कबाड़खाने में जगह देने का शुक्रिया...
अनिल के स्वागत पत्र की चंद लाइनें पढ़कर पिछले बीस साल का सफर न्यूजरील की तरह घूम गया. मन्ना डे का वो गाना फिर से कान में गूंजने लगा, जो दोस्तों के साथ इलाहाबाद की सड़कों पर अक्सर गाया करता था .... कहां ... जा रहे थे, कहां आ गए हम...
बीएचयू के गेट पर तकरीरों से दुनिया बदलने की कोशिश तो चुनाव के दौरान ही हो पाती थी, जहां अनिल से परिचय, साथी छात्रनेता सुनील के बड़े भाई के रूप में हुआ था. और शुरुआती आदरभाव कब दोस्ताने में बदल गया, पता ही नहीं चला. अनिल की भाषा तब भी जादू जगाती थी और अब भी. लेकिन असल रियाज तो इलाहाबाद में हुआ, पूरे तेरह साल ... वहां, विश्वविद्यालय में वो सब कुछ पढ़ा जो पाठ्यक्रम में नहीं था. तब हिंदी पट्टी के विश्वविद्यालय में देश बदलने का अभियान संगठित शक्ल में नजर आता था. पहले पीएसओ ... फिर आइसा ... लगता था कि वही भगत सिंह वाली एचएसआरए की परंपरा आगे बढ़ा रहे हैं. दुनिया बदलेगी. इंकलाब आएगा!
उन्हीं दिनों तमाम छल-प्रपंच भी देखे, पर विश्वास बना रहा। लेकिन जरा सी ठोकर ने क्रांति के मोर्चे का भगोड़ा सिपाही बना दिया. भागता रहा ... भागता रहा ... पहले अखबार की खटपट और फिर चैनलों की धूप-छांव, एक से एक रंग देखे. कभी अर्श पर तो कभी फर्श पर ... नई दोस्तियां बनीं और देखते-देखते काफूर हुईं. और फिर, जब बेटी ने एक दिन दोस्तों के नाम पूछे, तो जो भी नाम लिये, दस साल पहले वाले थे.
ये वक्त का सितम नहीं था कि सब कुछ बिखर गया.
कुछ तो हमारा लोहा भी मुर्चहा था. बारिश के बाद पहली धूप ने भुर्र-भुर्र करके बिखेर दिया.
ना, ज्यादा रोने-गाने का इरादा नहीं है. बस भागते-भागते थक गया हूं. पुराने दोस्तों के बिना जी नहीं लगता. अनिल ने ठीक ही कहा कि हमेशा गाने पर आमादा रहता हूं पर जब से लखनऊ छूटा है, किसे सुनाऊं. वहां तो प्रेस क्लब में गाहे-बगाहे एक माइल्ड बियर पीकर बड़े-बड़े पियक्कड़ों से ज्यादा नशा महसूस करते हुए झूम कर गाता-बजाता था, पर इस दिल्ली में ... किसको फुर्सत है जो थामे दीवानों का हाथ ... और फिर दीवाने भी कहां हाथ धरने देते हैं....
यूं, जिंदगी में बातें निस्वार्थ की बहुत की, पर काम सभी स्वार्थ का किया. शायद यही सोच कबाड़खाने ले आई है. अंतरजाल की महिमा वाकई निराली है. पूरा मोहल्ला बस गया है. यहां वीरेन डंगवाल को भी देख रहा हूं जिन्होंने कभी बड़े प्यार से 'चूतिया' कहते हुए पत्रकार बनने की राह दिखाई थी. इरफान भी है जिसके साथ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मुस्लिम बोर्डिंग हाउस के कमरा नंबर सीआर-७ में अरसा गुजारा था. उस दिन भी कमरा नहीं छोड़ा जब ३० अक्टूबर १९९० को बाबरी मस्जिद पर पहली बार हमला हुआ और एक सीनियर ने बुलाकर हिदायत दी कि माहौल खराब होने से पहले निकल लो. वही इरफान अब दिल्ली में है पर कभी-कभार फून-फान ... बस. विमल वर्मा का भी नाम श्रेष्ठ कबाड़ियों में है, जिनके साथ होने पर हंसते-हंसते पेट भर जाता था. हम लोग चौराहे पर ढफली बजाते हुए इन्कलाबी गाने और नाटक के बाद कुछ पैसा भी इकट्ठा करते थे, उससे बंद-मक्खन, समोसा, चाय और साथ में विमल भाई के लतीफे...कौन भूल सकता है.
और इस कबाड़ को इकट्ठा करने वाला अशोक पांडे! पहली मुलाकात में काफी रहस्यमय लगा था. के.के. पांडेय के साथ नैनीताल गया था और अशोक ने भीमताल की सैर कराई थी. वहां ताल किनारे बियर पी थी. तब ठंडे इलाके में भी बियर से ज्यादा हौसला नहीं होता था और आज भी हालत जरा ही सुधरी है. अशोक की एक कविता जो सुंदर लड़कियों के निद्रावस्था का (सटीक/वीभत्स) वर्णन करती है, मनीषा और मेरे बीच आज शादी के १२ साल बाद भी बहस का विषय है.
यूं हकीकत की दुनिया में न सही, आभासी दुनिया में हम शायद फिर से करीब आ सकें. जो हो सकेगा मैं भी बिन-बटोर कर लाऊंगा. पर असली मजा तो अड्डे पर लौट आने का है. हौसला बढ़ा तो फिर बजेगी ढफली... दुनिया तो बदल ही रही है, इंकलाब भी आएगा.
6 comments:
आपने पुराने दिनों की याद दिला दी. ऐसा लगा जैसे आपकी कहानी अपनी भी है, क्योंकि हम लोगों ने आपके कुछ समय बाद वैसा ही सब किया जो आप कर चुके थे. आज भी कुछ उसी तरह के रास्ते पर जिंदगी की खटारा गाड़ी चलाते हुए अलगाव झेल रहे हैं. सभी जाने-पहचाने नामों का ज़िक्र कर आपने उनकी भी याद दिलाई. कबाड़खाने में आपने लिखना शुरू कर दिया है. उम्मीद है कि अब ये सिलसिला बना रहेगा.
पिछली बार फोन किया था तो आप काम में फंसे थे. बाद में कॉल बैक करने की बात कही थी. शायद आप भूल गए होंगे. महानगर की भागदौड़ में भूल तो मैं भी गया था. अब कबाड़खाने में देखकर याद आ रही है.
sach hai yadon ke khazane me sabse kimti to purane dost hi hote hai.aabhar purane doston ki yaad dilane ka aur achhi post ka
" wow, nice to be here today to read this artical, so many old memories to recall and know lot many new incedents. inteertsing one"
Regards
स्वागत है बंधु। सचमुच पुराने दिनों की याद दिला दी।
badhiya aagaz!
अब पेट्रोला पर लौट ही आये हो साहब तो इसे रेगुलर होकर गुलज़ार भी किये रखना ... बढ़िया आग़ाज़, जैसा कबाड़ी भाई विजयशंकर कह रहे हैं.
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