Tuesday, May 26, 2009

आध्यात्मिकता अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है

हमारे समय के बड़े कवि-कहानीकार श्री कुमार अम्बुज ने मेल से यह ज़बरदस्त और ज़रूरी दस्तावेज़ भेजा है. बहुत सारे सवाल खड़े करता जावेद अख़्तर का यह सम्भाषण इत्मीनान से पढ़े जाने की दरकार रखता है. इस के लिए श्री कुमार अम्बुज और डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का बहुत बहुत आभार.

(जावेद अख्तर के इण्डिया टुडे कॉनक्लेव में दिनांक 26 फरवरी, 2005 को ‘स्पिरिचुअलिटी, हलो ऑर होक्स’ सत्र में दिए गए व्याख्यान का डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद)


मुझे पूरा विश्वास है देवियों और सज्जनों कि इस भव्य सभा में किसी को भी मेरी स्थिति से ईर्ष्या नहीं हो रही होगी. श्री श्री रविशंकर जैसे जादुई और दुर्जेय व्यक्तित्व के बाद बोलने के लिए खड़ा होना ठीक ऐसा ही है जैसे तेंदुलकर के चमचमाती सेंचुरी बना लेने के बाद किसी को खेलने के लिए मैदान में उतरना पड़े. लेकिन किन्हीं कमज़ोर क्षणों में मैंने वादा कर लिया था. कुछ बातें मैं शुरू में ही साफ कर देना चाहता हूं. आप कृपया मेरे नाम –जावेद अख्तर- से प्रभावित न हों. मैं कोई रहस्य उजागर नहीं कर रहा. मैं तो वह बात कह रहा हूं जो मैं अनेक बार कह चुका हूं, लिखकर, टी वी पर या सार्वजनिक रूप से बोलकर, कि मैं नास्तिक हूं. मेरी कोई धार्मिक आस्थाएं नहीं हैं. निश्चय ही मैं किसी खास किस्म की आध्यात्मिकता में विश्वास नहीं करता. खास किस्म की!

एक और बात! मैं यहां बैठे इस भद्र पुरुष की आलोचना करने, इनका विश्लेषण करने, या इन पर प्रहार करने खड़ा नहीं हुआ हूं. हमारे रिश्ते बहुत प्रीतिकर और शालीन हैं. मैंने हमेशा इन्हें अत्यधिक शिष्ट पाया है. मैं तो एक विचार, एक मनोवृत्ति, एक मानसिकता की बात करना चाहता हूं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं.

मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब राजीव ने इस सत्र की शुरुआत की, एक क्षण के लिए मुझे लगा कि मैं ग़लत जगह पर आ गया हूं. इसलिए कि अगर हम कृष्ण, गौतम और कबीर, या विवेकानन्द के दर्शन पर चर्चा कर रहे हैं तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है. मैं इसी वक़्त बैठ जाता हूं. मैं यहां उस गौरवशाली अतीत पर बहस करने नहीं आया हूं जिस पर मेरे खयाल से हर हिन्दुस्तानी को, और उचित ही, गर्व है. मैं तो यहां एक सन्देहास्पद वर्तमान पर चर्चा करने आया हूं.

इण्डिया टुडे ने मुझे बुलाया है और मैं यहां आज की आध्यात्मिकता पर बात करने आया हूं. कृपया इस आध्यात्मिकता शब्द से भ्रमित न हों. एक ही नाम के दो ऐसे इंसान हो सकते हैं जो एक दूसरे से एकदम अलग हों. तुलसीदास ने
रामचरितमानस की रचना की. रामानंद सागर ने टेलीविज़न धारावाहिक बनाया. रामायण दोनों में है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि तुलसीदास और रामानंद सागर को एक करके देख लेना कोई बहुत अक्लमन्दी का काम होगा. मुझे याद आता है कि जब तुलसी ने रामचरितमानस रची, उन्हें एक तरह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था. भला कोई अवधी जैसी भाषा में ऐसी पवित्र पुस्तक कैसे लिख सकता है? कभी-कभी मैं सोचता हूं कि किसम-किसम के कट्टरपंथियों में, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के क्यों न हों, कितनी समानता होती है! 1798 में, आपके इसी शहर में, शाह अब्दुल क़ादिर नाम के एक भले मानुस ने पहली बार क़ुरान का तर्ज़ुमा उर्दू में किया. उस वक़्त के सारे उलेमाओं ने उनके खिलाफ एक फतवा ज़ारी कर डाला कि उन्होंने एक म्लेच्छ भाषा में इस पवित्र पुस्तक का अनुवाद करने की हिमाक़त कैसे की! तुलसी ने रामचरितमानस लिखी तो उनका बहिष्कार किया गया. मुझे उनकी एक चौपाई याद आती है :

”धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ जौलाहा कहौ कोऊ.
काहू की बेटी सौं बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारन सोऊ..
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु कोऊ.
मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो एकू न दैबो को दोऊ..”

रामानंद सागर ने अपने धारावाहिक से करोड़ों की कमाई की. मैं उन्हें कम करके नहीं आंक रहा लेकिन निश्चय ही वे तुलसी से बहुत नीचे ठहरते हैं. मैं एक और उदाहरण देता हूं. शायद यह ज़्यादा स्पष्ट और उपयुक्त हो. सत्य की खोज में गौतम महलों से निकले और जंगलों में गए. लेकिन आज हम देखते हैं कि वर्तमान युग के गुरु जंगल से निकलते हैं और महलों में जाकर स्थापित हो जाते हैं. ये विपरीत दिशा में जा रहे हैं. इसलिए हम लोग एक ही प्रवाह में इनकी बात नहीं कर सकते. इसलिए, हमें उन नामों की आड़ नहीं लेनी चाहिए जो हर भारतीय के लिए प्रिय और आदरणीय हैं.

जब मुझे यहां आमंत्रित किया गया तो मैंने महसूस किया कि हां, मैं नास्तिक हूं और किसी भी हालत में बुद्धिपरक रहने की कोशिश करता हूं. शायद इसीलिए मुझे बुलाया गया है. लेकिन, उसी क्षण मैंने महसूस किया कि एक और खासियत है जो मुझमें और आधुनिक युग के गुरुओं में समान रूप से मौज़ूद है. मैं फिल्मों के लिए काम करता हूं. हममें काफी कुछ एक जैसा है. हम दोनों ही सपने बेचते हैं, हम दोनों ही भ्रम-जाल रचते हैं, हम दोनों ही छवियां निर्मित करते हैं. लेकिन एक फर्क़ भी है. तीन घण्टों के बाद हम कहते हैं – “दी एण्ड, खेल खत्म! अपने यथार्थ में लौट जाइए.” वे ऐसा नहीं करते. इसलिए, देवियों और सज्जनों मैं एकदम स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यहां उस आध्यात्मिकता के बारे में बात करने आया हूं जो दुनिया के सुपरमार्केट में बिकाऊ है. हथियार, ड्रग्स और आध्यात्मिकता ये ही तो हैं दुनिया के तीन सबसे बड़े धन्धे. लेकिन हथियार और ड्रग्स के मामले में तो आपको कुछ करना पड़ता है, कुछ देना पड़ता है. इसलिए वह अलग है. यहां तो आप कुछ देते भी नहीं.

इस सुपर मार्केट में आपको मिलता है इंस्टैण्ट निर्वाण, मोक्ष बाय मेल, आत्मानुभूति का क्रैश कोर्स – चार सरल पाठों में कॉस्मिक कांशियसनेस. इस सुपर मार्केट की चेनें सारी दुनिया में मौज़ूद हैं, जहां बेचैन आभिजात वर्गीय लोग आध्यात्मिक फास्ट फूड खरीद सकते हैं. मैं इसी आध्यात्मिकता की बात कर रहा हूं.

प्लेटो ने अपने डायलॉग्ज़ में कई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें कही हैं. उनमें से एक यह है कि किसी भी मुद्दे पर बहस शुरू करने से पहले शब्दों के अर्थ निश्चित कर लो. इसलिए, हम भी इस शब्द- ‘आध्यात्मिकता’ का अर्थ निश्चित कर लेने का प्रयत्न करते हैं. अगर इसका अभिप्राय मानव प्रजाति के प्रति ऐसे प्रेम से है जो सभी धर्मों, जतियों, पंथों, नस्लों के पार जाता है, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं उसे मानवता कहता हूं. अगर इसका अभिप्राय पेड़-पौधों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों और पशुओं के प्रति, यानि मानवेत्तर विश्व से प्रेम से है, तो भी मुझे क़तई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं इसे पर्यावरणीय चेतना कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का मतलब विवाह, अभिभावकत्व, ललित कलाओं, न्यायपालिका, अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रति हार्दिक सम्मान का नाम है? मुझे भला क्या असहमति हो सकती है श्रीमान? मैं इसे नागरिक ज़िम्मेदारी कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ अपने भीतर उतरकर स्वयं की ज़िन्दगी का अर्थ समझना है? इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मैं इसे आत्मान्वेषण या स्व-मूल्यांकन कहता हूं. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ योग है? पतंजलि की कृपा से, जिन्होंने हमें योग, यम, यतम, आसन, प्राणायाम के मानी समझाए, हम इसे किसी भी नाम से कर सकते हैं. अगर हम प्राणायाम करते हैं, बहुत अच्छी बात है. मैं इसे हेल्थ केयर कहता हूं. फिजीकल फिटनेस कहता हूं.

तो अब मुद्दा सिर्फ अर्थ विज्ञान का है. अगर यही सब आध्यात्मिकता है तो फिर बहस किस बात पर है? जिन तमाम शब्दों का प्रयोग मैंने किया है वे अत्यधिक सम्मानित और पूरी तरह स्वीकार कर लिए गए शब्द हैं. इनमें कुछ भी अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है. तो फिर इस शब्द - आध्यात्मिकता - पर इतनी ज़िद क्यों? आखिर आध्यात्मिकता शब्द में ऐसा क्या है जो इन शब्दों में नहीं सिमट आया है? वो ऐसा आखिर है क्या?

पलटकर कोई मुझी से पूछ सकता है कि आपको इस शब्द से क्या परेशानी है? क्यों मैं इस शब्द को बदलने, त्यागने, छोड़ देने, बासी मान लेने का आग्रह कर रहा हूं. आखिर क्यों? मैं आपको बताता हूं कि मेरी आपत्ति किस बात पर है. अगर आध्यात्मिकता का अर्थ इन सबसे है तो फिर बहस की कोई बात नहीं है. लेकिन कुछ और है जो मुझे परेशान करता है. शब्द कोष में आध्यात्मिकता शब्द, -स्पिरिचुअलिटी- की जड़ें आत्मा, स्पिरिट में हैं. उस काल में जब इंसान को यह भी पता नहीं था कि धरती गोल है या चपटी, तब उसने यह मान लिया था कि हमारा अस्तित्व दो चीज़ों के मेल से निर्मित है. शरीर और आत्मा. शरीर अस्थायी है. यह मरणशील है. लेकिन आत्मा, मैं कह सकता हूं, बायोडिग्रेडेबल है. आपके शरीर में लिवर है, हार्ट है, आंतें हैं, दिमाग है.

लेकिन क्योंकि दिमाग शरीर का एक हिस्सा है और मन दिमाग के भीतर रहता है, वह घटिया है क्योंकि अंतत: शरीर के साथ दिमाग का भी मरना निश्चित है. लेकिन चिंता न करें, आप फिर भी नहीं मरेंगे, क्योंकि आप तो आत्मा हैं और क्योंकि आत्मा परम चेतस है, वह सदा रहेगी, और आपकी ज़िन्दगी में जो भी समस्याएं आती हैं वे इसलिए आती हैं कि आप अपने मन की बात सुनते हैं. अपने मन की बात सुनना बन्द कर दीजिए.. आत्मा की आवाज़ सुनिए – आत्मा जो कॉस्मिक सत्य को जानने वाली सर्वोच्च चेतना है. ठीक है. कोई ताज़्ज़ुब नहीं कि पुणे में एक आश्रम है, मैं भी वहां जाया करता था. मुझे वक्तृत्व कला अच्छी लगती थी. सभा कक्ष के बाहर एक सूचना पट्टिका लगी हुई थी: “अपने जूते और दिमाग बाहर छोड़ कर आएं”. और भी गुरु हैं जिन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं होता है कि आप जूते बाहर नहीं छोड़ते. लेकिन दिमाग? ....नहीं.

अब, अगर आप अपना दिमाग ही बाहर छोड़ देते हैं तो फिर क्या होगा? आपको ज़रूरत होगी ऐसे गुरु की जो आपको चेतना के अगले मुकाम तक ले जाए. वह मुकाम जो आत्मा में कहीं अवस्थित है. वह सर्वोच्च चेतना तक पहुंच चुका है. उसे परम सत्य ज्ञात है. लेकिन क्या वह आपको बता सकता है? जी नहीं. वह आपको नहीं बता सकता. तो, अपना सत्य आप खुद ढूंढ सकेंगे?. जी नहीं. उसके लिए आपको गुरु की सहायता की ज़रूरत होगी. आपको तो उसकी ज़रूरत होगी लेकिन
वह आपको इस बात की गारण्टी नहीं दे सकता कि आपको परम सत्य मिल ही जाएगा... और यह परम सत्य है क्या? कॉस्मिक सत्य क्या है? जिसका सम्बन्ध कॉस्मॉस यानि ब्रह्माण्ड से है? मुझे तो अब तक यह समझ में नहीं आया है. जैसे ही हम अपने सौर मण्डल से बाहर निकलते हैं, पहला नक्षत्र जो हमारे सामने आता है वह है अल्फा सेंचुरी, और वह हमसे केवल चार प्रकाश वर्ष दूर है. उससे मेरा क्या रिश्ता बनता है? क्यों बनता है?

तो, राजा ने ऐसे कपड़े पहन रखे हैं जो सिर्फ बुद्धिमानों को ही दिखाई देते हैं. और राजा लगातार बड़ा होता जा रहा है. और ऐसे बुद्धिमानों की संख्या भी निरंतर बढती जा रही है जिन्हें राजा के ये कपड़े दिखाई दे रहे हैं और जो उनकी तारीफ करते हैं. मैं सोचता था कि आध्यात्मिकता दरअसल धार्मिक लोगों की दूसरी रक्षा पंक्ति है. जब वे पारम्परिक धर्म से लज्जित अनुभव करने लगते हैं, जब यह बहुत चालू लगने लगता है तो वे कॉस्मॉस या परम चेतना के छद्म की ओट ले लेते हैं. लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है. इसलिए कि पारम्परिक धर्म और आध्यात्मिकता के अनुयायीगण अलग-अलग हैं. आप ज़रा दुनिया का नक्शा उठाइए और ऐसी जगहों को चिह्नित कीजिए जो अत्यधिक धार्मिक हैं -चाहे भारत में या भारत के बाहर- एशिया, लातिन अमरीका, यूरोप.... कहीं भी. आप पाएंगे कि जहां-जहां धर्म का आधिक्य है वहीं-वहीं मानव अधिकारों का अभाव है, दमन है. सब जगह. हमारे मार्क्सवादी मित्र कहा करते थे कि धर्म गरीबों की अफीम है, दमित की कराह है. मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता. लेकिन आजकल आध्यात्मिकता अवश्य ही अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है.

आप देखेंगे कि इनके अनुयायी खासे खाते-पीते लोग है, समृद्ध वर्ग से हैं. ठीक है. गुरु को भी सत्ता मिलती है, ऊंचा कद और पद मिलता है, सम्पत्ति मिलती है..(जिसका अधिक महत्व नहीं है), शक्ति मिलती है और मिलती है अकूत सम्पदा. और भक्तों को क्या मिलता है? जब मैंने ध्यान से इन्हें देखा तो पाया कि इन भक्तों की भी अनेक श्रेणियां हैं. ये सभी एक किस्म के नहीं हैं. अनेक तरह के अनुयायी, अनेक तरह के भक्त. एक वह जो अमीर है, सफल है, ज़िन्दगी में खासा कामयाब है, पैसा कमा रहा है, सम्पदा बटोर रहा है. अब, क्योंकि उसके पास सब कुछ है, वह अपने पापों का शमन भी चाहता है. तो गुरु उससे कहता है कि “तुम जो भी कर रहे हो, वह निष्काम कर्म है. तुम तो बस एक भूमिका अदा कर रहे हो, यह सब माया है, तुम जो यह पैसा कमा रहे हो और सम्पत्ति अर्जित कर रहे हो, तुम इसमें भावनात्मक रूप से थोड़े ही संलग्न हो. तुम तो बस एक भूमिका निबाह रहे हो.. तुम मेरे पास आओ, क्योंकि तुम्हें शाश्वत सत्य की तलाश है. कोई बात नहीं कि तुम्हारे हाथ मैले हैं, तुम्हारा मन और आत्मा तो शुद्ध है”. और इस आदमी को अपने बारे में सब कुछ अच्छा लगने लगता है. सात दिन तक वह दुनिया का शोषण करता है और सातवें दिन के अंत में जब वह गुरु के चरणों में जाकर बैठता है तो महसूस करता है कि मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूं.

लोगों का एक और वर्ग है. ये लोग भी धनी वर्ग से हैं. लेकिन ये पहले वर्ग की तरह कामयाब लोग नहीं हैं. आप जानते हैं कि कामयाबी-नाकामयाबी भी सापेक्ष होती है. कोई रिक्शा वाला अगर फुटपाथ पर जुआ खेले और सौ रुपये जीत जाए तो अपने आप को कामयाब समझने लगेगा, और कोई बड़े व्यावसायिक घराने का व्यक्ति अगर तीन करोड भी कमा ले, लेकिन उसका भाई खरबपति हो, तो वो अपने आप को नाकामयाब समझेगा. तो, यह जो अमीर लेकिन नाकामयाब इंसान है, यह क्या करता है? उसे तलाश होती है एक ऐसे गुरु की जो उससे कहे कि “कौन कहता है कि तुम नाकामयाब हो? तुम्हारे पास और भी तो बहुत कुछ है. तुम्हारे पास ज़िन्दगी का एक मक़सद है, तुम्हारे पास ऐसी संवेदना है जो तुम्हारे भाई के पास नहीं है. क्या हुआ जो वह खुद को कामयाब समझता है? वह कामयाब थोड़े ही है. तुम्हें पता है, यह दुनिया बड़ी क्रूर है. दुनिया बड़ी ईमानदारी से तुम्हें कहती है कि तुम्हें दस में से तीन नम्बर मिले हैं. दूसरे को तो सात मिले हैं. ठीक है. वे तुम्हारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे.” तो इस तरह इसे करुणा मिलती है, सांत्वना मिलती है. यह एक दूसरी तरह का खेल है. एक और वर्ग. मैं इस वर्ग के बारे में किसी अवमानना या श्रेष्ठता के भाव के साथ बात नहीं कर रहा. और न मेरे मन में इस वर्ग के प्रति कोई कटुता है, बल्कि अत्यधिक सहानुभूति है क्योंकि यह वर्ग आधुनिक युग के गुरु और आज की आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा अनुयायी है. यह है असंतुष्ट अमीर बीबियों का वर्ग.

एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक उदासीन पति, जिसने ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या दिया? कुछ बच्चे! वह डूबा है अपने काम धन्धे में, या दूसरी औरतों में. इस औरत को तलाश है एक कन्धे की. इसे पता है कि यह एक अस्तित्ववादी असफलता है. आगे भी कोई उम्मीद नहीं है. उसकी ज़िन्दगी एक विराट शून्य है; एकदम खाली, सुविधाभरी लेकिन उद्देश्यहीन. दुखद किंतु सत्य! और भी लोग हैं. ऐसे जिन्हें यकायक कोई आघात लगता है. किसी का बच्चा चल बसता है, किसी की पत्नी गुज़र जाती है. किसी का पति नहीं रहता. या उनकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, व्यवसाय खत्म हो जाता है. कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उनके मुंह से निकल पड़ता है: “आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?” किससे पूछ सकते हैं ये लोग यह सवाल? ये जाते हैं गुरु के पास. और गुरु इन्हें कहता है कि “यही तो है कर्म. लेकिन एक और दुनिया है जहां मैं तुम्हें ले जा सकता हूं, अगर तुम मेरा अनुगमन करो. वहां कोई पीड़ा नहीं है. वहां मृत्यु नहीं है. वहां है अमरत्व. वहां केवल सुख ही सुख है”. तो इन सारी दुखी आत्माओं से यह गुरु कहता है कि “मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूं जहां कोई कष्ट नहीं है”. आप मुझे क्षमा करें, यह बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन सत्य है, कि ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है. ज़िन्दगी में हमेशा थोड़ा दर्द रहेगा, कुछ आघात लगेंगे, हार की सम्भावनाएं रहेंगी. लेकिन उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है.

आपमें से कोई मुझसे पूछ सकता है कि अगर इन्हें कुछ खुशी मिल रही है, कुछ शांति मिल रही है तो आपको क्या परेशानी है? मुझे अपनी पढ़ी एक कहानी याद आती है. किसी संत की कही एक पुरानी कहानी है. एक भूखे कुत्ते को एक सूखी हड्डी मिल जाती है. वह उसी को चबाने की कोशिश करने लगता है और इसी कोशिश में अपनी जीभ काट बैठता है. जीभ से खून आने लगता है. कुत्ते को लगता है कि उसे हड्डी से ही यह प्राप्त हो रहा है. मुझे बहुत बुरा लग रहा है. मैं नहीं चाहता कि ये समझदार लोग ऐसा बर्ताव करें, क्योंकि मैं इनका आदर करता हूं. मानसिक शांति या थोड़ा सुकून तो ड्रग्स या मदिरा से भी मिल जाता है लेकिन क्या वह आकांक्ष्य है? क्या आप उसकी हिमायत करेंगे? जवाब होगा, नहीं. ऐसी कोई भी मानसिक शांति जिसकी जड़ें तार्किक विचारों में न हो, खुद को धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती. कोई भी शांति जो आपको सत्य से दूर ले जाए, एक भ्रम मात्र है, महज़ एक मृग तृष्णा है. मैं जानता हूं कि शांति की इस अनुभूति में एक सुरक्षा-बोध है, ठीक वैसा ही जैसी तीन पहियों की साइकिल में होता है. अगर आप यह साइकिल चलाएं, आप गिरेंगे नहीं. लेकिन बड़े हो गए लोग तीन पहियों की साइकिलें नहीं चलाया करते. वे दो पहियों वाली साइकिलें चलाते हैं, चाहे कभी गिर ही क्यों न जाएं. यही तो ज़िन्दगी है.

एक और वर्ग है. ठीक उसी तरह का जैसा गोल्फ क्लब जाने वालों का हुआ करता है. वहां जाने वाला हर व्यक्ति गोल्फ का शौकीन नहीं हुआ करता. ठीक उसी तरह हर वह इंसान जो आश्रम में नज़र आता है, आध्यात्मिक नहीं होता. एक ऐसे गुरु के, जिनका आश्रम दिल्ली से मात्र दो घण्टे की दूरी पर है, घनघोर भक्त एक फिल्म निर्माता ने एक बार मुझसे कहा था कि मुझे भी उनके गुरु के पास जाना चाहिए. वहां मुझे दिल्ली की हर बड़ी हस्ती के दीदार हो जाएंगे. सच तो यह है कि वे गुरु जी निर्माणाधीन दूसरे चन्द्रास्वामी हैं. तो, यह तो नेटवर्किंग के लिए एक मिलन बिन्दु है. ऐसे लोगों के प्रति मेरे मन में अगाध सम्मान है जो आध्यात्मिक या धार्मिक हैं और फिर भी भले इंसान हैं. इसकी वजह है. मैं मानता हूं कि किसी भी भाव या अनुभूति की तरह आपकी भी एक सीमा होती है. आप एक निश्चित दूरी तक ही देख सकते हैं. उससे आगे आप नहीं देख सकते. आप एक खास स्तर तक ही सुन सकते हैं, उससे परे की ध्वनि आपको सुनाई नहीं देगी. आप एक खास मुकाम तक ही शोक मना सकते हैं, दर्द हद से बढ़ता है तो खुद-ब-खुद दवा हो जाता है. एक खास बिन्दु तक आप प्रसन्न हो सकते हैं, उसके बाद वह प्रसन्नता भी प्रभावहीन हो जाती है. इसी तरह, मैं मानता हूं कि आपके भलेपन की भी एक निश्चित सीमा है. आप एक हद तक ही भले हो सकते हैं, उससे आगे नहीं. अब कल्पना कीजिए कि हम किसी औसत इंसान में इस भलमनसाहत की मात्रा दस इकाई मानते हैं. अब हर कोई जो मस्जिद में जाकर पांच वक़्त नमाज़ अदा कर रहा है वह इस दस में से पांच इकाई की भलमनसाहत रखता है, जो किसी मदिर में जाता है या गुरु के चरणों में बैठता है वह तीन इकाई भलमनसाहत रखता है. यह सारी भलमनसाहत निहायत गैर उत्पादक किस्म की है. मैं इबादतगाह में नहीं जाता, मैं प्रार्थना नहीं करता. अगर मैं किसी गुरु के पास, किसी मस्जिद या मंदिर या चर्च में नहीं जाता तो मैं अपने हिस्से की भलमनसाहत का क्या करता हूं? मुझे किसी की मदद करनी होगी, किसी भूखे को खाना खिलाना होगा, किसी को शरण देनी होगी. वे लोग जो अपने हिस्से की भलमनसाहत को पूजा-पाठ में, धर्म या आध्यात्म गुरुओं के मान-सम्मान में खर्च करने के बाद भी अगर कुछ भलमनसाहत बचाए रख पाते हैं, तो मैं उन्हें सलाम करता हूं.

आप मुझसे पूछ सकते हैं कि अगर धार्मिक लोगों के बारे में मेरे विचार इस तरह के हैं तो तो फिर मैं कृष्ण, कबीर या गौतम के प्रति इतना आदर भाव कैसे रखता हूं? आप ज़रूर पूछ सकते हैं. मैं बताता हूं कि क्यों मेरे मन में उनके प्रति आदर है. इन लोगों ने मानव सभ्यता को समृद्ध किया है. इनका जन्म इतिहास के अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ. लेकिन एक बात इन सबमें समान थी. ये अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए. ये दलितों के लिए लड़े. चाहे वह रावण हो, कंस हो, कोई बड़ा धर्म गुरु हो या गांधी के समय में ब्रिटिश साम्राज्य या कबीर के वक़्त में फिरोज़ शाह तुग़लक का धर्मान्ध साम्राज्य हो, ये उसके विरुद्ध खड़े हुए.

और जिस बात पर मुझे ताज़्ज़ुब होता है, और जिससे मेरी आशंकाओं की पुष्टि भी होती है वह यह कि ये तमाम ज्ञानी लोग, जो कॉस्मिक सत्य, ब्रह्माण्डीय सत्य को जान चुके हैं, इनमें से कोई भी किसी सत्ता की मुखालिफत नहीं करता. इनमें से कोई सत्ता या सुविधा सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं करता. दान ठीक है, लेकिन वह भी तभी जब कि उसे प्रतिष्ठान और सत्ता की स्वीकृति हो. लेकिन आप मुझे बताइये कि कौन है ऐसा गुरु जो बेचारे दलितों को उन मंदिरों तक ले गया हो जिनके द्वार अब भी उनके लिए बन्द हैं? मैं ऐसे किसी गुरु का नाम जानना चाहता हूं जो आदिवासियों के अधिकारों के लिए ठेकेदारों से लड़ा हो. मुझे आप ऐसे गुरु का नाम बताएं जिसने गुजरात के पीड़ितों के बारे में बात की हो और उनके सहायता शिविरों में गया हो. ये सब भी तो आखिर इंसान हैं.

मान्यवर, यह काफी नहीं है कि अमीरों को यह सिखाया जाए कि वे सांस कैसे लें. यह तो अमीरों का शगल है. पाखण्डियों की नौटंकी है. यह तो एक दुष्टता पूर्ण छद्म है. और आप जानते हैं कि ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इस छद्म के लिए एक खास शब्द है, और वह शब्द है: होक्स(HOAX). हिन्दी में इसे कहा जा सकता है, झांसे बाजी!.

धन्यवाद.

33 comments:

pankaj srivastava said...

बेहद धारदार..भगत सिंह के मैं नास्तिक क्यों हूं के बाद पहला ऐसा भाषण पढ़ रहा हूं जो झांसेबाजी की परत दर परत इतने प्रभावी तरीके से उतार रहा है। ... कुछ बात तो है इस जावेद अख्तर में..क्यों.।

Ashok Kumar pandey said...

अरे भाई
मुझे भी यह मेल मिला और इसे तुरंत http://hamkalam1.blogspot.com/2009/05/blog-post_26.html पर लगा दिया।

चूक हो गयी क्या?

Ashok Pande said...

कैसी बात करते हैं मेरे हमनाम मित्र! अच्छी बातें जितनी जगह जाएं उतना बढ़िया. क्या कहते हैं!

मुनीश ( munish ) said...

Javed Akhtar is one of the most powerful literary..i repeat..LITERARY figures of our times. An avid debater since his college days he truly possesses gift of gab. If the word 'Secular' has any meaning it is best represented by him in India, like the term 'pseudo-secular' is best personified by his better half. Nothing is absolute in the ever changing and transient world.

Everyone has his own set of "TRUTHS" fashioned by one's personal experiences. "Sam sarati yah: samsarah:"....the one which is always moving is SANSAR. I have no reason to differ with him even though i am not with him .

Ek ziddi dhun said...

Ashok bhai, vistar se phir tipiya lunga. filhal to iska print lekar logo.n mein baantne chala. is post ko badalne mein zaldi mat karna please

विजय गौड़ said...

यह आलेख तो मित्रों को पढवाए जाने लायक है। मेल कर रहा हूं। चूंकि ब्लाग पोस्ट को मेळ नहीं कर पा रहा हूं, इसलिए कापी पेस्ट करके और साथ में पोस्ट का लिंक लगा कर ही कर रहा हूं। इस पोस्ट को अभी तुरंत न हटाइयेगा। ज्यादा ज्यादा पढी जाना चाहिए इसे।

दीपा पाठक said...

बहुत शानदार, निहायत जरूरी पोस्ट। पढवाने के लिए बहुत शुक्रिया।

स्वप्नदर्शी said...

"ऐसी कोई भी मानसिक शांति जिसकी जड़ें तार्किक विचारों में न हो, खुद को धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती. कोई भी शांति जो आपको सत्य से दूर ले जाए, एक भ्रम मात्र है, महज़ एक मृग तृष्णा है. मैं जानता हूं कि शांति की इस अनुभूति में एक सुरक्षा-बोध है, ठीक वैसा ही जैसी तीन पहियों की साइकिल में होता है."


Behtareen hai.

@Munish
I do not agree with you about Shabana,
She is brilliant not only as a actress but also as a activist, and secular thinker. She is amazing face to face.

Syed Ali Hamid said...

Mr. Javed Akhtar has, from a purely materialistic and mundane point of view, condemned professional and pseudo-spiritualists.But what has spiritualism got to do with religious rituals or altruism? A truly spiritual person is more humane than others and one feels at peace with oneself in his/her mere presence. Mr. Akhtar has delivered the speech of an atheist social activist.His talk of spiritualism is like a professor of English delivering a lecture on nuclear physics.If spiritualism is a tranquilizer of the rich, then atheism, here, is also a fashionable posture of a rich person. I'm certainly not impressed by this propagandist lecture. How can one be a good poet or a good human being without being a spiritually evolved person?

मुनीश ( munish ) said...

Well, Swapndarshi ji they are a nice celebrity couple and let us wish them a happy conjugal life.
I still maintain,however, that in terms of intelligence and balance of mind the lady is no match for him.
Prof. Hamid i think One important point Javed has missed is the mindless spread of superstition by television channels purely aimed at lower middle and middle class people and it is further diluting the true meaning of spirituality.

DUSHYANT said...

behatreen vyakhyaan aur us se bhee behatareen anuwaad..pahle bhee padhaa aur ab fir padhaa..bahut mazaa ayaa

Ek ziddi dhun said...

Hamid nahak khafa ho rahe hai aur tark ke bajay gusse mein arop lagate nazar aa rahe hain. mano koi kufr kar diya ho javed akhtar ne

Science Bloggers Association said...

आपकी लेखनी सोचने को विवश कर गयी।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Syed Ali Hamid said...

Bhai ziddi dhun,
Na to main khafa tha, na gusse mein aur na aarop laga raha tha. Jahan tak kufr ki baat hai, uske liye tamaam 'fatwa factories' hain; mera isse door-door tak matlab nahin hai. Mera jo reaction article padney par hua, so likh diya, shayad aap ko nagawaar guzra. Lekin har ek ka apna point of view hota hai, jo ke maine ghaliban bina koi gustakhi kiye rakha. Main ek adna sa sahitya ka vidyarthi hun; agar main bahut bada taarkik hota to shayad Javed Akhtar saheb ke qadmon tak pahuchney ka saahas juta paata.If I have hurt anybody's sentiments' then I offer my sincere regrets. of

मुनीश ( munish ) said...

Come on professor Saab u need not be defensive like this for this will make us feel ashamed and at least i'll think twice before joining the discussion here. Is the moderator listening?

वनमानुष said...

जावेद साहब बिना लाग लपेट के अपनी बात रखने में माहिर हैं...उन्होंने सो काल्ड अध्यात्मिक गुरुओं के बीच जाकर उनकी ऐसी-तैसी भी कर दी और गुरु मुस्कुराने के अलावा कुछ कर भी न सके.

धर्म और अध्यात्म का धंधा आजकल बड़े जोर शोर से और खुलेआम चल रहा है.एक योग वाले बाबा ने कुछ दिनों पहले तक स्विस बैंक में जमा काले धन में बहुत इंटेरेस्ट दिखाया था, दूसरी पार्टी की सरकार बन गयी तो आजकल वो योगी बाबा लगता है शवासन में लंबलेट हो गए.

भारत के धर्मालयों में स्विस बैंको से ज्यादा काला धन पड़ा हुआ है,इसे जल्दी ही सफ़ेद करने की आवश्यकता है...राष्ट्र किसी भी धर्म से ऊपर है.

इस भाषण को यहाँ पोस्ट करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.

विनय (Viney) said...

कबाडियों का शुक्रिया!हमें अपने विश्वासों, सरोकारों को निरंतर मांजते रहना पड़ता है, क्योंकि इन्ही के माध्यम से हम "अपने सत्य" का निर्माण करते हैं.
भाषण में धर्म/अध्यात्म पर मार्क्सवादी विचारधारा और जावेद जी के अपने अनुभवों तथा व्यक्तित्व का सुन्दर मिश्रण है.

Syed Ali Hamid said...

There is a comma after 'sentiments' and fullstop after 'regrets';'of' at the end may be treated as deleted.(in my last post).
No, Munish, I'm not being defensive.But my experience says that the Rationalists are as intolerant as the Talibans.(Although the Rationalists,according to their own admission, have no soul, I hope that, atleast, they have some sense of humour). One last question before I end :
IS SUFI POETRY AND MUSIC, WHICH IS SPIRITUAL, ALSO A TRANQUILIZER FOR THE RICH?
IS ALL BHAKTI MUSIC AND POETRY ALSO A TRANQUILISER FOR THE RICH?
(See, I've become a wee bit taarkik in the company of Rationalists).
Well, as a post states that Mr. Akhtar tore to shreds spiritual gurus while the guru kept smiling.This is in itself proof that who is the greater person. How could any guru criticize a guest in his own programme? And that too, when the lecture was off the mark?

Nanak said...

ye sach hai ki sachchi adhyatmikta five star ashramon ya amir logon ki suvidhatmak bhakti main nahi hain. Lekin ye bhi sach hai ki wo sharab ki mehfilon aur prachar paane ke jhute hathkando main bhi nahi mailti. Pakhand aur dhram ke naam par jhanse bazi ka virodh aur khandan hamare santo-mahatmano ne hamesha se kiya hai, Javed saab ne koi nai baat nahi ki sirf use dohraya hai.

siddheshwar singh said...

एक उम्दा व्याख्यान की उम्दा प्रस्तुति !

Syed Ali Hamid said...

Munish,
How could you miss the irony in my post of may27, by calling it defensive?

Varun said...

जावेद साब ने वो सब कह दिया जो मैं किसी दिन ढेर सारा वक्त लगा कर लिखने की कोशिश करता. "बाबा-कल्चर" की एक और सबसे बडी legacy है इंसान के अंदर उठने वाले सवालों को शांत कर देना (कृत्रिम तौर पर ही सही). जहाँ सवाल ही खत्म हो जाएँ, वहाँ इंसानी डिज़ाइन का मूल खत्म हो गया. कोशिश करते हैं कि ये लेख दूर दूर तक पहुँचे. अनुवाद भी बडा सटीक है...

रागिनी said...

हामिद जी और एक ज़िद्दी धुन के बीच कुछ ग़लतफहमी हो गयी लगती है. सच है जावेद अख़्तर के साथ एक स्टारडम है ! लेकिन उनका लेक्चर भी उतना ही साफ़ है! हाँ हामिद जी को भी अपना प्वाइंट आफ व्यू रखने का अधिकार है और उसे उन्होने बहुत साफ़ ढंग से रखा है.
मुनीश जी हर बार साफ़ बात करते हैं पर इस बार उनका रवैया ढुलमुल लग रहा है और हामिद जी को बकअप करने के उन के अंदाज़ पर भी मुझे हैरानी है. हामिद जी ने खुद भी अपनी नयी टिप्पणी में हैरानी दिखाई है. शबाना आज़मी पर उनका बयान भी अजीब है. उनके बारे में मुनीश जी की टिप्पणी से खुद मुनीश जी के बारे में मेरी राय बदल गयी है.

मुनीश ( munish ) said...

''हर घड़ी बदल रही है रूप ज़िन्दगी ,छाओं है कभी तो कभी धूप ज़िन्दगी, ''.....सं सरति सः संसारः '' जो बदल रही है वही तो दुनिया है रागिनी ! ऐसे में तुम्हारी राय बदल गयी मेरे बारे में तो क्या हैरानी ? पर तुम हमेशा ऐसी ही बनी रहो यही दुआ करते हैं , कई बरस हुए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने जावेद उर्फ़ जादू वल्द जाँ निसार अख्तर का एक पूरा इंटरव्यू एक किताब की सूरत में छापा था , जिसका उनवान था 'टाकिंग फिल्म्स' . ये इंटरव्यू नसरीन मुन्नी कबीर नाम की एक बरतानवी सहाफी ने लिया था . इसे पढना और फिर जावेद अख्तर के सिनेमा और साहित्य को देखना-पढना ,तब शायद तुम ये जान पाओ की ये शख्स क्यों उतना बड़ा है कि जितना मैं उसको मानता हूँ. उसकी हर बात में संतुलन है और यही वज़ह है कि मौजूदा तक़रीर में मैं प्रोफ़ेसर का हामी होते हुए भी जावेद के अंदाज़े- बयां का कायल हूँ , मग़र बस वैसे ही जैसे मैं 'दीवार' ,'शोले ' और ' ज़ंजीर' का कायल हूँ . वैसे ही जैसे मैं ये मानता हूँ कि 'अमर अकबर अन्थोनी ' से बड़ी कोई सेकुलर रचना अभी आनी बाकी है और 'काला-पत्थर' की तोड़ की कोई कहानी भी गढी जानी अभी शेष है. रही बात शबाना की सो वो सूडो सेकुलर सौ फीसदी है. बाकी क्या रक्खा है इन बातों में ,बिन चन्दा की रातों में !

मुनीश ( munish ) said...

Well, i might have overlooked the element of irony in ur comment dated 27, i haven't missed the 'iron' in the comment dated 28th, Professor and i am pretty convinced as well.

Syed Ali Hamid said...

Ragini ji, There is no misunderstanding between me and bhai ziddi dhun. It's only a difference of opinion, not a clash of personalities. At least that's what I feel. But thanks for accepting my point of view as being clear and forthright.
Munish, I can understand your conflict. And thanks for understanding my point of view.
The discussion was healthy and enjoyable. So, let's leave it at that.

Syed Ali Hamid said...

Munish,
Your last comment of 10:39 pm appeared after I had already posted my comment just a few minutes back.
THANKS. khuda ka shukr hai ke kisi ne to meri baat samjhi, varna kisi celebrity ke aage kisi aur ki jaiz baat bhi koi aasani se sunney ko tayyaar nahin hota. Zarra nawaazi ke liye shukriya (no irony here).

मुनीश ( munish ) said...

शुक्रिया उस खुदा का साब कि जिसने ये जहां बनाया ! कम लोग जानते हैं कि किसी भी विषय पर 'फॉर' और 'अगेंस्ट ' दोनों पालों से बोल कर प्राइज़ ले जाने का हुनर जावेद साब स्टूडेंट लाइफ से जानते हैं . तभी तो उनके क़रीबी उन्हें प्यार से बुलाते हैं 'जादू' . आपकी वाल्दा सफ़िया अख्तर अँग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर रहीं और वालिद तो खैर मशहूर शायर थे ही . शायद यही वजेह है कि अँग्रेज़ी और हिन्दुस्तानी दोनों पर आपकी पकड़ ज़बरदस्त है . अगर अभी उन्हें सूफीवाद पर बोलने को कह दिया जाए तो बड़े बड़े आध्यात्मिकों के छक्के छुडा दें . शोले जैसी कालजयी और महानतम रचनाओं में शुमार फिल्म के इस सह -रचनाकार की कलम को मैं सलाम करता हूँ...तालियाँ बजाता हूँ मगर सभा के अंत में मेरी वोट के हकदार निस्संदेह यहाँ सिर्फ औ' सिर्फ प्रोफ़ेसर हामिद हैं .

Nanak said...

पेड़ की फुनगी पर बैठा पंछी अपने आसपास बेहतरी और निस्संग भाव से देख सकता है बनिस्बत उस पंछी के जो पत्तों के झुरमुट में छिपा आत्ममुग्ध बैठा रहता है. जावेद अख़्तर का बयान ऐसे ही पंछी की नींद तोड़ने के लिए है. बेशक वे नास्तिक हों लेकिन ये काम बहुत नेक और धार्मिक है. शब्दों का तिलिस्म बुनने वाले, सायास मुस्कुराहट बिखरने वाले और बातों की खानेवाले प्रवचनकर्ताओं को अब खबरदार हो जाना चाहिए................. मुनीशजी आप भी सच कहते रहिए.

प्रीतीश बारहठ said...

ग्रोवर साहब, जावेद साहब इस जमाने के चलन में भले आदमियों की श्रेणी में आते हैं, उनके व्यक्तव्य में कहीं भी ईमानदारी की कमी नहीं है। ईमानदारी से मतलब है धन्धेबाजी और चालाकी का न होना। यहाँ इस व्याखान में जो कुछ उन्होंने कहा है, वह आज के हालात के परिप्रेक्ष्य में कहा है, मसलन आज की आध्यात्मिकता, आज के गुरु, आज के धन्धेबाज। वे पूरी सफाई से काल एवं किरदार निरपेक्ष आध्यात्मिकता पर बोलने से बचे हैं, और जहाँ भी उसका हवाला दिया है उसका दाँये-बाँये करते हुए पक्ष ही लिया। आज के सबसे ज्यादा चलने वाले धन्धों में भी वे फिल्मों का नाम लेना भूल गये हैं, हो जाता है। इतना कुछ कहने के पश्चात भी वे रविशंकर से घनिष्टता, आदर, आत्मीयता किस विवशता में प्रकट कर रहे हैं। सुनिये उन्हें भी अपने आधार पर पूरा विश्वास नहीं है, जिस तरह ये धर्म गुरु ईश्वर को प्रगट नहीं कर सकते उसी तरह से जावेद साहब भी उस प्रकृति के सारे रहस्यों को नहीं खोल सकते। जिस तहर धर्म गुरू बातों के लच्छों से अपने आध्यात्म की रक्षा करते हैं उसी तरह जावेद साहब अपनी तार्किकता की। लेकिन दोनों में एक भूख है उसे सही तरह से जानने-समझने की जो दोनों में ही वास्तविक है। रही बात आधुनिक आध्यात्मिकता की और राम, गौतम, कृष्ण, गाँधी की तुलना में आज के धार्मिक गुरुओं की तो फिल्मों में भी जावेद साहब जैसे कितने फिल्मकार हैं? वे फिल्मों के खिलाफ क्यों नहीं बोलते फिरते? इसलिये कि यहाँ रोजीरोटी का सवाल है!, समाज को विकृत करने वाले फिल्मकारों, जिनकी फिल्में देखकर बच्चे आत्महत्यायें कर लेते हैं, सास-बहु सीरीयल परिवार तौड़ रहे हैं, बच्चों का बचपन छीन रहे की तुलना में अच्छे फिल्मकारों का अनुपात क्या है? जावेद साहब कवि हैं उनसे पूछिये कि इन पंक्तियों....
दिल की बातें किसी से करने दो
अक्ल क्या सबके पास होती है
को कोई मोल है या नहीं। यदि आध्यात्मिकता के लिए पहले यह जानना जरूरी है कि धरती गोल है या चपटी तो कृष्ण की आध्यात्मिकता उन्हें क्यूँ प्रियकर है।क्या विज्ञान की अंतिम खोज पूरी हो चुकी है? और जो खौज हुई हैं वे अपने आपमें अन्तिम है? जावेद साहब का विज्ञान में क्या योगदान है मालुम कीजिये। और यह भी जानने का प्रयास कीजिये कि जो वैज्ञानिक बडे-बडे आविष्कार कर आधुनिक दुनिया को इतनी सुविधायें दे गये हैं इन्हे विज्ञान का जावेद साहब जितना दम्भ क्यूँ नहीं हुआ उनमें अधिकांश अपनी धार्मिक आस्थाओं का त्याग क्यूं नहीं कर सके। मेरी भी यह दृढ धारणा है कि समस्त भौतिक परिमाणोँ का कारण भी भौतिक ही है इसमें चमत्कार घटित नहीं होता, लेकिन जावेद साहब से पूछ कर देखिये कि इस सृष्टि का जिसके ओर-छोर की कल्पना करना भी मुश्किल है क्या एक चमत्कार नहीं है? आध्यात्मिकता को खारिज करने के लिए बाबा रामदेव, चन्द्रास्वामी, भाजपा को आधार बनाकार सुविधा प्राप्त मत कीजिये, इस तरह तो विज्ञान, तार्किकता और हर क्षेत्र को खारिज करने के के आधार भी मिल जायेंगे, क्यूँकि ऐसे तत्व तो सब जगह घुस जाते हैं।जावेद साहब, परोपकारयुक्त, त्याग और संघर्ष युक्त आध्यात्मिकता के पक्ष में खडे होने को तैयार लग रहे हैं लेकिन क्या उसके लिये भी मानवता, पर्यावरणीय चेतना, नागरिक जिम्मेदारी आदि शब्दों से काम नहीं चलाया जा सकता? आध्यात्मिकता पर बात करने के लिये केवल व्यक्ति और इस विराट सृष्टि के तादात्म्य पर चिंतन कीजिये और कोई हीरा निकालकर लाइये। अन्त में मुझे ग्रोवर जी के उत्साह की तारीफ करने पडेगी कि आपने इस पोस्ट की भू्मिका में अपनी मानवता, सामाजिकता, व्यावहारिकता, देशप्रेम जैसे जज्बों के साथ आत्मार्पण किया है, आपकी संवेदना को सोचकर ही रोमांच होता है। होता है अपने जैसे विचार कहीं मिल जायें, और उस भाषा में मिल जायें जिसमें हम खुद अभिव्यक्त नहीं कर पा रहें हों तब ऐसा रोमांच अनुभव करना स्वाभाविक ही है। हाँ जावेद साहब से जरा पूछियेगा कि जिस प्रकार से आध्यात्म शब्द के बगैर काम चलाया जा सकता है उसी प्रकार अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक शब्द के बगैर काम नहीं चलाया जा सकता क्या?

Ashok Pande said...

भाई प्रीतीश, ये किन ग्रोवर साहब को सम्बोधित करते हुए आपने यह टिप्पणी लगाई है, मुझे समझ में नहीं आया. अलबत्ता आपका कमेन्ट अपने कथ्य के लिहाज़ से इसी पोस्ट से मेल खा रहा है सो आप की टिप्पणी छाप तो दी है मगर 'ग्रोवर साहब' वाला प्रश्न स्पष्ट नहीं हुआ.

प्रीतीश बारहठ said...

मैं ने यह पोस्ट संवादघर नाम से संजय ग्रोवर के ब्लॉग पर उनकी भूमिका के साथ पढ़ा था। वहाँ पर आपके ब्लाग का लिंक भी था। अतः दोनों जगह समान टिप्पणी पोस्ट कर दी है, आखिर इस पर विचार करने वाले तो यहाँ भी हैं न।

प्रीतीश बारहठ said...

प्रिय अशोक जी, मैं आपकी इस पोस्ट को अपने ब्लॉग pritishbarahath.blogspot.com पर अपनी समीक्षा के साथ लगाने की अनुमति चाहता हूँ। इसको मिली टिप्पणीयों से प्रमाणित है कि यह विचारोत्तेजक लेख है, इसे हम जितनी गहराई से समझेंगे उतना ही अपने समय को जान पायेंगे। धन्यवाद