Sunday, September 30, 2012

रंगभेद की पहली सीख



एदुआर्दो गालेआनो (जन्म उरुग्वे, 1940 -) अभी के सबसे पढ़े जाने वाले लातिनी अमेरिकी लेखकों में शुमार किये जाते हैं. लेखन और व्यापक जनसरोकारों के संवाद के अपने अनुभव को साझा करते गालेआनो इस बात पर जोर देते हैं कि "लिखना यूं ही नहीं होता बल्कि इसने कईयों को बहुत गहरे प्रभावित किया है". यह अनुवाद उनकी किताब Patas Arriba: La Escuela del Mundo al Revés (1998) (पातास आरिबा: ला एस्कुएला देल मुन्दो अल रेबेस- उलटबांसियां : उल्टी  दुनिया की पाठशाला) का एक हिस्सा है. यह किताब ग्लोबलाईज्डसमय के क्रूर अंतर्विरोधों और विडंबनाओं का खाका  है जो भारत सहित तथाकथित तीसरी दुनियाके देशों के लिये बहुत मौजूं है.

इस किताब का अनुवाद जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के लातिन अमेरिकी साहित्य के शोधार्थी पी. कुमार मंगलम कर रहे हैं. समयांतर के अक्टूबर, 2011 के अंक में गालेआनो के लेख का उनका किया हिंदी अनुवाद छप चुका है

कुछ अंश:  

"किसी जगह काम करने वाले लोगों को हमेशा ऊपर के बाबुओं की जी हुजूरी करनी चाहिए, उसी तरह जैसे औरतों को पुरुषों की बात माननी ही चाहिए. कुछ लोगों का जन्म ही हुक्म देने के लिये होता है.

जिस तरह किसी व्यक्ति के पुरुष होने भर से उसे महिलाओं पर हुकुम चलाने का अधिकार मिल जाता है, उसी तरह रंगभेद भी किसी खास रंगवाले परिवार में जन्म लेने भर से किसी का जीवन भर औरों से नीचे और कमतर रहना तय कर देता है . यह वैसे ही है जैसे गरीबी के लिये शोषण की ऐतिहासिक प्रक्रिया को नहीं, बल्कि गरीबों को ही जिम्मेवार ठहरा दिया जाता है. यह बताया-सिखाया जाता है कि गरीबी और रंगभेद के मारे लोग तो अपना यही नसीब लेकर पैदा होते हैं. यह सब कुछ यहीं नहीं रुकता. यह भी मान लिया गया है कि समाज के हाशिये पर फेंके गए ये लोग स्वभाव से ही अपराधी होते हैं. ऐसे में काली चमड़ी के किसी गरीब के दिखते ही अपराध और डर का भयानक माहौल बना दिया जाता है."  

जो मैं जानति बिसरत हैं सैयां

कल आलोक धन्वा से पुराने हिन्दी फ़िल्मी गानों पर हुई एक घंटा हुई बातचीत के बाद यह गीत तंग कर रहा है. यूट्यूब से साभार लिया गया यह गीत १९५४ में आई भारत भूषण और नूतन द्वारा अभिनीत फिल्म शबाब  से है. गीत शकील बदांयूनी का है और लयबद्ध किया है नौशाद ने. 

क्या होता है मोहब्बत का मतलब



नोबेल पुरूस्कार प्राप्त पोलिश कवि चेस्वाव मिवोश की एक छोटी सी कविता पढ़िए –

मोहब्बत

मोहब्बत का मतलब होता है ख़ुद को देखना सीखना
जैसे आप देखते हैं बहुत दूर की चीज़ों को
क्योंकि आप बहुत सारी चीज़ों में से सिर्फ़ एक होते हैं.
और जो भी देख पाता है इस तरह, बगैर जाने मरहमपट्टी करने लगता है
अपने दिल के घावों की, तमाम बीमारियों के बीच से
एक चिड़िया और एक पेड़ उस से कहते हैं – दोस्त.
तब वह चाहता है अपना और चीज़ों का इस्तेमाल करना
ताकि वे बनी रहें अपनी परिपक्वता की आभा में.
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता वह जानता है या नहीं वह किस काम आया,
हमेशा समझदार नहीं होता सबसे बेहतर काम आने वाला. 

Saturday, September 29, 2012

पांच साल पूरे किये कबाड़खाने ने और २५०० पोस्टें

आज आप का यह अड्डा अपने पांच साल पूरे कर रहा है. और इत्तेफ़ाक़ से यह कबाड़खाने पर लगने वाली ढाई  हजारवीं पोस्ट है. ज़ाहिर है आप लोगों के सहयोग और प्रेम ने ही इस उपलब्धि को संभव बनाया. इस के लिए धन्यवाद. मुझे कभी लगता ही नहीं था कि बेहद हलके-फुल्के तरीके से शुरू किया गया यह काम इतने दिनों तक चल जाएगा.

देखिये कब तक और चलता है.

इन पांच सालों में बहुत कुछ बदला है सिवा मूलभूत सच्चाइयों के. सारे संकट और गहरा चुके हैं.

खैर.

इस मौक़े पर मैं चार साल और एक दिन पहले कबाड़ी पंकज श्रीवास्तव द्वारा इस ब्लॉग पर लगाई गयी एक पोस्ट को दोबारा लगा रहा हूँ.




सॉरी, भगत सिंह .. सॉरी!

प्यारे भगत सिंह,

आज तुम्हारा एक सौ एकवां जन्मदिन है. २८ सितंबर २००८, दिन रविवार. ये बात मुझे तब पता चली जब मैं अपनी कुछ पुरानी किताबे कबाड़ी वाले को बेचने जा रहा था. हमने तय किया था कि इस वीकएंड पर पिज्जा खाने के लिए पैसे का इंतजाम पुरानी किताबें बेचकर किया जाए. दरअसल महीने का आखिरी है और मेरे क्रेडिट कार्ड की लिमिट पहले ही पार हो चुकी है. ऐसे में फिजूलखर्ची करना समझदारी नहीं. तमाम किताबें और आल्मारी तो पहले ही बेच चुका, पर पत्नी ने कुछ किताबें फिर भी रख ली थीं. खासतौर पर जिन्हें खरीदने के बाद मैंने दस्तखत करके तारीख डाली थी और उसे उपहार में दिया था. ये शादी के पहले की बात है. लेकिन अब दिल्ली के छोटे से फ्लैट में रहते हुए उसे भी समझ में आ गया है कि किताबें जगह काफी घेरती हैं. बच्चों को सन्डे-सन्डे पिज्जा खिलाने का वादा उसे परेशान कर रहा था. यूं भी किताबों के पहले पन्ने पर किए गए मेरे दस्तखत अब खासे बदरंग हो चुके हैं. इसलिए कबाड़ी बुला लिया था. इसी बीच मुझे तुम्हारी जीवनी दिख गई. बी.ए में खरीदी थी. इसमें तुम्हारे लेख भी थे जो कभी मुझे जबानी याद थे. कबाड़ी को सौंपने के पहले मैंने एक बार कुछ पन्ने उलटे तो कहीं दिख गया कि तुम २८ सितंबर २००८ को पैदा हुए थे.

...कबाड़ी करीब ढाई सौ रुपये देकर जा चुका है. पिज्जा का आर्डर दे दिया है. सोचता हूं कि जब तक पिज्जा आता है, तुम्हें एक पत्र लिख दूं . ताकि तुम्हें मेरा किताब बेचना बुरा न लगे. वैसे भी अब मुझे सारी बातें साफ-साफ बता देनी चाहिए. दुनिया काफी आगे बढ़ गई है. बेहतर हो कि तुम भी किसी भ्रम में न रहो, जैसे मैं नहीं हूं.

...तुम सोच रहे होगे कि सूचना क्रांति के दिनों में तुम्हारे जन्मदिन की जानकारी इतनी छिपी क्यों रह गई. गलती मेरी नहीं है. मैंने सुबह चार-पांच अखबार देखे थे और कई न्यूज चैनल भी सर्फ किए थे. तुम कहीं नहीं थे. हां, लता मंगेशकर के जन्मदिन के बारे में जानकारी जरूर दी गई थी. कहीं-कहीं उनका गया ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’... भी बज रहा था लेकिन तुम्हारी तस्वीर नहीं दिखा...या हो सकता है मेरी नजर न पड़ी हो. वैसे कोई छाप या दिखा भी देता तो क्या फर्क पड़ जाता. तुम्हारे बारे में सोचना तो हमने कब का बंद कर दिया है.

... तुम्हें लगता होगा कि तुमने असेंबली में बम फेंककर बहुत बड़ा तीर मारा था. लेकिन आजकल दिल्ली में आए दिन बम धमाके हो रहे हैं और तमाम बेगुनाह मारे जा रहे हैं. ये सारा काम वे कमउम्र नौजवान कर रहे हैं जिन पर तुम कभी बहुत भरोसा जताते थे. कहते थे कि नौजवानी जीवन का बसंत काल है जिसे देश के काम आना चाहिए. एक ऐसा देश बनाने में जुट जाना चाहिए जहां कोई शोषण न हो, गैरबराबरी न हो, सबको बराबरी मिले...वगैरह-वगैरह. लेकिन फिलहाल इन फिजूल बातों से नौजवान अपने को दूर कर चुके हैं. उनका एक तबका अमेरिका में बसने के लिए मरा जा रहा है, दूसरा ऐसा है जिसकी देशभक्ति सिर्फ क्रिकेट मैच के दौरान जगती है. कुछ ऐसे जिन्हें तुम्हारे हैट से ज्यादा ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी अपनी ओर खींच रही है और कुछ इसे हिंदू राष्ट्र बनाने में जुटे हुए हैं. सब एक दूसरे के दुश्मन बन गए हैं और जरा सी बात पर किसी की जान ले लेना उनके बाएं हाथ का खेल बन गया है. तुम अश्फाक उल्लाह खान के साथ मिलकर जो देश बनाना चाहते थे, वो अब सपनों से भी बाहर हो चुका है. बल्कि ऐसी दोस्तियां भी सपना हो रही हैं.

पर तुम इन बातों को कहां समझ पाओगे. तुम तो नास्तिक थे. तुम्हीं ने लिखा था- “मैं नास्तिक क्यों हूं.“… उसमें तुमने ईश्वर को नकारा था. कहा था कि अगर भारत की गुलामी ईश्वार की इच्छा का परिणाम है, अगर करोड़ों लोग शोषण और दमन की चक्की में उसकी वजह से पिस रहे हैं तो वो नीरो है, चंगेज खां है, उसका नाश हो!.....तो सुन लो, न ईश्वर का नाश हुआ, न धर्म का. मुल्ला, पंडित, ज्योतिषी, ई बाबा, ऊ बाबा, अलान बाबा, फलान बाबा सबने मिलकर युद्द छेड़ दिया है. अखबार, न्यूज चैनल, पुलिस, सरकार, सब इस मुहिम में साथ हैं. नौजवानों के बीच तुम कहीं नहीं हो. वे घर से निकलने के पहले न्यूज चैनलों के ज्योतिषियों की राय सुनते हैं. उसी के मुताबिक कपड़ों का रंग और दिशा तय करते हैं. तुम्हारी हस्ती एक तस्वीर से ज्यादा नहीं. उसमें भी घपला हो गया है. तुम लाख नास्तिक रहे हो, लोग तुम्हें सिख बनाने पर उतारू हैं. संसद परिसर में तुम्हारी मूर्ति लगा दी गई है, जिसमें तुम पगड़ी पहने हुए हो. तुम्हारी शक्ल ऐसी बनी है कि तुम्हारे खानदान वाले भी नहीं पहचान पाए. पहचानी गई तो सिर्फ पगड़ी.

और हां, तुम जिस साम्राज्यवाद से सबसे ज्यादा परेशान रहते थे, वो उतना बुरा भी नहीं निकला. तुम तो कहते थे कि विश्वबंधुत्व तभी कायम हो सकता है जब साम्राज्यवाद का नाश हो और साम्यवाद की स्थापना हो. लेकिन जिन्हें साम्राज्यवादी कहा जाता था वे तो बड़े शांतिवादी निकले. वे अशांति फैलाने वालों का सफाया करने मे जुटे हैं. अभी हाल में उन्होंने ईराक और अफगानिस्तान को नेस्तनाबूद करके शांति स्थापित कर दी है. उनकी रुचि अब हमपर शासन करने की नहीं है. वे हमसे अच्छा रिश्ता बना रहे हैं. वे हमें तरह-तरह के हथियार, परमाणु बिजली घर अजब-गजब कंप्यूटर और मोबाइल फोन सौंप रहे हैं. यहां तक कि बेचारे साफ पानी और कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों को भी हिंदुस्तान के गांव-गांव पहुंचाने में जुटे हैं. हम भी उन्हें बड़े भाई जैसा सम्मान दे रहे हैं. बल्कि उनसे बेहतर बातचीत होती रहे, इसके लिए हमने अंग्रेजी को दिल से अपना लिया है. तुम्हारे पंजाब के ही पैदा हुए सरदार मनमोहन सिंह आजकल देश के प्रधानमंत्री हैं. वे बाकायदा लंदन जाकर आभार जता आए हैं कि उन्होंने हमें टेक्नोलाजी दी और अंग्रेजी सिखाई. हम अहसान करने वालों को भूलते नहीं. हम उन्हें अपने खेत सौंपने की भी सोच रहे हैं. वे कहते हैं कि उनके बीज ज्यादा पैदावार देते हैं. थोड़ी गलतफहमी हो गई, इस वजह से कुछ हजार किसानों ने खुदकुशी जरूर कर ली, पर जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा. बड़े भाई ने भरोसा दिलाया है.

...और हां, जिस साम्यवाद की तुम बात करते थे, वो अब किसी की समझ में नहीं आता. हालांकि ऐसी बातें करने वाली कुछ पार्टियां बाकायदा मौजूद हैं. कुछ प्रदेशों में उनका शासन भी है. लेकन फिलहाल वे तुम्हारी तरह किसानों और मजदूरों के चक्कर में नहीं पड़ी हैं. वे एक कार कारखाने के लिए किसानों पर गोली चलाने से नहीं चूकतीं. कुछ ऐसे भी साम्यवादी हैं जो जंगलों में छिपकर क्रांति करने का सपना देख रहे हैं. पर न उन्हें जनता की परवाह है न जनता को उनकी. वैसे जिस रूसी क्रांति और लेनिन का तुम बार-बार जिक्र करते थे, वे अब भूली कहानी बन चुके हैं या फिर इतिहास में दर्ज एक मजाक.


६ जून १९२९ को तुमने लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में बयान दिया था कि “क्रांति से तुम्हारा मतलब है कि अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन. धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठा रंगरेलियां मना रहा है और करोड़ों शोषित एक खड्ड के कगार पर हैं, इसे बदलना होगा.“… तो समझ लो कि तुम्हारी बात सुनने वाला कोई नहीं है. भारत में जो कुछ हो रहा है वो भी आमूल परिवर्तन ही है.

... अगर तुम फिर से भारत में जन्म लेकर कुछ करने को सोच रहे हो तो भूल जाओ. कवि शैलेंद्र ने बहुत पहले लिखा था कि “भगत सिंह इस बार न लेना काया भरतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की’...तब ये व्यंग्य लगता था. पर अब सचमुच ऐसा होगा. मेरे इलाके के दरोगा देवीदत्त मिश्र इंस्पेक्टर बनना चाहते हैं. एक बड़े एन्काउंटर स्पेशलिस्ट की टीम में हैं. तुम अगर अपने पुराने सिद्धांतों पर अमल करते मिल गए तो गोली मारते देर नहीं लगाएंगे. अब अंगरेजी शासन नहीं है कि नाटक के लिए ही सही, मुकदमा चलाना जरूरी समझा जाए. मिश्रा जी तुम्हें मारकर शर्तिया प्रमोशन पा लेंगे.

इसलिए जहां हो, वहीं बैठे रहो. मुझे भी अब इजाजत दो. दरवाजे की घंटी बज गई है. शायद पिज्जा वाला आ गया है.

तुम्हारा कोई नहीं

पंकज...

ऐसा मंटो किसी यूटोपिया में नहीं, हमारे जमाने के भारतीय उपमहाद्वीप में पैदा हुआ था

सआदत हसन मंटो पर यह शानदार लेख कवि-कार्टूनिस्ट श्री राजेन्द्र धोड़पकर ने कुछ समय पहले लिखा था. उसे यहाँ प्रस्तुत करते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है- 



सआदत हसन मंटो ने जितनी तूफानी और अराजक जिंदगी जी, उसे देखते हुए यह वाक्य लिखना मुश्किल होगा कि मंटो आज अगर जिंदा होते, तो सौ बरस के होते, हालांकि यह भी सही है कि वह बहुत जल्दी गुजर गए. मंटो की महानता का जश्न मनाने में यह एक क्रूर-सी सुविधा है कि वह हमारे बीच नहीं हैं, क्योंकि जिंदा मंटो को बर्दाश्त करना हमारे आज के सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक माहौल के बस की बात नहीं थी. मंटो को बर्दाश्त करना उनके जीते जी भी बहुत आसान नहीं था. वह किसी दायरे में अंटते ही नहीं थे. तरक्कीपसंद कभी यह समझ नहीं पाए कि मंटो का क्या करें, गैर तरक्कीपसंदों के लिए वह एक मुसीबत ही थे, जो तोड़-फोड़ करते चलते थे. न वह हुक्मरानों के प्रिय हो सकते थे, न हुक्मरानों की मुखालफत करने वालों के अनुशासन में आ सकते थे. अब सुविधा यह है कि हम उनकी कुछ कालजयी कहानियों और ‘सियाह हाशिये’ का जिक्र करके उन्हें महान लेखक बता सकते हैं. अंग्रेजीदां लोग ‘भाषा लिटरेचर’ के एक लेखक की महानता बखान कर अपनी भारतीयता पुख्ता कर सकते हैं, मंटो उनके लिए सुरक्षित हैं, क्योंकि सलमान रश्दी, मंटो को भारतीय भाषाओं के लेखकों में एकमात्र महत्वपूर्ण लेखक कह चुके हैं. प्रगतिशीलों को मंटो के उपद्रवों की फिक्र करने की जरूरत नहीं है. बाकी लोग भी ‘टोबा टेकसिंह’ और ‘काली सलवार’ को बेखटके महान बता सकते हैं.

मंटो ने उन कहानियों के अलावा भी खूब लिखा है, जिन्हें याद करना मंटो को समझने के लिए जरूरी है. मंटो बाजारू लेखक नहीं थे, लेकिन पेशेवर लेखक थे और लेखन उनकी रोजी-रोटी थी. किसी पेशेवर लेखक की तरह उन्होंने खूब लिखा और उसमें से बहुत कुछ साहित्यिक रूप से खराब है, लेकिन वह दिलचस्प हर वक्त है. मंटो के लेखन की खूबी यह है कि लेखन को जीविका बनाते हुए और अपने लेखन के प्रति पूरी तरह ईमानदार और प्रतिबद्ध होते हुए भी वह परंपरागत अर्थ में लेखक या साहित्यकार नहीं बने. वह साहित्य को भी उसी तरह दिलचस्पी, आश्चर्य और कौतूहल से देखते रहे, जैसे वह बाकी दुनिया को देखते थे. साहित्यकारों और सिनेमा के लोगों के उनके संस्मरण शायद इसीलिए इतने अनोखे हैं, क्योंकि वह साहित्य में साहित्यकार नहीं थे, फिल्मी दुनिया में रहकर भी फिल्मी आदमी नहीं थे. दुनिया के साहित्य में इतने अच्छे व्यक्तिचित्र शायद ही किसी ने लिखे हों, जो किसी भी महान गल्प से तुलना करने योग्य हों.

मंटो अगर लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी नहीं थे, तो क्या थे? इसका जायजा हमें पारसी थिएटर के मशहूर नाटककार आगा हश्र कश्मीरी पर लिखे मंटो के संस्मरण की शुरुआत में मिलता है, जहां दीनू या फजलू लोहार के साथ शराब पीकर और जुआ खेलकर मंटो के दिन बिताने के संस्मरण हैं. भविष्य के बारे में पूरी तरह उद्देश्यहीन मंटो एक अखबार के लिए काम करने लगते हैं, फिर अंग्रेजी उपन्यासों का तर्जुमा करके पैसे कमाने लगते हैं और धीरे-धीरे लेखक हो जाते हैं. मंटो की महानता इसमें है और इसीलिए शायद वह तरह-तरह की साहित्यिक अभिजात दृष्टि को आकर्षित भी करते हैं और मुश्किल में डालते हैं कि जिंदगी भर वह फजलू लोहार के साथ शराब पीने और जुआ खेलने वाले आदमी बने रहे. मंटो लेखक बन जाने के बाद अक्सर शायरों और अदबी लोगों को भी इस महफिल में लाते रहे, जिसमें फजलू लोहार ने आगा हश्र कश्मीरी के बारे में कहा था- ‘बुढ़ापे का इश्क बहुत बुरा होता है.’ मंटो ने खूब लिखा-पढ़ा, वह बेहद जहीन और विचारवान व्यक्ति थे, लेकिन उन्होंने साहित्यकार होने को उस महफिल के एक सदस्य होने से बेहतर नहीं माना और कभी साहित्यकार नहीं बने. इस बात को समझने के लिए इस्मत चुगताई की आत्मकथा ‘कागजी है पैरहन’ का एक उद्धरण बहुत ही सटीक है-‘मैं खुश किस्मत हूं कि जीते-जी मुझे समझने वाले पैदा हो गए. मंटो को तो पागल बना दिया गया. तरक्कीपसंदों ने भी उसका साथ न दिया. मुझे तरक्कीपसंदों ने ठुकराया नहीं, न ही सर पर चढ़ाया. मंटो खाक में मिल गया, क्योंकि पाकिस्तान में वह कंगाल था. मैं बहुत आसूदा हाल (खुशहाल) थी. फिल्मों से हमारी बहुत अच्छी आमदनी थी और अदबी मौत या जिंदगी की परवाह न थी और वैसे मैं तरक्कीपसंदों की खुद भी चमची बनी हुई थी.’ कोई भी हो, चाहे तरक्की पसंद या गैर तरक्की पसंद, उसे ‘कंफर्म’ करने वाले लोग चाहिए होते हैं, जो उनके सांचे में ढल जाएं. मंटो हमेशा बाहरी आदमी बने रहे. लेकिन इसी ने उन्हें महान बनाया.

मंटो ऐसे लेखक थे, जो लेखक होकर भी उस दुनिया में रमे रहे, जिसके बारे में वह लिखते थे. गरीब लोग, वैश्याएं, फिल्मों में सफल होने की कोशिश करती तवायफें वगैरह. मंटो इन लोगों से प्यार करते थे, लेकिन यहां भी उनमें बच्चों जैसी उत्सुकता, विस्मय और खिलंदड़ापन बना रहा. गहरी करुणा और प्रेम के बावजूद वह ‘बाजार से गुजरा, लेकिन खरीदार नहीं हुआ.’ इस सबने मंटो को वह उदात्त नैतिक दृष्टि दी, जो न परंपरा की दुहाई देने वाले शुद्धतावादियों में हो सकती है, न तरक्की को बंद गली बनाने वाले पेशेवर तरक्कीपसंदों में. मंटो की महानता यह है कि अपने पूरे लेखन में वह ‘जजमेंटल’ नहीं हैं, वह दुनिया का खेल देख रहे हैं. लोगों के साथ सुखी-दुखी हो रहे हैं. वह भयानक से भयानक स्थिति में भी इंसानियत की कोमलता देख लेते हैं. उनके मन में राग है, लेकिन द्वेष नहीं है. वह जज की तरह फैसला नहीं सुनाते, वह किसी बहुत संवेदनशील डॉक्टर की तरह बीमारी का जायजा लेते हैं. अपने एक लेख में वह संगीतकार रफीक गजनवी के ओछेपन, उनके अनैतिक रिश्तों के बारे में लिखते हुए अंत में उनके मानवीय पक्ष को ऐसे उभारते हैं कि वह लेख मनुष्यता की एक उदात्त त्रसदी की कथा बन जाता है. 

मंटो के समूचे लेखन में उनकी एक उज्जवल, निष्पाप और साफ छवि उभरती है, जहां वह अपने साथ पाप, लोभ, मोह, अपराध और गंदगी से जूझते अपने किरदारों को भी अपनी रोशनी में खड़ा कर देते हैं. मंटो का आकर्षण ही यह है कि वह लेखक बने बगैर लेखक हैं. शराबी हुए बगैर शराबखोर हैं. बिना किसी धार्मिक अनुशासन के घोर धार्मिक हैं. वह विचारक हुए बगैर तत्वचिंतन करते हैं. वह गलीज लोगों के किस्से सुनाते हुए भी हम जैसे लोगों से ज्यादा नैतिक हैं. बिना कार्यकर्ता हुए जन प्रतिबद्ध हैं. कार्ल मार्क्स ने कुछ इसी अंदाज में (बेशक दूसरे शब्दों में) साम्यवादी यूटोपिया के इंसान का जिक्र किया था. खास बात यह है कि ऐसा मंटो किसी यूटोपिया में नहीं, हमारे जमाने के भारतीय उपमहाद्वीप में पैदा हुआ था, यह हमारी खुशकिस्मती है.

('हिन्दुस्तान' से साभार)  

प्लास्टिक पन्नी के राज गली कभो माटी के राज होई अलबीला


मृत्युंजय पुराने मित्र हैं. कवि हैं. संगीत के जानकार हैं. उम्दा शख्स हैं. उनका एक बढ़िया ब्लौग भी है – मृत्युंजय का मृत्युबोध.

कल उन्होंने मुझे मेल से अपने दस ताज़ा सवैये भेजे हैं. पेश कर रहा हूँ –

(क)

आगि क बाट अकास अंगार चला सखि देस के रौरव बीचे
पेड़े पे रेती इनारे में रेती पराती में रेती बरौनी के नीचे
ऊसर कांकर बंजर पाथर हड्डी से तोरि पसीना से सींचे
फांसी के फूल कपास उगै गोइयाँ चला मौत के खेतहिं बीचे

(ख)

ई बिधना बड़ कूर मजूरी के बीच अंगूठा क घाव सड़ैला
बानर दिष्टि छछुंदर देहिं अ पईया क धान से पाला पड़ैला
नेह क दीप भभक बुति जाय सराब क गंध रसोई तड़ैला
जागत नैनन नीर ढुरै अरु सोवत आँखिन सप्न गड़ैला

(ग)

पाथर हाथ से पाथर काटत पाथर देहिं में बज्र करेजा
छूटि हथौड़ा अंगूठा पे खच्च से तलफत आपन दर्द धरेजा
होई का हैं बिधि के गरिऔले से चूसि अंगूठा के पीर हरेजा
आंसुन के भितरावा गलावा अ पाथर संगे ई जुद्ध लरेजा

(घ)

भूखि के राज में मट्टी पियासल फाटल देहिं अंगौछा से ढांपे
धोती क गाँठ गड़े करियाहिं लिलार क रेख अकासे में कांपे
सपनन में दुलराय जगावे अ आँखिन आगि के ताकत नापे
बूढ़ भई ई जमीन अगोरति अस्सिल बीरन आय मिलापे

(ङ)

जेठ के मासे निचाट निदाघ में होठ के ऊपर की पपरी सी
आगि बवंडर पानी क झार के बीचहिं घूम रही चकरी सी
मरि-मरि जीवति आस बटोरती सप्न सजावति जो भंवरी सी
ऊ अँखियाँ तकलीफ के जाल के भीतर देखऽ मरी मछरी सी

(च)

ई बिजुरी चमकावति दुःख ई बादर तोप बनूक चलाई
रोपत रोवत देहिं गलै औ कभू न मिलै तिन सेर रोपाई
धाने के खेत क टूटल मेंड पे कर्ज के खारिज दाखिल माई
देसे के दीया फतिंगा मजूर क पांख जरै करपूर की नाई

(छ)

सांस के आंच परान में बोवै बिरान में रोवै घरे में कलंदर
मूंडी चोराय के आँचर भीतर सुलगत अफनत अंदर अंदर
नेह के बाति पे ताके अकास ज क्रोध करीं त चुपाय भयंकर
का वही देस बसैं हतियार जो खींचेलें सत्त मशीन के मंतर

(ज)

परिवार के आरर डार सखी नहिं डारो कभी निज सप्न के झूला
रैम्प अ मॉडल, कैम्प-सिपाही, त आधी मजूरी अ चोख त्रिशूला
फांसी अ गोली अ डॉक्टर वैद स हाथ मिलाय करैं निरमूला
ई नगरी बिच प्रेम करै जे ते खरहा के सींघ आकासे क फूला

(झ)

सांवर-सांवर आँखि बड़ी-बड़ि चोटी क फीता क रंग सोहाला
ई दुनिया के अन्हारे के बीच में तारा क पांति उ दांत बुझाला
नान्ह क मुट्ठी में जांगर रोपि ज आंखिन में अनबूझ देखाला
ई धरती ह टिकी तोहरे बल बाकी त देस पाताले के जाला

(ञ)

माटी में खेलत खात नहात ई माटी क नेह ह माटी क लीला
माटी क फूल अकास पताल भ धूरि के बादर से मन गीला
माटी के नद्दी में माटी क नाव ह माटी क सुग्गा क बोल रसीला
प्लास्टिक पन्नी के राज गली कभो माटी के राज होई अलबीला

Friday, September 28, 2012

मैं इस सोने की मरी हुई चिड़िया को बेचकर चला जाऊंगा

विमल कुमार का एक इंटरव्यू आपने आज सुबह यहाँ पढ़ा होगा. अब पढ़िए उनकी एक चर्चित कविता –

मैं इस देश को बेचकर चला जाऊंगा

विमल कुमार

सोने की इस मरी हुई चिड़िया को
बेच कर चला जाऊंगा....
तुम देखते रह जाओ
मैं नदी नाले तालाब
शेरशाह सूरी की ग्रांड ट्रंक रोड
नगर निगम की कार पार्किग
चांदनी चौक के फव्वारे
सब कुछ बेच कर चला जाऊंगा

मैं चला जाऊंगा बेचकर
अपने गांव की जमीन जायदाद खेत खलिहान
दुकानों, यहां तक कि अपने पूर्वजों के निशान
सब कुछ बेच कर चला जाऊंगा एक दिन
तुम देखते रहना बस चुपचाप

तंग आ गया हूं
इस देश की बढ़ती गरीबी से
परेशान हो गया हूं
नित्य नये घोटाले से

मेरी नींद जाती रही
जाता रहा मेरा चैन
इसलिए मैंने तय कर लिया है
अपने घर का सारा सामान पैक कर चला जाऊंगा
पर जाने से पहले
इस देश को पूरी तरह बेचकर जाऊंगा

मैं ठहरा एक ईमानदार आदमी
नहीं तो बेच देता मैं अब तक कुतुबमीनार
अगर मिल जाता मुझे कोई खरीददार
बेच देता चार‌मीनार
इंडिया गेट, चंडीगढ़ का रॉक गार्डन, मैसूर का पैलेस
आखिर इन चीजों से हमें मिलता ही क्या है
नहीं होता अगर इनसे कोई उत्पादन
नहीं बढ़ता जी.डी.पी.
नहीं घटती मुद्रास्‍फीति
तो बेच ही देना चाहिए
बाबा फरीद और बुल्ले शाह के गीत
बहादुर जफ़र का उजड़ा दयार, टीपू की तलवार

मैं धर्मनिरपेक्ष हूं
नहीं तो कब का बेच देता
अमृतसर का स्वर्ण मंदिर
बाबरी मस्‍जिद जो ढहा दी गयी
पुरी या कोर्णाक का मंदिर
सोमनाथ या काशी विश्‍‍वनाथ का मंदिर

लेकिन नहीं बेचा अब तक
पर मैंने सोच लिया है
अगर तुम लोग करोगे मुझे नाहक परेशान
छालोगे कीचड़ मेरी पगड़ी पर
तो मैं इस देश की आत्मा को ही बेच कर चला जाऊंगा

है इस देश में इतना भ्रष्‍‍‍टाचार
तो मैं क्या करूं
है इस देश में इतना कुपोषण
तो मैं क्या करूं
है इस देश में इतना शोषण
तो मैं क्या करूं

अधिक से अधिक एफ.डी.आई. ही तो ला सकता हूं
बेच सकता हूं भोपाल का बड़ा ताल
नर्मदा नदी पर बांध
पटना का गोलघर
लहेरिया सराय में अशोक की लाट
कन्या कुमारी में विवेकानन्द रॉक
बंकिम की दुर्गेशनन्‍दिनी
टैगोर का डाकघर
वल्लोत्तोल की मूर्ति
बैलूर मठ
दीवाने ग़ालिब

अगर इन चीजों के बेचने से बढ़े विदेशी मुद्रा भंडार
तो हर्ज क्या है
बताओ, इस मुल्क के रोग का मर्ज क्या है

क्या हर्ज है
यक्षिणी की मूर्ति बेचने में
कालिदास को बेचने में
भवभूति के नाटकों को बेचने में
हीर रांझा और सोहनी महिवाल
और देवदास को बेचने में

मैं इस देश को उबारने में लगा हूं
संकट की इस घड़ी में
जब अर्थव्यवस्‍था पिघल रही है
पर तुम समझते ही नहीं
लेकिन तुम फौरन बयां देते हो मेरे खिलाफ
मैं तो इस देश के भले के लिये ही
इस देश को बेच रहा हूं

अपने मौहल्ले में पान की गुमटी
किराना स्टोर को बेच दिया
बेच रहा हूं कोयले की खान
स्टील के प्लांट
कपड़ें की मिल
ताकि तुम्हारे बच्‍चे कुछ लिख पढ़ सकें
ताकि तुम्हारी दवा दारू का हो सके इंतजाम

न करो तुम इस तरह आत्महत्याएं
पर तुम कहते हो कि मैं नयी ईस्ट इंडिया कम्पनी ला रहा हूं
देश को गुलाम बना रहा हूं
आजादी का ये जज्बा ही है कि मैं बेच रहा हूं
क्योंकि आजादी से हमें नहीं मिली आजादी दरअसल
सचमुच, मैं तुम्हारे तर्क, विरोध, प्रर्दशन
जुलूस धरने और जल सत्याग्रह से अज़िज आ गया हूं
78 साल की उम्र में पेस मेकर लगा कर चल रहा हूं
डायबटिज का मरीज हो गया हूं
चश्मे का नम्बर बढ़ता जा रहा हर साल
घुटने होते जा रहे मेरे खराब

मेरा क्या है
अगर तुम लोग मुझे रहने नहीं दोगे
अपने देश में
तो मैं वहीं चला जाऊंगा
जहां से आया हूं सेवानिवृत होकर

तुम लोग ही भूखे मरोगे
सोच लो
मुझे अपने जाने से ज्यादा चिंता है तुम्हारी
इसलिए
पहले आओ पहले पाओ के आधार पर
मैं पहले आर्यवर्त
फिर भारत को बेचकर चला जाऊंगा
देखता हूं तुम लोग कैसे रहते हो इंडिया में

तुम लोग पड़े रहो इस गटर में जहलत में
जब तक तुम्हारी टूटेगी नींद
जागोगे मेरे खिलाफ
लामबंद होगे
मैं इस सोने की मरी हुई चिड़िया को बेचकर चला जाऊंगा
दूर बहुत दूर ....

यूसुफ़ कार्श के पोर्ट्रेट


आर्मीनियाई - कनाडाई मूल के फ़ोटोग्राफ़र यूसुफ़ कार्श (२३ दिसंबर १९०८ – १३ जुलाई २००२) को संसार के सर्वकालीन महानतम पोर्ट्रेट फोटोग्राफरों में गिना जाता है. देखिये उनके खींचे कुछ पोर्ट्रेट -

हॉलीवुड की अदाकारा ऑड्रे हैपबर्न
अलबर्ट आइन्स्टाइन
विंस्टन चर्चिल
हम्फ्री बोगार्ट
चित्रकार जॉर्ज ब्राक

तुलसी रमण की कवितायेँ - ३


तुम रहो यूँ ही

डाल-डाल
टहनी- टहनी चढ़ता रहूँ बार-बार

मेरे भीतर उगे
इस बरास के तने को
अपनी बाहों में पूरा समेट
डबडबाई आँखों
भीनी मुस्कान के साथ
तुम झुणक देती रहो
मेरे खिले फूल को
उसी ज़मीन पर उतारने के लिए ...

चाहकर भी झपटी नहीं तुम
इस फूल की ओर
बस पीती रहो
तल्लीन
इसके भीतर महकता पराग
नापती रहो
आदमकद आईना
बार-बार ...
तुमसे मैने
और चाहा भी क्या है?
आखिर कोई
दे भी क्या सकता है
किसी को
महज़ अपने होने के सिवा

बस
तुम रहो ज़रा यों ही
मैं कहता चलूं
कविता...

(बरास -  बुरांश का वृक्ष, झुणक देना - पेड़ को खूब हिलाना)

बच्चा - १

मेरे तुम्हारे बीच

सृष्टि की

एक किलकारी

बच्चा - २

माँ की गोद में
दूध की धार में लीन
धार टूट जाने पर
पीटता माँ का वक्ष
गाची  में बंधा
मां की पीठ पर सवार
कंधों से झूलता
वेणी से खेलता
दुनिया के खेल
माँ के हाथों की
उंगलियाँ मरोड़ता
गिनता
संसार की संख्याएं
माँ का हाथ लिए
जग के विस्तार में
बढ़ाने लगता अपना दूसरा हाथ
देखती रहती
माँ की आँख
पिघलता जाता
उसका अंतर

(गाची - कमर में बांधा जाने वाला वस्त्र )

बच्चा - ३

खा रहा रोटी
गा रहा
जाड़े की लम्बी रातों
बाबा से सुना गीत

कर रहा शौच
पत्थरों से खेलता
मिट्टी पर खींचता रेखाचित्र
अब वह
जाने लगा स्कूल
देख आता है
फूड इंस्पैक्टर के
बच्चे की पैंट
और उसके टिफिन में
ऑमलेट
वह खाता नहीं है रोटी
अब गाता नहीं गीत
खेलता नहीं पत्थरों से

विमल कुमार का एक ज़रूरी साक्षात्कार


९ दिसंबर १९६० को बिहार की राजधानी पटना में जन्में और पिछले पच्चीस वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय विमल कुमार के चार कविता संग्रह- ''सपने में एक औरत से बातचीत'', ''यह मुखौटा किसका है'', ''पानी का दुखड़ा'' और ''बेचैनी का सबब'' छप चुके हैं. उनका एक कहानी संग्रह ‘कॉल गर्ल’ भी छपा है. उनकी पुस्तक ‘चोर पुराण’ काफी चर्चित रही. पत्रकारिता लेखन की पुस्तक ‘सत्ता, बाजार और संस्कृति’ ने भी लोगों का ध्यान खींचा. फिलहाल वे यूएनआई, दिल्ली की हिंदी सेवा में विशेष संवाददाता हैं. उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं. विमल कुमार से भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह ने विस्तार से बातचीत की. पेश है इंटरव्यू के कुछ अंश. यहां इंटरव्यू को सवाल-जवाब के तौर पर नहीं दिया जा रहा है. विमल कुमार जो कुछ बोलते गए, उसे उसी क्रम में दिया जा रहा है, बिना सवाल के, ताकि पढ़ने में फ्लो बना रहे और कोई अवरोध या औपचारिकता न उपजे...


मैं बिहार की राजधानी पटना से 1982 में ही दिल्ली आया था। उस समय पटना का इतना विस्तार नहीं हुआ था और तब लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान का उतना बड़ा व्यक्तित्व नहीं बना था, जितना आज दिखाई देता है। हम लोग मूलतः बक्सर जिले के गंगाढ़ी गांव के रहने वाले थे, पर मेरा परिवार, जो संयुक्त परिवार था, पटना में ही रहता था। मेरे पिता जी गुलजार बाग प्रेस में काम करते थे। बाद में वह बिहार राज्य विद्युत बोर्ड में क्लर्क के रूप में काम करने लगे और वहीं से क्लर्क के रूप में ही रिटायर भी हुए। मां तो मुश्किल से आठवीं पास होगी। घर में बुनियादी चीजों का भी अभाव था, मसलन कुर्सी, पंखा आदि का भी। मेरी एक बहन और एक छोटा भाई है। दोनों चाचा का परिवार साथ था लेकिन धीरे-धीरे वक्त के दबाव में संयुक्त परिवार टूटता चला गया। पत्रकारिता की नौकरी में आने के बाद पटना में ही मेरी शादी हुई। पत्नी बिहार के सम्मानित परिवार की पुत्री हैं। उनके पिता और दादा अत्यंत संस्कारवान और विद्वान थे, जिन्हें आज हिंदी का हर लेखक जानता है, जिसे साहित्य और पत्रकारिता का थोड़ा इतिहास मालूम है। बहरहाल, सातवीं आठवीं कक्षा से ही मेरी साहित्य में रुचि थी। जेपी आंदोलन शुरू हुआ तो मैंने जेपी पर एक कविता लिखी और डाक से उन्हें भेज दी। जेपी का पत्र आया और उन्होंने मेरे जैसे स्कूली छात्र से मिलने की इच्छा व्यक्त की। उस पत्र की प्रेरणा से मेरे भीतर सामाजिक परिवर्तन की बेचैनी ओर कुलबुलाहट पैदा हुई जिसे मैंने अपने लेखन में व्यक्त करने की कोशिश की। मैं नहीं जानता कि मैं कितना व्यक्त कर पाया हूं। हालांकि यह अजीब विडंबना है कि मैं खुद अपने को भी बदल नहीं सका, सामाजिक परिवर्तन की बात तो दूर और मेरे लिखे से मुझे ही आज तक संतोष नहीं हुआ।

शुरू से ही पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें पढ़ने का शौक था, बचपन से ही। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान और रविवार पढ़ता था। सारिका और पराग भी प्रिय पत्रिकाएं थीं, तब लघु पत्रिकाओं के संपर्क में नहीं था। पर अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय का मन-मस्तिष्क पर असर था। गणेश शंकर विद्यार्थी, निराला, प्रेमचंद, प्रसाद, जैनेंद्र, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी का प्रभाव कहीं मन पर था। यूं तो माता-पिता ने अच्छी नौकरी करने के लिए, आई.ए.एस आदि की परीक्षा की तैयारियों के लिए ही दिल्ली भेजा। दिल्ली आकर राजनीति विज्ञान का छात्र बन गया। चाहता था कि जे.एन.यू से हिंदी में एम.ए. करूं, पर वहां दाखिला नहीं हो सका। मैनेजर पांडेय जी ने मुझे इंटरव्यू में छांट दिया जबकि बाद में उन्होंने मेरी पुस्तक ‘चोर पुराण’ का लोकार्पण भी किया। लेकिन मेरा मन कविता-कहानी में अधिक रमता था। दो वर्ष के भीतर ही मैं हरियाणा की एक पत्रिका ‘पींग’ में काम करने लगा। 1984 के दिसंबर से मैंने पत्रकारिता को अपना कैरियर बना लिया। दरअसल मैं तब पांच सौ रुपये पिता से मंगवाता था और उनकी तब तनख्वाह 1200 सौ के आसपास थी। मुझे लगता था कि पैसे मांगकर मैं उनके साथ ज्यादती कर रहा हूं। अतः मैंने 800 रुपये की नौकरी ‘पींग’ में शुरू कर ली और उन्हें बताया भी नहीं क्योंकि मेरे पिता नाराज हो जाते। वह चाहते थे कि मैं कोई अफसर बनूं, जैसा हर पिता चाहता है। दरअसल राजनीति विभाग के छात्र के रूप में प्रो. रणधीर सिंह के मार्क्सवादी विचारों ने मुझे प्रभावित किया। मुझे लगा कि नौकरशाही में नहीं जाना चाहिए।

टाइम्स ऑफ इंडिया का तब स्तर था। शामलाल जैसे पत्रकार का स्तंभ उसमें छपता था। बाद में जाना कि उनकी पुत्री नीना व्यास हिंदू में संवाददाता हैं। हालांकि मैं तब यह नहीं जानता था कि मीडिया का इतना पतन हो जाएगा और वह भी सत्ता-विमर्श का एक हिस्सा बन जाएगा। तब कारपोरेट मीडिया इतना ताकतवर नहीं था और चैनलों का आगमन नहीं हुआ था। टाइम्स आफ इंडिया और अन्य अखबारों का चरित्र नहीं बदला था। इंडियन एक्सप्रेस ने जेपी आंदोलन के दौरान साहसिक भूमिका निभाई थी, पर बाद में उसका चरित्र भी बदल गया। उस समय अरुण शौरी नए जर्नलिस्ट हीरो के रूप में उभर रहे थे, पर बाद में उनका पतन भी भाजपा के मंत्री के रूप में देखने को मिला। रघुवीर सहाय के 60 वर्ष पूरे होने पर दिनमान टाइम्स में मैंने एक लेख भी लिखा था। स्टेट्समैन में एम. सहाय आदर्श थे। दिनमान में रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर जी थे और नवभारत टाइम्स में अज्ञेय जी थे। रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर जी और अज्ञेय जी से दो बार मिलना भी हुआ। मेरे कवि-मित्र राजेंद्र उपाध्याय एक बार अज्ञेय जी के घर मुझे ले गए। वे कुछ नए कवियों से मिलना चाहते थे। अजंता देव भी साथ में थीं, जो कृष्ण कल्पित की पत्नी बनीं बाद में। एक बार श्रीराम वर्मा जी के साथ भी अज्ञेय जी के घर गया था। वहां अज्ञेय जी ने दोपहर का भोजन करवाया था। उन्होंने अपने हाथों से व्यंजन परोसे। वह एक सुखद स्मृति मेरे मन में है। तब हमलोग अज्ञेय जी के फैन थे। शेखर एक जीवनी जादू की तरह था। कितनी नावों में कितनी बार, हरी घास पर क्षण भर, इत्यलम्, नदी की बांक पर छाया पुस्तकें पढ़ चुका था। रघुवीर सहाय की सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध और सर्वेश्वर जी की कुआनो नदी ने प्रभावित किया। 1986 से मैं यूएनआई की हिंदी सेवा में आ गया। मैंने नवभारत टाइम्स में भी आवेदन दिया था और जनसत्ता में भी, पर मेरा चयन वहां नहीं हुआ। नवभारत में उर्मिलेश और नीलाभ मिश्र ने भी आवेदन किया था, दोनों का चयन हुआ। आज उर्मिलेश राज्यसभा टीवी में संपादक हैं, नीलाभ मिश्र आउटलुक हिंदी के संपादक हैं- दोनों मुझसे आज भी योग्य हैं।

मैं मूलतः कवि था। विष्णु नागर से मेरा परिचय मेरे पत्रकार‘-कवि मित्र अमिताभ ने कराया और तभी इब्बार रब्बी, मंगलेश डबराल, मधुसूदन आनंद, असद जैदी से परिचय हुआ। मेरी आरंभिक कविताओं के छपने में उन्होंने मेरी मदद की। एसपी सिंह उन दिनों नवभारत टाइम्स आ गए थे, पर मैं उनकी प्रतिभा से कभी आकृष्ट नहीं हुआ, सो मैं कभी उनसे मिला ही नहीं। एक-दो बार उनके चैंबर में भी गया पर मिला नहीं। मेरा सहपाठी मुकुल शर्मा उन दिनों नवभारत टाइम्स में काम करता था। यूनीवार्ता में वर्षों तक मेरे भीतर आत्मविश्वास की कमी थी। मैं डेस्क पर ही था, पर कभी कहीं रिपोर्टिंग करने जाता तो घबरा जाता था। समझ में नहीं आता कि कैसे खबर लिखूं, पर धीरे-धीरे यह कला भी आ गई और आत्मविश्वास भी। कस्बे में रहने वाला आदमी कभी यह नहीं सोचता कि वह किसी दिन कैबिनेट मंत्री को फोन कर बात भी कर सकता है। लेकिन किसी भी प्रकार की सत्ता का कोई आकर्षण शुरू से नहीं था, अगर था तो बस साहित्य की सत्ता के प्रति आकर्षण था, पर बाद में वह भी बेमानी और व्यर्थ ही लगा। मुझे फूको का वह कथन अक्सर याद आता है जिसमें वह हर चीज को पावर डिस्कोर्स के दृष्टिकोण से देखने की बात करता है। मुझे लगता है कि आज संसार में हर चीज एक सत्ता विमर्श में शामिल है, चाहे वह यौनिकता की, सौंदर्य की सत्ता क्यों न हो, पर लोकसत्ता का क्षरण पूरी दुनिया में होता गया। अन्ना आंदोलन, जेपी आंदोलन, गांधी जी के आंदोलन ने इसी लोकसत्ता को प्रतिष्ठित किया।

मीडिया का भी यही काम है, हाशिए को मुख्यधारा में लाना और उसकी सत्ता को पहचानना, पर बाजार और भूमंडलीकरण के बाद मीडिया सत्ता विमर्श का हिस्सा बन गयी। उसमें शब्दों की गरिमा जाती रही और अर्थ खोता गया। अज्ञेय जी ने शब्दों की गरिमा को बचाए रखा। रघुवीर सहाय ने जनता की संवेदना को बचाए रखा। राजेंद्र माथुर ने संपादक पद की गरिमा को बचाए रखा, पर बाद में यह सब ध्वस्त हो गया। एस.पी. ने तो रविवार की पत्रकारिता के माध्यम से सत्ता गलियारा का रास्ता दिखाया। वह संतोष भारतीय और उदयन शर्मा की तरह चुनाव तो नहीं लड़े, पर अपनी शादी के रिसेप्शन में आठ राज्यों के मुख्यमंत्री को बुलाकर अपना शक्ति प्रदर्शन किया। यहां तक कि धर्मवीर भारती ने भी यह काम नहीं किया। वे संतोष भारतीय की तरह विश्वनाथ प्रताप सिंह के आगे पीछे नहीं करते थे, पर उस वक्त वी.पी. सिंह ने मंडल की राजनीति कर भारतीय राजनीति के सवर्ण चेहरे को बदल दिया। एस.पी. समाजवादी मूल्यों और सामाजिक न्याय के पक्षधर थे, इसलिए मैं उन्हें संघी पत्रकारों से बेहतर मानता हूं, पर उनमें वह प्रतिभा नहीं थी जो राजकिशोर में है। उनका साहित्य और संस्कृति ज्ञान भी सीमित था। इसलिए नवभारत टाइम्स के लेखक-पत्रकारों से उनकी कभी नहीं बनी। उन्होंने कम विवेकवान और भक्त शिष्यों की फौज खड़ी की, जिनमें से कई आज चैनलों के हेड बन गए हैं। एस.पी. एक सफल पत्रकार थे। सफल इस मायने में कि नेताओं के सीधे संपर्क में थे। जबकि कई लेखक-पत्रकार नेताओं से दूरी बनाकर रखते थे। एस.पी. की फौज में विचारवान पत्रकार कम थे। एस.पी. सूट, टाई और पालिश्ड शू पहनने वाले पत्रकार थे जो सिगार भी पीते थे। वह अंग्रेजी के पत्रकारों की तरह नजर आते थे, इसलिए नए पत्रकारों में उनके प्रति विशेष आकर्षण था।

राजेंद्र माथुर में यह सब बात नहीं थी। वह एक धीर-गंभीर पत्रकार थे जो इतिहास और राजनीति में गहरी अकादमिक रुचि रखते थे। उनकी भाषा भी बहुत अच्छी थी। वह एक रुपक बनाते थे अपने लेखों में। दरअसल वह नेहरूवादी थे, उनका प्रभाष जोशी की तरह हिंदूवादी रूझान नहीं था। प्रभाष जोशी की भाषा में एक अजीब ऊर्जा, साहस और बेबाकी थी, पर वह माथुर साहब में नहीं थी, लेकिन प्रभाष जी कई बार अनावश्यक आक्रामक भी लिखते थे। उनमें कहीं कहीं फासीवादी आक्रामकता भी थी, पर बाबरी मस्जिद के बाद उनके लेखन में बदलाव आया। वह संघ परिवार के एक आलोचक बन गए। उन्होंने जितना प्रहार संघ पर किया वैसा अंग्रेजी में भी किसी ने नहीं किया और प्रभाष जी की तरह बेबाक, बेधड़क लेखन तो किसी अंग्रेजी पत्रिका ने नहीं किया। उनका कद किसी भी अंग्रेजी पत्रकार-संपादक से कम नहीं था। उन्होंने हिंदी गद्य को एक नया आयाम दिया। अंग्रेजी में भी उनके जैसा कोई पत्रकार नहीं हुआ। राजकिशोर, विष्णु नागर, सुधीश पचौरी, रमेश दवे आदि ने भी हिंदी पत्रकारिता को नया विमर्श दिया। उसके बाद कुछ अन्य पत्रकारों ने मसलन, रामशरण जोशी, भरत डोगरा, अभय कुमार दूबे, आनंद प्रधान, अनिल चमड़िया, रामसुजान अमर, सुभाष गताड़े, राजेंद्र शर्मा, अरविंद मोहन, दिलीप मंडल, प्रियदर्शन, सत्येंद्र रंजन, आलोक पुराणिक, अरुण कुमार त्रिपाठी ने भी धार दी। इसके अलावा कई अन्य लेखकों ने भी हिंदी में अच्छी टिप्पणियां लिखीं, पर वे लिखते कम हैं, उनमें गिरधर राठी, विष्णु खरे, प्रयाग शुक्ल, अपूर्वानंद, प्रेमपाल शर्मा, अजेय कुमार, अजय तिवारी जैसे अनेक लोग हैं जो बीच-बीच में हस्तक्षेप करते रहे।

दरअसल, हिंदी के पत्रकारों की ब्रांडिंग नहीं होती। अंग्रेजी के पत्रकारों में चमक-दमक और प्रदर्शन अधिक होते हैं। उसे राजनेता तथा नौकरशाह पढ़ते हैं, कारपोरेटों के लोग पढ़ते हैं। पर उसमें अधिक दम-खम नहीं होता है। प्रभु चावला, शेखर गुप्ता, राजदीप सरदेसाई, अर्णव गोस्वामी, सागरिका घोष, बरखा दत्त धीरे-धीरे ब्रांड बन गए। पर आज उषा राय जैसे पत्रकारों की पूछ नहीं है। टी.वी. पत्रकारों में भी दीपक चौरसिया, आशुतोष जैसे पत्रकार रोल माडॅल बने, पर रवीश और पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसी उनकी दृष्टि नहीं है। टी.वी. पत्रकारों में ज्ञान और पढ़ाई कम है। उन्हें अपने इतिहास, संस्कृति, समाजशास्त्र और सभ्यता की कोई जानकारी नहीं है। उनके पास कोई दृष्टि भी नहीं है। वे सफल होना और दिखना चाहते हैं। उनमें कोई इतिहासबोध ही नहीं है। वे मिहनती हैं, उनके पास सूचनाएं भी होती हैं, पर वे ‘आत्ममुग्ध’ अधिक हैं। वे खबरों को बेचते हैं और खुद को भी बेचते हैं। मैंने उन पत्रकारों को संसद के भीतर और बाहर करीब से देखा है। वे नेताओं को ‘सर-सर’ कहते हैं। हमारे यहां भी एक पत्रकार एक अपराधी नेता को कहते थे- सर, मेरे लिए कोई सेवा। बाद में वह एक राज्य में कांग्रेस के प्रवक्ता बन गए । कई पत्रकार तो मुख्यमंत्री के पी.आर.ओ. बन गए। कई पीए और स्टाफ में शामिल हो गए। किसी ने नेताओं के साथ विमान यात्रा की तो लगा कि वे कुछ और ऊपर हो गए। जर्नादन द्विवेदी पर किसी पत्रकार ने जूता फेंका तो कांग्रेस कवर करने वाले पत्रकारों ने उसकी जमकर धुनाई की। पत्रकार का काम कानून हाथ में लेना नहीं है। उसे लिखकर विरोध करना चाहिए, पर यह तो सरासर चाटुकारिता है। मुझे यह सब देखकर बहुत निराशा हुई। विदेश यात्रा की लिए मारामारी। संपादकों की चाटुकारिता या संपादक का ब्रांड मैनेजर हो जाना और मालिकों की चरणवंदना में लगे रहना आज की पत्रकारिता की पहचान बन गई है। क्या अंग्रेजी और क्या हिंदी! अब तो पेड न्यूज और राडिया प्रसंग भी सामने आ चुका है।

शायद यही कारण है कि देरिदा, एडवर्ड सईद और अहमद नदीम कासमी, अख्तर उल ईमान के मरने की खबर भी वो नहीं देते, या कोने में एक फिलर भी नहीं देते। वे रामशरण शर्मा और रोमिला थापर के महत्व को ही नहीं जानते। आंद्रे वेते, ए आर. देसाई, श्रीवासन, शाहीद अमीन, पार्थ चटर्जी को नहीं जानते। हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता मुख्य रूप से राजनीति, फिल्म और खेल में फंसी है। किसान आत्महत्या की खबरें भी प्रमुखता से नहीं देतीं। पी. साईनाथ ने दस महीने बाद हिंदू में डेढ़ लाख किसानों के मरने की खबर दी, एजेंसी ने जब खबर दी तो किसी ने नहीं छापी। जिस दिन राज्य सभा में शरद पवार ने डेढ़ लाख किसानों के मरने की खबर सुनाई तो प्रेस गैलरी में मैं भी था। समय 7 बजे का था पूरा प्रेस गैलरी खाली! आमतौर पर पत्रकार शाम होते ही चले जाते हैं, बशर्तें कोई महत्वपूर्ण सनसनीखेज मुद्दा न हो।

संसद की खबरें भी अब कम छपती हैं। प्रश्नोत्तर की खबरें छपनी लगभग कम हो गई हैं। केवल हंगामा, विवाद और बॉयकाट ही खबर है। कई महत्वपूर्ण बिल के पास होने की खबर नहीं छपती। अब पत्रकारिता का नारा है- जो बिके वही खबर। टी.आर.पी यानी मध्यवर्ग का खेल। अन्ना आंदोलन मध्यवर्ग से जुड़ा था, इसलिए टी.वी. ने दिखाया, अन्यथा किसानों की आत्महत्या वे नहीं दिखाते और अगर दिखाते तो पिपली लाइव की तरह। चैनल को नाटकीयता रोमांच और जिज्ञासा अधिक पसंद है। विचार गायब है। वह मुकाबले और प्रतिद्वंद्विता में अधिक यकीन करता है। पत्रकारिता की भाषा और शब्दावली भी बदल गई है, पर कई बार चैनल अच्छा भी करते हैं, लेकिन आज वो अन्ना को दिखाएंगे तो कल राखी सांवत और मल्लिका सेहरावत या मलाइका अरोड़ा को भी। उनके लिए सब बेचने और खरीदने का व्यापार है। अन्ना के आंदोलन में उनकी भूमिका सही थी। दरअसल जनता का इतना दबाव था कि वे उसे नकार नहीं सकते थे। वे नहीं दिखाते तो बुरी तरह पीट जाते। उनकी विश्वसनीयता का काफी संकट था। पर यह भी सच है कि अगर आज मीडिया नहीं होता तो इतने घोटाले सामने नहीं आते, सत्ता की पोल नहीं खुलती, राजनेताओं का पर्दाफाश नहीं होता, पर दूसरी ओर कारपोरेट का पर्दाफाश नहीं होता क्येंकि मीडिया में कारपोरेट की पूंजी लगी है।

मुझे मीडिया में खुशी तब हुई जब मैंने किसी कमजोर आदमी की खबर दी और वह छपी तो बहुत अधिक प्रसन्नता हुई। राहुल, सोनिया, पीएम, लालू, सचिन, अमिताभ की खबर के छपने से क्या खुशी! लेकिन हाशिए के लोग मीडिया में पूछे नहीं जाते। एक भेड़चाल भी है मीडिया। उसके पास अपना विवेक नहीं है। वह रुढ़िवादी और परंपरावादी अधिक है। एक ओर सैकड़ों महत्वपूर्ण खबरें नहीं छपीं तो दूसरी ओर सैकड़ों फालतू खबरें मुखपृष्ठ पर जगह पा गईं। एक असंतुलन सभी अखबारों में दिखाई देता है। बाजार का दबाव अधिक काम कर रहा है। हिंदू अपेक्षाकृत श्रेष्ठ अखबार है। इंडियन एक्सप्रेस की स्टोरी आम अंग्रेजी अखबारों से अच्छी होती है। टाइम्स और हिंदुस्तान टाइम्स का पतन अधिक हुआ है। हिंदी में जनसत्ता और भास्कर अपेक्षाकृत ठीक है, पर उनकी कई सीमाएं हैं। पत्रकारिता में जो नए लोग आते हैं, वे दोषी नहीं होते। दोष तो इस व्यवस्था का है। कई पत्रकारों ने कई लोगों का नाम तक नहीं सुन रखा है। पढ़ानेवाले भी अब फील्ड के पत्रकार नहीं हैं। दिल्ली में मधुबाला इंस्ट्टीयूट ऑफ जनर्लिज्म भी है, वहां की कुछ लड़कियां हमारे दफ्तर में आईं तो मैंने उनसे पूछा- तुमलोग बाद में क्या करोगी, तो उसने कहा- मैं भी देवानंद इंस्ट्टीयूट ऑफ जर्नलिज्म खोल दूंगी। मैंने उनसे जाना कि मधुबाला नाम तो उस संस्थान की प्रमुख का नाम है। मधुबाला हिरोइन से कोई लेना देना नहीं। निजी संस्थानों के नाम पर इसी तरह की रद्दी संस्थाएं सामने आई हैं। हर कोई पत्रकार-एंकर बनना चाहता है। दरअसल बेरोजगारी भी अधिक है। युवा क्या करें! सरकारी नौकरियां कम हैं, और वे पत्रकार पीस रहे हैं। लेबर कानून का पालन नहीं। वेज बोर्ड लागू नहीं। सेवा शर्तें मनमानी हैं। भीतरी शोषण काफी है। कोई यूनियन नहीं। अराजक माहौल है। इसके लिए भी सरकार दोषी है। वह मालिकों तथा एडीटरों को पटा कर रखती है। उन्हें पद या पुरस्कार दे देती है, राज्यसभा में भेज देती है। पत्रकारिता के भीतर चराग तले अंधेरा है। छोटे पत्रकार खुद ही शोषित हैं। पर सरकार औ राजनीतिक दल चुप बैठे हैं। उनकी दोस्ती और साठगांठ सीधे मालिक और संपादक से है, फिर भी ये मीडिया की स्वतंत्रता के हिमायती हैं। चौथा स्तंभ भले ही जर्जर हो गया है पर वह चेक एंड बैलेंस का काम कर रहा है। जनता की आवाज का एक मंच तो है।

अखबारों में किस तरह के संपादक हैं, हम अच्छी तरह जानते हैं। कोई राजकिशोर, विष्णु खरे, पंकज बिष्ट, उदय प्रकाश, आनंद स्वरूप वर्मा, पंकज सिंह, मंगलेश डबराल, नीलाभ अश्क आदि को संपादक नहीं बनाना चाहता, चैनल का हेड नहीं बनाना चाहता, क्योंकि वे बाजार के आलोचक हैं। इसलिए मालिकों को ऐसे संपादक चाहिए जो बाजार के मनमाफिक काम करे। शायद इसलिए सभी संपादक बौने हैं। कोई कांग्रेसी है तो कोई भाजपाई तो कोई अवसरवादी। संपादक पद की गरिमा अब नहीं। अखबारों को ब्रांड एंबेसडर चला रहे हैं। पर यह भी सच है कि कागज, छपाई, प्रस्तुति और समाचार संकलन में हिंदी के अखबारों में वृद्धि हुई है। यह भी कहा जाता है कि हिंदी में विभिन्न विषयों में लिखनेवाले लोग नहीं हैं। दरअसल हमारे संपादक लेखक पैदा नहीं करते। अब तो वे ब्रांड के पीछे भाग रहे हैं। सेलेब्रेटी को छाप रहे हैं। चेतन भगत भी हिंदी के अखबार में छप रहे हैं, राजदीप सरदेसाई भी- यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। जो अच्छा लिखते हैं, वे रेखांकित नहीं किए जाते। कई पत्रकार तो पर्दे के पीछे रह जाते हैं। एजेंसी में काम करनेवाले पत्रकारों को कोई नहीं जानता, जबकि कई पत्रकार उनकी खबरें रोज उड़ाते हैं और अपने बाईलाइन से खबरें देते हैं, यह तो हम वर्षों से देख रहे हैं। लखटकिया पुरस्कार और फैलोशिप भी उन्हें ही मिलती है। मैं ऐसे कई अच्छे स्वाभिमानी पत्रकारों को जानता हूं जो कभी फैलोशिप के लिए आवेदन नहीं करते, किसी पुरस्कार के लिए जुगाड़ नहीं करते। अंग्रेजी में हिंदू अखबार है, तो आप पी. साईनाथ बन सकते हैं, पर हिंदी के संपादकों को पी. साईनाथ की जरूरत नहीं है। हिंदी में छपो तो 500 रुपये, अंग्रेजी में दो हजार! अंग्रेजी में स्तंभकार का फोटो, हिंदी में नाम भी ठीक से नहीं! भाषाई गुलामी की मानसिकता अभी भी। मराठी, तमिल, तेलगु और उर्दू के पत्रकारों को तो कोई जानता ही नहीं। हिंदी कविता-कहानी और उपन्यास में काफी विकास हुआ है, पर हिंदी और अंग्रेजी मीडिया को अभी जानकारी ही नहीं।

आज हिदी में उदय प्रकाश, पंकज बिष्ट, स्वयं प्रकाश, असगर वजाहत, संजीव, अखिलेश, गीत चतुर्वेदी जैसे लेखक हैं, तो कविता में विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, आलोकधन्वा, अरुण कमल, ज्ञानेंद्रपति, इब्बार रब्बी, असद जैदी, कुमार अंबुज, देवी प्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्तव जैसे कवि हैं, तो अनामिका, गगन गिल, सविता सिंह, कात्यायनी जैसी कवयित्रियां हैं। बद्रीनारायण और पंकज राग जैसे युवा इतिहासकार भी हैं। मनीषा कुलश्रेष्ठ, वंदना राग, प्रत्यक्षा, नीलाक्षी सिंह जैसी युवा कहानीकार हैं तो मैत्रेयी पुष्पा, मृदुला गर्ग, राजी सेठ जैसी लेखिकाएं भी हैं, पर मीडिया के लोग इनका महत्व नहीं जानते। वे केवल नामवर सिंह, राजेंद्र यादव और अशोक वाजपेयी को जानते हैं। अंग्रेजी के पत्रकार तो ये भी नहीं जानते। हिंदी का लेखक भी विक्रम सेठ, अनिता देसाई, के. की.दारुवाला, अमिताभ घोष, हरिश त्रिवेदी, माला श्री लाल, सुकृता पॉल आदि को जानता है, पर अंग्रेजी के पत्रकारों को तो रामविलास शर्मा, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि की भी जानकारी नहीं। इसलिए यह कहना कि अंग्रेजी के पत्रकार श्रेष्ठ हैं, गलत हैं। वे प्रोफेशनल हैं, क्योंकि उनके संस्थान प्रोफेशनल हैं, पर कई बार उनकी भी कलई खुलती है, उनकी गहराई हमें भी मालूम है। फ्रंटलाइन को छोड़ दें, तो इंडिया टुडे, आउटलुक में कुछ भी खास नहीं होता। ईपीडब्ल्यू और मेनस्ट्रीम, सेमीनार जैसी पत्रिकाओं में काफी महत्वपूर्ण सामग्री रहती है। अंग्रेजी में पैकेजिंग और डिस्प्ले तथा पब्लिसिटी पर जोर अधिक है, फिर भी कुछ एंकर अच्छे हैं। अर्णव गोस्वामी और करन थापर बेहतर हैं। उनका बैकग्राउंड काम करता है। हिंदी का पत्रकार कस्बे से आता है, वह कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड से नहीं आता, पर उसके पास दृष्टि है, उसने यथार्थ को देखा है, पर बरखा दत्त के पास कोई दृष्टि नहीं है। या अगर है तो वही रुलिंग क्लास के पक्ष में है।

मुझे फिल्मों का भी शौक रहा। कुछ अंग्रेजी फिल्में देखी। बंदिनी, मदर इंडिया, तीसरी कसम, साहब बीबी और गुलाम, दो बीघा जमीन जैसी फिल्में मन-मस्तिष्क पर अब भी हैं, पर इनके साथ कुछ बाक्स ऑफिस पर हिट फिल्में भी मैं पसंद करता रहा- चाहे दीवार हो या डॉन या संगम हो या रब ने बना दी जोड़ी। सत्यजित रे का जलसाघर और मृणाल सेन का खंडहर मुझे पसंद है। विदेशी फिल्म निर्देशकों की कई फिल्में देखी हैं- कुरोसावा से लेकर वर्गमैन, फेलिनी, डीसीका, पर उनका मैं विशेषज्ञ या अधिकारी नहीं। उसके बारे में विष्णु खरे और विजयमोहन सिंह, विनोद भारद्वाज ज्यादा सही व्यक्ति हैं।

संगीत में सहगल, रफी, किशोर, तलत मेहमूद प्रिय हैं। रफी को सबसे बड़ा गायक मानता हूं। किशोर की रूमानियत पसंद है। शास्त्रीय संगीत ज्यादा नहीं, पर मास्टर मदन, अमीर खान, बड़े गुलाम अली खान, मल्लिकार्जुन मंसूर और भीमसेन जोशी प्रिय हैं। पंडित जसराज मुझे नहीं अच्छे लगे। राजन मिश्रा, साजन मिश्रा प्रिय हैं। ध्रुपद सुनना भी अच्छा लगता है, पर संगीत की तकनीकी जानकारी नहीं है। गौहर जान में मेरी दिलचस्पी है। समय मिला तो एक नॉवेल लिखना चाहूंगा। मुकेश गर्ग, मुकुंद लाठ, अशोक वाजपेयी, कुलदीप कुमार, ओम थानवी, गोविंद प्रसाद, मंगलेश डबराल को संगीत की ज्यादा जानकारी हैं, उन्हें लिखना चाहिए हमेशा। वे अंग्रेजी के समीक्षकों से अधिक अच्छा लिखते हैं। जनसत्ता को छोड़कर किसी हिंदी अखबार को संगीत, नृत्य समीक्षा में दिलचस्पी नहीं, अंग्रेजी में एकमात्र अखबार हिंदू है। एनएसडी की पत्रिका ‘रंग प्रसंग’ और ‘संगना’ ने कला की दुनिया में बेहतर अंक निकाले पर चैनलों, अखबारों नेे इस दिशा में कोई पहलकदमी नहीं ली। यह मानसिक दिवालियापन है मीडिया का। लेकिन यह भी सच है कि आम पाठक बहुत कुछ इस मीडिया से ही जान रहा है और उसी के आधार पर सही-गलत का फैसला कर रहा है तथा अपनी राय बना रहा है, पर जो लोग मीडिया की मुख्यधारा में दिखाई देते हैं, उनसे अलग दूसरी परंपरा भी मीडिया की है जो कहीं अधिक पढ़े-लिखे, संवेदनशील तथा ईमानदार एवं योग्य लोगों के बारे में बताता है, पर यह दुर्भाग्य है कि सो काल्ड मीडिया उनके बारे में नहीं जानता।

समाज और वक्त काफी बदला है। नरसिंह राव की नई आर्थिक नीति, जिसे आर्थिक सुधार कहते हैं, के बाद काफी बदलाव आया है। सूचना क्रांति ने भी समाज को पूरी तरह ऊपर से बदल दिया है, लेकिन भारत के गांव और दूरदराज आदिवासी इलाकों में बदलाव कम हुए हुए हैं। एक बार मैं छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी गांव में गया तो स्कूल के गरीब बच्चों ने सचिन और अमिताभ का नाम तक नहीं सुना था, पर महानगरों, राजधानियों और कस्बों में समृद्धि आई हुई है। भारतीय मध्यवर्ग काफी समृद्ध हुआ है। सबसे ज्यादा क्षरण संवेदना का हुआ है, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा का हुआ है। भावुक और संवेदनशील व्यक्ति असफल है। सफल वो है, जो ज्यादा धूर्त, चालाक और व्यावहारिक है। यह जीवन में हर रोज दिखाई देता है। इसलिए ईमानदार आदमी या तो बेवकूफ माना जाता है या पागल- यह हर क्षेत्र की कहानी है। साहित्य और पत्रकारिता में भी ऐसा ही है। जो अपने ज्ञान और उपलब्धियों को प्रदर्शित करता है, जो शामियाना लगाता है, नजर उसकी तरफ जाती है। जरूरत है, हाशिए पर पड़े लोगों को मुख्यधारा में लाया जाए और उन्हें न्याय दिलाया जाए। आदिवासी, दलित और पिछड़े काफी धकेल दिए गए हैं। हालांकि लोगों के जीवन स्तर में कुछ सुधार हुआ है। कागजों पर सरकार की योजनाएं काफी अच्छी हैं। सर्वशिक्षा अभियान, साक्षरता मिशन, मनरेगा, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना, सेल्फ हेल्प ग्रुप और बैंकों के विस्तार से भी कुछ बदलाव आया है, पर आज भारत का निर्माण कम इंडिया का निर्माण अधिक हुआ है, राष्ट्रनिर्माण तो खैर कम ही हुआ है। भाषा और संस्कृति के संबंधों के सवालों पर कोई राष्ट्रीय बहस नहीं है। संसद में मैंने कभी संस्कृति नीति या भाषा नीति, फिल्म या नृत्य या संगीत पर कोई बहस नहीं देखी। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया भी दारू क्लब ऑफ इंडिया है।

मैं 25 साल की कैरियर में कभी प्रेस क्लब का सदस्य नहीं बना, क्योंकि वहां कोई गंभीर, सृजनात्मक विचार-विमर्श नहीं है। वहां कभी इतिहासकार, समाजशास्त्रियों, राजनीति विज्ञानियों, लेखकों, रंगकर्मियों को नहीं बुलाया जाता है। हबीब तनवीर, अल्काजी का क्या योगदान है? रामशरण शर्मा, इरफान हबीब ने क्या काम किया अपने जीवन में, रजनी कोठारी या अचिन विनायक या मनोरंजन मोहंती क्या सोचते हैं? कुरतलैन हैदर क्या सोचती थीं या निर्मल वर्मा- कहीं कोई जिज्ञासा नहीं, प्रेस क्लब के लोगों में- इसमें अंग्रेजी के भी स्वयंभू पत्रकार हैं जो इंडिया टुडे, इंडियन एक्सप्रेस या बिजनेस टुडे में काम करके अपने को महान पत्रकार मानते हैं, पर उनमें इतिहासबोध, मानवीय संवेदना की जगह केवल प्रोफेशनलिज्म है जो अंततः एक तरह का अवसरवाद है, उसमें जनपक्षधरता या प्रतिबद्धता नहीं है।

महानगरों में अवसाद के क्षण काफी आए। दो-तीन वर्ष से अधिक। इसलिए ‘प्रेम’ और ‘मित्रता’ की उत्कंठा हुई पर बाजार और भूमंडलीकरण के युग में इन चीजों का महत्व नहीं रह गया है, कोई सच्चा मित्र नहीं मिलता, चाहे पुरुष हो या स्त्री। स्त्री से मित्रता में भी काफी पेंचोखम है। इगो और देह वहां एक दीवार की तरह है। विनम्रता, सरलता और निश्छलता का अभाव है। कभी किसी कविता, उपन्यास या कहानी पढ़ने से या किसी से मिलने से भी अवसाद के क्षण दूर हुए पर शाश्वत ऊर्जा नहीं मिली, फिर भी कुछ मित्रों ने समय-समय पर ऊर्जा दी, उनका शुक्रगुजार हूं, पर उनमें से कइयों से संबंध कटु हो गए। यह सब एक वक्त के दबाव का ही नतीजा है। व्यक्ति रूप में सभी अच्छे हैं, कुछ की सीमाएं हैं, कुछ का स्वभाव और कुछ की पसंद अलग है।

एक बात शेयर करना चाहूंगा- प्रेम के अभाव ने ही मुझे लिखने को प्रेरित किया। घर और दफ्तर सभी जगह प्रेम का अभाव। कटुताएं और आलोचना या विरोध इतना अधिक है कि क्या कहा जाए! यह भी संभव है कि मैं भी लोगों से प्यार नहीं कर सका। दो-तीन पुरुष लेखकों से जाने-अनजाने संबंध कटु हो गए, जिन्होंने मेरी कभी मदद की और दो महिला मित्रों से भी संबंध खराब हुए, जिनके कारण मैंने कई कविताएं, उपन्यास और कहानियां लिखीं। ये मेरे पीड़ादायक अनुभव हैं। इसके जख्म काफी गहरे हैं। मैं आज भी उन लोगों का सम्मान करता हूं और उन्हें स्नेह तथा प्यार देता हूं। किसी को आत्मीय बनाना चाहता हूं, पर नहीं बना पाता, तो अब मौन मौन प्रेम में ही यकीन करने लगा हूं। मैं एक सरल, सहज, पारदर्शी, निश्छल और ईमानदार व्यक्ति के रूप में ही याद रखा जाना चाहूंगा, जिसके भीतर गहरा प्रेम छिपा था। वह कई लोगों से मन में प्रेम करता था और उनका शुभचिंतक बना रहा जीवन भर। मेरे ख्याल से किसी का आजीवन शुभचिंतक बने रहना बड़ी बात है। मैं अपनी घृणा, क्रोध, काम, वासना, लालच, नफरत आदि भी लड़ता रहा। मेरा मानना है कि मनुष्य को पहले अपने आप से लड़ना चाहिए, फिर समाज से। जो व्यक्ति आत्मसंघर्ष नहीं कर सकता, वह सामाजिक संघर्ष नहीं कर सकता। इस दृष्टि से मुझे निराला, मुक्तिबोध और शमशेर पसंद हैं, अज्ञेय भी, जिनकी एक तरह की मुठभेड़ अपने आप से भी है।

मुझे कई कविताएं प्रिय हैं। निराला की बांधो न नाव इस ठांव बंधु, त्रिलोचन की चंपा काले-काले अच्छर नहीं पहचानती, नगई मेहरा, नागार्जुन की मंत्र, दिनकर की जेपी पर लिखी कविता, अज्ञेय की कई कविताएं, धूमिल की पटकथा, आलोकधन्वा की ब्रूनो की बेटियां, राजेश जोशी की मैं एक सिगरेट जलाता हूं, मंगलेश डबराल की कई कविताएं, वीरेन डंगवाल की राम सिंह, समोसा और जलेबी, विष्णु खरे की लालटेन, जो मार खाके रोई नहीं, विष्णु नागर का बाजा, असद जैदी की बहनें, देवीप्रसाद मिश्र की कई कविताएं, कुमार अंबुज की क्रूरता, रब्बी की अरहर की दाल, उदय प्रकाश की सुनो कारीगर, गिरधर राठी की लौटती किताब का बयान और रामदास का शेष जीवन, प्रयाग जी की कई कविताएं, अनामिका और सविता की कुछ कविताएं- मेरे पास एक लंबी सूची है। हां, गोरख पांडेय इस पूरे दौर के ऐसे कवि हैं, जिनकी कविताएं मुझे बेहद पसंद हैं, लेकिन विडंबना है कि उनके ही समकालीन स्वनामधन्य प्रगतिशील जनवादी कवियों ने उनकी उपेक्षा की। उनकी दसेक कविताएं तो हमेशा मेरे जेहन में रहती हैं। स्वर्ग से विदाई, समझदारों का गीत, अमीरों का कोरस, तुम्हारी आंखें, कैथरकलां की औरतें बेहद महत्वपूर्ण कविताएं हैं।

मुझमें कई बुराइयां हैं- गुस्सैल हूं, आलसी हूं, आत्मविश्वास की कमी है, धैर्य का अभाव है, हठी भी हूं, और सबसे बड़ी बुराई है- प्रेम की तीव्र आकांक्षा। पारदर्शी, निष्ठावान, व्यक्तिगत संबंधों में ईमानदारी, किसी भी तरह की सत्ता से दूरी और धन का कोई मोह नहीं होना अगर अच्छाई है, तो वह मुझमें है। एक अत्यंत साधारण मनुष्य हूं और मृत्यु तक साधारण ही बना रहना चाहता हूं। मनुष्य की साधारणता को ही असाधारणता मानता हूं। अहम् और अहंकार को सबसे बुरी चीज मानता हूं।

राजनीति में मैं कांग्रेस और भाजपा की नीतियों का विरोधी हूं। मेरा मानना है कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों कारपोरेट तथा मध्यवर्ग के हितों की ही रक्षा करते हैं। दोनों की विदेश नीति तथा आर्थिक नीति एक है। सामाजिक न्याय की राजनीति का पक्षधर हूं, पर उसके नेतृत्व में मेरी आस्था नहीं है। लालू, मायावती, पासवान और नीतीश में भी मेरी आस्था नहीं है। उनकी सीमाएं हैं। वामपंथी पार्टियां आत्ममुग्ध अधिक हैं, वे दिग्भ्रमित भी हैं, फिर भी वे जनता के हितों का ख्याल रखती हैं, लेकिन वे कागजी तथा किताबी अधिक हैं। भाकपा (माले) का उतना जनाधार ही नहीं है।

उनकी शक्ति कम है। नेतृत्व का संकट वहां भी है। कोई राष्ट्रीय नेता नहीं है। जेपी, लोहिया और नरेंद्रदेव का समर्थक रहा हूं, पर उनमें भी एक तरह का वामपंथ विरोध रहा है, पर उनका चरित्र बड़ा था। उनके पास ज्ञान था और जनता में उनके लिए सम्मान था। वे जनता के ही नेता थे। नेहरु जी मध्यवर्ग के ही नेता थे। उनका अभिजात्य मुझे पसंद नहीं है। राजेंद्र बाबू और शास्त्री जी की सहजता, सादगी और ईमानदारी पसंद है, पर इनमें कोई बड़ा नेता नहीं, जो संपूर्ण हो। मधु लिमये, मधु दंडवते और सुरेंद्र मोहन जैसे सहज सरल और ईमानदार नेताओं में मेरी आस्था रही, पर जनता के नेता वे भी नहीं थे। यह एक अजीब विडंबना है। भारतीय राजनीति में बहुत बड़ा संकट है। अन्ना में गांधीवादी आदर्श तो है, पर वह दृष्टि नहीं, जो गांधी, जेपी और लोहिया में थी, वो ज्ञान भी नहीं, पर ईमानदारी और सरलता है। उनकी टीम के लोगों का मुद्दा सही है, पर वे मुझे अधिक प्रभावित नहीं करते। मैं अन्ना के आंदोलन का समर्थक हूं। दरअसल मैं उस जनता का समर्थक हूं जो राज्यसत्ता को चुनौती देती है। हमारा स्टेट हिंसक और क्रूर होता जा रहा है। विनायक सेन और मेधा पाटकर हमारे नायक हैं। पर कोई महानायक नहीं है, पूरी दुनिया में। कभी मंडेला, फिदेल कास्त्रो थे, पर अब उनका भी पराभव हो चुका है। इसलिए अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर अंधेरा है। भारत के बुद्धिजीवियों में भी एक तरह का कैरियरवाद है। वे किताबी अधिक हैं। सरलता, सहजता और जीवन के रंग उनमें नहीं हैं। वे विद्वान तो हैं, पर पाखंड तथा ज्ञान का अहंकार उनमें अधिक है। वे भारतीय जनता से कटे हुए हैं। कुल मिलाकर स्थिति संतोषजनक नहीं है। हताशा और निराशा अधिक है। पर उम्मीद है...

मुझे अफसोस है कि मैं चाहकर भी राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं हो पाया, कुछ नौकरी तो कुछ स्वास्थ्य के कारणों से, पर बेचैनी अधिक है। मेरा एक उपन्यास चांद/आसमान. डॉटकाम और एक प्रेम कविताओं का संग्रह ‘बेचैनी का सबब’ हाल में आया है। एक व्यंग्य संग्रह राजनीति का सर्कस भी आने वाला है। ‘आर यू ऑन फेसबुक’ नामक एक उपन्यास लिख रहा हूं। दो वर्षों में एक और कविता संग्र्रह निकालूंगा। कई योजनाएं पाइपलाइन में है। लिखना ही मुक्ति है। लिखने की बेचैनी बनी रहती है क्योंकि प्रेम की भी बेचैनी है- सबसे प्रेम- मनुष्यता को बचाने का प्रेम।

(भड़ास4मीडिया से साभार)

फ़ैज़ साहब


जिया मोहिउद्दीन सुना रहे हैं इब्ने इंशा जी की एक बेहद मज़ेदार रचना -

Thursday, September 27, 2012

तुलसी रमण की कवितायेँ - २


अब देखिये तुलसी रमण जी की  आँखों से शिमला के कुछ अनदेखे दृश्य-

शिमला

पूरब के पहाड़ पर
चढ़ता सुबह का सूरज
धीरे-धीरे उतरती धूप
शहर के मस्तक से
पैर के अंगूठे तक
फिसलता जाता अंधेरा
पश्चिम की ढलानों पर

दरवाज़े पर
शटाक से गिरते
मैदानों से आये समाचार
एक क्षण थर-थराता पहाड़
और चाय की पहली प्याली के साथ
निगल जाता
हत्याओं और
आत्म-हत्याओं के समाचार

रोज सुबह गलरी से गुजरता
रद्दीवाला
पुकारता: खा ली, बो तलाँ..!

उबासियाँ लेता शहर
क्यों पी गई रात इतनी शराब

हर घर में घुस आता क्यों
बारहों महीने जुकाम?
कितना डरा हुआ सा चलता है
हर रास्ता
जाने कब क्या कुछ झपट जाएगा
जाखू का बिगड़ैल बंदर

शो-विंडो के साथ खड़े
दायीं ओर मुस्काते
शहर के स्वामी
माल की शाम घूमते-घूमते
बाबू बायें-बायें

ऊपर की जेब में सजाये
रेशमी रूमाल
विलायती उपहार
बस की पुरानी टिकटों
और काम्पोज की गोलियों से
भरी पड़ीं
भीतर की जेबें

ढलान पर उतरती लय:
कर याद अल्लाह, अल्लाह ई अल्लाह!
या महबूब, कर अहसान! !
ताल पर सरकते
रशीद, नज़ीर और
अमीन के पाँव
नाड़ियों में तैरता
श्रम का संगीत
ज़मीन में जज़्ब होता पसीना

माल-गोदाम से अनाज-मंडी तक
तीन पीठों पर सवार
चढ़ता तेल का एक ड्रम
तेल से जलता स्टोव
तवे पर पकती रोटी
एक दो तीन चार
एकाध पेट में

दो एक टिफिन में बंद
पहुँच जाती दफ्तर की मेज़ तक

निपटाती फाइलें
बैठकें जुटाती
कुछ बतियाती
और फिर भूख दे जाती
दफ्तर से पैदल लौटते हैं
खाली टिफिन

घिसते जूतों
फटती मोहरियों और
कुहनियों के साथ
बढ़ी हुई दाढ़ियों में
उलझ जाता बीड़ी का धुआँ
बर्फ़ के नीचे सुलगता जाता
मुँह का उजला और
पीठ से काला शहर

गिरजाघर की
जर्जर पसलियों में
दुबकी कहानियाँ
गोरी सड़क के
साबुन स्नान की
बूढ़े ‘गेइटी’ के माथे पर
उभर आती इबारत :
भारतीय और कुत्ते वर्जित हैं

शहर के अंग अंग पर गोदा
गुलामी का इतिहास

लिफ्ट से चढ़ आये
सैलानियों की भीड़ में
आज़ादी सड़कों पर
घिसटती रहती
भिखारी बच्ची
सुबह से शाम

बापू के गले में
टँग जाती एक माला
साल में दो बार
खबरों में
उड़-उड़ जाता शहर
अति विशिष्ट व्यक्तियों के
आराम के नाम
छिन जाती भिखारी की बच्ची से
उसके हिस्से की सड़क
इमारतों के जंगल में
लहू-लुहान टँगा है
एक यीशु देवदार
पैरों में गाड़ दिये सरिये
जिस्म में मेखें
तारों में उलझे
सिर के बाल

शाख़ से छनकर
बिखर-बिखर नहीं आता चाँद
एँटीना के साये में
रेत हुआ प्यार
देर से आता वसंत
बहुत जल्दी
निगल लेती बरसात
दबे पाँव घुस आता जाड़ा
दीवाली की रात
कुछ धूप में चिलकता
बाकी छाया में ठिठुरता शहर
कुछ विलायत में जीता
कुछ देश में

चिमनियाँ उगलती
भीतर का धुआँ
पनालों में बहता
शहर का मवाद
पश्चिम की पहाड़ी पर
डूबता शाम का सूरज
जाखू की चोटी से
विदा लेती पीली धूप
जिस्म पर अँगारे लिये
रात भर जागता है
खूबसूरती के लिये बदनाम
बाबुओं का शहर

माल रोड़ पर एक पीढ़ी


पुराने थैलों में
बीते सालों की चिट्ठियाँ
दिलों में धड़कता सन्नाटा
चेहरों पर लिये रोशनी रहस्य की
एक-एक कर गुज़रते हैं
कम्बरमीयर पुल से
बड़े डाकघर की ओर
ज़माने के पारखी
शहर के सयाने

कहवाघर की ऊँची दीवारों पर
गवाह हैं

नेहरू और रागिनी आर-पार
श्रीनिवास की भोली परिकल्पनाएँ
क्षण-क्षण धधकती एक निरंतर कविता
धमनियों में बजता देवदारुओं का जाज

उपनयन के साथ चख लिया था
निराला की हाँडी का माँस
किसी अंतरंग शाम
जीभ पर उतर आता स्वाद
हृदय में गहराता अनुराग
आँखों से टपकती शराब
गीतों से चूने लगते
ज़िंदा चित्र पक्के राग

दोपहर जीवन
लिखी कुछ लम्बी कविताएँ
पहनी अच्छी पोशाकें

दिन ढलते जब लौटती नहीं
घर से निकली चिर युवा कविता
झनझनाता ततैया का छत्ता
कवि का दिमाग
खाली होते गिलासों से
उमड़ता स्मृतियों का अम्बार
बारी-बारी चले आते
पाउंड पिकासो लोरका
कुछ नक्षत्र हुए कवि
तेजस्वी विचारक
और असंख्य चेहरे डूबे हुए
काल की धुँध में

हुड़क की ताल पर
नीरज की दाढ़ी में
फड़फड़ाता समय का जख्मी मोनाल
ज़हन में पहाड़ के बनते बिगड़ते रंग
राजे रानों के शौक
आजादी की लड़ाई
गूँजती ढँकारों में
प्रजामंडल विद्रोह की ऊँची आवाज
नेहरू की यात्राएं
परमार का जमाना
ज़ख्मों की तरह

क़दम क़दम खुलते पहाड़
खाली खलिहान में
ढोल के पूड़े पर जमती नाट्टी

बार-बार छीले काटे गये
पर कटे पहाड़
गीतों की लय में खनकती चीत्कार

महज़ संयोग नहीं है
आकाश-पाताल एक करता
हिमेश का ठहाका
करियाला की जमीन पर
मार्क्स की दहाड़
हाट-घराट की कहानियाँ
लोगों की भाखा में
पृथ्वी की कराह

दिन में कई बार पूछते
शराबघरों के बैरे
जीवन का हाल
चेहरे पर जलती भीतर की आग
पँख पँख उड़ता हवा में
ठंडे शहर का
भयावह सन्नाटा
संपादकों के नाम कलम के तीर
पहाड़ की पाती सत्येन के खत
दुख-सुख छापता है जीवन अखबार

मस्तक पर चमकती धूप
आँखों में अँधेरा
आत्मा में भीषण हाहाकार
जुबान पर उतर आते
संगीत की दुनिया के किस्से
कानों में गूँजती

बर्मन दा की धुनें
रगों में तैरते
उत्साही और उदास गीत

दफ्तर की फाइलों में
हँसती खेलती ज़िया की भाषा
मेट्रोपोल अनेक्सी के ठंडे कमरे में
भीतर जमे शाम के साथी
ट्रक के शोर में बाहर बैठी इंतजार में
नफीस की नज्में बेजोड़ कहानियाँ

सिगरेट में सुलगती जिगर की आग
हलक से उतरते रम के गिलास
धीरे-धीरे सरकता दुख का जीवन
ज़िया की चाल

(हुड़क - एक  लोक वाद्य, मोनाल - एक दुर्लभ सुंदर पहाडी पक्षी, करियाला - लोक नाट्य की एक विधा)

एन्सेल एडम्स के कुछ फोटोग्राफ़


२० फरवरी १९०२ को जन्मे अमरीकी फ़ोटोग्राफ़र और पर्यावरणविद एन्सेल एडम्स को अमेरिकन वैस्ट के उनके ब्लैक एंड व्हाईट फ़ोटोग्राफ़ों ने संसार भर में शोहरत दिलाई.

एडम्स ने फ़ोटोग्राफ़ी में ‘ज़ोन सिस्टम’ को विकसित किया जिसके तहत प्रिंट निकलते वक्त कन्ट्रास्ट को एक खास तरीके से जमाया जाता था ताकि फोटो कई स्पष्टता कई गुना बढ़ जाए. इसके लिए उन्हें बड़े फॉर्मेट वाले कैमरों का इस्तेमाल करना पड़ता था जो भरी भरकम और तामझाम वाले होने के साथ ही फ़ोटोग्राफ़ी को खासा महंगा बना देते थे पर इस मशक्कत के बाद तस्वीरों में जो स्पष्टता आती थी उसी ने उन्हें अद्वितीय बनाया.

अपने साथी फोटोग्राफरों विलार्ड फान डिक और एडवर्ड वेस्टन के साथ मिलकर उन्होंने ग्रुप f/64 का निर्माण भी किया था. २२ अप्रैल १९८४ को उनका देहांत हुआ.

आज उनके कुछ शानदार फ़ोटोग्राफ़ देखिये -








तुलसी रमण की कविताएँ - १

शिमला में रहने वाले तुलसी रमण पिछले कोई पच्चीस सालों से ‘विपाशा’ पत्रिका का सम्पादन सम्हाले हुए हैं. मैं उनसे एक बार मिला हूँ और बतौर एक संवेदनशील सहृदय इंसान के वे मुझे अक्सर याद आते हैं. उन्होंने कई कविताओं के अनुवाद भी किए हैं. आज से उन की कुछेक कविताओं से रू-ब-रू होइए. आज उनके तेवर को समझने के लिए सिर्फ एक बेहद छोटी कविता - 


प्यार

गुर्राता, भौंकता
वह झपटा मेरी ओर
मैंने बजाई चुटकी

और पुचकारा

उसने दुम हिलाई
और कूँ-कूँ कर कहा-

कौन नहीं चाहता आख़िर प्यार.

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जयंती पर स्मृति - समकालीन समस्याओं पर साक्षात्कार - दूसरा भाग


(पिछली किस्त से आगे)

प्रश्न: शुक्ल जी, इधर के तमाम लोग ऐसा मानते हैं कि आप हिंदी नव जागरण की प्रगतिशील चेतना के अग्रगामी साहित्य विचारक हैं जिसने भारतीय और पाश्चात्य, नवीन और प्राचीन, ज्ञान की विभिन्न परंपराओं के गंभीर अध्ययन और स्वतंत्र चिंतन के आधार पर हिंदी में वस्तुवादी साहित्य-दृष्टि का विकास किया. आपने इतिहास, दर्शन, भाषाशास्त्र, विज्ञान और साहित्य - संबंधी नए-पुराने चिंतन की वैचारिक यात्रा करने के बाद एक सुनिश्चित समाजोन्मुखी वस्तुवादी साहित्य दृष्टि अर्जित की और अपनी इस अर्जित नई साहित्य दृष्टि से ही परंपरा के मूल्यांकन, वर्तमान की आवश्यकताओं की पहचान और भावी विकास की दिशा खोजने का प्रयास किया. इस सब की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली और इसकी जरूरत कैसे महसूस हुई?

उत्तर: जिस समय मैंने लिखना शुरू किया उस समय हिंदी आलोचना की दशा कुछ ऐसी थी कि वह लक्षण-ग्रंथों में रसों, अलंकारों, नायक-नायिकाओं की सूची बनाने में ही अपनी सिद्धि समझ रही थी. साहित्य के अनुशासन की बात तो दूर साधारण मार्ग निर्देश भी इनसे नहीं हो पा रहा था. आलोचना में अच्छे-बुरे की पहचान का कोई ठौर-ठिकाना नहीं था, जो जिसे ले उड़े बस वही महान. रीतिकालीन दरबारी माहौल आलोचना में भी था और काव्य-चमत्कार पर रीझ ‘कलम तोड़ दी’ वाले अंदाज में आलोचक आह-वाह करते थे. भारतेंदु जी के समय से हिंदी के शिष्ट साहित्य का यह प्रयास हुआ कि आलोचना भी लक्षण-ग्रंथों की इस जकड़ या भावोच्छवासमयी प्रणाली से मुक्त हो सके. इसके लिए कुछ रास्ता भी बनने लगा था. पं. बाल कृष्ण भट्ट के ‘हिंदी प्रदीप’ तथा ‘सरस्वती’ में नए ढंग की समालोचना आने लगी थी. इसी को हमने आगे बढ़ाने की कोशिश की.

दूसरी बात यह कि इस समय अंग्रेजों और उनके पिछलग्गू राजा-बाबुओं के विरुद्ध किसानों के आंदोलन जोर पकड़ने लगे थे. हिंदी के एक हजार वर्ष के साहित्य पर नजर डालने से मेरी यह धारणा और भी पुष्ट होती गई कि ‘‘साहित्य जनता की चित्त वृत्तियों का संचित प्रतिबिंब है.’’ जनता की चित्रवृत्ति में परिवर्तनों के साथ ही साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होते हैं. जनता की चित्रवृत्ति में परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन से प्रेरित और प्रभावित होता है. इसलिए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि साहित्य का इतिहास बुनियादी तौर पर साहित्य के विकास और सामाजिक विकास के आपसी संबंधों को लिए-दिए चलता है. भाषा के बारे में भी कुछ इसी तरह की बात कही जा सकती है. मार्च, 1911 की ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’में प्रकाशित ‘हिंदी की पूर्व और वर्तमान स्थिति’ में मैंने यही कहा है कि ‘‘कोई भाषा जितने ही अधिक व्यापारों में मनुष्य का साथ देगी उसके विकास और प्रचार की उतनी ही अधिक संभावना होगी.’’

मैंने उनके विचार-प्रवाह के बीच फिर व्यवधान उपस्थिति करते हुए प्रश्न किया: लेकिन शुक्ल जी, यह बात समझ में नहीं आती कि एक ओर तो आप लक्षण-ग्रंथों के जंजाल को तोड़ रहे थे और शास्त्रबद्ध चिंतन की जगह नव-जागरण और जन-आंदोलन की आवश्यकताओं के आधार पर साहित्य संबंधी नया दृष्टिकोण गढ़ रहे थे और दूसरी ओर रस को ही काव्य का अंतिम सर्वोपरि लक्ष्य मानकर रसवाद की ही प्रतिष्ठा कर रहे थे. आखिर वह कौन सी मजबूरी थी कि आप एक बारगी ही उस सबसे पिंड छुड़ाकर नए प्रतिमानों की खोज की ओर वैसे साहस के साथ अग्रसर नहीं हुए.

शुक्ल जी सीधे आंखों में झाँकते हुए सवाल के अर्थ को समझकर मुस्कुराए, फिर बोले: देखिए,मैं सर्वथा नएपन का वैसा कायल नहीं हूँ जैसा लोग समझते हैं. वैसे भी पश्चिम में रोज-रोज उठने-मिटने वाले नए-नए साहित्यांदोलनों को मैं संदेह की दृष्टि से देखता रहा हूँ. ऐसे आंदोलनों के कारण वहाँ इस शताब्दी में आकर काव्यक्षेत्र के भीतर बड़ी गड़बड़ी और अव्यवस्था फैली. काव्य की स्वाभाविक उमंग के स्थान पर नवीनता के लिए आकुलता मात्र रह गई. कविता चाहे हो, चाहे न हो, कोई नवीन रूप या रंग-ढंग अवश्य खड़ा हो. पर कोरी नवीनता केवल मरे हुए आंदोलन का इतिहास छोड़ जाय तो छोड़ जाय, कविता नहीं खड़ी कर सकती. समालोचना की भी कुछ ऐसी ही हवाई स्थिति इस नवीनता के चक्कर में हुई. रहस्यवाद, प्रतीकवाद,मुक्तछंदवाद, ‘कलाका उद्देश्य कलावाद’ इत्यादि तो अब वहाँ बहुत दिन के मरे हुए आंदोलन समझे जाते हैं. इस शताब्दी के आंदोलनों में अभिव्यंजनावाद, जार्जकाल-प्रवृत्ति, मूर्तिमत्तावाद, संवेदनावाद, और नवीन मर्यादावाद चले.

लेकिन मुझे लगता है इन बहुत सी ‘वाद’ व्याधियों का प्रवर्तक है ‘व्यक्तिवाद’ जो बहुत पुराना रोग है. इसकी नींव भेदवाद पर है. अब तक कवि के व्यक्तित्व के नाम पर भेद प्रदर्शन होता था, अब उसकी कृति के व्यक्तित्व के नाम पर होने के लक्षण दिखाई दे रहे हैं. अब तक किसी कविता में उसके कवि के व्यक्तित्त्व को प्रधान वस्तु कहने की चाल थी पर अब कृति ही प्रधान वस्तु कही जाने लगी है और उसकी सत्ता कवि और पाठक दोनों से स्वतंत्र ठहराई जाने लगी है. अब नवीनता के नाम पर होने वाले इन तमाशों और उड़ाए जाने वाले कनकौवों पर मेरी आस्था नहीं रही. एक तो इसलिए.

दूसरे, मुझे लगा कि काव्य के संदर्भ में सौंदर्यानुभूति प्रारंभिक स्थिति है. और रसानुभूति बाद की. भारत प्राचीन देश है जिसका काव्य चिंतन भी काफी लंबा है इसलिए वह सौंदर्यानुभूति से संतुष्ट न होकर रसानुभूति पर पहुँचा. इस रस की जो व्याख्या बाद में चलकर होने लगी और उस पर अलौकिकत्व और आनंदवाद के जो आवरण डाले गए वह चाल दार्शनिकों के कारण पड़ी. इसलिए सवाल इस इतने अच्छे सिद्धांत को छोड़कर नया गढ़ने का उतना नहीं था जितना उसे इस मायाजाल से मुक्त कर नई स्थितियों में उसकी नई व्याख्या करने का था. रूढ़िवादियों, आनंदवादियों, कलावादियों की जकड़ से छुड़ाकर उसे वस्तुगत और सामाजिक अर्थ में स्वीकार करने का था. ‘लोकमंगल’ की भावना से उसकी नई व्याख्या हुई और रसानुभूति का दर्जा तय किया गया.

तीसरे, पश्चिम के जागरूक और गंभीर साहित्य चिंतकों ने भी भारतीय चिंतन में रूचि ली है और उससे उन्हें नया आलोक मिला है. इधर तो सुना है कि बहुत से रूपवादी संप्रदाय हमारे ध्वनि, वक्रोक्ति, रीति से अपने को जोड़कर नए सिद्धांत गढ़ रहे हैं. रस उनके काम का नहीं है क्योंकि उसमें सामाजिक की प्रतिष्ठा है और लोकहृदय से साधारणीकरण की माँग है, कवि, पाठक, समीक्षक सभी से. इसलिए मैंने आज की परिस्थितियों में इस सिद्धांत में काफी संभावनाएँ देखीं. इसे छोड़कर कोई सिद्धांत खड़ा नहीं किया जा सकता है.

इसके अलावा एक और कारण भी रहा. जिस समय हम लोग साहित्य में सक्रिय हुए उससे पहले अंग्रेज विद्वानों ने कुछ ऐसा माहौल बना दिया था जैसे मनुष्य ने जो कुछ भी आज तक अर्जित किया है, वह पश्चिम की देन है. हमारे देश की तमाम उपलब्धियों और चिंताधारा को असभ्य और जड़ता के रूप में पेश किया गया. ऐसे में अपनी प्राचीन उपलब्धियों के प्रति कुछ दुराग्रह भी स्वाभाविक था. राजनीति में गाँधी जी भी कुछ-कुछ वैसा ही रवैया अपनाए थे. हम लोग उनके सब तरीकों से तो सहमत नहीं थे, फिर भी प्राचीन के पुनर्स्थापन की भावना से तो प्रेरित थे ही. हाँ, शायद अब वैसी कोई मजबूरी लोगों को महसूस न होती हो.

(लगभग दो-तीन घंटे इस बातचीत को हो चुके थे और यह लगने लगा था कि वे कुछ अनौपचारिक होते जा रहे हैं, इसलिए अनुकूल अवसर जान मैंने वह प्रसंग छेड़ दिया.)

पूछा: शुक्ल जी, यह सब चीजें और तर्क तो हमारी समझ में आते हैं लेकिन एक बात समझ में नहीं आती. आप जानते हैं कि 1917 में दुनिया में एक बड़ी घटना सोवियत समाजवादी क्रांति के रूप में हुई जिसने शोषित-पीड़ितों की सत्ता स्थापित की और साम्राज्यवाद की नींव हिला दी. अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर यह ऐसी सत्ता और शक्ति थी जो न केवल सिद्धांत में साम्राज्यवाद-विरोधी थी बल्कि कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के माध्यम से दुनिया के तमाम उपनिवेशी देशों के स्वाधीनता आंदोलनों की व्यावहारिक मदद भी कर रही थी. उसने दुनिया भर के बुद्धिजीवियों के ऊपर क्रांतिकारी प्रभाव डाला. लेकिन आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि आप जैसे कट्टर साम्राज्यवाद, सामंतवाद-विरोधी, शोषितों-दलितों के पक्ष में बराबर आवाज उठाने वाले और चीजों को बुद्धि और तर्क से परखने वाले व्यक्ति ने कभी उसका गंभीरता से अध्ययन करने की आवश्यकता ही न समझी. इसके उलट कुछ इस तरह की टिप्पणियाँ आपने उस पर कीं-

‘‘रूस के बोल्शेविकों की बात सुनिए तो वे बड़ी उपेक्षा से अब तक के सारे साहित्य को ऊँचे वर्ग के लोगों का साहित्य बताकर बढ़ैयों, लोहारों और मजदूरों के साहित्य का आसरा देखने को कहेंगे.’’ (चिंतामणि-3, पृ.276)

या-

‘‘ऊँची श्रेणियों के कर्त्तव्य की पुष्ट व्यवस्था न होने से ही योरप में नीची श्रेणियों में ईर्ष्या, द्वेष और अहंकार का प्राबल्य हुआ जिससे लाभ उठाकर ‘लेनिन’ अपने समय में महात्मा बना रहा. समाज की ऐसी वृत्तियों पर स्थित ‘महात्म्य’ का स्वीकार घोर अमंगल का सूचक है...रूस से भारी-भारी विद्वानों और गुणियों का भागना इस बात का आभास दे रहा है.’’(गोस्वामी तुलसीदास, पृ. 42).

उनके इन उद्धरणों का हवाला देने के बाद मैंने आवेश में यह भी कह ही तो डाला: क्या आपका यह सोचउस समय सोवियत रूस के बारे में हो रहे व्यापक साम्राज्यवादी प्रचार से प्रभावित नहीं है? क्या ये सब बातें वस्तुस्थिति की गंभीर पड़ताल किए बिना केवल दुष्प्रचार के बहाव में आकर कही गई बातें नहीं हैं ? आप जैसे समीक्षक से क्या इसकी अपेक्षा की जा सकतीहै? आपकी समीक्षा का यह सबसे कमजोर और ग्लानिजनक प्रसंग है.

(बात कुछ यहाँ तक पहुंच गई थी कि मेरी बगल में बैठे पं. कृष्ण शंकर भी बार-बार मेरा हाथ दबाते. वे भी सकते की हालत में थे कि मामला गलत मोड़ ले रहा है. पहले-पहल मैंने पाया कि शुक्ल जी थोड़े अंतस्थ हुए. काफी देर तक मौन रहे. इस प्रसंग ने उन्हें जैसे बेहद विचलित कर दिया था. उनका जवाब भी काफी टाल-मटोल वाला और कमजोर था.)

फिर भी कुछ स्थिर होकर वे बोले - हो सकता है यह ऐसे ही हो जैसा आप सोच रहे हैं. लेकिन मैं जिस वातावरण में पला-बढ़ा और कार्यरत था उसमें यही स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी. यह बात कुछ हद तक सही है कि मैंने कभी गंभीरता से मार्क्सवाद या सोवियत व्यवस्था के बारे में अध्ययन नहीं किया. जो भी बातें कहीं वे आम धारणा के आधार पर ही कहीं. और...

(इसके बाद मजदूर और किसान आंदोलन, प्रगतिशील लेखक संघ, वर्णाश्रम व्यवस्थाबद्ध दृष्टि और वर्ग-दृष्टिकोण, उस समय की रचनाशीलता में उभरते यथार्थ के नए स्वर, सोवियत क्रांति के साहित्य पर पड़ते प्रभाव आदि कितने ही ऐसे विषयों पर बहस होती रही, जो शुक्ल जी की दुखती रग की तरह थे. इस पूरे समय वे बहुत असहज रहे और बीच में कई बार चाय मँगाई. पता लगा कि वे चाय के कितने शौकीन हैं. वातावरण को सहज बनानेके लिए कुछ खान-पान, रुचियों-अरुचियों पर बातें कीं.)

बहस को आगे बढ़ाने के लिए मैंने नए कोण से सवाल को उठाया - आचार्य जी, यह अवांतर चर्चा तो यूँ ही चल पड़ी, मूल विषय से इसका अधिक संबंध नहीं था. असल में तो निर्णय इस आधार पर नहीं हो सकता किकोई आदमी अपने बारे में क्या कहता है. असल बात है कि समग्र रूप में उसका प्रभाव क्या पड़ता है, व्यवहार में वह क्या दर्शाता है. बाल्जाक की तारीफ मार्क्स ने और ताल्स्ताय की लेनिन ने इन्हीं बड़े और व्यापक प्रतिमानों से की थी. कालिदास से लगाकर तुलसी और भारतेंदु, आ. द्विवेदी और आपके बारे में भी हमारा दृष्टिकोण वही है. हम जानते हैं कि आपकी स्पष्ट सहानुभूति शोषितों-पीड़ितों के पक्ष में और अन्यायी अत्याचारियों के विरुद्ध है. इसके लिए आपका अप्रस्तुत विधान अकाट्य गवाही पेश करता है. अप्रस्तुत विधान व्यक्ति के राग-विराग का सबसे बड़ा प्रमाण होता है क्योंकि वहाँ अचेतन मन बोलता है. यही नहीं, आपने छायावादी कवियों के रहस्यवाद, सौंदर्यवाद की कटु आलोचना करने के बावजूद पंत और निराला की उन कविताओं की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है जिनमें यथार्थ जीवन के वास्तविक चित्र हैं और लोकमंगल की भावना है. इसी लोकमंगल की भावना से आपने साहित्य में अच्छे-बुरे का निर्णय किया है. समकालीन कविता में लोकमंगल की यही भावना व्यक्त हो रही हैं. इसी नाते भी हम चाहते हैं कि आपके लोक मंगल का अर्थ हम लोगों के लिए स्पष्ट हो सके.

शुक्ल जी: मैंने अन्यायियों, अत्याचारियों या शोषितों, दमितों या लोकमंगल की जब-जब बात की है तो वह उतनी अमूर्त नहीं है कि उसे समझा न जा सके. हाँ, उसे समाजवादी दर्शन या वर्ग-दृष्टि का जामा मैंने नहीं पहनाया. लेकिन ये अत्याचारी या शोषित कोई व्यक्ति प्रतीक मात्र नहीं हैं, वे जनता के बीच मौजूद वर्गों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. मैं हमेशा कवि के लिए यह जरूरी मानता रहा हूँ कि उसे लोक हृदय की पहचान हो. लोकहृदय का अर्थ विशिष्ट वर्गों से नहीं व्यापक जनसमूह से ही है.

कविता को भी मैंने निष्प्रयोजन खिलवाड़ या मनोरंजन की चीज कभी नहीं स्वीकार किया. उसे मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त करने वाली भावात्मिका वृत्ति माना और कहा कि कविता भाव-प्रसार द्वारा कर्मण्य के लिए कर्मक्षेत्र का और विस्तार कर देती है. इसका स्पष्ट उदाहरण देकर कहूँ तो यदि किसी जन समुदाय के बीच कहा जाय कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले जाता है तो संभव है उस पर कुछ प्रभाव न पड़े. पर यदि दारिद्र्य और अकाल का भीषण और करुण दृश्य दिखाया जाय, पेट की ज्वाला से जले हुए कंकाल कल्पना के सम्मुख रखे जाएँ और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का आर्द्र क्रंदन सुनाया जाय तो बहुत से लोग क्रोध और करुणा से व्याकुल हो उठेंगे और इस दशा को दूर करने का उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेंगे. पहले ढंग की बात करना राजनीतिज्ञ या अर्थशास्त्री का काम है और पिछले प्रकार का दृश्य भावना में लाना कवि का. अतः यह धारणा कि काव्य व्यवहार का बाधक है, उसके अनुशीलन से अकर्मण्यता आती है, ठीक नहीं.

यदि यह भाव इधर के साहित्य में आया है तो मंगल का सूचक है. लेखक के काम को अर्थशास्त्री या राजनीतिज्ञ से अलगाने की जरूरत है. कई बार लोग वादों के चक्कर में पड़ कविता न लिखकर वाद लिखने लगते हैं. विचारधारा के लंबे-लंबे भाषण देकर उपदेशक बन जाते हैं. सूर तुलसी के बारे में लिखते हुए मैंने बार-बार यह सवाल उठाया है कि उन्हें हमें उपदेशक के रूप में न देखना चाहिए. उपदेशों का ग्रहण ऊपर ही ऊपर से होता है. न वे हृदय के मर्म को भेद सकते हैं न बुद्धि की कसौटी पर ही स्थिर भाव से जमे रह सकते हैं. हृदय तो उनकी ओर मुड़ता ही नहीं और बुद्धि उनको लेकर अनेक दार्शनिक वादों के बीच जा उलझती है. उपदेशवाद या तर्क गोस्वामी जी के अनुसार ‘वाक्य ज्ञान’ मात्र कराते हैं, जिससे जीव-कल्याण का लक्ष्य पूरा नहीं होता-

वाक्य ज्ञान अत्यंत निपुन भव पार न पावै कोई.
निसि गृह मध्य दीप की बातन तम निवृत्त नहीं होई. 


इसलिए कविता को उपदेशात्मकता और प्रकृतवाद से भी बचाना होता है. अब यदि हम किसी कारखाने का पूरे ब्यौरे के साथ वर्णन करें, उसमें मजदूर किस व्यवस्था के साथ क्या काम करते हैं ये सब बातें अच्छी तरह सामने रखें तो ऐसे वर्णन से किसी व्यवसायी का ही काम निकल सकता है, काव्य प्रेमी के हृदय पर कोई प्रभाव न होगा. बात यह है कि ये सब विधान जीवन के मूल और सामान्य स्वरूप से बहुत दूर के हैं. पर यदि हम उसी कारखाने के पास बने हुए मजदूरों के झोंपड़ों के भीतर के जीवन का चित्रण करें, रोटी के लिए झगड़ते हुए कृशकाय बच्चों पर झल्लाती हुई माँ का दृश्य सामने लाएँ तो कविकर्म में हमारे वर्णन का उपयोग हो सकता है.

इस फर्क को समझना जरूरी है.

प्रश्न: शुक्ल जी आपने बहुत ही अच्छी तरह से आज के संदर्भ में इन बातों को स्पष्ट कर दिया. अब इसी से जुड़ा एक सवाल और इधर उठ रहा है. आज के जनवादी रचनाकार अपनी रचनाओं में जब मजदूर-किसान को लाते हैं, उसके संघर्ष को लाते हैं तो कई बार लोगों को लगता है कि उन्होंने उन्हें इकहरे रूप में ही पेश किया,जहाँ सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा, सफल-ही-सफल है. सोवियत रूस में जनवादी यथार्थवादी उपन्यासों के पॉजीटिव हीरो जैसा कुछ देखने में आता है. आपका इसके बारे में क्या विचार है?

शुक्ल जी: देखिए इसको सीधे रूप में नहीं द्वंद्वात्मक रूप में देखना चाहिए. इसी एक पक्षीयता के लिए मैंने ताल्स्ताय, गाँधी और रवींद्रनाथ की कटु आलोचना करते हुए एक जगह लिखा है-

‘‘दीन और असहाय जनता को निरंतर पीड़ा पहुँचाते चले जानेवाले क्रूर आततायियों को उपदेश देने, उनसे दया की भिक्षा माँगने और प्रेम जताने तथा उनकी सेवा-सुश्रुषा करने में ही कर्तव्य की सीमा नहीं मानी जा सकती, कर्मक्षेत्र का एक मात्र सौंदर्य नहीं कहा जा सकता. मनुष्य के शरीर के जैसे दक्षिण और वाम दो पक्ष हैं वैसे ही उसके हृदय के भी कोमल और कठोर, मधुर और तीक्ष्ण, दो पक्ष हैं और बराबर रहेंगे. काव्य-कला की पूरी रमणीयता इन दोनों पक्षों के समन्वय के बीच मंगल या सौंदर्य के विकास में दिखाई पड़ती है.’’

और यह बात हर कहीं लागू होती है. प्रकृति के संबंध में भी. मसलन वनों, पर्वतों, नदी-नालों, कछारों, पटपरों, खेतों की नालियों, घास के बीच से गई हुई ढुर्रियों, हल-बैलों, झोंपड़ों और श्रम में लगे हुए किसानों इत्यादि में जो आकर्षण हमारे लिए है वह हमारे अंतःकरण में निहित वासना के कारण है, असाधारण चमत्कार या अपूर्व शोभा के कारण नहीं. जो केवल पावस की हरियाली और वसंत के पुष्पहंस के समय ही वनों और खेतों को देखकर प्रसन्न हो सकते हैं, जिन्हें केवल मंजरी मंडित रसालों, प्रफुल्ल कदंबों और सघन मालती कुंजों का ही दर्शन प्रिय लगता है, ग्रीष्म के खुले हुए पटपर, खेत और मैदान, शिशिर की पत्र विहीन नंगी वृक्षावली और झाड़-बबूल आदि जिनके हृदय को कुछ भी स्पर्श नहीं करते उनकी प्रवृत्ति राजसी समझनी चाहिए.

अब रही नायकों के सौंदर्य और सफलता की बात. तो मंगल-अमंगल के द्वंद्व में कवि लोग अंत में मंगल शक्ति की जो सफलता दिखा दिया करते हैं उसमें सदा शिक्षावाद या अस्वाभाविकता की गंध समझकर नाक-भौं सिकोड़ना ठीक नहीं. अस्वाभाविकता तभी आएगी जब बीच का विधान ठीक न होगा अर्थात जब प्रत्येक अवसर पर सत्पात्र सफल और दुष्टपात्र विफल या ध्वस्त दिखाए जाएँगे. पर सच्चे कवि ऐसा कभी नहीं करते. इस जगत में अधर्म प्रायः दुर्दमनीय शक्ति प्राप्त करता है जिसके सामने धर्म की शक्ति बार-बार उठकर व्यर्थ होती रहती है.

यही स्थिति नायकों के सर्वगुण संपन्न होने की है. वास्तव में लोक-हृदय आकृति और गुण, सौंदर्य और सुशीलता, एक ही अधिष्ठान में देखना चाहता है. 19वीं शती के कवि शैली-जो राजशासन, धर्मशासन, समाज शासन आदि सब प्रकार की शासन व्यवस्था के घोर विरोधी थे उन्होंने भी अपने प्रबंध काव्यों में रूप सौंदर्य और कर्मसौंदर्य का ऐसा ही मेल किया है. उनके नायक (या नायिका) जिस प्रकार पीड़ा अत्याचार आदि से मनुष्य जाति का उद्धार करने के लिए अपने प्राण तक उत्सर्ग करने वाले, घोर से घोर कष्ट और यंत्रणा से मुँह न मोड़ने वाले पराक्रमी, दयालु और धीर हैं उसी प्रकार रूप माधुर्य संपन्न भी.

(अंत में शैली का प्रसंग आ गया तो मैंने शैली के बारे में विस्तार से उनसे पूछा कि वे उसे इतना अधिक पसंद क्यों करते हैं कि बार-बार अपने लेखों में उसकी प्रशंसा लिखी है. साथ ही मैंने शैली के संबंध में मार्क्स की उस बात को उद्धृत किया जिसमें बायरन से उसकी भिन्नता दर्शाते हुए उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि-‘‘जिन्होंने भी बायरन और शैली को समझा और जिया है वे इस बात पर संतोष व्यक्त करते हैं कि बायरन 36 साल की उम्र में मर गया क्योंकि अगर वह और जीवित रहता तो एक प्रतिक्रियावादी पूंजीवादी लेखक हो गया होता. वे शैली की मृत्यु पर गहरा अफसोस प्रकट करते हैं कि वह 29 साल में ही क्यों मर गया क्योंकि वह बुनियादी तौर पर क्रांतिवादी था और हमेशा ही समाजवाद के लिए लड़ने वालों की अगली पाँत में रहता.’’ इस तरह के प्रसंगों को शुक्ल जी बड़े गौर से सुनते रहे और भावाविष्ट होकर शैली के बारे में बातें करते रहे.)