Sunday, February 28, 2010

गप्प: बदरी काका - अन्तिम हिस्सा

(पिछली किस्त से जारी)

तो मिखाइल गोर्बाचेव के जाने के अगले दिन गोपाल करीब सात लाख रुपये लेकर बदरी काका के पास पहुंचा और सारी रकम उनके चरणों पर रख कर बोला: "मेरी नादानी माफ़ करना कका। असल में मैं तो आपके पैर के नाखून की धूल तक नहीं हुआ। शर्त के मुताबिक मैंने घर और ईजा के गहने बेच दिए हैं। आप ये पैसा रखो। मैं चला हिमालय की तरफ। चलता हूँ कका। देर हो रही है। मुन्स्यारी जाने वाली बस पकड़नी है। जिंदगानी बची तो दुबारा आप के दर्शन होंगे।"

बूढा गोपाल बहुत दयनीय लग रहा था और उसे इस हालत में देख कर बदरी काका पसीज उठे।

"गोपालौ मेरे से बड़ा जुलम हो गया यार। अब इस बुढापे में तू कहॉ जाएगा। घर हर तू बेच आया। मैंने पहले भी कहा था लेकिन तू ने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। मुझे पता हुआ कि तू मुझसे जलने वाला ठहरा। और आज से नहीं पता नही कब से जलने वाला हुआ। देख अगर लोग बाग़ मेरी गप्पें सुनते हैं तो इसलिये कि मैंने दुनिया देखी है। मेरा अब आगे का कुछ खास मालूम नहीं है। यहीं रहूँगा या कहीं और। इसलिये ये दरबार तुझी को चलाना पड़ेगा। मेरा ब्रह्मवाक्य सुन ले : गप्प मारने के लिए दुनिया घूमना बहुत ज़रूरी होता है। अब ये पैसे तू ले ही आया है तो ऐसा करते हैं इन पैसों से दुनिया देखने चलते हैं।"

आइडिया गोपाल को जम गया। जल्द ही गुरू चेला यूरोप की राह निकल पडे।

इंग्लॅण्ड, फ्रांस, जर्मनी और तमाम मुल्क घूमते हुए दोनों को कई महीने बीत गए। कहना न होगा काका को जानने वाले हर जगह थे।

गोपाल तो बस एक हारे जुआरी की तरह काका के पीछे पीछे लगा रहता था। उसे हैरत होती थी कि काका दर देश की भाषा बोल लेते थे। लेकिन उस बिचारे नश्वर मनुष्य को क्या मालूम था कि बदरी काका असल में हैं क्या।

इटली पहुँचने पर काका को ख़्याल आया कि दिसंबर का महीना चल रह था।

"यार गोपालौ यहीं आसपास मेरा एक दोस्त था कभी। चल हो के आते हैं।" यूरोप की जबर्दस्त ठंड के कारण गोपाल वैसे भी किसी किस्म का प्रतिरोध कर पाने में अक्षम था।

"ठीक है कका। कौन हुआ आपका ये वाला दोस्त?"

"अरे यार ईसाइयों के शंकराचार्जी जैसा हुआ। पोप कहते हैं उसको यहाँ वाले।"

गोपाल अब इस क़दर पिट चुका था कि काका की किसी भी बात पर कैसा भी ऐतराज़ नहीं कर पाता था।

"ठीक है कका।"

वेटिकन सिटी में जश्न का माहौल था क्योंकि २४ दिसंबर थी। क्रिसमस के पहले का दिन जब पोप महोदय अपने महल की बालकनी से बाहर खडे दसेक लाख श्रद्धालुओं को दर्शन देते थे। भीड़ के साथ बदरी काका और गोपाल भी पोप के महल की तरफ चल दिए। गोपाल ने ऎसी भीड़ कभी नहीं देखी थी। इस बार तो उसे पूरा भरोसा था कि पोप तो क्या पोप का बाप भी काका को नहीं देख पायेगा। महल की बालकनी के बाहर पोप की प्रतीक्षा करते करीब पन्द्रह लाख लोग खडे थे। नियत समय पर पोप बालकनी में आये और बदरी काका को पन्द्रह लाख लोगों के बीच उन्होने एक ही निगाह में देख लिया : "ओ बड्री ... माई अमीगो बड्री ... व्हाट आर यू डूइंग इन दैट कार्नर ... ओ माई गाड ... मेक वे प्लीज़ ... बड्री ... माइ फ्रेंड ..." इस तरह बदहवास पोप लोगों के बीच से रास्ता बनाते हुए बदरी काका को अपने साथ बालकनी तक ले गाए।

यह डोज़ गोपाल के लिए कुछ ज़्यादा ही हो गई थी। सदमे और थकान और निराशा और पराजय का मिला जुला असर रहा और वह बेहोश हो गया।

करीब आधे घंटे बाद गोपाल को होश आया। उस भीड़ में किसी को कहाँ ख़्याल था कि कौन बेहोश है कौन होश में। गोपाल खडा हुआ तो उसकी बगल में खडे एक अँगरेज़ ने उस से पूछा: "भाईसाहब वो बालकनी में एक तो बड्री खाखा खडे हैं ... वो गोल टोपी पहने बुड्ढा कौन होगा ..."


हमने भी 'नज़ीर' उस चंचल को फिर खूब भिगोया हर बारी


* लो जी होली आ ही गई। मौज करो ।

हिन्दी - उर्दू के साझा साहित्य में होली ,होरी, फाग, फगुआ, फागुन , वसंत , बहार और अन्य तीज - त्योहारों / अवसरों / पर्वों आदि को लेकर इतना विपुल साहित्य रचा गया है कि पढ़्ने के लिए एक जनम शायद कम पड़ जाय। पिछले कुछ दिनों से नज़ीर अकबराबादी के रचनाकर्म से होली के कुछ नायाब काव्य मोती आपके साथ साझा करने का जो क्रम चल रहा है उसका उद्देश्य बस इतना भर है कि हम सब इन तीज - त्योहारों पर को सिर्फ 'हैप्पी डैश - डैश ' टाइप संदेसा भेजने तक ही सीमित न रक्खें वरन यदि स्वयं को 'साहित्य संगीत कला विहीन:' नही मानते हैं और पुरखे - पुरनियों द्वारा छोड़ी गई थाती पर अपना उत्तराधिकार जता कर इतराने के हामी हैं तो मौज - मस्ती से निबट कर , तनिक अवकाश निकाल कर कुछ टटोलें भी।

* बाकी सब ठीकठाक है।
* आज एक बार फिर प्रस्तुत है कविवर नज़ीर अकबराबादी विरचित एक और होली के कुछ चुनंदा अंश :

जब आई होली रंग भरी, सो नाज़ो अदा से मटक-मटक।
और घूँघट के पट खोल दिये,वह रूप दिखाया चमक -चमक ।
कुछ मुखड़ा करता दमक-दमक कुछ अबरन करता झलक-झलक ।
जब पांव रखा खु़शवक़्ती से तब पायल बाजी झनक-झनक ।
कुछ उछ्लें, सैंनें नाज़ भरें, कुछ कूदें आहें थिरक-थिरक॥

यह रूप दिखाकर होली के, जब नैन रसीले टुक मटके।
मंगवाए थाल गुलालों के, भर डाले रंगों से मटके।
फ़िर स्वांग बहुत तैयार हुए, और ठाठ खु़शी के झुरमुटके।
गुल शोर हुए खु़शहाली के, और नाचने गाने के खटके ।
मरदंगे बाजी, ताल बजे, कुछ खनक-खनक कुछ धनक-धनक॥

पोशाक छिड़कवां से हर जा, तैयारी रंगी पोशों की।
और भीगी जागह रंगों से, हर कुंज गली और कूचों की।
हर जागह ज़र्द लिबासों से ,हुई ज़ीनत सब आगोशों की।
सौ ऐशो तरब की धूमें हैं, और महफ़ि़ल में मै नोशों की ।
मै निकली जाम गुलाबी से, कुछ लहक-लहक कुछ छलक-छलक॥

है धूम खुशी की हर जानिब और कसरत है खुशवक्ती की।
हैं चर्चे होते फ़रहत के, और इश्रत की भी धूम मची।
खूबाँ के रंगीं चेहरों पर हर आन निगाहें हैं लड़तीं।
महबूब भिगोयें आशिक को और आशिक हँसकर उनको भी।
खुश होकर उनको भिगोवे हैं , कुछ अटक - अटक कुछ हुमक - हुमक।

वह शोख़ रंगीला जब आया , यां होली की कर तैयारी।
पोशाक सुनहरी , जे़ब बदन और हाथ चमकती पिचकारी।
की रंग छिड़कने की क्या - क्या , उस शोख़ ने हरदम अय्यारी।
हमने भी 'नज़ीर' उस चंचल को फिर खूब भिगोया हर बारी।
फिर क्या - क्या रंग बहे उस दम कुछ ढलक - ढलक कुछ चिपक - चिपक।
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अबरन = आभूषण
खु़शवक्ती = समय की अनुकूलता , सौभाग्य
पोशों = वस्त्र
जज़्र्द लिबासों = केसरिया वस्त्र ( वासंती वस्त्र )
ज़ीनत = सुन्दरता
आगोशों = बगल , गोद , अंक
ऐशो तरब = आनन्द
मै नोशों = मदिरा प्रेमियों
फ़रहत / इश्रत = खुशी, आनन्द
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( चित्र : इस नाचीज के घर के पास राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे अकेला खड़ा सेमल का यह वृक्ष होली की क्या खूब तैयारी किए बैठा है ! नज़ीर के शब्दों में कहा जाय तो 'कुछ चटक - चटक कुछ मटक - मटक ' ! )

Saturday, February 27, 2010

गप्प: बदरी काका - भाग छः

(पिछली किस्त से जारी)

कुछ दिनों बाद गोपाल के पास ऎसी खबर थी जिस से उसे लगा था कि वह एक बार तो बदरी काका को उन्नीस साबित कर पाएगा।

"कका इस दफा अल्मोड़ा में ऐसा आदमी आ रहा है जिस का तुम ने नाम नहीं सुना होगा।"

"हूँ ..." गहरी सांस लेकर काका बोले "यार मैं हुआ बुड्ढा आदमी। दुनिया में कितने तो लोग ठहरे। फिर भी कौन है?"

"कका एक देश है रूस। वहाँ का राजा आ रहा है। यहाँ दुनिया भर के पुलिस वाले और तम्माम सी आई डी वाले आ गए हैं अभी से। क्या नाम बता रहे थे उसका कामरेड गोबर्धन ज्यू ... कुछ माइकलगोबर होबर जैसा कह रहे थे ... अजीबी टाइप नाम होने वाले हुए ये विदेशी लोगों के। ... अगले हफ्ते आ रहा है बल। चलोगे देखने?"

"रहा तू बोकिये का बोकिया ही रे गोपालौ। अरे गोबर नहीं मिखाइल गोर्बाचेव नाम है उस का। उस के खुड़ बुबू आये ठहरे एक बार कसारदेवी। यहाँ आये तो एक नेपाली बामण की घरवाली के चक्कर में फंस गए। फिर मार नेपाल तिब्बत कहॉ कहॉ जा के उनका पोता रूस लौट सका बताते हैं। ये जो गोर्बू आ रहा है ना इस साले की खोपडी में जो लाल निशान है, उसी नेपाली औरत की निशानी हुई। शिबजी ने शाप दिया हुआ कि जा तेरे खानदान में सब की खोपडी में लाल निशान बना रहे। काठमांडू से आगे बताते हैं एक पूरा गाँव है लाल निशान वाली खोपडी वालों का। चलो गोर्बुआ के बहाने रूस के हाल चाल मिल जायेंगे।"

गोपाल को काटो तो ख़ून नहीं। उसे पक्का यकीन था की काका मिखाइल गोर्बाचेव को लेकर बंडल फेंक रहे थे। ब्रह्मास्त्र की तरह आये मिखाइल गोर्बाचेव के आगमन की घटना के इस तरह फिस्स हो जाने का ख़तरा हो जाने के कारण उसकी बुद्धि एक पल को भ्रष्ट हो गई और कोई साठेक सालों का दबा हुआ ग़ुस्सा और खीझ एक साथ बाहर आये।

"कका, आज तक तुम्हारी हर बात मानी है। लेकिन ये तो तुम बिल्कुल गप्प मार रहे हो। तुमको अल्मोड़ा से बाहर निकले मेरे देखते देखते तो साठ साल हो गए। तुम कहॉ से पहचानोगे इतनी दूर रहने वाले को। चलो कका आज तुमसे शर्त लगाता हूँ। पहचानना तो छोडो वो गोबरिया ने तुम्हारी तरफ एक बार देख भी लिया तो अपना मकान बेच बाच के सारे पैसे तुम्हारे हाथ में धर के हिमालय चल दूंगा। ... लगते हो शर्त ...? है हिम्मत? ..."

काका बहुत देर तक शांति से सुनते रहे फिर बोले "गोपालौ मुझे पता है तुझे ग़ुस्सा आ रहा है लेकिन जो तू कह रहा है उस पर दुबारा से सोच ले..."

"सोचना कुछ नहीं है कका। अब तो आर या पार ... नरसों को हो जाएगा फैसला।"

आखिरकार मिखाइल गोर्बाचेव के आने की तारीख आ ही गयी। सुरक्षा के अभूतपूर्व इंतज़ाम थे और हैलिकोप्टर से सौ गज आगे पीछे किसी को भी जाने की इजाज़त नहीं थी। मिखाइल गोर्बाचेव हैलिकोप्टर से उतरे और पचास हजार की भीड़ को चीरते हुए अपनी सिक्योरिटी को तोड़ते हुए सीधे बदरी काका के पास पहुंचे और "खाखा ... माइ डियर खाखा ..." कहते हुए उनके गले लग गए।

निराशा में सिर झुकाए गोपाल आगे का दृश्य देखने को नहीं रूक सका।

(अगली किस्त में समापन )

गप्प: बदरी काका - भाग पांच

(पिछली किस्त से आगे)

नेहरू जी को अल्मोड़ा से गए करीब बीस साल बीते। इन सालों में गोपाल के सारे दांत निकाले जा चुके थे और उसे बवासीर के साथ गठिया की शिक़ायत भी हो गयी थी। बदरी काका की देह के सारे हिस्से सलामत थे और दूर से देखने पर वे गोपाल से छोटे लगते थे यह अलग बात थी कि आयु में बदरी काका गोपाल से कई कल्प बडे थे।

'अमर उजाला' सीने से लगाए गोपाल जब उस दिन रानीधारा हाजिरी लगाने पहुँचा तो काका आइने के सामने 'ना जाओ सैयाँ ' गुनगुनाते हुए बाल काढ रहे थे। गोपाल को अपने ऊपर शर्म भी आयी कि उसने पता नहीं कितने दिनों से आइना ही नही देखा था।

"आ गया गोपालौ। तू बैठ मैं दिया जला के आता हूँ।"

"ना कका। बैठने का टाइम नहीं है। मुझे थनुआ को देखने अस्पताल जाना है। लास्ट चल रह है उस का ... ऐसा बता रहे हैं डाक्टर लोग। अभी तो आपको ये अखबार दिखाने आया मैं। परसों को इन्द्रा गांधी आ रही है अल्मोड़ा। जानते हो ना भारत की प्रधानमंत्री है ..."

"अरे! इतनी बड़ी हो गयी इंदू! बताओ यार टाइम भी कितनी जल्दी बीतने वाला हुआ। अभी दिन ही कितने हुए जब उसका बाप जवाहर और में पितुआ तामलेट के वहां चांप भात खा रहे थे..."

"कका बीस साल हो गए। समझ क्या रहे ! और तुम तो अल्मोड़ा से बाहर ही नही गए पचास सालों से। इन्द्रा गांधी को क्या पता तुम्हारे बारे में? ..."

गोपाल को लगा था कि इंदिरा गांधी का नाम भी काका ने नहीं सुना होगा लेकिन जिस आत्मविश्वास से वे देश की प्रधानमंत्री को इंदू कहकर संबोधित कर रहे थे, गोपाल खुद हरेक चीज़ को लेकर अनिश्चित सा हो गया। "तू जा अस्पताल को अभी। कल जा के देखते हैं कितनी बड़ी हो गयी इंदू।"

दोपहर को करीब दो बजे इंदिरा गांधी का हैलिकोप्टर जी आई सी ग्राउंड पर उतरा। करीब दस हजार लोग इकठ्ठा थे। इस बार भी सबसे पीछे खडे बदरी काका को इंदिरा गांधी ने तुरन्त पहचान लिया . वह तकरीबन रोती हुई उनकी तरफ आयीं और "जाइए हम आपसे बात नहीं करते काका" कहकर उन्होने काका के पैर छू लिए।

"आप तो बाबू के पीपल पानी में भी नहीं आये। मेरी शादी के टाइम भी आपने बहाना लगाया था। अब जल्दी दिल्ली आ जाओ काका। ख़ूब बड़ा घर है। संजू राजू भी आप से कुछ सीख जायेंगे।"

"अरे बेटा, यहाँ अल्मोड़ा में इतना काम हुआ। फुर्सत नहीं मिलती। चल घर चल। बड़ी भात बना के खिलाऊँगा तुझे। तुझे अच्छा लगने वाला हुआ।"

लेकिन इंदिरा गांधी के पास ज्यादा समय नहीं था और करीब एक घंटा बदरी काका के साथ रह कर वे किसी और जगह के लिए उड़ चलीं।

सारे अल्मोड़ा में बदरी काका के चर्चे थे। आने वाले आम चुनाव में टिकट मिलने की आस लगाए एक वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता ने तो गोपाल से यह भी पूछा कि कहीं बदरी काका चुनाव लड़ने के चक्कर में तो नहीं हैं।

करीब सात आठ साल और बीते। १९८४ में इंदिरा गांधी मारी जा चुकी थीं और उनके बडे सुपुत्र और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी अल्मोड़ा आये।

इस बार भी पिछली वाली कहानी दोहराई गयी। राजीव गांधी के रुदन के उस हृदयविदारक क्षण को अल्मोड़ा के लोग आज भी याद करते हैं जब बदरी काका के गले से लिपटे राजीव गांधी की आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी।

"ईजा को सरदारों ने मार दिया बुबू। दाज्यू पहले ही एक्सीडेंट में चला गया था..." जार जार रोते राजीव गांधी ने जब काका के पैर पकड़ कर कहा : "हमारा बड़ा बूढा अब तुम्हारे अलावा कौन है बुबू। आज तो दिल्ली चलना ही होगा तुमको ... मना मत करना बुबू ... मना मत करना ...", तो मैदान में सैकड़ों लोगों को अपने आंसू पोंछने पर मजबूर होना पड़ा।

किसी तरह काका ने राजीव गांधी को अकेले दिल्ली जाने के लिए तैयार किया। जहाज उड़ते ही गोपाल काका से बोला :"एक चक्कर लगा ही आते दिल्ली कका। इतनी तो तुम्हारी मिन्नत कर रहे ठहरे बिचारे।"

"छोड़ यार कहॉ लग रहा है तू इन नेता फेताओं को चक्कर में। अपना यहीं ठीक चल रहा है। चल शाम की सब्जी का जुगाड़ भी बनाना हुआ अभी।"

बताता चलूँ कि अपने माँ बाप के मर जाने के बाद गोपाल ने अपना पैतृक घर किराये पर उठा दिया था और इंदिरा गाँधी के अल्मोड़ा आगमन के दूसरे ही दिन से वह बदरी काका के घर में शिफ़्ट कर गया था।

उसके परम मित्र थान सिंह ने मृत्यु शैया पर उस से कहा था कि बदरी काका की टक्कर कोई नहीं ले सकता और गोपाल ने अपनी आत्मा में छिपी इस इच्छा को सदा के लिए गाड़ देना चाहिऐ कि वह कभी काका को नीचा दिखा सकेगा। "बरगद के पेड के नीचे दूसरा बरगद जो क्या उग सकने वाला हुआ रे गोपू। या तो तू किसी और जगह चला जा या ऐसे ही बदरी काका की सेवा करते हुए अपना परलोक ठीकठाक बना ले।"

गोपाल अब बहुत कृशकाय हो चुका था। काका तो भगवान् का दूसरा रुप थे। इतने सालों बाद भी उन की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। गोपाल की आंखों पर गिलास के पेंदे जितने मोटे शीशे वाली ऐनक लग गई थी। कभी कभी वह रात भर सो नहीं पाता था। रात भर उसे थान सिंह की बातें याद आती थीं। लेकिन समय बहुत बीत चुका था और एक बार बस एक बार काका से बीस साबित हो पाने की उसकी उम्मीदें डूब चुकी थीं। ऎसी जागरण वाली रात के बाद वह सुबह चाय पी के बाहर घाम में तखत लगा के लेट जाता था। उस दिन बदरी काका लेटे हुए अपने शिष्य को सारा अखबार बांच के सुनाते थे। चश्मा लगाने की ज़रूरत उन्हें अब भी नहीं होती थी.

(... जारी है)

गप्प: बदरी काका - भाग चार

(पिछली किस्त से जारी)

काका की सेवा में गोपाल का जीवन बीत रहा था और वह भीतर ही भीतर उम्मीद करता था कि काका शीघ्र ही भगवान् के प्यारे हो जायेंगे। हुआ इस का बिल्कुल उलटा। गोपाल के सारे बाल असमय सफ़ेद हो गए और चार पांच दांत निकालने पडे। ऊपर से उसे बवासीर भी हो गयी। काका का स्वास्थ्य लगातार बेहतर हो रहा था। उनकी ख़ुराक पहले से ज़्यादा हो गयी थी और कम हो रहा है कहने को उन्होने सुबह शाम वर्जिश करना शुरू कर दिया था।

सन १९६० के आसपास की बात है। गोपाल ने काका को खबर दी: "कका, नेहरू जी आ रहे हैं अल्मोड़ा! तुम चलोगे देखने?"

"कौन? अपना जवाहर? क्या कर रहा होगा आजकल यार वो? लड़का था तो होशियार।"

गोपाल को एक बार काका का मजाक बनाने की इच्छा हुई लेकिन वह रूक गया। गुरू आखिरकार गुरू होने वाला हुआ।

"कल सुबह आ रहे हैं नेहरू जी। प्रधानमंत्री हैं हमारे देश के कका! तुम समझ क्या रहे हो!"

"अरे होने दो साले को प्रधानमंत्री फ़धानमंत्री यार। इतना सा देखा ठहरा मैंने। दोस्त हुआ मेरा। चलेंगे चलेंगे।"

अगली सुबह अल्मोड़ा जी आई सी के मैदान पर करीब ५००० लोग जमा थे। अल्मोड़ा में पहली बार हैलिकोप्टर आया था। काका और गोपाल बहुत पीछे खडे थे। नेहरू जी जैसे ही बाहर निकले उन्होने पीछे खडे काका को देखा और चिल्ला कर कहा "अबे बदरुवा ... अभी तक मरा नहीं तू ..."

उसके बाद तो सारा प्रोटोकोल एक तरफ और नेहरू-काका का प्यार एक तरफ। नेहरू के विशेष आग्रह पर पितुवा 'तामलेट' ने अपने खोखे में दोनों के लिए चांप भात पकाया। चांप बकायदे जैनोली पिलखोली से मंगाई गई। बाद के कई सालों तक ये अफवाह उड़ती रही कि थान सिंह के वहाँ से दोनों के लिए कैम्पा कोला और रम लेकर खुद गोपाल गया था। और यह भी कि दो पुराने दोस्त पता नहीं कौन सी भाषा में हुर्रफुर्र कर रहे थे। बदरी काका के बहुभाषाविद होने पर कई बुजुर्गों ने मोहर लगाई और बताया कि उनके परदादे तक तिब्बती सरकार से मिलने वाली सरकारी चिट्ठियों के जवाब बदरी काका से लिखाया करते थे.

नेहरू जी के अल्मोड़ा आगमन के बाद गोपाल के लिए बदरी काका भगवान् से भी बड़े हो गए। खुद गोपाल की साख सारे शहर में बहुत फैली। बड़े बूढ़े कभी मौज में आ कर उस से पूछते : "यार गोपुआ, पीताम्बर के हाथ की पकी चांप खा के पाद नहीं आयी तेरे नेहरूजी को। शाम को रानीधारे जाएगा तो बदरी काका को ये लिंगुडे दे आना। अच्छी लगती है उनको इसकी सब्जी । चवन्नी का दही ले जाना साथ में। सब्जी में डाल के खायेगा तो मजा आ जाएगा बुड्ढे को."

(... जारी है)

Friday, February 26, 2010

गप्प: बदरी काका - भाग तीन

(पिछली किस्त से जारी)

"अच्छा। फिर क्या हुआ?" इस बार थान सिंह ने पूछा। "अरे यार अन्दर गया तो क्या देखा एक बहोत बड़ी मशीन थी : नहीं भी होगी ये रानीधारा से पोखरखाली तक तो होगी ही। "

बदरी काका खांसे तो गोपाल बोला : "मतलब बहोत बड़ी थी। और सारे बकरों को वहां ला रहे हुए। एक दरवाजा जैसा हुआ और एक एक कर के उन को अन्दर गोठ्या रहे ठहरे। फिर कहीं पहिये हुए कहीं घिर्री कहीँ बलब झाप्झाप। एक आदमी माइक में कुछ कह भी रह हुआ बार बार जापानी में। फीर ... आग्गे जा के मशीन के लास्ट में सौ पचास आदमी बैठ के पेटी भर रहे हुए। किसी में जूते किसी में दस्ताने किसी में मीट के टीन. मैं तो ..."

इस के पहले कि गोपाल आगे कुछ जोड़ता बदरी काका बोल उठे: "यार तू उसी फैक्ट्री की बात तो नहीं कर रहा जो वहां पिक्चर हॉल के आगे वाले मोड़ पे है?"

"बिल्कुल वही कका"

"अरे यार पता नही मैं भी गया था वहां एक बार कभी।"

गोपाल सन्न रह गया। फिर अपनी शांत संयत स्वर में बदरी काका बोले:

"मुझे तो जापान के राजा ने बुलाया था। एक बार दिल्ली में वो मुझे मिल गया था तो उसने मुझे जापान बुला लिया। अब मैं वहां गया तो मार सारे मंत्री फंत्री आगे पीछे लगे हुए। रात को खाना खाते बखत राजा मुझ से बोला 'मिस्टर बदरी आप ने हमारी फैक्ट्री देखी कि नहीं?' मेरे ना कहने पर उसने पहले तो सब सालों को डांटा कि बदरी साब इतनी दूर से आये हैं और तुम ने इन को फैक्ट्री नहीं दिखाई "

अगले दिन सुबे सुबे दस पाँचेक मंत्री आके मुझे ले गए वहां। सब काँप रहे हुए कि कहीँ मैं उनकी किसी बात की शिक़ायत राजा से ना कर दूं। मैंने कहा तुम मुझे फैक्ट्री ले जा के छोड़ दो बाक़ी मैं अपने आप देख लूँगा। अब वो ठहरे राजा के नौकर और राजा मुझे अपना दोस्त मानने वाला हुआ। बोले कि सर आप आराम से देखिए हम यहीं बैठते हैं।"

काका ने एक अनुभवपूर्ण निगाह गोपाल के ऊपर डाली जो अब बिल्कुल किसी काठ मारे आदमी कि तरह बैठा था : "अब साब क्या हुआ कि उस दिन हुआ इतवार। फैक्ट्री बंद ठहरी। बस चौकीदार हुआ वहाँ। राजा का औडर हुआ। बिचारा क्या जाने क्या होने वाली हुई मशीन। दबाया उसने बटन तो एक तरफ से ... वोई तेरे देखे मीट के डिब्बे दस्ताने जूते सब एक तरफ से अन्दर जाने लग गए और दूसरी तरफ से म्यां म्यां करके जिंदे बकरे बाहर आने लग गए। अरे साहब क्या बताऊं आपको ठाकुर साब ..."

इस बार काका ने थान सिंह को संबोधित करते हुए कहा। थान सिंह थोडा शर्मा गया क्योंकि उसे ठाकुर साब तो दूर किसी ने थान सिंह कह कर भी नही पुकारा था। बचपन से ही वह 'थनुआ' नाम से बुलाए जाने का आदी था। अल्मोड़ा वापस आने के बाद कोई कोई उसके नाम में भगुआ भी जोड़ देता था खास कर के किसी ज़माने में मोहब्बत में चोट खाए अब पगला चुके वकील साहब। ये वकील साब 'आऊंगी कह रही थी, नही आयी' कहते हुए शायद एक हजार सालों से अल्मोड़ा की सड़कों पर टहल रहे थे और कभी कभार थान सिंह की दुकान पर कागज़ पेन मांगने आया करते थे (ये अलग बात है कि थान सिंह उन्हें कागज़ पेन के बदले रम और कैम्पा कोला का घातक मिक्सचर ही पिला पाता था जिसका भरपूर सेवन करने के बाद वे नजीर साहब की 'रीछ का बच्चा' को बहुत बेसुरे ढंग से गाते हुए अंततः कचहरी की किसी परित्यक्त बेंच पर किसी मरियल आवारा कुत्ते के साथ सो जाया करते थे। लेकिन बदरी काका और गोपाल का यह किस्सा हमें वकील साब और थान सिंह के बारे में विस्तार से बात करने से बार बार रोकेगा इसलिये इन महानुभावों कि कहानी फिर कभी। )

" वो तो मुझको रात में आना था ... मेरे पैर लग गए ठहरे सारे मंत्री कि राजा साब से मत कहना। ... लेकिन जो भी हुआ ठीक ही ठहरा ... चलो अपना गोपाल भी देख आया जापान। क्यों भाई गोपाल ... गलत कह रहा हूँ ठाकुर साब ?"

उस रात गोपाल को सपने में बदरी काका दिखाई दिए : महाभारत में जैसे अर्जुन को कृष्ण भगवान् दिखे थे। गोपाल अगली सुबह काका को पास गया बोला: "कका माफ़ करना मैं आपसे टक्कर लेने चला था। मुझे अपनी शरण में ले लो और अब मुझे भी अपनी विद्या सिखाओ।"

जाहिर है काका ने गोपाल को माफ कर दिया और आने वाले कई सालों तक उनके बीच गुरू शिष्य का सनातन संबंध बना रहा।

(जारी)


गप्प: बदरी काका - भाग दो

(पिछली किस्त से जारी)

गोपाल के जापान जाने या ना जाने से थान सिंह को तो बहुत फर्क नहीं पड़ा लेकिन गोपाल की जापान यात्रा के तमाम किस्सों को उसके नए चेलों ने सारे शहर को सुनाया और दम ठोक कर घोषणा की कि बदरी काका की गप्पें अब पुराने जमाने कि बातें हो चुकी हैं।

गोपाल के जापान हो आने की खबर को बदरी काका ने बहुत गम्भीरता से नहीं लिया। भीतर ही भीतर वे जानते थे कि गोपाल हद से हद हल्द्वानी काठगोदाम तक गया होगा लेकिन था तो वो उनका चेला ही।

काका ने अपने एक पहचान वाले से कहकर गोपाल तक यह संदेसा भिजवाया कि काका उस से मिलना चाहते हैं और यह भी कि वे गोपाल कि तरक्की से बहुत खुश हैं।

शाम को गोपाल, थान सिंह को साथ रानीधारा बदरी काका के डेरे पहुंचा। बदरी काका के चेहरे पर देवताओं जैसी शांति थी।

"सुना तू जापान हो आया बल रे"

"हाँ कका ऐसे ही मौका लगा एक राउंड मार आया।"

"कुछ खास देखा या ऐसे ही वापिस आ गया?"

"बाक़ी तो क्या होने वाला हुआ कका सब साले एक जैसे दिखने वाले हुए। मूंछ हूँछ किसी की ठहरी नही। बस एक फैक्ट्री देखी अजब टाईप की। मैं तो देखता ही रह गया कका। हुए साब ... हुए जापानी गजब लोग।" आखिरी वाक्य बोलते हे उसने थान सिंह की तरफ देखा। यह वाली गप्प उसने खास काका को नीचा दिखाने को बचा रखी थी।

"बता, बता। मैं तो पता नहीं कब से ये अल्मोड़ा से बाहर नही गया यार। अब तुम जान जवान लोग ही हुए बाहर जा सकने वाले।"

"मैं ऐसे ही निकल रहा था कितौले जैसे खा कर एक होटल से। मैंने होटल वाले से पूछा कि यार यहाँ खास क्या है तुम्हारे जापान में देखने लायक। तो ... वो बोला कि हमारे यहाँ एक फैक्ट्री देखने की चीज़ है। शाम को मैंने वापिस आना था सोचा देख आता हूँ साले को ।"

भरपूर आत्मविश्वास अपने चहरे पर लाकर गोपाल ने बताना शुरू किया: "फैक्ट्री को बाहर ह्ज्जारों बकरे बांधे हुए ठहरे साब । ख़ूब नहा धो के तैयार। मैंने सोचा इन साले बानरों का कोई त्यौहार जैसा हो रहा होगा। किसी गोल गंगनाथ टाईप देवता के थान में बलि होने वाली होगी। बकरे भी बिल्कुल चुप्प ठहरे जैसे स्कूल जा रहे होंगे। अब टिकट हिकट लेके मैं घुसा फैक्ट्री में।"

थान सिंह कभी अपने बचपन के सखा को देखता था कभी बिल्कुल शांति से सुन रहे बदरी काका को.


सुनकर यह 'नज़ीर' उसने हँसकर कहा यह सच है



पिछले कुछ दिनों से सिरहाने नज़ीर अकबराबादी की ग्रन्थावली विराज रही है। इस महान कवि के साहित्य कोष से आज सुबह - सुबह एक और होली के चुनिन्दा अंश ...

होली की बहार आई फ़रहत की खिलीं कलियाँ।
बाजों की सदाओं से कूचे भरे और गलियाँ।
दिलबर से कहा हमने टुक छोड़िए छलबलियाँ।
अब रंग गुलालों की कुछ कीजिए रंग रलियाँ।
होली में यही धूमें लगती हैं बहुत भलियाँ॥

है सब में मची होली अब तुम भी यह चर्चा लो।
रखवाओ अबीर ऐ जां ! और मैप को भी मंगवाओ।
हम हाथ में लोटा लें तुम हाथ में लुटिया लो।
हम तुमको भिगो डालें तुम हमको भिगो डालो।
होली में यही धूमें लगती हैं बहुत भलियाँ॥

है तर्ज़ जो होली की उस तर्ज़ हँसो बोलो।
जो छेड़ है इश्रत की अब तुम भी वही छेड़ो।
हम डालें गुलाल ऐ जां ! तुम रंग इधर छिड़को।
हम बोलें 'अहा हा हा ' तुम, बोलो ' उहो हो हो '।
होली में यही धूमें लगती हैं बहुत भलियाँ॥

हम छेड़ें तुम्हें हँस के , तुम छेड़ की ठहरा दो।
हम बोसे भी ले लेवें तुम प्यार से बहला दो।
हम छाती से आ लिपटें तुम सीने को दिखला दो।
हम फेंकें गुलाल ऐ जां ! तुम रंग को छलका दो।
होली में यही धूमें लगती हैं बहुत भलियाँ॥

इस वक्त मुहैया है सब ऐशो - तरब की शै।
दफ़ बजते हैं हर जानिब और बीनो रुबाबो की नै।
हो तुममें और हममें होली की जो है कुछ रै।
सुनकर यह 'नज़ीर' उसने हँसकर कहा यह सच है।
होली में यही धूमें लगती हैं बहुत भलियाँ॥
------------------
फ़रहत = खुशी , आनन्द
मैप = शराब
बोसे = चुम्बन
मुहैया = उपलब्ध
ऐशो - तरब = विलास
रै = राय
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( चित्र : रवीन्द्र व्यास की कला कृति , साभार )

Thursday, February 25, 2010

गप्प - बदरी काका : भाग १

समय काल की सीमा से परे हैं बदरीकाका . कुछ लोकगाथाओं के मुताबिक काका का जन्म तब हुआ था जब पेड़ पौधे पत्थरों से बातें किया करते थे ऐसा भी माना जाता है कि उन दिनों बदरी काका का सीधा संवाद देवताओं को साथ था. कालांतर में धरती पर मानव जाति के साथ साथ भाषा के विविध रूपों का भी विकास हुआ और किसी उचित जान पड़ने वाले लग्न में काका ने कूर्माचल में स्थित अल्मोड़ा नगर के रानीधारा मोहल्ले में अपना डेरा जमाया जहाँ वे सुबह से शाम तक अपने भक्तों को गप्पें सुनाया करते थे.

बदरी काका की शोहरत सारे उत्तराखंड में फैली हुई थी और गाँव गाँव नगर नगर से लोग गप्प सुनने उनके दरबार में आया करते थे. काका के मुरीदों में गोपाल भी था जो दिन भर बीड़ी फूकने वाला एक निठल्ला बेरोजगार था. गोपाल को बचपन से ही काका की गप्प सुनने का कुटैव हो गया था और उसके अपने घरवालों ने उस से सारी उम्मीदें छोड़ दी थीं. गोपाल बदरी काका से मन ही मन डाह रखता था और किसी ऐसे मौक़े की तलाश में रहता था कि काका को नीचा दिखा सके. कुछ साल काका की संगत में रहते गोपाल को गप्पें सुनाने की थोडी प्रतिभा हासिल हो गई.

एक शाम चौघानपाटे में थान सिंह के खोखे में अपने कुछ दोस्तों के साथ चरस पीते हुए गोपाल को एक आइडिया आया. थान सिंह और गोपाल ने अपना सारा बचपन पोखरखाली में टायर चलाते या गिल्ली डंडा खेलते हुए बिताया था. दसवीं को बोर्ड का रिजल्ट आने से पहले ही दोनो घर से भाग गए थे क्योंकि दोनो को पास होने कि कतई उम्मीद नहीं थी. हल्द्वानी पहुंचकर गोपाल ने छिप कर अखबार में रिजल्ट देख लिया था. गोपाल थर्ड डिविजन पास हो गया था जबकि थान सिंह फेल हो गया था. धर्मसंकट की उस वेला में गोपाल ने थान सिंह का साथ नहीं छोड़ा था और वे पीलीभीत जाने वाली बस में सवार हो गये थे. थान सिंह को पिक्चर हाल में गेटकीपर की नौकरी मिल गई और गोपाल हफ़्ते भर बाद अल्मोड़ा लौट गया. पीलीभीत में तमाम कामधन्धों से पैसा कमाने के कुछ सालों बाद थान सिंह वापस लौट आया था और हल्द्वानी अल्मोड़ा रूट पर उसके दो ट्रक चला करते थे. टाइम पास करने के लिए उसने चाय की दुकान लगा ली थी. वह गोपाल को समझाता था कि बदरी काका की संगत छोड़ दे और समय रहते कुछ पैसा जोड़ ले. जो भी हो दसवीं के रिजल्ट के समय गोपाल की वफादारी को वह नहीं भूला था और उसने अपनी दुकान में गोपाल के लिए फोकट की चाय, बंद-मक्खन और अंडे-छोले आदि का बाका़यदा इन्तजाम कर रखा था.

खैर उस शाम चरस की तुडकी में थान सिंह ने गोपाल से कहा कि बदरी काका के यहाँ जाने के बजाय उसने अपना खु़द का अड्डा बनाना चाहिए और वहां लोगों को गप्प सुनानी चाहिए. आख़िर वह हाईस्कूल पास था जबकि बदरी काका की पढ़ाई लिखाई का कोई रिकॉर्ड किसी के पास नहीं था. इस प्रस्तावित गप्प दरबार के लिए थान सिंह ने हर रोज़ शाम को पांच बजे बाद अपनी दुकान प्रस्तुत की.

गोपाल का दरबार शुरू हो गया और मुफ़्त चाय-समोसे के लालच में नगर के युवा और प्रतिभाशाली चरसी गप्प दरबार में आने लगे. बदरी काका को गोपाल पसंद था और उसके अनुपस्थित हो जाने के बाद उन्हें गप्प सुनाने में आनंद आना कम हो गया. गोपाल भी बदरी काका से सुनी गप्पों और किस्सों के अधकचरे संस्करण सुनाते सुनाते बोर हो गया था. उसे भी बदरी काका की याद आती थी लेकिन संकोच और झूठे अभिमान के कारण वह जैसे तैसे अपने इस अधूरे जीवन को चालू रखे हुए था.

गोपाल द्वारा अपना खुद का दरबार शुरू किये जाने की खबर से बदरी काका थोडे आहत तो हुए थे लेकिन कालावधि की सीमाओं से परे रहने वाले काका को मालूम था कि एक न एक दिन गोपाल लौट आएगा. आख़िर पालक बालक जो हुआ.

कुछ महीनों बाद गोपाल अचानक किसी को कुछ भी बताये शहर से गायब हो गया. थान सिंह और बाक़ी दोस्तों को कुछ दिन उस की कमी महसूस हुई पर हफ्ते भर में जीवन सामान्य हो गया. करीब महीने भर बाद गोपाल अचानक प्रकट हुआ तो उस की चाल में अभूतपूर्व ठसक थी.

थान सिंह ने पूछा : "क्यों रे गोपुआ, कहां का चक्कर काट्याया?"

"जरा जापान तक गया था यार. ऐसे ही कुछ काम निकल गया था."

जीवन में हजारों लातें खा चुकने के बाद थान सिंह को अब किसी बात से हैरत नहीं होती थी. वह किसी की भी बात पर न तो विश्वास करता था ना अविश्वास. गोपाल उसको पसंद था क्योंकि पीलीभीत वह उसी की हिम्मत के कारण गया था. उसके ट्रक भी गोपाल कि ही देन थे. यह अलग बात थी कि बदरी काका की संगत ने गोपाल की जिन्दगी का कैम्पा कोला बना दिया था. कैम्पा कोला थान सिंह का तकिया कलाम था. पीलीभीत के पिक्चरहाल मैनेजर ने उसे कैम्पा कोला में घोल कर कच्ची दारू पीना सिखाया था. अब वह कच्ची नहीं पीता था. रानीखेत जाकर वह हर महीने कुमाऊँ रेजीमेंट में काम करने वाले अपने बहनोई और उसके दोस्तों से दस पन्द्रह रम की बोतलें ले आता था. पीता वह कैम्पा कोला डाल के ही था.

(जारी)

होली को 'नज़ीर' अब तू खड़ा देखे है यां क्या



कविवर नज़ीर अकबराबादी विरचित होली के नायाब समुन्दर में से कुछ मोती आप पहले भी यहीं इस ठिकाने पर देख / पढ / सुन चुके हैं। इस सिलसिले को बढ़ाते हुए आज प्रस्तुत है ग्रन्थावली में संकलित नज़्म होली - ६ के सात अंतरों में से कुल पाँच अंतरे। यह बताना तो जरूरी नहीं फिर आप सहृदय लोग भूले न होंगे कि इस नज़्म के शुरुआती दो अंतरों को रोली सरन ने गाया भी है जो मुजफ्फर अली के संकलन 'हुस्न - ए - जानाँ' नामक कैसेट में शामिल है। साहब, मैं कबाड़ी आदमी हूँ कबाड़ संभालने का काम करता हूँ लेकिन तकनीक से दोस्ती बहुत कम है , अपन का मोबाइल भी 'टुक यूँ ही - सा ' ही है और ऊपर से होली का मौसम सो रिकार्डिंग कुछ कायदे की बन ना पाई । अब जैसी भी बन पड़ी है सो व सुनवाने लायक तो ना है। इसलिए केवल शब्द ,, स्वर के लिए माफी दै द्यो ! यह गुजारिश भी है अगर किसी के पास 'ऐ जान इधर देख ' का ठीकठाक आडियो होय तो होली का 'तोफ़ा' समझ के इस नाचीज को मेल कर देने का कष्ट उठावें और लौटती मेल से भतेरा 'सुकुरिया' पावें।

फिलहाल यह दोहराते हुए कि सबके साथ नज़ीर अकबराबादी की होली को साझा करने का यह क्रम जारी है... लीजिए पेश है नज़्म 'होली' का चुनिंदा अंश..

मिलने का तेरे रखते हैं हम ध्यान इधर देख।
भाती है बहुत हमको तेरी आन इधर देख।
हम चाहने वाले हैं तेरे जान ! इधर देख।
होली है सनम, हँस के तो इक आन इधर देख।
ऐ ! रंग भरे नौ - ग़ुले - खंदान इधर देख ॥

हम देखने तेरा यह जमाल इस घड़ी ऐ जाँन !
आये हैं यही करके ख्याल इस घड़ी ऐ जाँन !
तू दिल में न रख हमसे मलाल इस घड़ी ऐ जाँन !
मुखड़े पे तेरे देख गुलाल इस घड़ी ऐ जाँन !
होली भी यही कहती है ऐ जान ! इधर देख॥

है धूम से होली के कहीं शोर , कहीं गुल।
होता नहीं टुक रंग छिड़कने में तअम्मुल।
दफ़ बजते हैं सब हँसते हैं और धूम है बिल्कुल।
होली की खुशी में तू न कर हमसे तग़ाफुल।
ऐ जाँन ! हमारा भी कहा कहा मान इधर देख॥

है दीद की हर आन तलब दिल को हमारे।
जीते हैं फ़क़त तेरी निगाहों के सहारे ।
हर याँ जो खड़े आन के इस शौक़* के मारे।
हम एक निगाह के तेरे मुश्ताक हैं प्यारे।
टुक प्यार की नजरों से मेरी जान ! इधर देख॥

हर चार तरफ होली की धूमें हैं अहा ! हा !।
देखो जिधर आता है नजर रोज़ तमाशा।
हर आन चमकता है अज़ब ऐश का चर्चा।
होली को 'नज़ीर' अब तू खड़ा देखे है यां क्या।
महबूब यह आया , अरे नादान इधर देख।
------
नौ - ग़ुले - खंदान = नए फूल जैसी मुस्कान वाले ( वाली )
तअम्मुल = सोच विचार
तग़ाफुल = देर , विलम्ब , विस्मृति
मुश्ताक =अभिलाषी, उत्सुक
__________
* पाठान्तर = शौक़ / शोख़
---------
( चित्र : नारायणन रामचंद्रन की कलाकृति , साभार )

Wednesday, February 24, 2010

लीलाधर जगूड़ी से बतकही - 3

लेखक का गर्भाशय और अंग्रेजी का गुलशन नन्दा

(अनिल यादव द्वारा लिए गए लीलाधर जगूड़ी जी के साक्षात्कार का अन्तिम हिस्सा)



हमारे हिंदी साहित्य का उत्स पश्चिम में क्यों है। हमारे अपने परंपरागत साहित्य में क्यों नहीं?

साहित्य एक भौगोलिक या जातीय अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। वह वैश्विक चेतना से जुड़ने का माध्यम भी है। बाजार के आगमन से बहुत पहले वैश्विकता से हमें साहित्य ने जोड़ा था। भारतीय संस्कृति में बाजार का विरोध कभी नहीं रहा। यहां कबीर भी बाजार में लुकाठी हाथ में लिए खड़े हैं। हम अपने पुराने मेलों की बात करें तो वे क्या हैं वे हमारे परंपरागत मॉल ही तो हैं। जहां जरूरत का हर सामान मिला करता था। बाजार ने उसी मेले को बंद, वातानुकूलित दीवारों में ला खड़ा किया है जहां जाने के लिए एकादशी या पूरनमासी का इंतजार नहीं करना पड़ता। हमारा विरोध अनैतिक बाजार से रहा है।

यह बाजार की नैतिकता क्या है?

जो चीजें जैसे हवा, पानी प्रकृति से सहज सबको उपलब्ध हैं, उनकी बिक्री नहीं की जानी चाहिए। उसे बीच में बोतलबंद कर दूध के भाव बेचने वाला अनैतिक है। विदेशों में होटलों में लिखा रहता है कि बाथरूम का पानी पिया जा सकता है क्यों कि वहां पानी की सार्वजनिक सप्लाई की जगह पर ही फिल्टर लगा दिया गया है ताकि साफ पानी सबको मिले। हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि सबको बिसलेरी का पानी घर के नल में मिले। लेकिन तब पानी वाला ब्यापारी नाराज हो जाएगा और उस पार्टी को चुनाव में चंदा नहीं देगा। यह अनैतिकता है और यह कोई पश्चिम की देन नहीं है।

चलिए साहित्य का उत्स कहीं भी हो सकता है लेकिन उसकी तकनीक और औजार हमने उपनिषदों से क्यों नहीं लिए जिनके बारे में आप कहते हैं कि उनका ढांचा बहुत आकर्षक और वैज्ञानिक है?

लिया, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिया। लेकिन हिंदी के आधुनिक लेखकों ने पश्चिम से लिया लेकिन वे आचार्य हजारी प्रसाद से पीछे ही रहे। अपने अस्तित्व की गहरी समझ से जो बात निकलती है वह कुछ और ही असर लिए होती है।

हिंदी समाज के खाते-पीते पढ़ते तबके में लेखक, कवि, विचारकादि के प्रति तिरस्कार, उपेक्षा का भाव कैसे आया। इसके खत्म होने के आसार है क्या ?

गंभीर कवियों को तो लोग जानते नहीं। जानते मंचीय कवियों को हैं वह भी हास्य कवियों को। हास्य कवियों की दुकान लाफ्टर चैलेन्ज जैसे शोज ने बंद कर दी है। अब वे हवाई जहाज से कवि सम्मेलनों में नहीं जा पा रहे हैं।
हमारे यहां कोई यह नहीं बताता कि अच्छी कविता, अच्छा उपन्यास या कहानी क्या है। कौन लिख रहा है। बुरा सभी बताते हैं। आलोचना स्पान्सर्ड हो गई है और कूड़ा बहुत मात्रा में लिखा जा रहा है।

साहित्य का ह्रास हुआ लेकिन अच्छी बात हुई कि लोगों ने तकनीक को समझने की शुरूआत कर दी है। लोग अपने बच्चों का भविष्य तकनीक पढ़ाने वाले कालेजों में देख रहे हैं। लेकिन वैयक्तिक तकनीक चाहे वह मंत्र हो, यंत्र हो, पेन्टिंग हो से बच्चो को दूर कर रहे हैं। उसे हॉबी भी कह सकते हैं। हॉबी पिछड़ गई कैरियर हावी हो गया है। अच्छा होता कि हॉबी ही कैरियर भी बन जाती। लेकिन मान लिया गया है कि हॉबी बिकेगी नहीं पैसा नहीं ला सकती है।

क्यों बच्चे "हाऊ टू बी मिलेनियर इन अ वीक" टाइप साहित्य या चेतन भगत का साहित्य नहीं पढ़ रहे हैं क्या?
चेतन भगत... ऐसे तो गुलशन नंदा, रानू, कुश्वाहा कान्त टाइप बहुत से साहित्यकार हुए हैं। चेतन भगत भी अंग्रेजी में वही लिख रहे हैं। कुश्वाहा कांत जैसों में फिर भी एक विजन था चेतन भगत के पास तो वह भी नहीं है।

तो अच्छे लेखक कैसे बनते हैं?

नया लेखक जिस गर्भाशय में बनता है उसकी एक दीवार पुराने लेखकों से बनी होती है और दूसरी दीवार पर नया समाज और समय होता है। इसके बीच की झिल्ली में नए लेखक का जन्म होता है।

खैर आपको कविताई करते कितने साल हो गए?

यही कोई पचास साल। सन साठ के आसपास लिखना शुरू किया था।

इस समय को पलट कर देखते हुए...जिस काम में इतना समय, इतनी ऊर्जा और संसाधन लगाया उसे देखते हुए क्या यह नही लगता कि कुछ और करते तो बेहतर था?

मुझे तो लगता है यही काम और अधिक दक्षता से करना चाहिए था।

लीलाधर जगूड़ी से बतकही - 2

आदमी बाघ को हरा देता है लेकिन बाजार से हार जाता है



(लीलाधर जगूड़ी जी से अनिल यादव की बातचीत का दूसरा हिस्सा)


उस पुरातन साहित्य में क्या चकित करता है आपको?

जैसे यही कि हमारे यहां अग्नि के लिए संघर्ष नहीं है। पश्चिम में अग्नि स्वर्ग से प्रमथ्यु चुरा कर लाया जिसके लिए उसे दंडित होना पड़ा। लेकिन हमारे यहां वह शमी वृक्ष की सूखी टहनियों को रगड़ने से मिल जाती रही है।

क्या हमारे समाज के संघर्ष में यकीन न करने, अलहदी होने, ईमानदार कोशिश के बजाय चमत्कार में यकीन रखने की मानसिकता से इसका कोई रिश्ता बनता है क्या?

हां हो भी सकता है। जो चीज आसानी से मिल जाए तो उसके लिए जूझेगा क्यों कोई।

आपने गाय का जिक्र किया। अभी मैने कहीं पढ़ा था कि चार हजार साल हो गए आदमी ने किसी नए जानवर को पालतू नहीं बनाया। अगर हम अपनी उस परंपरा से जुड़े रहते तो क्या प्रकृति से छीनने के बजाय उससे मैत्री का कोई रिश्ता बन सकता था क्या। क्या लगता है?

प्रकृति मनुष्य की पूरक है लेकिन आदमी प्रकृति के लिए अनिवार्य नहीं है। पशु-पक्षी हैं। पक्षी बीजों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं। उसी से जंगल फैला। आंधी, तूफान, भूकंप प्रकृति के जो प्रकोप कहे जाते हैं उसके उत्पादन और नवीनीकरण के साधन हैं। आज प्रकृति के साथ पशु-पक्षी खत्म हो रहे हैं। भूलना नहीं चाहिए कि गमलों में लगे फूलों की जिंदगी भी इन्ही पशु-पक्षियों से चलती है। वे चुपचाप उनके मिलन और प्रजनन को संभव बनाने के काम में लगे रहते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का जन्म ही प्रकृति के विरूद्ध हुआ है जबकि उसी को प्रकृति की सबसे अधिक जरूरत है।

प्रकृति-पर्यावरण नष्ट होने के दुष्प्रभावों के कारण इधर कुछ चेतना आई है और प्रकृति को बचाने की बात हो रही है।

जैसे कि सेव टाईगर कैम्पेन ?

हां लेकिन देखिए पहाड़ में एक आदमी बाघ को लड़कर हरा देता है लेकिन बाजार के सामने पस्त हो जाता है। बाघ को उसने भगा दिया लेकिन दवाओं के बाजार में अपना इलाज नहीं करा सकता।

Tuesday, February 23, 2010

लीलाधर जगूड़ी से बतकही - 1



यह इन्टरव्यू उस्ताद कबाड़ी अनिल यादव ने कल लिया था लखनऊ में. अनिल का इन्टरनैट ठीक से काम नहीं कर रहा सो इसे पोस्ट करने यह ज़िम्मा मुझे मिला.

आओ पास बैठो, सोने से ढके सत्य को देखो

लीलाधर जगूड़ी के नाम का आखिरी हिस्सा मुझे खासा विस्मित करता रहा है। उसमें कुछ पुरातन, भदेस और जस का तस है। बहुत पहले 93-94-95 होगा, उप्र के सूचना निदेशालय में इस नाम की तख्ती देखकर यूं ही मिलने चला गया। तब मैं शावक रिपोर्टर हुआ करता था। दिन भर यूं ही टूलने में बड़ा थ्रिल हुआ करता था। फिर अक्सर जाने लगा क्योंकि यह उस तरह के आदमी थे जिनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते फिर उनके पास बैठना सहज लगता है। अपने भीतर के नए कोनों का पता चलता है, अपने भीतर की कई गुम चुकी चीजों को पकड़ने के लिए चुटकी बनाने का मन करता है।

उनसे दो मुलाकातें खासतौर से याद हैं पहली लखनऊ के नीम रौशन धुएं से भरे एक बार में और दूसरी उत्तरांचल की पहली सरकार के शपथग्रहण समारोह के मंच के पीछे। दोनों बार मैं फिर अपने पुराने नतीजे पर पहुंचा कि इस आदमी में और कुछ चाहे न हो गहराई, सहिष्णुता और प्रेम तो है ही। अफसरी की अकड़-फूं तो बिल्कुल नहीं है। उनके एक कविता संग्रह का शीर्षक भी खासा यथार्थ था- भय भी शक्ति देता है

इधर उनमें मेरी दिलचस्पी का नवीनीकरण इस जानकारी से हुआ कि उपनिषदों और पुराणों का खासा अध्ययन उन्होंने किया है। स्वामी विवेकानंद, रजनीश, हर्मन हेस्से, मैक्समूलर, देवरहा बाबा, स्वामी दयानंद और लोककथाओं के जरिए मुझे इनकी खांटी आदिम भारतीय कल्पनाशीलता, कहन की शैली, विराट को सदा के लिए बांध लेने वाले विलक्षण रूपकों की उकसा कर मार डालने वाली झलक मिलती रही लेकिन संस्कृत न जानने के कारण इन पोथियों के सामने खुद को सरकारी तिपहिया का इंतजार करता विकलांग पाया है। खैर जगूड़ी जी से फिर एक बार दैनंदिन खटराग और हडबड़-तड़बड़ के बीच अचानक मुलाकात हुई। नहीं, पहले नीलम जी (उनकी पत्नी) से हुई जिन्होंने घर में आश्रय पाए एक देसी कुत्ते का विलक्षण चिकित्सकीय इतिहास ममत्व के साथ बताया और यह भी कि बिना बताए घर से भाग जाने की उसकी अवांगर्द आदत अभी गई नहीं है।

जगूड़ी जी से पहला सवाल काफी पहले तय हो चुका था कि ये उपनिषद और पुराण क्या चीज हुआ करती है?


मिथकीय उपन्यास हैं ये हमारे। जिनमें अपने समय की गाथा और तर्क अभिव्यक्त हुए हैं। अपने समय की समस्याएं, सत्य और असत्य। और अपने समय के अच्छे आदमी की तस्वीर। आसान ढंग से कहें तो यही विषय वस्तु है। उपनिषद शब्द का मतलब है आओ पास बैठो। पुराण का अर्थ है पहले जो कहा जा चुका है। कहा वही जाता है जो अनुभव किया गया हो इसलिए इन्हें कोरी कल्पना मानने का कोई तुक नहीं है। उसका उस काल से ठोस नाता है।

हमने आधुनिक उपन्यास और कथा-साहित्य का ढांचा पश्चिम से लिया है लेकिन उपनिषदों, पुराणों का ढांचा बहुत आकर्षक और वैज्ञानिक है।

पुरोडाश, अपूप और मृगछौने तो गए लेकिन इनका पिज्जा, पेप्सी और नरेगा वाले क्रिकेटिया भारत से क्या अंर्तसंबध बनता है?

उपनिषद में किराए की कोख (सरोगेट मदर) की कथा कही गई है जिसे अब बहुत नई चीज बताया जा रहा है। इस कथा को आधार बनाकर भीष्म साहनी ने माधवी नाम का एक नाटक लिखा था। ईशवास्योपनिषद में एक पंक्ति आती है- हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापहितम मुखम। अर्थात सत्य का मुख सोने के पात्र से ढका हुआ है। यानि सोने का पात्र ही सत्य नहीं है। सत्य कुछ और है, कटु भी हो सकता है। हे पुरूष तुम वह पात्र हटा दो तो सत्य का मुख देखोगे। यह जो अंतर्विरोध उपनिषदकार ने उजागर किया है क्या वह आज का भी द्वंद नहीं है। मेरा नया कविता संग्रह "खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है" जो भोजपत्र पर नहीं कागज पर छपा है, के शीर्षक में क्या इस पंक्ति की छाया नहीं है।

कोई संस्कृत न जानने वाला उपनिषद और पुराण या वेद पढ़ना चाहे तो कैसे पढ़े?

विदेशी कैसे पढ़ लेते हैं। जो हमारे खून में है उसे क्यों नहीं पढ़ सकते। वैसे भी संस्कृत की पंक्तियों के नीचे हिंदी में भाष्य और टीका लिखे रहते हैं। गीता प्रेस गोरखपुर से जो छपे उनमें काफी हिस्से को अपनी (किसकी ?) संस्कृति के लिए हानिकारक मानते हुए हटा दिया गया है। पुणे से जो छपा है पढ़ने लायक है।

वेदों में गाय की महिमा गायी गयी है। क्या गाय एक दिन में पालतू बनी होगी। घोड़ा क्या ऐसे ही आदमी का सहचर हो गया होगा। जंगल की गाय को कामधेनु में कैसे विकसित किया गया होगा, हमारे यहां इस पर काम नहीं हुआ। होता तो अच्छा होगा, हम संदर्भ के लिए अपने ग्रंथ खोजते।

सरदार पटेल होते तो

कल आपने मनमोहन की दो कविताएं पढ़ी थीं. उसी क्रम में आज प्रस्तुत है उनकी एक और ज़बरदस्त कविता.



हाय सरदार पटेल

सरदार पटेल होते तो ये सब न होता
कश्मीर की समस्या का तो सवाल ही नहीं था
ये आतंकवाद वातंकवाद कुछ न होता
अब तक मिसाइल दाग़ चुके होते
साले सबके सब हरामज़ादे एक ही बार में ध्वस्त हो जाते

सरदार पटेल होते तो हमारे ही देश में
हमारा इस तरह अपमान होता!

ये साले हुसैन वुसैन
और ये सूडो सेकुलरिस्ट
और ये कम्युनिस्ट वमुनिस्ट
इतनी हाय तौबा मचाते!

हर कोई ऐरे गैरे साले नत्थू खैरे
हमारे सर पर चढ़कर नाचते!
आबादी इस क़दर बढ़ती!
मुठ्ठी भर पढ़ी लिखी शहरी औरतें
इस तरह बक-बक करतीं!

सच कहें, सरदार पटेल होते
तो हम दस बरस पहले प्रोफ़ेसर बन चुके होते!

Monday, February 22, 2010

पग्गड़ सिंह का गाना

वरिष्ठ कवि मनमोहन अक्टूबर १९५५ को मथुरा में पैदा हुए थे. फ़िलहाल रोहतक में पढ़ाते हैं. २००५ के शमशेर सम्मान से नवाज़े जा चुके मनमोहन के संग्रह ’ज़िल्लत की रोटी’ के ब्लर्ब में ख्यात कवि असद ज़ैदी लिखते हैं: " मनमोहन की कविता में एक गोपनीय आंसू और एक कठिन निष्कर्ष है. इन दो चीज़ों को समझना आज अपने समय में कविता और समाज के, राजनीति और विचार के, अन्ततः रचना और आलोचकों के रिश्ते को समझना है."

इसी संग्रह से पढ़िये दो बिल्कुल अलग-अलग तरह की कविताएं:


पग्गड़ सिंह का गाना

शील्ड तो ये है हमारी क्योंकि हम हैं फ़ील्ड के
फ़ील्ड में तू है कहां जो तुझको दे दें शील्ड ये

शील्ड हमको चाहिये और फ़ील्ड हमको चाहिये
फ़ील्ड में जो ’यील्ड’ है वि यील्ड हमको चाहिये

सर पै पग्गड़ चाहिये और एक फ़ोटू चाहिये
बीच का पन्ना समझ ले हमको डेली चाहिये

कुछ ये किनारा चाहिये, कुछ वो किनारा चाहिये
ग़रज़ मोटी बात ये अख़बार सारा चाहिये

चौंतरा छिड़का हुआ हो, टहलुए दस बीस हों
इक दुनाली, एक हुक्का. एक मूढ़ा चाहिये

आना जाना हाक़िमों, साथ मुस्टंडा रहे
जूतियां चाटें मुसाहिब, दुनिया चाहे जो कहे

कौन है तू, किसका पोता, किस गली का है बशर
क्या है तेरी ज़ात जो तुझको भी टाइम चाहिये.

इच्छा

एक ऐसी स्वस्थ सुबह मैं जागूं
जब सब कुछ याद रह जाय

और बहुत कुछ भूल जाय
जो फ़ालतू है

(जल्द ही मनमोहन की कुछ अन्य कविताओं से आपका परिचय करवाता हूं. धीरेश सैनी के ब्लॉग एक ज़िद्दी धुन पर इनकी कई कविताएं पढ़ी जा सकती हैं.)

नौ बहारों से तू होली खेलले इस दम 'नज़ीर'।



हिन्द के गुलशन में जब आती है होली की बहार।
जांफिशानी चाही कर जाती है होली की बहार।।

एक तरफ से रंग पड़ता, इक तरफ उड़ता गुलाल।
जिन्दगी की लज्जतें लाती है होली की बहार।।

ज़ाफरानी सजके के चीरा आ मेरे शाकी शिताब।
मुझको तुझ बिन यार तरसाती है होली की बहार।।

तू बगल में हो जो प्यारे रंग में भीगा हुआ।
तब तो मुझको यार खुश आती है होली की बहार।।

और जो हो दूर या कुछ ख़फा हो हमसे मियाँ।
तो , तो काफ़िर हो जिसे भाती है होली की बहार।।

नौ बहारों से तू होली खेलले इस दम 'नज़ीर'।
फिर बरस दिन के ऊपर जाती है होली की बहार।।

* नज़ीर अकबराबादी

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( चित्र : डा० नार्मन लुईस की कलाकृति , साभार )

Sunday, February 21, 2010

मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो



इस कबाड़ी ने अबके लंबा गोता मार लिया । लेकिन 'ग़ालिबे खस्त: के बगैर कौन - से काम बन्द हैं'। दुनिया अपनी चाल से चल रही है , चलती रहेगी। आज से होली की शुरुआत और नज़ीर अकबराबादी की शायरी से ! साथ है छाया गांगुली का सधा हुआ स्वर: यह रचना ( शब्द और स्वर दोनो ) ब्लॊग पर कई जगह , 'कबाड़ख़ाना' पर भी हाजिर है फिर भी आज आइए इसे नए सिरे से सुनते हैं:

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और डफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।

*********

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।


( चित्र : भारती प्रजापति की कलाकृति , साभार )

अज्ञेय तुम बड़े वो हो!



१९९५ में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित कविता संकलन 'कहीं दूर से सुन रहा हूं' में शमशेर की एक कविता अज्ञेय को समर्पित है। लीजिये पढ़िये…

अज्ञेय के जन्मदिवस पर समर्पित



सादर

अज्ञेय - एय
तुम बड़े वो हो
[क्या कहा मैने? ]
तुम बड़े कवि हो
[बड़े ध्येय! ]

आधुनिक परिवेश में तुम
बूर्ज़्वाजी का करुणतम व्यंग्य
बहुत प्यारा सा

काव्य दक्षिण है तुम्हारे रूपकार
कथा वाम [ वामा ]
कथा जो है अकथनीय
गेय/ जो अज्ञेय
[ खूब! ]

ढल रहा है स्वर्ण निशि के पात्र में
मौन कवि का लोक है यह
प्रलय होती है यहां क्षण मात्र में
मूकतम आलोक ही है आत्मा को प्रेय
[ हां ]

* * *
हाथी दांत के मीनार
पर चांद का घोंसला
1958

Saturday, February 20, 2010

मेरी जिंदगी में किताबें - 3


ज्‍यादातर दोस्‍तों ने किताबें खरीदना छोड़ दिया है और किताबों के बारे में बात करना भी। गलती उनकी भी नहीं है। जीवन ही ऐसा है। तंख्‍वाह के अंकों में जीरो बढ़ाते जाने और कॅरियर में एक आला मुकाम हासिल करने के लिए लोग मुंह अंधेरे दफ्तरों के लिए निकलते हैं और रात गए वापस लौटते हैं। बचा वक्‍त फेसबुक सरखी तमाम बुकों के नाम अलॉट है पर किसी और बुक की जगह नहीं है। लड़कियां तो और भी रिकॉर्ड तोड़ काम कर रही हैं किताबें न खरीदने और न पढ़ने के मामले में वो तो मर्दों से भी चार कदम आगे हैं। हिंदुस्‍तान में चायनीज और कॉन्‍टीनेंटल का मार्केट बढ़ते ही वो बड़े गर्व से घरों में भी इसे बनाने की कला सीख रही हैं। बाकी समय बच्‍चों की नाक पोंछती हैं, पति का पेट भरती हैं और बिल्डिंग की औरतों के साथ इस गॉसिप में मुब्तिला रहती हैं कि कौन कहां किसके साथ फंसा हुआ है। किसके यहां कौन आया और गया। किसका चक्‍कर किसके साथ, किसकी बीवी किसके हाथ।

बॉम्‍बे में तकरीबन आठ साल इस हॉस्‍टल से उस हॉस्‍टल के बीच फिरते हुए जहां-जहां मैंने ठिकाना बनाया, वहां सिर्फ दो लड़कियां मुझे मिलीं, जिनकी किताबों से कुछ जमती थी। एमए में मेरी रुममेट शहला भी बैंड स्‍टैंड और फैशन स्‍ट्रीट का चक्‍कर लगाने वाली शोख हसीनाओं को लानत भेजती और दिन भर अपनी किताबों में सिर गोड़े रहती थी। वह अंग्रेजी से एमए कर रही थी और उसी से मैंने एलिस वॉकर, टोनी मॉरीसन, एन्नी सेक्सटन, नादिन गॉर्डिमर, मारर्ग्रेट एटवुड वगैरह के बारे में जाना और उनकी किताबें पढ़ीं। वरना इलाहाबाद में तो हम गोदान को साहित्‍य का दरवाजा और प्रगति प्रकाशन की किताबों को आखिरी दीवार मानकर मगन रहते थे।

लेकिन कुछ तो वो उम्र ही ऐसी थी और कुछ हम ज्‍यादा नालायक भी थे, कि अंग्रेजी की किताबों से ढूंढ-ढूंढकर इरॉटिक हिस्‍से पढ़ते और कंबल में मुंह छिपाकर हंसते। वो लाइब्रेरी से लेडी चैटर्लीज लवर खासतौर से इसलिए लेकर आई थी कि उसके कुछ विशेष हिस्‍सों पर गौर फरमाया जा सके। ऐसे हिस्‍सों का ऊंचे स्‍वर में पाठ होता था। हम मुंह दबाकर हंसते थे। ऊऊऊ……. सो सैड, सो स्‍वीट, सो किलिंग, सो पथेटिक। टैंपल ऑव माय फैमिलिअर पढ़ते हुए शहला बीच-बीच में कहती जाती, ये तो हर चार पन्‍ने के बाद चूमा-चाटी पर उतर आते हैं।

मैं निराशा से भरकर कहती, ‘बस इतना ही।’

‘अरे नहीं, और इसके आगे और भी है मेरी जान।’ शहला आंखें मटकाती।

पढ़-पढ़-पढ़।’ और फिर एक सेशन चलता ऐसे हिस्‍सों का। लेकिन यूं नहीं कि बस काम भर का पढ़कर हम किताब को रवाना कर देते। हम गंभीरता से भी पढ़ते थे। उसने मुझे एन्नी सेक्सटन पढ़ाया और मैंने उसे हिंदी कविताएं। दूसरी पढ़ने वाली लड़की थी, डॉकयार्ड रोड के हॉस्‍टल में केरल की रहने वाली बिंदु, जिसने मुझे वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड पढ़ता देखकर कहा था कि वो ये किताब मलयालम अनुवाद में चार साल पहले ही पढ़ चुकी है। उसे न ठीक से हिंदी आती थी और न अंग्रेजी। मलयालम मेरे लिए डिब्‍बे में कंकड़ भरकर हिलाने जैसी ध्‍वनि थी। फिर भी पता नहीं कैसे हम एक-दूसरे की बातें समझ लेते थे और दुनिया भर की किताबों और कविताओं के बारे में बात करते थे।
इसके अलावा लड़कियों की दुनिया बहुत पथेटिक थी और वहां किताबों के लिए ढेला भर जगह नहीं थी। वो बहत्‍तर रंग और डिजाइन के चप्‍पल और अंडर गारमेंट्स जमा करतीं, तेईस प्रकार की लिप्‍सटिक और ईयर रिंग्‍स और इन सबके बावजूद अगर उनका ब्‍वॉय फ्रेंड पटने के बजाय इधर-उधर मुंह मारता दिखे तो उस दूसरी लड़की को कोसते हुए उसके खिलाफ प्‍लानिंग करती थीं। उन्‍हें मर्द कमीने और दुनिया धोखेबाज नजर आती। लेकिन कमीने मर्दों के बगैर काम भी नहीं चलता। चप्‍पलों का खर्चा कौन उठाएगा? लब्‍बेलुआव ये कि मोहतरमाएं दुनिया के हर करम कर लें, पर मिल्‍स एंड बून्‍स और फेमिना छोड़ किताब नहीं पढ़ती थीं और मुझे और शहला को थोड़ा कमजेहन समझती थीं।

ऐसा नहीं कि मैं लिप्‍स‍टिक नहीं लगाती या सजती नहीं, फुरसत में होती हूं तो मेहनत से संवरती हूं, लेकिन अगर काफ्का को पढ़ने लगूं तो लिप्‍सटिक लगाने का होश नहीं रहता। हॉस्‍टल के दिनों में नाइट सूट पहने-पहने ही क्‍लास करने चली जाती थी और आज भी अगर मैं कोई इंटरेस्टिंग किताब पढ़ रही हूं तो ऑफिस के समय से पांच मिनट पहले किताब छोड़ जो भी मुड़ा-कुचड़ा सामने दिखे, पहनकर चली जाती हूं। होश नहीं रहता कि बालों में ठीक से कंघी है या नहीं। यूं नहीं कि मैं चाहती नहीं कि लिप्‍स्‍टिक-काजल लगा लूं पर इजाबेला एलेंदे के आगे लिप्‍सटिक जाए तेल लेने। लिप्‍सटिक बुरी नहीं है, लेकिन उसे उसकी औकात बतानी जरूरी है। मैं सजूं, सुंदर भी दिखूं, पर इस सजावट के भूत को अपनी खोपड़ी पर सवार न होने दूं। सज ली तो वाह-वाह, नहीं सजी तो भी वाह-वाह।

और कभी महीने में एक-दो बार मजे से संवरती भी हूं। ऑफिस में सब कहते हैं, आज शाम का कुछ प्रोग्राम लगता है। मैं कहती हूं हां, मुराकामी के साथ डेट पर जा रही हूं।
कौन मुराकामी?
एक जापानी ब्‍वॉयफ्रेंड है।
अल्‍लाह, हमें हिंदुस्‍तानी तक तो मिलते नहीं, इसने तो जापानी पटा रखा है।

***

जीवन की रौशनियों और तारीकियों से आंख-मिचौली खेलते मेरी राह में ऐसे ठहराव आए कि कभी तो मैंने किताबों से नाता तोड़ लिया तो कभी किताबों में ही ठौर मांगी। बॉम्‍बे में आठ साल प्रणव के साथ के दौरान मैंने किताबें नहीं खरीदीं क्‍योंकि उसके पास हजारों किताबें थीं। लगता था, वो सब मेरी भी तो हैं। हमारे जीवन साझे हैं तो किताबें भी हुईं। उसके घर की आधी किताबें हॉस्‍टल के मेरे कमरे में गंजी रहती थीं। फिर जब प्रणव दूर चला गया तो उसके साथ सारी किताबें भी चली गईं। फिर बॉम्‍बे छोड़ने के बाद मैं कूरियर से एक-एक करके उसकी किताबें वापस भेजती रही। एक दिन सारी किताबें वापस हो गईं और इसी के साथ उसकी किताबों से नाता भी जाता रहा। चार साल हुए, अब मैं फिर से थोक में किताबें खरीदने लगी हूं। अब जेब भी इजाजत देती है कि कुछ अच्‍छा लग जाए तो पट से खरीद लूं। नौकरी पढ़ने की इजाजत जितनी भी देती है, सुबह-रात मौका मिलते ही पढ़ती हूं। कभी दो-चार दिन की छुट्टी हाथ लगे तो किताबों के साथ सेलि‍ब्रेट करती हूं।

पापा के पास सैकड़ों किताबें हैं और ताऊजी के पास हजारों। लेकिन घर में अब कोई किताब नहीं पढ़ता। ताऊजी से कहती हूं कि उनकी सारी किताबें मेरी होंगी। पहले ताईजी जब भी मेरी शादी के बाबत बात करतीं तो मैं कहती थी कि दहेज में ये सारी किताबें दे देना। ताईजी कहतीं, तेरी सास किताबों समेत उल्‍टे बांस बरेली भेज देगी। मैं कहती, बुढ़िया की ऐसी की तैसी। उसे मैं आगरा भेज दूंगी। ऐसे ही हम सब खचर-पचर करते गुल्‍लम-पुल्‍लम मचाए रहते हैं, पर किताबों से मुहब्‍बत कम नहीं होती।

जब मां पास नहीं होती तो किताबें मां हो जाती हैं। जब कोई प्रेमी नहीं होता दुलराने के लिए तो किताबें प्रेमी बन जाती हैं। जब सहेली नहीं होती खुसुर-पुसुर करने और खिलखिलाने के लिए तो किताबें सहेली हो जाती हैं। किताबें सब होती हैं। वो अदब होती हैं और जिंदगी का सबब होती हैं।

पिछली कड़ियां - मेरी जिंदगी में किताबें -1
मेरी जिंदगी में किताबें - 2

समाप्‍त।

वे लहरें नहीं चोटें गिनते हैं



ऐसे ही पुराने काग़ज़ टटोलते हुए लीलाधर जगूड़ी जी की कविता कहीं लिखी दिख गई. क्यों न आपके साथ बांटा जाए इसे:

प्रेम

प्रेम ख़ुद एक भोग है जिसमें प्रेम करने वाले को भोगता है प्रेम
प्रेम ख़ुद एक रोग है जिसमें प्रेम करने वाले रहते हैं बीमार
प्रेम जो सब बंधनों से मुक्त करे, मुश्किल है
प्रेमीजनों को चाहिये कि वे किसी एक ही के प्रेम में गिरफ़्तार न हों
प्रेमी आएं और सबके प्रेम में मुब्तिला हों
नदी में डूबे पत्थर की तरह
वे लहरें नहीं
चोटें गिनते हैं
और पहले से ज़्यादा चिकने, चमकीले और हल्के हो जाते हैं

प्रेम फ़ालतू का बोझ उतार देता है,
यहां तक कि त्वचा भी

Friday, February 19, 2010

मेरी जिंदगी में किताबें - 2


छुटपन से ही पापा तरह-तरह की किताबें लाकर मुझे देते थे। उनमें लिखी कहानियां मैंने सैकड़ों बार पढ़ी थीं। रोम का वह दास, जिसे भूखे शेर के सामने छोड़ दिया गया था और शेर उसे खाने के बजाय उसके पैरों के पास बैठकर उसके तलवे चाटने लगा था, क्‍योंकि बहुत साल पहले जब वो शेर घायल था, एंड्रोक्‍लीज ने उसके पैरों में से कांटा निकाला था। शेर ने उसे नहीं खाया। वो कहानी मैं रोज एक बार जरूर पढ़ती थी।

पापा के पास रूसी कहानियों की एक किताब थी। एक किताब धरती और आकाश के बारे में थी, जिसमें जर्दानो ब्रूनो, कोपरनिकस और गैलीलियो की कहानियां थीं। जर्दानो ब्रूनो को लंबे-लंबे चोगे पहने और हाथों में क्रॉस लिए पादरियों ने इसलिए जिंदा जला दिया था क्‍योंकि वो कहता था कि अंतरिक्ष का केंद्र पृथ्‍वी नहीं सूर्य है। किताब में लिखा था कि ब्रूनो बाइबिल के खिलाफ बोलता था। मैंने बाइबिल नहीं पढ़ी थी, लेकिन दस साल की उमर में ब्रूनो की कहानी पढ़ने के बाद ही मैंने जाना कि धर्म और मुल्‍कों की सत्‍ताओं पर बैठे लोगों के साथ कितने बेगुनाहों के खून से रंगे थे। उन्‍हीं के कारण कोपरनिकस ने कभी वो नहीं कहा, जो उसे लगता था कि सच है और गैलीलियो ने डरकर माफी मांग ली थी, लेकिन फिर भी उन लोगों ने उसे जेल में डाल दिया था। पापा के पास और भी बहुत सारी कहानियां थीं।

मैं उन कहानियों के साथ बड़ी हुई, जिनमें लिखी हुई हर बात जिंदगी की असल किताब में गलत साबित होने वाली थी, फिर भी उन कहानियों पर मेरा विश्‍वास आज भी कायम है। असल जिंदगी में कॉरपोरेटों में बैठा शेर एंड्रोक्‍लीजों को भी खा जाता है। फिर भी मैं चाहूंगी कि मेरा बच्‍चा एंड्रोक्‍लीज की कहानी पढ़कर बड़ा हो और वो एंड्रोक्‍लीज पर भरोसा करे।

किताबें पापा की सबसे अच्‍छी दोस्‍त थीं। वो कहते थे कि उत्‍तर प्रदेश के जिला प्रतापगढ़ के जिस छोटे से गांव में वो पैदा हुए थे, वहां से होकर उनके बेहतर इंसान बनने का सारा सफर इन्‍हीं किताबों से होकर गुजरा था। मुझे भी एक बेहतर इंसान बनना था, इसलिए मैंने उन किताबों को हमेशा अपने पास संभालकर रखा, जिन्‍होंने सबसे कमजोर और अवसाद के क्षणों में हमेशा मेरा साथ निभाया। उन किताबों को हमेशा ऐसे सहलाया, दुलराया और अपनी छाती से लगाया, मानो वही मेरी प्रेमी हों। वही मुझे संसार के सब गूढ़, अजाने इलाकों तक लेकर जाएंगी, सृष्टि के अभेद्य रहस्‍यों का भेद खोलेंगी। वो मुझे ऐसे प्रेम करेंगी, जैसा प्रेम के बारे में मैंने सिर्फ किताबों में पढ़ा था।

कभी साहित्‍य और राजनीति का गढ़ कहे जाने वाले शहर इलाहाबाद के ऑक्‍सफोर्ड में जहां मैंने बीए तक पढ़ाई की, वहां तब तक पढ़ने-लिखने का कुछ संस्‍कार बाकी था। जिनके भी साथ मेरी दांत कटी यारी थी, वो सब किताबों से वैसे ही मुहब्‍बत करते थे। कोई अंबानी नहीं था और न शहर में कॉरपोरेट का व्‍यापार था। हमारी जेबें खाली होती थीं, लेकिन ट्यूशन, आकाशवाणी या अखबार में कोई छोटा-मोटा लेख लिख देने से जो भी मामूली सी रकम हाथ में आती, उसे बचा-बचाकर हम किताबें खरीदते थे। दस लोग मिलकर एक छोटी सी लाइब्रेरी बना लेते और आपस में मिल-बांटकर किताबें पढ़ते। हालांकि उस पढ़ने का संसार भी बहुत सीमित था। ज्‍यादातर पार्टियों की बुकलेट्स, प्रगति और रादुगा प्रकाशन के भीमकाय उपन्‍यास और मार्क्‍सवाद क्‍या है, दर्शन क्‍या है, भौतिकवाद क्‍या है, आदि-आदि के बारे में छोटी-छोटी पुस्तिकाएं होती थीं। तब पढ़ने का ऐसा भूत था कि हाथ लगा कोई लिखा शब्‍द अनपढ़ा नहीं रहता था। और तो और, आज जिस अखबार को मुंह उठाकर भी नहीं देखती, तब अमर उजाला के एडीटोरियल तक छान जाया करती थी। आज जब पढ़ने को इतना अथाह मेरे अपने घर में है और पढ़ने का वक्‍त नहीं है, सोचती हूं ये किताबें उस उम्र में मिली होतीं तो?

लेकिन वक्‍त इस तेजी से गुजरा है और उसने ऐसे मेरे हमसफरों की शक्‍लें बदल दी हैं कि दस साल पहले का उनका ही रूप उनके सामने रख दिया जाए तो शायद उन्‍हें यकीन न हो कि ये वही हैं। जब हम पढ़ रहे थे, किसी को आभास तक नहीं था कि अचानक इस देश की इकोनॉमी का चेहरा इतने वीभत्‍स अनुरागी ढंग से बदल जाएगा। पत्रकारिता तब कोई ऐसा ग्‍लैमरस पेशा नहीं था, और न ही उसमें यूं नोटों की बरसात होती थी। तब इलाहाबाद शहर में 10-10 रुपए जोड़कर सतह से उठता आदमी और कितनी नावों में कितनी बार खरीदने वालों को पता नहीं था कि सिर्फ दस साल के भीतर वो देश की राजधानी में ऐसी अकल्‍पनीय तंख्‍वाहों पर ऐसी आलीशान जिंदगियां जी रहे होंगे, जो उनके छोटे से शहर और घर में दूर की कौड़ी थी।

कितनी आसानी से किसी को सबकुछ देकर उसका सबकुछ छीना जा सकता है और वो उफ तक नहीं करेगा, उल्‍टे इस छीन जाने के बदले आपका एहसानमंद होगा। इलाहाबाद के वो साथी आज भी दिल्‍ली के पुस्‍तक मेलों में परिवार के साथ घूमते हुए मिल जाते हैं और आज जब किताबें न खरीद पाने की कोई मुनासिब वजह नहीं है, कोई किताब नहीं खरीदता। मोटी तंख्‍वाहें घर और गाड़ी के लिए लोन देने वाले बैंक उठा ले जाते हैं और जो बचता है, वो मॉलों और गाड़ी के पेट्रोल में खत्‍म हो जाता है। बचता आज भी कुछ नहीं। आज भी व़ो वैसे ही फोकटिया हैं, जैसे इलाहाबाद में हुआ करते थे। ये पैसा बस अपर क्‍लास हो जाने के एहसास की तरह उनके दिलों में बसता है। पहले वे जानते थे, अब नहीं जानते कि वे किस वर्ग के हिस्‍से हैं।

पहली किस्‍त - मेरी जिंदगी में किताबें

Thursday, February 18, 2010

और अब जाना निर्मल का



पता नहीं ये इन दिनों हो क्या रहा है.

अभी फ़्रेडरिक स्मेटाचैक के जाने का सदमा कम नहीं हुआ था कि बम्बई से एक दोस्त के फ़ोन से ख़बर लगी कि निर्मल पाण्डे यानी नानू उर्फ़ मेरा परुवा डॉन दुनिया छोड़कर चला गया.

यह हतप्रभ कर देने वाली ख़बर है. फ़क़त छियालीस साल के निर्मल को दिल का गम्भीर दौरा पड़ा और आज दोपहर ढाई बजे उसका देहन्त हो गया. बम्बई में.

निर्मल से मेरी यारी क़रीब पच्चीस साल पुरानी थी. आप को बताना ज़रूरी समझता हूं कि निर्मल एक ज़माने में भीमताल के ब्लॉक दफ़्तर में क्लर्की किया करता था. नौकरी छोड़ना, नैनीताल के युगमंच नामक मशहूर नाट्य संस्था से जुड़ना, एन.एस.डी. जाना, फिर संघर्ष, फिर लन्दन तारा आर्ट्स थियेटर ग्रुप में शेक्सपीयर के नाटक ट्रॉयलस एन्ड क्रेसिडा में महत्वपूर्ण रोल के लिए चुना जाना और आखिरकार शेखर कपूर द्वारा बैन्डिट क्वीन फ़िल्म में विक्रम मल्लाह के लीड रोल के लिए लिया जाना - ये सारे सफ़र देखें हैं मैंने निर्मल के.

लिखना बहुत कुछ चाहता हूं - लेकिन इतनी सारी यादें हैं कि उन्हें इतनी जल्दी लिख सकना सम्भव नहीं.

याद आयेगा तू नानू - बहुत याद आयेगा.

यूँ तो हर लम्हा तेरी याद का बोझल गुज़रा

उर्दू के शायर कृष्ण 'अदीब' साहब का जन्म जालंधर ज़िले में २१ नवम्बर १९२५ को हुआ था. पन्द्रह साल की आयु में घर छोड़ने पर विवश हुए - कुलीगिरी की, फ़ैक्ट्री में मज़दूर रहे.अपने जीवन का ज़्यादातर समय उन्होंने लुधियाना में बिताया. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में वरिष्ठ फ़ोटोग्राफ़र के तौर पर काम करने के बाद वे १९८५ में रिटायर हुए. लम्बी बीमारी और आर्थिक कमी के चलते ७ जुलाई १९९५ को उनकी मृत्यु हुई. 'अदीब' साहब की मुख्य किताबों में 'आवाज़ की परछाइयां', 'फूल, पत्ते और ख़ुशबू' और 'रौ में है रख्शे उम्र' प्रमुख हैं.



आज उनकी जो ग़ज़ल आप सुनने जा रहे हैं, उसे जगजीत सिंह ने भी गाया और भारत भर में लोकप्रिय बनाया. मैं आपको यही ग़ज़ल बाबा मेहदी हसन ख़ान साहेब की आवाज़ में सुनाता हूं. इस प्रस्तुति में खान साहेब ने वे शेर भी गाए हैं जिन्हें जगजीत सिंह ने नहीं गाया था.




जब भी आती है तेरी याद कभी शाम के बाद
और बढ़ जाती है अफसुर्दा-दिली शाम के बाद

अब इरादों पे भरोसा है ना तौबा पे यकीं
मुझ को ले जाये कहाँ तश्ना-लबी शाम के बाद

यूँ तो हर लम्हा तेरी याद का बोझल गुज़रा
दिल को महसूस हु‌ई तेरी कमी शाम के बाद

मैं घोल रंगत-ए-रोशन करता हूं बयाबानी
वरना डस जाएगी ये तीरा-शबी शाम के बाद

दिल धड़कने की सदा थी कि तेरे कदमों की
किसकी आवाज़ सर-ए-जाम शाम के बाद

यूँ तो कुछ शाम से पहले भी उदासी थी 'अदीब'
अब तो कुछ और बढ़ी दिल की लगी शाम के बाद

अदीब साहब की एक ग़ज़ल यहां भी सुनें: तल्ख़ि-ए-मै में ज़रा तल्ख़ि-ए-दिल भी घोलें

Wednesday, February 17, 2010

दोस्तोव्स्की के लेखन पर कुछ बड़े लेखकों के विचार



फ़्योदोर दोस्तोव्स्की मेरे चहेते लेखकों में हैं. उनके उपन्यास क्राइम एन्ड पनिशमैन्ट, द ईडियट और ब्रदर्स करमाज़ोव को सर्वकालीन दस महानतम उपन्यासों की सारी सूचियों में जगह मिलती रही है. उनके उपन्यासों और कहानियों के अविस्मरणीय पात्र हमारे सामने तत्कालीन रूस की वास्तविक सूरत रखते हैं. दोस्तोव्स्की को एक बार पढ़ चुका आदमी उसे जीवन भर याद न रखे, मुझे मुमकिन नहीं लगता.

देखिये अर्नेस्ट हैमिंग्वे, जेम्स जॉयस और वर्जीनिया वूल्फ़ जैसे दिग्गज लेखक क्या राय रखते हैं इस महान रूसी जादूगर के बारे में.


"दोस्तोव्स्की के यहां विश्वास किये जाने लायक चीज़ें भी हैं और ऐसी भी जिन पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिये. लेकिन कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो पढ़ते समय आपको बदल देती हैं. दोस्तोव्स्की ने लेखकों की कई पीढ़ियों को इस कदर प्रभावित किया है कि अब कहानी का माध्यम इसी उस्ताद के बनाए नियमों से संचालित होता है - वे ऐसी असम्भव दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक खोहों तक जा सकते थे!"

-एक साक्षात्कार में अर्नेस्ट हैमिंग्वे

"आधुनिक गद्य के निर्माण में दोस्तोव्स्की का योगदान किसी भी और लेखक से कहीं ज़्यादा है. उसने इस गद्य के स्वर को सघन बनाया. यह उनकी विस्फोटक ताकत थी जिसने नकली हंसियों वाली कन्याओं और क्रमबद्ध रोज़मर्रेपन से भरपूर विक्टोरियाई उपन्यास की धज्जियां उड़ा दीं; ये ऐसी किताबें होती थीं जिनमें न कल्पना होती थी न हिंसा."

-आर्थर पावर को दिये गए एक साक्षात्कार में जेम्स जॉयस

"दोस्तोव्स्की के उपन्यास लगातार घूमते चक्रवात जैसे होते हैं, रेतीले अंधड़ों जैसे, फुंफकारते और आपको अपने भीतर चूस लेने को आतुर भंवरों सरीखे. वे विशुद्ध आत्मापूरित तत्वों से बने होते हैं. अपनी इच्छाओं के बरखिलाफ़ हम विवश होकर उन तक खिंचे चले जाते हैं. हमें चक्रवातों के थप्पड़ झेलने पड़ते हैं, हमारी आंखें अन्धी हो जाती हैं, हमारा दम घुटने लगता है लेकिन साथ ही हमें अपना सारा अस्तित्व एक नशीले आनन्द मैं तैरता महसूस होता है. शेक्सपीयर के अलावा सिर्फ़ और सिर्फ़ दोस्तोव्स्की ने पढ़ने का आनन्द दिया है मुझे"

-'द रशियन पॉइंट ऑफ़ व्यू' में वर्जीनिया वूल्फ़

संगीत के बहाने कुछ बातें



घिसीपिटी किन्तु जगजाहिर बात है कि सतत वैश्वीकरण के इस समय में हमारा देश संक्रमण के अद्भुत दौर से गुज़र रहा है. संगीत का विराट क्षेत्र भी इस से अछूता नहीं रहा है. आप किसी दूरस्थ क़स्बे में किसी परिचित को मोबाइल पर फ़ोन कीजिए तो संभव है कि फ़ोन पर आपको बिसराया हुआ कोई फ़िल्मी गाना सुनने को मिल जाए, या गायत्री मंत्र का अविकल पाठ. हो सकता है किसी ने लोकसंगीत को अपनी रिंगटोन बना रखा हो या किसी प्रसिद्ध अंग्रेज़ी पॉप गाने को. माता के जगराते या लाफ़्टर चैलेन्ज के चुटीले गीत भी सुनने को मिल सकते हैं.

संगीत को सुनने और सुनाने की उत्कंठा इधर दो-तीन सालों में जिस बड़े पैमाने पर जाहिर हुई है, उसे तमाम चीज़ों से पिट चुकी हमारी व्यवस्था से उकताए लोगों की भावाभिव्यक्ति की इच्छा के तौर पर देखा जा सकता है. ग्रामोफ़ोन से टू-इन-वन और उसके बाद क्रमशः सीडी प्लेयर, मोबाइल फ़ोन आईपॉड और पॉडकास्ट जैसे मशीन-माध्यमों से गुज़रते हुए संगीत ने न जाने कितने दौर देख लिए हैं लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि वर्तमान समय अब तक का सबसे अनूठा संगीतमय काल है.

अभी कुछ ही साल पहले तक गीत को पसन्द करने का पहला पैमाना फ़कत उसके उसके बोल हुआ करते थे. बोल समझ में आ गए तो ही गाना सुना जाता था. आम परिवारों में पाश्चात्य, विशेषतः अंग्रेज़ी गीतों से परहेज़ करने का यही मुख्य कारण हुआ करता था. बहुत मुश्किल बोल वाली ग़ज़लें और क़व्वालियां इत्यादि भी इसी श्रेणी में रखी जाती थीं. पक्के सुरों वाले शास्त्रीय रागों को केवल अभिजात्य वर्ग के संग्रह का हिस्सा माना जाता था. बहुसंख्य लोगों को तो ऐसे किसी संगीत के अस्तित्व तक का बोध नहीं था. सो हम उत्तर भारतीयों के पास पसन्दीदा संगीत के नाम पर ले दे कर मोहम्मद रफ़ी, मंगेशकर बहनें, किशोर कुमार और मुकेश बचते थे.

१९८० के दशक को मैं इस लिहाज़ से बहुत क्रान्तिकारी दशक मानता हूं. बेग़म अख़्तर और मेहदी हसन जैसे मंजे हुए कलाकारों की ग़ज़लगायकी से बहुत ही दूर और दोयम दर्ज़े का संगीत रचने वाले पंकज उधास और अनूप जलोटा सरीखे गायकों ने ग़ैरफ़िल्मी ग़ज़लों-भजनों आदि को जनता के सम्मुख रखा और वे हाथोंहाथ लिए गए. "घुंघरू टूट गए" और "सागर से सुराही टकराए" जैसी रचनाओं ने भविष्य के संगीत की कच्ची रूपरेखा बना दी थी. जगजीत सिंह का पॉपुलर संस्करण इसी की परिणति के रूप में देखा जाना चाहिए. हमें इसी दौर में उभरी "डिस्को दीवाने" वाली नाज़िया हसन को भी नहीं भूलना चाहिये.

'रोजा' के यादगार संगीत से फ़िल्मी संसार में प्रवेश लेने वाले ए. आर. रहमान का योगदान इस मायने में बहुत बड़ा है कि उन्होंने हमें शब्दों से परे जाकर बीट्स और संगीत का आनन्द लेना सीखने की तरफ़ प्रेरित किया. दुनिया भर के संगीत को पसन्द और अपने गीतों में इस्तेमाल करने वाले ए. आर. रहमान की सफलता ने भारत में पश्चिम की तर्ज़ पर म्यूज़िक-बैंड्स की स्थापना का रास्ता आसान बनाया. 'इन्डियन ओशन', जैसे ग्रुप्स इसी दौर में सामने आये और रातोंरात युवा पीढ़ी के पसन्दीदा हो गए. आज लगातार नए-नए बैण्ड अपना संगीत लॉंन्च कर रहे हैं. ज़रा इन के नामों की बानगी तो देखिये - 'मिली भगत'. 'जलेबी', 'चटनी रीमिक्स'. 'कारटेल', 'साइनाइड'. पुराने फ़िल्मी गानों को रीमिक्स बना कर पैसा बनाने का खेल भी चलन में आया और जल्दी ही अपने अवश्यंभावी अन्त तक पहुंचा.

इन्टरनैट और अंतर्राष्ट्रीयता के लगातार बढ़ते जाने के बाद युवा पीढ़ी के एक बड़े हिस्से ने अपना ध्यान विश्व संगीत पर दिया. भारत में 'एनिग्मा' या 'जिप्सी किंग्ज़' जैसे ग्रुप के अल्बमों की रेकॉर्ड बिक्री बताती है कि बहुत जल्द ही परिपक्व हो जाने वाली युवा पीढ़ी अब किसी भाषा या बोल तक ही अपने प्रिय संगीत को सीमित नहीं रख रही है - उसे ट्यूनीशियाई धुनों से लेकर स्पेनी बोलेरोज़ और चीनी संगीत से लेकर ग्रेगोरियन चान्ट्स तक से कोई गुरेज़ नहीं. उसे ऋग्वेद की ऋचाओं का फ़्यूज़न में ढला होना भी अच्छा लगता है और नुसरत फ़तेह अली ख़ान की तेज़ क़व्वालियां को सुनना भी.

नए भारत के युवाओं के पसन्दीदा संगीत की रेन्ज देखनी हो उनकी कारों के डैशबोर्ड खोलकर देखिये - वहां वक़्त और मूड के हिसाब से किशोर कुमार से लेकर तलत मेहमूद; हूलियो इग्लेसियास से लेकर बैक स्ट्रीट बॉयज़ और नुसरत से लेकर पंडित जसराज तक मिल सकते हैं. मोत्ज़ार्ट और बीथोवेन सरीखे पाश्चात्य उस्तादों को भी वहां पाया जा सकता है. इसी संसार के थोड़ा और अंतरंग हिस्से में घुसना हो तो हॉस्टलों में रहने वाले किशोर-किशोरियों के संग्रह इस रास्ते पर ले जा सकते हैं. कैलाश खेर और रब्बी शेरगिल के माध्यम से सूफ़ी संगीत सुन रही इस पीढ़ी को कैचप सॉंग भी अच्छा लगता है तो लॉस देल रियो भी. जगजीत सिंह की बेहद हल्की ग़ज़लों को सुन कर इमोशनल हो जाने वाले ये युवा पार्टी वगैरह में 'हट जा ताऊ पाछे नै' पर भी थिरक सकते हैं और 'ब्राज़ील' पर भी. 'ब्राज़ील' गाना तो नगीना, खरहीखांकर, टांडा और गागरीगोल जैसे बेनामी क़स्बों-गांवों की बारातों में लगातार बजता रहा है. ख़ैर, दोस्तों को ढेर सारा संगीत कॉपी कर उपहार में दिये जाने का बढ़ता चलन भी भविष्य के प्रति आश्वस्त करने वाला है.

ब्लॉगिंग एक अलग और नई तरह का माध्यम है जिसमें संगीत सुनाए जाने के बीसियों यन्त्र मौजूद हैं. आप पुराने से पुराना और नए से नया संगीत यहां खोज-सुन सकते हैं. एक साल से ख़ुद दो संगीतकेन्द्रित ब्लॉगों का संचालन करते हुए मुझे एक से बढ़कर एक अविस्मरणीय अनुभव हुए हैं. किसी संगीत को पॉडकास्ट कर चुकने के बाद ख़ासतौर पर युवा श्रोता जिस तरह रियेक्ट करते हैं और छोटी सी ग़लती की तरफ़ ध्यान दिलाते हैं, वह अलग तरह से उत्साह पैदा करने वाला होता है. यह ब्लॉग पर होने वाला संवाद था जिसके कारण मुझे कैरिबियाई द्वीपों में रह रही गिरमिटियों की संततियों द्वारा बचाए भोजपुरी गीत सुनने को मिल गए और एक बड़े हिन्दी कवि से अफ़ग़ानिस्तान में पटियाला घराने का परचम फैलाने वाले मोहम्मद हुसैन सराहंग जैसे दिग्गज संगीतकार से परिचित होने का मौका मिला. ये तो कुछ उदाहरण भर हैं.

यह दीगर है कि संगीत की अजस्र धारा के महात्म्य को रेखांकित करने की विशेष आवश्यकता नहीं लगती. हमारे अपने देश की संगीत परम्परा इस क़दर समृद्ध है पर बाज़ार के लिए परम्पराओं की कोई कीमत नहीं होती. लेकिन इस के बावजूद आप पाएंगे कि शास्त्रीय संगीत की बिक्री में भी रेकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई है. यही हाल के. एल. सहगल और तलत मेहमूद के कलेक्टर्स पैकेजेज़ पर लागू की जा सकती है. यानी जो बच्चे दस साल पहले जगजीत सिंह को सुन रहे थे, वे अब मेहदी हसन की राह पर हैं; जो मैडोना को पसन्द करते थे वे अब खोज खोज कर पॉल रॉब्सन सरीखे कालजयी गायकों को सुन रहे हैं. आप यक़ीन करें न करें मैं तो सोलह साल के एक बच्चे को जानता हूं जो पंडित कुमार गन्धर्व के निर्गुण भजनों का दीवाना होने के साथ साथ 'कजरारे कजरारे तोरे नैना' की बुराई में एक शब्द भी नहीं सुन सकता.

(यह लेख कुछ समय पूर्व नवभारत टाइम्स के लिये लिखा गया था.)

Tuesday, February 16, 2010

बहुत छोटे हैं मुझसे मेरे दुश्मन, जो मेरा दोस्त है मुझसे बड़ा है



उर्दू के मशहूर आलोचक जनाब ज़िया जालन्धरी के शब्दों में अतहर नफ़ीस के यहां शोर कम और शऊर ज़्यादा पाया जाता है. आज से वर्षों पहले मैंने अपने डायरी में अतहर का एक शेर लिखा था:

धूप सर पर हो फिर बेसायबां ज़िन्दा रहो
अय मिरे अतहर नफ़ीस अय जाने-जां ज़िन्दा रहो


फिर किसी और डायरी में उसका ये शेर दर्ज़ हुआ:

जिसे खोकर बहुत मग़मूम हूं मैं
सुना है उसका ग़म मुझसे सिवा है


निखालिस ग़ज़ल के शायर थे अतहर नफ़ीस. उनकी शैली में जहां एक तरफ़ बाबा मीर का खस्ता लहज़ा है वहीं आधुनिक समय की रेश-रेश तल्खि़यां भी. अहसास-ए-जमाल और जमाल-ए-अहसास के इस शायर को ज़्यादा लम्बी उम्र नसीब न हुई. अतहर नफ़ीस मात्र अड़तालीस साल के थे जब २१ नवम्बर १९८० को उनका इन्तकाल हुआ. तब तक उनका एक ही संग्रह कलाम नाम से छपा था. बाद में उनकी ग़ज़लों का एक और संग्रह हम सूरतगर ख़्वाबों के की शक्ल में शाया हुआ. यारों के यार के तौर पर जाने जाने वाले अतहर नफ़ीस की मौत पर उसके बहुत से दोस्तों को एक शायर के कम एक दोस्त के जाने का बड़ा सदमा था.

आज उनकी दो ग़ज़लें पेश कर रहा हूं.


एक

सुकूत-ए-शब से इक नग़मा सुना है
वही कानों में अब तक गूंजता है

ग़नीमत है कि अपने ग़म-ज़दों को
वो हुस्न-ए-ख़ुद-निगर पहचानता है

जिसे खोकर बहुत मग़मूम हूं मैं
सुना है उसका ग़म मुझसे सिवा है

कुछ ऐए ग़म भी हैं जिनसे अभी तक
दिल-ए-ग़म-आशना, ना-आशना है

बहुत छोटे हैं मुझसे मेरे दुश्मन
जो मेरा दोस्त है मुझसे बड़ा है

मुझे हर आन कुछ बनना पड़ेगा
मेरी हर सांस मेरी इब्तिदा है

(सुकूत-ए-शब: रात की ख़ामोशी, ग़म-ज़दों को:दुखित लोगों को, हुस्न-ए-ख़ुद-निगर: स्वार्थी सौन्दर्य, मग़मूम: दुखी, इब्तिदा: शुरुआत)

दो

लम्हों के अजाब सह रहा हूं
मैं अपने वुजूद की सज़ा हूं

ज़ख़्मों के ग़ुलाब खिल रहे हैं
ख़ुश्बू के हुजूम में खड़ा हूं

इस दस्त-ए-तलब में इक मैं भी
सदियों की थकी हुई सदा हूं

शायद न रिहाई मिल सके अब
यादों का असीर हो गया हूं

ऐ मुझको फ़रेब देने वाले
मैं तुझ पर यक़ीन कर चुका हूं

मैं तेरे क़रीब आते-आते
कुछ और भी दूर हो गया हूं

(अजाब: यातना, दश्त-ए-तलब: इच्छाओं का जंगल, असीर: क़ैदी)

Monday, February 15, 2010

कौन हैं माची तवारा



सन १९६२ में जन्मी और स्वाभाव से बेहद शर्मीली माची तवारा टोक्यो के एक स्कूल में अध्यापिका हैं. फ़क़त छब्बीस साल की आयु में उन्होंने अपना पहला कविता संग्रह छपवाया था ’सारादा किनेबी’ (यानी सैलैड एनीवर्सरी). जापान की पारम्परिक कविता का एक फ़ॉर्मेट है तन्का. तन्का में कुल इकत्तीस अक्षरों का इस्तेमाल किये जाने की इजाज़त होती है. माची की इस किताब को जापान में अपूर्व ख्याति हासिल हुई. आप यक़ीन मानिये इस किताब की कुल छः महीने में पच्चीस लाख से ज़्यादा प्रतियां बिक गईं. बाद में उनके अनुवादों की दुनिया भर में साठ लाख से ज़्यादा प्रतियां बिकीं.

आधुनिक समय में प्रेम आधुनिक समय के प्रेम को लेकर लिखी जाने वाली महानतम कविताएं लिख चुकने वाली माची आज जापान में एक सेलेब्रिटी का दर्ज़ा रखती हैं. उनकी सारी कविताएं एक प्रेमी को सम्बोधित हैं. आज आपका उनसे परिचय करवा रहा हूं उनकी केवल दो कविताओं से. बुरा मत मानियेगा. जल्दी ही उनकी कई सारी कविताएं लेकत हाज़िर होता हूं.



एक

"मैं तीस की उम्र में मर जाऊंगा" तुम कहते हो
और बदले में
मैं फ़ैसला करती हूं कि मैं नहीं मरूंगी तब तक

दो

हिरोशिमा की लोकभाषा में
तुम हमारे प्यार का मज़ाक उड़ा रहे हो
या क्या मैं उम्मीद कर रही हूं कि तुम ऐसा कर रहे हो