Thursday, March 19, 2015

किस किस ख़ुदा के सामने सजदा करे कोई

मुबारक अली
अग्रज आशुतोष कुमार ने अपनी फेसबुक वॉल पर मुबारक अली की वॉल से एक उम्दा पोस्ट शेयर की है. अक्सर फेसबुक में तात्कालिक पसंद/ नापसंद और कमेन्ट/नो कमेन्ट के चक्कर में अच्छी चीज़ें ग़ायब हो जाया करती हैं. ग़ायब तो नहीं होतीं, उन्हें खोजने में बहुत श्रम करना पड़ता है. मेरी कोशिश रहती है कि ऐसी बढ़िया चीज़ों को कबाड़खाने में दर्ज कर लूं. मुझे नहीं पता यह पोस्ट खुद मुबारक की है या उन्होंने भी इसे कहीं से उठाया है. जो भी हो यह एक सुन्दर पोस्ट है. आपको पसंद न भी आये तो बचा कर रख लीजिएगा, कुछ उम्दा शेर याद हो जाएंगे जिन्हें कम से कम आप वक्त आने पर इस्तेमाल तो कर ही सकते हैं. 

आशुतोष कुमार
और हाई मुबारक अली की वॉल पर ज़रूर जाएं. बहुत सारा अच्छा पढ़ने-समझने को मिलेगा और चीज़ों को देखने का एक नया ज़ाविया भी हासिल होगा. (सबसे पहली पंक्ति में हाईलाईट किये गए 'मुबारक अली' पर क्लिक  कर उनकी वॉल पर पहुंचा जा सकता है.) 

शुक्रिया आशुतोष भाई, शुक्रिया मुबारक अली!  

एक शायर थे अब्दुल हमीद अदम. उन्होंने लिखा -

दिल ख़ुश हुआ है मस्जिद-ए-वीरां को देख कर,
मेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है

सोचता हूँ कि अगर वो आज ये शेर लिखते तो उन्हें सर में गोली रिसीव करने में कितने दिन लगते?
शुक्र है कि उन्हें गुजरे 33 साल हो गए वरना मजहब के रखवाले उनका खाना खराब करने पर तुल जाते.

जब मुग़लिया सल्तनत थी तब एक मुस्लिम हुकूमत के ज़ेरेसाया रहते ग़ालिब लिखने की हिम्मत कर पायें कि,

ईमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ़्र,
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे

आज होते ग़ालिब तो शांतिदूतों ने उनकी मानसिक शांति में पलीता लगा देना था..

मीर से लेकर अल्लामा इकबाल तक, हफीज जलंधरी से लेकर फैज़ अहमद फैज़ तक कई शायरों ने अपने अपने नजरिये से ईश्वर को परिभाषित करने की, उससे संवाद साधने की, उससे सवाल करने की कोशिशें की है. बिना किसी डर के. मीर कहा करते थे,

अब तो चलते हैं बुतकदे से ऐ 'मीर',
फिर मिलेंगे गर ख़ुदा लाया 

अल्लामा इकबाल का ये ऐलानिया ऐतराफ़ किसी आईएसआईएस के सूरमा की भावनाएं भड़काने के लिए काफ़ी से ज़्यादा था कि,

मस्जिद तो बना ली पल भर में, ईमां की हरारत वालों ने,
दिल अपना पुराना पापी था, बरसों में नमाज़ी बन न सका

इसी तरह और भी कुछ शेर हैं जिन पर कुफ्रिया शायरी का लेबल लगा हुआ है. ऐसी शायरी जिससे अल्लाह पता नहीं खफा होगा या नहीं लेकिन उसके नेक बन्दों की भावनाएं तवे पर उछलते पॉपकॉर्न की तरह फड़कती है. चंद एक नमूने अर्ज़ हैं -

होता इन्हें यकीन गर जन्नत में हूरों का,
ये वाइज़-ओ-शेख कब के मर चुके होते (-नामालूम)

बंदा परवर मैं वो बंदा हूँ के बहर-ए-ज़िन्दगी,
जिसके आगे सर झुका दूंगा ख़ुदा हो जाएगा (-आज़ाद अंसारी)

बेखुदी में हम तो तेरा दर समझ कर झुक गए ,
अब ख़ुदा मालूम वो काबा था के बुतखाना था (-तालिब बागपती)

जुबान-ए-होश से ये कुफ्र सरज़द हो नहीं सकता,
मैं कैसे बिन पिये ले लूं ख़ुदा का नाम ऐ साकी (-अब्दुल हमीद अदम)

महशर में इक सवाल किया था करीम ने,
मुझसे वहां भी आपकी तारीफ़ हो गई (-अब्दुल हमीद अदम)

हुआ है चार सजदों पे ये दावा जाहिदों तुम को,
ख़ुदा ने क्या तुम्हारे हाथ ज़न्नत बेच डाली है (-नामालूम)

जिसने इस दौर के इंसान किये हैं पैदा,
वही मेरा भी ख़ुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं (-हफीज़ जालंधरी)

बन्दे ना होंगे जितने ख़ुदा है ख़ुदाई में,
किस किस ख़ुदा के सामने सजदा करे कोई (-यास यगाना चंगेज़ी)

मिट जायेगी मखलूक तो इन्साफ करोगे,
मुंसिफ हो तो अब हश्र उठा क्यूँ नहीं देते (फैज़ अहमद फैज़)

अल्लाह जिसको मार दे, हो जाए वो हराम,
बन्दे के हाथ जो मरे, हो जाए वो हलाल (गिरगिट अहमदाबादी)

ये जनाब शेख का फलसफा है अजीब तरह का फलसफा,
जो वहां पियो तो हलाल है, जो यहाँ पियो तो हराम है (-खादिम अरशद)

शबाब आया, किसी बुत पर फ़िदा होने का वक्त आया,
मेरी दुनिया में बन्दे के ख़ुदा होने का वक्त आया (-पंडित हरी चंद अख्तर)

लज्जते गुनह को जिसने हार दी थी जन्नत,
मेरी रगों में भी उसी आदम का खून है (-नामालूम)

ये तमाम शायर अलग अलग कालखंड में अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी को जी सकें क्यूँ कि तब तक मजहबों के ठेकेदारों का ये बदसूरत चेहरा नमूदार नहीं हुआ था.

आज जब निदा फाजली ने शेर पढ़ा कि,

उठ उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए,
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया

तो कट्टरपंथी उनके पीछे पड़ गए. जिस महफ़िल में उन्होंने ये शेर पढ़ा वहां से उन्हें बीच में ही उठ जाना पड़ा. और भी सौ तरह की सफाइयां देनी पड़ी. ये तो अच्छा हुआ कि ऊपर के शेर कहने वाले ज्यादातर शायर दुनिया के तख्ते पर से कूच फरमा चुके हैं वरना धर्म के ठेकेदार उन्हें दौड़ा दौड़ा कर मारते. शार्ली अब्दो की घटना की निंदा करते हुए और उसे अंजाम देने वाले या उस हरकत के पीछे पल रही जहरीली मानसिकता को किसी भी तरह का समर्थन करने वाले तमाम कट्टरपंथी भेडियों पर लानत भेजते हुए मैं 'फिराक गोरखपुरी' साहब का ये शेर पूरे होशोहवास में दोहराता हूँ-

मजहब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे,
तहजीब करीने की, इंसान सलीके के


4 comments:

आशुतोष कुमार said...

शुक्रिया अशोक .यह पोस्ट मुबारक अली की ही है. शेर तो उस्तादों के हैं , लेकिन उन्हें मुबारक ने एक खूबसूरत तरतीब दे दी है.

Suhaib Ahmad Farooqui said...

ग़ुरूर-ए-ज़ुहद ने सिखला दिया है वाइज़ को
कि बन्दगाने ख़ुदा पे ज़ुबाँ दराज़ करे !!!

Unknown said...

बहुत खूब !

Unknown said...

बहुत बहुत बहुत धन्यवाद! लाजबाब !