Thursday, August 27, 2009

तामुल और जलपरी

वह भी कोई देश है महाराज: भाग ४

अनिल यादव

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हम दोनों को ही जोरदार पूर्वाभास था कि कहां जाना है और वहां हमारा स्वागत करने वाले लोग कौन होंगे।

लेकिन स्टेशन से बाहर निकलते ही सबसे पहले तामुल खाना चाहता था। इस नशीली सुपारी से मेरा बचपन से भय, जुगुप्सा, अपराध बोध और आकर्षण का संबंध रहा है। सबसे पहले इस तामुल ने ही मेरे अबोध जीवन का अंत कर दिया था और बहुत दिनों तक सपनों में तरह-तरह के रूप धर कर आतंकित किए रखा था।



तब में आठ-नौ साल का रहा होऊंगा। ननिहाल मेरे हमारे जो पड़ोसी असम में रहते थे, उनका एक प्रद्युम्न नाम का रिश्तेदार उनके यहां आया हुआ था। पहली बार मैने उसे ही तामुल खाते देखा था। अंडाकार, भूरी, बदबू करती, अजीब सी चिकनी चीज। एक दोपहर मैं उनके दालान में बैठा था, उस रिश्तेदार ने मुझे खेलने के लिए एक तामुल दिया। थोड़ी देर तक बतियाने, पुचकारने के बाद उसने मेरा नन्हीं, कोमल उंगलियों वाला हाथ, धोती के भीतर ले जाकर अपना गरम, भारी शिश्न मुझे पकड़ा दिया और उसके ऊपर लाल किनारी वाला जगप्रसिद्ध असमिया गमछा रख दिया। मैने बस उसकी एक झलक देखी, उसका अगला हिस्सा बिल्कुल तामुल जैसा था। मैं मुंह बाए उसकी लाल-लाल आंखों को देखते हुए वहीं जड़ हो गया। उस घर की एक बुढ़िया जो वहीं बैठी हुक्का पी रही थी, ने इसे भांप लिया। उसने आँखे तरेरते हुए वह गमछा मांगा और उठाने के लिए हाथ भी बढ़ा दिया। इससे हड़बड़ाकर उस आदमी ने मुझे छोड़ दिया। बाएं हाथ की मुट्ठी बांधे मैं दो दिन बुखार में पड़ा रहा।

बहुत बाद में पता चला कि लोकभाषा में शिश्न को सुपाड़ा या सोपारा भी कहा जाता है। लोगों की देखा देखी मैने भी एक रूपए का सिक्का तामुल के खोमचे पर रखा। उसने आधा कटा पान, आधा तामुल और कागज पर लद्द से रखा ढेर सारा चूना मेरी तरफ बढ़ा दिया। एक क्षण की देर किए बिना मैने उसे मुंह में डालकर चुभलाया फिर चबाने लगा। बस जरा सी देर कनपटियां गर्म हो गईं, गला सूखा और पसीना चुहचुहाने लगा। तय हो गया कि जब तक उत्तर-पूर्व में रहूंगा, तामुल ही खाऊंगा। जबर्दस्त किक थी, किसी भी पुरानी स्थिति से जड़ समेत उखाड़ कर नए भावलोक में उछाल देने वाली। दरअसल मेरी आत्मा में तामुल के आकार का एक घाव जो उसे चबाने, उसके उत्ताप को झेलने और फिर थूक देने के बाद भरेगा, मैं जानता था। एक रिक्शे पर सामान फेंकते हुए हम दोनों ने एक लगभग एक साथ कहा, जो सबसे सस्ता होटल जानते हो, ले चलो।



खुदी सड़क की गिट्टियों पर उछलता रिक्शा पांच रूपए की दूरी पर यानि अगले चौराहे पर ही रूक गया। यह रामचंद्र ग्वाला का जनता होटल था। एक सौ तीस साल पुराना, किराया भी एक सौ तीस रूपया। लोहित (ब्रह्मपुत्र) के पानी से लाल बाथरूम का फर्श, अंधेरे गलियारों में जीरो वॉट के बल्ब की लाल रोशनी, उड़े रंग के लाल दरवाजे और आधी रात तक रोशनदान से गिरता धूल का झरना। फटी हुई मसहरी, चीकट गद्दे जिन पर तिलचट्टे रेंग रहे थे, खिड़की में शीशे की जगह गत्ते ले चुके थे और हर कहीं काला पड़ चुका पीतल का भारी हैंडिल लॉक। वाकई बूढा होटल था जिसे हम जैसे नाती-पोते मेहमान ही मिलने थे। कमरे के नीचे सिटी बस स्टैंड का शुरूआती स्टॉप था। शोर के बीच दो आवाजें लगातार आती रहतीं थीं-

ऊलूबाड़ी, आदाबाड़ी, पांजाबाड़ी, दिसपूर......।

ऊलूबाड़ी, आदाबाड़ी, पांजाबाड़ी, दिसपूर.......।।

दूसरी आवाज किसी किशोर लड़के की होती थी जो अनवरत रिरियाता था- आइए खाना खाइए, आइए खाना खाइए, आइए खाना खाइए.....

चार घंटे लगातार भूखे चिल्लाने के बाद उसे खाना और बीस रूपए मिलते थे। रात में जब सारी आवाजें थम जातीं तो खिड़की से नामघर में चल रहा कीर्तन आने लगता था जिसमें बच्चों की चिचिंयाती आवाजें भी शामिल रहती थीं। आंतक में अवलंब खोजते निर्धन लोगों की सामूहिक प्रार्थनाएं।

रात में हम लोग ब्रह्मपुत्र का हालचाल लेने गए। नदी किनारे सुनसान फुटपाथों पर दूर-दराज के जिलों से आए बिहारियों के परिवार के डेरा डाले थे जो ईंट के चूल्हों पर खाना पका रहे थे। ये लोग उनके वतन को जाती ट्रेनों में भीड़ के कारण घुस नहीं पाए थे।

शहर के अंधेरे कोनों में एल्युमिनियम के बर्तनों के नीचे की लाली में नरसंहारों का आतंक, पलायन की लाचारी और लाचार क्षोभ खदबदा रहे थे। अचानक खानाबदोश हो गए लोगों के बरअक्स ब्रह्मपुत्र में खड़े जर्जर स्टीमरों में बिजली की झालरों से सजे रेस्टोरेंट देर रात तक खुले हुए थे। इस रेस्टोरेन्टों के नाम वही पुराने जहाजों वाले ही थे- फेरी क्वीन, जलपरी, डाल्फिन.

9 comments:

मुनीश ( munish ) said...

आलेख की खासियत है लेखक का 'जजमेंटल' होने के ट्रैप से बचा रहना .देखें कब तक ?

स्वप्नदर्शी said...

abhee teeno kishte padhee. Behad rochak aur poorvagrah rahit lekhan

विजय गौड़ said...

क्या ब्रह्मपुत्र के किनारे ही रोक दोगे अनिल भाई। एल्युमिनियम के टूटहे बर्तनों की आवाज के साथ उत्तरपूर्व का कोई गान नहीं सुनवाओगे, यदि वैसे कोई स्म्रति हो तो सुना दो भाई।

Anil Pusadkar said...

लेखन मे ईमानदारी के साथ-साथ दमदारी भी नज़र आती है।

प्रीतीश बारहठ said...

यात्रा यहीं खत्म नहीं होनी चाहिये ।
पाठकों के हक़ की यह मांग अनिल जी से है।

pallavi trivedi said...

वृतांत तो बहुत रोचक है....बाकी की तीन किश्तें भी पढ़ती हूँ.

प्रेमलता पांडे said...

ज्यों का त्यों वृतांत पर मुनीशजी की टिप्पणी जजमेंटल!
कुछ चित्र हों तो...

Arvind Mishra said...

"थोड़ी देर तक बतियाने, पुचकारने के बाद उसने मेरा नन्हीं, कोमल उंगलियों वाला हाथ, धोती के भीतर ले जाकर अपना गरम, भारी शिश्न मुझे पकड़ा दिया और उसके ऊपर लाल किनारी वाला जगप्रसिद्ध असमिया गमछा रख दिया।"
क्या यह अंश अनावाशय्क तो नहीं है ?

मुनीश ( munish ) said...

@Blogger प्रेमलता पांडे said...

ज्यों का त्यों वृतांत पर मुनीशजी की टिप्पणी जजमेंटल!
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