Sunday, December 23, 2007

हमारी संस्कृति और जाति व्यवस्था को मत छेड़ो प्लीज़...

...गुलामी भी हम बर्दाश्त कर लेंगे।

क्या देश के बीते लगभग एक हजार साल के इतिहास की हम ऐसी कोई सरलीकृत व्याख्या कर सकते हैं? ऐसे नतीजे निकालने के लिए पर्याप्त तथ्य नहीं हैं। लेकिन हाल के वर्षों में कई दलित चिंतक ऐसे नतीजे निकाल रहे हैं और दलित ही नहीं मुख्यधारा के विमर्श में भी उनकी बात सुनी जा रही है। इसलिए कृपया आंख मूंदकर ये न कहें कि ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा है।

भारत में इन हजार वर्षों में एक के बाद एक हमलावर आते गए। लेकिन ये पूरा कालखंड विदेशी हमलावरों का प्रतिरोध करने के लिए नहीं जाना जाता है। प्रतिरोध बिल्कुल नहीं हुआ ये तो नहीं कहा जा सकता लेकिन समग्रता में देखें तो ये आत्मसमर्पण के एक हजार साल थे। क्या हमारी पिछली पीढ़ियों को आजादी प्रिय नहीं थी? या फिर अगर कोई उन्हें अपने ग्रामसमाज में यथास्थिति में जीने देता था, उनकी पूजा पद्धति, उनकी समाज संरचना, वर्णव्यवस्था आदि को नहीं छेड़ता था, तो वो इस बात से समझौता करने को तैयार हो जाते थे कि कोई भी राजा हो जाए, हमें क्या?

ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इसका जवाब ढूंढने की कोई कोशिश अगर हुई है, तो वो मेरी जानकारी में नहीं है। देश की लगभग एक हजार साल की गुलामी की समीक्षा की बात शायद हमें शर्मिंदा करती है। हम इस बात का जवाब नहीं देना चाहते कि हजारों की फौज से लाखों की फौजें कैसे हार गई। हम इस बात का उत्तर नहीं देना चाहते कि कहीं इस हार की वजह ये तो नहीं कि पूरा समाज कई स्तरों में बंटा था और विदेशी हमलावरों के खिलाफ मिलकर लड़ने की कल्पना कर पाना भी उन स्थितियों में मुश्किल था? और फिर लड़ने का काम तो वर्ण व्यवस्था के हिसाब से सिर्फ एक वर्ण का काम है!

इतिहास में झांकने का मकसद अपनी पीठ पर कोड़े मारकर खुद को लहूलुहान कर लेना कतई नहीं हो सकता, लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि गलतियों से न सीखने वाले दोबारा और अक्सर ज्यादा बड़ी गलतियां करने को अभिशप्त होते हैं।

भारत पर राज करने शासकों में से शुरूआती मुगल शासकों ने अपेक्षाकृत निर्बाध तरीके से (हुमायूं के शासनकाल के कुछ वर्षों को छोड़कर) देश पर राज किया। मुगल शासकों ने बाबर के समय से ही तय कर लिया था कि इस देश के लोग अपना जीवन जिस तरह चला रहे हैं, उसमें न्यूनतम हस्तक्षेप किया जाए। जजिया टैक्स लगाना उस काल के हिंदू जीवन में एकमात्र ऐसा मुस्लिम और शासकीय हस्तक्षेप था, जिससे आम लोगों को कुछ फर्क पड़ता था। ये पूरा काल अपेक्षाकृत शांति से बीता है। औरंगजेब ने जब हिंदू यथास्थिति को छेड़ा तो मुगल शासन के कमजोर होने का सिलसिला शुरू हो गया।

उसके बाद आए अंग्रेज शासकों ने भारतीय जाति व्यवस्था का सघन अध्ययन किया। उस समय के गजेटियर इन अध्ययनों से भरे पड़े हैं। जाति व्यवस्था की जितनी विस्तृत लिस्ट आपको अंग्रेजों के लेखन में मिलेगी, उसकी बराबरी समकालीन हिंदू और हिंदुस्तानी लेखन में भी शायद ही कहीं है। एक लिस्ट देखिए जो संयुक्त प्रांत की जातियों का ब्यौरा देती है। लेकिन अंग्रेजों ने भी आम तौर पर भारतीय परंपराओं खासकर वर्ण व्यवस्था को कम ही छेड़ा।

मैकाले उन चंद अंग्रेज अफसरों में थे, जिन्होंने जाति व्यवस्था और उससे जुड़े भेदभाव पर हमला बोला। समान अपराध के लिए सभी जातियों के लोग समान दंड के भागी बनें, इसके लिए नियम बनाना एक युगांतकारी बात थी। पहले लॉ कमीशन की अध्यक्षता करते हुए मैकाल जो इंडियन पीनल कोड बनाया, उसमें पहली बार ये बात तय हुई कि कानून की नजर में सभी बराबर हैं और अलग अलग जातियों को एक ही अपराध के लिए अलग अलग दंड नहीं दिया जाएगा। शिक्षा को सभी जाति समूहों के लिए खोलकर और शिक्षा को संस्कृत और फारसी जैसी आभिजात्य भाषाओं के चंगुल में मुक्त करने की पहल कर मैकाले ने भारतीय जाति व्यवस्था पर दूसरा हमला किया।

गुरुकुलों से शिक्षा को बाहर लाने की जो प्रक्रिया मैकाले के समय में तेज हुई, उससे शिक्षा के डेमोक्रेटाइजेशन का सिलसिला शुरू हुआ। अगर आज देश में 50 लाख से ज्यादा (ये संख्या बार बार कोट की जाती है, लेकिन इसके स्रोत को लेकर मैं आश्वस्त नहीं हो, वैसे संख्य़ा को लेकर मुझे संदेह भी नहीं है) दलित मिडिल क्लास परिवार हैं, तो इसकी वजह यही है कि दलितों को भी शिक्षा का अवसर मिला और आंबेडकर की मुहिम और पूना पैक्ट की वजह से देश में आरक्षण की व्यवस्था हुई।

ये शायद सच है कि मैकाले इन्हीं वजहों से आजादी के बाद देश की सत्ता पर काबिज हुई मुख्यधारा की नजरों में एक अपराधी थे। भारतीय संस्कृति पर हमला करने के अपराधी। देश को गुलाम बनाने वालों से भी बड़े अपराधी। हम विदेशी हमलावरों को बर्दाश्त कर लेते हैं, लेकिन हमारी जीवन पद्धति खासकर वर्णव्यवस्था से छेड़छाड़ करने वाला हमारे नफरत की आग में जलेगा।

वीपी सिंह की मिसाल लीजिए। उन्होंने जीवन में बहुत कुछ किया। उत्तर प्रदेश में डकैत उन्मूलन के नाम पर पिछड़ों पर जुल्म ढाए, राजीव गांधी की क्लीन इमेज को तार तार कर दिया, बोफोर्स में रिश्वतखोरी का पर्दाफाश किया, लेकिन मुख्यधारा उन्हें इस बात के लिए माफ नहीं करेगी कि उन्होंने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की कोशिश की। हालांकि वीपी सिंह ने ये कदम राजनीतिक मजबूरी की वजह से उठाया था और वो पिछड़ों के हितैषी कभी नहीं रहे फिर भी वीपी सिंह सवर्ण मानस में एक विलेन हैं और पूरी गंगा के पानी से वीपी सिंह को धो दें तो भी उनका ये 'पाप' नहीं धुल सकता। ये चर्चा फिर कभी।

जाहिर है मैकाले को लेकर दो एक्सट्रीम चिंतन हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या इसके लिए मैकाले की पूजा होनी चाहिए या उनकी तस्वीर को गोली मार देनी चाहिए। इस अतिवाद को छोड़कर देखें तो मैकाले के समय का द्वंद्व नए और पुराने के बीच, प्राच्य और पाश्चात्य के बीच का था। मैकाले उस द्वंद्व में नए के साथ थे, पाश्चत्य के साथ थे। अंग्रेजी शिक्षा के लिए उनके दिए गए तर्क उनके समग्र चिंतन से अलग नहीं है। इसलिए ये मानने का कोई आधार नहीं है कि मैकाले ने साजिश करके भारत में अंग्रेजी शिक्षा की नींव डाली। उनका मिनिट ऑन एजुकेशन (1835) पढ़ जाए। भारत के प्रति मैकाले में न प्रेम है न घृणा। एक शासक का मैनेजेरियल दिमाग है, जो अपनी मान्यताओं के हिसाब से शासन करने के अपने तरीके को जस्टिफाई कर रहा है।

मैकाले की इस बात के लिए प्रशंसा करना विवाद का विषय है कि उनकी वजह से देश में अंग्रेजी शिक्षा आई और भारत आज आईटी सेक्टर की महाशक्ति इसी वजह से बना हुआ है और इसी ज्ञान की वजह से देश में बीपीओ इंडस्ट्री फल फूल रही है। चीन में मैकाले जैसा कई नहीं गया। चीन के लोगों ने अंग्रेजी को अपनाने में काफी देरी की, फिर भी चीन की अर्थव्यवस्था भारत से कई गुना बड़ी है। लेकिन चीन का आर्थिक और सामाजिक परवेश हमसे अलग है और ये तुलना असमान स्थितियों के बीच की जा रही है और भाषा का आर्थिक विकास में योगदान निर्णायक भी नहीं माना जा सकता।


- दिलीप मंडल

1 comment:

अजेय said...

विचारोत्तेजक.