Friday, February 29, 2008

'जिनको मल्लाह समझते थे' के दो और शेर

पिछली पोस्ट में मैंने अपने प्यारे दोस्त और शानदार शायर नूर मोहम्मद 'नूर' का एक शेर 'कोट' किया था। चन्द दोस्तों कि फ़रमाइश पर उस ग़ज़ल के दो और शेर पेश कर रहा हूं। शायद पिछले शेर का मतलब इन दो शेरों की रोशनी में और साफ़ हो कर निखर आए।

सांप हंसते रहे बेखौ़फ़ बिलों के अन्दर
धूप में बीन बजाते जो संपेरे निकले

हमने जाना था कि पैदा कोई सूरज होगा
'नूर' हर बार अंधेरों पे अंधेरे निकले

जिनको मल्लाह समझते थे मछेरे निकले

दिलीप मंडल ने कुछ समय पहले मोहल्ले पर अपनी एक पोस्ट में इस भय को अभिव्यक्ति दी थी कि कहीं हिन्दी साहित्य वाला रोग ब्लॉग को न लग जाए। इधर उसके बाद इस ब्लॉग जगत में जो जो कुछ हुआ है वह दिलीप मंडल को महसूस हुए आसन्न भय से भी ज़्यादा डरावना है और मुझे यह स्वीकार कर लेने में बहुत शर्म महसूस हो रही है कि जिस हिन्दी साहित्य की कुकुरगत्त करने में आत्ममोह में आकंठ डूबे चुनिन्दा रचनाकार-आलोचकों की सेना को सवा शताब्दी से अधिक समय लगा था, उसकी टक्कर का महाकार्य करने में ब्लॉगवीरों की एक जमात ने कुछ महीने भर लिए। यानी रसातलयात्रा अभी और आगे तक जारी रह सकने की भरपूर गुंजाइश है।

आज
इरफ़ान, अविनाश और सुजाता और कुछ अन्य लोगों की पोस्टों में इस महाकार्य से उपजी खीझ की तार्किक और आवश्यक परिणति है। भड़ास नाम का ब्लॉग के प्रमुख मॉडरेटर जब काफ़ी शुरू में हमारे समय के सबसे सचेत कवि वीरेन डंगवाल को उदधृत कर रहे थे तो लगता था कि शायद हिन्दी पत्रकारों की किसी उतनी ही सचेत जमात आप से रू-ब-रू है। उस के बाद भाषा की दुर्गति करने का जो कार्य लगातार इस ओपन स्पेस में किया गया, वह गलीज और तीव्र पतनगामी होता चला गया और उस के बाद स्त्रियों को लेकर जिस तरह की अश्लील ज़बान में तंज़ कसे गए, वह मेरे हल्द्वानी शहर के सबसे हलकट और कमीन गुण्डों को शर्मसार करने को पर्याप्त थे।

फिर चोखेरबाली और अन्ततः मनीषा पाण्डेय इस दिशाहीन, चरित्रहीन 'मुहिम' के निशाने पर आते हैं। अब यह 'मुहिम' (इसे 'डिफ़ेन्ड' तक करने को यहां तर्क-कुतर्क पेश किए जा रहे हैं) पिछले कुछ दिनों से सिर्फ़ मनीषा पाण्डेय को लेकर केद्रित हो गई है। भड़ास नाम के ब्लॉग के प्रमुख मॉडरेटर ने यदि वीरेन डंगवाल (जो हमारे कबाड़ख़ाने के श्रेष्ठ कबाड़ियों से सरगना भी हैं) को पढ़ा है ('गुना है' पढ़ा जाए) तो वे वीरेन दा की "रक्त से भरा तसला हैं हम औरतें" वाक्य से शुरू होने वाली कविता की आखिरी पंक्ति से ज़रूर परिचित होंगे: " वंचित स्वप्नों की चरागाहों में हमें चौकड़ियां तो भर लेने दो, कमबख़्तो!"

अपनी भाषा और अपनी औरतों के साथ जाने-अनजाने बुरा व्यवहार करने वाली क़ौमें उजड़ जाने के लिए अभिशप्त होती हैं।

कविता-स्त्री विमर्श-समाज-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता-सरोकार वगैरह शब्द सुनने-बोलने में बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन इन विषयों में डील करते हुए जिस मर्यादा और भाषाई संयम की दरकार होती है, उस लिहाज़ से भड़ास का एकमात्र एजेन्डा यह लगने लगा है कि किसी भी तरह यहां ब्लॉग के संसार में भी आत्ममोह में लिथड़ी लिजलिज पैदा की जाए ताकि इस नवीन और अतिप्रभावी माध्यम में आने वाली पीढ़ियां हमारी पीढ़ी को लगातार गालियां देती जाए। यह तय है अभी और भी विवेकवान और ऊर्जावान युवतर पीढ़ियां आने वाले सालों में अपने लिए और बाकी लोगों के लिए इस ओपन स्पेस को कई गुना अर्थपूर्ण बनाएंगी। रहा सवाल भड़ास से पैदा हुई मेरी व्यक्तिगत निराशा और वितृष्णा का, तो अपने अज़ीज़ दोस्त नूर मोहम्मद 'नूर' का एक शेर पेश करते हुए मैं इरफ़ान की हर बात का अनुमोदन कर रहा हूं:

बेमुरव्वत सभी बेदर्द लुटेरे निकले
जिनको मल्लाह समझते थे लुटेरे निकले

(ताज़ा समाचार यह है कि भड़ास पर मनीषा पाण्डेय का मोबाइल नम्बर तक सार्वजनिक कर दिया गया है। इस कृत्य की सराहना तो क़तई नहीं की जा सकती। बस साहब लोगों से इस नम्बर को तुरन्त हटाने का अनुरोध ही किया जा सकता है।)

Thursday, February 28, 2008

अगर मरूं कभी तो वहीं जहां जिया गुमनाम लाश की तरह

दिल्ली और अन्य महानगरों के क्षुद्र जीवन पर कमेन्ट करतीं इब्बार रब्बी की दो कविताएं पढ़िए: 'सड़क पार करने वालों का गीत' और 'इच्छा'। बतौर व्यक्ति और बतौर कवि रब्बी जी बेहद सादा और संवेदनशील हैं। उनसे मिलना एक पूरे इन्सान से मिलना होता है। कबाड़ख़ाना के पाठक उनकी आवाज़ में एक कविता 'पड़ताल' पहले सुन चुके हैं। गौरतलब है कि उक्त पोस्ट में इरफ़ान ने उन्हें कबाड़ी महासंघ का आजीवन महासचिव भी नियुक्त कर दिया था।

इच्छा

मैं मरूं दिल्ली की चलती हुई बस में
पायदान पर लटक कर नहीं
पहिये से कुचल कर नहीं
पीछे घिसटता हुआ नहीं
दुर्घटना में नहीं
मैं मरूं बस में खड़ा खड़ा
भीड़ में पिचक कर
चार पांव ऊपर हों
दस हाथ नीचे
दिल्ली की चलती हुई बस में मरूं मैं

अगर कभी मरूं तो
बस के बहुवचन के बीच
बस के यौवन और सौन्दर्य के बीच
कुचलक्र मरूं मैं
अगर मरूं कभी तो वहीं
जहां जिया गुमनाम लाश की तरह
गिरूं मैं भीड़ में
साधारण कर देना मुझे हे जीवन!

सड़क पार करने वालों का गीत

महामान्य महाराजाधिराजाओं के
निकल जाएं वाहन
आयातित राजहंस
कैडलक, शाफ़र, टोयोटा
बसें और बसें
टैक्सियां और स्कूटर
महकते दुपट्टे
टाइयां और सूट

निकल जाएं ये प्रतियोगी
तब हम पार करें सड़क

मन्त्रियों, तस्करों
डाकुओं और अफ़सरों
की निकल जाएं सवारियां
इनके गरुड़
इनके नन्दी
इनके मयूर
इनके सिंह
गुज़र जाएं तो सड़क पार करें

यह महानगर है विकास का
झकाझक नर्क
यह पूरा हो जाए तो हम
सड़क पार करें
ये बढ़ लें तो हम बढ़ें

ये रेला आदिम प्रवाह
ये दौड़ते शिकारी थमें
तो हम गुज़रें।


(इब्बार रब्बी जी ने भी सारे ब्लॉगरों को अपनी सारी रचनाएं किसी भी रूप में इस्तेमाल कर लेने की छूट दी है। इस्तेमाल करने पर यदि सन्दर्भ का ज़िक्र कर दिया जाए तो और भी अच्छा।)

Wednesday, February 27, 2008

एक पिता की भडास उर्फ़ भडासी गाना

आजकल परीक्षाओं का दौर है और हर परीक्षा में फ़ेल होनेवाला पिता अपने मन की भडास निकालने का गाना गा रहा है. आपभी सुनिये. भडास का बाज़ार इतना खुला और भदेस है कि इस गीत में रसदाई है.

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एचएमवी रिकॉर्ड नम्बर- ईपी 7243-5

'माउन्ट एनालॉग' यानी जब आप कुछ बनने की कोशिश करते हैं, आप जीना शुरू कर देते हैं

रेने दॉमाल (१९०८-१९४४) की किताब 'माउन्ट एनालॉग' का उपशीर्षक बेहद दिलचस्प लगा था: 'अ नॉवेल ऑफ़ सिम्बॉलिकली ऑथेन्टिक नॉन-यूक्लीडियन एडवेन्चर्स इन माउन्टेन क्लाइम्बिंग'। पर्वतारोहण में स्वयं मेरी काफ़ी दिलचस्पी रही है और शुक्र है उम्र के बीतते जाने के बावजूद बची हुई है। मेरे मित्र थे श्री दुर्गा चरण काला। मित्र क्या थे, गुरु थे। जीवन का लम्बा समय पत्रकारिता में गुज़ारने के बाद उन्होंने अपना आखि़री समय रानीखेत में गुज़ारा। 'जिम कॉर्बेट ऑफ़ कुमाऊं' और 'हुल्सन साहिब' (हरसिल एस्टेट के विख्यात फ़्रैडरिक विल्सन की पहली आधिकारिक जीवनी) जैसी ऐतिहासिक महत्व की किताबें लिख चुके काला जी (जिन्हें हम लोग काला मामू कहा करते थे) पिछले साल नहीं रहे। ख़ैर। सड़्सठ साल की आयु में रूपकुंड जैसा भीषण मुश्किल ट्रैक कर चुकने वाले काला मामू की लाइब्रेरी में रखी 'माउन्ट एनालॉग' उनकी सबसे प्रिय किताबों में थी। वहीं से मैं इस किताब की फ़ोटोकॉपी करा के लाया था। सो किताब का हर पन्ना पढ़ते हुए उनकी और उनके साथ बिताए समय की याद आना लाज़िमी था। काला मामू पर विस्तार से कभी लिखूंगा।

फ़्रांसीसी मूल के कवि, लेखक और चिंतक रेने दॉमाल की शुरुआती कविताओं को आन्द्रे ब्रेतों और दादा ने प्रकाशित किया। गुर्जेफ़ जैसे महान दार्शनिक के अनुयायी रेने दॉमाल ने स्वयं संस्कृत सीखी और कुछेक किताबों का संस्कृत से फ़्रैंच में तर्ज़ुमा भी किया। कुल ३६ साल की उम्र में चल बसे दॉमाल को बीसवीं सदी के सबसे प्रतिभाशाली लेखकों में गिना जाता था।

'माउन्ट एनालॉग' एक काल्पनिक पर्वत के आरोहण का वर्णन है। यह एक ऐसा पहाड़ है जिसे देखा नहीं बल्कि समझा जाना होता है। उसे एक विशेष स्थान से ही देखा/समझा जा सकता है जहां सूर्य की किरणें धरती पर एक ख़ास कोण पर पड़ती हैं। 'माउन्ट एनालॉग' एक अधूरी रचना है और अपने मरने के दिन तक दॉमाल इस पर काम कर रहे थे।

इस छोटी सी किताब ने मुझे कई बार उद्वेलित किया है। कल रात मैंने इसे संभवत: पांचवीं बार ख़त्म किया तो सोचा इस का ज़िक्र ज़रूर किया जाना चाहिए। किताब में उदधृत दॉमाल की एक कविता का अनुवाद ख़ासतौर पर कबाड़ख़ाने के पाठकों के लिए:

"मैं मृत हूं क्योंकि मेरी कोई इच्छा नहीं है
मेरी कोई इच्छा नहीं है क्योंकि मुझे लगता है कि मेरे पास सब कुछ है
मैं समझता हूं कि मेरे पास सब कुछ है क्योंकि मैं देने की कोशिश नहीं करता।

जब आप देने की कोशिश करते हैं तो आप को पता चलता है
कि आप के पास कुछ भी नहीं हैं;

जब आप को पता चलता है कि आप के पास कुछ भी नहीं है
तो आप ख़ुद को दे देने की कोशिश करते हैं;

जब आप ख़ुद को दे देने की कोशिश करते हैं
तो आप देखते हैं कि आप कुछ नहीं हैं;

जब आप देखते हैं कि आप कुछ नहीं हैं
तो आप कुछ बनने की कोशिश करते हैं;

जब आप कुछ बनने की कोशिश करते हैं
आप जीना शुरू कर देते हैं। "

('माउन्ट एनालॉग' को पैंग्विन प्रकाशन ने छापा है)

Tuesday, February 26, 2008

तुम अपने बाहर को अन्दर जानकर अपने अन्दर से बाहर आ जाओ

लीजिए प्रस्तुत है लीलाधर जगूड़ी जी की दूसरी कविता भी। शब्दों के साथ सतत खेलते जाना और नित उनके वास्ते नवीनतर प्रतिमान गढ़ना उनके काव्यकर्म का अभिन्न हिस्सा है। उनकी ये दो सर्वथा अप्रकाशित और ताज़ातरीन कविताएं यहां कबाड़खा़ने पर पेश करते हुए हम सब कबाड़ी गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।
अपने अन्दर से बाहर आ जाओ

हर चीज़ यहां किसी न किसी के अन्दर है
हर भीतर जैसे बाहर के अन्दर है
फैल कर भी सारा का सारा बाहर
ब्रह्मांड के अन्दर है
बाहर सुन्दर है क्योंकि वह किसी के अन्दर है

मैं सारे अन्दर - बाहर का एक छोटा सा मॉडल हूं
दिखते - अदिखते प्रतिबिम्बों से बना
अबिम्बित जिस में
किसी नए बिम्ब की संभावना सा ज़्यादा सुन्दर है
भीतर से ज़्यादा बाहर सुन्दर है
क्योंकि वह ब्रह्मांड के अन्दर है

भविष्य के भीतर हूं मैं जिसका प्रसार बाहर है
बाहर देखने की मेरी इच्छा की यह बड़ी इच्छा है
कि जो भी बाहर है वह किसी के अन्दर है
तभी वह संभला हुआ तभी वह सुन्दर है

तुम अपने बाहर को अन्दर जानकर
अपने अन्दर से बाहर आ जाओ


पिछली कविता की प्रतिक्रिया में श्री मनीष जोशी ने लिखा था: "कमाल का दस्तावेज है - कमबख्त महत्वाकांक्षा [ लेकिन पानी बहकर नीचे ही आयेगा - अंततः / शिखर का गदराया पेड़ भी ठूंठ में बदल ही जाएगा ] - अच्छी सुबह की शुरुआत" । इस प्रतिक्रिया से मुझे जगूड़ी जी ही की एक और ताज़ा कविता का भान हो आया। 'अध:पतन' शीर्षक यह कविता 'कथाक्रम' पत्रिका के जनवरी-मार्च २००८ के अंक में छ्पी थी। श्री नरेश सक्सेना (नरेश जी की कुछ कविताएं आप कबाड़ख़ाने में देख चुके हैं) ने इस कविता पर अपने संपादकीय नोट में लिखा था: "जगूड़ी की कविता पढ़कर मुझे लगा कि इस कविता के कुछ अंश मेरी कविता में होने चाहिए थे"। आमतौर पर लम्बी कविताएं लिखने वाले श्री लीलाधर जगूड़ी की यह छोटी सी कविता बहुत शानदार है और यहां मैं इसे प्रिय श्री मनीष जोशी के लिए, जिनकी मैं बहुत इज़्ज़त करता हूं, ख़ासतौर पर लगा रहा हूं। इसके अलावा इन दिनों ब्लॉगजगत पर चल रही एक बहस की दृष्टि से यह कविता बहुत प्रासंगिक भी है।


अध:पतन

इतने बड़े अध:पतन की ख़ुशी
उन आंखों में देखी जा सकती है
जो टंगी हुई हैं झरने पर
ऊंचाई हासिल करके झरने की तरह गिरना हो सके तो हो जाए
गिरना और मरना भी नदी हो जाए
जीवन फिर चल पड़े
मज़ा आ जाए

जितना मैं निम्नगा* होऊंगा
और और नीचे वालों की ओर चलता चला जाऊंगा
उतना मैं अन्त में समुद्र के पास होऊंगा
जनसमुद्र के पास

एक दिन मैं अपार समुद्र से उठता बादल होऊंगा
बरसता पहाड़ों पर, मैदानों में
तब मैं अपनी कोई ऊंचाई पा सकूंगा
उजली गिरावट वाली दुर्लभ ऊंचाई

कोई गिरना, गिरने को भी इतना उज्ज्वल बना दे
जैसे झरना पानी को दूधिया बना देता है.

(*निम्नगा: नदी का पर्यायवाची ** फ़ोटो: बस्तर में चित्तरकोट का प्रपात. फ़ोटूकार: डॉ सबीने लेडर)

ऊंचाई है कि हर बार बची रह जाती है छूने को






साहित्य अकादमी पुरुस्कार से सम्मानित कवि लीलाधर जगूड़ी की यह सबसे ताज़ा कविता है। यह कल ही लिखी गई है। ऐसा बेहद इत्तेफ़ाक़ से हुआ कि जब कापीराइट वाले मसले पर कल मैं पोस्ट लिखते समय उन्हें फ़ोन लगाने की ही सोच रहा था कि उन्हीं का फ़ोन आ गया। बाक़ी बातें तो बाद में हुई, पहले उन्होंने मुझे उसी समय पूरी की हुई अपनी दो कविताएं सुनाईं। फ़िलहाल इस पोस्ट में उन में से एक कविता पढ़िए। दूसरी कविता बाद में लगाऊंगा। जगूड़ी जी ने सारे हिन्दी ब्लागरों को अपनी सारी कविताएं किसी भी रूप में ब्लाग्स पर इस्तेमाल करने की छूट भी दे दी है।






ऊंचाई है कि

मैं वह ऊंचा नहीं जो मात्र ऊंचाई पर होता है
कवि हूं और पतन के अंतिम बिंदु तक पीछा करता हूं
हर ऊंचाई पर दबी दिखती है मुझे ऊंचाई की पूंछ
लगता है थोड़ी सी ऊंचाई और होनी चाहिए थी

पृथ्वी की मोटाई समुद्रतल की ऊंचाई है
लेकिन समुद्रतल से हर कोई ऊंचा होना चाहता है
पानी भी, उसकी लहर भी
यहां तक कि घास भी और किनारे पर पड़ी रेत भी
कोई जल से कोई थल से कोई निश्छल से भी ऊंचा उठना चाहता है छल से
जल बादलों तक
थल शिखरों तक
शिखर भी और ऊंचा होने के लिए
पेड़ों की ऊंचाई को अपने में शामिल कर लेता है
और बर्फ़ की ऊंचाई भी
और जहां दोनों नहीं, वहां वह घास की ऊंचाई भी
अपनी बताता है

ऊंचा तो ऊंचा सुनेगा, ऊंचा समझेगा
आंख उठाकर देखेगा भी तो सवाए या दूने को
लेकिन चौगुने सौ गुने ऊंचा हो जाने के बाद भी
ऊंचाई है कि हर बार बची रह जाती है
छूने को।


(पुनश्च: जगूड़ी जी का नया संग्रह 'ख़बर का मुंह विज्ञापन से ढंका है' वाणी प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य है।)

Monday, February 25, 2008

लगे रहो पर सावधान !

अशोक की बात से मेरी भी सहमति है। हम भले ही कबाड़ी हैं, पर कबाड़ भी छांट कर लेने की चीज़ है। मुझे नहीं लगता कि हिन्दी का कोई सम्मानित रचनाकार हमें अपनी रचना के प्रकाशन से मना करेगा। हम हिन्दी वालों की यही समस्या है - याने के अधजल गगरी वाली !

शिरीष कुमार मौर्य

तुम एक पाली-पोसी विनयी स्‍त्री, मैं नहीं


कई साल पहले इलाहाबाद से निकलने वाली किसी पत्रिका, एक महिला संगठन से जुड़ी कुछ स्त्रियां जिसे मिलकर निकाला करती थीं, में ये कविता पढ़ी थी। कवि का नाम वगैरह कुछ याद नहीं, सिर्फ कविता किसी कोने में रह गई थी। फिर कुछ समय बाद तसलीमा नसरीन की किताब 'औरत के हक मे' मैंने ये कविता दोबारा पढ़ी। जूलिया द बारजोंस की लिखी यह कविता है। उनके बारे में और ज्‍यादा कुछ पता नहीं, लेकिन अकेली ये कविता काफी है बताने के लिए वह क्‍या रही होगी। आज यह कविता :


तुम एक पाली-पोसी विनयी स्‍त्री, मैं नहीं

जूलिया द बारजोंस

जो कंठ स्‍वर मेरी कविता में
बातें करता है
वह तुम्‍हारा नहीं
मेरा कंठ स्‍वर है
तुम अगर पोशाक हो
तो मैं उसकी खुशबू
हमारे बीच फैली हुई है गहरी खाई
तुम सामाजिक झूठ के कगार पर खड़ी
एक फीकी गुडि़या हो
मैं सत्‍य
मैं वीर्यवान अग्निकन्‍या
तुम अपनी इस पृथ्‍वी की तरह स्‍वार्थी हो
मैं नहीं
मैं अपनी अस्मिता के लिए
अपना सबकुछ देकर जुए पर बैठ सकती हूं
तुम एक निपुण गृहस्‍थ लड़की हो
श्रीमती जूलिया
मैं नहीं
मैं जिंदगी हूं
मैं शक्ति हूं
मैं स्‍त्री हूं
तुम अपने पति, अपने मालिक की अधिकृत वस्‍तु हो
मैं नहीं
मैं किसी की संपत्ति नहीं
मैं सबकी हूं
मैं सबके लिए, सबको मैं हूं
खुद को मैंने
शुभ विचारों से संजोया है
तुम अपने बाल संवारा करो
चेहरे पर प्रसाधन लगाओ
मैं नहीं
मेरे बालों को हवा संवारा करती है
मेरे चेहरे को सूर्य रंगता है
तुम घर की वधू हो
एक पाली-पोसी विनयी स्‍त्री
मैं कट्टरता और कुसंस्‍कार से थकी-चुकी नहीं
मैं द्रुतगामी अश्‍व-सी पृथ्‍वी पर
ढूंढती फिर रही हूं
थोड़ी-सी समता।


(फोटो: रोहित उमराव)

इरफ़ान की चिन्ता हम सब की चिन्ता है

आज इरफ़ान ने अपने ब्लाग पर एक पोस्ट लगाई है:

पिछले कई दिनों से निजी पत्र व्यवहार में स्वप्नदर्शी यह चिंता व्यक्त कर रही हैं कि हम लोग अपने ब्लॉग्स पर जो साहित्य-संगीत आदि प्रकाशित-प्रसारित कर रहे हैं उस संदर्भ में हमने कॉपीराइट उल्लंघन के पहलुओं पर विचार किया है? आज ही दिनेशराय द्विवेदी की एक पोस्ट का हवाला देते हुए उन्होंने यह लिंक भेजा है जिसके अनुसार हम सब जो इस काम में लगे हैं उन्हें सोचना चाहिये। मैं इस दिशा में किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहा हूँ। इसलिये इस पोस्ट को एक निवेदन की तरह लिया जाय। यह निवेदन ब्लॉग और इंटरनेट महारथियों से - रवि रतलामी, श्रीश, अविनाश, देबाशीश, मैथिली, सागर नाहर और जीतू चौधरी सहित उन तमाम लोगों से है जिन्होंने हमें चोरी की राह पर ढकेला है। मैं भाई यूनुस, विमल वर्मा, पारुल, अशोक पांडे, प्रमोद सिंह और उन सभी मित्रों से आग्रह करता हूँ जो पूर्व प्रकाशित साहित्य और प्री-रेकॉर्डेड म्यूज़िक अपने ब्लॉग्स या साइट्स पर अपलोड करते हैं, वे बताएं कि क्या हम सब चोर हैं? इस दिशा में क़ानूनी नुक़्तों के मद्देनज़र आप सभी अपने ब्लॉग प्रसारण और प्रकाशन की हलचलों के पक्ष में क्या दलीलें देते हैं।जब तक इन चिंताओं पर कोई ठीक-ठाक पोज़ीशन नहीं ली जाती तब तक के लिये मैं अपने ब्लॉग पर या सामोहिक ब्लॉग्स पर अपनी ओर से ऐसी कोई भी सामग्री प्रसारित-प्रकाशित नहीं करूँगा जिसमें आइपीआर के निषेध का मसला जुडा हो.

इरफ़ान की बात से मुझे पूरा इत्तेफ़ाक़ है और मैं भी आज से कबाड़ख़ाने पर उन्हीं की राह पर चलने का फ़ैसला कर चुका हूं। मैं अपने अन्य कबाड़ी साथियों से यह निवेदन कर रहा हूं कि बिना पूर्व अनुमति प्राप्त किए कोई भी पूर्वप्रकाशित साहित्य अथवा संगीत यहां अपलोड न करें। इन्टरनैट से डाउनलोड की गई तस्वीरों के साथ भी यही बात लागू होगी। व्यक्तिगत रूप से मैं सस्ता शेर और मोहल्ला पर जो संगीत लगाता रहा हूं, उसका सिलसिला भी आज से बन्द।

मैं हिन्दी ब्लागिंग में संलग्न तमाम रचनाशील मित्रों से आग्रह करता हूं कि इस नवीन विधा को आकर्षक बनाए रखने हेतु बाकायदा एक 'पूल' का निर्माण करें जिसमें उन के खींचे हुए फ़ोटोग्राफ़, चित्र इत्यादि सभी के लिए उपलब्ध हों। इस के अलावा जिन जिन कवियों - लेखकों - चित्रकारों - रचनाकारों से व्यक्तिगत आग्रह द्वारा कापीराइट पाया जा सकता हो, उसे प्राप्त करने का जतन करें और बाकी लोगों को बताएं।

अलबत्ता मेरी समझ में अभी तक यह नहीं आया कि दुनिया भर में बिखरी अनेक साइट्स किस तरह torrents अपलोड किए हुए हैं जिनकी मदद से आप दस-दस GB तक की फ़ाइलें डाउनलोड कर सकते हैं। इस साइट्स पर साफ़ साफ़ लिखा होता है कि वे कोई गै़रकानूनी काम नहीं कर रही हैं। ख़ुद मैंने अपने और मित्रों के लिए बीसियों फ़िल्में और हज़ारों गाने इसी तरह इकठ्ठा किए हैं। लेकिन यह भी संभव ही है कि मेरा यह काम गै़रकानूनी पाया जाए।

इस बात में एक मार्के की बात भी छिपी हुई है खा़स कर के हिन्दी के दरिद्र रचनाकारों के लिए। किताबों को प्रकाशक को थमा देने में अपने काम की इति समझ लेने वाले लेखकों को अब से कापीराइट वगैरह जैसे मसाइल पर सावधान हो जाना चाहिए। इस से यह भी हो सकता है कि दशकों से मनमानी करते रहे प्रकाशकों पर नकेल तो लगेगी ही लेखक को अपने काम की कीमत भी पता चलेगी।

मैं सभी साथियों से इस विषय पर बात आगे बढ़ाने और अमूल्य सुझाव देने का अनुरोध भी करता हूं।

फ़िलहाल यह पोस्ट लिखते लिखते मैंने श्री वीरेन डंगवाल, श्री लीलाधर जगूड़ी और सुन्दर चन्द ठाकुर से उनकी सारी किताबों से सारी कविताओं को ब्लाग पर प्रयोग कर लेने की अनुमति ले ली है। यही बात मैं अपनी सारी प्रकाशित पुस्तकों के बारे में कह रहा हूं। हमारे कबाड़ी फ़ोटूकार रोहित उमराव ने भी कबाड़ख़ाने पर लगी हुई सारी तस्वीरों को इस्तेमाल करने की अनुमति भी दे दी है। आदरणीय ज्ञान रंजन जी अर्सा पहले अपनी कहानियों और लेखों के प्रयोग की अनुमति मुझे दे चुके हैं।

मेरे विचार से शुरुआत के लिए कम नहीं है यह।

संगीत पर ऐसा कोई रास्ता किसी की निगाह मैं हो तो बताने का कष्ट करें।

Sunday, February 24, 2008

मोनालिसा

मोनालिसा संभवत: दुनिया की सबसे चर्चित कलाकृति है। मोनालिसा की रहस्यमय मुस्कान को लेकर तमाम तरह के शोध किए जा चुके हैं। १९५० में जे लिविंग्स्टन और रे इवांस ने 'मोनालिसा' गीत लिखा. इसे महान गायक नैट किंग कोल ने गाया था और उस वर्ष के सबसे लोकप्रिय गानों में शुमार हुआ।

फ़िलहाल मैं यह गीत आपको सुनवा रहा हूं अपने सर्वप्रिय गायकों में से एक हूलिओ इग्लेसियास की आवाज़ में। 'उन ओम्ब्रे सोलो', 'उना पलोमा ब्लांका' और 'टु ऑल द गर्ल्स आइ हैव लव्ड बिफ़ोर' जैसे उम्दा गीत गा चुके हूलिओ इग्लेसियास के कुछेक गीतों को आप जल्द ही कबाड़ख़ाने में देखेंगे।

प्रस्तुत हैं गाने के बोल:

Mona lisa, mona lisa, men have named you
Youre so like the lady with the mystic smile
Is it only cause youre lonely they have blamed you?
For that mona lisa strangeness in your smile?

Do you smile to tempt a lover, mona lisa?
Or is this your way to hide a broken heart?
Many dreams have been brought to your doorstep
They just lie there and they die there
Are you warm, are you real, mona lisa?
Or just a cold and lonely lovely work of art?

Mona lisa, mona lisa, men have named you
Youre so like the lady with the mystic smile
Is it only cause youre lonely they have blamed you?
For that mona lisa strangeness in your smile?

Do you smile to tempt a lover, mona lisa?
Or is this your way to hide a broken heart?
Many dreams have been brought to your doorstep
They just lie there and they die there
Are you warm, are you real, mona lisa?
Or just a cold and lonely lovely work of art?

मर्लिन मनरो के लिए प्रार्थना



सुबह आपने तथाकथित सभ्‍य समाज की एक गिरी हुई स्‍त्री मर्लिन मुनरो की आवाज में चार गीत सुने और अर्नेस्‍तो कार्देनाल की कविता भी। उस कविता का हिंदी अनुवाद यहां प्रस्‍तुत कर रही हूं। मेरी भी तथाकथित सभ्‍य दुनिया ने उसकी ऐसी ही छवि मेरे दिमाग में बना रखी थी, किसी पोर्न स्‍टार जैसी। पांच साल पहले तक, जब तक मैंने मर्लिन की जीवनी नहीं पढ़ी थी। आज उस स्‍त्री ही वह छवि मेरे लिए फख्र की बात है। फिलहाल तो इस कविता के रूप में कबाड़खाने में मेरी पहली पोस्‍ट।

परमेश्‍वर
शरण में लो इस लड़की को, जो मर्लिन मनरो के नाम से
जानी जाती है दुनिया में
गो यह न था उसका नाम
(गो तुम जानते हो उसका सही नाम, नौ बरस की उमर में
बलात्‍कार का शिकार हुई अनाथ बाला का
दुकान में काम करने वाली उस लड़की का, जिसने आत्‍महत्‍या की कोशिश की
सोलहवें बरस में)
जो अब तुम्‍हारे सामने बिना मेकअप आ जाती है
प्रेस एजेंट के बिना
अने ऑटोग्राफर के बिना
बिना ऑटोग्राफ देते
वाह्य अंतरिक्ष के अधिका का सामना करते अंतरिक्ष यात्री के मानिंद

जब वह बच्‍ची थी तब सपने में देखा था उसने कि वह नंगी खड़ी है चर्च
में (टाइम्‍स के अनुसार)
साष्‍टांग दंडवत करते, धरती पर सिर टेके अरबों लोगों के सामने खड़ी
उसे चलना पड़ता था अपने पंजों पर, सिर बचाने के लिए
तुम तो बेहतर जानते हो हमारे सपनों को, मनोविज्ञानी चिकत्सिक से
चर्च, घर या गुफा बस प्रतिनिधित्‍व करते हैं गर्भ की सुरक्षा का
लेकिन उससे कुछ ज्‍यादा भी......
सिर प्रशंसक है तो यह साफ है
(वह समूह सिरों का परदे की निचली कोर के अंधेरे में)
लेकिन मंदिर 'ट्वेंटिएथ सेंन्‍चुरी फॉक्‍स' का स्‍टूडियो नहीं है
मंदिर सोने और संगेमरमर का, मंदिर है उसके तन का
जिसमें कोड़ा लिए खड़ा है मर्दानगी का सूर्य
हंकलाता 'ट्वेंटिएथ सेंन्‍चुरी फॉक्‍स' के दलालों को जिनने बना दिया तेरे
घर को अड्डा चोरों का
परमेश्‍वर,
रेडियोएक्टिविटी और पाप से दूषित इस दुनिया में
मुझे भरोसा है कि आप दुकान में काम करती लड़की को नहीं कोसेंगे
जो (किसी दूसरी ऐसी लड़की की तरह) सपना देखती थी 'स्‍टार' बनने का
उसका सपना हो गया सच (टेक्निकल सच्‍चाई)
उसने तो बस हमारी स्क्रिप्‍ट के अनुसार किया
हमारी जिंदगियों जैसा, लेकिन वो अर्थहीन था
क्षमा करो प्रभु, उसको और क्षमा करो हम सबको
हमारी इस बीसवीं सदी के लिए
और उस विराट प्रोडक्‍शन के लिए जिसके भागीदार हैं हम सब
वह भूखी थी प्‍यार की और हमने दी उसे नींद की गोलियाँ संत न हो पाने का अपना शोक मनाने के लिए उनने भेजा उसे मनोविश्‍लेषक के पास याद करो प्रभु कैमरे के प्रति उसका निरंतर बढ़ता भय और घृणा ‘मेकअप’ के प्रति (बावजूद उसकी हर सीन के लिए नया ‘मेकअप’ करने की जिद के) और कैसे बढ़ा वह आतंक
और कैसे बढ़ी उसकी आदम स्‍टूडियो में देर से आने की

किसी और मनिहारिन की तरह सपने देखती थी वह ‘तारिका’ बनने के
उसकी जिंदगी वैसे ही अयथार्थ थी जैसे कोई सपना जिसे बांचता है विश्‍लेषक और दबा देता है फाइल में
उसके प्रेम चुंबन थे मुंदी आंखों वाले
जो आंखें खुलने पर
दिखे कि खेले गए थे वे ‘स्‍पॉटलाइटों’ तले जो
बुझाई जा चुकी हैं और कमरे की दोनों दीवारें (वह एक ‘सेट’ था) हटाई जा रही हैं डायरेक्‍टर अपनी डायरी लिए जा रहा है दूर और ‘दृश्‍य’ बंद किया जा रहा है ठीक-ठाक
या जैसे किसी नौका पर भ्रमण, चुंबन सिंगापुर में, नाच रियो में विण्‍डसर के ड्यूक और डचेज की बखरी का स्‍वागत-समारोह
देखा गया किसी सस्‍ते कमरे के ऊबड़-खाबड़ उदास माहौल में
उन्‍हें मिली वह मरी, फोन हाथ में लिए जासूस पता नहीं लगा सके कभी उसका जिसे करना चाहती थी वह फोन वो कुछ ऐसा हुआ जैसे किसी ने नं. मिलाया हो अपने एकमात्र दोस्‍त का
और वहां से- टेप की हुई आवाज आई हो – ‘रांग नं.’
या जैसे गुंडों के हमले से घायल, कोई पहुंचे काट दिए गए फोन तक,
परमेश्‍वर चाहे जो कोई हो
जिससे वह करना चाहती थी बात लेकिन नहीं की (और शायद वह कोई न था या कोई ऐसा, जिसका नाम न था लॉस एंजेलस की डायरेक्‍टरी में)
परमेश्‍व, तुम उठा लो वह टेलीफोन।

-- अर्नेस्‍तो कार्देनाल
(अनुवाद : मंगलेश डबराल)

Saturday, February 23, 2008

अवधूत, गगन घटा गहरानी


मोहल्ले में मैंने आज सुबह कुमार गंधर्व जी की आवाज़ में 'हिरना समझ बूझ बन चरना' लगाया था। उसी के सिलसिले में प्रस्तुत कर रहा हूं इसी दिव्य स्वर में 'अवधूत, गगन घटा गहरानी'।



बुल्ला की जाणा मैं कौन

बुल्ला की जाणा मैं कौन

ना मैं मोमन विच्च मसीतां, ना मैं विच्च कुफर दीआं रीतां
ना मैं पाकां विच्च पलीतां, ना मैं मूसा ना फिरऔन।

ना मैं अंदर बेद किताबां, ना विच भंगां और शराबां
ना विच रिंदां मस्त खराबां, ना विच जागन ना विच सौन।

ना विच शादी ना गमनाकी, ना मैं विच्च पलीती पाकी
ना मैं आबी ना मैं खाकी, ना मैं आतिश ना मैं पौन।

ना मैं अऱबी ना लाहौरी, ना मैं हिंदी शहर नगौरी
ना हिंदू ना तुरक पशौरी, ना मैं रहिंदा विच्च नदौन।

ना मैं भेद मजहब दा पाया, ना मैं आदम हव्वा दा जाया
ना मैं अपणा नाम धराया, ना विच बैठन ना विच भौन।

अव्वल आखर आप नूं जाना, ना कोई दूजा होर पछाना
मैथों होर न कोई सिआना, बुल्ला शाह खड़ा है कौन।


(विमल भाई और यूनुस भाई की ज़बरदस्त डिमांड पर लीजिए मैं ही लगा दे रहा हूं रब्बी शेरगिल का गाया यह गीत - ख़ाकसार अशोक कबाड़ी)


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अपने आप से बोलती बतियाती लड़की की कहानियां




उसे मैं आठ-नौ बरस से तो जानता ही होऊंगा। मुलाकातें सिर्फ तीन या चार। पत्र दोनों तरफ से कई। हर बार नाराज़गी से भरे हुए कि हम एक दूसरे के खतों का जवाब समय पर और विस्तार से नहीं देते। दीवाली, होली या नये साल पर कभी कभार ग्रीटिंग कार्ड। उसकी तरफ से ज्यादा, मेरी तरफ से कम। फोन पर कई बार बातें और हमेशा शिकायत से भरी हुई कि हम लगातार एक दूसरे के सम्पर्क में नहीं रहते। अब कुछ अरसे से सारा संवाद एसएमएस के जरिये ही। फोन पर बात कम ही।
उसने 1997 में वर्तमान साहित्य में मेरी लम्बी कहानी देश, आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ और एक मामूली सी प्रेम कहानी पढ़ी थी। कहानी उसे अच्छी लगी थी और उसने मेरे ग़ज़लकार दोस्त हरजीत से इसका ज़िक्र किया था। हरजीत ने कहा था उसे कि जब कहानी अच्छी लगी है तुम्हें तो अपनी बात लेखक तक भी पहुंचाओ। तभी उसका लम्बा-सा खत आया था। ये उसका पहला खत था।
वह बेहद गोरी, सुंदर और छरहरी लड़की है। चंचलता उसकी रग-रग से टपकती है। सौम्य लेकिन हर समय मुस्कुराती। खिलखिलाती। शायद नींद में भी खिलखिलाती रहती हो। उसकी उज्ज्वल और करीने से लगी दंत-पंक्ति आप हर वक्त देख सकते हैं। हमेशा कुछ कहने को आतुर बड़ी-बड़ी आंखें, और आंखों से भी बड़ी बिंदी माथे पर। ये बिंदी उसकी नोकदार लम्बी भौंहों के ठीक बीच में विराजती है। उसके चेहरे को सम्पूर्णता इसी बिंदी से मिलती है।
उसे हल्के रंग पसंद हैं या एकदम शोख। आम तौर पर करीने से पहनी कॉटन साड़ी। उसका अच्छा, सुखी घर-परिवार है। बेहद सौम्य, अंतरंग मित्र की तरह पति और बहुत प्यारे दो बच्चे।
वह बहुत पढ़ी-लिखी है और बहुत ही सुसंस्कृत, साहित्यिक परिवार से नाता रखती है, लेकिन वह कभी इन नातों का ढिंढोरा नहीं पीटती। उसके व्यवहार में एकदम खुलापन, अपनापन और अंतरंगता आप पहली ही मुलाकात में महसूस कर सकते हैं। उसके फोन या पत्र भी अपनेपन की चाशनी से पगे होते हैं। उसे इग्नोर किया ही नहीं जा सकता। न उसे न उसके लेखन को। वह अपनी मौज़ूदगी शिद्दत से महसूस करवाना जानती है।
आप उसकी उम्र के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकते। वह अपनी उम्र बताये भी तो आपको लगेगा, अपनी उम्र बढ़ा कर बता रही है। लड़कियां भला ऐसे भी करती हैं! असम्भव!! वह इतनी उम्र की तो हो ही नहीं सकती। लगा लो शर्त।
बेशक उसकी उम्र का अंदाज़ा आप न लगा सकें लेकिन अपने लेखन की उम्र न तो वह छुपाती है और न आपसे छुपी है।
उसने 1995 के आसपास से लेखन को गंभीरता से लेना शुरू किया। पहले कविताएं फिर मुकम्मल कहानी। शायद पहली कहानी अहिल्या हंस में 1996 में छपी थी। मेरी फाइलों में अभी भी रखी है। अब तक कुल जमा बीस के करीब कहानियां, पचास के करीब कविताएं और कुछेक लेख। प्रकाशन के हिसाब से राष्ट्रीय स्तर की कोई पत्रिका नहीं छूटी। हंस, कथादेश, इंडिया टूडे, समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ, समीक्षा, बया, इरावती आदि में प्रकाशन। अभी से राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक आयोजनों के बुलावे आने लगे हैं और उसके लेखन को मान्यता मिलने लगी है।
पिछले बरस परिवेश सम्मान के घोषित होने के पद्रह दिन के भीतर एक और सम्मान। तब उसने एसएमएस भेज कर बताया कि शैलेश मटियानी स्मृति सम्मान आपकी इस मित्र को मिला है। (सरकार को चाहिये कि एसएमएस भेजने पर पूरी तरह से बैन लगा दे। जब से कम्बख्त ये सर्विस आयी है, होली, दीवाली, नये साल या जन्म दिन की मुबारक तक तो ठीक था, मित्र लोग अब इतनी खास खबरें भी एसएमएस के जरिये ही देने लगे हैं। आदमी खबर के भीतर मौजूद अपनेपन और खुशी से जुड़ ही नहीं पाता। प्रसंगवश, मेरे छोटे भाई ने जब पहली बार अपना घर खरीदा तो उसकी खबर भी उसने मुझे एमएमएस से ही दी थी।) खैर।
वह एकदम ऐसा सामान्य जीवन जीती है जो भारत की अधिकांश छोटे शहर में रहने वाली पढ़ी-लिखी लड़कियों के हिस्से में आता है। वह बड़ी लड़कियों के कॉलेज में पढ़ाती है इसलिए उसके हिस्से में भी वे सारी जद्दोजहद, तकलीफें और अनुभव आते हैं जो किसी भी कामकाजी लड़की के हिस्से में आते हैं। वह कभी अपनी स्कूटी पर जाती है नौकरी पर या बाज़ार तो कभी बस में धक्के खाते हुए पस्त हालत में पहुंचती है ज़माने भर की लानत मलामत करते हुए। आम लड़कियों की तरह उसकी भी स्कूटी ऐन ऐसे वक्त पर खराब या पंचर हो जाती है जब वह बेहद मुश्किल शारीरिक तकलीफ के दौर से गुज़र रही होती है। बस में जब वह सफर करती है तो उसके हिस्से में भी ऐसे लम्पट, कामुक और आंखों ही आंखों में कपड़े तक उतार लेने वाले सहयात्री भी आते हैं और बस में कोई सहयात्री ज्यादा ही छूट लेने लगे या घर बार का पता या आने जाने का शेड्यूल पूछने लगे तो हमारी ये भैंजी जी भरी बस में ही, बिना हाजरी रजिस्टर खोले क्लास लेने लगती हैं और उस शख्स की इतनी लानत मलामत करती हैं कि बेशक उसने चार स्टॉप आगे का टिकट ले रखा हो, अगले स्टॉप पर ही उतरने में अपनी भलाई समझता है।
उसकी निगाह में यही बोल्डनेस है। वह यह मानती है कि लड़की तंग कपड़े, हाइ हील या चुस्त जींस पहन कर या गिट पिट अंग्रेजी बोल कर बोल्ड नहीं बनती। अगर वह अपनी अस्मिता की रक्षा न कर सके, चार आदमियों के बीच अपनी सही बात ज़ोर दे कर न कह सके और ऐन वक्त पर सही गलत का फैसला न कर सके तो ऐसी जींस पहनने वाली से गांव की वह छोरी भली जो मां बहन की गाली दे कर भी गुंडों की सिट्टी पिट्टी गुम कर दे। उसकी सारी कथा नायिकाएं सचमुच बोल्ड हैं।
वह किसी की भी परवाह नहीं करती। भुनभुनाते हुए ही सही, अपनी धुन में अपनी राह चलती रहती है। वह राह जो उसने अपने लिए चुनी है और अपनी कथा नायिकाओं के लिए चुनी है। अमूमन उसकी कहानियों की नायिका उसके जैसा जीवन जी रही कोई लड़की ही होती है इसलिए उसके लिए सब कुछ जस का तस बयान कर पाना बेहद सहज और सरल होता है। कहीं भी हमें बनावटीपन नहीं लगता। हम जानते हैं कि हां, अकेली लड़की के साथ ये सब होता रहता है। हम उसकी रोज़मर्रा की तकलीफों से वाकिफ होते हैं लेकिन जो खास बात उसकी कहानियों में बारीक रेशों की तरह बुनी हुई हम पाते हैं, वही उसे अपनी समकालीन लेखिकाओं से अलग भी करती है और उनसे खास भी बनाती है, वह है औरत की भीतरी और बाहरी दुनिया के इन छोटे छोटे संकेतों के जरिये उसकी ज़िंदगी में हो रहे बड़े बड़े परिवर्तनों की तरफ इशारा। वह लगातार आपको याद दिलाती रहती है कि इन सब तकलीफों से मुक्ति संभव है और ये मुक्ति मिलेगी अपने स्व को पहचान कर, अपनी ताकत को पहचान कर और न केवल पहचान कर बल्कि उसे वक्त की धार पर और पैना करके। वह औरत की आर्थिक स्वतंत्रता की पक्षधर है और ये बात उसकी सभी कहानियों में साफ तौर पर देखी जा सकती है।
ये कहानियां बैठे ठाले का बुद्धि विलास नहीं हैं और इनके ज़रिये एक ऐसी बात लेखिका हम तक पहुंचाना चाहती है जो बेशक हमारी नज़र में तो थी, लेकिन हमने उस पर इस तरह से कभी गौर नहीं किया था कि इनमें बदलाव की प्रक्रिया के बीज भी छुपे हुए हैं और कि देखी पहचानी चीज़ों को देखने का सदियों पुराना नज़रिया बदलने की ज़रूरत है।
उसकी कहानियों में कुछ भी वर्ज्य नहीं हैं हालांकि उसके व्यक्तित्व, संस्कारों और लेखन की शानदार पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखते हुए उसके लेखन में एकाधिक बार आये रति प्रसंग या कम से कम महिला लेखन में आम तौर पर न पाये जाने वाले प्रसंग संस्कारवान पाठक को थोड़ा विचलित भी करते हैं। वह इन स्थितियों का भी पूरी सहजता से बयान करती चलती है और मन पर कोई बोझ नहीं रखती।
लेखिका को सचमुच बधाई देने को जी चाहता है कि उसकी इन गिनी चुनी कहानियों में उसकी निगाह से उस तरह के चरित्र भी चूके नहीं हैं और इसके लिए बेशक कभी कभार उस पर अश्लीलता परोसने का आरोप भी लगता रहा है।
भाषा के मामले में वह बहुत धनी है। छोटे छोटे वाक्य, अर्थ पूर्ण और सटीक। कई जगह दो दो शब्दों के वाक्य के जरिये गहरी बात कही है। उपस्थिति कहानी में वह कहती है - चीज़ों को समय समय पर रिपेयर कराने की जरूरत होती है। आदमियों को भी। इसी कहानी में वह आगे कहती है कि न दौड़ में कोई अकेला है न छूट जाने में।
वह स्‍त्री मुक्ति की सबसे बड़ी पक्षधर है। वह जानती है और चाहती भी है कि आर्थिक आज़ादी और अपने फैसले खुद ले पाने की ताकत ही उसे आत्म विश्वास और आत्म सम्मान दे सकते हैं।
उसकी ज्‍यादातर सारी कहानियां आम तौर पर औरत की ज़िंदगी के आस पास घूमती हैं। उसका घर बार, उसकी अधूरी हसरतें, अतृप्त कामनाएं, अपने आप से शिकायतें, अपनी जिंदगी से शिकायतें, कुछ कर गुजरने की तमन्नाएं, पति पत्नी के बीच बारीकी से रिसती रिश्तों की गर्माहट, टूटते संबंध और आधुनिक जीवन की रेलम पेल, छोटी मोटी बदमाशियां।
लेखिका का निगाह में आज की औरत हर वक्त है। वह उसकी तकलीफों से बावस्ता है और जल्द से जल्द कोई ऐसी राह खोजना चाहती है कि उसे ही तरह की तकलीफों से निजात दिलायी जा सके।
लेखिका के पास निश्चित ही कोई जादुई चिराग नहीं है जिसे रगड़ते ही. . . । हां, इतना भरोसा जरूर उसकी कहानियां दिलाती है कि अंधेरी सुरंग के पास रौशनी के कुछ कतरे जरूर हैं और जो वहां तक पहुंच गया, वही सिकंदर।
कुछेक बातें शिल्प को ले कर भी। जाने क्यों मुझे ऐसा क्यों लगता है कि जैसे ज्यादातर कहानियों में लेखिका खुद से ही बातें कर रही है। वह पूरी दुनिया में अकेली है। उसकी आवाज कहीं तक नहीं पहुंच रही और कोई उसके आस पास नहीं जो उसके सुख दुख उससे शेयर करे। वह हर कहानी में अपने आप से बातें करती नज़र आती है। ढेर सारी बातें जिनके सिरे कई बार एक दूसरे से मिलते भी नहीं। जैसे हम सोचते समय कहां से कहां पहुंच जाते हैं और काफी देर बार अपने ख्यालों की डोर पकड़े वापिस भी आ जाते हैं। कुछेक कहानियां तो सोच के धरातल पर ही चलती रहती है, चलती रहती हैं और पाठक को भटकाती रहती हैं। पता नहीं चलता कुछ हो भी रहा है या नहीं। या ये सब क्या हो रहा है। लेखिका को इस तरफ ध्यान देना चाहिये।
दूसरी बात विविधता की। किसी भी लेखक के लिए बहुत स्वाभाविक होता है अपनी शुरुआती कहानियों में अपने आपको नायक या नायिका बना कर प्रस्तुत करना। सबको अपने आप में कहानी की असीम संभावनाएं नज़र आती हैं और इस तरह से हर कहानी पिछली कहानी का विस्तार ही नज़र आती है।
दस पद्रह कहानियों की पूंजी के बाद इस सोच में बदलाव आना ही चाहिये और लेखक को अपने आपसे बाहर निकल कर भी कहानियों की तलाश करनी चाहिये। शीशा देखने से तो हर बार अपना ही चेहरा दिखायी देगा। धूप में निकलना बहुत जरूरी है।
अब तो उसके पहले कहानी संग्रह के तीन संस्‍करण आ गये हैं और दूसरा कहानी संग्रह छावनी में बेघर भी आ गया है। पहले कहानी संग्रह के पंजाबी और अंग्रेजी अनुवाद के प्रस्‍ताव उसके पर्स में हैं।
उसे अभी बहुत लम्बा सफर तय करना है और मुझे यकीन है, अल्पना मिश्र की मंजिल उसकी निगाह में है। बस, कदम बढ़ाने की देर है।

फेरु : बाबा त्रिलोचन की एक प्रासंगिक कविता

फेरु

फ़ेरु अमरेथू रहता है
वह कहार है

काकवर्ण है
सृष्टि वृक्ष का
एक पर्ण है

मन का मौजी
और निरंकुश
राग रंग में ही रहता है

उसकी सारी आकान्क्षाएं - अभिलाषाएं
बहिर्मुखी हैं
इसलिए तो
कुछ दिन बीते
अपनी ही ठकुराइन को ले
वह कलकत्ते चला गया था
जब से लौटा है
उदास ही अब रहता है।

ठकुराइन तो बरस बिताकर
वापस आई
कहा उन्होंने मैंने काशीवास किया है
काशी बड़ी भली नगरी है
वहां पवित्र लोग रहते हैं

फेरू भी सुनता रहता है।

('तुम्हें सौंपता हूं' से साभार)

एक व्यक्तिगत निवेदन

कबाङखाना के सभी साथियों को नमस्कार। इस बीच बहुत सारे नए कबाङियों के आने से काफी रोशन सा है माहौल। पढने-सुनने और समझने के लिए बहुत सा कबाङ जमा हो गया है। कुछ साल दिल्ली में ऑनलाइन अखबार में काम करने के बाद चार साल पहले जब में गांव में आ कर बस गई तो मुझे एक बार भी इंटरनेट की कमी नहीं खली, लेकिन तीन-चार महीने पहले कबाङखाने के बारे में पता चला तो ब्लाग पढने का ऐसा चस्का लगा कि इन दिनों अपने नए जन्में बच्चे की देखभाल की अति व्यस्तता के बीच भी ये कमी खलती है। बहरहाल, फिलहाल तो यह पोस्ट आप सभी विद्वजनों से यह निवेदन करने के लिए है कि कृपया मेरे बालक के लिए कोई नाम सुझाएं। कबाङखाने में ही शिशुजन्म की सूचना पर बहुत से साथियों की शुभकामनाएं मिली, हार्दिक आभार। दरअसल कुछ फुरसत की कमी, कुछ अच्छा नाम चुन सकने की अपनी काबिलियत पर संदेह और कुछ आप जैसे रचनात्मक लोगों से बेहतर विकल्प मिलने के लालच के तहत यह गुजारिश की जा रही है। वैसे तमाम तरह के वैचारिक और बौद्धिक चिट्ठों और बहसों के बीच यह पोस्ट अगर बेतुकी लग भी रही है तो भी झेल जाइए आखिर कबाङखाने में कुछ तो सचमुच कबाङ जैसा लगे।

Friday, February 22, 2008

एक गिरी हुई स्त्री की आवाज़ में कुछ गाने


इस स्त्री का नाम बताने की ज़रूरत तो नहीं होनी चाहिए. निकारागुआ के महान कवि अर्नेस्तो कार्देनाल, मर्लिन मुनरो की मौत से गहरे प्रभावित हुए थे और इस घटना को उन्होंने एक अद्भुत कविता में दर्ज़ भी किया था. मैं चाहता था उस कविता को यहां आप हिन्दी में पढ़ पाते (अनुवाद मंगलेश डबराल ने किया है) लेकिन बदक़िस्मती से वह अनुवाद मेरे कबाड़ में इधर उधर हो गया है. इसलिए फ़िलहाल अभी अंग्रेज़ी अनुवाद लगा रहा हूं (मूल कविता स्पानी में है).

मर्लिन तमाम स्थापित सामाजिक मानदण्डों के हिसाब से पूरी तरह गिरी हुई औरत के रूप में 'बदनाम' भी रही.

मर्लिन मुनरो (१९२६-१९६२) आज दुनिया भर में एक 'कल्ट फ़िगर' की तरह देखी जाती हैं. इस बेहतरीन अदाकारा के जीवन का दर्द सारे संसार की औरतों के दर्द जैसा ही भीषण था. बेहद गरीब घर में पैदा हुई मर्लिन अपनी संभावित आत्महत्या से पहले हालीवुड की सर्वकालीन सर्वलोकप्रिय अभिनेत्री के तौर पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी.

माफ़ करेंगे मैं यहां मर्लिन की जीवनी सुनाने नहीं आया हूं. वह सब आपको किताबों और इन्टरनेट पर आसानी से मिल ही जाएगा. पहले प्रस्तुत है कार्देनाल की कविता 'मर्लिन मुनरो के लिए प्रार्थना' और उस के बाद उस की किशोरियों जैसी अल्हड़ आवाज़ में चार छोटे-छोटे गीत. उसका गीत 'Teach me Tiger' स्कूल के समय से मेरा पसंदीदा रहा है.

Prayer for Marilyn Monroe

Lord
in this world polluted with sin and radioactivity
You won't blame it all on a shopgirl
who, like any other shopgirl, dreamed of being a star.
Her dream just became a reality (but like Technicolor's reality).
She only acted according to the script we gave her
—the story of our own lives. And it was an absurd script.
Forgive her, Lord, and forgive us
for our 20th Century
for this Colossal Super-Production on which we all have worked.
She hungered for love and we offered her tranquilizers.
For her despair, because we're not saints
Psychoanalysis was recommended to her.
Remember, Lord, her growing fear of the camera
and her hatred of makeup—insisting on fresh makeup for each scene—
and how the terror kept building up in her
and making her late to the studios.
Like any other shopgirl
she dreamed of being a star.
And her life was unreal like a dream that a psychiatrist interprets and files.

Her romances were a kiss with closed eyes
and when she opened them
she realized she had been under floodlights
as they killed the floodlights!
and they took down the two walls of the room (it was a movie set)
while the Director left with his scriptbook
because the scene had been shot.

Or like a cruise on a yacht, a kiss in Singapore, a dance in Rio
the reception at the mansion of the Duke and Duchess of Windsor

all viewed in a poor apartment's tiny living room.
The film ended without the final kiss.

She was found dead in her bed with her hand on the phone.
And the detectives never learned who she was going to call.
She was
like someone who had dialed the number of the only friendly voice
and only heard the voice of a recording that says: WRONG NUMBER.
Or like someone who had been wounded by gangsters
reaching for a disconnected phone.

Lord
whoever it might have been that she was going to call
and didn't call (and maybe it was no one
or Someone whose number isn't in the Los Angeles phonebook)

You answer that telephone!

-ERNESTO CARDENAL

मर्लिन मुनरो की आवाज़ में क्रमश: 'Teach me Tiger', 'Lazy', 'I'm through with Love' और 'Two Little Girls from Little Rock' सुनिये.















कैरेबियन चटनी में भजन.....सैम बूधराम की आवाज़...

सुदूर कैरेबियन कबाड़खाने से कुछ कबाड लेकर आया हूँ,आज आपको कैरेबियन संगीत में भजन गाते है उसे आप यहां सुनेंगे,कैरेबियन चटनी होती है झमाझम
संगीत और मधुर कंठ, आज थोड़ा भजन सुनिये,सैम बूधराम की मस्त आवाज़ का जादू,तेज़ कैरेबियन संगीत के बीच खांटी सैम की आवाज़ कम से कम मस्त तो करेगी ही... आपको अंदर से थिरकने पर मजबूर भी कर देगी, वैसे सैम ने बहुत शानदार चटनी गाई हैं...पर चटनी में भजन जैसा कुछ सुनने को मिले तो आप कैसा महसूस करेंगे, अब ज़्यादा ठेलम ठेली के चक्कर में मज़ा जाता रहेगा तो पहले एक तो मुरलिया आप सुने और दूसरा जै जै यशोदा नंदन की...सुनिये, हम तो अपने लोक गीतो को मरते हुए देख रहे है... पर सोचिये हज़ारों मील दूर, हमारे भाई बंधू अब तक उन गानों भजनों को अपने कबाड़खाने में संजो कर रखे हुए हैं, ये क्या कम बड़ी बात है।

तो दोनो रचनाएं Sam Boodram की हैं

बाजत मुरलिया जमुना के तीरे..............



जै जै यशोदा नंदन की.....

तू तो मोसे बोलत नाहीं....राग दरबारी

वाह वाह ...उस्ताद गुलाम हसन शग्गन
खयाल शैली के उस्ताद गुलाम हसन शग्गन ग्वालियर घराने की रोशन गायकी के उन महान गायकों में हैं जो आजादी के बाद पाकिस्तान जा बसे मगर उनके सुर सरहद के दोनो तरफ गूंजते रहे हैं। संगीत के शौकीन ढूंढ ढूंढ कर उनकी चीज़ें सुनते रहते हैं। उस्तादजी की पैदाइश अमृतसर में हुई। इनके पिता भाई लाल मोहम्मद से इन्होने संगीत की तालीम हासिल की जिन्हें संगीत सागर की उपाधि मिली हुई थी और वे अविभाजित पंजाब के नामवर गायकों में माने जाते थे। बहरहाल सुनिये उस्ताद और उनके बेटे क़ादिर अली की गायकी - किन बैरन कान भरे...तू तो मोसे बोलत नाहीं । बुजुर्गवार की आवाज़ में आज भी क्या पेचो-ख़म है ।

बहुत हो गई पतनशीलता, अब पॉल रॉब्सन को सुनिए

पतनशीलता की बहस सुर-ताल खो रही है। ये मेरी निजी, बिल्कुल निजी राय है और मुझे गलत राय बनाने का हक है। हर बहस सुर-ताल में हो ये जरूरी नहीं है। मनीषा पांडे जो बात कर रही हैं, वो जरूरी है। अच्छे-अच्छों को झटका देने का दम है उस कलम/की-बोर्ड पर चलती उंगलियों में। ये चर्चा आगे भी जारी रहे, लेकिन अगर मन थक गया है, किसी किस्म का अवसाद है, वसंत की तलाश है तो आइए कबाड़खाना में।

अशोक पांडे की दुकान में इन दिनों बहार आई हुई है। महान पॉल रॉब्सन आए हुए हैं। यहां आपको ओल मैन रिवर, माई कर्ली हेडेड बेबी और समटाइम आई फिल लाइक ए मदरलेस बेबी का ऑडियो मिलेगा। पिघले हुए लोहे की तरह गंभीर आवाज के साथ बहने को तैयार हो जाइए। लेकिन जो पतनशीलता की बहस में लगे रहना चाहते हैं, वो लगे रहें। पॉल रॉब्सन आपका इंतजार कर लेंगे।

Thursday, February 21, 2008

कविता

अपने शहर में

अपने पुश्तैनी शहर पिपरिया को याद करते

अपने शहर में

जब मैं कुछ बोलता था

तो उसका

जवाब आता था


अब मैं बोलता रहता हूँ

अकेला ही

किसी काम नहीं आता

मेरा बोलना

यह बताने के भी नहीं

कि मैं

अपने शहर में हूँ !

कभी आप सब को भी ऐसा महसूस होता है ?

एक बेहद उदास कर देने वाली कम्पोजीशन।

आत्मा के किसी निविड़ कोने में सतत गूंजता सहस्त्राब्दियों पुराना एक विलाप।

घर के पिछवाड़े में रात भर जली छूट गई एक बत्ती* जो दिन भर जली रहती है: शाम के किसी बीहड़ पल वही भुला दी गई बत्ती आपकी ज़िन्दगी को यादों से अटा डालती है सारी चीज़ों को तहस-नहस करती हुई।

गायक हैं एक बार फिर महान पॉल रोब्सन.
*(सन्दर्भ: येहूदा आमीखाई की कविता: 'किसी को भूलना')


Sometimes I feel like a motherless child
Sometimes I feel like a motherless child
Sometimes I feel like a motherless child

A long way from home
A long way from home
A long way from home
A long way from home

Sometimes I feel like I'm almost gone
Sometimes I feel like I'm almost gone
Sometimes I feel like I'm almost gone

A long way from home
A long way from home
A long way from home
A long way from home

एक काले मज़दूर के बच्चे के लिए लोरी

'ओल मैन रिवर' के बाद आज सुनाता हूं 'ओ माह बेबी, माह कर्ली हैडेड बेबी'। घोर नैराश्य और अन्धकार के बावज़ूद इस गीत में एक काला मज़दूर घुंघराले बालों वाले अपने नन्हे बच्चे के चांद और तारों के साथ खेलने की कल्पना कर लेता है: यह पॉल रोब्सन जैसे महागायक ही कर पाते थे। व्यक्तिगत रूप से इस गीत ने मुझे कई बार रुलाया है। और क्या कहूं।




Oh, my baby, my curly headed baby,
We'll sit below the sky and sing a song to the moo-oo-oo-oo-oo-oo-oon.
Oh, my baby, my curly headed baby,
Your daddy's in the cotton fields a-workin' late and soo-oo-oo-oo-oo-oo-oon.
So lalla lalla lalla lalla bye bye
Does you want the moon to play with
Or the stars to run away with?
They'll come if you don't cry.
So lalla lalla lalla lalla bye bye
In your mammy's arms be creepin'
And soon you'll be a-sleepin'
Lalla lalla lalla lalla lalla bye.
Oh, my baby, my curly headed baby,
I'll sing you fast asleep and love you so as I sing.
Oh, my baby, my curly headed baby,
Just tuck your head like little bird beneath its mammy's wing.
So lalla lalla lalla lalla bye bye
Does you want the moon to play with
Or the stars to run away with?
They'll come if you don't cry.
So lalla lalla lalla lalla bye bye
In your mammy's arms be creepin'
And soon you'll be a-sleepin'
Lalla lalla lalla lalla lalla bye.

Wednesday, February 20, 2008

चलो सखि सौतन के घर जइहैं


मेवाती घराने से ताल्लुक रखने वाले बड़े गायक पंडित जसराज जी की आवाज़ में सुनिये गुर्जरी तोड़ी:
चलो सखि सौतन के घर जइहैं,
मान घटे तो क्या घट जइहै,
पी के दरसन पईंहैं ...


संतवाणी

मस्जिद सों कछु घिन नहीं, मंदिर सों नहिं प्यार
दोउ महं अल्लह राम नहिं, कह रैदास चमार।

Tuesday, February 19, 2008

आ जाओ प्यारेः नए कबाड़ी तरुण का स्वागत और पुराने कबाड़ी सुंदर का 'गृहविज्ञान'

अब साहब परम्परा है तो है।नए कबाड़ी के स्वागत की परपरा क्यों तोड़ी जाए।

कबाड़खाने में नए कबाड़ी तरुण का स्वागत है.वह अपनी हाजिरी पहले ही लगा चुके हैं और बहुत उम्दा माल भी गेर चुके हैं.यह तो अपने कबाड़खाने के नए मेंबर की विनम्रता है कि वह खुद को 'प्रशिक्षार्थी कबाड़ी'कह रिया है नहीं तो यह जग जहिर है अपना भाई ब्लागिस्तान का पुराना माहिर है.

सात समंदर पर रहने वाले तरुण 'कबाड़खाना' समेत नौ ब्लागों से जुड़े है।सिनेमा, संगीत,फोटोग्राफी,घुमक्कड़ी और लिखत-पढत उनके शौक हैं. इसलिए पूरी उम्मीद है उनके अनुभव और आस्वाद का भरपूर लाभ 'कबाड़खाना' को मिलेगा और कोई नया गुल खिलेगा.

भाई तरुण पहले से ठिया जमाए सारे कबाड़ियों की ओर से आपका स्वागत! आपके ही उम्दा कबाड़ से एक पंक्ति आपके लिए-'तरूण' प्‍यार के गीत सुनाओ, सभी हमारे मीत।

सुंदर चंद ठाकुर की कविता 'गृहविज्ञान'

वे कौन सी तब्दीलियां थीं परंपराओं में
कैसी थीं वे जरूरतें
सभ्यता के पास कोई पुख्ता जवाब नहीं

गृहविज्ञान आखिर पाठ्यक्रम में क्यों शामिल हुआ।

ऐसा कौन सा था घर का विज्ञान
जिसे घर से बाहर सीखना था लड़कियों को
उन्हें अपनी मांओं के पीछे-पीछे ही जाना था
अपने पिताओं या उन जैसों की सेवा करनी थी
आंगन में तुलसी का फिर वही पुराना पौधा उगाना था
उन्हीं मंगल बृहस्पतिशुक्र और शनिवारों के व्रत रखने थे
उसी तरह उन्हें पालने थे बच्चे
और बुढापा भी उनका लगभग वैसा ही गुजरना था।


सत्रह -अठारह साल की चंचल लड़कियां
गृहविज्ञान की कक्षाओं में व्यंजन पकाती हैं
बुनाई-कढ़ाई के नए-नए डिजाइन सीखती हैं
जैसे उन्हें यकीन हो
उनके जीवन में वक्त की एक नीली नदी उतरेगी
उनका सीखा सबकुछ कभी काम आएगा बाद में.
वे तितलियों के रंग के बनायेंगी फ्रॉक
तितलियं वे फ्रॉक पहन उड़ जायेंगी
वे अपने रणबांकुरों के लिए बुनेंगी स्वेटर दस्ताने
रणबांकुरे अनजाने शहरों में घोंसले जमायेंगे
वे गंध और स्वाद से महकेंगी
आग और धुआं उनका रंग सोख लेंगे
कहीं होंगे शयगद उनकी रुचि के बैठकखाने
रंगीन परदों और दिजाइनदार मेजपोशों से सजे हुए
कितनी थका टूटन और उदासी होगी वहां।


सराहनाओं के निर्जन टापू पर
वे निर्वासित कर दी जायेंगी
यथार्थ के दलदल में डूब जाएगा उनका गृहविज्ञान।


(हमारे समय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवियों में से एक सुंदर चंद ठाकुर की यह कविता 'पहल'के अंक ६३ से साभार!साथ में बेहद प्यार से यह उलाहना भी कि 'अबोला' तोड़ो और कबाड़खाने में कुछ नया जोड़ो सुंदर बाबू!)

Monday, February 18, 2008

हमारी भी रद्दी ले लो

इस बार कबाड़खाने में एक प्रशिक्षार्थी कबाड़ी आया है, जी हाँ वो कोई और नही हम ही हैं। सोचा क्यों ना खुद ही अपने आने की सूचना भी दे दें और हाजिरी भी लगा लें। अभी तो कबाड़ यानि रद्दी लेना देना सीखना है, फिलहाल तो अपने यहाँ पड़ी एक 'निठल्ले दोहे' नाम की रद्दी छोड़े जा रहा हैं, जो आज से २ साल पहले हमने बुनी थी।

मेरा तेरा करता रहता ये सारा संसार,
खाली हाथ सभी को जाना छोड़ के ये घरबार।

उत्तर, दक्षिण, पूरब पश्‍चिम, चाहे तुम कहीं भी देखो,
वही खुदा है सब जगह, घर देखो या मंदिर देखो।

जब से जोगी जोग लिया, और भोगी ने भोग लिया,
तब से ही इस कर्म गली में, कुछ लोगों ने ढोंग लिया।

पहन के कपड़े उज्‍जवल देखो, वो चला मंदिर की ओर,
मन के चारों ओर लिपटी है, गंदगी की डोर।

आज घटी एक घटना, कल बन जायेगी इतिहास,
पैर फिसल के गिरा बेचारा, लोगों के लिये परिहास।

कहीं जल रहे दीप, कहीं मातम का माहौल है,
इसका उल्‍टा होगा एक दिन, क्‍योंकि दुनिया गोल है।

चलो बहुत हुआ रोना धोना, सुनते हैं संगीत,
'तरूण' प्‍यार के गीत सुनाओ, सभी हमारे मीत।

कोशिश करूँगा की अगली बार कोई बढ़िया सा कबाड़ आप लोगों की नजर कर सकूँ।

दुनिया मेरे आगे - एक आम औरत की खास कहानी

आर. अनुराधा

जनसत्ता में आज (यानी 18 फरवरी , 2008 को ) ये लेख दुनिया मेरे आगे कॉलम में छपा है। कहानी एक बहादुर महिला की है जो इस समय देश की चर्चित फोटोग्राफर होने की वजह से जानी जाती हैं। ये उनकी निजी कहानी है। ब्लॉग जगत के लिए वो लेख यहां पेश है।

यह एक आम हिंदुस्तानी औरत की उससे भी आम कहानी है। फर्क सिर्फ यह है कि इस औरत ने अपनी कहानी का सूत्र आखिरकार अपने हाथ में लेने की हिम्मत जुटाई और समाज के हाथों में सब कुछ न छोड़ कर जिंदगी को अपने मुताबिक आगे बढ़ाया। तमाम रुकावटों के बावजूद अपने आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास को जिंदा रखा और उनके सहारे उन ऊंचाइयों ( समुद्रतल से 18000 फीट) तक पहुंची जहां पुरुष भी आम तौर पर जाने की हिम्मत नहीं कर पाते।

उसका बचपन एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार में पिछड़े से इलाके में लड़की होने की तमाम कठिनीइयों और बंदिशों के बीच बीता। पढ़ने की ललक तो थी पर वैसे बेहतरीन नतीजे लाने के साधन नहीं, शायद साहस भी नहीं। इसी बीच एक दिन बड़ा भाई उसकी सगाई कर आया। उसे पता चला तो उसने मना कर दिया कि शादी नहीं, वह तो कानून की पढ़ाई करेगी। इस बात पर उसे फुटबॉल बनाकर दनादन पीटा गया, बांध कर एक कोने में पटक दिया गया और खाना-पीना बंद कर दिया गया। और फिर तय दिन लाल साड़ी में बंधी, सिंदूर-आलता और गहनों से सजी उस पोटली को गाजे-बाजे के साथ एक ऐसे इंसान के हवाले कर दिया गया जिसके लिए बीबी का मतलब था- उसकी शारीरिक, पारिवारिक और सामाजिक जरूरतों को पूरा करने वाली एक गुलाम।

यहां उसे मिली और भी ज्यादा मार-पिटाई, गाली-गलौच दूध उफन जाने जैसी छोटी बात पर भी। कोई 10 साल तक यह सब उसकी दिनचर्या में शामिल रहा। बचाव और राहत के लिए उसने माता-पिता की तरफ देखा तो उन्होंने नेक सलाह देकर अपना कर्तव्य पूरा किया- "क्यों हंगामे करती हो। चुपचाप सब सह जाओ। शादी हो गई है, अब निभाना ही पड़ेगा।"

फिर एक दिन एक छोटी सी घटना ने अनजाने ही उसके साहस और आत्मसम्मान को सोते से जगा दिया। घर की बालकनी से उसका फेंका हुआ कूड़ा नीचे से गुजर रहे व्यक्ति पर गिरा तो वह गुस्से में आग-बबूला होकर ऊपर घर तक आ पहुंचा। लाख माफी मांगने पर भी वही अभद्र भाषा और बालकनी से उठाकर सीधा नीचे फेंक देने की, जान से मार देने की धमकी! इस पर भी पति ने उसका बचाव नहीं किया। उसने खुद ही, जाने कहां खो गई हिम्मत का सिरा पकड़ा और कड़क आवाज में धमकी का जवाब दिया- ' हाथ लगा के तो देख!' इस पर वह पड़ोसी बुड़बुड़ाता हुआ भाग निकला। इधर, जिसे वह बरसों से अपना सुरक्षा कवच समझे बैठी थी, वह उसी की ओर मुंह किया हथियार साबित हुआ। जिससे सांत्वना के दो शब्दों की उम्मीद कर रही थी, वह खुद फिर गाली-गलौच और मार-पीट पर उतर आया। उस लड़की के भरोसे का तार-तार हो चुका पर्दा आखिरकार पूरी तरह जमीन पर आ गिरा।

यह उसकी सहनशीलता की हद थी। उसे समझ में आ गया कि अपनी ताकत उसे खुद बनना पड़ेगा। और वह घर छोड़ कर निकल पड़ी अपने लिए बेहतर जगह की तलाश में। एक स्वयंसेवी संस्था ने मदद की। छोटे-मोटे रोजगार भी किए। फिर एक अच्छा व्यक्ति और कुछ अच्छी किताबें मिलीं जिनसे पुरुष जाति के प्रति उसका भरोसा बना। फर एक दिन उस व्यक्ति से भेंट में मिले एक कैमरे ने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी। यह उसके मन के भावों को बाहर लाने का जरिया बना तो बाहर की दुनिया को देखने-जानने का जरिया भी। कैमरे के रूप में उसे एक साथी मिला जो 20 साल से उसके साथ है, आस-पास है और उसकी दुनिया के केंद्र में है।

आज उम्र के चालीसवें दशक में छह साल बिता चुकी इस लड़की को सब महिला फोटो पत्रकार सर्वेश के नाम से जानते हैं जिसका कैमरा जीवन के विरोधाभासों को उभार कर सामने लाने से चूकता नहीं, बच्चों और औरतों की जिंदगियों के उन गुम हुए पलों को शब्द देता है जो एक मुद्रा में अपनी पूरी कहानी कह जाते हैं। रोशनी और अंधेरे का संतुलन सर्वेश का कैमरा न परख और पकड़ पाए, यह नहीं हो सकता। कैमरे के लिए दृष्यों की और अपने लिए जानने की उस पुरानी और अब तक जीवंत भूख को मिटाने के लिए सर्वेश अकेले-दुकेले कई बार हिमालय की कठिन ऊंचाइयों को फतह कर चुकी है, करगिल युद्ध की अपनी तसवीरों के लिए भारत सरकार से पुरस्कार पा चुकी है, अपने चित्रो की एकल प्रदर्शनियां कर चुकी है और आखिरकार सफल फ्रीलांस फोटोग्राफर के तौर पर खुद को स्थापित कर चुकी है।

Sunday, February 17, 2008

वेब दूनिया में कबाडख़ाना उर्फ़ रद्दी-पेप्पोर के दाम बढे

वेब दुनिया ने अपने ताज़ा चिट्ठा चर्चा में कबाडख़ाना को बडी अहम जगह दी है. इस स्तंभ की लेखिका मनीषा पांडेय हैं जो ऐसा लगता है कि एक ख़ास तरह की रुचि से संपन्न हैं. अपने अब तक के चर्चों में उन्होंने जताया है कि ब्लॉग हलचल में उल्लेखनीय क्या है.
कबाड़खाने के कबाड़ के बारे में कुछ बातें
ब्‍लॉग-चर्चा में आज अशोक पांडे और साथियों का कबाड़खाना


वैसे तो कहने को है कबाड़खाना, लेकिन ऐसा कबाड़ कि वहाँ घंटों रहने को जी चाहे। पेप्‍पोर, रद्दी पेप्‍पोर की गुहार लगाते ढेरों कबाड़ी हैं, इस कबाड़खाने में, और कबाड़ भी इतना उम्‍दा कि क्‍या कहने।

इस कबाड़ के बीच कहीं ट्रेसी चैपमैन‍हैं, तो कहीं विन्‍सेंट वैन गॉग। कहीं फर्नांदो पैसोआ की कविताएँ हैं तो कहीं शुन्‍तारो तानिकावा की बूढ़ी स्‍त्री की डायरी। बहुत कमाल का संगीत है, कविताएँ हैं, संस्‍मरण हैं, अद्भुत रेखाचित्र और तस्‍वीरें हैं और कुछ वीडियो भी।

ब्‍लॉग-चर्चा में आज हम बात कर रहे हैं, अशोक पांडे और उनके साथियों के ब्‍लॉग कबाड़खाना के बारे में। लस्‍ट फॉर लाइफ और जैसे चॉकलेट के लिए पानी के शानदार अनुवाद का काम करने वाले अशोक पांडे लेखक, कवि और अनुवादक हैं। पाब्‍लो नेरुदा, यहूदा अमीखाई और फर्नांदो पैसोआ समेत विश्‍व के तमाम महत्‍वपूर्ण कवियों की कविताओं का अनुवाद उन्‍होंने किया है। अपनी तारीफ में अशोक कहते हैं कि वे पैदाइशी कबाड़ी हैं। उन्‍होंने अपने कुछ और कबाड़ी साथियों के साथ मिलकर कबाड़खाना की शुरुआत की, जहाँ उनकी अब तक की इकट्ठा की गई कबाड़ सामग्री से पाठकों के विचार और मन समृद्ध हो रहे हैं।


जुलाई, 2007 में कुछ दोस्तों के कहने पर अशोक ने ब्‍लॉग शुरू किया, लेकिन शुरू-शुरू में उसे लेकर बहुत गंभीर नहीं थे। सोचा तो था कि गप्‍पबाजी का अड्डा भर होगा ब्‍लॉग, लेकिन यह उससे भी बढ़कर एक महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेज बनता जा रहा है, कला, साहित्‍य और संगीत का।

कबाड़खाना एक सामूहिक ब्‍लॉग है, जिस पर प्रसिद्ध लेखक इरफान और कवि वीरेन डंगवाल समेत कई सारे लेखक और ब्‍लॉगर, जो कि मूलत: कबाड़ी हैं, अपना योगदान देते हैं।

ढेरों कबाड़ के बीच एकाएक पाब्‍लो नेरुदा की पद्यात्‍मक आत्‍मकथा की ये पंक्तियाँ हमसे मुखातिब होती हैं :

उनके बग़ैर जहाज़ लड़खड़ा रहे थे
मीनारों ने कुछ नहीं किया अपना भय छिपाने को
यात्री उलझा हुआ था अपने ही पैरों पर -
उफ़ यह मानवता‚ खोती हुई अपनी दिशा !

मृत व्यक्ति चीखता है सारा कुछ यहीं छोड़ जाने पर‚
लालच की क्रूरता के लिए छोड़ जाने पर‚
जबकि हमारा नियंत्रण ढँका हुआ है एक गुस्से से
ताकि हम वापस पा सकें तर्क का रास्ता।

आज फिर यहाँ हूँ मैं कॉमरेड‚
फल से भी अधिक मीठे एक स्वप्न के साथ
जो बँधा हुआ है तुम से‚ तुम्हारे भाग्य से‚ तुम्हारी यंत्रणा से।
तो थोड़ा और आगे बढ़ते ही निकानोर पार्रा की एक तस्‍वीर के साथ उनकी कविता आ जाती है :

मेरी प्रेमिका मेरे चार अवगुणों के कारण मुझे कभी माफ नहीं करेगी :
मैं बूढ़ा हूँ
मैं गरीब हूँ
कम्यूनिस्ट हूँ
और साहित्य का राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुका हूँ

शुरू के तीन अवगुणों की वजह से
मेरा परिवार मुझे कभी माफ नहीं कर सकेगा
चौथे की वजह से तो हर्गिज़ नहीं

अमेरिका की प्रसिद्ध कवियत्री हाना कान की कविता भी तमाम कबाड़ के बीच पड़ी दिख जाएगी :
मेरे दादाजी
जूते और वोद्का
दाढ़ी और बाइबिल
भीषण सर्दियाँ
स्लेजगाड़ी और अस्तबल

मेरी दादी
नहीं था उसके पास
अपनी बेटी के लिए दहेज़
सो भेज दिया उसे
पानियों से भरे समुन्दर के पार

मेरी माँ
दस घंटे काम करती थी
आधे डॉलर के लिए
हाड़ तोड़ देने वाली उस दुकान में
मेरी माँ को मिला एक विद्वान

मेरे पिता
वे जीवित रहे किताबों,
शब्दों और कला पर,
लेकिन ज़रा भी दिल नहीं था
मकान मालिक के पास।

मैं
मैं कुछ हिस्सा उनसे बनी हूँ
कुछ हिस्से में दूने हैं वो
हालाँकि तंग बहुत किया
अपनी माँ को मैंने।

ये तो सिर्फ एक बानगी है कबाड़खाने की। ये सभी अनुवाद अशोक पांडे ने किए हैं। कबाड़ अगर ऐसा हो तो कौन नहीं, चाहेगा कि इस कबाड़ के बीच ही गुजर जाए तमाम उम्र।
अपने पसंदीदा ब्‍लॉगों की सूची में अशोक टूटी हुई, बिखरी हुई, मोहल्ला, शब्दों का सफ़र, बुग्याल, कॉफ़ी हाउस, बेदखल की डायरी और ठुमरी का नाम शुमार करते हैं।


ब्‍लॉग विधा के बारे में अशोक कहते हैं कि यह एक रंगमंच की तरह है, जहाँ आपका सामना सीधे अपने पाठक से होता है। जिस तरह के परिवर्तनों और उथल-पुथल के वक्‍त में हम जी रहे हैं, जैसा विकट यह दौर है, यह नई विधा उसकी बेचैनी को अभिव्‍यक्ति की जमीन देती है कहीं-न-कहीं। ब्‍लॉगिंग के भविष्‍य या आने वाले समय में इसकी तस्‍वीर को लेकर अशोक किसी भी तरह की जल्‍दबाज राय बनाने के पक्ष में नहीं हैं। भविष्‍य की तस्‍वीर भविष्‍य ही बताएगा।

सबसे पहले तो ब्‍लॉग के माध्यम से खुद ग्लोबलाइज़ेशन के मायने लोगों को समझाए जा सकते हैं। उसके बाद उपयोगी सूचनाओं की हिस्सेदारी होनी चाहिए : ये सूचनाएँ बहुआयामी होनी चाहिए।

हिंदी ब्‍लॉगिंग की कमजोरियों और खामियों पर उँगली रखते हुए अशोक कहते हैं कि सबकुछ के बावजूद हिन्दीभाषी समाज अभी भी उतना खुला हुआ नहीं है। हमें बहुत ज़्यादा चीज़ों से परहेज़ है और बिना सुने-पढ़े चीज़ों को ख़ारिज कर देने और आत्मलीनता में घिसटते रहना हमें बहुत भाता है। इससे निजात पाए बिना बहुत सारे दोष लगातार हिन्दी के ब्‍लॉग-संसार को शापित बनाए रखेंगे।
उनके विचार से ब्‍लॉग में विज्ञान पर बहुत कुछ लिखा जाना चाहिए। खासतौर पर युवा पाठकों को ध्यान में रखकर जो कुछ भी लिखा जाएगा, उसका एक किस्‍म का ऐतिहासिक महत्व भी होगा। पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर गंभीर कार्य की अतल संभावनाएँ हैं।

अशोक कहते हैं, ‘पिछले कुछ दिनों से ब्लागिंग और साहित्य को लेकर तमाम तरह के वक्तव्य आ रहे हैं। कुछ दिन पहले किसी ब्लॉग पर बाकायदा किसी ने लिखा था कि पिछले कुछ दशकों से हिन्दी में कोई कुछ लिख ही नहीं रहा है। कोई कहता है ब्लॉग साहित्य से बड़ी चीज़ है। कोई कहता है साहित्य अजर-अमर है।’

‘हिन्दी की सबसे बड़ी बदकिस्मती यही रही है कि लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे लुप्त होती गई है। माना कि हिन्दी के बड़े प्रकाशक अच्छी किताबों की इतनी कम प्रतियाँ छापते हैं (चालीस करोड़ भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी के किसी 'बेस्ट सेलर' की आजकल अमूमन 600 प्र‍तियाँ छपती हैं) कि लोगों तक उनका पहुँचना मुहाल होता है। लेकिन हिन्दी को बचाने का कार्य छोटे-छोटे कस्बों से निकलने वाली पत्रिकाओं ने लगातार अपने स्तर पर जारी रखा है। इस समय हिन्दी में जितनी लघु पत्रिकाएँ निकल रही हैं, उतनी कभी नहीं निकलती थीं। यह इन लघु पत्रिकाओं की देन है कि हिन्दी लेखकों की कई पीढि़याँ एक साथ कार्यरत हैं। और यह कार्य इंटरनेट और ब्लॉग के आने से कई दशक पहले से चल रहा है।’

अशोक कहते हैं, ‘अब ब्लॉग आया है तो जाहिर है, वह भी अपनी जगह बनाएगा ही। लेकिन इसमें किसी दूसरे फॉर्मेट से प्रतिद्वंद्विता की क्या ज़रूरत है। ब्लॉग ने मनचाही रचना करने की स्वतंत्रता बख्शी है तो अभी थोड़े धैर्य के साथ इस औज़ार के गुण-दोषों को चीन्हे जाने की दरकार भी महसूस होती है।’

कबाड़खाना के बारे में अशोक कहते हैं, ‘हम लोगों ने जब कबाड़खाना शुरू किया तो जाहिर है हमने इसे एक नया खिलौना जानकर काफी शरारतें भी कीं, लेकिन धीरे-धीरे एक ज़िम्मेदारी का अहसास होना शुरू हुआ और साथ ही नए-नए आयाम भी खुले और अब भी खुल रहे हैं। मुझे यकीन है कि ऐसा ही ब्लॉगिंग में मसरूफ तमाम मित्रों को भी महसूस हुआ होगा।

वे कहते हैं, ‘सबसे बड़ी चीज़ यह है कि ब्लॉग हमें एक ऐसा प्लेटफॉर्म मुहैया कराता है, जहाँ हम अपनी पसन्द/नापसंद सभी के साथ बाँट सकते हैं। हम अपनी मोहब्बत भी बाँट सकते हैं और नफरत भी। हम विनम्रता बाँट सकते हैं और विनयहीनता भी। हम एक-दूसरे का तकनीकी ज्ञान भी बढ़ा सकते हैं (जैसा कि श्री रवि रतलामी और कई अन्य लोग लगातार करते रहे हैं और जिसके लिए उनका आभार व्यक्त करने को शब्द कम पड़ जाएँगे।)।

Friday, February 15, 2008

और भी दुख है जमाने में मोहब्बत के सिवा

हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
दम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
और राज करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो


कई साल पहले मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान में शुभा मुद्गल की आवाज़ में इसे सुनकर हम दोस्त लोग झूम रहे थे. कुछ तो स्लो मोशन में डांस भी कर रहे थे. हम ढेर सारे लड़के-लड़कियां नए दुनिया के सपनों को साथ लिए वहां जुटे थे. जब भी फैज़ का नाम आता है. मुंबई का वो नज़ारा आंखों के सामने ताज़ा हो जाता है. कल स्टेन ऑडिटोरियम में फैज़ की नज़्मों को फिर से सुनने का मौक़ा मिला. रिमेम्बरिंग फैज़ प्रोग्राम के तहत राधिका चोपड़ा फैज़ की नज्में सुना रही थीं. फैज़ के नाम पर मैं यूं ही ऑडिटोरियम के भीतर पहुंच गया. ये भी नहीं पता था कि स्टेज पर कौन गा रहा है. बहुत देर तक मैं इस भ्रम में रहा कि शायद पाकिस्तानी गायिका ताहिरा सैय्यद गा रही हैं. ऐसा सोचने की वजह सिर्फ इतनी सी थी ताहिरा की तरह ही राधिका भी काफी ख़ूबसूरत है. कुछ महीने पहले ही मैंने ताहिरा को मंच पर गाते हुए सुना था. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि फैज़ की इतनी नज़्मों को इतनी ख़ूबसूरती से इतनी अदाओं में गाया भी जा सकता है. सामने से राधिका सुना रही थी-

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब ना मांग

मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहरका झ़गडा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं हो जाए
यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशमों- अतलसो- कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
खाक में लिथडे हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग


छात्र राजनीति के दौरान जब भी प्रेम और क्रांति के बारे में हम लोग बात करते थे तो इस नज़्म का ज़िक्र बार-बार आता था. ये बात और है कि आज ना तो क्रांति को लेकर उस तरह का उत्साह बचा है और ना ही वो प्रेम. मुझे पुराने दिन याद आ रहे थे और राधिका सुना रही थीं-

शाम ए फिराक अब ना पूछ आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया, जां थी कि फिर संभल गई

जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक महक उठी
जब तेरा गम जगा लिया, रात मचल मचल गई

दिल से तो हर मुआमलात करके चले थे साफ हम
कहने में उनके सामने बात बदल बदल गई


राधिका जितनी सुरीली आवाज़ में गा रही थीं वो अपने शागिर्दों को भी उतना ही मौक़ा दे रही थी. शागिर्द जब तबले पर अपना हुनर दिखा रहा था तो वो मंच से ही उसे बार-बार दाद भी दे रही थीं. राधिका ने फिर सुनाया -

दोनों जहान मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई सब-ए-ग़म गुज़ार के.


आज पढ़ना-लिखना लगातार छूटता जा रहा है. पढ़ते भी हैं तो नई-नई चींज़ें सामने होती हैं. पुराने पढ़े हुए को फिर से पढ़ने का मौक़ा कम ही मिलता है. ऐसे में फैज़ को सुनना ख़ुद को ही रिविजिट करने की तरह लगा.

Tuesday, February 12, 2008

ना साजन ना गोरी, पीटैं प्रेत थपोरी

अबीर की दोपहर होती थी। सबसे अधिक खिलता था पीला रंग। वो हाथों से उड़ता था और बालों से गुज़रते हुए चेहरे को सहलाता था। गीतों के बीच उठती मादक स्‍वरलहरी इन अबीरों को बौरा देती थी। फिर ये पूरा गांव घूम आते थे। दरवाज़े-दरवाजे़। हमारे हाथ में ज़्यादा से ज़्यादा एक जोड़ी झाल होता था। होली में कोरस का सुर अपने उठान के वक्‍त लय और ताल नहीं देखता, लिहाजा बेसुरा झाल भी उसमें अपना अक्‍स खोज लेता है।

हमने कायदे से कुछ भी बजाना नहीं सीखा। सिवाय गाल बजाने जैसे मुहावरे के, जो झूठ के अब तक के सफ़र में आज भी काम आ रहा है।

आकाशवाणी दरभंगा में एक कलाकार थे। आंखों की रोशनी बचपन से नहीं थी। हम वहां कैज़ुअल आर्टिस्‍ट थे। यूं भी अपने शहर की सांस्‍कृतिक आवोहवा में बेताल की तरह उड़ते रहने के दिन थे और हमारी हसरतें इतनी थीं कि सिनेमा हॉल को छोड़ कर दो-ढाई घंटे से ज़्यादा कहीं बैठने नहीं देती थीं। एक बार उन्‍होंने हार‍मोनियम सिखाने का वायदा किया। चाचा के पास बेतिया में हारमोनियम था, जिसे उठा कर हम दरभंगा ले आये थे। उनसे सरगम सीख पाये। सा सा सा सा निधा निधा प म प गग प म प गरे गरे नि रे सा। सा नि ध, ध म प, म प ग, प ग रे, ग रे सा।

फिर देशी शराब की दुकान पर हमें ले जाते। पौव्‍वा खरीदते और कहते - आओ रंग जमाएं। लेकिन उन दिनों वे हमें पीना नहीं सिखा पाये। हम कुछ और देर तक बचे रहना चाहते थे। बाद में तो शराब कुछ ऐसे शुरू हुई, मानो उससे जनम-जनम का अपनापा हो। लेकिन तब शराब नहीं पीने के कुबोध में ही हारमोनियम के मास्‍टर हमसे छूट गये।

शास्‍त्रीयता से लगाव हो गया था। इसलिए तो बेहद बूढ़े हो चले लल्‍ला की सभी ग्रामीण गीतों से पहले गायी गयी रुबाई हम ग़ौर से सुनने की कोशिश करते थे! वे फाग हों, चाहे चैती, गीत के प्रथमाक्षर से पहले वे साहित्यिक छंद पेश करते थे। छंद कुछ इस तरह होता था,
नागरी नवेली अलबेली बृषभान जू के
जेवर जड़ाऊं नख शिख लो सजायो है
फूलन की सेजन पै सोय रही चंद्रमुखी
आयो ब्रजराज तहं औचक जगायो है
कहें कवि दयाराम भूषण अंग शोभत अति
दृगन की शोभा देखि मृगशावक लजायो है
तो वाही समय एक लट लटकी कपोलन पै
मानो राहू चंद्रमा पर चाबुक चलायो है
ये छंद हमें इस भागती-दौड़ती दिल्‍ली में फिर से मिल गया। हमारे दफ्तर में एक वरिष्‍ठ साथी हैं, सत्‍येंद्र रंजन। आज वे ब्‍लॉगर भी हैं। इंक़लाब उनका ब्‍लॉग है। दो साल पहले मार्च में बनारस में हुए सिलसिलेवार धमाके के बाद एनडीटीवी की ओर से गंगा घाट पर आयोजित एक लाइव कंसर्ट में जब छन्‍नूलाल मिश्रा को सुना, उसके बाद उन्‍हें और सुनने के लिए बेचैन हो गया। उस कंसर्ट में छन्‍नूलाल जी ने गाया था, दिगंबर खेले मसाने में होली। छन्‍नूलाल जी के बहुत सारे गाने मिल गये, लेकिन श्‍मशान में शिव की होली नहीं मिली। मैं शुक्रगुज़ार हूं सत्‍येंद्र जी का कि उन्‍होंने हमें एक घंटे की एक सीडी उपलब्‍ध करवायी, जो एक लाइव कंसर्ट की निजी रिकॉर्डिंग है। ये बाज़ार में नहीं है। ये दुर्गा वंदना से शुरू होती है, ठुमरी, दादरा, चैती, फाग के बाद राम-केवट संवाद पर विराम लेती है। इन दिनों जब भी मैं एक घंटे से अधिक के सफ़र में होता हूं, मेरे कानों में स्‍पीकर इसी कंसर्ट को बार-बार सुनने के लिए लगा होता है।

हिंदू-मुस्लिम मिलाप


पुराने ईपी रिकॉर्ड्स की धूल हटाते हुए कल ये दो क़व्वालियाँ हाथ लगीं. सुनिये कि लोकप्रिय गायक एक दौर में अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए अपने सामाजिक सरोकार किस तरह गाते थे. इस ईपी को एचएमवी ने 1971 में उर्दू फिलॉसॉफ़िकल टाइटल से जारी किया था.








ख़ून
नहीं बँट सकता


आवाज़: यूसुफ़ आज़ाद क़व्वाल और साथी.......शब्द: पयामसईदी.....संगीत: मामी भाचू


हिंदू-मुस्लिम मिलाप


आवाज़
: यूसुफ़ आज़ाद क़व्वाल और साथी.......शब्द: नज़ीर बनारसी.....संगीत: मामी भाचू

Sunday, February 10, 2008

सत्य के अभय-अथक साधक को कबाड़खाना की श्रद्धांजलि!

बाबा आमटे जो कुछ करना चाहते थे उसके लिए एक जीवन शायद काफी नहीं था। वो देश को जोड़ना चाहते थे। पाकिस्तान जाकर वहां के लोगों को एकता का संदेश देना चाहते थे। दंगों से उन्हें तकलीफ होती थी और वो सांप्रदायिक हिंसा का अंत चाहते थे। वो देश से कुष्ठ रोग का अंत चाहते थे। चाहते थे कि कुष्ठरोगियों का भी समाज का प्यार मिले। वो विस्थापन से होने वाली पीड़ा का अंत चाहते थे। वो न्यायसंगत तरीके से पुनर्वास चाहते थे। वो चाहते थे कि सरकार देश में न्यायप्रिय तरीके से शासन करे। वो हर तरह के अन्याय का अंत चाहते थे। लेकिन इन तमाम अधूरी इच्छाओं को साथ लिए बाबा आमटे गुजर गए।

सरकार उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद करना चाहती है जो कुष्ठरोगियों के इलाज में सक्रिय रहा। लेकिन बाबा आमटे के जीवन का ये एक पहलू भर था। देश में कहीं भी अन्याय हो रहा हो तो लोगों को अक्सर बाबा आमटे की याद आती थी। नर्मदा के विस्थापितों के आंदोलन में बाबा की भूमिका को लोग भुला नहीं पाएंगे। सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ उनकी मुखर आवाज हमेशा सुनाई देती थी। बाबा आमटे को दुनिया ऐसे शख्स के रूप में भी याद रखेगी जो हमेशा विचार को कर्म में लागू करने के लिए सक्रिय रहे।

सत्य के इस अभय अथक साधक को कबाड़खाना की श्रद्धांजलि! सुनिए वैष्णव जन तो तैने कहिए...हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी से।

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