Thursday, January 21, 2010
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो - नज़ीर अकबराबादी
आलम में जब बहार की लगन्त हो
दिल को नहीं लगन ही मजे की लगन्त हो
महबूब दिलबरों से निगह की लड़न्त हो
इशरत हो सुख हो ऐश हो और जी निश्चिंत हो
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो
अव्वल तो जाफरां से मकां जर्द जर्द हो
सहरा ओ बागो अहले जहां जर्द जर्द हो
जोड़े बसंतियों से निहां जर्द जर्द हो
इकदम तो सब जमीनो जमां जर्द जर्द हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
मैदां हो सब्ज साफ चमकती रेत हो
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
ऑंखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग
महबूब दुलबदन हों खिंचे हो बगल में तंग
बजते हों ताल ढोलक व सारंगी और मुंहचंग
चलते हों जाम ऐश के होते हों रंग रंग
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
चारों तरफ से ऐशो तरब के निशान हों
सुथरे बिछे हों फर्श धरे हार पान हों
बैठे हुए बगल में कई आह जान हों
पर्दे पड़े हों जर्द सुनहरी मकान हों
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो
कसरत से तायफो की मची हो उलटपुलट
चोली किसी की मसकी हो अंगिया रही हो कट
बैठे हों बनके नाजनी पारियों के गट के गट
जाते हों दौड़-दौड़ गले से लिपट-लिपट
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह
जो बाल भी जर्द चमके हो कज कुलाह
पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह-वाह
इसमें मियां 'नज़ीर' भी पीते हों वाह-वाह
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो
Labels:
नज़ीर अकबराबादी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
8 comments:
नज़ीर आख़िर नज़ीर हैं.
अलग तीखे और अपनी रौ में बहते.
धन्यवाद.
अतिसुन्दर...
maja aa gaya padhkar ,,,,
नज़िर तो घर बार भी बिकवा दे ...तो कम है..
जिस ऐश के खयाली सफ़र पे भाई जान ले चले है..
अब क्या बोले..
और लाओ....और लाओ...और लाओ...
:-)
main bhi yahi kahna chahunga ki mazaa aa gaya padhkar
ठीक ही है, नज़ीर के ज़माने में बसंत कुछ इसी तरह का जादू चलाता होगा। तब ग्लोबल वॉर्मिंग नहीं थी न ! सब कह रहे हैं, बसंत ने दस्तक दे दी, लेकिन हम तो दस्तक के जवाब में दरवाज़ा खोलते हैं, तो मुआ कोहरा खड़ा मिलता है।
मदमाती हुई सरसों-सा दिग-दिगंत हो
हम चाहते हैं कि आज भी ऐसा बसंत हो!
नज़ीर बाबा की जय!
क्या बात है. कहाँ से जुगाड़ करते हैं भाई ये सब. मस्त किया.
Post a Comment