धर्मवीर भारती की 'कनुप्रिया' को कौन नहीं जानता! आज वहीं से एक टुकड़ा:
क्या तुमने उस वेला मुझे बुलाया था कनु?
लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी!
इसी लिए तब
मैं तुममें बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी,
इसी लिए मैंने अस्वीकार कर दिया था
तुम्हारे गोलोक का
कालावधिहीन रास,
क्योंकि मुझे फिर आना था!
तुमने मुझे पुकारा था न
मैं आ गई हूँ कनु।
और जन्मांतरों की अनन्त पगडण्डी के
कठिनतम मोड़ पर खड़ी होकर
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ।
कि, इस बार इतिहास बनाते समय
तुम अकेले ना छूट जाओ!
सुनो मेरे प्यार!
प्रगाढ़ केलिक्षणों में अपनी अंतरंग
सखी को तुमने बाँहों में गूँथा
पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु?
बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता
तुम्हारे इतिहास का
शब्द, शब्द, शब्द…
राधा के बिना
सब
रक्त के प्यासे
अर्थहीन शब्द!
सुनो मेरे प्यार!
तुम्हें मेरी ज़रूरत थी न, लो मैं सब छोड़कर आ गई हूँ
ताकि कोई यह न कहे
कि तुम्हारी अंतरंग केलिसखी
केवल तुम्हारे साँवरे तन के नशीले संगीत की
लय बन तक रह गई……
मैं आ गई हूँ प्रिय!
मेरी वेणी में अग्निपुष्प गूँथने वाली
तुम्हारी उँगलियाँ
अब इतिहास में अर्थ क्यों नहीं गूँथती?
तुमने मुझे पुकारा था न!
मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ, कनु मेरे!
10 comments:
अशोक भाई , यह सब तो ठीक है लेकिन इस बहाने वो हॉस्टल के दिनो में ठंड के मौसम में रज़ाई ओढ़ कर मित्रों के बीच कनुप्रिया और गुनाहों के देवता और नदी के द्वीप के पृष्ठ 151-52 का पाठ करना याद आ गया । उस समय तोहफे में भी यही किताबें दी जाती थी । आपको भी दी होगी किसीने.. ? चलिये आनन्द लीजिये ।
आपका भी नाम चुरा लिया गया ://kabadkhana.blogspot.com/
बधाई डाक्साब!
'कनुप्रिया' बोले तो ..
एक तीर जैसे कि मारा जिगर पे हाय - हाय !
बहुत आभार इस प्रस्तुति का!
धर्मवीरजी की रस से भरी कविता..कनु की कान्हा से इस मुलाकात की याद दिलाने का आभार..!!
कालजयी कविता। आभार।
भूली-बिसरी सी कनुप्रिया को फिर से याद दिलाने के लिये शुक्रिया।
उफ़्फ़ वो दिन...वो साहित्य....जाने क्या क्या याद दिला गये आप....
अशोक जी !
राजस्थान से श्री चन्द्र प्रकाश देवल की एक किताब है "बोलो माधवी" जरूर पढें। कनुप्रिया की ही अगली कड़ी है।
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