Saturday, January 2, 2010

अमीर ओर की कविता

आतताई

अमीर ओर
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फिज़ूल नहीं था कि हमने आतताइयों का इन्तज़ार किया
फिज़ूल नहीं था कि हम शहर के चौक पर इकठ्ठा हुए
फिज़ूल नहीं था कि कि हमारे महापुरूषों ने अपनी आधिकारिक पोशाकें पहनीं
और उस अवसर के लिए अपने भाषणों का पूर्वाभ्यास किया
फिज़ूल नहीं था कि हमने अपने मन्दिरों को तहस नहस कर डाला
और उनके देवताओं के लिए नए मन्दिर खड़े किए
जैसी कि मौके की नज़ाकत थी हमने अपनी किताबों में आग लगा दी
जिनमें उस तरह के लोगों के मतलब का कुछ नहीं था।
जैसी कि भविष्यवाणी की गई थी आतताई आए
और उन्होंने राजा के हाथों से शहर की चाभी प्राप्त की ।
लेकिन जब वे आए, वे पहने हुए थे हमारे जैसे कपड़े
और उनके रिवाज़ भी थे हमारे यहां के रिवाज़ों जैसे
और जब उन्होंने हमारी ज़बान में हमें आदेश दिए
हम जानते ही नहीं थे तब उन्हें
आतताई पहुंच चुके थे हम तक।

5 comments:

Pratibha Katiyar said...

वाह, क्या बात है. फिजूल नहीं था कुछ भी फिर भी...

Ek ziddi dhun said...

ye to hamare saath hua hai

मनोज कुमार said...

बेहतरीन। लाजवाब। आपको नए साल की मुबारकबाद।

अमिताभ श्रीवास्तव said...

achhi he rachna. vese jo bhi ho..hamare saahitya me aour vah bhi in dino ke, isase behatreen rachnaye likhi jaa rahi he.., kintu fijul vakai nahi tha ise post karnaa..

प्रीतीश बारहठ said...

जो सत्ता की चाबी लेते - छीनते हैं अंततः आततायी हो ही जाते हैं। फिजूल नहीं है टिप्पणी करना भी