Sunday, September 30, 2007

सादी यूसुफ़ की 'स्टिल लाइफ'

स्टिल लाइफ

घर के भीतर रखा पौधा
भारी हवा के कारण झुका हुआ है।
मेज़ पर ऐश ट्रे और तम्बाकू की थैली के बीच
गैस और बिजली के बिल।
एक चिड़िया चोंच मारती है गायक के सिर पर
(एक सी डी का खोल है )
मैं अपने कमरे में खलल डालता हूँ,
वह संकरा हो जाता है ।
अदृश्य हो गया है समुद्री जहाज़
कोने पर बैठी है रात
ओढे हुए गाढी हवा को।

सादी यूसुफ़ की ' एक काँप '

एक काँप

थाम लो मुझे थपकियां दो मुझे
आज की रात दर्द भर हैं सारे पत्थर
सहेज लो मुझे अपने सीने में
ताकि मैं टहल सकूं आराम से
सितारे सलेटी हैं राख की मानिंद
और उन तलक जाने वाली सड़क
रोशनी से सराबोर।

(1993)

सादी युसुफ़ की 'एक रोमन उपनिवेश'

सादी युसुफ (१९३४, बसरा -) आधुनिक ईराकी कविता के बड़े कवियों में शुमार किये जाते हैं। १९७० के दशक में सद्दाम हुसैन को सत्ता सम्हालने के बाद से कई देशों में निर्वासन काट चुकने के बाद सादी अब लन्दन में रहते हैं। कबाड़ख़ाने में आपके लिए युसुफ़ की कुछ कविताओं के अनुवाद पेश कर रहा हूं। आज उनकी कविता 'एक रोमन उपनिवेश'।




'एक रोमन उपनिवेश'


हम यूनानी थे
अरबी रेगिस्तान के छोर पर थे हमारे मकानात
लेकिन हमारे पास दो नदियां थीं और कुछ गाँव थे
और खेत जिन्हे हम नदियों के पानी से सींचा करते थे
हमारे पास कुछ कविगण थे जो छन्द रचा करते थे और स्त्रियों और फूलों की बातें किया करते थे
और किनेसरीन में हमने दर्शनशास्त्र का विश्वविद्यालय स्थापित किया
विचित्र बात यह थी कि वहां अक्सर अरस्तू के छात्र आया करते थे
वे हमें एथेंस में लिखे जा रहे नवीनतम ग्रन्थों के बारे में बताते थे
लेकिन हम यूनानी थे और किसान।
हमने कोई हथियार नहीं बनाए
न हमें अपने लड़कों को सिपाहियों में ढालना आता था
(अरस्तू के छात्रों ने हमें यह नहीं बताया की उनका अध्यापक
मकदूनियाई फिलिप के बेटे को शहर फतह करने का प्रशिक्षण दे रहा था।)
दुनिया बदलती है उन्होने कहा यहाँ तक कि सूरज भी एक दिन पश्चिम से उगेगा...
अब मैं लड़खड़ाता बोल रहा हूँ दिवास्वप्न देखता हुआ और अकेला
सिदोन में किरियाकोस को शराबखाने के भीतर।
मिट्टी का मेरा प्याला स्याह है और मेरे सारे बाल सफ़ेद।
मैं जानता हूँ पूरे एतबार के साथ मुझे कोई नहीं बता सकता
कि रोमनों ने हमारा हुक्कापानी तभी बंद कर दिया था
जब हम एक उपनिवेश बने थे।
लेकिन मुझे शक है किरियाकोस इस बात को भले से जानता है।
दुनिया बदलती है
उन्होने कहा था।

नोट्स:
१ - 'किनेसरीन' : अरब के शुरूआती खलीफाओं ने सीरिया को पांच या छः सामरिक प्रान्तों में विभाजित किया था। किनेसरीन उत्तरी सीरियाई प्रांत था .
२- 'सिदोन': लेबनान का तीसरा बड़ा नगर
३- 'किरियाकोस' : ४४८ ईस्वी में संत किरियाकोस यूनान के कोरिन्थ नगर में जन्मे थे। रोमन साम्राज्य के युग में एक शहीद का नाम भी किरियाकोस ही था।

Friday, September 28, 2007

बदरी काका ७

तो मिखाइल गोर्बाचेव के जाने के अगले दिन गोपाल करीब सात लाख रुपये लेकर बदरी काका के पास पहुंचा और सारी रकम उनके चरणों पर रख कर बोला: "मेरी नादानी माफ़ करना कका। असल में मैं तो आपके पैर के नाखून की धूल तक नहीं हुआ। शर्त के मुताबिक मैंने घर और ईजा के गहने बेच दिए हैं। आप ये पैसा रखो। मैं चला हिमालय की तरफ। चलता हूँ कका। देर हो रही है। मुन्स्यारी जाने वाली बस पकड़नी है। जिंदगानी बची तो दुबारा आप के दर्शन होंगे।"

बूढा गोपाल बहुत दयनीय लग रहा था और उसे इस हालत में देख कर बदरी काका पसीज उठे।

"गोपालौ मेरे से बड़ा जुलम हो गया यार। अब इस बुढापे में तू कहॉ जाएगा। घर हर तू बेच आया। मैंने पहले भी कहा था लेकिन तू ने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। मुझे पता हुआ कि तू मुझसे जलने वाला ठहरा। और आज से नहीं पता नही कब से जलने वाला हुआ। देख अगर लोग बाग़ मेरी गप्पें सुनते हैं तो इसलिये कि मैंने दुनिया देखी है। मेरा अब आगे का कुछ खास मालूम नहीं है। यहीं रहूँगा या कहीं और। इसलिये ये दरबार तुझी को चलाना पड़ेगा। मेरा ब्रह्मवाक्य सुन ले : गप्प मारने के लिए दुनिया घूमना बहुत ज़रूरी होता है। अब ये पैसे तू ले ही आया है तो ऐसा करते हैं इन पैसों से दुनिया देखने चलते हैं।"

आइडिया गोपाल को जम गया। जल्द ही गुरू चेला यूरोप की राह निकल पडे।

इंग्लॅण्ड, फ्रांस, जर्मनी और तमाम मुल्क घूमते हुए दोनों को कई महीने बीत गए। कहना न होगा काका को जानने वाले हर जगह थे।

गोपाल तो बस एक हारे जुआरी की तरह काका के पीछे पीछे लगा रहता था। उसे हैरत होती थी कि काका दर देश की भाषा बोल लेते थे। लेकिन उस बिचारे नश्वर मनुष्य को क्या मालूम था कि बदरी काका असल में हैं क्या।

इटली पहुँचने पर काका को ख़्याल आया कि दिसंबर का महीना चल रह था।

"यार गोपालौ यहीं आसपास मेरा एक दोस्त था कभी। चल हो के आते हैं।" यूरोप की जबर्दस्त ठंड के कारण गोपाल वैसे भी किसी किस्म का प्रतिरोध कर पाने में अक्षम था।

"ठीक है कका। कौन हुआ आपका ये वाला दोस्त?"

"अरे यार ईसाइयों के शंकराचार्जी जैसा हुआ। पोप कहते हैं उसको यहाँ वाले।"

गोपाल अब इस क़दर पिट चुका था कि काका की किसी भी बात पर कैसा भी ऐतराज़ नहीं कर पाता था।

"ठीक है कका।"

वेटिकन सिटी में जश्न का माहौल था क्योंकि २४ दिसंबर थी। क्रिसमस के पहले का दिन जब पोप महोदय अपने महल की बालकनी से बाहर खडे दसेक लाख श्रद्धालुओं को दर्शन देते थे। भीड़ के साथ बदरी काका और गोपाल भी पोप के महल की तरफ चल दिए। गोपाल ने ऎसी भीड़ कभी नहीं देखी थी। इस बार तो उसे पूरा भरोसा था कि पोप तो क्या पोप का बाप भी काका को नहीं देख पायेगा। महल की बालकनी के बाहर पोप की प्रतीक्षा करते करीब पन्द्रह लाख लोग खडे थे। नियत समय पर पोप बालकनी में आये और बदरी काका को पन्द्रह लाख लोगों के बीच उन्होने एक ही निगाह में देख लिया : "ओ बड्री ... माई अमीगो बड्री ... व्हाट आर यू डूइंग इन दैट कार्नर ... ओ माई गाड ... मेक वे प्लीज़ ... बड्री ... माइ फ्रेंड ..." इस तरह बदहवास पोप लोगों के बीच से रास्ता बनाते हुए बदरी काका को अपने साथ बालकनी तक ले गाए।

यह डोज़ गोपाल के लिए कुछ ज़्यादा ही हो गई थी। सदमे और थकान और निराशा और पराजय का मिला जुला असर रहा और वह बेहोश हो गया।

करीब आधे घंटे बाद गोपाल को होश आया। उस भीड़ में किसी को कहाँ ख़्याल था कि कौन बेहोश है कौन होश में। गोपाल खडा हुआ तो उसकी बगल में खडे एक अँगरेज़ ने उस से पूछा: "भाईसाहब वो बालकनी में एक तो बड्री खाखा खडे हैं ... वो गोल टोपी पहने बुड्ढा कौन होगा ..."

बदरी काका ६

कुछ दिनों बाद गोपाल के पास ऎसी खबर थी जिस से उसे लगा था कि वह एक बार तो बदरी काका को उन्नीस साबित कर पाएगा।

"कका इस दफा अल्मोड़ा में ऐसा आदमी आ रहा है जिस का तुम ने नाम नहीं सुना होगा।"

"हूँ ..." गहरी सांस लेकर काका बोले "यार मैं हुआ बुड्ढा आदमी। दुनिया में कितने तो लोग ठहरे। फिर भी कौन है?"

"कका एक देश है रूस। वहाँ का राजा आ रहा है। यहाँ दुनिया भर के पुलिस वाले और तम्माम सी आई डी वाले आ गए हैं अभी से। क्या नाम बता रहे थे उसका कामरेड गोबर्धन ज्यू ... कुछ माइकलगोबर होबर जैसा कह रहे थे ... अजीबी टाइप नाम होने वाले हुए ये विदेशी लोगों के। ... अगले हफ्ते आ रहा है बल। चलोगे देखने?"

"रहा तू बोकिये का बोकिया ही रे गोपालौ। अरे गोबर नहीं मिखाइल गोर्बाचेव नाम है उस का। उस के खुड़ बुबू आये ठहरे एक बार कसारदेवी। यहाँ आये तो एक नेपाली बामण की घरवाली के चक्कर में फंस गए। फिर मार नेपाल तिब्बत कहॉ कहॉ जा के उनका पोता रूस लौट सका बताते हैं। ये जो गोर्बू आ रहा है ना इस साले की खोपडी में जो लाल निशान है, उसी नेपाली औरत की निशानी हुई। शिबजी ने शाप दिया हुआ कि जा तेरे खानदान में सब की खोपडी में लाल निशान बना रहे। काठमांडू से आगे बताते हैं एक पूरा गाँव है लाल निशान वाली खोपडी वालों का। चलो गोर्बुआ के बहाने रूस के हाल चाल मिल जायेंगे।"

गोपाल को काटो तो ख़ून नहीं। उसे पक्का यकीन था की काका मिखाइल गोर्बाचेव को लेकर बंडल फेंक रहे थे। ब्रह्मास्त्र की तरह आये मिखाइल गोर्बाचेव के आगमन की घटना के इस तरह फिस्स हो जाने का ख़तरा हो जाने के कारण उसकी बुद्धि एक पल को भ्रष्ट हो गई और कोई साठेक सालों का दबा हुआ ग़ुस्सा और खीझ एक साथ बाहर आये।

"कका, आज तक तुम्हारी हर बात मानी है। लेकिन ये तो तुम बिल्कुल गप्प मार रहे हो। तुमको अल्मोड़ा से बाहर निकले मेरे देखते देखते तो साठ साल हो गए। तुम कहॉ से पहचानोगे इतनी दूर रहने वाले को। चलो कका आज तुमसे शर्त लगाता हूँ। पहचानना तो छोडो वो गोबरिया ने तुम्हारी तरफ एक बार देख भी लिया तो अपना मकान बेच बाच के सारे पैसे तुम्हारे हाथ में धर के हिमालय चल दूंगा। ... लगते हो शर्त ...? है हिम्मत? ..."

काका बहुत देर तक शांति से सुनते रहे फिर बोले "गोपालौ मुझे पता है तुझे ग़ुस्सा आ रहा है लेकिन जो तू कह रहा है उस पर दुबारा से सोच ले..."

"सोचना कुछ नहीं है कका। अब तो आर या पार ... नरसों को हो जाएगा फैसला।"

आखिरकार मिखाइल गोर्बाचेव के आने की तारीख आ ही गयी। सुरक्षा के अभूतपूर्व इंतज़ाम थे और हैलिकोप्टर से सौ गज आगे पीछे किसी को भी जाने की इजाज़त नहीं थी। मिखाइल गोर्बाचेव हैलिकोप्टर से उतरे और पचास हजार की भीड़ को चीरते हुए अपनी सिक्योरिटी को तोड़ते हुए सीधे बदरी काका के पास पहुंचे और "खाखा ... माइ डियर खाखा ..." कहते हुए उनके गले लग गए।

निराशा में सिर झुकाए गोपाल आगे का दृश्य देखने को नहीं रूक सका।

(अगली किस्त में समापन )

बदरी काका 5

नेहरू जी को अल्मोड़ा से गए करीब बीस साल बीते। इन सालों में गोपाल के सारे दांत निकाले जा चुके थे और उसे बवासीर के साथ गठिया की शिक़ायत भी हो गयी थी। बदरी काका की देह के सारे हिस्से सलामत थे और दूर से देखने पर वे गोपाल से छोटे लगते थे यह अलग बात थी कि आयु में बदरी काका गोपाल से कई कल्प बडे थे।

'अमर उजाला' सीने से लगाए गोपाल जब उस दिन रानीधारा हाजिरी लगाने पहुँचा तो काका आइने के सामने 'ना जाओ सैयाँ ' गुनगुनाते हुए बाल काढ रहे थे। गोपाल को अपने ऊपर शर्म भी आयी कि उसने पता नहीं कितने दिनों से आइना ही नही देखा था।

"आ गया गोपालौ। तू बैठ मैं दिया जला के आता हूँ।"

"ना कका। बैठने का टाइम नहीं है। मुझे थनुआ को देखने अस्पताल जाना है। लास्ट चल रह है उस का ... ऐसा बता रहे हैं डाक्टर लोग। अभी तो आपको ये अखबार दिखाने आया मैं। परसों को इन्द्रा गांधी आ रही है अल्मोड़ा। जानते हो ना भारत की प्रधानमंत्री है ..."

"अरे! इतनी बड़ी हो गयी इंदू! बताओ यार टाइम भी कितनी जल्दी बीतने वाला हुआ। अभी दिन ही कितने हुए जब उसका बाप जवाहर और में पितुआ तामलेट के वहां चांप भात खा रहे थे..."

"कका बीस साल हो गए। समझ क्या रहे ! और तुम तो अल्मोड़ा से बाहर ही नही गए पचास सालों से। इन्द्रा गांधी को क्या पता तुम्हारे बारे में? ..."

गोपाल को लगा था कि इंदिरा गांधी का नाम भी काका ने नहीं सुना होगा लेकिन जिस आत्मविश्वास से वे देश की प्रधानमंत्री को इंदू कहकर संबोधित कर रहे थे, गोपाल खुद हरेक चीज़ को लेकर अनिश्चित सा हो गया। "तू जा अस्पताल को अभी। कल जा के देखते हैं कितनी बड़ी हो गयी इंदू।"

दोपहर को करीब दो बजे इंदिरा गांधी का हैलिकोप्टर जी आई सी ग्राउंड पर उतरा। करीब दस हजार लोग इकठ्ठा थे। इस बार भी सबसे पीछे खडे बदरी काका को इंदिरा गांधी ने तुरन्त पहचान लिया . वह तकरीबन रोती हुई उनकी तरफ आयीं और "जाइए हम आपसे बात नहीं करते काका" कहकर उन्होने काका के पैर छू लिए।

"आप तो बाबू के पीपल पानी में भी नहीं आये। मेरी शादी के टाइम भी आपने बहाना लगाया था। अब जल्दी दिल्ली आ जाओ काका। ख़ूब बड़ा घर है। संजू राजू भी आप से कुछ सीख जायेंगे।"

"अरे बेटा, यहाँ अल्मोड़ा में इतना काम हुआ। फुर्सत नहीं मिलती। चल घर चल। बड़ी भात बना के खिलाऊँगा तुझे। तुझे अच्छा लगने वाला हुआ।"

लेकिन इंदिरा गांधी के पास ज्यादा समय नहीं था और करीब एक घंटा बदरी काका के साथ रह कर वे किसी और जगह के लिए उड़ चलीं।

सारे अल्मोड़ा में बदरी काका के चर्चे थे। आने वाले आम चुनाव में टिकट मिलने की आस लगाए एक वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता ने तो गोपाल से यह भी पूछा कि कहीं बदरी काका चुनाव लड़ने के चक्कर में तो नहीं हैं।

करीब सात आठ साल और बीते। १९८४ में इंदिरा गांधी मारी जा चुकी थीं और उनके बडे सुपुत्र और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी अल्मोड़ा आये।

इस बार भी पिछली वाली कहानी दोहराई गयी। राजीव गांधी के रुदन के उस हृदयविदारक क्षण को अल्मोड़ा के लोग आज भी याद करते हैं जब बदरी काका के गले से लिपटे राजीव गांधी की आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी।

"ईजा को सरदारों ने मार दिया बुबू। दाज्यू पहले ही एक्सीडेंट में चला गया था..." जार जार रोते राजीव गांधी ने जब काका के पैर पकड़ कर कहा : "हमारा बड़ा बूढा अब तुम्हारे अलावा कौन है बुबू। आज तो दिल्ली चलना ही होगा तुमको ... मना मत करना बुबू ... मना मत करना ...", तो मैदान में सैकड़ों लोगों को अपने आंसू पोंछने पर मजबूर होना पड़ा।

किसी तरह काका ने राजीव गांधी को अकेले दिल्ली जाने के लिए तैयार किया। जहाज उड़ते ही गोपाल काका से बोला :"एक चक्कर लगा ही आते दिल्ली कका। इतनी तो तुम्हारी मिन्नत कर रहे ठहरे बिचारे।"

"छोड़ यार कहॉ लग रहा है तू इन नेता फेताओं को चक्कर में। अपना यहीं ठीक चल रहा है। चल शाम की सब्जी का जुगाड़ भी बनाना हुआ अभी।"

बताता चलूँ कि अपने माँ बाप के मर जाने के बाद गोपाल ने अपना पैतृक घर किराये पर उठा दिया था और इंदिरा गाँधी के अल्मोड़ा आगमन के दूसरे ही दिन से वह बदरी काका के घर में शिफ़्ट कर गया था।

उसके परम मित्र थान सिंह ने मृत्यु शैया पर उस से कहा था कि बदरी काका की टक्कर कोई नहीं ले सकता और गोपाल ने अपनी आत्मा में छिपी इस इच्छा को सदा के लिए गाड़ देना चाहिऐ कि वह कभी काका को नीचा दिखा सकेगा। "बरगद के पेड के नीचे दूसरा बरगद जो क्या उग सकने वाला हुआ रे गोपू। या तो तू किसी और जगह चला जा या ऐसे ही बदरी काका की सेवा करते हुए अपना परलोक ठीकठाक बना ले।"

गोपाल अब बहुत कृशकाय हो चुका था। काका तो भगवान् का दूसरा रुप थे। इतने सालों बाद भी उन की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। गोपाल की आंखों पर गिलास के पेंदे जितने मोटे शीशे वाली ऐनक लग गई थी। कभी कभी वह रात भर सो नहीं पाता था। रात भर उसे थान सिंह की बातें याद आती थीं। लेकिन समय बहुत बीत चुका था और एक बार बस एक बार काका से बीस साबित हो पाने की उसकी उम्मीदें डूब चुकी थीं। ऎसी जागरण वाली रात के बाद वह सुबह चाय पी के बाहर घाम में तखत लगा के लेट जाता था। उस दिन बदरी काका लेटे हुए अपने शिष्य को सारा अखबार बांच के सुनाते थे। चश्मा लगाने की ज़रूरत उन्हें अब भी नहीं होती थी.

बदरी काका ४

काका की सेवा में गोपाल का जीवन बीत रहा था और वह भीतर ही भीतर उम्मीद करता था कि काका शीघ्र ही भगवान् के प्यारे हो जायेंगे। हुआ इस का बिल्कुल उलटा। गोपाल के सारे बाल असमय सफ़ेद हो गए और चार पांच दांत निकालने पडे। ऊपर से उसे बवासीर भी हो गयी। काका का स्वास्थ्य लगातार बेहतर हो रहा था। उनकी ख़ुराक पहले से ज़्यादा हो गयी थी और कम हो रहा है कहने को उन्होने सुबह शाम वर्जिश करना शुरू कर दिया था।

सन १९६० के आसपास की बात है। गोपाल ने काका को खबर दी: "कका, नेहरू जी आ रहे हैं अल्मोड़ा! तुम चलोगे देखने?"

"कौन? अपना जवाहर? क्या कर रहा होगा आजकल यार वो? लड़का था तो होशियार।"


गोपाल को एक बार काका का मजाक बनाने की इच्छा हुई लेकिन वह रूक गया। गुरू आखिरकार गुरू होने वाला हुआ।

"कल सुबह आ रहे हैं नेहरू जी। प्रधानमंत्री हैं हमारे देश के कका ! तुम समझ क्या रहे हो!"


"अरे होने दो साले को प्रधानमंत्री फ़धानमंत्री यार। इतना सा देखा ठहरा मैंने। दोस्त हुआ मेरा। चलेंगे चलेंगे।"


अगली सुबह अल्मोड़ा जी आई सी के मैदान पर करीब ५००० लोग जमा थे। अल्मोड़ा में पहली बार हैलिकोप्टर आया था। काका और गोपाल बहुत पीछे खडे थे। नेहरू जी जैसे ही बाहर निकले उन्होने पीछे खडे काका को देखा और चिल्ला कर कहा "अबे बदरुवा ... अभी तक मरा नहीं तू ..."

उसके बाद तो सारा प्रोटोकोल एक तरफ और नेहरू-काका का प्यार एक तरफ। नेहरू के विशेष आग्रह पर पितुवा 'तामलेट' ने अपने खोखे में दोनों के लिए चांप भात पकाया। चांप बकायदे जैनोली पिलखोली से मंगाई गई। बाद के कई सालों तक ये अफवाह उड़ती रही कि थान सिंह के वहाँ से दोनों के लिए कैम्पा कोला और रम लेकर खुद गोपाल गया था। और यह भी कि दो पुराने दोस्त पता नहीं कौन सी भाषा में हुर्रफुर्र कर रहे थे। बदरी काका के बहुभाषाविद होने पर कई बुजुर्गों ने मोहर लगाई और बताया कि उनके परदादे तक तिब्बती सरकार से मिलने वाली सरकारी चिट्ठियों के जवाब बदरी काका से लिखाया करते थे.

नेहरू जी के अल्मोड़ा आगमन के बाद गोपाल के लिए बदरी काका भगवान् से भी बड़े हो गए। खुद गोपाल की साख सारे शहर में बहुत फैली। बड़े बूढ़े कभी मौज में आ कर उस से पूछते : "यार गोपुआ, पीताम्बर के हाथ की पकी चांप खा के पाद नहीं आयी तेरे नेहरूजी को। शाम को रानीधारे जाएगा तो बदरी काका को ये लिंगुडे दे आना। अच्छी लगती है उनको इसकी सब्जी । चवन्नी का दही ले जाना साथ में। सब्जी में डाल के खायेगा तो मजा आ जाएगा बुड्ढे को."

(... जारी है)

Thursday, September 27, 2007

बदरी काका 3

"अच्छा। फिर क्या हुआ?" इस बार थान सिंह ने पूछा। "अरे यार अन्दर गया तो क्या देखा एक बहोत बड़ी मशीन थी : नहीं भी होगी ये रानीधारा से पोखरखाली तक तो होगी ही। "

बदरी काका खांसे तो गोपाल बोला : "मतलब बहोत बड़ी थी। और सारे बकरों को वहां ला रहे हुए। एक दरवाजा जैसा हुआ और एक एक कर के उन को अन्दर गोठ्या रहे ठहरे। फिर कहीं पहिये हुए कहीं घिर्री कहीँ बलब झाप्झाप। एक आदमी माइक में कुछ कह भी रह हुआ बार बार जापानी में। फीर ... आग्गे जा के मशीन के लास्ट में सौ पचास आदमी बैठ के पेटी भर रहे हुए। किसी में जूते किसी में दस्ताने किसी में मीट के टीन. मैं तो ..."

इस के पहले कि गोपाल आगे कुछ जोड़ता बदरी काका बोल उठे: "यार तू उसी फैक्ट्री की बात तो नहीं कर रहा जो वहां पिक्चर हॉल के आगे वाले मोड़ पे है?"

"बिल्कुल वही कका"

"अरे यार पता नही मैं भी गया था वहां एक बार कभी।"

गोपाल सन्न रह गया। फिर अपनी शांत संयत स्वर में बदरी काका बोले:

"मुझे तो जापान के राजा ने बुलाया था। एक बार दिल्ली में वो मुझे मिल गया था तो उसने मुझे जापान बुला लिया। अब मैं वहां गया तो मार सारे मंत्री फंत्री आगे पीछे लगे हुए। रात को खाना खाते बखत राजा मुझ से बोला 'मिस्टर बदरी आप ने हमारी फैक्ट्री देखी कि नहीं?' मेरे ना कहने पर उसने पहले तो सब सालों को डांटा कि बदरी साब इतनी दूर से आये हैं और तुम ने इन को फैक्ट्री नहीं दिखाई "

अगले दिन सुबे सुबे दस पाँचेक मंत्री आके मुझे ले गए वहां। सब काँप रहे हुए कि कहीँ मैं उनकी किसी बात की शिक़ायत राजा से ना कर दूं। मैंने कहा तुम मुझे फैक्ट्री ले जा के छोड़ दो बाक़ी मैं अपने आप देख लूँगा। अब वो ठहरे राजा के नौकर और राजा मुझे अपना दोस्त मानने वाला हुआ। बोले कि सर आप आराम से देखिए हम यहीं बैठते हैं।"

काका ने एक अनुभवपूर्ण निगाह गोपाल के ऊपर डाली जो अब बिल्कुल किसी काठ मारे आदमी कि तरह बैठा था : "अब साब क्या हुआ कि उस दिन हुआ इतवार। फैक्ट्री बंद ठहरी। बस चौकीदार हुआ वहाँ। राजा का औडर हुआ। बिचारा क्या जाने क्या होने वाली हुई मशीन। दबाया उसने बटन तो एक तरफ से ... वोई तेरे देखे मीट के डिब्बे दस्ताने जूते सब एक तरफ से अन्दर जाने लग गए और दूसरी तरफ से म्यां म्यां करके जिंदे बकरे बाहर आने लग गए। अरे साहब क्या बताऊं आपको ठाकुर साब ..."

इस बार काका ने थान सिंह को संबोधित करते हुए कहा। थान सिंह थोडा शर्मा गया क्योंकि उसे ठाकुर साब तो दूर किसी ने थान सिंह कह कर भी नही पुकारा था। बचपन से ही वह 'थनुआ' नाम से बुलाए जाने का आदी था। अल्मोड़ा वापस आने के बाद कोई कोई उसके नाम में भगुआ भी जोड़ देता था खास कर के किसी ज़माने में मोहब्बत में चोट खाए अब पगला चुके वकील साहब। ये वकील साब 'आऊंगी कह रही थी, नही आयी' कहते हुए शायद एक हजार सालों से अल्मोड़ा की सड़कों पर टहल रहे थे और कभी कभार थान सिंह की दुकान पर कागज़ पेन मांगने आया करते थे (ये अलग बात है कि थान सिंह उन्हें कागज़ पेन के बदले रम और कैम्पा कोला का घातक मिक्सचर ही पिला पाता था जिसका भरपूर सेवन करने के बाद वे नजीर साहब की 'रीछ का बच्चा' को बहुत बेसुरे ढंग से गाते हुए अंततः कचहरी की किसी परित्यक्त बेंच पर किसी मरियल आवारा कुत्ते के साथ सो जाया करते थे। लेकिन बदरी काका और गोपाल का यह किस्सा हमें वकील साब और थान सिंह के बारे में विस्तार से बात करने से बार बार रोकेगा इसलिये इन महानुभावों कि कहानी फिर कभी। )

" वो तो मुझको रात में आना था ... मेरे पैर लग गए ठहरे सारे मंत्री कि राजा साब से मत कहना। ... लेकिन जो भी हुआ ठीक ही ठहरा ... चलो अपना गोपाल भी देख आया जापान। क्यों भाई गोपाल ... गलत कह रहा हूँ ठाकुर साब ?"

उस रात गोपाल को सपने में बदरी काका दिखाई दिए : महाभारत में जैसे अर्जुन को कृष्ण भगवान् दिखे थे। गोपाल अगली सुबह काका को पास गया बोला: "कका माफ़ करना मैं आपसे टक्कर लेने चला था। मुझे अपनी शरण में ले लो और अब मुझे भी अपनी विद्या सिखाओ।"

जाहिर है काका ने गोपाल को माफ कर दिया और आने वाले कई सालों तक उनके बीच गुरू शिष्य का सनातन संबंध बना रहा।

(... जारी। कल बताऊंगा कि काका और गोपाल किस तरह पोप से मुलाक़ात करने वेटिकन सिटी पहुंचे वो भी क्रिसमस के ठीक पहले। साथ में यह भी कि काका ने शादी क्यों नहीं की.)


बदरीकाका 2

गोपाल के जापान जाने या ना जाने से थान सिंह को तो बहुत फर्क नहीं पड़ा लेकिन गोपाल की जापान यात्रा के तमाम किस्सों को उसके नए चेलों ने सारे शहर को सुनाया और दम ठोक कर घोषणा की कि बदरी काका की गप्पें अब पुराने जमाने कि बातें हो चुकी हैं।

गोपाल के जापान हो आने की खबर को बदरी काका ने बहुत गम्भीरता से नहीं लिया। भीतर ही भीतर वे जानते थे कि गोपाल हद से हद हल्द्वानी काठगोदाम तक गया होगा लेकिन था तो वो उनका चेला ही।

काका ने अपने एक पहचान वाले से कहकर गोपाल तक यह संदेसा भिजवाया कि काका उस से मिलना चाहते हैं और यह भी कि वे गोपाल कि तरक्की से बहुत खुश हैं।

शाम को गोपाल, थान सिंह को साथ रानीधारा बदरी काका के डेरे पहुंचा। बदरी काका के चेहरे पर देवताओं जैसी शांति थी।

"सुना तू जापान हो आया बल रे"

"हाँ कका ऐसे ही मौका लगा एक राउंड मार आया।"

"कुछ खास देखा या ऐसे ही वापिस आ गया?"

"बाक़ी तो क्या होने वाला हुआ कका सब साले एक जैसे दिखने वाले हुए। मूंछ हूँछ किसी की ठहरी नही। बस एक फैक्ट्री देखी अजब टाईप की। मैं तो देखता ही रह गया कका। हुए साब ... हुए जापानी गजब लोग।" आखिरी वाक्य बोलते हे उसने थान सिंह की तरफ देखा। यह वाली गप्प उसने खास काका को नीचा दिखाने को बचा रखी थी।

"बता, बता। मैं तो पता नहीं कब से ये अल्मोड़ा से बाहर नही गया यार। अब तुम जान जवान लोग ही हुए बाहर जा सकने वाले।"

"मैं ऐसे ही निकल रहा था कितौले जैसे खा कर एक होटल से। मैंने होटल वाले से पूछा कि यार यहाँ खास क्या है तुम्हारे जापान में देखने लायक। तो ... वो बोला कि हमारे यहाँ एक फैक्ट्री देखने की चीज़ है। शाम को मैंने वापिस आना था सोचा देख आता हूँ साले को ।"

भरपूर आत्मविश्वास अपने चहरे पर लाकर गोपाल ने बताना शुरू किया: "फैक्ट्री को बाहर ह्ज्जारों बकरे बांधे हुए ठहरे साब । ख़ूब नहा धो के तैयार। मैंने सोचा इन साले बानरों का कोई त्यौहार जैसा हो रहा होगा। किसी गोल गंगनाथ टाईप देवता के थान में बलि होने वाली होगी। बकरे भी बिल्कुल चुप्प ठहरे जैसे स्कूल जा रहे होंगे। अब टिकट हिकट लेके मैं घुसा फैक्ट्री में।"

थान सिंह कभी अपने बचपन के सखा को देखता था कभी बिल्कुल शांति से सुन रहे बदरी काका को.


बदरी काका: भाग १

समय काल की सीमा से परे हैं बदरीकाका . कुछ लोकगाथाओं के मुताबिक काका का जन्म तब हुआ था जब पेड़ पौधे पत्थरों से बातें किया करते थे ऐसा भी माना जाता है कि उन दिनों बदरी काका का सीधा संवाद देवताओं को साथ था. कालांतर में धरती पर मानव जाति के साथ साथ भाषा के विविध रूपों का भी विकास हुआ और किसी उचित जान पड़ने वाले लग्न में काका ने कूर्माचल में स्थित अल्मोड़ा नगर के रानीधारा मोहल्ले में अपना डेरा जमाया जहाँ वे सुबह से शाम तक अपने भक्तों को गप्पें सुनाया करते थे.

बदरी काका की शोहरत सारे उत्तराखंड में फैली हुई थी और गाँव गाँव नगर नगर से लोग गप्प सुनने उनके दरबार में आया करते थे. काका के मुरीदों में गोपाल भी था जो दिन भर बीड़ी फूकने वाला एक निठल्ला बेरोजगार था. गोपाल को बचपन से ही काका की गप्प सुनने का कुटैव हो गया था और उसके अपने घरवालों ने उस से सारी उम्मीदें छोड़ दी थीं. गोपाल बदरी काका से मन ही मन डाह रखता था और किसी ऐसे मौक़े की तलाश में रहता था कि काका को नीचा दिखा सके. कुछ साल काका की संगत में रहते गोपाल को गप्पें सुनाने की थोडी प्रतिभा हासिल हो गई.

एक शाम चौघानपाटे में थान सिंह के खोखे में अपने कुछ दोस्तों के साथ चरस पीते हुए गोपाल को एक आइडिया आया. थान सिंह और गोपाल ने अपना सारा बचपन पोखरखाली में टायर चलाते या गिल्ली डंडा खेलते हुए बिताया था. दसवीं को बोर्ड का रिजल्ट आने से पहले ही दोनो घर से भाग गए थे क्योंकि दोनो को पास होने कि कतई उम्मीद नहीं थी. हल्द्वानी पहुंचकर गोपाल ने छिप कर अखबार में रिजल्ट देख लिया था. गोपाल थर्ड डिविजन पास हो गया था जबकि थान सिंह फेल हो गया था. धर्मसंकट की उस वेला में गोपाल ने थान सिंह का साथ नहीं छोड़ा था और वे पीलीभीत जाने वाली बस में सवार हो गये थे. थान सिंह को पिक्चर हाल में गेटकीपर की नौकरी मिल गई और गोपाल हफ़्ते भर बाद अल्मोड़ा लौट गया. पीलीभीत में तमाम कामधन्धों से पैसा कमाने के कुछ सालों बाद थान सिंह वापस लौट आया था और हल्द्वानी अल्मोड़ा रूट पर उसके दो ट्रक चला करते थे. टाइम पास करने के लिए उसने चाय की दुकान लगा ली थी. वह गोपाल को समझाता था कि बदरी काका की संगत छोड़ दे और समय रहते कुछ पैसा जोड़ ले. जो भी हो दसवीं के रिजल्ट के समय गोपाल की वफादारी को वह नहीं भूला था और उसने अपनी दुकान में गोपाल के लिए फोकट की चाय, बंद-मक्खन और अंडे-छोले आदि का बाका़यदा इन्तजाम कर रखा था.

खैर उस शाम चरस की तुडकी में थान सिंह ने गोपाल से कहा कि बदरी काका के यहाँ जाने के बजाय उसने अपना खु़द का अड्डा बनाना चाहिए और वहां लोगों को गप्प सुनानी चाहिए. आख़िर वह हाईस्कूल पास था जबकि बदरी काका की पढ़ाई लिखाई का कोई रिकॉर्ड किसी के पास नहीं था. इस प्रस्तावित गप्प दरबार के लिए थान सिंह ने हर रोज़ शाम को पांच बजे बाद अपनी दुकान प्रस्तुत की.

गोपाल का दरबार शुरू हो गया और मुफ़्त चाय-समोसे के लालच में नगर के युवा और प्रतिभाशाली चरसी गप्प दरबार में आने लगे. बदरी काका को गोपाल पसंद था और उसके अनुपस्थित हो जाने के बाद उन्हें गप्प सुनाने में आनंद आना कम हो गया. गोपाल भी बदरी काका से सुनी गप्पों और किस्सों के अधकचरे संस्करण सुनाते सुनाते बोर हो गया था. उसे भी बदरी काका की याद आती थी लेकिन संकोच और झूठे अभिमान के कारण वह जैसे तैसे अपने इस अधूरे जीवन को चालू रखे हुए था.

गोपाल द्वारा अपना खुद का दरबार शुरू किये जाने की खबर से बदरी काका थोडे आहत तो हुए थे लेकिन कालावधि की सीमाओं से परे रहने वाले काका को मालूम था कि एक न एक दिन गोपाल लौट आएगा. आख़िर पालक बालक जो हुआ.

कुछ महीनों बाद गोपाल अचानक किसी को कुछ भी बताये शहर से गायब हो गया. थान सिंह और बाक़ी दोस्तों को कुछ दिन उस की कमी महसूस हुई पर हफ्ते भर में जीवन सामान्य हो गया. करीब महीने भर बाद गोपाल अचानक प्रकट हुआ तो उस की चाल में अभूतपूर्व ठसक थी.

थान सिंह ने पूछा : "क्यों रे गोपुआ, कहां का चक्कर काट्याया?"

"जरा जापान तक गया था यार. ऐसे ही कुछ काम निकल गया था."

जीवन में हजारों लातें खा चुकने के बाद थान सिंह को अब किसी बात से हैरत नहीं होती थी. वह किसी की भी बात पर न तो विश्वास करता था ना अविश्वास. गोपाल उसको पसंद था क्योंकि पीलीभीत वह उसी की हिम्मत के कारण गया था. उसके ट्रक भी गोपाल कि ही देन थे. यह अलग बात थी कि बदरी काका की संगत ने गोपाल की जिन्दगी का कैम्पा कोला बना दिया था. कैम्पा कोला थान सिंह का तकिया कलाम था. पीलीभीत के पिक्चरहाल मैनेजर ने उसे कैम्पा कोला में घोल कर कच्ची दारू पीना सिखाया था. अब वह कच्ची नहीं पीता था. रानीखेत जाकर वह हर महीने कुमाऊँ रेजीमेंट में काम करने वाले अपने बहनोई और उसके दोस्तों से दस पन्द्रह रम की बोतलें ले आता था. पीता वह कैम्पा कोला डाल के ही था.

(जारी)