यह मार्मिक आलेख मुझे हमारे कबाड़ी फ़ोटूकार रोहित उमराव ने भेजा है. फ़ोटो भी जाहिर है उन्ही की है.
पीले वस्त्र गले में रामनामी गमछा मस्तक में सुशोभित रोली नंगे पांव कड़ाके की ठंड में वह आगे बढ़ता जा रहा था. उसे पैरों में गड़ने वाले कंकड़ और कांटों की चुभन की परवाह नहीं थी. उसे एक लम्बी पथ यात्रा में अपनी मां कमला देवी और स्वर्गीय पिता जगदीश वर्मा की अस्थियों को अपने कन्धे पर धरी कांवर में दोनों ओर लटकाए. हरिद्वार, गोला और नीमसार की तीर्थ यात्रा करने. तय करनी है कोसों की दुरी लग सकते दिन महीने और साल भी. जी हां ये कोई कहानी नहीं मातृपितृ भक्त श्रवणकुमार की तरह इक्कीसवर्षीय की मानी प्रतिज्ञा का जीता जागता उदाहरण है जो अभी कुछ दिन पहले बरेली में देखने को मिला. उसके साथ इस यात्रा में उसकी पत्नी भी है.
सीतापुर जिले के परसेंडी चांदपुर का रहनेवाला वीरेन्द्र आज की चकाचौंधभरी ज़िन्दगी से एकदम अलग है. अपने पिता की तीन सन्तानों में वीरेन्द्र सबसे छोटा है. दो बड़ी बहनों का विवाह करने के बाद पिता स्वर्ग सिधार गए. घर की माली हालत भी एकदम ठीक नहीं है. कक्षा आठ तक की पढ़ाई करने के बाद अपने पिता का हाथ बंटाने को लखनऊ के राष्ट्रीय स्वरूप कोल्ड स्टोर में कच्चे केलों को पकाने का काम करने लगा. दो ढाई सौ रुपये रोज़ मिल जाते थे. पर मन में मां को लिए अपने हाथों से पिता की अस्थियों को हरिद्वार की गंगा मैया में विसर्जित करने की इच्छा बनी रही. गोला और नीमसार के दर्शन भी कराने थे अपनी मां को.
वह निकल पड़ा नवरात्रि के बाद ही उस कठिन यात्रा के लिए जिसे वह हर हाल में पूरा करने को वचनबद्ध है. वीरेन्द्र की इस अगाध निष्ठा के सामने उसकी पत्नी प्रीति तथा उसकी बड़ी बहन-बहनोई (सुनीता और वेदप्रकाश) अपने तीन साल के बेटे, एक ठेलीवान के साथ दानापानी लिए सेवक के रूप में निकल पड़े हैं. लगभग पांच किलोमीटर प्रतिदिन की यात्रा करने के बाद ये सारे किसी मन्दिर या सड़क के किनारे को अपना ठिकाना बनाकर तम्बू लगा लेते हैं पूछने पर उसने कहा कितने दिन, महीने या साल लग जाएं पर मां को तीर्थ यात्रा करा कर ही सांस लूंगा.
9 comments:
fir ham kyo na kahe, BHARAT MAHAN HE.
hamara desh aour hamari sanskrati ko aaghaat koi nahi pahucha sakta, ynha dharm, sanskaar,prem, bhakti, seva, samarpan..sab to he../ lup nahi ho sakta. sanaatan jo hota he, vo aakhir kese mit sakataa he.
achhi riportaz.
प्रणाम्
Rare in our time, that's why it touches the heart and persuades one to do some soul-searching.
माता-पिता की सेवा से बढ़कर इस संसार में और दूसरा नेक काम कौन-सा है? भाई वीरेन्द्र के जज्बे और हौसले को प्रणाम!
तर्क और विज्ञान का निषेध करने वाली भावना को कम से कम मैं सलाम नहीं करूंगा। अरे वह मां कितनी क्रूर है और वे सज्जन लगता है कि सेल्फ ग्लोरिफिकेशन के मारे हुए हैं। पितृ सत्तात्मक समाज की इस तरह की मान्यताओं को चुनौती देना चाहिए न कि उसका महिमामंडन। ये सज्जन अपने समय और श्रम का समाज के हित में बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं, इस तरह के पागलपन की जगह और इस तरह के परम मूर्ख पुत्र को जन्म देने वाली वह घामड़ औरत किस हद तक क्रूर और आत्मग्रस्त होगी यह सोचकर मैं सिहर उठा हूं।
यार आप मुझे जी भरकर कोस लो लेकिन यह मुझे एक सनक से ज़्यादा कुछ नहीं लगता।
इसकी आधी मेहनत में बस/ट्रेन से तीरथ कराया जा सकता था। इस मशक़्कत में बच्चों की पढ़ाई का कितना नुक्सान होगा!
Ashokji se sahmat.
vapas pahiye se bhee pahale ke yug mein nahee jaayaa ja saktaa hai.
bevkoofee/sansaneekhej se jyadaa kuchh nahi hai.
ye soch talibaani soch or andh vishwas ka bhai hai. akhir talibani soch bhi to yahi kahti hai ki poorani kahaniyon ka sabdashah palan karo bina uske vastawik uddesya ko samajhe......
:)
Post a Comment