमाम पहलुओं में बाजार दिखता है जिसे सार्वजनिक किए जाने के बाद ‘नेम’ व ‘फेम’ दोनों उनके कदम चूमती है? जो साहित्य कभी अच्छे मूल्य से समाज को रूबरू कराता था क्या उस समाज में मूल्य खत्म हो गए हैं, यह वह समाज ही नहीं है जो मूल्यों को जान सके? क्या पूंजीवाद इतना हावी हो गया है कि हर चीज बतौर माल बाजार में पेश आने लगी हैं? आरोप है कि नोबल पुरस्कार विजेता बी.एस. नायपाल ने अपनी पत्नी से जानबूझकर उनके वेश्यालयों में जाने की कहानी पाठकों के सामने लाने का काम किया था।
चाहे नेहरू-एडविना को लेकर किताब लिखे जाने का मामला हो, या बेनजीर-इमरान की जिंदगी को लेकर लिखे अंतरंग संबंध के किस्से, इनके सनसनीखेज खुलासे से चर्चा में आना लाजिमी है। चाहे प्रकाशक हो या लेखक, सालों मेहनत के बाद किताब को प्रकाशित करता है तो इस पूंजीवादी युग में वह इसका आर्थिक लाभ की चाहत भी रखता है। यही कारण है कि वर्ल्ड बुक फेयर से कुछेक समय पहले पत्रकार नंदिता पुरी ने इस किताब को पाठकों के सामने रख बाजार को देखते हुए विवाद जानबूझकर विवाद पैदा करने का काम किया है।
यही कारण है कि वर्तमान दौर में लेखन एक ऐसा व्यवसाय का रूप लेता जा रहा है जहां जीवन के मूल्य, अंतरंग संबंध गौण हो गए हैं। यही कारण है कि ‘सच का सामना’ में जिन अंतरंग संबंधों को लेकर सवाल किए जा रहे थे और जवाब देकर पैसे कमाए जा रहे थे, वहां नैतिकता, सामाजिकता और मर्यादा कोई मायने नहीं रखती थी बस मायने था तो पब्लिसिटी और पैसा। अंतरंग संबंधों का खुलासे करने के मामले में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि महानगरों में रहने वाली मुट्ठी भर स्त्रियां अपनी अभिशप्त जिंदगी को लोगों के सामने रखने का साहस कर रहीं हैं। वह भी तब जब पुरूषप्रधान समाज अपनी नंगई करने से बाज नहीं आता। पर्दे के पीछे और घर में हाड़तोड़ काम करने के बाद उसके शब्द लोगों को चटखारे लेकर पढ़ने के लिए आकर्षित करें, यह सामान्य बात नहीं है।

Saturday, November 14, 2009

ये हिमालयी कचरागाहें







अभी हाल ही में मोटर साइकिल भ्रमण करते हुए यमुनोत्री जाना हुआ था । कई अच्छे और ख़राब अनुभव रहे . अच्छे -अच्छे लिख चुका बैठ के मयखाने में और ख़राब ले के आ पसरा हूँ कबाड़ खाने में , इस उम्मीद में की कुछ सहानुभूति ही मिल-मिला जाए यार लोगों की ! फ़िर एक वरिष्ठ ब्लॉग-धर्मी भी इन दिनों बहुत कुछ लिख रहे हैं गंगा-घाट की सफाई और पिलाट्टिक के प्रबंधन के बारे में । उन्हें भी कहना चाहता हूँ के गंगा हो या जमना सब ऊपर से बहती हैं महाराज और ऊपर से ही पिलाट्टिक मय कर दी जाती हैं सो ये साफ़-सफाई अधूरी है । बहरहाल पैदल यात्रा मार्ग में प्लास्टिक के ऐसे-ऐसे कब्रगाह नज़र आए कि साँस अटकने को हो गयीं । अब पहले के मुकाबले चढाई का रास्ता पक्का ज़रूर कर दिया गया है और जगह-जगह डस्टबिन भी टांग दिए गए हैं मगर बावजूद इसके जो दिखा वो आप भी देख लें --



अगर आप धार्मिक हैं तो जान लीजिये कि शनि और यमराज की बहिन यमुना को गंदा करने का हश्र क्या होगा और अगर नास्तिक हैं तो भी आपको समझाना क्या , पर्यावरण की रक्षा का महत्व सभी के लिए है भाई और आइये मिल कर तै करें कि इस तरह नदियों को गंदा करने वालों का क्या इलाज होना चाहिए ।

Wednesday, November 11, 2009

नैनीताल फिल्म फेस्टिवल के बहाने

लंबे अरसे से सोचता था कि नैनीताल में कोई फिल्म फेस्टिवल किया जाए. दोस्तों के साथ मिलकर योजना बनाने की कोशिश भी की. लेकिन कभी कुछ तय नहीं हो पाया. इस बार पता चला कि अपने ही कुछ पुराने साथी वहां पर फिल्म फेस्टिवल की तैयारी कर रहे हैं तो मैं भी साथ में जुट गया. फेस्टिवल क़रीब आने पर दोस्तों से मिलने की ख़्वाहिश लिए मैं दिल्ली से नैनीताल के लिए निकल पड़ा. हमें उत्तराखंड संपर्क क्रांति से हल्द्वानी तक जाना था. साथ में भारत भी था. शाम चार बजे की ट्रेन थी लेकिन हम तीन बजे ही स्टेशन पहुंच गए. ऐसा बहुत कम हुआ है कि संपर्क क्रांति वक़्त पर चले. यही सोचकर पिछले महीने जब हल्द्वानी जाने के लिए स्टेशन पहुंचा तो ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़ रही थी. तबीयत कुछ ख़राब थी. ऐसे में शारीरिक थकान तो थी ही मानसिक तौर पर भी बड़ी मुश्किल हुई. उस दिन टिकट कैंसल कर दूसरे दिन ट्रेन पकड़ी थी. इस बार पहले से ही तय कर लिया था कि निर्धारित वक़्त से पहले ही प्लेटफ़ार्म पर पहुंच जाएंगे. नतीज़ा ये हुआ कि पूरे एक घंटे प्लेटफ़ार्म पर इंतज़ार करना पड़ा.
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर छह से काठगोदाम के लिए ट्रेन चली तो रिजर्व्ड डिब्बों में भी लोग ठूंस-ठूंस कर भरे हुए थे. कुछ सोते, कुछ जागते और कुछ पढ़ते रात के ग्यारह बजे हल्द्वानी पहुंचे. ट्रेन एक घंटा लेट थी. किसी रिश्तेदार के घर जाने की बजाय पुराने दोस्त और पत्रकार जहांगीर के पास जाना मुझे ज़्यादा ठीक लगा. वहां पहुंचा तो वो अतीत की बातें करता रहा. कुछ दोस्तों के फोन नंबर उसके पास थे. उनसे बात करवाता रहा. इस बीच भरी जवानी में साथ छोड़ चुके दोस्तों को भी हम याद करते रहे. कभी जो गहरे दोस्त थे और अब अजनबी बन चुके हैं ऐसे रिश्तों की बातें भी बीच में आईं. हम सोचते रहे कि छोटे से वक़्त में कितना कुछ बदल गया है.
सुबह जहांगीर अपनी गाड़ी से टैक्सी स्टैंड तक छोड़कर गया. शेयर्ड टैक्सी जैसे ही काठगोदाम से ऊपर की ओर चली अगली सीट पर बैठा मैं बाक़ी सवारियों से बेख़बर पहाड़ों को गौर से देख रहा था. हवा, पानी, पेड़, पत्थर, ज़मीन सब जाने-पहचाने लग रहे थे. मैं पुराने दिनों को पकड़ने की कोशिश कर रहा था. अचानक लगा कि दिल्ली में रहते मैं इस मिट्टी की गंध से कितना दूर हो गया हूं. नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन साह मुझ जैसे लोगों को स्वर्ग से ठुकराए हुए लोग यूं ही नहीं कहते. ख़ैर, आधे रास्ते में पता चला कि पिछली सीट में विवेक दा भी बैठे हैं. वो कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता हैं. पिछले कई सालों से दिल्ली में थे अब उत्तराखंड में पार्टी का काम देखते हैं. उन्होंने ही पहचानते हुए पीछे से मेरा नाम पुकारा. मिलकर अच्छा लगा. फिर रास्ते में वो उत्तराखंड में प्राकृतिक संसाधनों की लूट की कहानी बताते रहे. ज़ोर देते रहे कि मैं इस बारे में ज़रूर कुछ लिखूं. उन्होंने ये भी बताया कि कैसे पूरे राज्य में माओवाद का हौव्वा खड़ा कर आंदोलनकारियों पर लगाम कसी जा रही है. पिछले साल पीयूसीएल और पीयूडीआर की तरफ़ से उत्तराखंड आयी फैक्ट फाइंडिंग कमेटी में मैं भी शामिल था. इसलिए मुझे उनकी इस बात की गंभीरता पता थी. हम लोग प्रभाष जोशी की मौत और आज की बाज़ारू पत्रकारिता पर भी बात करते रहे.
नैनीताल मुझे हमेशा से लुभाता रहा है. लेकिन इस बार जब वहां पहुंचा तो लगा कि शहर का रंग उड़ा हुआ है. ये बात मैंने विवेक दा से पूछी. उन्होंने याद दिलाया कि पतझड़ का महीना है. लेकिन मैं सोचता रहा कि आसपास सदाबहार जंगल होने के बाद भी शहर में पतझड़ का इतना असर क्यों है. शायद बाहर से लाकर ज़बरदस्ती यहां लगाए गए पेड़ों की वजह से ऐसा था. पूरे माहौल में मुझे एक नकलीपन जैसा लगा. हम तल्लीताल से रिक्शे पर मल्लीताल के लिए निकले. मुझे अतीत में यहां बिताए दिन याद आते रहे. मॉल रोड से गुजरते हुए मैं हर आदमी और दृश्य को पहचानने की कोशिश कर रहा था. लेकिन सैलानी जोड़ों और दुकानों की चमक-दमक के बीच अपना जैसा कुछ भी नहीं लगा.
शैले हॉल में पहले नैनीताल फिल्म फेस्टिवल की गहमा-गहमी थी. शहर में घुसते ही जो वीराना और अजनबीपन लगा था. यहां आकर वो पूरी तरह दूर गया. एक साथ ढेर सारे जाने-पहचाने चेहरे मिले. जिनसे मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी ऐसे साथियों से मिलने का सुख बयान नहीं किया जा सकता. तब लगा नहीं कि वक़्त ने हम सबको एक-दूसरे से कितना दूर कर दिया है. स्कूली दिनों का साथी प्रकाश इतने सालों बाद अचानक मिल गया. उसने बताया कि आजकल वो कहीं एसडीएम है.
ज़िंदगी के अलग-अलग इलाक़ों से लोग यहां पहुंचे थे. कोई आंदोलनों में सक्रिय था तो कोई रंगमंच में, कोई साहित्य में तो कोई सिनेमा में. सब से कोई न कोई पुराना रिश्ता. वे पूरी आत्मीयता से अपने-अपने विषय की बात बताते रहे. आंदोलन वाले मुझसे आंदोलनकारी की तरह बोल रहे थे तो रंगमंच वाले रंगकर्मी की तरह. साहित्य वाले और सिनेमा वालों का भी यही अंदाज़ था. मुझे लगा कि हर रास्ते में चलने की कोशिश में मैं उलझकर रह गया. मुझसे अच्छे तो वो साथी है जिन्होंने गंभीरता से कोई काम किया.
वीरेनदा हमेशा की तरह हुलसकर गले मिले. तो त्रिनेत्र जोशी ने भी सदाबहार मुस्कान के साथ स्वागत किया. इलाहाबाद से प्रणय कृष्ण, कानपुर से पंकज चतुर्वेदी और दिल्ली से अजय भारद्वाज चंद्रशेखर पर बनाई फिल्म एक मिनट का मौन के साथ पहुंचे थे. ज़हूर दा में आज भी वही पुरानी सक्रियता दिख रही थी. शेखर पाठक दोनों दिन डटे रहे. उन्होंने बताया कि वो इन दिनों हिमालयी इलाक़ों में औपनिवेशिक घुसपैठ के ऐतिहासिक अध्ययन को पूरा करने में जुटे हैं. इसके लिए उन्होंने फिर से पूरे हिमालयी इलाक़ों की खाक छान मारी है. बटरोही और गिर्दा भी प्यार से मिले. राजा बहुगुणा, गिरिजा पाठक, कैलाश, केके से मिलकर भी अच्छा लगा. त्रिभुवन फर्त्याल और अनिल रजबार भी बीच-बीच में चेहरा दिखाते रहे. गिरिजा पांडे, प्रदीप पांडे और हरीश पंत भी आते-जाते रहे. गढ़वाल से आए मदन मोहन चमोली अपने फकीरी ठाठ में दिखे. और भी ढेर सारे जाने-पहचाने चेहरे मौजूद थे. पिछले अस्कोट-आराकोट अभियान के अमेरिकी साथी डेन डेंटजन और फ्रांस की पेंटर और फिल्ममेकर कैथरीन से भी मिलकर अच्छा लगा. फेस्टिवल की रीढ़ और फिल्म मेकर संजय जोशी हर वक़्त सही स्क्रीनिंग की व्यवस्था करने में जुटे नज़र आए.
दोनों दिन पूरी गहमा-गहमी रही. फेस्टिवल की ज़्यादातर फिल्में पहले से देखी हुई थीं. इसलिए मैं कभी फिल्म देखता रहा तो कभी हॉल के बाहर दोस्तों से बात करता रहा. वहां चार्ली चैप्लिन की मॉडर्न टाइम्स, वित्तोरियो दे सिका की बाइसिकल थीव्स, माजिद मजीदी की चिल्ड्रन ऑफ़ हैवन और एमएस सथ्यू की गर्म हवा जैसी फिल्में दिखाई गईं. इनके अलावा नेत्र सिंह रावत की माघ मेला और एनएस थापा की एवरेस्ट भी दिखाई गई. प्रतिरोध के सिनेमा का ये पहला फेस्टिवल भी इन्हीं को समर्पित था. इनके अलावा और भी कई डॉक्यूमेंटरीज वहां दिखाई गईं. हैरत की बात ये थी कि फेस्टिवल के दौरान वहां लगातार ख़ुफिया विभाग वाले अड्डा ज़माए रहे. पता चला कि पहले दिन दैनिक जागरण ने छापा था कि फेस्टिवल की आड़ में नैनीताल में नक्सली जुटने जा रहे हैं. इसलिए इंटैलीजेंस वालों के वीडियो कैमरों की नज़र हम पर लगातार लगी रही.
फेस्टिवल फिल्मों के अलावा भी बहुत कुछ था. वहां अवस्थी मास्साब के बनाए पोस्टरों के डॉक्यूमेंटेशन को देखना एक अद्बुत अनुभव था. मास्साब अब दुनिया में नहीं है. वो अपने हाथों से जनआंदोलनों के पक्ष में और सामाजिक विरूपताओं पर चोट करने वाले पोस्टर बनाते थे और उन्हें गले में आगे-पीछे लटका कर शहर में घूमते थे. नैनीताल के लोग इस अद्भुत व्यक्तित्व को कभी भुला नहीं पाएंगे. जब नैनीताल में था तो ज़हूर दा के इंतख़ाब में उनसे अक्सर मुलाक़ात होती थी. विनीता यशस्वी ने उनके पोस्टरों को सहेज कर बहुत बड़ा काम किया है. इस मौक़े पर बीरेन डंगवाल के कविता संग्रह स्याही ताल और दिवाकर भट्ट के संपादन में निकलने वाली पत्रिका आधारशिला के त्रिलोचन विशेषांक का भी विमोचन हुआ.
फेस्टिवल का सबसे यादगार और महत्वपूर्ण अनुभव रहा भारतीय चित्रकला पर अशोक भौमिक का प्रभावशाली व्याख्यान. सालों से सोचता रहा हूं कि जिसकी पेंटिंग्स जितनी महंगी बिकती हैं वो उतना बड़ा कलाकार कैसे मान लिया जाता है. अशोक दा की बातों में मुझे इस सवाल का जवाब मिल गया. उन्होंने रज़ा, सूजा और हुसैन के मुक़ाबले चित्त प्रसाद, जैनुअल आबीदीन और सोमनाथ होड़ की जनपक्षधर कला से रू-ब-रू कराया. थैंक्यू अशोक दा! फिल्म फेस्टिवल के दौरान ही शहर में सरकारी शरदोत्सव भी चल रहा था. वहां दिखाए जा रहे बाज़ारू कार्यक्रमों की वजह से ज़्यादातर साथी नाराज़ दिखे.
नैनीताल में शाम होते-होते पड़ने वाली हाड़ कंपा देने वाली ठंड का भी अपना ही एडवेंचर था. कुंडल ने ठंड भगाने की कुछ व्यवस्था तो की लेकिन सबकी ठंड दूर कर पाना इतना आसान नहीं था. इसलिए शायद बाहर से आए कुछ साथी निराश भी हुए. रात हमने अभिनेता इदरीश मलिक के होटल में बिताई. आजकल वो पारिवारिक वजहों से शहर में ही रहते हैं. फेस्टिवल के दौरान उनसे मुलाक़ात हो चुकी थी. हां, टीवी कलाकार हेमंत पांडे से भी मिला था. मैंने हैलो किया तो भाई की नज़र हवा में टिक गई. मैं समझ नहीं पाया कि मुझे सचमुछ नहीं पहचाना गया या बात कुछ और थी.
इतनी जल्दी शहर छोड़ने की इच्छा बिल्कुल भी नहीं थी लेकिन जल्दी लौटने की मज़बूरी थी. सुबह साढ़े पांच बजे जागकर हमने होटल छोड़ दिया. सुबह मैं और भारत वॉक करते हुए मल्लीताल से तल्लीताल पहुंचे. नैना देवी के मंदिर में घंटियां बज रही थीं, मैंने घंटियों की आवाज़ की तरफ़ ध्यान दिलाया तो उसने जोड़ा कि इससे पहले आरती और अजान भी सुनाई दे रहे थे. न जाने क्यों नास्तिक होने के बाद भी मुझे आरती और अजान में एक अद्भुत क़िस्म के संगीत का अहसास होता है. वो मेरे लिए म्यूजिक विद्आउट लिरिक जैसा कुछ है. पौ फट चुकी थी. धीरे-धीरे अंधेरा छंट रहा था. तल्लीताल कोर्ट के आसपास के भवन चांदी की तरह चमक रहे थे. ठंडी सड़क की तरफ़ अब भी अंधेरा था. झील में रोशनियों के प्रतिबिम्ब धीरे-धीरे तैरते हुए ख़त्म हो रहे थे. अंग्रेजों के बनाए गोथिक स्टाइल के आर्किटेक्चर में नैनीताल बहुत ख़ूबसूरत लग रहा था.
वो नौ नवंबर का दिन था. यानी उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस. तल्लीताल पहुंचने पर देखा कि उमा भट्ट की अगुवाई में महिला मंच की कार्यकर्ता बसों में भरकर गैरसैंण जा रही थीं. राज्य बनने के नौ साल बीत जाने के बाद भी लोग पहाड़ में राजधानी पाने के लिए लड़ रहे थे. सत्ताधारियों को जनता की ये मांग बेवकूफी लगती है. पहाड़ मुझे वहीं नज़र आया. जहां मैंने सालों पहले छोड़ा था. आंदोलन अब भी जारी हैं और प्रतिरोध की कलाएं उनके साथ खड़ी हैं. नैनीताल के लौटते वक़्त बस की अगली सीट पर बैठे मैंने देखा कि कहीं दूर नेपाल की पहाड़ियों में उग रहे लाल सूरज की किरणें यात्रियों की आंखों को चुंधिया रही थीं. हर मोड पर ये रोशनी और ज़्यादा तेज़ महसूस हो रही थी. ताज्जुब की बात ये कि मैंने आज तक पहाड़ी सफ़र में कभी इस तरह का सूरज नहीं देखा था. बस पटवाडांगर, ज्योलीकोट होते हुए आगे बढ़ रही थी. पतझड़ पीछे छूट चुका था. चारों तरफ़ हरे-भरे पेड़ थे. भावर की ढलान के बाद आगे मैदान शुरू होने थे. फिर एक दूसरे भूगोल में आना था.