Friday, March 28, 2008

आप ज़ुल्फ़-ए-जानां के, ख़म संवारिये साहब, ज़िंदगी की ज़ुल्फ़ों को आप क्या संवारेंगे

आसिफ़ अली का गाया यह गीत लम्बे समय तक एक पीढ़ी का पसंदीदा बना रहा था. कबाड़ख़ाने की दुछत्ती से आप के लिए ख़ास पेशकश:

अंधेरी रात है, साया तो हो नहीं सकता
ये कौन है जो मेरे साथ साथ चलता है

तर्क़े ताल्लुकात को एक लम्हा चाहिये
एक लम्हा मुझे सोचना पड़ा

अब के साल पूनम में, जब तू आएगी मिलने
हम ने सोच रखा है रात यूं गुज़ारेंगे
धड़कन बिछा देंगे शोख़ तेरे क़दमों पे
हम निगाहों से तेरी आरती उतारेंगे

तू कि आज क़ातिल है, फिर भी राहत-ए-दिल है
ज़हर की नदी है तू, फिर भी क़ीमती है तू
पस्त हौसले वाले तेरा साथ क्या देंगे
ज़िंदगी इधर आ जा, हम तुझे गुज़ारेंगे

आहनी कलेजे को, ज़ख़्म की ज़रूरत है
उंगलियों से जो टपके, उस लहू की हाजत है
आप ज़ुल्फ़-ए-जानां के, ख़म संवारिये साहब
ज़िंदगी की ज़ुल्फ़ों को आप क्या संवारेंगे

हम तो वक़्त हैं पल हैं, तेज़ गाम घड़ियां हैं
बेकरार लमहे हैं, बेथकान सदियां हैं
कोई साथ में अपने, आए या नहीं आए
जो मिलेगा रास्ते में हम उसे पुकारेंगे

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