नेहरू जी को अल्मोड़ा से गए करीब बीस साल बीते। इन सालों में गोपाल के सारे दांत निकाले जा चुके थे और उसे बवासीर के साथ गठिया की शिक़ायत भी हो गयी थी। बदरी काका की देह के सारे हिस्से सलामत थे और दूर से देखने पर वे गोपाल से छोटे लगते थे यह अलग बात थी कि आयु में बदरी काका गोपाल से कई कल्प बडे थे।
'अमर उजाला' सीने से लगाए गोपाल जब उस दिन रानीधारा हाजिरी लगाने पहुँचा तो काका आइने के सामने 'ना जाओ सैयाँ ' गुनगुनाते हुए बाल काढ रहे थे। गोपाल को अपने ऊपर शर्म भी आयी कि उसने पता नहीं कितने दिनों से आइना ही नही देखा था।
"आ गया गोपालौ। तू बैठ मैं दिया जला के आता हूँ।"
"ना कका। बैठने का टाइम नहीं है। मुझे थनुआ को देखने अस्पताल जाना है। लास्ट चल रह है उस का ... ऐसा बता रहे हैं डाक्टर लोग। अभी तो आपको ये अखबार दिखाने आया मैं। परसों को इन्द्रा गांधी आ रही है अल्मोड़ा। जानते हो ना भारत की प्रधानमंत्री है ..."
"अरे! इतनी बड़ी हो गयी इंदू! बताओ यार टाइम भी कितनी जल्दी बीतने वाला हुआ। अभी दिन ही कितने हुए जब उसका बाप जवाहर और में पितुआ तामलेट के वहां चांप भात खा रहे थे..."
"कका बीस साल हो गए। समझ क्या रहे ! और तुम तो अल्मोड़ा से बाहर ही नही गए पचास सालों से। इन्द्रा गांधी को क्या पता तुम्हारे बारे में? ..."
गोपाल को लगा था कि इंदिरा गांधी का नाम भी काका ने नहीं सुना होगा लेकिन जिस आत्मविश्वास से वे देश की प्रधानमंत्री को इंदू कहकर संबोधित कर रहे थे, गोपाल खुद हरेक चीज़ को लेकर अनिश्चित सा हो गया। "तू जा अस्पताल को अभी। कल जा के देखते हैं कितनी बड़ी हो गयी इंदू।"
दोपहर को करीब दो बजे इंदिरा गांधी का हैलिकोप्टर जी आई सी ग्राउंड पर उतरा। करीब दस हजार लोग इकठ्ठा थे। इस बार भी सबसे पीछे खडे बदरी काका को इंदिरा गांधी ने तुरन्त पहचान लिया . वह तकरीबन रोती हुई उनकी तरफ आयीं और "जाइए हम आपसे बात नहीं करते काका" कहकर उन्होने काका के पैर छू लिए।
"आप तो बाबू के पीपल पानी में भी नहीं आये। मेरी शादी के टाइम भी आपने बहाना लगाया था। अब जल्दी दिल्ली आ जाओ काका। ख़ूब बड़ा घर है। संजू राजू भी आप से कुछ सीख जायेंगे।"
"अरे बेटा, यहाँ अल्मोड़ा में इतना काम हुआ। फुर्सत नहीं मिलती। चल घर चल। बड़ी भात बना के खिलाऊँगा तुझे। तुझे अच्छा लगने वाला हुआ।"
लेकिन इंदिरा गांधी के पास ज्यादा समय नहीं था और करीब एक घंटा बदरी काका के साथ रह कर वे किसी और जगह के लिए उड़ चलीं।
सारे अल्मोड़ा में बदरी काका के चर्चे थे। आने वाले आम चुनाव में टिकट मिलने की आस लगाए एक वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता ने तो गोपाल से यह भी पूछा कि कहीं बदरी काका चुनाव लड़ने के चक्कर में तो नहीं हैं।
करीब सात आठ साल और बीते। १९८४ में इंदिरा गांधी मारी जा चुकी थीं और उनके बडे सुपुत्र और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी अल्मोड़ा आये।
इस बार भी पिछली वाली कहानी दोहराई गयी। राजीव गांधी के रुदन के उस हृदयविदारक क्षण को अल्मोड़ा के लोग आज भी याद करते हैं जब बदरी काका के गले से लिपटे राजीव गांधी की आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी।
"ईजा को सरदारों ने मार दिया बुबू। दाज्यू पहले ही एक्सीडेंट में चला गया था..." जार जार रोते राजीव गांधी ने जब काका के पैर पकड़ कर कहा : "हमारा बड़ा बूढा अब तुम्हारे अलावा कौन है बुबू। आज तो दिल्ली चलना ही होगा तुमको ... मना मत करना बुबू ... मना मत करना ...", तो मैदान में सैकड़ों लोगों को अपने आंसू पोंछने पर मजबूर होना पड़ा।
किसी तरह काका ने राजीव गांधी को अकेले दिल्ली जाने के लिए तैयार किया। जहाज उड़ते ही गोपाल काका से बोला :"एक चक्कर लगा ही आते दिल्ली कका। इतनी तो तुम्हारी मिन्नत कर रहे ठहरे बिचारे।"
"छोड़ यार कहॉ लग रहा है तू इन नेता फेताओं को चक्कर में। अपना यहीं ठीक चल रहा है। चल शाम की सब्जी का जुगाड़ भी बनाना हुआ अभी।"
बताता चलूँ कि अपने माँ बाप के मर जाने के बाद गोपाल ने अपना पैतृक घर किराये पर उठा दिया था और इंदिरा गाँधी के अल्मोड़ा आगमन के दूसरे ही दिन से वह बदरी काका के घर में शिफ़्ट कर गया था।
उसके परम मित्र थान सिंह ने मृत्यु शैया पर उस से कहा था कि बदरी काका की टक्कर कोई नहीं ले सकता और गोपाल ने अपनी आत्मा में छिपी इस इच्छा को सदा के लिए गाड़ देना चाहिऐ कि वह कभी काका को नीचा दिखा सकेगा। "बरगद के पेड के नीचे दूसरा बरगद जो क्या उग सकने वाला हुआ रे गोपू। या तो तू किसी और जगह चला जा या ऐसे ही बदरी काका की सेवा करते हुए अपना परलोक ठीकठाक बना ले।"
गोपाल अब बहुत कृशकाय हो चुका था। काका तो भगवान् का दूसरा रुप थे। इतने सालों बाद भी उन की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। गोपाल की आंखों पर गिलास के पेंदे जितने मोटे शीशे वाली ऐनक लग गई थी। कभी कभी वह रात भर सो नहीं पाता था। रात भर उसे थान सिंह की बातें याद आती थीं। लेकिन समय बहुत बीत चुका था और एक बार बस एक बार काका से बीस साबित हो पाने की उसकी उम्मीदें डूब चुकी थीं। ऎसी जागरण वाली रात के बाद वह सुबह चाय पी के बाहर घाम में तखत लगा के लेट जाता था। उस दिन बदरी काका लेटे हुए अपने शिष्य को सारा अखबार बांच के सुनाते थे। चश्मा लगाने की ज़रूरत उन्हें अब भी नहीं होती थी.
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