Friday, July 25, 2014

अमीरख़ानी गायकी की बौछारों से भीगा तराना


उस्त्ताद अमीर ख़ाँ साहब को लेकर हम इन्दौर वाले कुछ ज़्यादा ही भावुक होते हैं.हों भी क्यों नहीं ? उस्तादजी की वजह से ही पूरे देश में इन्दौर को क्लासिकल मौसीक़ी परिदृश्य पर एक ख़ास पहचान हासिल है. जब आप उनका गाया प्ले करें तो बस सुनो और सुनते जाओ.गरज़ ये कि आपके मन-मानस में अभी तक का सारा सफ़ा कर देगा और ख़ाँ साहब का अभी अभी गाया हुआ तारी हो जाएगा. मेघ के तराने को भी जिस तसल्ली और रूहानियत से ख़ाँ साहब ने बरता है वह बस महसूस करने की चीज़ है.न कोई गिमिक्स हैं और न ही द्रुत की ऐसी हरक़ते जो सुनने वाले को खरज से भरी गायकी से महरूम करे.
एक दरवेश की भाँति सुरों की इबादत करता ये अनूठा गायक हम सबको ऐसे लोक में ले जाता है जहाँ तानॊं की मुसलसल बौछारें हैं... आपके बस में है ही क्या सिवा इसके कि आप उनकी मेरूखण्ड गायकी के शैदाई हो जाएँ.इस बार मालवा का सावन देरी से भीगा है लेकिन मेघ में भीगा ये तराना आपको तरबतर कर देगा.सुनिये....अति विलम्बित गायकी का ये शहंशाह किराना घराना,उस्ताद रजब अली ख़ाँ और उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ाँ ( बेहरे) के आस्तानों पर सलाम करता हुआ हमें किस क़दर मालामाल कर रहा है. 

Tuesday, July 15, 2014

हमारे समय का एक बेहद ज़रूरी उपन्यास


हमारे समय का एक बेहद ज़रूरी उपन्यास

-प्रणय कृष्ण

अस्थिर, अनिश्चित, आशंकाग्रस्त और संक्रमणशील समयों में उपन्यास विधा अपनी लचीली, परिधिहीन काया से ऐसी विक्षोभकारी कृतियाँ फेंकने में सर्वाधिक समर्थ होती है जो अपनी अनेकस्वरता में ऐसे समयों की जटिलता को खोल कर रख देने में सक्षम होती हैं. भारत के भूमंडलीकरण के समय को उसकी तमाम जटिलताओं में समग्रतः उपस्थित करता रणेंद्र का 'गायब होता देश' शीर्षक उपन्यास लिखा तो काफी पहले से जा रहा होगा, लेकिन उसके प्रकाशित होने का समय इससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता था. अभी अभी तो भारत के आम चुनाव गुज़रे हैं जिसमें पूंजी के जादूगरों ने 'विकास' की ऐसी रेशमी चादर तानी जिसने मतदाताओं की नज़रें बाँध लीं. देखते-देखते 'विकास' की यह जादुई चादर एक लबादे में बदल गई जिसे सिर्फ एक आदमी ने पहन लिया. पूंजी के सभी जादूगर एक ही काया में समा गए. इस 'विकास' के तिलिस्म को तोड़ता, कारपोरेट जादूगरी को औपन्यासिक जादू से काटता यह उपन्यास हमारे समय की ज़रुरत है. पूंजी-प्रतिष्ठान ने देश, समय और समाज का जैसा आख्यान रचा है, 'गायब होता देश' उपन्यास उसका प्रति-आख्यान है, मूल्य, विचार, ज्ञानशास्त्र, अनुभव व भाव संपदा, संस्कृति और राजनीति, हर स्तर पर. उपन्यास के पूर्वकथन में ही इस प्रति-आख्यान की झलक दे दी गई है, " उसने बंदरगाह बनाने , रेल की पटरियां बिछाने , फर्नीचर बनाने , मकान बनाने के लिए अंधाधुंध कटाई शुरू की. मरांग-बुरु-बोंगा की छाती की हर अमूल्य निधि, धातु-अयस्क उसे आज ही, अभी ही चाहिए था.....वे दौड़ में अपनी परछाइयों से प्रतिद्वंद्विता कर रहे थे.... इन्हीं ज़रुरत से ज़्यादा समझदार इंसानों की अंधाधुंध उड़ान के उठे गुबार-बवंडर में सोना लेकन दिसुम गायब होता जा रहा था. सरना-वनस्पति जगत गायब हुआ, मरांग-बुरु-बोंगा, पहाड़ देवता गायब हुए, गीत गानेवाली, धीमे बहनेवाली, सोने की चमक बिखेरने वाली, हीरों से भरी सारी नदियाँ जिनमें इकिर बोंगा-जल देवता का वास था, गायब हो गयीं. मुंडाओं के बेटे -बेटियाँ भी गायब होने शुरू हो गए. सोना लेकन दिसुम गायब होनेवाले देश में तब्दील हो गया."

हमारी समझ से उपन्यास से अधिक उपयुक्त कोई अन्य विधा भी नहीं है जो इस मायावी समय को भेद कर सच तक पाठकों को पहुंचा सके. लेकिन ध्यान से पढ़ें, तो इस उपन्यास के कूल-कगार कविताओं और लोकगीतों से बने हैं. ५१ प्रकरणों में से अनेक न केवल कविता-पंक्तियों से शुरू होते हैं, बल्कि बीच- बीच में दुःख, प्रेम और प्रकृति के सघन काव्यात्मक वर्णन व विवरण उपन्यास के 'देश-राग' को गद्य-पद्यमय बनाते हैं. उपन्यास की संवेदना भूमि बहुत आदिम और भविष्य की सुदूर झिलमिलाहट के छोरों को, स्मृति और स्वप्न को कठिन-कठोर वर्त्तमान के रक्तरंजित यथार्थ से मिलाने में गद्य-पद्यमय हुई जाती है. जिस विकल्प या प्रति-संसार को रचना उपन्यास का संवेदनात्मक उद्देश्य है, उसे पूर्णतः यथार्थ बनने और मूर्त होने में क्रम में स्मृति और स्वप्न से भी सामग्री संजोते चले जाना है. उपन्यास का बहुत सा घटना-प्रवाह जिस लोकजीवन (मुंडारी और मैथिल) से गुज़रता है, उसकी फितरत है कड़े से कड़े दर्द को भी, प्रतिहिंसा तक को गीत में ढाल देना.

उपन्यास के शीर्षक और उसके आखिरी घटना-सत्य में एक ज़बरदस्त द्वंद्व है. शीर्षक में जो 'गायब होता देश' है, उपन्यास का अंत होते-होते, वही अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए लड़ता हुआ, बल्कि छोटी- छोटी ही सही, जीत हासिल करता हुआ देश है. संभव है कि आज उसका 'गायब होते जाना' प्रबलतर सच्चाई हो, लेकिन उसका लड़ते हुए आगे बढ़ना भी एक सच है जिसे संगठित होता जाना है. वैसे इस शीर्षक की एक ऐतिहासिक-मिथकीय संगति भी है- 'लेमुरिया' द्वीप से 'कोकराह' तक. 

सत्ता की वैचारिक मशीनरी सच्चाई को इस कदर खण्डित और विकृत कर, मुनाफे की अकूत कमीनी कामना को ढँकने वाले चमकदार संयोजनों में प्रबल वेग से प्रतिक्षण हमारी चेतना पर फेंकती रहती है कि इस मनोवैज्ञानिक युद्ध में आम इंसान का हार जाना ही स्वाभाविक लगता है. जिस तरह भूमंडलीकृत भारत में मुनाफे की ताकतें खेत, खदान, जंगल, ज़मीन, जलस्रोत, खनिज और उन पर निर्भर आबादी का प्रतिक्षण आखेट कर रही हैं, ठीक उसी तरह सच का आखेट भी एक राष्ट्रव्यापी उद्योग है. सूचना और संचार क्रांति के रथ पर सवार मीडिया को गहराई से देखें तो समझना मुश्किल नहीं है कि सत्य का मुख स्वर्ण से क्यों ढँका हुआ है. एक उपन्यासकार के रूप में रणेंद्र दोहरी चुनौती स्वीकार करते हैं- एक तो 'मनुष्य' की जगह 'मुनाफे' को केंद्र करके भीषण वेग से चल रहे भविष्यहीन, रोज़गारविहीन, खोखले, परजीवी और निर्दयी विकास की आंधी में 'गायब होते देश' के तड़पते हुए सच को प्रत्यक्ष करना , तो दूसरी ओर इस सच को छिपाने में लगे, उस के इर्द-गिर्द सम्मोहन का जाल रचनेवाले बौद्धिक-वैदुषिक और सर्वाधिक सक्रिय मीडिया-तंत्र की कार्य-प्रणाली को प्रत्यक्ष करना. अन्य सांस्कृतिक- वैचारिक उद्देश्यों के अलावा इस दोहरी चुनौती ने ही उपन्यास की बनावट और बुनावट को आकार दिया है. अकारण नहीं है कि उपन्यास के घटनाक्रम के अनेक नरेटरों द्वारा भिन्न-भिन्न शैलियों में सुनाए गए - समय में आगे-पीछे आते जाते घटनाक्रम को जोड़नेवाला चीफ ( या आख़िरी!) - नरेटर एक पत्रकार ही है. किशन विद्रोही सहित उपन्यास के कई अहम किरदार इस मीडिया जगत से ताल्लुक रखते हैं. हर नरेटर साथ ही साथ उपन्यास का किरदार भी है. इसलिए कोई भी एक नैरेटर अपने ही दृष्टि-पथ में आने वाले यथार्थ और अनुभव को जानता और बताता है. उपन्यास का पूरा आख्यान इन तमाम आख्यानों और स्वरों की विविधता और पूरकता में ही साकार होता है. उपन्यास अपने संवेदानात्मक उद्देश्य ही नहीं, बल्कि अपनी संरचना में भी लोकतांत्रिक है. उसके नायक अनेक हैं जो जन -संघर्षों से नायकत्व हासिल करते हैं. उपन्यास के अंतिम कवर पर प्रसन्न कुमार चौधरी का वाक्य है (कि उपन्यास में), '...लगभग कोई पात्र एकायामी नहीं है , सभी पात्रों के अपने-अपने ग्रे-शेड्स हैं. " यह तथ्य खुद इंसानों की आतंरिक बहुस्वरीयता और गतिमान यथार्थ के संघात से उनमें आते बदलाव पर उपन्यासकार की माहिर पकड़ की तस्दीक करता है.  उपन्यास अपनी यात्रा में लोकगीतों से लेकर फैज़, नागार्जुन, रेणु, भवानी प्रसाद मिश्र, मजाज़, रामदयाल मुंडा, दिनेश शुक्ल, विनोद कुमार शुक्ल तक विरासत में पाई और हमअसरों में गूंजती लोकतांत्रिक अर्थ-ध्वनियों का गुंफन करता चलता है. इस तरह 'प्रतिरोध' की विरासत की समृद्धि और निरंतरता को जताता है, जाने हुए को फिर से पहचनवाता है.   

'गायब होता देश' हालांकि उपन्यास के प्रत्यक्ष घटनाक्रम की दृष्टि से मुंडाओं का 'कोकराह' क्षेत्र है जहां वे ईसा के सैकड़ों वर्ष पहले आकर बसे, लेकिन जिस कारपोरेट लूट के चलते यह 'सोना लेकन दिसुम' गायब होता जा रहा है, वह शेष भारत और औपनिवेशिक तथा नव-औपनिवेशिक शोषण का शिकार रहे और अभी भी हो रहे देशों का सार्वभौम यथार्थ है, जिसके चलते उपन्यास एक रूपक-कथा बन जाता है - पूंजी के युग की निर्दयी लूट और झूठ तथा उसके प्रतिकार की रूपक-कथा. लेखक इस रूपकात्मकता के प्रति सचेत भी है. वह अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, भारत आदि में औपनिवेशिक लूट और उसके प्रतिरोध, भारत के ख़ास सन्दर्भ में आदिवासी विद्रोहों की लम्बी परम्परा, १८५७ के संग्राम से लेकर मध्य बिहार के क्रांतिकारी किसान आन्दोलन, बोधगया के महंत द्वारा हड़पी जमीन को वापस पाने के संघर्ष तक की तमाम घटनाओं की स्मृति-लताओं को वर्त्तमान के मुख्य-घटनाक्रम में बारीकी से इस तरह पिरोता चलता है कि वे उपन्यास के मूल अर्थ का अंग बन कर उसे व्यापकता और गहराई प्रदान करती हैं. इस उपन्यास में भाषा के अनेक स्तर हैं. मुंडारी, मैथिल, भोजपुरी के वाक्य-विन्यास, कथन भंगिमा, लोकोक्ति, मुहावरे, गीत देश-काल-पात्र-स्थिति के अनुसार खडी बोली में घुसकर उसमें लोच पैदा करते हैं और स्थान-विशेष में घट रहे जीवन-संघर्ष को बगैर सामान्यीकरण किए सार्वभौमता प्रदान करते हैं. खालिस हिन्दुस्तानी (उर्दू) का प्रयोग भी सार्वभौम अनुभव और सम्प्रेषण के इसी उद्देश्य को पूरा करता है.

'गायब होता देश' के रचनाकार रणेंद्र की उपन्यास-यात्रा का समय वही है जिसे सामान्य रूप से भारत के भूमंडलीकरण का समय कहा जाता है. यह उनके उपन्यासों के रचे जाने का भी समय है और उनके उपन्यासों के भीतर बहता समय भी. उनका पहला उपन्यास 'ग्लोबल गाँव के देवता' इसी समय की दास्तान है जिसके केंद्र में 'असुर' जाति है, जैसे कि इस उपन्यास के केंद्र में 'मुंडा' जाति. इन आदिवासी जातियों के जीवन-संघर्ष और जीवन-दर्शन को केंद्र में रखते हुए भी यह उपन्यास बहुत जतन से हमारे युग की भूमंडलीय लूट के केन्द्रीय अंतर्विरोध और संघर्ष के खंडित समाजशास्त्रीय, मानवशास्त्रीय (ऐन्थ्रोपोलोजिकल), प्रशासनिक या निपट वैचारिक भाष्य का अतिक्रमण करके ही उपन्यास बनता है. अकारण नहीं कि सोमेश्वर मुंडा, नीरज पाहन, अनुजा पाहन, सोनामनी दी आदि के दर्द और लड़ाई के साथ अलग-अलग स्तर और सीमा तक साझीदार बने किशन विद्रोही, सुबोध दा, राजेश, कमला, रमा, संजय जायसवाल, अमरेन्द्र, बिट्टू जैसे लोग खुद आदिवासी नहीं हैं, लेकिन विचारधारा, नैतिक द्वंद्व, सामाजिक जिम्मेदारी अथवा स्मृति या आत्मसंघर्ष के अनेक रास्तों से गुज़रकर वे अपना पक्ष ग्रहण करते हैं. दूसरी ओर, उन्हीं आदिवासियों में जन्में साहब-सूबा- डी. डी. सी., ए. डी. एम., ट्रांसपोर्ट, एक्साइज और सप्लाई के अफसर, इंजीनियर, डाक्टर, इन्स्पेक्टर आदि कारपोरेट-जनप्रतिनिधि-माफिया-अफसर-सुरक्षा-तंत्र के लुटेरे गठजोड़ का अंग बन कर जीवन गुज़ार रहे हैं. यह उपन्यास बाहरी तत्वों द्वारा आदिवासी इलाके की भू-संपदा की लूट को उसके संरक्षण के लिए बने कानूनों में बड़े-बड़े छिद्रों का लाभ उठाकर, थाना कचहरी को मिलाकर सवर्ण-सामंती धाक के जोर पर लूट और पूंजी के आदिम संचय की प्रक्रिया से आरम्भ होता है. दूसरी ओर, बड़े बाँध और एनर्जी प्रोजेक्ट के कारण विस्थापित हो रहे लोगों के संघर्ष के दृश्य हैं. 'कोकराह' के इलाके के जल, जंगल, जमीन, खनिज और पर्यावरण की लूट से संपन्न तत्व रियल एस्टेट, माइनिंग, मैनूफैक्चरिंग से लेकर मीडिया तक कारपोरेट जाल बिछाए गोवा, दिल्ली, नार्थ ईस्ट, सिंगापुर,लाइबेरिया,दुबई, फुकेट तक अपने सरमाए का विस्तार करते हैं. यह पूरी प्रक्रिया आपराधिक और सनसनीखेज़ है. उपन्यास पढ़ते हुए कभी मर्डर मिस्ट्री, कभी खोजी पत्रकारिता, कभी क्राइम फिक्शन, कभी लव-स्टोरी और यहाँ तक कि साइंस फिक्शन सा आभास होता है, लेकिन ऐतिहासिक और मिथकीय अनुभूतियाँ, मानवीय संवेदनाओं की गहराइयां, लोकजीवन की साझेदारी की गहन स्मृतियाँ और चाहतें सारी सनसनी को अतिक्रमित करते हुए पाठक को एक गहरे और व्यापक जीवन-विवेक तक उठा ले जाती हैं. अहसास होता है कि हमारे भूमंडलीकृत समय का यथार्थ पाठक के सीमित अनुभव-जगत और कल्पना से कहीं ज़्यादा हैरतअंगेज़ ज़रूर है, लेकिन मानव-जीवन ने अपनी लम्बी विकासयात्रा में जिन सुन्दरतम मूल्यों और सपनों को अर्जित किया है, संजोया है, वे बहुत जिद्दी हैं, सनसनी और हैरत से विमूढ़ या पराभूत होना अंततः उनकी फितरत नहीं है.

यह उपन्यास समय और देश-देशांतर के अनेक संस्तरों में विचरण करता है, ठिठकता और ठहरता है, लेकिन इसीलिए कि अपने समय की आनुवांशिकी की समझ तक पहुँच सके. समय और देश को अनुभव करने और अपनी चेतना में उन्हें प्रत्यक्ष करने का ढंग भी दिकुओं और आदिवासियों का एक जैसा नहीं है. दरोगा वीरेन्द्र प्रताप सिंह, सविता पोद्दार, अशोक पोद्दार, जेम्स मिल, राणा, नरेश शर्मा, नवल पांडे, कोकिला बैनर्जी, कैथरीन,जेम्स मिल आदि लुटेरों की टोली का देश और काल का तसव्वुर वही नहीं है जो सोमेश्वर मुंडा, नीरज पाहन, अनुजा पाहन, सोनामनी दी का है.

२१वी सदी के हिन्दी उपन्यासों में संजीव का 'रह गयीं दिशाएं इसी पार' के बाद 'गायब होता देश' ही उत्तर-पूंजी के इस युग में कार्पोरेट मुनाफे के तंत्र द्वारा विज्ञान के सर्वातिशायी अपराधीकरण की परिघटना को सामने लाता है. सोमेश्वर मुंडा अपने पुरखों के इतिहास और ज्ञान-विज्ञान की लुप्त विरासत के पुनराविष्कार के क्रम में जो वैज्ञानिक अध्ययन करते हैं, उन्हें चुराकर रोजालिन मिल और उससे हथियाकर जेम्स मिल उन्हें आदिवासियों के संहार की कीमत पर अमीरों के अमरत्व की तकनीक में बदलने की कोशिश करता है, वह इस 'नालेज सोसायटी' में ज्ञान की अमानुषिक लूट और विज्ञान के अपराधीकरण का अद्भुत किस्सा है. इस युग में सफल और बलशाली लुटेरों की शाश्वत अपराजेयता और अमरत्व के साधन के रूप में विज्ञान की नयी दिशा का उदघाटन उपरोक्त दोनों उपन्यासों को बाकी सबसे एकदम ही विशिष्ट बनाता है.

इस उपन्यास में व्यक्त 'सभ्यता-समीक्षा' पर निश्चय ही कहीं अधिक विस्तार के साथ चर्चा की ज़रुरत है, यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि नागरी अक्षर चीन्हने और उनमें बने शब्द और वाक्य समझनेवाले सभी लोगों को इस उपन्यास को ज़रूर ही पढ़ना चाहिए.          

ट्रिक ये है कि आपने सब कुछ जानना चाहिए - कादर ख़ान का एक लंबा साक्षात्कार - 10


(पिछली क़िस्त के आगे)

कॉनी हाम – दर्शकों को बांधे रखने की ट्रिक क्या है.

कादर ख़ान – ट्रिक ये है कि आपने सबको जानना चाहिए. आपने सब कुछ जानना चाहिए. आपको हरफनमौला होना होता है. अगर आप एक बढ़ई हैं तो आपको सबसे अच्छी लकड़ी छांटना आना चाहिए, उसे सलीके से काटना आना चाहिए, उसने सारी उपलब्ध स्पेस को घेरना चाहिए, और डिजाइन भी उम्दा होना होगा. डिजाइनिंग और एकोमोडेशन – ये हैं स्क्रिप्ट लेखन के उपकरण. कभी कभी आप सब कुछ अकोमोडेट करना चाहते हैं और वह किसी बक्से जैसा दिखने लगता है. चीज़ का अच्छा दिखना भी ज़रूरी है.

कॉनी हाम – आपको कैसे पता लगता है कि आपने सही लाइन लिखी है?

कादर ख़ान – प्रतिक्रिया के बाद. कभी कभी ऑडीटोरियम में आपको ऐसी लाइनों पर प्रतिक्रियाएं सुनने को मिल जाती हैं कि उनके बारे में आपने कभी सोचा तक नहीं होता. और कई बार जब आपको लगता है कि ये लाइन दर्शकों में धमाल मचा देगी तो कुछ होता ही नहीं. तीन तरह की प्रतिक्रियाएं होती हैं.  पहली आपकी प्रतिक्रिया, दूसरी डायरेक्टर की और तीसरी ऑडीएन्स की. तीन प्रतिक्रियाओं के अपने अपने इलाके होते हैं, तीन मुख्तलिफ ज़खीरे होते हैं. आपने तीनों ज़खीरों की सैर करना होती है. यह एक काल्पनिक संसार होता है.

मानवीय वाणी


मैंने थियेटर से क्या सीखा? – एक अभिनेता के लिए, जब वह स्टेज पर आता है. यही बात सबसे ज़रूरी होनी चाहिए. उसकी एंट्री असाधरण होनी चाहिए. और कुछ आवाजें होनी चाहिए ताकि ऑडीएन्स का दिमाग कहीं और भी लगा रहे. आखिर एक इंसान इंसान ही हो सकता है. तो ऑडीएन्स का ध्यान भटकाया जाना चाहिए. तब जब वह बोलता है, उसका हर शब्द आख़िरी आदमी तक पहुंचना चाहिए. और अभिनेता एक गायक भी होता है. एक गायक अपने गानों के बोल गाता है. अभिनेता अपने डायलॉग्स की पंक्तियों को गाता है. उसको डायलॉग्स की शक्ल में गीत को गाना होता है. उसकी आवाज़ कानों को मीठी लगनी चाहिए. मैंने ये एनालिसिस किया है कि मर्द की आवाज़ में थोड़ी सी गूँज और गरज होनी चाहिए, थोड़ा सा बेस होना चाहिए, थोड़ी सी नेज़ल होनी चाहिए. ये कॉम्बिनेशन जो है , ये साउंड को ऐसा बना देती है जैसे कि किसी गुम्बद के अन्दर कोई घुँघरू गिरा हो. एक गुम्बद की तरह! आप एक घुँघरू गिराते हैं. जो साउंड पैदा होती है और उसकी गूँज, ... वैसी आवाज़ होनी चाहिए जो अभिनेता के मुंह से बाहर निकले.तो जब आप  उस टोन में बोलेंगे तो सुनने वाले मन्त्र मुग्ध हो जाएंगे. तब वे आपकी परफॉरमेंस के बारे में भूल जाएंगे क्योंकि शब्द बड़ी ताकतवर चीज़ है. और अगर एक्टर के बोलने में डायलाग डिलीवरी में ताकत है तो वह दर्शकों को अपनी आवाज़ से बाँध सकता है. और अगर उसके पास अच्छी भाव भंगिमाएं हैं, चेहरे का अच्छा एक्सप्रेशन है और स्टाइल भी है, तो वह तमाम ऑडीएन्स को अपने घर ले के जा सकता है.     

Monday, July 14, 2014

इसे जानकर किसी भी नागरिक का सर शर्म से झुक जाएगा

अग्रज कवि और शानदार कवि-अध्येता जनाब असद ज़ैदी ने मेरी फेसबुक वॉल पर यह जानकारी निम्नलिखित टिप्पणी के साथ शेयर की है. बात शर्म की है और आप कम से कम अपने अपने स्तर परअपना विरोध तो दर्ज करवा ही सकते हैं.

महरुद्दीन ख़ाँ मेरे पुराने दोस्त हैं. वह मशहूर लेखक हैं और काफ़ी समय तक (राजेन्द्र माथुर काल से) नवभारत टाइम्स में ग्रामीण मामलों के सम्पादक भी रह चुके हैं. उनके साथ जो बीत रही है उसे जानकर किसी भी नागरिक का सर शर्म से झुक जाएगा. कृपया इसे पढ़ें और जो कुछ कर सकते हैं करें.” – असद ज़ैदी

महरुद्दीन ख़ाँ 
काफी सोच विचार के बाद तय किया कि जो हमारे परिवार के साथ हो रहा है सब लिख ही दिया जाए. अब लग यही रहा है की गांव छोड़ना ही पड़ेगा क्योंकि गांव के कुछ साम्प्रदायिक और अपराधी तत्वों ने घोषणा कर दी है कि उन्हें इस गांव में मुसमान का रहना पसंद नहीं. पहले ये लोग छेड़ छाड़ करते रहते थे तो गांव के लोग इन्हें डांट देते थे. दो साल पहले इनके लीडर संजय ने छोटे भाई पर गोली चला दी. गांव के लोगों ने ये मामला भी फैसला कर दिया और गारंटी ली कि भविष्य में कुछ नहीं होगा. सब ठीक चल रहा था कि पहली जुलाई को संजय और उसके साथी ने मेरे बड़े भाई के लड़के को दो गोलियां मार दीं जो ग़ाज़ियाबाद के यशोदा अस्पताल में ज़िंदगी के लिए संघर्ष कर रहा है . हम तीन भाइयों का परिवार भयभीत हो गया पुलिस से सुरक्षा मांगी आश्वाशन तो मिला मगर सुरक्षा नहीं मिली. 

सात जुलाई को दादरी थाने जाकर सुरक्षा की गुहार लगाई मगर पुलिस ने कुछ नहीं किया तो बदमाशों के हौसले इतने बुलंद हुए कि इसी दिन तीन बजे बड़े भाई की गोली मार कर हत्या कर दी. मैंने कुछ मित्रों को बताया तो वे भी सक्रिय हुए. श्री शम्भू नाथ शुक्ल ने सक्रियता दिखाई और लखनऊ सम्पर्क किया तो पुलिस ने हमारी सुरक्षा का प्रबंध किया. इसके लिए मै शुक्ल जी का आभारी हूँ. 

इन दोनों घटनाओं की नामजद रपट दर्ज है मगर पुलिस छः नामजद में से किसी को नहीं पकड़ पाई है जिससे परिवार परेशान है. उधर बदमाश धमकी दे रहे हैं की या तो ये लोग गांव छोड़ दें वरना सब को निपटा दिया जायेगा. 

गांव में किसी से हमारी कोई रंजिश कभी नहीं रही.एक पुलिस अधिकारी का कहना है की नौकरी के 15 सालों में ये पहली घटना है कि बिना किसी रंजिश के बदमाश चुप चाप आते हैं और बिना कुछ कहे गोली मार कर चले जाते हैं. 


छह सात बदमाशों के इस गिरोह से अब गॉव वाले भी डरने लगे हैं. अपना दुःख दोस्तों में बाँटने के लिए ये सब लिख दिया वरना तो किसी काम में मन नहीं लगता. जिस गांव के लिए बहुत कुछ किया, जिस गांव के मोह में पड़कर शहर नही गया ,जिस गांव की खातिर कई संकट झेले और जिस गांव का खमीर यहीं खाक करना था अब पता नहीं कब ये गांव छोड़ना पड़ जाए वैसे दो भतीजे गांव से पलायन कर गए हैं. बदमाशों ने अब मेरा और मेरे बेटों का नंबर लगा दिया बताया है. 

अंत में आप सभी से अनुरोध है कि इस मामले में जो भी मदद आप कर सकें अवश्य करें. आभारी हूँगा.

ग़ालिब ने मुझे स्क्रीनप्लेज की सूरत में आइडियाज़ दिए - कादर ख़ान का एक लंबा साक्षात्कार - 9



लेखन की बाबत

कॉनी हाम – फिल्मों के अपने लेखन के बारे में मुझे कुछ बताइये.

कादर ख़ान – कहानी में उतार चढ़ाव – मनमोहन देसाई उस पर यकीन करते थे. वे मुझे आउटलाइन  दे दिया करते थे जिनके बीच मैंने अपनी पंक्तियाँ फिट करनी होती थीं. और मुझे उनकी इस कमजोरी का पता चल गया था. वे चाहते थे कि डायलॉग्स पर तालियाँ बजें. “तलवार का वार जिसे मार न सके, वो अमर है. आग को जलाकर जो ख़ाक कर डाले वो अकबर है.” तब वे कहते थे “अपुन नईं पब्लिक बोलता है, अनहोनी को जो होनी बना डाल दे, वो एन्थनी है.” इसी तरह के ज़बान पर चढ़ जाने वाले डायलॉग्स. इसी से उन्होंने ‘जॉन, जॉनी जनार्दन’ गाना बनाया था.

तो मुझे मनमोहन देसाई की कमजोरी का पता चल गया था. मैं मनमोहन देसाई को फ्रेम में रखा करता था. उनके घर जाने से पहले ही मुझे उनकी प्रतिक्रिया का पता चल जाता था कि वे मेरी लाइनों पर तालियाँ बजाएंगे या नहीं. वे मेरी ऑडीएन्स थे. और वे ऑडीएन्स की नब्ज़ पकड़ना जानते थे.       

कॉनी हाम मैं आपसे पूछने ही वाली थी कि ऑडीएन्स के बारे में आपकी क्या इमेज थी. सो आपके दिमाग में मनमोहन देसाई रहते थे.

कादर ख़ान – जैसे, मैं नाटक लिखा करता था. मैंने इंटर-कॉलेज ड्रामाटिक प्रतियोगिताएं से शुरू किया था. चौपाटी में भारतीय विद्या भवन के नाम से एक बहुत घटिया नाटक प्रतियोगिता हुआ करती थी. या खुदा, क्या ऑडीएन्स आती थी वहाँ – बेहद खतरनाक. जब भी एक्टर स्टेज पर आता वे कहते थे “आओ.” एक्टर डरने ही वाला होता था जब वे कहते “बैठो” वह बैठ जाया करता. वह फोन का रिसीवर उठता. ऑडीएन्स कहती “हैलो” और यह एक्टर बिना नंबर डायल किये बातें करना शुरू के देता. और तब उसे जुतिया के बाहर कर दिया जाता. तो ऑडीएन्स से मैंने बहुत सारे पाठ सीखे. वह 400 की क्षमता वाला हॉल था. जब मेरा नाटक होता तो 1700 से 1800 लोग आ जाया करते. और मैं उन्हें हर दफ़ा तालियाँ बजाने पर मजबूर कर देता था. मैं उन्हें गैलरी में बैठा देखने की कल्पना किया करता. दस तारीफों के बाद आप ऑडीएन्स को समझ जाते हो. और तब आप उन्हें अपने विचार बताया करते हैं. ऐसा ही लगातार करते जाना होता था. ऑडीएन्स हिल जाया करती थी. उस अनुभव ने मुझे बहुत सिखाया. सो भारतीय विद्या भवन से मैंने अपना फ़ोकस मनमोहन देसाई पर केन्द्रित कर लिया था.     


लेखन और अभिनय के बारे में:

लेखकों ने हमेशा स्केचेज़ बनाने चाहिए. लेखकों ने हमेशा अभिनय करना चाहिए. अधिकतर लेखक रंगमंच से आते हैं. वक्तृता भी अभिनय ही है. जब आप बोलते हैं, आप ऑडीएन्स को जकड़ना शुरू करते हैं. शब्द का चयन, आपकी आवाज़ की लरज़, भावमुद्रा का चयन. यह सब मिलकर अभिनेता को बनाते हैं ... जब हम असल जीवन में झूठ बोल रहे होते हैं हम सब अभिनय करते हैं. उस वक्त हमारे एक्सप्रेशन मेक-अप का काम करते हैं. वह आपके चेहरे को ढांप लेता है.

मंटो के लेखन ने मुझे बहुत प्रेरित किया. मंटो से मैंने यह पाया कि अच्छे ख़याल लाने के लिए आपके पास अच्छे लफ्ज़ होने चाहिए. किसी बड़े आइडिया को नैरेट करने के लिए लोग बड़ी बड़ी शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं, जबकि मंटो का मानना था कि आपके आइडिया बड़े होने चाहिए और वाक्य साधारण. और मैंने इसी बात का अनुसरण किया. यही मेरी सफलता का कारण बना. ग़ालिब ने मुझे स्क्रीनप्लेज की सूरत में आइडियाज़ दिए. किसी सीन को लेकर आपके पास कुछ न कुछ कल्पना होनी चाहिए. और वह सब आपको कम शब्दों में बयान कर सकना आना चाहिए. और ये सारे शब्द आपस में जुड़े होने चाहिए ताकि ऑडीएन्स भी उनसे जुड़ी रह सके. अगर आप ऑडीएन्स को अपनी स्क्रिप्ट से बाँध सकते हैं तो आप सफल हैं. यह बांधना ही सबसे मुश्किल होता है.


(जारी)

Sunday, July 13, 2014

अभी बहुत प्यार और जगह है तुम्हारे लिये - मार्केज़ के लिये वीरेन डंगवाल की कविताएँ


दिवंगत मार्केज़ के लिये दो बातें
-      
                 - वीरेन डंगवाल

                    (बज़रिये अशोक पांडे)

(1)

वे पीले फूल पीले गुलाब हैं
छोटे-छोटे भीने-पीले
छाती और माथे पर रखे हुए.
उनकी सुगंध
प्रविष्ठ नहीं हो सकेगी
मृत नथुनों के भीतर
जैसे किसी पीढ़ी के सपनों के रंग
व्यर्थ हो जाते हैं मृतकों के लिये.
केवल जीवन के काम के ही हैं.
सपने सुगन्ध और रंग
और ये काम का होना भी क्या !

हवाएं पृथ्वी को दुलराने के लिये
चली थीं
मगर उनकी चपेट में आता गया जल
और अब वह आकाश से भी
टपकता रहता है
शीत
नीरव शीरीं रातों में
जब एक दूसरे को ठेलते
हाथियों का रात्रिचारी झुंड
वन में बदलने को अपना बसेरा
उनके खंभों जैसे पैरों की गदेलियां
जब तपती हुई
रोड़ी-पत्थरों से भरी
नदी के बीचोंबीच
क्षीण जलधार में पहुंचते हैं यकायक
तो कैसे विस्मित
वे चित्रवत खड़े रह जाते हैं.
दरअसल उस शीतल जलता में
उन्होंने सुन ली होती है प्रतिकूल दिशा से आती जेठ की पदचाप !

भालू का गदबदा छौना
मकड़ी के जल से भरे गुलाबों के झाड़ में
सुगंध से प्रमत्त
और उसकी देह में अटक गये
धूल-जाल के साथ
वे नन्हें पीले फूल.
मां भालू एकदम निहाल
अपने बेटे की नयी सज्जा देख !

पृथ्वी ने कहा
आओ मेरे बेटे
मेरे ऊष्म पेट में,
रत्नगर्भा हूं मैं अभी बहुत
प्यार और जगह है
तुम्हारे लिये.
(2)

फिर आता है जेठ
अग्नि का बड़ा भाई, पिता सप्तऋषियों का
शनि के वलय की तरह
तीव्रगति से उसकी परिक्रमा करता है
पछुआ से बना आरी जैसे दांतों वाला
तेज दीप्त घेरा
संग में उसकी पत्नी
कराल रात्रि
गदहे पर सवार निर्वसन तरुणी
बिखरे बालों सुर्ख़ आंखों वाली श्यामा
जिसके दृष्टिपात मात्र से
धधक उठते हैं हरे-भरे जंगल.
उसकी संपूर्ण युवा
पुष्ट काली देह पर
चमकते हैं
श्रम और ताप जनित स्वेद बिंदु
नक्षत्रों की तरह.

किंतु उसकी बुद्धि तो चलती है
उसके वाहन के बताए रास्ते पर
लिहाज़ा
सैकड़ों-हज़ारों जेठ बैसाख
व्यर्थ ही गए.

मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और दक्षिण भारत - कादर ख़ान का एक लंबा साक्षात्कार - 8



लेकिन उस ज़माने में एक विभाजन रेखा थी. फिल्मों में दो बड़े आदमी थे: मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा. मैं प्रकाश मेहरा का साथ भी काम कर रहा था. मैंने उनके लिए ‘खून  पसीना’, ‘लावारिस’, और ‘मुकद्दर का सिकंदर’ लिखीं. वह एक दूसरा ही रैकेट था. अब ये दोनों लोगों में से क्या कहानी है, जो उसकी फिल्म में काम  करेगा, इधर नहीं कर सकता, जो उधर करता है, इधर नहीं कर सकता. लेकिन वे मुझे आदेश नहीं दे सकते थे. “तुम यहाँ काम नहीं कर कर सकते,” अमिताभ बच्चन ने कहा “मेरे साथ आओ, जहाँ मैं काम करूंगा वहाँ तुम भी करोगे.” मनमोहन देसाई ने ‘रोटी’ बनाई. तब वे बोले “अब मैं प्रोड्यूसर बनना चाहता हूँ.” तब उन्होंने ‘अमर अकबर एन्थनी’ बनाई. उसके बाद ‘नसीब’ और ‘कुली’. प्रकाश मेहरा के यहाँ स्ट्रेट नरेशन्स होते थे जो डायलाग और परफोर्मेंस पर निर्भर करते थे. प्रकाश मेहरा साब एक अच्छे गीतकार भी थे.

दक्षिण की ओर

एक दिन मैं आर. के. स्टूडियो में शूट कर रहा था, जितेन्द्र मेरे पास आये और बोले “माफ़ करना लेकिन एक प्रोड्यूसर आपसे दो साल से मिलना चाह रहा है, लेकिन उसके पास आपसे मिलने की हिम्मत नहीं है.”

तब वह प्रोड्यूसर आया. मैंने पूछा “आपको यह गुमान कब से हुआ कि मैं एक बड़ा लेखक और आदमी हूँ? मैं एक साधारण इंसान हूँ.”

“नहीं सर, दरअसल मेरा भाई आपसे बात करना चाहता है.” सो मैंने उसके भाई हनुमंत राव से बात की जो पद्मालय का प्रोड्यूसर होने के साथ ही एक बड़े दिल वाला अच्छा आदमी निकला. उसने कहा “मैं कन्नड़ से हिन्दी में एक रीमेक बनाने की सोच रहा हूँ.” उसने मुझे स्क्रिप्ट थमाई.

“मैंने सुना है” मैं बोला “दक्षिण भारत में आप जब रीमेक बनाते हैं तो आप कदम दर कदम शब्द दर शब्द ओरिजिनल की कॉपी करते हैं. मैं वैसा नहीं कर सकता. मुझे इसे दुबारा लिखना होगा.”

“आपको जैसा करना हो कीजिये” उसने जवाब दिया.

मैंने वैसा ही किया और पूरी स्क्रिप्ट को रेकॉर्ड किया. जितेन्द्र वहाँ काम करते थे. हेमा मालिनी वहाँ काम करती थीं. और वह फिल्म थी ‘मेरी आवाज़ सुनो’. उस फिल्म के साथ मैंने दक्षिण भारत में प्रवेश किया. सेंसर बोर्ड सर फिल्म को कुछ दिक्कतें पेश आईं पर फिल्म पास हो गयी. जब कोई फिल्म बैन की जाती है उसे अच्छी पब्लिसिटी मिलती है. फिल्म सुपरहिट गयी. मुझे बेस्ट राइटर का इनाम मिला. इस तरह साउथ में मेरी एंट्री हुई.

तनाव: किरची किरची आईना

अब मैं तीन हिस्सों में बंट गया था – मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और दक्षिण भारत. दक्षिण में लोग समय के बड़े पाबन्द होते हैं. वे आपको पूरा पैसा देते हैं. सो मैं वहाँ काम कर रहा था. मैं यहाँ भी काम कर रहा था. यही मेरा जीवन था. लेकिन घर पर हमेशा एक तनाव रहता था, “तुम हमें ज़रा भी समय नहीं दे रहे.” मैं झोपड़पट्टी से आया था. मैंने अपनी बीवी और बच्चों को फ्लैट्स और बंगले और सब कुछ दिया था. लेकिन इन सब पर सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि मैं उन्हें समय नहीं दे पा रहा था. सो दो के बदले अब तीन तीन विभाजन रेखाएं थीं. मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा के बीच एक रेखा थी; मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और दक्षिण के बीच एक दूसरी रेखा थी जबकि मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और दक्षिण और घर के बीच एक तीसरी. और उस रेखा का अस्तित्व अब भी है. मैं टुकड़ों में बंट गया था. और अगर रोटी का एक टुकड़ा हिस्सों में बंट जाए तो उसे दुबारा जोड़कर एक नहीं बनाया जा सकता. ठीक जिस तरह एक आईना किर्चियों में टूट जाता है, मैं भी बिखर गया था. हालांकि इसका कोई अफ़सोस नहीं है. मैं जो भी हूँ, वो हूँ. मुझे पता है मैं अब भी मेहनत कर रहा हूँ. मेरे अपने लोग इस बात को अभी नहीं पहचानते पर एक दिन उन्हें मेरी याद आएगी. मेरे पिताजी बताया करते थे घर की खुशी, उसकी मोहब्बत और अपनेपन के बारे में ... कुछ बातें मेरे दादाजी की बाबत. उन्हें अपने परिवार से अलग होना पड़ा था. वही चीज़ें मेरे दादाजी के साथ घटीं वही पिताजी के साथ. परिवार का सम्बन्ध क्या होता है? परिवार के लिए वह एक गोंद का काम करता है. अगर वो चीज़ें नहीं हैं तो सब कुछ बिखर जाएगा.   


पिता, पुत्र और मुस्लिम समुदाय

मेरे वालिद बहुत लायक इंसान थे. जब मैं अपनी क्लासेज़ ले रहा होता वे वहाँ आया करते थे. शाम को आकर वे मेरे अंतिम पीरियड में बैठा करते थे. और मैं उनसे पूछता “आप मेरी क्लासेज में क्यों आते हैं?”

वे कहते “सीखने के लिए, उम्र की कोई सीमा नहीं होती. आप कहीं भी जाकर कुछ भी सीख सकते हैं. मैं तुमसे यह सीख रहा हूँ कि पढ़ाया कैसे जाए. तुम एक अच्छे अध्यापक हो.”

मेरे पिताजी कहा करते “तुम मुस्लिम समुदाय की सहायता कर सकते हो – उन्हें पढ़ाकर.”

मैं कहता “मुझे कुछ नहीं आता.”

वे कहते “तुम्हें तो फिल्मों में लिखना भी नहीं आता था. न तुम्हें नाटक लिखने आते थे. तुम सब सीख सकते हो. तुम्हारे भीतर वह क्षमता है.”

अपने अंतिम दिनों में वे हॉलैंड चले गए थे जहाँ उन्होंने अपना शिक्षा संस्थान स्थापित किया जिसमें अरबी, फ़ारसी और उर्दू सिखाई जाती थी. जब वे अपनी मृत्युशैय्या पर थे उन्होंने मुझसे कहा “तुम्हें याद है न तुमने मुझसे एक वादा किया था.”

मैंने कहा “मैंने वादा नहीं किया किया था पर मैं कोशिश करूंगा.”


वे बोले “हाँ, तुम्हें कोशिश करनी चाहिए. अगर तुम्हारा जैसा आदमी कहता है कि ‘मैं कोशिश करूंगा’ तो उसे वादा की समझना चाहिए. और तुम्हारी कोशिश वाकई ईमानदार होगी.” फिर उनका इंतकाल हो गया. उनकी मौत के बाद मैं वाकई अनाथ हो गया.मुझे इच्छा होती है काश वे अभी होते. वे 95 की आयु में मरे. वे मज़बूत आदमी थे, उन्होंने चश्मा कभी नहीं पहना. उनकी आधी दाढ़ी काली और आधी सफ़ेद थी. वे टहला करते थे और उनके अपने दांत थे. वे अपनी दिनचर्या का पालन करने वाले मज़बूत इंसान थे. बहुत मोहब्बत से भरे हुए. उनके छात्र हर धर्म और जाति से थे – मुस्लिम, हिन्दू, ईसाई, यहूदी. वे सब आकर उनसे सीखते थे. हॉलैंड में भी डच, तुर्क और यहूदी सब उनके पास आते थे. तो मैं जब भी जाया करता, तो मैं उनकी डायरी में देख सकता था कि उनसे मुलाक़ात कब हो सकती थी. मैं उनसे मिलने मस्जिद में जाया करता था. वे एक दोस्त, दार्शनिक, मार्गदर्शक, एक अध्यापक - सब कुछ थे मेरे वास्ते. मैं इस कदर किस्मतवाला हूँ. मैं जहां भी गया, मेरे लिए अध्यापक हर जगह थे. मनमोहन देसाई मेरे लिए एक गुरु से कहीं ज़्यादा थे. उन्होंने मुझे कमर्शियल सिनेमा सिखाया. उन्होंने मुझसे वैसे काम लिया. वे मुझे अपनी गाड़ी से घर छोड़ा करते थे. उस सब को मैं एक समुन्दर में बदल लिया करता था. प्रकाश मेहरा. दक्षिण के लोग. मेरे लिए भाग्य मेरे पिता के कारण आया था. लेकिन जब वह माहौल बदलने लगा, और ज्ञान के आसमान का सूरज डूबने लगा, मैंने खुद से कहा, अब यह सब नहीं चल सकता. और यही वजह है कि मैं यहाँ बैठा हूँ कि मेरा स्टाफ साहित्य, अरबी, फ़ारसी और उर्दू पर काम कर रहा है. वह जो ज्ञान मैं मुस्लिम समुदाय को दूंगा, वे अपने धर्म को अच्छी तरह जानना शुरू करेंगे. वे उसे बेहतर समझने और बरतने का ज्ञान प्राप्त करेंगे. 

(जारी)

Saturday, July 12, 2014

निश्चित मौत से अगर आप ऐसी भिड़ंत कर सकते हैं तो आप हैं आर. अनुराधा


ज़माने की औपचारिकताओं का तकाज़ा है कि इस पोस्ट को यहाँ बहुत पहले लग जाना चाहिए था. लेकिन मेरी अपनी स्वास्थ्य-सम्बन्धित व्यस्तताएं थीं और एक दोस्त को खो चुकने का गहरा ग़म. अनुराधा के जाने की अवश्य्म्भाव्य्ता की जानकारी होना एक लम्बे अवसाद का विषय बन चुका था लेकिन आज मैं एक स्त्री को याद कर रहा हूँ जो जहां गयी वहाँ अपनी निशानियाँ ऐसे छोड़ आई जैसे पत्थरों चट्टानों पर बहता पानी चुपचाप धर आता है.

कई साल पहले जब हिन्दी में ब्लॉगिंग शुरू हुई थी अनुराधा और दिलीप से आत्मीय संबंधों की डोर महान अश्वेत गायक पॉल रोब्सन के गीतों ने जोड़ी जिन्हें मैं उन दिनों कबाड़खाने पर पोस्ट कर रहा था.

ऐसे सम्बन्ध बन जाने के बाद पहली या दूसरी या तीसरी या सौवीं मुलाकातें कोई मायने नहीं रखतीं. मीर बाबा फ़रमा चुके हैं –

रोज़ मिलने पे नहीं निस्बत-ए-इश्क़ी मौकूफ़
उम्र भर एक मुलाक़ात चली जाती है.

उस दिन मैं और सबीने लक्ष्मीबाई नगर स्थित अनुराधा-दिलीप के घर गए थे. अनुराधा ने बाटी-चोखा बनाया था.

उस दिन अनुराधा-दिलीप और राजू (यानी बेटा अरिंदम) हल्द्वानी आये थे.

उस दिन मेरी बहन के नवजात बेटे का नाम राजू के नाम पर अरिंदम धरा गया था.

बहन का बेटा अरिंदम अनुराधा के साथ
उस दिन मेरे घर कोई था ही नहीं जब अनुराधा-दिलीप और राजू के अलावा दिल्ली से इरफ़ान अपना पूरा कुनबा लेकर हल्द्वानी पहुँच गए थे. छोटी बहन कुछ खाना-वाना बनाने में मदद करने आ तो गयी थी पर दस-बारह लोगों के वास्ते रोटियाँ अनुराधा ने ही बेलीं-पकाईं.

अरिंदम, इरफ़ान की सुपुत्री और अनुराधा
मैं अपने बाथरूम में अमूमन एक ताज़ा फूल ज़रूर सजाए रखता था. सिर्फ अनुराधा थीं जिन्होंने उसे देखा और मुझसे पूछा कि उस फूल को कौन रोज़ बदल जाता है. अब कौन कहे कि अनुराधा मेरा मन अब वैसा कभी नहीं कर सकेगा.

उस दिन मुनीश और विनय और मैं एक लीटर की व्हिस्की लेकर अनुराधा-दिलीप के पास पहुँच गए थे तो हमें उसी आत्मीयता से बिठाया-खिलाया गया.   

लेकिन हमें या किसी को पता तक उस स्त्री ने नहीं चलने दिया कि वह कितने बड़े संग्राम से वर्षों से रू-ब-रू थी. उसकी कैंसर विजेता की डायरी मेरी माँ ने भी पढ़ी मेरी बहन ने भी और वे उस की सादगी और हिम्मत के हमेशा कायल रहे.

जब अनुराधा की कवितायेँ ‘जानकी पुल’ पर छपीं तो उन्होंने मुझे उनका लिंक भेजा. उसके बाद कविता संग्रह के प्रकाशन संबंधी सूचना देते हुए उनका मुझे भेजा गया मेल शायद अंतिम संवाद था किसी भी तरह का.

वे मेरे एक ब्लॉग ‘लपूझन्ना’ को खूब पसंद करती थीं और मुझसे उसे आगे बढाने को कहती थीं हर बार.

उन्होंने मुझे कई लिंक भेजकर हैदराबादी मजाहिया शायरी के कुछ नगीनों, खासतौर पर चिचा से मिलवाया. उन्होंने न जाने कितनी पीडीएफ फाइलें सहेज रखी थीं. आख़िरी दिनों की एक मेल में उन्होंने मुझे ‘कैचर इन द राई’ के पीडीएफ़ का दुर्लभ लिंक मुहैय्या कराया था.

मैं इस पोस्ट के माध्यम से उन्हें लगातार याद करते रहना चाहता हूँ और यह भी चाहता हूँ कि आप जानें कि इस मुश्किल समय में भी ऐसे जीवंत लोग मिलते हैं और उन्हें सहेज कर रखना कितना ज़रूरी होता है.
उनकी कविताओं की किताब अधूरा कोई नहीं’ से चुनिन्दा कवितायेँ यहाँ पेश की जाती हैं और उनके जाने के बाद लिखा हुआ दिलीप का एक मार्मिक गद्य और अनुराधा की कुछ तस्वीरें. 

हम तुम्हें हमेशा याद रखेंगे अनुराधा! सलाम!


1.  अधूरा कोई नहीं

सुनती हूं बहुत कुछ
जो लोग कहते हैं
असंबोधित
कि
अधूरी हूं मैं- एक बार
अधूरी हूं मैं- दूसरी बार
क्या दो अधूरे मिलकर
एक पूरा नहीं होते?
होते ही हैं
चाहे रोटी हो या
मेरा समतल सीना
और अधूरा आखिर
होता क्या है!
जैसे अधूरा चांद? आसमान? पेड़? धरती?
कैसे हो सकता है
कोई इंसान अधूरा!

जैसे कि
केकड़ों की थैलियों से भरा
मेरा बायां स्तन
और कोई सात बरस बाद
दाहिना भी
अगर हट जाए,
कट जाए
मेरे शरीर का कोई हिस्सा
किसी दुर्घटना में
व्याधि में/ उससे निजात पाने में
एक हिस्सा गया तो जाए
बाकी तो बचा रहा!
बाकी शरीर/मन चलता तो है
अपनी पुरानी रफ्तार!
अधूरी हैं वो कोठरियां
शरीर/स्तन के भीतर
जहां पल रहे हों वो केकड़े
अपनी ही थाली में छेद करते हुए

कोई इंसान हो सकता है भला अधूरा?
जब तक कोई जिंदा है, पूरा है
जान कभी आधी हो सकती है भला!
अधूरा कौन है-
वह, जिसके कंधे ऊंचे हैं
या जिसकी लंबाई नीची
जिसे भरी दोपहरी में अपना ऊनी टोप चाहिए
या जिसे सोने के लिए अपना तकिया
वह, जिसका पेट आगे
या वह,जिसकी पीठ
जो सूरज को बर्दाश्त नहीं कर सकता
या जिसे अंधेरे में परेशानी है
जिसे सुनने की परेशानी है
या जिसे देखने-बोलने की
जो हाजमे से परेशान है या जो भूख से?
आखिर कौन?
मेरी परिभाषा में-
जो टूटने-कटने पर बनाया नहीं जा सकता
जिसे जिलाया नहीं जा सकता
वह अधूरा नहीं हो सकता
अधूरा वह
जो बन रहा है
बन कर पूरा नहीं हुआ जो
जिसे पूरा होना है
देर-सबेर
कुछ और नहीं
न इंसान
न कुत्ता
न गाय-बैल
न चींटी
न अमलतास
न धरती
न आसमान
न चांद
न विचार
न कल्पना
न सपने
न कोशिश
न जिजीविषा
कुछ भी नहीं

पूंछ कटा कुत्ता
बिना सींग के गाय-बैल
पांच टांगों वाली चींटी
छंटा हुआ अमलतास
बंजर धरती
क्षितिज पर रुका आसमान
ग्रहण में ढंका चांद
कोई अधूरा नहीं अगर
तो फिर कैसे
किसी स्त्री के स्तन का न होना
अधूरापन है
सूनापन है?

अधूरी है उसकी सोच
जिसके लिए हाथों का खिलौना टूट गया
खेलते-खेलते
या उसका आइना
जो नहीं जानती
36-28-34 के परे एक संसार है
ज्यादा सुंदर
स्तन का न होना सिर्फ और सिर्फ
उन सपनों-इच्छाओं का अधूरापन है
जो भावनाओं बराबरी के रिश्तों से परे
उगते-पलते हैं किसी असमतल बीहड़ में
जहां जीवन मूल्यहीन है, विद्रूप है, शर्मनाक है, अन्याय है

2.  भर दो मुझे

मेरे सीने में
बहुत गहराई है
और बहुत खालीपन है
भुरभुरी
बालू की तरह
भंगुर है मेरी पसलियां
इन्हें भर दो
अपनी नजरों की छुअन से
गर्म सलाखों सी तपती,
हर समय दर्द की बर्फीली आंधियों में
नर्म हथेलियों की हरारत से
इन्हें ठंडा कर दो
जैसे मूसलाधार बरसात के बाद
भर जाते हैं ताल-पोखरे
ओने-कोने से, लबालब
शांत नीला समंदर
भरता है हर लहर को
भीतर-बाहर से
या पतझड़ भर देता है
सूखे पत्तों से
किसी वीरान जंगल की
मटियाली सतह को
कई परतों में
इतने हल्के से कि
एक पतली चादर सरसराती हवा की
सजा दे और ज्यादा उन पतियाली परतों को
उनके बीच की जगहों को भरते हुए
अगर तुमने देखा हो रेतीला बवंडर
जो भर देता है
पाट देता है पूरी तरह
आकाश-क्षितिज को
बालू के कणों से
जैसे भर जाती है
हमारे बीच की हर परत, हर सतह
प्रशांत सागर-से उद्दाम प्रेम से
वैसे ही भर दो मुझे गहरे तक
कि परतों के बीच
कोई खालीपन भुरभुरापन वो दर्द
न रहे बाकी
रहे तो सिर्फ
बादल के फाहों की तरह
हल्की मुलायम सतह सीने की
और उसमें सुरक्षित
भीतरी अवयव

3. देह की भाषा

देह के मुहावरे अजीब होते हैं
भाषा अजीब होती है
तकलीफ दूर करने के लिए
तकलीफ मांगती है
आराम पाने के लिए
बेआराम होना मांगती है
बोलती है गर्मियों की उमस भरी बेचैनी
ठीक बीच रात में
दिसंबर की बर्फीली ठंड में भी
जब वह घिरी होती है
हार्मोंन की ऊंची-नीची लहरों से
भरी गर्मी में
बतियाती है ढेर सा पसीना
और हो जाती है ठंडी, निश्चल, चुप
चुप रहती है
जब कहने की जरूरत सबसे ज्यादा हो
चुप हो जाती है
जब बातें करने को लोग सबसे ज्यादा हों
आस-पास जमा हुए, आपस में बतियाते
उस बीच में रखी देह के बारे में
जो चुप हो गई
इस वाचाल को चाहिए एकांत, सन्नाटा
जब पास कोई न हो
तो बोलती है
बेबाक, बिंदास
अपने मन की,
देह की
फिर समेटती है अपने शब्द
चुन-चुन कर एक-एक
दिखाती है कविराज को
और पूछती है नुस्खे
उन्हें शांत करने के,
बुझाने के
क्योंकि देह का बोलने
यानी शब्दों का खो जाना

4.  तुम न बदलना

लोग मिलते हैं
बिछुड़ जाते हैं
दिन दोपहर शाम रात
आते हैं चले जाते हैं
मौसम भी कहां
गांठ में बंधते हैं
रिश्ते बातों-बातों में टूटा करते हैं
रास्ते हम ही
बदलते चलते हैं
अखबार की रोशनाई हर दिन
सुर्खियां बदल देती है
जिंदगी की प्याली
छूटती है हाथ से
टूट जाती है
फैलती हैं किरचें
बनते है घाव
फिर भर जाते हैं
अस्पताल में डॉक्टर बदलते हैं
डॉक्टर पर्चियां बदलते हैं
पर्चियों में दवाएं
खुराक बदलते हैं
कभी हम
डॉक्टर ही बदल लेते हैं
पर तुम न बदलना
दर्द,
साथ देना मेरा

5.  तेरी-मेरी चुप

चुप रहना गलत है
चुप बैठ जाना और भी गलत
चुप बैठना नहीं
चुप रहना नहीं
कहना है
कि हम सिर्फ वह नहीं
जिसे सर्जरी ने काटा
सिकाई ने जलाया
दवाओं ने मारा
चंद उत्पाती
अपनी आवारगी में, अपने अधूरेपन से
भले ही रुला लें दर्द के आंसू
करना है इस गुम-चुप अक्खड़-जिद्दी
कैंसर को हिलाने-मिटाने की कोशिश
बहुत रोशनी इकट्ठी करनी होगी
पर मीनारों में नहीं,
बनाने होंगे उस रोशनी के पुल
जो जोड़ते हों हर किरण को, हर तार को
उगानी हो भले ही हथेली पर दूब
या पूछना पड़े रात से
सुबह का पता
सूरज को जगाना होगा
लोगों को जिलाना होगा
ताकि जीता रहे सब कुछ
मरे वह जो आतंक है, स्याह है
बे-ओर-छोर है, बेलगाम है अब तक

6.  अपने-अपने हिस्से के जादू

मेरे हिस्से बहुत से जादू आए हैं
साइकिल सीखने के दौरान न गिरने से लेकर
कार से कभी टक्कर न करने तक
खिड़कियों-रोशनदानों-ऊंची चारदीवारियों से होकर
खपरैल की काई-फिसलन भरी छतों पर कूद-फांद से लेकर
पकी उम्र में हर छोटे पत्थर और असमतल रास्तों से ठोकरें खाकर लड़खड़ाने तक
कभी चोट न लगना जादू था

ऑस्टियोपोरोसिस से लेकर इस अनंत संक्रमण और रेडिएशन
से भंगुर हड्डियों के चूर होने की हर आशंका तक
इस ढांचे का संभले रहना जादू था
लगभग शून्य प्रतिरोधक क्षमता के साथ
शरीर में अगणित कीटाणुओं को पलते देखना
फिर भी संगीन सुनना और इत्मीनान से सो पाना
जादू ही तो था

भीतर की दुर्घटनाओं से लगातार निबटते संभलते आशंकित होते
बाहरी देह से परे हो जाना
लंबे अवकाशों बाद भी
उसके आवेगों को अपनी जगह सुरक्षित पड़ा पाना
देह की सुघटनाओं की कमी के बावजूद
प्रेम का लगातार गहराना फैलते जाना
जादू नहीं तो और क्या है

अतल दर्द में ऊब-डूब
और उबरने की अनवरत प्रयास-यात्राओं के बीच
हंसी के अमलिन प्रवाह का सतत बने रहना
यह भी जादू है जो मेरे हिस्से आया है

कई बार गुज़रना समय की अंधेरी सुरंगों से
सिर्फ एक स्पर्श के भरोसे
और हर बार रोशनी पा जाना
गाढ़े दलदल में तैर कर
मीथेन की जहरीली हवा में सांस लेकर भी
टिके रहना
रोशनी देख पाना
क्या कहेंगे आप इसे
जादू के सिवा!

किस्म-किस्म की जांच रपटों के बीच से
ठोस सपाट तथ्य उभर कर बाहर आता है आखिर
कि चमत्कार नहीं हुआ करते
अक्सर ऐसे हालात में
मैं समझती हूं कि
चमत्कार नहीं हुआ करते

पर अपनी-अपनी जादुओं की दुनिया से गुज़रते हुए
समझते हैं हम कि
जो कुछ नहीं समझ पाते
घटनीय की संभावना जो हम नहीं देख पाते
वह सब वक्त की मुट्ठी में बंद
पड़ा होता है अपनी बारी के इंतज़ार में

धीरे-धीरे खुल रहा है
यह जादू भी मेरे आगे

7.  दर्द

दर्द का कोई
वर्ग नहीं होता
प्रजाति नहीं होती
जाति नहीं होती
दर्द, बस दर्द होता है
एक-सा स्वाद सबको देता है
सब पर एक-सा असर करता है
चाहे नज़ाकत से करे
या पूरी शिद्दत से
कोई फर्क नहीं करता
हाथ या गहरे कहीं पीठ में
कसमसाते दांत मरोड़ खाते पेट या धकधकाते दिल में
आंख ही रोती है हर दर्द के लिए
सीना ही हिलकता है हर दर्द के लिए
दर्द उठता हो कहीं भी
साझा होता है पूरे आकार में
चाहना एक ही जगाता है सब में
कि बस ढीले हो जाएं बेतरह खिंचे तंतु
बंधनहीन हों मज्जा के गुच्छे
ढूंढता है शरीर
आराम की कोई मुद्रा
इत्मीनान की एक मुद्रा
जीवन दर्द की एक यात्रा है
सैकड़ों दर्द के पड़ावों से गुजरते हैं हम
जैसे पहाड़ों पर मील के पत्थर गिनते
पार करते ऊपर उठते हैं हम
दर्द की यह यात्रा
हर एक की अपनी है
अकेली है
कुव्वत है, काबिलियत है, चाहत है
कहते हैं, दर्द को दर्द से ही राहत है
याद आता है तो रहता है
भटका दो उसे, भुला दो उसे
उलझा दो उसे दुनिया के किसी शगल में
वह भोला रम जाता है उसी में
भुला देता है वह मुझे, मैं उसे
मगर फिर शाम होते-होते जहाज का पंछी
लौट आता है अपने ठौर
ज्यादा अधिकार के साथ
गहराता है, अंधेरे के साथ अथाह सागर सा
तभी कौंधता है एक मोती गुम होने से ठीक पहले
दर्द-रहित मिलती है एक झपकी
सबसे असावधान मुद्रा में
असतर्क, समर्पण की स्थिति में
वह छोटी झपकी
आंखें खुलती हैं और
दर्द से फिर एकाकार
सतर्कता की एक और मुद्रा
राहत पाने की एक और कोशिश
दर्द की एक और मुद्रा

8.    संगीत

अचानक कहीं कोई गमक सुनाई पड़ती है
और लय बहती चली आती है पास
कानों में बज उठती है तरंग
और मन पूरा का पूरा उसमें घुल जाता है
एकाग्र हो जाता है
धीरे-धीरे और कुछ भी सुनाई नहीं देता
सिवाय उस संगीत लहरी के
जो सिर के ठीक ऊपर थिरक रही है
बंद आंखें खुलना नहीं चाहतीं
जैसे गहरी नींद हो
आस-पास दुनिया है
चलती है अपनी आवाजों के साथ
मगर मैं तरंगित हूं इस लय के साथ
छंद की तरह
जिसकी धुन पर
सिर अंगुलियां हाथ पैर
और धीरे-धीरे पूरा वजूद
झूम उठता है
बेखबर
अनजान
कि दुनिया
अपनी गति से चलती रहती है
बगल से गुज़रती हुई
देखती है अजीब नज़रों से
मैं अनोखी बैठी भीड़ में
मुझे अपनी लय, अपनी गति मिल गई
बाकी सब कुछ ठहर सा गया
अस्पताल के उस प्रतीक्षाकक्ष में

9.    चांदों के चेहरे

ज्यादातर दिन में कभी-कभार रात में भी
अनेक चांद विचरते हैं
यहां से वहां
या किसी प्रतीक्षाकक्ष में बैठे हुए धैर्य से
हर चांद का एक अदद चेहरा है चिकना चमकता सा
बच्चा-बूढ़ा स्त्री-पुरुष मोटा या पतला सा
चांद छुपा है
टोपी स्कार्फ गमछे या साड़ी के पल्लू से
कहीं कोई उघड़ा हुआ भी है बिंदास बेफिकर
चांद और उसके चेहरे का रंग
जैसे अभी-अभी कोयले या सीधी आंच का भभका लगा हो
न साबुन-पानी से साफ होता है न तेल-तारपीन से
हाथों पैरों के नील प़ड़े नाखून
जैसे हथौड़े से ठुकवा आए हों इत्मीनान से गिन-गिन कर
एक-एक को बिना नागा बिना कोताही
अस्पताल में
एक से दिखते लोग
अलग-अलग छिटके
कहीं भी पहचाने जाते हैं
आसानी से पकड़े जाते हैं
वही चिकने चमकते चेहरे
उम्मीद से रोशन सितारे आंखों में लिए
चांद के टुकड़े
चांद का उजास भले ही कभी कम हो जाए
भभकों से या आग से
ये तारे उसे बुझने नहीं देते
राह दिखाते हैं आगे की
हर स्कैन-रक्तजांच-रिपोर्ट से आगे
रजिस्ट्रेशन-रेडिएशन-जलन से आगे
अनिश्चितता-खर्च-कीमोथेरेपी से आगे
दर्द की छांव में बैठे ये यात्री
कभी मुस्कुराते अनजान सहयात्रियों से बातें करते
या अपने में डूबे हुए
फिर भी उत्सुक सब
अपने आस-पास की गतिविधियों के लिए सचेत
शायद कोई हलचल उनके लिए हो उनसे मुखातिब हो
जैसे उनके नाम की पुकार उस बड़े से प्रतीक्षाकक्ष में
बारी आते ही पिछले हर भाव का चोला उतार
वहीं प्रतीक्षाकक्ष की कुर्सी पर छोड़
चलते हैं सब उसी रोशनी में
पैरों में स्प्रिंग लगाए
जैसे कि अब हर मिनट की जल्दी उन्हें जल्द फारिग करेगी
अस्पताल से और इलाज से
अस्पताल और इलाज तक पहुंचने की देरी
भले ही लंबी रही हो

10.            मेरे बालों में उलझी मां

मां बहुत याद आती है
सबसे ज्यादा याद आता है
उनका मेरे बाल संवार देना
रोज-ब-रोज
बिना नागा

बहुत छोटी थी मैं तब
बाल छोटे रखने का शौक ठहरा
पर मां!
खुद चोटी गूंथती, रोज दो बार
घने, लंबे, भारी बाल
कभी उलझते कभी खिंचते
मैं खीझती, झींकती, रोती
पर सुलझने के बाद
चिकने बालों पर कंघी का सरकना
आह! बड़ा आनंद आता
मां की गोदी में बैठे-बैठे
जैसे नैया पार लग गई
फिर उन चिकने तेल सने बालों का चोटियों में गुंथना
लगता पहाड़ की चोटी पर बस पहुंचने को ही हैं
रिबन बंध जाने के बाद
मां का पूरे सिर को चोटियों के आखिरी सिरे तक
सहलाना थपकना
मानो आशीर्वाद है,
बाल अब कभी नहीं उलझेंगे
आशीर्वाद काम करता था-
अगली सुबह तक

किशोर होने पर ज्यादा ताकत आ गई
बालों में, शरीर में और बातों में
मां की गोद छोटी, बाल कटवाने की मेरी जिद बड़ी
और चोटियों की लंबाई मोटाई बड़ी
उलझन बड़ी
कटवाने दो इन्हें या खुद ही बना दो चोटियां
मुझसे न हो सकेगा ये भारी काम
आधी गोदी में आधी जमीन पर बैठी मैं
और बालों की उलझन-सुलझन से निबटती मां
हर दिन
साथ बैठी मौसी से कहती आश्वस्त, मुस्कुराती संतोषी मां
बड़ी हो गई फिर भी...
प्रेम जताने का तरीका है लड़की का, हँ हँ

फिर प्रेम जो सिर चढ़ा
बालों से होता हुआ मां के हाथों को झुरझुरा गया
बालों का सिरा मेरी आंख में चुभा, बह गया
मगर प्रेम वहीं अटका रह गया
बालों में, आंखों के कोरों में
बालों का खिंचना मेरा, रोना-खीझना मां का

शादी के बाद पहले सावन में
केवड़े के पत्तों की वेणी चोटी के बीचो-बीच
मोगरे का मोटा-सा गोल गजरा सिर पर
और उसके बीचो-बीच
नगों-जड़ा बड़ा सा स्वर्णफूल
मां की शादी वाली नौ-गजी
मोरपंखी धर्मावरम धूपछांव साड़ी
लांगदार पहनावे की कौंध
अपनी नजरों से नजर उतारती
मां की आंखों का बादल

फिर मैं और बड़ी हुई और
ऑस्टियोपोरोसिस से मां की हड्डियां बूढ़ी
अबकी जब मैं बैठी मां के पास
जानते हुए कि नहीं बैठ पाऊंगी गोदी में अब कभी
मां ने पसार दिया अपना आंचल
जमीन पर
बोली- बैठ मेरी गोदी में, चोटी बना दूं तेरी
और बलाएं लेते मां के हाथ
सहलाते रहे मेरे सिर और बालों को आखिरी सिरे तक
मैं जानती हूं मां की गोदी कभी
छोटी कमजोर नाकाफी नहीं हो सकती
हमेशा खाली है मेरे बालों की उलझनों के लिए

कुछ बरस और बीते
मेरे लंबे बाल न रहे
और कुछ समय बाद
मां न रही
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* नोट- कैंसर के दवाओं से इलाज (कीमोथेरेपी) से बाल झड़ जाते हैं









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मैं अब खाली हो गया हूं. बिल्कुल खाली दिलीप मण्डल

मैं अब खाली हो गया हूं. बिल्कुल खाली.

मैं अपनी सबसे प्रिय दोस्त के लिए अब पानी नहीं उबालता. उसके साथ में बिथोवन की सिंफनी नहीं सुनता. मोजार्ट को भी नहीं सुनाता. उसे ऑक्सीजन मास्क नहीं लगाता. उसे नेबुलाइज नहीं करता. उसे नहलाता नहीं. उसके बालों में कंघी नहीं करता. उसे पॉल रॉबसन के ओल्ड मैन रिवर और कर्ली हेडेड बेबी जैसे गाने नहीं सुनाता. गीता दत्त के गाने भी नहीं सुनाता. उसे नित्य कर्म नहीं कराता. उसे कपड़े नहीं पहनाता. उसे ह्वील चेयर पर नहीं घुमाता. उसे अपनी गोद में नहीं सुलाता. उसे हॉस्पीटल नहीं ले जाता. उसे हर घंटे कुछ खिलाने या पिलाने की अक्सर असफल और कभी-कभी सफल होने वाली कोशिशें भी अब मैं नहीं करता. उसकी खांसने की हर आवाज पर उठ बैठने की जरूरत अब नहीं रही. मैं अब उसका बल्ड प्रेशर चेक नहीं करता. उसे पल्स ऑक्सीमीटर और थर्मामीटर लगाने की भी जरूरत नहीं रही. मेरे पास अब कोई काम नहीं है. हर दिन नारियल पानी लाना नहीं है. फ्रेश जूस बनाना नहीं है. उसके लिए हर दिन लिम्फाप्रेस मशीन लगाने की जरूरत भी खत्म हुई.

यह सब करने में और उसके के साथ खड़े होने के लिए हमेशा जितने लोगों की जरूरत थी, उससे ज्यादा लोग मौजूद रहे. उसकी बहन गीता राव, मेरी बहन कल्याणी माझी और उसकी भाभी पद्मा राव से सीखना चाहिए कि ऐसे समय में अपने जीवन को कैसे किसी की जरूरत के मुताबिक ढाल लेना चाहिए. इस लिस्ट में मेरे बेट अरिंदम को छोड़कर आम तौर पर सिर्फ औरतें क्यों हैं? देश भर में फैली उसकी दोस्त मंडली ने इस मौके पर निजी प्राथमिकताओं को कई बार पीछे रख दिया.

यह अनुराधा के बारे में है, जो हमेशा और हर जगह, हर हाल में सिर्फ आर. अनुराधा थी. अनुराधा मंडल वह कभी नहीं थी. ठीक उसी तरह जैसे मैं कभी आर. दिलीप नहीं था. फेसबुक पर पता नहीं किस गलती या बेख्याली से यह अनुराधा मंडल नाम आ गया. अपनी स्वतंत्र सत्ता के लिए बला की हद तक जिद्दी आर. अनुराधा को अनुराधा मंडल कहना अन्याय है. ऐसा मत कीजिए.

कहीं पढ़ा था कि कुछ मौत चिड़िया के पंख की तरह हल्की होती है और कुछ मौत पहाड़ से भारी. अनुराधा की मृत्य पर सामूहिक शोक का जो दृश्य लोदी रोड शवदाह गृह और अन्यत्र दिखा, उससे यह तो स्पष्ट है कि अनुराधा ने हजारों लोगों के जीवन को सकारात्मक तरीके से छुआ था. वे कई तरह के लोग थे. वे कैंसर के मरीज थे जिनकी काउंसलिंग अनुराधा ने की थी, कैंसर मरीजों के रिश्तेदार थे, अनुराधा के सहकर्मी थे, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता थे, प्रोफेसर थे, पत्रकार, डॉक्टर, अन्य प्रोफेशनल, पड़ोसी और रिश्तेदार थे. कुछ तो वहां ऐसे भी थे, जो क्यों थे, इसकी जानकारी मुझे नहीं है. लेकिन वे अनुराधा के लिए दुखी थे. किसी महानगर में किसी की मौत को आप इस बात से भी आंक सकते हैं कि उससे कितने लोग दुखी हुए. यहां किसी के पास दुखी होने के लिए फालतू का समय नहीं है.

अनुराधा बनना कोई बड़ी बात नहीं है.

आप भी आर. अनुराधा हैं अगर आप अपनी जानलेवा बीमारी को अपनी ताकत बना लें और अपने जीवन से लोगों को जीने का सलीका बताएं. आप आर. अनुराधा हैं अगर आपको पता हो कि आपकी मौत के अब कुछ ही हफ्ते या महीने बचे हैं और ऐसे समय में आप पीएचडी के लिए प्रपोजल लिखें और उसके रेफरेंस जुटाने के लिए किताबें खरीदें और जेएनयू जाकर इंटरव्यू भी दे आएं. यह सब तब जबकि आपको पता हो कि आपकी पीएचडी पूरी नहीं होगी. ऐसे समय में अगर आप अपना दूसरा एमए कर लें, यूजीसी नेट परीक्षा निकाल लें और किताबें लिख लें, तो आप आर. अनुराधा हैं.

दरवाजे खड़ी निश्चित मौत से अगर आप ऐसी भिड़ंत कर सकते हैं तो आप हैं आर. अनुराधा.

जब फेफड़ा जवाब दे रहा हो और तब अगर आप कविताएं लिख रहें हैं तो आप बेशक आर. अनुराधा हैं. आप आर अनुराधा हैं अगर कैंसर के एडवांस स्टेज में होते हुए भी आप प्रतिभाशाली आदिवासी लड़कियों को लैपटॉप देने के लिए स्कॉलरशिप शुरू करते हैं और रांची जाकर बकायदा लैपटॉप बांट भी आते हैं. अगर आप सुरेंद्र प्रताप सिंह रचना संचयन जैसी मुश्किल किताब लिखने के लिए महीनों लाइब्रेरीज की धूल फांक सकते हैं तो आप आर अनुराधा हैं.

और हां, अगर आप कार चलाकर मुंबई से दिल्ली दो दिन से कम समय में आ सकते हैं तो आप आर अनुराधा हैं. थकती हुई हड्डियों के साथ अगर आप टेनिस खेलते हैं और स्वीमिंग करते हैं तो आप हैं आर अनुराधा. अगर महिला पत्रकारों का करियर के बीच में नौकरी छोड़ देना आपकी चिंताओं में हैं और यह आपके शोध का विषय है तो आप आर. अनुराधा हैं. अपना कष्ट भूल कर अगर कैंसर मरीजों की मदद करने के लिए आप अस्पतालों में उनके साथ समय बिता सकते हैं, उनको इलाज की उलझनों के बारे में समझा सकते हैं, उन मरीजों के लिए ब्लॉग और फेसबुक पेज बना और चला सकते हैं तो आप आर. अनुराधा हैं.

आप में से जो भी अनुराधा को जानता है, उसके लिए अनुराधा का अलग परिचय होगा. उसकी यादें आपके साथ होंगी. उन यादों की सकारात्मकता से ऊर्जा लीजिए.

अलविदा मेरी सबसे प्रिय दोस्त, मेरी मार्गदर्शक.

तुम्हारी मौत पहाड़ से भारी है.


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आर. अनुराधा का संक्षिप्त परिचय:

जन्मः 11 अक्टूबर 1967 को मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के बिलासपुर जिले में.

छह महीने की उम्र में परिवार जबलपुर आ गया. तब से लेकर नौकरी के लिए दिल्ली आकर बसने तक का जीवन वहीं बीता.

जीव विज्ञान में डिग्री. जबलपुर के रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से पत्रकारिता और संचार में उपाधि, समाजशास्त्र और जनसंचार में स्नातकोत्तर उपाधियां. दिल्ली में बाल-पत्रिका चंपक में कुछ महीनों की उप-संपादकी के बाद टाइम्स प्रकाशन समूह में सामाजिक पत्रकारिता में प्रशिक्षण और स्नातकोत्तर डिप्लोमा. हिंदी अखबार दैनिक जागरण में कुछ महीने उप-संपादक. 1991 में भारतीय सूचना सेवा में प्रवेश. पत्र सूचना कार्यालय में लंबा समय बिताने और डीडी न्यूज में समाचार संपादक की भूमिका निभाने के बाद दिसंबर 2006 से प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार में संपादक.

बाल साहित्य, विज्ञान और समाज से जुड़े विविध विषयों पर बीसियों पुस्तकों का संपादन. कैंसर से अपनी पहली लड़ाई पर बहुचर्चित आत्मकथात्मक पुस्तक इंद्रधनुष के पीछे-पीछे : एक कैंसर विजेता की डायरी राधाकृष्ण प्रकाशन से 2005 में प्रकाशित. इसका गुजराती में अनुवाद साहित्य संगम प्रकाशन, सूरत से प्रकाशित. शीर्ष पत्रकार एसपी सिंह की रचनाओं के एकमात्र संकलन पत्रकारिता का महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह संचयन’ (राजकमल प्रकाशन, 2011)  का संपादन. नई मीडिया की आधुनिक प्रवृत्तियों पर पुस्तक न्यू मीडिया; इंटरनेट की भाषायी चुनौतियां और संभावनाएं (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2012)  का संपादन. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विशेष रूप से विज्ञान, समाज और महिलाओं से जुड़े विषयों पर सतत लेखन. कैंसर-जागरूकता के लिए कार्य हेतु उत्तर प्रदेशीय महिला मंच का हिंदप्रभा 2010 पुरस्कार और पिंक चेन सम्मान 2013 से सम्मानित.

14 जून 2014 को नई दिल्ली में देहांत.