हिन्दी के शीर्ष कवि आलोक धन्वा जी के रचनाकर्म को हम सब बहुत इज़्ज़त से सहेजते रहे हैं। कबाड़खाने में उनकी कविताओं को प्रदर्शित करते हुए हम मनोज के तेवर वाली टिप्पणी के आने का इन्तज़ार कर ही रहे थे।
माफ करना मनोज, आपकी टिप्पणी के लिए न तो कबाड़खाना कोई स्पष्टीकरण देगा न कोई ‘बहस’ (हिन्दी वालों की पुरानी खाज) शुरू करेगा। इस प्रकरण का पूरी तरह भुस भरकर हिन्दी के तमाम महान सम्पादक लेखकगण उस पर जी भर कर लाठीचारज कर चुके हैं। और अब तो ब्लौग का अलग प्लेटफार्म भी है। असीमा के आरोपों को लेकर आलोक धन्वा जी से अगर आपको कोई शिकायत है तो उनसे सीधे पूछिए। सूचना क्रान्ति के समय में आपको उन का फोन नम्बर आसानी से मिल जाएगा। न मिले तो मुझे मेल करें, मैं दे दूंगा.
चालीस करोड़ हिंदीभाषियों के हमारे देश में हिंदी के 'बड़े' प्रकाशक हिंदी के 'बड़े' लेखकों की किसी किताब की कितनी प्रतियाँ छापते हैं , पता है ना आपको। आमतौर पर यह संख्या ६०० होती है। धुरंधर आलोचकों, संपादकों, फतवेबाजों, दूसरों को पढने लिखने से दस मील दूर रहने वाले हमारे महान लेखक, कवियों की करोड़ों लातें खा चुकी हमारी हिंदी कितनी दलिद्दर बना दी गई है, इस पर किसी की निगाह नहीं जाती। जाती भी है तो कद्दू से। यहाँ इस बात को लिखने की मंशा मेरी इतनी ही है कि बात तो बड़ी है लेकिन हमारे यहाँ बड़े सवालों को छुए जाने की परम्परा नहीं है। हिंदी अब भी महान भाषा है। आलोक धन्वा ने उसे समृद्ध किया है। हमारे साथ सारे हिंदी समाज ने उनका ऋणी महसूस करना चाहिऐ। बस।
इसके अलावा कबाड़खाने के सारे पाठकों से यह निवेदन भी करूंगा कि किसी भी कवि और लेखक के व्यक्तिगत जीवन के बजाय उसके लेखन पर टिप्पणी देने में मेहनत करें। और ज़रा पढें भी। विलियम एम्पसन ने कहा है : "You can spot an idiot in a critic when he begins to discuss the poet rather than the poem। "
3 comments:
अशोक दा ये सब किससे कह रहे हो यार तुम ! जहां लोगों को दाद का इलाज करने की बजाए उसे खुजाते रहने की आदत पड़ गई हो वहां कुछ भी कहना बेकार है। अपनी जिन्दगी को छोड़ सब आलोक धन्वा की जिन्दगी में घुसे जा रह हैं। मैं जिन्दगी की जगह कुछ और लिखना चाहता था पर भाषा के साथ दुव्र्यवहार ठीक नहीं। हमारी हिंदी वाकई अब भी बहुत अमीर है और आगे भी रहेगी। आमीन !
आलोक धन्वा प्रकरण पर धर्मध्वजाधारियों का आलाप पढ़ पढ़ कर मैं जो बात एक अरसे से कहना चाह रहा था... वो तूने लिख दी है पंडा. आलोक धन्वा को कवि ही मानो यार... ऐसा कवि जो एक बहुत ही कमज़ोर आदमी हो सकता है. उसे महामानव ही क्यों माना जाए. मैं उनसे और क्रांति जी दोनों से परिचित हूँ. लिखने का अर्थ क़तई यह नहीं है कि क्रांति जी का स्टैंड ग़लत है. वो शत प्रतिशत सही हो सकती हैं. लेकिन ब्लॉग पर ढाल तलवार उठाए लिलिपुत-टाइप वीर न भाजें तो बेहतर.
ye sab kya bakchodi hai bhaisab. apne ko to pata nahi chal raha. rum piya karo yar.
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