Saturday, February 28, 2009

पधारो म्हारे देश...बाहुबली!

चुनाव की चर्चा शुरू होते ही बाहुबली नेताओं का लेखा जोखा शुरू हो गया है। बाहुबली, यानी वो लोग जिन पर हत्या से लेकर अपहरण तक तमाम संगीन आरोप हैं, फिर भी वे विधानसभा से लेकर लोकसभा पहुंचने में कामयाब होते हैं। चुनाव दर चुनाव उन्हें लेकर स्यापा बढ़ता जा रहा है, और इसी अनुपात में उनकी सफलता का ग्राफ भी। 1996 में लोकसभा में ऐसे दागियों की तादाद 40 के करीब थी जो 14वीं लोकसभा में बढ़कर सौ हो गई1 आखिर क्यों?

ये एक फिल्मी ख्याल से ज्यादा कुछ नहीं कि बाहुबली लोगों को डरा-धमकाकर वोट लेते हैं। सच्चाई ये है कि टी.वी. के एसएमएस पोल में लोग कैसी भी राय जाहिर करें, उन्हें आपराधिक रिकार्ड वाले व्यक्ति को चुनने में कोई परेशानी नहीं होती। तो क्या जनता दोषी है?

दरअसल, उम्मीद की तमाम मीनारों को नेस्तोनाबूद होते देख जनता के बड़े हिस्से ने समाज ने सामूहिक उद्धार के हर विचार से नाता तोड़ लिया है। वो करती भी क्या। न कांग्रेसियों में गांधीवाद बचा, न समाजवादियों में समाजवाद। वामपंथियों ने वापमंथ को तिलांजलि दे दी तो स्वदेशी और शुचिता वाले दंगाई-रिश्वतखोर बनकर डराने लगे। हद तो ये हो गई कि दलितों के नाम पर राजनीति की नई परिभाषा गढ़ने वालों ने ब्राह्मणों से नहीं ब्राह्मणवाद के साथ गलबहियां कर लीं। ज्योतिबा फुले की जगह परशुराम जयंती पर छुट्टी का मंत्र फूंका जाने लगा।

विचारहीनता से उपजे इस खालीपन को भरा बाहुबलियों ने। उन्होंने लोगों को परेशान करने वाले किसी अफसर को हड़का दिया। ऐसे छोटे-मोटे काम भी करवा दिए जो यों भी हो जाने चाहिए थे। बेरोजगार नौजवानों को अपनी जीप पर बैठाकर इज्जत बख्शी। उन्हें आश्वस्त किया कि इलाके का दारोगा उन्हें परेशान नहीं करेगा। यही नहीं उन्हें ठेकेदारी के छोटे-मोटे काम भी दिलाए। जो सुरक्षा सरकार से मिलनी थी, वो बाहुबली देने लगे। उनका जनता से सीधा टकराव था भी नहीं। उनकी नजर तो उस पैसे पर थी दिल्ली या प्रदेश की राजधानियों से लूटे जाने के लिए ही गांव-कस्बों के लिए चलता है। विधायक और सांसद निधि का आकर्षण भी राजनीति में बेतरह खींच रहा था।

मंदी तो अब आई है। उन दिनों की याद कीजिए जब नई आर्थिक नीतियों ने मध्यवर्ग के सामने नया आकाश खोला था। उसी के साथ सामूहिक की जगह व्यक्तिगत लाभ एकमात्र मकसद हो गया था। 'खर्च करो -कमाना सीख जाओगे' का मंत्र मिलते ही इस वर्ग के ड्राइंगरूम में भ्रष्टाचार पर बहसें बंद हो गईं। प्रतिरोध की एक बड़ी शक्ति शांत होकर बिखर गई। इधर, सत्ता में भागीदारी के लिए वैचारिक की जगह जातीय और सांप्रदायिक गोलबंदी महत्वपूर्ण हो गई। अस्मिता की तलाश बाहुबलियों के दरवाजे तक ले गई। पैसे से मजबूत बाहुबलियों को उनकी जातियों ने नेता मान लिया। राजनीतिक दल भी जीतने की संभावना के आधार पर टिकट देने लगे। जाहिर है, बाहुबलियों की लाटरी लगनी ही थी, लगी।

यानी बाहुबलियों ने न वोट लूटे न चुनाव चिह्न। ये सबकुछ उनके बाहुबल पर यूं ही निसार हो गया। वैसे भी एक शक्तिपूजक समाज में बाहुबली ही स्वाभाविक नेता हो सकते हैं। जो दिमाग दुनिया भर में मंडराते लड़ाकू अमेरिकी जहाजों को देखकर श्रद्धा से भर उठता है, उसे इलाके के बाहुबली पर बलिहारी तो होना ही था। ये बात ओसामा बिन लादेन के प्रशंसकों पर भी सही उतरती है। बाहुबलियों ने स्थानीय सामाजिक जटिलताओं को समझा और देखते ही देखते नेतृत्व हथिया लिया। 'कोउ नृप होय, हमय का हानी' का संपुट पढ़ने वाली जनता को क्या फर्क पड़ता।

यों बाहुबली राबिनहुड बन गए जिनके लिए स्थानीय स्तर पर भरपूर सहानुभूति होती है। कानून के राज में सताए गए लोगों ने कानून तोड़ने वालों में अपना हीरो तलाश लिया (रुपहले पर्दे पर सहस्त्राबिद के महानायक अमिताभ बच्चन भी तो यही करते रहे हैं)। पर राजधानी में बैठे विचारक और पत्रकार जमीनी हकीकत को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। वे चुनाव दर चुनाव आंकड़े जुटाकर हैरान होते रहते हैं।

एक उदाहरण। अक्टूबर 2005 में मऊ में दंगे हुए। यूपी का कुख्यात माफिया कहे जाने वाला मुख्तार अंसारी वहां का विधायक था। दंगे के दौरान मुख्तार ने अपने सरकारी गनर और एक टी.वी.चैनल के स्ट्रिंगर को जीप में बैठाकर इलाके का दौरा किया और कैमरे की तरफ मुंह करके शांति की अपील की। इस स्ट्रिंगर ने बाकी स्ट्रिंगरों को फुटेज बांटा। यानी सभी चैनलों को फुटेज मिल गया।

पर प्रसारित हुई तो कहानी पलट गई। चैनलों ने ऑडियो गायब करके महज वीडियो दिखा दिया। ये साबित किया गया कि मुख्तार दंगा फैलाने निकला था। तस्वीरों में सरकारी गनर के हथियार को ए.के.47 बता दिया गया। किसी ने नहीं पूछा कि दंगे भड़काने विधायक निकलेगा तो अपनी जीप पर टी.वी.स्ट्रिंगर को क्यों बैठाएगा। चैनल ऑडियो सुनाते तो कहानी पलट जाती। बाहुबलियों के बारे में उनका स्टीरियोटाइप टूट जाता। इसलिए उन्होंने अपनी कहानी गढ़कर मुख्तार को मनचाही जगह फिट कर दिया। जाहिर है, दिल्ली-लखनऊ में खूब हो हल्ला मचा लेकिन स्थानीय लोग असलियत जानते थे। 2007 का चुनाव मुख्तार ने जेल में रहते हुए जीता। उसे हिंदू मुसलमान सबके वोट मिले। आखिर मुख्तार के फरमान पर मऊ में 22 घंटे बिजली आ रही थी।

ना, ना.....मकसद, मुख्तार को बरी करना कतई नहीं है। बस ये बताना है कि बाहुबली अब बिजली, पानी की गारंटी भी दे रहे हैं जो राज्य की जिम्मेदारी है। ऐसे में जनता उनके सौ खून माफ कर रही है। फिर वो कहीं ब्राह्मण, कहीं क्षत्रिय, कहीं पिछड़े, कहीं दलित तो कहीं मुस्लिमों के रहनुमा हैं। पूरा जाति-संप्रदाय उनके पीछे गोलबंद है। अब उनकी सिर्फ एक ही पार्टी है- सत्ता पार्टी। इसीलिए यूपी के वे सारे माफिया जो कल तक मुलायम के गुण गाते थे अब मायावती का झंडा उठाए हुए हैं। वे जानते हैं कि सत्ता संरक्षण में ही सरकारी धन के लूट का कारोबार निर्विघ्न चल सकता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि गाड़ी पर हरा झंडा लगा है या नीला।

वैसे एक दिलचस्प जानकारी ये है कि मायावती ने मुख्तार अंसारी को बनारस से लोकसभा चुनाव लड़ाने का एलान किया है। और मुख्तार ने बिजली विभाग के आला अफसरों को पत्र लिखकर बनारस को 20 घंटे से ज्यादा बिजली सप्लाई की गारंटी करने को कहा है। पूरा विभाग नतमस्तक है और बहनजी की इच्छा को देखते हुए इस फरमान को जनता के बीच प्रचारित कर रहा है। निरंतर जीवन के लिहाज से दुनिया के सबसे पुराने शहर को पर्याप्त बिजली मिले, ये आजादी के 61 साल बाद भी नहीं हो पाया। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अवतार लिया है माननीय मुख्तार ने। और जनता को लग सकता है कि उसकी बंदूकें वो काम कर जाएंगी जो बड़े-बड़े वादाबहादुर नेता नहीं कर पाए।

ऐसे में क्या फर्क पड़ता है कि सामने बीजेपी के दिग्गज मुरली मनोहर जोशी होंगे। एक बड़ा तबका मानता है कि मुख्तार ने सौ-दो सौ मारे होंगे। जोशी जी तो जिस विचार पर सवार है उसकी वजह से हजारों मारे गए हैं, लाखों दिलों में दरार पैदा हुई है। संविधान लहूलुहान हुआ है। ध्वस्त होती बाबरी मस्जिद के सामने प्रफुल्लित जोशी जी और उनके कंधे पर सवार उमा भारती की तस्वीर को कौन भूल सकता है। और ये लोग यूपी का बहुमत रचते हैं। ये बात इससे भी साबित होती है कि बाबरी ध्वंस के बाद बीजेपी को कभी बहुमत नहीं मिला। खैर..

लुब्बेलुबाब ये कि बाहुबलिय़ों से निजात पाना है तो बड़ी लकीर खींचनी पड़ेगी। राजनीति में भी और समाज में भी। सन 42 का गांधी पैदा कीजिए या 1975 का जयप्रकाश। या फिर किसी और विचार की ओर देखिए। पर ईमानदारी को सम्मान देना और हवस पर काबू पाना सीखिए। मत भूलिए, जनता को वही नेतृत्व मिलता है जिसके वो लायक होती है। रास्ता मुश्किल लग रहा है तो मुंह ढंककर सो जाइए। देश संभालने के लिए बाहुबलियों की कमी नहीं।

प्रेमपत्रों के परिवार की ज़रूरतों के मांगपत्रों में बदल जाने की नियति

नवीन जोशी जी के उपन्यास से आपने कल एक अंश पढ़ा था जिसमें पीतांबर की पत्नी जानकी की लिखी प्रेमपाती को विवशताबद्ध पुष्कर बांचता है. इस प्रकरण का बाकी का हिस्सा ये रहा. कबाड़ख़ाना नवीन दा का आभारी है कि उन्होंने अपनी पुस्तक के इन हिस्सों को इस्तेमाल करने की अनुमति प्रदान की:



...
"अच्छा प्राणनाथ, अब लिखना बन्द करती हूं. छिलुका भी बुझ रहा है. कलम की गलती माफ़ करना. पत्र का जवाब आप ही आना.

आपकी प्राणप्यारी

जानकी"

---

इसके बाद भी कागज़ में ऊपर-नीचे. दाएं-बाएं जो जगह बच रहती, वहां कुछ न कुछ लिखा रहता -

"यहां क्या लिखा है, ये तिरछा-तिरछा?" चिठ्ठी का बारीक मुआयना करता हुआ पीतांबर पूछता और उसे पढ़ना पड़ता.

ह्यूं पड़ो बरफ सुवा, ह्यूं पड़ो बरफ
पंछी हिनी उड़ी ऊनी, मैं तेरी तरफ


(मेरे प्रिय, यहां पड़ रही है बर्फ़. पंछी होती तो चली आती मैं तुम्हारी तरफ़!)

काटन्या-काटन्या पौली ऊंछौ, चौमासी को बन
बगन्या पाणी थमी जांछौ, नी थामीनो मन.


(बहते पानी को तो थामा जा सकता है लेकिन मन को थामना असंभव है.)

और इन चिठ्ठियों के जवाब में पीतांबर क्या लिखवाता था?

किसी दोपहर वह आता और पुष्कर से लिखवाता - "सिद्धी सिरी सर्वोपमायोग्य पूज्य इजा-बाबू को पैर छूकर नमस्कार. भाई बहनों को प्यार. मैं यहां राजी-खुशी हूं. आप सबकी कुशल के लिए सुबह-शाम भगवती मां से हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूं. एक सौ रुपए का मनीआर्डर कुछ दिन पहले किया था. मिलने पर चिठ्ठी देना ..."

"पीतांबर दा, भाभी के लिए कुछ नहीं लिखाएगा? पुष्कर पूछता.

"क्या लिखाऊं?" वह भोलेपन से कहता - आशक-कुशल तो हो गई."

"लेकिन वह तो तुम्हें बराबर इतनी चिठ्ठियां लिखती है. इतनी-इतनी बातें."

पीतांबर चुप लगा जाता, मग्र उसका चेहरा उसके मन की चुगली करने लगता. पुष्कर सोचा करता कि भाइयों के कुर्ते-पाजामे, बहनों के फ़्राक, मां की धोती, पिता की वास्कट और हर महीने एक मनीआर्डर का जुगाड़ करते हुए जवान पीतांबर के पास पत्नी की ऐसी चिठ्ठियों के कहां और कितनी जगह होती होगी?

कुछ वर्ष बाद एक साल जाड़ों में पीताम्बर अपनी घरवाली को लखनऊ लाया था. तब पुष्कर ने उसे देखा था और यह कल्पना करना भी मुश्किल हो गया था कि कुछ वर्ष पहले अपने पति को वैसे प्रेम पत्र लिखने वाली जवान पत्नी का चेहरा कैसा रहा होगा. पीतांबर उसे लखनऊ लाया था, घुमाने फिराने नहीं इलाज कराने. तब वह दो छोटे-छोटे बच्चों की मां थी और सूखकर पीली पड़ गई थी. पीतांबर ने उसे सरकारी अस्पताल में और प्राइवेट में भी दिखाया. लेकिन जब दो महीने लखनऊ रहकर वह पहाड़ के लिए रवाना हुई, तब भी उसके चेहरे का पीलापन और रातों का बुखार बरकरार था. धूप, आराम और साबुन-पानी से धोने के बाद तेल के लेप से एड़ियों की खतरनाक बिवाई ज़रूर कुछ भर गई थी.

वे उत्कट प्रेमपत्र कब के आशल-कुशल के लेखे और परिवार की ज़रूरतों के मांगपत्रों में बदल चुके थे.

लम्बूद्वीप का श्वानयुग उर्फ़ स्वभूसीकरण की परम्परा



(पता नहीं कहां से ... पर जारी हैगा)

कालान्तर में जब नकली बघीरे की आवाज़ निकालने वाला बघीरा वास्तविक से लगने वाले बघीरे में तब्दील होकर दिल्ली स्थित चौर्य केन्द्र का सदस्य तक बन आया, नागरजन आशा और घोर आजिज़ी से भर उठे. नकली बघीरे को जिन कार्यों को पूर्ण करने का आधिकारिक अनुज्ञापी बनाया गया था, वे कार्य कलाकोठरी में आजीवन कारावास भोगने को अभिशप्त बुढ़ाते हुए असली व्याघ्रों के सिपुर्द कर दिया गया था. कैद में पड़े व्याघ्रों को अपनी दुमों के ऐन नीचे छपे गोबर को छुपाने तक के सामान मुहैय्या न थे सो वे शर्म के मारे 'जहां है जैसा है' के राजकीय अधिनियम के दायरे से बंधे रहने को विवश हुए.

हे सम्मानित नागरो! उसके पश्चात लम्बूद्वीप में मूलकर्म, कलाकर्म और स्वयंभूसीकरण आपस में पर्यायवाची मान लिए गए और इन कर्मों को सलीके से प्रचारित किए जाने हेतु नकली बघीरे की आवाज़ निकालने का प्रशिक्षण देने वाली एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था को ठेका प्रदत्त किया जाना तय हुआ.

यह बघीरा काव्य के उत्थान का एवम पुराकाव्य के अवसान का युग था.

बाबा कबीर को "छैयां छैय़ां" और वात्स्यायन को "चलो रे मन स्याम जी की ठौर" गाते तक सुना जा सकता था. यानी परिस्थितियां इतनी विलोम हो चुकी थीं (इस ओवरस्टेटमेन्ट के लिए क्षमा किया जा सकेगा, इस आशा के साथ आगे लिखने की हिमाकत की जा रही है).

पुनः कालान्तर में नकली बघीरे को एक संकटपूर्ण स्थिति में कुछ अरब-खरब-नील-पद्म इत्यादि मात्रा में पणों की आवश्यकता हुई. कूड़कलाकर्म को प्रश्रय देने में सक्षम व तत्पर एक श्वानसमूह लम्बूद्वीप का उद्धारक बन सामने आया.

कथा लम्बी न खिंचे इस प्रयत्न में लीन इस नगण्यकणा धिकात्मा को एक दिवस समाचार प्राप्त हुआ कि लम्बूद्वीप के श्वानों को अब से आधिकारिक रूप से श्वान ही नहीं बल्कि अरब-खरब-नील-पद्म इत्यादि प्राप्त श्वान कहा जाएगा.

स्वभूसीकरण की परम्परा है कि ऐसी घोषणा होने पर समस्त नागरिक प्रसन्न होवें, भांगड़ा प्राप्त करें एवम एवम प्रकार से अपने चित्त को प्रमुदित रक्खें!

सियाबर रामचन्नर जी की जैहो!

Friday, February 27, 2009

दुःख में जो-जो मुंह से निकला सब लिख देना दुआ क्या

नवीन जोशी 'हिन्दुस्तान' के लखनऊ संस्करण के सम्पादक हैं. उनके साथ की गई कौसानी यात्रा और उस से सम्बन्धित एक मनोरंजक वृत्तान्त मैंने कुछ समय पहले कबाड़ख़ाने में प्रस्तुत किया था.

नवीन दा बड़े सहृदय व्यक्ति हैं और उनका एक उपन्यास 'दावानल' सामयिक प्रकाशन से २००६ में छपकर आया था. बीसवीं सदी के सन अस्सी के दशक में छिड़े चिपको आन्दोलन को इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बनाया गया है. बहुत सारे आत्मकथात्मक तत्व भी इस कृति में पिरोये गए हैं. कुमाऊंनी ग्रामीण परिवेश और पलायन को अभिशप्त निर्धन कुमाऊंनी समाज के युवाओं की कई छोटी-बड़ी कहानियां इस उपन्यास की सतह के ऐन नीचे सांस लेती रहती हैं.

'दावानल' एक महत्वपूर्ण कृति है. आप के समक्ष प्रस्तुत है इस उपन्यास का एक मनोरंजक हिस्सा:




...परदेस को चिठ्ठी लिखने का भी कोई कायदा होता होगा.

बाबू ने ही तो कहा था - "दुःख में जो-जो मुंह से निकला सब लिख देना दुआ क्या?"

फिर तो परदेस में चिठ्ठी बांचने का भी कोई कायदा होता होगा. लेकिन बाबू ने यह तो कभी नहीं कहा. मोहन की चिठ्ठी तो वे पूरी पढ़ देते थे.

तो जो-जो चिठ्ठी में लिखा ठहरा वह सब बांच देना हुआ क्या?

वह पीतांबर, जो गुसांईं दत्त के क्वार्टर में रहता था, किसी-किसी शाम पुष्कर को चुपचाप बुलाकर हाते के बाहर, कालोनी की सड़क पर लगे बिजली के खम्भे के नीचे ले जाता था. बिजली के लट्टू के पीले प्रकाश में जांघिये की कमर में खोंसा लिफ़ाफ़ा निकालता और कहता था - "पढ़ तो यार, क्या लिखा है."

पीतांबर तेईस-चौबीस बरस का हट्टा-कट्टा लड़का था और चीफ़ साहब की कोठी में काम करता था. चर्चा होती थी कि उसकी बेली पतली-पतली रोटियां मेमसाहब को बहुत पसंद हैं. पहाड़ी नौकर तो उन्हें खूब पसन्द थे, मगर आमतौर पर उनमें यह नुक्स होता था कि वे रोटियां मोटी-मोटी बेलते थे. पीतांबर अपवाद था और ऐसे फुल्के बेलता था कि फूंक मारो तो उड़ जाएं. यह बात अक्सर गुसांईं दत्त कहते थे जिनसे पीतांबर की पकाई रोटी खाई ही नहीं जाती थी. वे उससे सारा काम करा लेने के बाद रोटी पकाने खुद बैठते थे. पीतांबर पांच भाइयों और दो बहनों में सबसे बड़ा था. घर में भाई-बहनों के अलावा बूढ़े मां-बाप थे, जिन्होंने पीतांबर के नौकर होते ही उसका ब्याह कर दिया था. कभी स्कूल का मुंह न देखने वाले पीतांबर को सौभाग्य या दुर्भाग्य से पांच पास दुल्हन मिली थी जो 'प्राणनाथ' सम्बोधन से उसे चिठ्ठी लिखती थी. शादी हुए दो बरस हो रहे थे और इस दौरान पीतांबर दस और फिर पंद्रह दिन की छुट्टी लेकर कुल दो बार घर गया था. शादी से पहले माता-पिता या भाई-बहन की चिठ्ठियां वह गुसांईंदत्त जी से पढ़वा लिया करता था. लेकिन अब चिठ्ठी पाते ही उसे पाजामे के भीतर जांघिये की कमर में खोंस लेता और शाम को कोठी की रसोई निबटा आने के बाद पुष्कर को पकड़कर सीधा बिजली के खम्भे के नीचे ले जाता.

बाद में पुष्कर को उसकी चिठ्ठियां पढ़्ते हुए अजीब सा महसूस होने लगा था, जिसमें एक हिस्सा अपराधबोध का भी था. पति के नाम पत्नी की अंतरंग चिठ्ठी, बल्कि प्रेमपत्र पढ़ते हुए वह अचकचा भी जाता था. वह सोचता, क्या उसे यह सब पढ़ना चाहिये? लेकिन न पढ़े तो पीतांबर को कैसे पता चलेगा कि उसकी बीवी ने रात को अंधेरी कोठरी में, छिलुके की कांपती लौ में अपने एकाकी दिल का क्या-क्या हाल लिखा है. वह अनपढ़ा रह जाने के लिए तो नहीं लिखा गया. लेकिन यह लड़की कैसी पागल है, जो यह भी नहीं सोचती कि उसका पत्र उसके पति को किसी और के द्वारा पढ़कर सुनाया जाएगा और जो उन दोनों के बीच कहा-सुना जाना चाहिये, वह किसी तीसरे के होंठों से उचारित होगा.

"पढ़ यार, रुक क्यों गया? साफ़ नहीं लिखा है क्या?" उसका असमंजस देखकर पीतांबर उतावली मचाता. चिठ्ठी सुनते हुए वह कैसा - कैसा तो करने लगता था. बार बार अपने बैठने का तरीका बदलता, चिठ्ठी के ऊपर झुककर टेढ़ेमेढ़े हरफ़ों को घूरा करता, जैसे कि जो पढ़ा जा रहा हो, उसकी पुष्टि करता हो. वह बिल्कुल ही भूल जाता था उसकी पत्नी का पत्र कोई तीसरा, बड़ा होता हुआ लड़का पढ़ रहा है.

मरती हूं तुम्हारी याद में जिंदा न समझाना
लिखती हूं पत्र खून से स्याही न समझना


उसकी हर चिठ्ठी इसी शेर से शुरू होती थी और कागज़ पर यह सबसे ऊपर बीचोबीच ऐसे लिखा होता था जैसे कुछ लोग 'ऊं श्री गणेशाय नमः' लिखते हैं.

"प्राणनाथ, ईश्वर की कृपा से आपको कुशल से चाहती हूं. यहां सब कुशल है. दिन भर की थकी रात को छिलुका जलाकर यह चिठ्ठी लिख रही हूं. पूरे बदन में दर्द होता है. आज दिन भर खेतों में पोर्सा (खाद) फेंका. कम से कम चढ़ाई में ही पचास चक्कर लगाए होंगे. गर्दन में बहुत दर्द हो रहा है. नींद नहीं आती. दिन तो किसी तरह काम करके निकल जाता है, मगर रात कैसे काटूं?

"क्या करूं, यहां ऐसे लोगों के बीच फंसी हूं. आपके ईजा-बाबू एक बार भी नहीं कहते कि दुल्हैणी थोड़ी देर आराम कर ले. अपनी लड़कियों का तो बड़ा खयाल रखते हैं. उनसे घर के सामने वाले खेतों में खाद डलवाई. मुझे ऊपर चढ़ाई वाले खेतों में लगा दिया. दिन भर जुती रही. एक आपका सहारा हुआ तो आप परदेस ठहरे. किससे अपना दुःख कहूं. कभी-कभी आपकी सूरत याद करती हूं. दो बरस में ठीक से देखा भी नहीं. आप कोठरी में आते ही छिलुका बुझा देने वाले हुए. खुसफ़ुश बात भी करने देने वाले नहीं हुए. कितनी बार उन रातों की याद करती हूं. कैसे फुर्र से उड़ गए आठ-दस दिन. दो-चार दिन की छुट्टी लेकर आ जाओ या मुझे भी अपने साथ ले जाओ. जब बूढ़े होंगे तब ले जाओगे क्या.

दिल्ली बटी जहाज उड़ो, बंबई सहर
या तु ऐ जा, या मैं ल्हि जा, कि दी जा जहर.


(दिल्ली से जहाज उड़ा, पहुंचा बम्बई शहर. उसी तरह तुम आ कर मुझे ले जाओ या भेज दो जहर.)

"उस रात आपसे मेरी दो चूड़ी टूट गई थी और आपकी ऊंगली से खून आ गया था. हाथ की चूड़ी बजती है तो भी आपकी नराई लग जाती है.

कुर्माई ले घोल लगायो, धरती कोरी-कोरि
त्वीलो मेरो मांस खायो, रात चोरी-चोरि


(जैसे कुर्माई धरती कोर-कोर कर अपना घोंसला बनाती है, वैसे ही आप रातों को चोरी-चोरी मेरा मांस खा जाते हैं.)

"अच्छा प्राणनाथ, अब लिखना बन्द करती हूं. छिलुका भी बुझ रहा है. कलम की गलती माफ़ करना. पत्र का जवाब आप ही आना.

आपकी प्राणप्यारी

जानकी"

(जारी है ...)

Thursday, February 26, 2009

ग़म-ए-हस्ती का असद किस से हो जुज़ मर्ग इलाज



मेहदी हसन साहेब ने कुछ बरस पहले तरन्नुम नाज़ के साथ एक अल्बम निकाला था - नक़्श फ़रियादी. चचा ग़ालिब की तमाम लोकप्रिय ग़ज़लें इस अल्बम का हिस्सा थीं. ये बात अलहदा है कि इन ग़ज़लों में शास्त्रीयता का वह उस्तादाना-ख़लीफ़ाना पुट नहीं है जो बाबा मेहदी हसन ख़ान साहेब की गायकी का ट्रेडमार्क है. मगर किसी-किसी सुबह मुझे इस अल्बम को सुनना और तसव्वुर-ए-जानां किये हुए देर तलक लेटे रहना बहुत सुकूनभरा लगता है. शायद आपको भी लगे.



डाउनलोड का लिंक ये रहा:

आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक

Wednesday, February 25, 2009

गुलज़ार की नज़्म जंगल और पेंटिंग


है सौंधी तुर्श सी खु़श्बू धुएं में,
अभी काटी है जंगल से,
किसी ने गीली सी लकड़ी जलायी है!
तुम्हारे जिस्म से सरसब्ज़ गीले पेड़ की
खु़श्बू निकलती है!
घनेरे काले जंगल में,
किसी दरिया की आहट सुन रहा हूं मैं,
कोई चुपचाप चोरी से निकल के जा रहा है!
कभी तुम नींद में करवट बदलती हो तो
बल पड़ता है दरिया में!

तुम्हारी आंख में परवाज दिखती है परिंदों की
तुम्हारे क़द से अक्सर आबशारों के हसीं क़द याद हैं!


(पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास)

Tuesday, February 24, 2009

मंकी लाइक पीनट ... मंकी मंकी वैरी हैप्पी

दिल्ली में मयख़ाने वाले मुनीश भाई ने सलाह दी थी कि मौका मिले तो जयपुर के नज़दीक गलता नामक जगह पर ज़रूर जाऊं. होटल से गलता की तरफ़ चलते हुए मैंने टूरिस्ट गाइड में उड़ती निगाह डाली: "जयपुर से दस किलोमीटर दूर स्थित गलता एक छोटा सा सुन्दर हिन्दू तीर्थस्थल है. विश्वास किया जाता है कि ऋषि गलव ने यहां रहकर साधना वगैरह करते हुए अपने दिन बिताए थे." टूरिस्ट गाइड में लिखित आखिरी पैराग्राफ़ बताता है कि गलता तीर्थ का पूरा परिसर अपने सौन्दर्य के कारण ज़्यादा जाना जाता है बजाय अपने महात्म्य के.

जयपुर बाईपास पार करते ही उचाट किस्म की सड़क शुरू हो जाती है: कंटीली झाड़ियां, छोटे-बड़े आश्रमों-मन्दिरों के बोर्ड, अधिकतर बोर्डों के ऊपर विराजमान बन्दर, हल्की उमस और धूल. करीब दस किलोमीटर निकल पड़ने के बाद भी जब कुछ ख़ास नज़र नहीं आता तो मुझे शक होता है कि हम किसी गलत रास्ते पर निकल आए हैं. रास्ता पूछे जाने पर ही इत्मीनान होता है.

चाय-पानी-प्लास्टिक मालाओं के क़रीब दसेक खोखे और उनके आसपास बिखरा सतत उपस्थित कूड़ा, प्लास्टिक की हवादार उड़ती थैलियां, उदास पस्त-पसरी गायें, लेंडी कुत्ते और गोबर इकठ्ठा करते वयोवृद्ध नागर बतलाते हैं कि आप किसी टूरिस्ट-स्पॉट पर पहुंच गए हैं. गाड़ी से बाहर निकलते ही "यस सर गाइड गाइड वाटर वाटर ..." की ध्वनियां कान में पड़ते ही याद आना ही होता है कि मेरे साथ दो विदेशी महिलाएं भी हैं. पिछले क़रीब बीस सालों से मेरे साथ ऐसा होता ही रहता है और ऐसा होने की स्थिति में या तो मैं फट पड़ता हूं या निखालिस अंग्रेज़ एक्सेन्ट में "न्नो सैंक्स ..." कहता अपनी पानी की बोतल को दुलराने लगता हूं (कभी कभार जब बोतल में भरे पानी की प्रकृति को अन्य पारदर्शी द्रवों द्वारा पवित्र बना लिया गया होता है, मैं चढ़ी हुई दोपहरी में भी उस से दो घूंट मार लेने की बहादुरी दिखा लेता हूं).

ऐसा ही कुछ कर के हम श्री गलता जी नामक विख्यात हिन्दू तीर्थ का रुख करते हैं. हम माने मैं, सबीने और सोनिया. श्री गलता जी धाम का गेट दूर से ऐसा लगता है मानो स्थानीय नदी पर बने सरकारी पुल पर चुंगी वसूलने को लगाए गए किसी स्थानीय माफ़िया-राजनेता-राजनेता ठेकेदार के मातहतों ने कोई बदतमीज़ बैरियर लगा रखा हो.

बैरियर पर पहुंचते ही एक आवाज़ आती है. इस आवाज़ में लालच-हरामीपन-नंगई-लुच्चापन इत्यादि वे तमाम गुण मौजूद हैं जिनके चलते मैं कई बार विश्वामित्र का प्लास्टिक का पुतला बनने पर मजबूर हुआ हूं. "सार ... सार ... लुक हेयर ..."

"बोल! ..." मैं हिकारत से उस पैंतालीसेक सालों के कामचोर से कहता हूं. कामचोर मुझे अंग्रेज़ महिलाओं का गाइड समझ कर उनसे मुख़ातिब होता है: "मैडम मैडम यू लाइक पीनट ... मन्की लाइक पीनट ... यू गिव हिम वन बाई वन ... मंकी लाइक पीनट ... मंकी मंकी वैरी हैप्पी" (यह पूरा वाक्य इस कामचोर की ज़िन्दगी में की गई दुर्लभ मेहनत का कुल हासिल था). जब वह दुबारा इसी वाक्य को तनिक और ऊंची आवाज़ में दोहराता है मेरी इच्छा होती है उस के मुंह पर थूक कर कहूं कि बेटा कल से मेरे पास आ जाया करना. और कुछ नहीं तो तुझे फावड़ा-गैंती पकड़ना तो सिखा ही दूंगा. सबीने मेरे इस कोटि वाले गुस्से से परिचित है सो मुझे समझा कर बैरियर के उस पार घसीट ले जाती है.

एक गेरुवाधारी युवा ठग हाथों में दो मोबाइल थामे हमारी तरफ़ आ रहा है. बैरियर से अन्दर घुसते ही दांई तरफ़ एक बहुत नया सफ़ेद मार्बल का चबूतरा है जिसके एक कोने पर हनुमान का हास्यास्पद सा मन्दर चेप दिया गया है. मन्दर के भीतर चमचम करते प्लास्टिक और लाल-नारंगी रंगों की मनहूसियत बिखरा दी गई है.

अभी मेरा मन उस द्विमोबाइलोन्मुखी रुद्रांश गेरू चोट्टे के प्रति गुस्से से भरने को ही हो रहा था कि एक और छोटा सा अदमी सामने आ गया जिसकी सूरत पर बचपन से ही तमाम कुटैव कर चुकने की छापें छपी हुई थीं. "कैमरा है?" उसने बहुत उद्दंडता से पूछा. "है! बोल!" मेरा गुस्सा अब चरम पर पहुंचा ही चाहता था. "फ़ोटो नहीं खींचनी हमें!" मेरा ध्यान अपने कदमों तक बहती आती गन्दगी भरी अस्थाई नाली पर जा चुका था. "पांच सौ का जुरमाना भरना पड़ेगा" वह अपनी उद्दंडता का प्रदर्शन जारी रखता है. "आजा मेरे पीछे ... ले जाना अपना जुरमाना!" मैं एक मोटी गाली दे कर आगे बढ़ता हूं. मेरे साथ की दोनों महिलाएं भी सामने दिख रही किलेनुमा इमारतों की तरफ़ तनिक बेरुखी से देखती हुईं कदम बढ़ाने लगती हैं.

ज्यों ज्यों आगे बढ़ते जाते हैं गन्दगी और बदबू बड़ते जाते हैं. श्री गालता जी धाम में एन्ट्री लेते ही गन्द और गाद से भरे दो बजबजाते कुण्ड दिखाई देते हैं. "स्नेक स्नेक फ़ोटो ओटो फ़िफ़्टी रुपीज़ ओनली ..." कहती टोकरी में दयनीय सांप और गोदी में सांप से भी दयनीय बच्चा चिपकाए तीन सींकिया औरतें हम पर टूट पड़ती हैं. बन्दरों की संख्या एक करोड़ के पार लगती है. भक्त किस्म के कुछ भारतीय परिवार बिना परेशानी के कीचकुण्ड तक पहुंच चुके हैं. रास्ता प्लास्टिक की बेशुमार थैलियों और विष्ठा से भरा हुआ है. डकैत पिण्डारी दिखते पांचेक शोहदे ऊपरी कुंड के पास बैठे स्त्रीदर्शन में व्यस्त हैं. सबके माथों पर तिलक है, गलों में रुद्राक्ष की मालाएं हैं. उनका नेता मुझे अंग्रेज़ समझता है और बहुत भद्दी आवाज़ में मेरे साथ चल रही स्त्रियों पर कमेन्ट करता है. मेरे मुंह से और मोटी गाली निकलती है और पिण्डारीसमूह इधर उधर हो जाता है.

मैं इस जगह एक पल भी नहीं ठहर सकता अब. ऋषि गलव की कर्मभूमि पर कई सदियों का कीचड़ ठहरा हुआ है. निचले कीचकुण्ड के पानी को अंजुरी में ले कर दो तोंदू धर्मपारायण आत्माएं जैसे ही उसका कुल्ला करती हैं, मुझे उबकाई आ जाती है.
मैं अपने वापस लौटने की सूचना जारी करता हूं और तेज़ तेज़ कदमों से नीचे उतर आता हूं. फ़ोटो के पैसे लेने वाले चोट्टे की निगाहें मुझ पर लगी हुई हैं. इसके पहले कि वह कुछ कहे मैं उसे घूर कर देखता हूं, सिगरेट सुलगाता हूं और ढेर सारा धुंआ उसकी दिशा में उड़ाता हूं. एक बार पलट कर देखता हूं.

असल में यह धाम वास्तुशिल्प का इस कदर बेहतरीन नमूना है कि दूर से देखने पर अकल्पनीय सुन्दर लगता है. पर ऐसा हमारे महान देश की अधिकतर महान चीज़ों के साथ होता है. मैं इस जगह की बदहाली से कम, सरकार और लोगों की बेज़ारी से अधिक दुखी हूं.

हमारे पीछे कुछ और विदेशी सैलानी आ चुके हैं और बाहरी इमारतों के अहातों में मौजूद बन्दरों को मूंगफलियां खिला रहे हैं. कामचोर ने कुछ बिजनेस कर लिया दिखता है और मंकी मंकी बहुत हैप्पी हैप्पी भाव से पीनट्स सूत रहे हैं.

(जयपुर यात्रा अगले हिस्से में समाप्य)

Monday, February 23, 2009

सपनों की होती है हृदय की भाषा



अनीता वर्मा जी से सम्बन्धित पिछली पोस्ट में मैंने आपको बताया था कि दो-तीन साल पहले उनका बहुत बड़ा ऑपरेशन हुआ था. उस भीषण सर्जरी में काफ़ी समय तक उनके हृदय को देह से अलग निकाल कर रख दिया गया था.

ज़रा देखिये सतत आशावान अनीता जी उस विकट अनुभव से भी जीवन निकाल कर कैसे खींच लाती हैं. शायद इसी वजह से वे मुझे आज लिख रहे कवियों की जमात में बहुत बहुत ज़रूरी लगती हैं अपने लिए.

पढ़िये उनके दूसरे संग्रह 'रोशनी के रास्ते पर' से एक और कविता:


हृदय

इसकी भाषा सपनों की है
चला जाता है दूर
दूसरे हृदयों की खोज में
अदृश्य खिड़कियां खोलता हुआ
दुख की छाया में बैठकर सुस्ताता
हवा में पिरोता रोशनी के फूल

अभी यह मेरे भीतर था
ब्रह्मांड से एकाकार बजता हुआ
टिक-टिक टक-टक मेरा समय

अब यह टेबल पर रखा है
मुझसे बाहर और अलग
कुछ अनजान हाथों में
दिल के माहिर रफ़ूगरों के बीच
जीवन की आभा दमकती है
इसके रक्तहीन मुख पर
इस तरह वह जीता है मेरे बग़ैर
खुली हवा में सांस लेता हुआ
देखता हुआ रंग, स्पर्श और चेहरे

किसी टेबल पर रखा है मेरा अकेलापन
मैं एक कोने में वह दूसरे कोने में
बेसुध होते हुए भी मैं इन्तज़ार करती हूं
उसके लौटने का
अंधेरे में टटोलती हूं अपना आसपास
वह भेजता है अपनी धड़कन
दूर कहीं ब्रह्मांड से.

Sunday, February 22, 2009

नाहरगढ़, टुन्नेश्वरी देवी और बन्दर चटनी


नाहरगढ़ के किले की लोकेशन ने मुझे हमेशा बहुत आकर्षित किया है. जयपुर से कुल छः-सात किलोमीटर दूर एक ऊंचे पहाड़ीनुमा टीले पर मौजूद इस किले से जयपुर नगर का सुन्दर नज़ारा देखने को मिलता है.

हमसे थोड़ा आगे एक युवक गाइड ऑस्ट्रेलियाई पर्यटकों के एक दल को किले के बारे में बहुत-सी सच्ची-झूठी जानकारियां दे रहा था (ये जानकारियां आप किसी भी सम्बन्धित वैबसाइट या ट्रैवलबुक से प्राप्त कर सकते हैं). अपनी वाचालता, बददिमागी और बदशऊरी के चलते ऑस्ट्रेलियाई बाकी गोरी चमड़ी वालों से अलग पहचाने जा सकते हैं.

किले का शिल्प भी वाकई बहुत अचरजकारी है और इसकी अच्छे से देखभाल भी की गई है. किले में रहने की इच्छा रखने वालों के लिए कुछेक शाही कमरों को किराये पर लिया जा सकता है.

हम लोग फ़ुरसत से किले का दर्शन कर के रेस्त्रां की तरफ़ निकल ही रहे थे कि किले के प्रवेशद्वार के ठीक बग़ल में दो एम्बेसेडर गाड़ियां रुकीं. लाल बत्ती, गनर वगैरह. तदुपरान्त बुज़ुर्ग से दिखने वाले एक टाई-सूटधारी सज्जन बड़ी शान से उतरे और बहुत आधिकारिक मुद्रा धारण किये हुए किले में प्रविष्ट हुए. ऑस्ट्रेलियाइयों का गाइड फुसफुसाहटभरी आवाज़ में बताता है कि उक्त सज्जन नाहरगढ़ किले के वर्तमान उत्तराधिकारी हैं. चलिये साहब हम नाचीज़ भी अब सुकून से मर सकेंगे कि हमने एक जीता-जागता महाराजा देख लिया. यह दीगर था कि महाराज की शान-ओ-शौकत की अब ऐसी-तैसी फिर चुकी थी. हाथी-घोड़ों के बदले सरकार ने उन्हें लालबत्ती वाली एम्बेसेडर गाड़ियां मुहैय्या करवा दी थीं. शेरों के शिकार पर बैन है सो महाराजा को मुर्गी-बकरियों से काम चलाना पड़ता होगा. उनके ख़ानदानी मकान की बुर्जियों पर बन्दरों के झुण्ड और अहाते में फ़िरंगी टूरिस्ट काबिज़ हो चुके थे. मुझे बेसाख़्ता वीरेन डंगवाल की 'तोप' कविता याद आ गई.

जब तक हम रेस्त्रां पहुंचते, ऑस्ट्रेलियाई कुछ मेज़ों पर फैल चुके थे और बीयर की बोतलों का श्राद्ध कर रहे थे. उनके साथ बैठा गाइड युवक अब उनके सामने पहले से भी अधिक दुबला लग रहा था. ऑस्ट्रेलियाई पहले से ही टुन्न रहे होंगे क्योंकि एक-एक बीयर सूत चुकते ही वे मोटरसाइकिलों की सी बीहड़ आवाज़ों में हंसी-ठठ्ठा करने लगे थे. गाइड बार-बार घड़ी देख रहा था.

इस टुन्नसमूह का नेतृत्व कर रही करीब पचास साला एक महिला ने गाइड से ऊलजलूल सवाल पूछने चालू किये हुए थे. उसकी आवाज़ रपट रही थी और उसके नथुनों से निकलता सिगरेट का गाढ़ा धुआं छूटने ही वाले किसी भाप-इंजन का आभास दे रहा था.

उसके इसरार पर गाइड ने अपने बटुए से अपने मां-बाप की तस्वीर निकाली. "ओकै ... ओखै ... ज़ैट्स हिज़ फ़ैदा एन ज़ैट्स ज़ा मैदा ... स्वीट! ..." टुन्यासिनी देवी की आवाज़ में टाइमपास करने की आजिज़ी और बदतमीज़ी है. फ़ैदा-मैदा की तस्वीरें कई हाथों से होती हुई वापस गाइड के पास आती है तो टुन्नेश्वरी माता पूछती हैं "मो फ़ोटोज़?" गाइड अपनी बहन की तस्वीर दिखाता है: "ग्राएट ... ग्राएट ... शीज़ प्रटी ... वैवी प्रटी ..."

बीयरम्मा की दूसरी बोतल निबट चुकी है और वह खिलंदड़ी - मोड में आ गई है. "शो मी यो ब्रादाज़ फ़ोटो बडी ... आई वान्ना सी यो ब्रादा ..." मुझे लगता नहीं गाइड ने इस कदर विकट पर्यटकों के साथ कभी काम किया है. "शो मी यो ब्रादाज़ फ़ोटो बडी ... आई वान्ना सी यो ब्रादा ..." ...

हम अवाक इस बेहया कार्यक्रम को कुछ देर झेलते हैं. इसके पहले कि मेरा गुस्सा फूटे, मैं बाहर खुले में लगी एक मेज़ का रुख़ करता हूं. खुले में बन्दर-साम्राज्य का स्वर्णिम काल चल रहा है. एक बन्दर बाकायदा एक कुर्सी पर बैठा हुआ टमाटर कैचप की बोतल थामे बैठा है. कुछ देर उसे उलटने-पलटने पर उसे बोतल खोलने का जुगाड़ हासिल हो जाता है. वह इत्मीनान से दो तीन बार कै़चप सुड़कता है और आगामी कार्यक्रम के बारे में विचारलीन होने ही वाला होता है कि रेस्त्रां के भीतर से आकर एक वेटर उसे डपटकर दूर भगा देता है. उसके पीछे-पीछे आया, रेस्त्रां का मालिक लग रहा एक बुढ़ाता हुआ आदमी बन्दरों के साथ अपनी नज़दीकी रिश्तेदारी की घोषणा करता पांचेक ढेले उनकी दिशा में फेंकता है. उसकी निगाह खुली हुई कैचप बोतल पर पड़ती है. वह झट से वहां जाकर उसे उठाता है. जेब से गन्दा रूमाल निकालता है और ढक्कन को पोंछ कर उसे बोतल में फ़िट करता है और उसे पुनः मेज़ पर स्थापित कर देता है.

कालान्तर में हमारी मित्र सोनिया ने टमाटर कैचप को 'मंकी सॉस' कहना शुरू कर दिया था.

(जयपुर के आसपास पाये जाने वाले बंदरों और मनुष्यों की कुछ अन्य प्रजातियों से आपकी मुलाकात अगली किस्त में करवाता हूं.)

घर में अकेली औरत के लिए - चंद्रकांत देवताले

तुम्हें भूल जाना होगा समुद्र की मित्रता और जाड़े के दिनों को
जिन्हें छल्ले की तरह अँगुली में पहनकर
तुमने हवा और आकाश में उछाला था
पंखों में बसन्त को बाँधकर
उड़ने वाली चिड़िया को पहचानने से
मुकर जाना ही अच्छा होगा...
तुम्हारा पति अभी बाहर है तुम नहाओ जी भर कर
आइने के सामने कपड़े उतारो
आइने के सामने पहनो
फिर आइने को देखो इतना कि वह तड़कने को हो जाए
पर तड़कने के पहले अपनी परछाई हटा लो
घर की शान्ति के लिए यह ज़रूरी है
क्योंकि वह हमेशा के लिए नहीं
सिर्फ़ शाम तक के लिए बाहर है
फिर याद करते हुए सो जाओ या चाहो तो अपनी पेटी को
उलट दो बीचोंबीच फ़र्श पर
फिर एक-एक चीज़ को देखते हुए सोचो
और उन्हें जमाओ अपनी-अपनी जगह पर
अब वह आएगा
तुम्हें कुछ बना लेना चाहिए
खाने के लिए और ठीक से
हो जाना होगा...सुथरे घर की तरह
तुम्हारा पति
एक पालतू आदमी है या नहीं
यह बात बेमानी है
पर वह शक्की हो सकता है
इसलिए उसकी प्रतीक्षा करो
पर छज्जे पर खड़े होकर नहीं
कमरे के भीतर वक़्त का ठीक हिसाब रखते हुए
उसके आने के पहले
प्याज मत काटो
प्याज काटने से शक की सुरसुराहट हो सकती है
बिस्तर पर अच्छी किताबें पटक दो
जिन्हें पढ़ना कतई आवश्यक नहीं होगा
पर यह विचार पैदा करना अच्छा है
कि अकेले में तुम इन्हें पढ़ती हो ...

Saturday, February 21, 2009

जयपुर का म्यूज़ियम, मिश्र की ममी, बारोक पेन्टिंग्ज़ और चोट्टे की जिज्ञासा



इस बार जयपुर में साथ में हमारी मित्र सोनिया भी थी. वियेना में रहने वाली पेशे से मानवशास्त्री सोनिया ने बाली और थाईलैंड की जनजातियों पर महत्वपूर्ण शोधकार्य किया है. उसका स्वाभाव एक नैसर्गिक घुमन्तू का है. तीन - चार दिन जयपुर और आसपास रहने - घूमने की योजना थी.

जयपुर में उस रोज़ सोनिया गांधी की रैली थी. हज़ारों-हज़ार स्त्री-पुरुष पैदल, बसों में लदे-ठुंसे सोनिया गांधी को देखने-सुनने की नीयत से राजस्थान के तमाम इलाकों से पहुंचे थे. जगह-जगह ट्रैफ़िक जाम. हमारी वाली सोनिया को कुछ फ़ोटू वगैरह लेने का अच्छा मौका मिल गया.

पहला भ्रमण म्यूज़ियम का तय हुआ क्योंकि वह रास्ते में पड़ गया.

संग्रहालय में प्रदर्शित की गई चीज़ें जाहिर है वैसी ही थीं जैसा उन्हें होना चाहिए था: कुछ परम्परा, कुछ इतिहास, पार्श्व में हल्का राजस्थानी संगीत वगैरह वगैरह. यह सब देखने में मसरूफ़ हो ही रहे थे कि दिल्लीवाली सोनिया के भक्तों का रैली से छूटा रेला किसी अंधड़ की तरह संग्रहालय में घुस आया. छः फ़ीट लम्बी ख़ूबसूरत हमारी वाली सोनिया उस रेले को संग्रहालय में प्रदर्शित अन्य दुर्लभ वस्तुओं जैसी ही प्रतीत हुई. मानवशास्त्री सोनिया के लिए भी घूंघट कढ़ी ग्रामीण महिलाओं की तनिक सकुचाई भीड़, भिन्न आकारों की मूंछों से सुसज्जित मर्दाना चेहरे और मांओं का हाथ थामे बड़ी-बड़ी आंखों से अगल-बगल देखते बच्चे, उसकी सतत -अनुसंधानरत जिज्ञासा के कारण बहुत दिलचस्प विषय थे. क़रीब दस मिनट चले इस पारस्परिक सांस्कृतिक आदान-प्रदान के उपरान्त स्थितियों के सामान्य होने पर ही संग्रहालय दर्शन का कार्य पुनः चालू हुआ.

एक जगह बहुत सारी भीड़ जमा हो कर झुकी हुई कुछ देख रही थी. पास जाकर देखा तो वही चीज़ थी जो मुझे बचपन में तमाम संग्रहालयों में सबसे ज़्यादा आकर्षित करती थी. मिश्र की ममियां सम्भवतः हमारे देश के हर बड़े म्यूज़ियम में धरी हुई हैं. क्यों धरी हुई हैं और क्या वे असली हैं - ये सवाल हैं जो निवाड़ सरीखी पट्टियों में लिपटी सदियों से सुरक्षित मृत मानव देहों (अगर वे देहें ही हैं तो ... अपने मुल्क में अदरवाइज़ सब कुछ पॉसिबल है) को देखते हुए मुझे थोड़ा-बहुत परेशान करते हैं. यानी आप अभी अभी मीणा, भोपा, भील और लोहार इत्यादि जनजातियों की जीवनशैली का मुआयना कर रहे थे और अचानक यह ममी. ... क्या तमाशा है भाई!

इस से भी बड़ा तमाशा आगे आने को था. एकाध ख़ाली दीवारों को भर देने की नीयत से ब्रिटिश काल की कुछ बारोक पेन्टिंग्ज़ सजाई गई थीं. आप जानते हैं न विक्टोरियन काल की बारोक पेन्टिंग्ज़ कैसी होती थीं - किसी सुरम्य भारतीय लोकेशन पर कोई अंग्रेज़ पार्टी वगैरह हो रही होती थी जिस में लोगों की संख्या एक से लेकर दर्ज़नों तक हो सकती थी. हाथों में ट्रे लिये साफ़े-पगड़ियां बांधे भारतीय चाकरों की टोलियां होती थीं और हां इन चित्रों का सबसे ज़रूरी तत्व होता था कुछ गोरी महिलाओं की उपस्थिति. ये स्त्रियां आमतौर पर तनिक मुटल्ली होती थीं और इन्हें अपने ऊपरी बदन को ढंकने से किसी डॉक्टर ने मना किया होता था.

म्यूज़ियम के भीतर काफ़ी उमस लगने लगी थी और हम बाहर निकलना चाह रहे थे. सोनिया ने दबी सी मुस्कान से मुझे उधर देखने को कहा: मूंछों, नंगे पैरों और सूरज में तपी झुर्रियों वाले साठ-सत्तर की उम्र के कुछ बुज़ुर्ग ग्रामीण पुरुष उक्त पेन्टिंग्ज़ में पाई जाने वाली उक्त महिलाओं के अंगों के बारीक अनुसंधान में रत थे. दबे स्वरों में एक दूसरे से कुछ कहते भी जाते थे. हॉल के बीच में खड़ी महिलाओं के अब ऊबा हुआ दिखने लगे झुंड की तरफ़ चोर निगाह कर एक बुज़ुर्ग सम्भवतः अपनी पत्नी को ताड़ने की कोशिश करते दिखाई दिए कि कहीं उन्हें तो नहीं ताड़ा जा रहा. वे निश्चिन्त हो कर पुनः अपने अनुसंधान में लीन हो गए.

मेरे भीतर बैठा शरारती चोट्टा हंसता हुआ मुझसे पूछता है कि ताऊ जी क्या सोच रहे होंगे. "पधारो म्हारे देस" - चोट्टा ख़ुद ही जवाब भी देता है.

(अगली किस्त का इन्तज़ार कर सकते हैं)

Friday, February 20, 2009

हमें वहीं जाना होता है बार बार उन चेहरों का हिस्सा बनने

अनीता वर्मा की कविताओं से आप परिचित हैं ही. उनका पहला संग्रह 'एक जन्म में सब' बहुत चर्चित हुआ और सम्मानित भी. अभी दिल्ली में उनका नवीनतम संग्रह 'रोशनी के रास्ते पर' (२००८ में प्रकाशित) मिल गया. उनसे मेरी सिर्फ़ एक मुलाकात है. दो-तीन वर्ष पहले उनका एक बेहद जटिल ऑपरेशन हुआ था दिल्ली में - बहुत ही ख़तरनाक. मैं शाम को दिल्ली पहुंचा था. मुझे उसी रात यूरोप यात्रा पर निकल जाने की जल्दी थी. अनीता जी अस्पताल से वापस आकर मेरे होटल से नज़दीक मौजूद झारखण्ड भवन में स्वास्थ्यलाभ कर रही थीं.

एक संक्षिप्त मुलाकात के दौरान मुझे उनकी निश्छल पारदर्शिता और मजबूत ऑप्टिमिज़्म ने बांध कर रख लिया था. आज तक उनसे सम्पर्क बना हुआ है और यही दो उनकी ख़ूबियां आज भी मुझे सबसे ज़्यादा आकर्षित करती हैं. हां, बेहतरीन इन्सान तो ख़ैर वे हैं ही.

इस नए संग्रह में वे और अधिक आशाभरी मानवीय कविताओं के साथ आई हैं.

मेरा प्रयास रहेगा आप को इस संग्रह से चुनिन्दा रचनाएं पढ़वा सकूं. इस क्रम में आज प्रस्तुत है उनकी 'अस्पताल डायरी':




अस्पताल डायरी



शीशे के बाहर बैठा है
एक कबूतर और उसका बच्चा
यह अस्पताल बीमारों को जीवन देता है
कबूतर को भी देता है जगह



मृत्यु चली गई पुरानी चप्पलें पहनकर
मैं एक बार फिर लौट आई
अपने आप से कोई समझौता करने



दूर सड़क पर गाड़ियों की रोशनी
वहां गति है जीवन है
यहां दर्द की आंखें उन्हें देखती हुईं



वह मुझे उठाती है ज़मीन पर गिरे हुए
एक फूल की तरह
हमारे बीच दर्द की आवाज़ है.



मिज़ोरम की वह नर्स नीलांचली
मेरी हर बात दोहराती है
मैं कहती हूं बत्ती बन्द कर दीजिए
वह कहती है बत्ती बन्द कर दीजिए
और बुझा देती है बत्ती
मैं कहती हूं दूसरे बिस्तर की मरीज़ को
लगती है ठण्ड ए.सी. बन्द कर दीजिए
और वह बन्द कर देती है ए.सी.
मैं कहती हूं मुझे दर्द है
वह कहती है दर्द है और ला देती है दवा



बारिश भीतर उतरती रही
ज्यों ही उसे सुना
वह गुम हो गई.



रात की तरह मृत्यु की परछाईं नहीं होती
वह सिर्फ़ हमें आग़ोश में ले लेती है
हम छटपटाते हैं सिर धुनते हुए
वापस लौटने को तत्पर
सुरंग के दूसरे छोर पर
दिखता है एक हल्का प्रकाश
कुछ प्रिय चेहरे गड्डमड्ड
हमें वहीं जाना होता है बार बार
उन चेहरों का हिस्सा बनने.



वह रात भर रोता रहा
लौट आए उसकी प्रिय
लौट आए फिर एक बार.



मैं हर समय उसे याद करती हूं
जो इस नए संसार में बेहद शामिल है
जो कभी मुड़कर नहीं आएगा मेरी तरफ़

१०

मैं अपने ही विरुद्ध खड़ी थी
अपने विश्वासों के साथ
उनसे बचने को आतुर.

('रोशनी के रास्ते पर' - राजकमल प्रकाशन द्वारा २००८ में प्रकाशित. मूल्य रु. १५०)

कबाड़ख़ाने में अनीता जी की कविताएं यहां भी:

प्रभु मेरी दिव्यता में सुबह-सबेरे ठंड में कांपते रिक्शेवाले की फटी कमीज़ ख़लल डालती है
प्रार्थना
वान गॉग के अन्तिम आत्मचित्र से बातचीत
सभ्यता के साथ अजीब नाता है बर्बरता का

श्वेत.. धवल दिनों से वापसी और 'लाजो -लाजो'

लगता है कि पैरों में पहिये -से बँध गए हैं.नवंबर के महीने से सफ़र का जो सिलसिला चल निकला है , वह विराम नहीं ले रहा है. सफ़र पर जाने से पहले भाई विमल वर्मा जी की 'ठुमरी' पर उस्ताद शुजात हुसैन खान साहब को सुनकर गया था जो निरंतर भीतर गूँजता रहा. यह आवाज, यह सितार ,यह साज , यह सब कुछ एक सम्मोहन है. दरअसल यह वही आवाज थी जिसे सुनकर मेरे प्यारे कंप्यूटर जी अस्पताल की ओर जाने को तैयार हुए थे और मैं पैरों में पहिए बाँधकर औसत बर्फ़बारी के बाद श्वेत और धवल जैसे शब्दों को मूर्त करने का कारनामा करने वाले शहर में दाखिल होने के वास्ते चल पड़ा था .

अब लौट कर समस्या यह है कि रुटीन पर आने में कुछ रुकावट -सी आ रही है. क्या किया जाय ...सफ़र से लौटने के बाद ऐसा ही होता है अक्सर .. लगता है कि कुछ अच्छा , उम्दा , पसंदीदा सुने बिना 'शबो रोज का तमाशा' रास न आएगा. कंप्यूटर जी भी अस्पताल से लौट आये हैं.आइए आज एक बार फिर वही स्वर सुनते है..सम्मोहन से भरा.. उस्ताद शुजात हुसैन खान साहब की प्रस्तुति :'लाजो -लाजो'


Friday, February 13, 2009

मुरदा गधे पर लाठी चारज करने की भारतीय परम्परा अक्षुण्ण रहे अक्षुण्ण रहे


जैसा कि सर्वविदित है कल एक एतिहासिक दिवस है. कुछ जबरिया शादियां होनी हैं. कुछ ख़ास वैराइटी के कपड़े बंगलूर भेजे जाने हैं. सारा देश भूख-प्यास-भ्रष्टाचार-हत्या-कमीनपन-अकाल-मन्दी छोड़कर प्रेम में डूब जाएगा. सब अच्छा हो जाएगा.

हिन्दी ब्लॉग जगत ने इस एतिहासिक अवसर पर कुछ विशिष्ट वस्त्रों को ले कर जो अभूतपूर्व उत्साह दिखाया है, वह श्लाघनीय तो है ही अनुकरणीय भी है.

मिर्ज़ा कब्बन जब भी न्यूज़ चैनलों में ख़बरों को घन्टों बलत्कृत होता देखते हैं तो बेसाख़्ता कह उठते हैं : "मुरदा गधे पे लाठी चारज हो रिया मियां! ..."

पुनश्च: एक अच्छे भले मुद्दे का भुस भर देने वाले महात्माओं को शीश नवाता हूं. मैं कबाड़ख़ाने की तरफ़ से सुजाता, रचना और तमाम साहसी लोगों विशेषतः महिला-ब्लॉगरों को समाज के फ़र्जी दम्भ और पिलपिल मूल्यों के समक्ष लगातार डटे रहने के लिए बधाई भी देता हूं. आई मीन इट!

पुनश्च २: २० तारीख़ तक काफ़ी व्यस्त हूं. और इस विषय पर सोचते हुए भीतर उठ रही तमाम बातों पर उसके बाद ज़रूर लिखूंगा. अन्य कबाड़ियों से जागने और कुछ लिखने की विनती भी करता हूं.

ट्राफ़िक जाम कैसे-कैसे











इधर के सप्ताह भर के कुछ अनुभवों की तस्वीरें ही आपके साथ बांट रहा हूं फ़िलहाल. थोड़ा जल्दी में हूं. फ़ुरसत से तफ़सील बयान की जाएगी बाद में. इन तस्वीरों में जयपुर में सोनिया गांधी की रैली के दिन के ट्राफ़िक जाम का नज़ारा है, आमेर से आगे खेड़ी गेट पर स्थित अनोखी संग्रहालय में काम करता कारीगर है, गन्दगी और बदबू से बजबजाता, शर्मसार करता गलता धाम है, गलता धाम से लौटते एक बाबा के आश्रम का साइनबोर्ड है, सिसोदिया रानी का बाग है रानीखेत क्लब से रात को खींचा गया पूरा माहताब है, झूलादेवी मन्दिर की घन्टियां हैं और अचानक पड़ी बर्फ़ की वजह से रानीखेत-भवाली रोड पर लगा असम्भव-अकल्पनीय ट्राफ़िक जाम.

Thursday, February 12, 2009

मिसाल के तौर पर गिलास शराब से बात करने के लिये


अर्जेन्टीना के महाकवि रॉबेर्तो हुआर्रोज़ की किताब 'वर्टिकल पोइट्री' से प्रस्तुत हैं दो टुकड़े:

१.

हर चीज़ अपने लिये हाथ बनाती है।
मिसाल के तौर पर पेड़
हवा को बाँटने के लिये।

हर चीज़ अपने लिये पाँव बनाती है
मिसाल के तौर पर घर
किसी का पीछा करने के लिये।

हर चीज़ अपने लिये आँखें बनाती है
मिसाल के तौर पर तीर
निशाने पर लगने के लिये।

हर चीज़ अपने लिये जीभ बनाती है
मिसाल के तौर पर गिलास
शराब से बात करने के लिये।

हर चीज़ अपने लिये एक कहानी बनाती है
मिसाल के तौर पर पानी
दूर तक साफ़ बहने के लिये।

२.

पानी का एक गिलास
एक दोपहर के भीतर
इकट्ठा करता है दूसरी दोपहर को,
समय का एक अलग जमावड़ा।
और एक क्षण को समझ का दरवाज़ा खुलता है
वह दरवाजा जिसे बन्द करने के लिये
धक्का नहीं देना पड़ता।

और मैं पीता हूँ पानी के
उस गिलास को दो बार।

Sunday, February 8, 2009

कभी जल कभी जाल


कभी जल कभी जाल. यह नाम है हेमन्त कुकरेती के चौथे काव्य संग्रह का. इस संग्रह में प्रेम को लेकर बहुत सारी कविताएं हैं. इस विकट समय में प्रेम कविता लिख पाना और अच्छी प्रेम कविता लिख पाना बहुत मुश्किल काम लगता है मुझे. इस लिहाज़ से यह संग्रह बहुत मानवीय और ज़रूरी लगता है.

१३ मार्च १९६५ को जन्मे हेमन्त को हिन्दी की युवतर पीढ़ी में महत्वपूर्ण माना जाता रहा है. २००१ में भारतभूषण सम्मान, २००२ में कृति सम्मान, २००३ में हिन्दी अकादेमी और केदार सम्मान से नवाज़े जा चुके हेमन्त ने अपना यह संग्रह मुझे कुछ सप्ताह पहले कौसानी में दिया था. मैंने वायदा किया था कि कबाड़ख़ाने में उनकी कुछ रचनाएं लगाऊंगा.

आज वही वादा पूरा करता हुआ मैं आप को उनकी कुछ प्रेम कविताओं से रू-ब-रू करा रहा हूं:


आंख की तरह दिल
(कांगड़ा कलम का एक चित्र देख कर)

उसने आंख की जगह
निकाल कर रख दिया दिल
रुकी हुई दुनिया चलने लगी

वे यादें थीं
गाढ़े ख़ून-सी बूंद-बूंद टपकती
उसके सीने को ढंकते
नदी थे उसके बाल
जिसमें नहा रही थीं
बत्तख सी उंगलियां

हाथों में था एक फूल दहकता
जिससे कपटी मौसम में वह
अपनी इच्छाओं को कह रही थी

दुनिया झुकी हुई थी
उसके सामने हाथ फैलाए

वह धर ही देती
उसके हाथ पर अपनी आंखें
जो दिल की तरह उछल रही थीं
हर डर पर ...

प्रेम कविता में दरवाज़ा

उसने तय किया भूख मिट जाए
वह प्रेम की कविता लिखेगा
जिसमें प्रेम नामक शब्द कहीं नहीं होगा
अद्भुत प्रेम कविता होगी वह

इसके लिए नफ़रत और युद्ध
युद्ध और विनाश जैसे शब्द ज़रूरी थे

उसे बसों में भूल गए
रूमालों की बात नहीं करनी थी
उन चिठ्ठियों के बारे में भी
उसने नहीं सोचा
जो पीली पड़ती जा रही थीं

बच्चों को वह भूल गया
मिलने आए लोगों से मिलना
उसने ज़रूरी नहीं समझा
अब तक उसे सूझ नहीं रहा था
कि शुरू कैसे करे?

उसे दरवाज़े का ख़याल आया
यही है मुसीबतों की जड़
इसी रास्ते आते हैं कविता में ख़लल ...

उसकी प्रेम कविता में दरवाज़ा बन्द था
बन्द थे झरोखे

लिख-लिख कर वह शब्दों को
फेंक रहा था बियावान में.

जो डरा रहा था

उसकी कमर पर
वह अपने होठों की तितली
चिपकाना चाहता था
दुख हुआ कि कभी जो तितली से ज़्यादा सुन्दर थ
अब ठीक से होंठ भी नहीं थे

वह प्यार था
या उसका न होना
जो उन्हें डरा रहा था.

मिलने पर

मिटाया तो और उभर गया
जलाया तो पी गया आग को

पहले तो ऐसा नहीं था

मैं उससे मिला तो
अपने बारे में पता चला.

एक विदागीत की अधूरी पंक्तियां

चिड़िया तो तू मेरी ही ठहरी
मेरी आंखों में ही था
तेरा पहला घोंसला

मैंने ही सिखाया था
निडर उड़ना

लौटते कैसे हैं
बस यह सिखाना भूल गया ....

Saturday, February 7, 2009

गामा पहलवान को याद कीजिये



गामा पहलवान अब हमारे महादेश की किंवदन्तियों का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं. उन्हें याद करना एक अनन्त नोस्टैल्जिया को जगाता है. बचपन में मेरे पास एक छोटी सी किताब थी. इसमें भारत की चुनिन्दा विभूतियों के बारे में छोटे-छोटे आलेख थे. गामा पहलवान वाला टुकड़ा मुझे बेहद लुभाता था. किताब तो अब न जाने कहां की कहां गई. उसी को याद करते हुए मैंने यह आलेख कुछ समय पहले नवभारत टाइम्स के लिए लिखा था. आज आप के लिए पेश कर रहा हूं:

पहलवानों और उनकी ताक़त के बारे में तमाम झूठे-सच्चे क़िस्से हमारी भारतीय सांस्कृतिक-सामाजिक परम्परा के अभिन्न हिस्से हैं. मिसाल के तौर पर पंजाब के मशहूर पहलवान कीकर सिंह सन्धू को लेकर यह क़िस्सा चलता है कि एक बार उनके उस्ताद ने उनसे दातौन करने के लिए नीम की पतली टहनी मंगवाई. कीकर सिंह जैसे शक्तिशाली पहलवान को लगा कि गुरु के लिए एक टहनी लेकर जाना गुरु की और स्वयं उनकी तौहीन होगा. सो कीकर सिंह ने समूचा नीम का पेड़ जड़ से उखाड़ डाला और कांधे पर धरे उसे ले जा कर अखाड़े में पटक डाला.

इस क़िस्से में कितनी सच्चाई है, सबूतों के न मिलने के कारण कहा नहीं जा सकता लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप से उभरा पहला चैम्पियन पहलवान अब किंवदन्तियों और मुहावरों का हिस्सा बन चुका है. इस चैम्पियन का नाम था गामा पहलवान. कद्दावर पहलवान मोहम्मद अज़ीज़ के घर १८८२ में अमृतसर में जन्मे रुस्तम-ए-ज़माना गामा का असली नाम ग़ुलाम मोहम्मद था. गामा की असाधारण प्रतिभा का प्रमाण यह तथ्य है कि क़रीब पचास साल के पहलवानी करियर में उन्होंने कोई पांचेक हज़ार कुश्तियां लड़ीं और उन्हें कभी भी कोई भी नहीं हरा सका.

दस साल की आयु में गामा ने जोधपुर में आयोजित शक्ति-प्रदर्शन के एक मुकाबले में हिस्सा लिया. इस आयोजन में क़रीब चार सौ नामी पहलवानों ने भागीदारी की थी और गामा अन्तिम पन्द्रह में जगह बना सकने में क़ामयाब हुए. इस से प्रभावित जोधपुर के तत्कालीन महाराजा ने गामा को विजेता घोषित कर दिया. इस के बाद के कुछ साल गामा की कड़ी ट्रेनिंग का सिलसिला चला. उन्नीस साल की आयु में गामा ने भारतीय चैम्पियन रहीम बख़्श सुलतानीवाला को चुनौती दी और दो राउन्ड तक चले कड़े मुकाबले के बाद क़द अपने से कहीं बड़े रहीम बख़्श को धूल चटा दी.

इस कुश्ती के बाद गामा का रुतबा बढ़ता गया और १९१० के आते-आते भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद सारे पहलवान उनसे हार चुके थे. इसी साल आर. बी. बेन्जामिन नामक एक प्रमोटर गामा और उसके छोटे पहलवान भाई इमाम बख़्श को लेकर इंग्लैंड पहुंचा जहां यूरोप भर के पहलवानों गामा ने चुनौती दी कि वे तीस मिनट के भीतर किसी भी भार वर्ग के किन्हीं तीन पहलवानों को हरा देगा. इस चुनौती को किसी ने भी गम्भीरता से नहीं लिया. आख़िरकार गामा ने पोलैंड के विश्व चैम्पियन स्टेनिस्लॉस बाइज़्को और फ़्रैंक गोच को ललकारा. अन्ततः अमरीकी पेशेवर पहलवाम बेन्जामिन रोलर ने गामा की चुनौती स्वीकार की. १ मिनट ४० सेकेण्ड चले इस कुश्ती के पहले राउन्ड में गामा ने रोलर को चित कर दिया. इसके बाद गामा ने फ़्रांस के मॉरिस डेरिआज़, स्विट्ज़रलॅण्ड के जॉहन लेम और स्वीडन के जेस पीटर्सन को पटखनी दी.

अन्ततः गामा की चुनौती को स्टेनिस्लॉस बाइज़्को ने स्वीकार किया. १० सितम्बर १९१० को हुए इस एकतरफ़ा मुकाबले में गामा ने अपना झण्डा गाड़ दिया. १७ सितम्बर को इन्हीं दो के बीच एक और मुकाबला होना था पर बाइज़्को डर के मारे आया ही नहीं और गामा को विश्व-चैम्पियन की जान बुल बेल्ट से नवाज़ा गया. इसके बाद गामा ने कहा कि वह एक के बाद एक बीस पहलवानों से मुकाबला करना चाहता है. उसने शर्त रखी कि एक से भी हार जाने पर वह इनाम का सारा खर्चा देगा. लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई.

भारत वापस आने के कुछ समय बाद गामा का एक और मुकाबला रहीम सुलतानीवाला से हुआ. गामा ने यह मुकाबला जीता और रुस्तम-ए-हिन्द का अपना ख़िताब महफ़ूज़ रखा. इसके बाद उसने एक और बड़े पहलवान पंडित बिद्दू को मात दी. बाद के सालों में गामा के करियर का सबसे उल्लेखनीय साल है १९२७ जब उसने स्टेनिस्लॉस बाइज़्को को मात्र २१ सेकेन्ड में पराजित कर दिया था.

विभाजन के बाद गामा पाकिस्तान चला गया जहां १९६० में उसका देहावसान हुआ. मृत्यु के कुछ वर्ष पहले दिये गए एक इन्टरव्यू में गामा ने रहीम सुलतानीवाला को न सिर्फ़ अपना सबसे महान प्रतिद्वंद्वी बताया, उसने कहा: "हमारे खेल में अपने से बड़े और ज़्यादा क़ाबिल खिलाड़ी को गुरु माना जाता है. मैंने उन्हें दो बार हराया ज़रूर, पर दोनों मुकाबलों के बाद उनके पैरों की धूल अपने माथे से लगाना मैं नहीं भूला."

भारतीय का तराना गाता है पाक

भारत और पाक के बीच क्यों न कितनी भी बंदूकें तन जायें, लेकिन सच्चाई यह है कि जहाँ भारत पाकिस्तान के राष्ट्रीय कवि इकबाल का लिखा तराना 'सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान' गाता है, वहीं पाकिस्तान में एक भारतीय कवि की चार बंद वाली 'ए सरजमीने पाक' जमकर बजाई जाती है।

जब द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर देश का बंटवारा हुआ था तो पाकिस्तान के रेडियो पर डेढ़ महीने तक इसी तराने को बतौर राष्ट्रीय गीत सुना जाता था। इसका पहला बंद है;

ए सरज़मीन-ए-पाक
ज़र्रे तेरे हैं आज
सितारों से ताबनाक
रौशन है कहकशां से
कहीं आज तेरी ख़ाक
तुन्दही हासिदां पे है
ग़ालिब तेरा सवाक
दामन वो सिल गया
जो था मुद्दतों से चाक


इसके रचयिता कोई और नही बल्कि प्रोफेसर जगन्नाथ आजाद थे। प्रोफेसर जगन्नाथ आजाद और अल्लामा इकबाल राष्ट्रीय सीमाओं से परे उर्दू जगत में सर्वमान्य हैं। जब जगन्नाथ लाहौर में इकबाल की मजार पर गया तो बड़ी ही भावुक शैली में कुछ अपने दिल के दर्द को बयान किया :

मैं आ रहा हूँ दयारे मजारे गालिब से
तेरे मज़ार पे लाया हूं दिल का नज़राना
जदीद दौर का तेरे सिवा कोई न मिला
नज़र हो जिसकी हक़ीमाना बात रन्दाना
सलामी रूमचे असर जदीद तुझ पे सलाम
सलाम महरम राज़ दरूने मयख़ाना.


प्रोफेसर आजाद ने विश्व के करीब २५ विश्वविद्यालयों में अल्लामा इकबाल और उर्दू साहित्य से सम्बंधित अन्य विषयों पर लेक्चरर दिए। करियर की शुरुआत एक पत्रकार के रूप में हुई और सूचना विभाग के अधिकारी और निदेशक भी रहे।

Thursday, February 5, 2009

वसंत : एक कोलाज़ उर्फ़ वसंत यों नहीं आता !

(भाई महेन जी की उम्दा पोस्ट 'वसंत आ गया है' को आगे बढ़ाने की कबाड़ - कोशिश करते हुए........)
१.
सबसे पहले एक किताब का कवर...














२.
दो रागिये—वैरागिये
हेमंत और शिशिर
अधोगति के तम में जाकर पता लगाते हैं उन
जड़ों का
जिनके प्रियतम—सा ऊर्ध्वारोही दिखता है अगला
वसंत

(लीलाधर जगूड़ी की कविता 'असंत-वसंत के बहाने' का एक अंश)

३.

यह कैसा वसन्त है जो शीत के डर से कांप रहा है? क्या कहा था विद्यापति ने-- ' सरस वसन्त समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे ! नहीं मेरे कवि, दक्षिण से मलय पवन नहीं बह रहा। यह उत्तार से बर्फ़ीली हवा आ रही है। हिमालय के उस पार से आकर इस बर्फ़ीली हवा ने हमारे वसन्त का गला दबा दिया है। हिमालय के पार बहुत- सा बर्फ बनाया जा रहा है जिसमें सारी मनुष्य जाति को मछली की तरह जमा कर रखा जायेगा। यह बड़ी भारी साजिश है बर्फ की साजिश ! इसी बर्फ क़ी हवा ने हमारे आते वसन्त को दबा रखा है। यों हमें विश्वास है कि वसन्त आयेगा। शेली ने कहा है, 'अगर शीत आ गयी है, तो क्या वसन्त बहुत पीछे होगा? वसन्त तो शीत के पीछे लगा हुआ ही आ रहा है। पर उसके पीछे गरमी भी तो लगी है। अभी उत्तार से शीत -लहर आ रही है तो फिर पश्चिम से लू भी तो चल सकती है। बर्फ और आग के बीच में हमारा वसन्त फॅसा है। इधर शीत उसे दबा रही है और उधर से गरमी। और वसन्त सिकुड़ता जा रहा है।मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होगा। वसन्त अपने आप नहीं आता ; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसन्त नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसन्त यों नहीं आता।

( हरिशंकर परसाई के निबंध 'घायल वसंत' का एक अंश )

४.
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Wednesday, February 4, 2009

वसंत आ गया है।

जिस स्थान पर बैठकर लिख रहा हूँ, उसके आस-पास कुछ थोड़े से पेड़ हैं। एक शिरीष है, जिस पर लम्बी-लम्बी सूखी छिम्मियाँ अभी लटकी हुई हैं। पत्ते कुछ झड़ गए हैं और कुछ झड़ने के रास्ते पर हैं। जरा-सी हवा चली नहीं कि अस्थिमालिकावाले उन्मत कापालिक भैरव की भांति खड-खड़ाकर झूम उठते हैं। "कुसुम जन्म ततो नव पल्लवा:" का कहीं नाम-गंध भी नहीं है। एक नीम है। जवान है, मगर कुछ अत्यन्त छोटी किसलायिकाओं के सिवा उमंग का कोई चिन्ह उसमें भी नहीं है। फिर भी यह बुरा मालूम नहीं होता। मसें भीगी हैं और आशा तो है ही। दो कृष्णचूडाएं हैं। स्वर्गीय कविवर रवींद्रनाथ के हाथ से लगी वृक्षावली में ये आखिरी हैं। इन्हें अभी शिशु ही कहना चाहिए। फूल तो उनमें कभी आए नहीं, पर वे अभी नादान हैं। भरे फागुन में इस प्रकार खड़ी हैं मानो आषाढ़ ही हो। नील मसृण पत्तियां और सूच्यग्र शिखान्त। दो-तीन अमरुद हैं, जो सूखे सावन भरे भादों कभी रंग नहीं बदलते- इस समय दो-चार श्वेद पुष्प इन पर विराजमान हैं; पर ऐसे फूल माघ में भी थे और जेठ में भी रहेंगे। जातीय पुष्पों का एक केदार है; पर इन पर ऎसी मुर्दनी छाई हुई है कि मुझे कवि-प्रसिद्धियों पर लिखे हुए एक लेख में संशोधन की आवश्यकता महसूस हुई है। एक मित्र ने अस्थान में मल्लिका का एक गुल्म भी लगा रखा है, जो किसी प्रकार बस जी रहा है। दो करबीर और एक कोविदार के झाड़ भी उन्हीं मित्र की कृपा के फल हैं, पर वे बुरी तरह चुप हैं। कहीं भी उल्लास नहीं, उमंग नहीं और उधर कवियों की दुनिया में हल्ला हो गया, प्रकृति रानी नया श्रृंगार कर रही है, और फिर जाने क्या-क्या। कवि के आश्रम में रहता हूँ। नितांत ठूंठ नहीं हूँ; पर भाग्य प्रसन्न न हो तो कोई क्या करे? दो कांचनार वृक्ष इस हिन्दी-भवन में हैं। एक ठीक मेरे दरवाजे पर और दूसरा मेरे पड़ोसी के। भाग्य की विडम्बना देखिये कि दोनों एक ही दिन के लगाए गए हैं। मेरावाला ज्यादा स्वस्थ और सबल है। पड़ोसीवाला कमजोर, मरियल। परन्तु इसमें फूल नहीं आए और वह कमबख्त कंधे पर से फूल पड़ा है। मरियल-सा पेड़ है, पर क्या मजाल कि आप उसमें फूल के सिवा और कुछ देखें! पत्ते हैं ही नहीं और टहनियां फूलों से ढक गई हैं। मैं रोज़ देखता हूँ कि हमारेवाले मियां कितने अग्रसर हुए? कल तीन फूल निकले थे। उसमें दो तो एक संथाल-बालिका तोड़कर ले गई। एक रह गया है। मुझे कांचनार फूल की ललाई बहुत भाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन फूलों की पकोड़ीयां भी बन सकती हैं। पर दुर्भाग्य देखिये कि इतना स्वस्थ पेड़ ऐसा सूना पड़ा हुआ है और वह कमजोर दुबला लहक उठा है। कमजोरों में भावुकता ज्यादा होती होगी।
पढता-लिखता हूँ। यही पेशा है। सो दुनिया के बारे में पोथियों के सहारे ही थोड़ा-बहुत जानता हूँ। पढ़ा हूँ, हिन्दुस्तान के जवानों में कोई उमंग नहीं है, इत्यादि-इत्यादि। इधर देखता हूँ कि पेड़-पौधे और भी बुरे हैं। सारी दुनिया में हल्ला हो गया कि वसंत आ गया। पर इन कमबख्तों को ख़बर ही नहीं! कभी-कभी सोचता हूँ कि इनके पास तक संदेश पहुंचाने का क्या कोई साधन नहीं हो सकता? महुआ बदनाम है कि इसे सब के बाद वसंत का अनुभव होता है; पर जामुन कौन अच्छा है। वह तो और भी बाद में फूलता है। और कालिदास का लाड़ला यह कर्णिकार? आप जेठ में मौज में आते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि वसंत भागता-भागता चलता है। देश में नहीं, काल में। किसी का वसंत पन्द्रह दिन का है और किसी का नौ महीने का। मौजी है अमरुद। बारह महीने इसका वसंत ही वसंत है। हिन्दी-भवन के सामने गंधराज पुष्पों की पांत है। ये अजीब है, वर्षा में ये खिलते हैं, लेकिन ऋतु-विशेष के उतने कायल नहीं हैं। पानी पड़ गया तो आज भी फूल सकते हैं। कवियों की दुनिया में जिसकी कभी चर्चा नहीं हुई, ऐसी एक घास है - विष्णुकांता। हिन्दी-भवन के आँगन में बहुत है। कैसा मनोहर नाम है! फूल और भी मनोहर होते हैं। जरा-सा तो आकार होता है, पर बलिहारी है उस नील मदुर रूप की। बादल की बात छोडिये, जरा-सी पुरवैया बह गई तो इसका उल्लास देखिये। बरसात के समय तो इतनी खिलती है कि मत पूछिए। मैं सोचता हूँ कि इस नाचीज़ लता को संदेश कैसे पहुँचता है? थोड़ी दूर पर वह पलाश ऐसा फूला है कि ईर्ष्या होती है। मगर उसे किसने बताया कि वसंत आ गया है? मैं थोड़ा-थोड़ा समझता हूँ। वसंत आता नहीं ले आया जाता है। जो चाहे और जब चाहे अपने पर ले आ सकता है। वह मरियल कांचनार ले आया है। अपने मोटेराम तैयारी कर रहे हैं, और मैं?
मुझे बुखार आ रहा है। यह भी नियति का मजाक ही है। सारी दुनिया में हल्ला होने गया है कि वसंत आ rआहा है, और मेरे पास आया बुखार। अपने कांचनार की ओर देखता हूँ और सोचता हूँ, मेरी वजह से तो यह नहीं रुका है?

अब सुधिजन मुझे ये बताएं कि ये किसने लिखा है। चाहें तो हिन्दी का टेस्ट ही समझ लें और जबतक उत्तर ढूंढ रहे हों तबतक ये दादरा सुनिए बेग़म अख़्तर की आवाज़ में।